@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Security
Security लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Security लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा में नाकाम क्यों रहती हैं?

जून माह की 20 तारीख को बंगाल की खाड़ी से चले मानसूनी बादल हाड़ौती की धरती पर पहुँचे और बरसात होने लगी। कई वर्षों से बंगाल की खाड़ी से चले ये बादल इस क्षेत्र तक पहुँच ही नहीं रहे थे। नतीजा ये हो रहा था कि वर्षा के लिए जुलाई के तीसरे सप्ताह तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। पहली ही बरसात से धरती के भीतर बने अपने घरों को छोड़ कर कीट-पतंगे बाहर निकल आए और रात्रि को रोशनियों पर मंडराने लगे। रात को एक-दो या अधिक बार बिजली का गुल होना जरूरी सा हो गया। उत्तमार्ध शोभा ने अगले ही दिन से पोर्च की बिजली जलानी बंद कर दी। रात्रि का भोजन जो हमेशा लगभग आठ-नौ बजे बन कर तैयार होता था, दिन की रोशनी ढलने के पहले बनने लगा। अब आदत तो रात को आठ-नौ बजे भोजन करने की थी, तब तक भोजन ठण्डा हो जाता था। मैं ने बचपन में अपने बुजुर्गों को देखा था जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चातुर्मास में  ब्यालू करते थे, अर्थात रात्रि भोजन बंद कर देते थे। अधिकांश जैन धर्मावलंबी भी चातुर्मास में रात्रि भोजन बंद कर देते हैं। कई ऐसे हैं जिन्हों ने जीवन भर के लिए यह व्रत ले रखा है कि वे रात्रि भोजन न करेंगे। कई जैन तो ऐसे भी हैं जो रात्रि को जल भी ग्रहण नहीं करते। मेरा भी यह विचार बना कि मैं भी क्यों न रात्रि भोजन बन्द कर दूँ, कम  से कम चातुर्मास  के लिए ही। देखते हैं इस का स्वास्थ्य पर कैसा असर होता है? चातुर्मास 11 जुलाई से आरंभ होना था, मैं ने 6 जुलाई से ही अभ्यास करना आरंभ कर दिया। अभ्यास का यह क्रम केवल 9 जुलाई को एक विवाह समारोह में टूटा। वहाँ घोषित रूप से भोजन साँय 7 बजे आरंभ होना था पर हुआ साढ़े आठ बजे। 11 जुलाई से यह क्रम बदस्तूर जारी है। सोच लिया है कि किसी जब रोशनी में भोजन न मिल पायेगा तो अगले दिन ही किया जाएगा। स्वास्थ्य पर इस नियम का क्या असर होता है यह तो चातुर्मास पूर्ण होने पर ही पता लगेगा।

ल संध्या भोजन कर के उठा ही था कि टेलीविजन ने मुम्बई में विस्फोटों का समाचार दिया। मुम्बई पर पिछले आतंकवादी हमले को तीन वर्ष भी नहीं  हुए हैं कि इन विस्फोटों ने उन घावों को फिर से हरा कर दिया। मुम्बई से बहुत करीबी रिश्ता रहा है। तेंतीस वर्ष पहले मैं मुम्बई में बस जाना चाहता था। गया भी था, लेकिन महानगर रास नहीं आने से लौट आया। फिर ढाई वर्ष बेटी मुम्बई में रही।  पिछले आतंकवादी हमले के समय वह वहीं थी। अब बेटा वहाँ है। यह सोच कर कि बेटा अभी काम पर होगा और कुछ ही देर में घर से निकलेगा। उसे विस्फोटों की खबर दे दी जाए। उस से बात हुई तो पता लगा उसे जानकारी हो चुकी है। फिर परिचितों और संबंधियों के फोन आने लगे पता करने के लिए कि बेटा ठीक तो है न। 

मुम्बई पर पिछले वर्षों में अनेक आतंकवादी हमले हुए हैं। न जाने कितनी जानें गई हैं। कितने ही अपाहिज हुए हैं और कितने ही अनाथ। सरकार उन्हें कुछ सहायता देती है। सहायता मिलने के पहले ही मुम्बई चल निकलती है। लोग आशा करने लगते हैं कि इस बार सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करेगी जिस से मुम्बई को ये दिन न देखने पड़ें। कुछ दिन, कुछ माह निकलते हैं। कुछ नहीं होता है तो सरकारें दावे करने लगती हैं कि उन का सुरक्षा इंतजाम अच्छा हो गया है। लेकिन जब कुछ होता है तो इन इन्तजामात की पोल खुल जाती है। फिर जिस तरह के बयान सरकारी लोगों के आते हैं। वे जनता में और क्षोभ उत्पन्न करते हैं। तब और भी निराशा हाथ लगती है जब सत्ताधारी दल के युवा नेता जिसे अगला प्रधानमंत्री कहा जा रहा है यह कहता है कि सभी हमले नहीं रोके जा सकते। प्रश्न यह भी खड़ा हो जाता है कि आखिर सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा करने में नाकाम क्यों हो जाती हैं?

क्यों नहीं सारे हमले रोके जा सकते? मुझे तो उस का एक ही कारण नजर आता है। जनता के सक्रिय सहयोग के बिना यह संभव नहीं है।  लेकिन जनता और प्रशासन के बीच सहयोग तब संभव है जब कि पहले सरकारी ऐजेंसियों के बीच पर्याप्त सहयोग औऱ तालमेल हो और सरकार को जनता पर व जनता को सरकार पर विश्वास हो। लेकिन न तो जनता सरकार पर विश्वास करती है औऱ न ही सरकारें जनता के नजदीक हैं। हमारी सरकारें पिछले कुछ दशकों में जनता से इतना दूर चली गई हैं कि वे ये भरोसा कर ही नहीं सकतीं कि वे सारे आतंकवादी हमलों को रोक सकती है और जनता को संपूर्ण सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। सरकारी दलों का रिश्ता जनता से केवल वोट प्राप्त करने भर का रह गया है। यह जनता खुद भली तरह जानती है और इसी कारण से वह सरकारों पर विश्वास नहीं करती।  

लेकिन इस का  हल क्या है? इस का हल एक ही है, जनता को अपने स्तर पर संगठित होना पड़ेगा। गली, मोहल्लों, बाजारों और कार्य स्थलों पर जनता के संगठन खड़े करने होंगे और संगठनों के माध्यम से मुहिम चला कर प्रत्येक व्यक्ति को  निरंतर सतर्क रहने की आदत डालनी होगी। तभी इस तरह के हमलों को रोका जा सकता है।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नक्सलवाद से निपटने का चिदम्बरम बाबू का नया फार्मूला

चिदम्बरम् बाबू ने फिर कहा है कि वे तीन साल में नक्सलवाद पर काबू पाएंगे। लेकिन कैसे? इस के खुलासे में उन्हों ने अपना नया फार्मूला पेश किया है वह बिलकुल दिलासा देने काबिल नहीं है। उन का कहना है कि वे विकास और सुरक्षा उपायों के माध्यम से इस पर काबू पाएंगे। 'विकास' और 'सुरक्षा ' इन दो शब्दों का अर्थ चिदम्बरम बाबू के लिए कुछ हो सकता है और जनता के लिए कुछ। यह भी हो सकता है कि नक्सलवादियों के लिए उस का अर्थ कुछ और हो। 
म जनता तो सुरक्षा के नाम पर नगरों और कस्बों में कायम 'आरक्षी केन्द्रों' को जानती है। उन में तैनात पुलिस तो जनता की सुरक्षा कर नहीं पाती अपितु कहीं अकेले में कोई व्यक्ति किसी पुलिस वाले के पल्ले पड़ जाए तो खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। पिछले दिनों मेरे स्वयं के पास कुछ मामले ऐसे आए हैं जहाँ पुलिस ने सुरक्षा करने के स्थान पर जनता की सुरक्षा की भावना को पलीता लगा दिया। किसी मोटर सायकिल वाले का चालान किया गया। उस के पास जुर्माना भरने को पैसा नहीं था तो उस की बाइक ही जब्त कर ली गई। अदालत से उसे वापस पाने का आदेश लेकर जब वह बाइक लेने 'आरक्षी केंद्र' पहुँचा तो पता लगा कि उस की मोटर सायकिल का छह महिने पहले डलवाया गया नया टायर एक पुराने और घिसे हुए टायर से बदल दिया गया है। पुलिस टायर बदलने का इल्जाम लगा कर उसे कोई आफत तो मोल लेनी नहीं थी। जब टायर बदलवाने बाजार पहुँचा तो उसे पता लगा कि छह महिने में टायर की कीमत में 80 % का इजाफा हो चुका है। जो टायर पहले 800 रुपए का था अब 1500 रुपये में मिल रहा था। ऐसी ही एक घटना का कोई बीस बरस पहले मैं खुद शिकार हो चुका हूँ। गलती से मेरी मोपेड को टक्कर मारने वाले के विरुद्ध मैं ने रिपोर्ट दर्ज करवा दी। मेरी मोपेड को मुआयने के लिए जब्त किया गया। बताया गया कि टेक्नीकल रिपोर्ट लिखने वाले को सौ-पचास देना बनता है। मैं ने नहीं दिया। नतीजे में अदालत के आदेश से जब मोपेड वापस ले ने पहुँचा तो आधी टंकी पेट्रोल होने के बाद भी वह स्टार्ट नहीं हुई। मिस्त्री को दिखाने पर पता लगा कि उस में पेट्रोल की जगह पानी भरा हुआ था। अब चिदम्बरम बाबू इस पुलिस के भरोसे कैसे अपना सुरक्षा तंत्र चलाएँगे? ये तो वही बता सकते हैं। 
हाँ तक बात विकास की है, जनता अब तक विकास के नाम पर सिर्फ सड़कें देखती आई है। जो चुनावों के ठीक पहले चमचमाती हैं और सरकारें बनने के बाद उन के उखड़ने का सिलसिला तुरंत शुरू हो जाता है। इस के अलावा जनता तमाम नेताओं और उन के कुनबे को फलता फूलता देखती है। दूसरी और जनता का जीवन और दूभर होता जाता है। पिछले दिनों महंगाई ने जो कमर तोड़ी है उस के सीधे होने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते। उस पर शरद पंवार जैसे बयान-बाज के बयान दुखते नंगे घावों पर नमक और छिड़क जाते हैं। चिदम्बरम बाबू किस विकास के माध्यम से नक्सलवाद की हवा खिसकाना चाहते हैं? जरा उसे परिभाषित तो कर दें। 
क्सलवाद आज जंगलों में अपनी जड़ें जमाए बैठा है। उस की वजह है  कि जंगलों की आबादी को उन्हीं जंगलों में बेशकीमती खनिजों का खनन करने वालों ने उजाड़ा है, बरबाद और बेइज्जत किया है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का तो मुझे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है लेकिन इतना जानता हूँ कि राजस्थान के गिने चुने जंगलों में जितनी खानें सरकारी कागजों में दिखाई गई हैं उस से संख्या में दुगनी से भी अधिक खानें वास्तव में चल रही हैं। वन नष्ट हो रहे हैं। उन के साथ ही वनवासी और उन का जीवन नष्ट हो रहा है। यह नक्सलवादी प्रचार कि सरकार जंगलों को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है, जनता को सच लगता है। क्यों नहीं चिदम्बरम बाबू इस का जवाब इस तरह देते कि जंगलों में कोई भी नया खनन तब तक नहीं होगा जब तक उस इलाके के वनवासी उस से सहमत नहीं होते। पुराने खनन क्षेत्रों की जाँच की जाएगी और यदि यह पाया गया कि इस से वन और वनवासी जीवन को हानि पहुंच रही है तो उसे रोक दिया जाएगा। चिदंबरम बाबू आप घोषणा करें और इस ओर पहला कदम उठा कर तो देखें। और फिर उस का चमत्कार देखें। पर आप कैसे ऐसा कर पाएंगे? किया तो अपने आकाओं को क्या मुहँ दिखाएँगे?