@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Rain
Rain लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Rain लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 24 अप्रैल 2016

ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?


मारे गाँवों में बस्ती के नजदीक खलिहान होते थे। फसल काट कर लाने और तैयार करने के वक्त सिवा यही खलिहान दूसरे दूसरे कामों में आते थे। मसलन, बच्चों के खेलने की जगह और शादी-मुंडन वगैरा समारोहों के लिए। हर गाँव में चरागाह हुआ करती थी मवेशियों को चरने के लिए। इस के अलावा पगडंडियाँ और बैलगाड़ियों के चलने के लिए गडारें हुआ करती थीं। हर गाँव के पास कम से कम अपना एक तालाब, कुछ तलैयाँ और पोखर हुआ करते थे।


इन में से अधिकांश अब सिरे से गायब हैं। खलिहानों तक गाँव पसर चुके हैं, वहाँ बढ़ती आबादी के लिए घर बन गए हैं। चरागाह पर खेतीहरों ने कब्जे कर लिए हैं। तालाब हाँक दिए गए हैं, तैलायाएँ पाट दी गयी हैं, वे या तो खेतों में शामिल हैं या फिर उन पर निर्माण हो चुके हैं। अधिकांश पगडंडियाँ गायब हैं और गडारें भी ज्यादातर खेतों में शामिल हो गयी हैं। अब खाली जगह कहीं नहीं।


तालाब, तलैयाएँ और पोखर बरसात के पानी को जमा करते थे। जो साल में कभी दस माह तो कभी बारह माह तक काम आता था। इस के अलावा इन से भूगर्भ भी चार्ज होता रहता था और वातावरण में नमी रहती थी। भूगर्भीय जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए अथवा तब होता था जब तालाब, तलैयाएँ और पोखर पूरी तरह सूख जाते थे। इन सब के साथ साथ पेड़ भी गायब हुए हैं। कोई अब अपने खेत की मेढ़ पर पेड़ को रहने नहीं देता, जहाँ छाया पड़ती है वहाँ फसल कम होती है या नहीं होती।


अब हमारे पास ट्यूबवेल हैं। घरों में भी और खेतों में भी। हम साल भर उन से पानी खींचते हैं, बरबाद करते हैं। धरती के पेट में पानी असीमित नहीं है। वह नीचे जाता जाता है और अंततः हमें सूखा पेट मिलता है। गर्मियाँ बाद में शुरू होती हैं हैण्डपंप पहले बजने लगते हैं।


पानी कहीं जाता नहीं है। वह जमीन में रहता है, हवा में उड़ जाता है या नदियों से बह कर समंदर तक पहुँच जाता है। एक बरसात की प्रक्रिया है जो इस सारे पानी का आसवन करती है। समंदर के पता नहीं क्या क्या मिले पानी को सूरज की गर्मी के सहारे हवा सोखती है और नम हो कर धरती पर घूम घूम कर बरसात कराती है।


हवा की बरसात कराने की क्षमता भी सीमित है, पर इतनी सीमित भी नहीं कि वह धरती के बच्चों की जरूरत पूरी नहीं कर सके। बच्चे ही नालायक हों बरसात के पानी को साल भर सहेजने का उद्यम करने से बचते रहें, जो कुछ शैतान बच्चे हैं वे पहले तो सहेजने के साधन नष्ट करें, फिर धरती के पेट में जमा पानी पर कब्जा कर उस का बाजार लगा कर मुनाफा कमाएँ तो ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?

... दिनेशराय द्विवेदी

सोमवार, 27 जून 2011

वर्षा से हरियाई हाड़ौती

मेरा अपना हाड़ौती अंचल मनोरम है। बरसात में तो इस की छटा निराली होती है। कुछ दिन पूर्व एक समारोह में हाड़ौती के वरिष्ठ कवि, गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से भेंट हुई, मुझे उन्हें बस तक पहुँचाने का सुअवसर मिला। मार्ग में वार्तालाप के दौरान वे कहने लगे हाड़ौती शब्द हाड़ा राजपूतों के जन्म से पुराना है। वे वास्तव में चौहानवंशी हैं। हाड़ौती में बसी उन के वंशज हाड़ा कहलाए। इस तरह हाड़ा शब्द राष्ट्रीयता सूचक है। वे बताने लगे कि हाड़ौती शब्द की उत्पत्ति सरस्वती से हुई। स का उच्चारण ह होने पर सरस्वती हरह्वती हो जाती है। जो बोलने के लिहाज से हरवती और बाद में हरौती और फिर हाड़ौती हो जाता है। आर्य वंशज जब उत्तरी हमलों के दबाव से पंजाब से दक्षिण में खिसकने लगे तो मार्ग में राजस्थान का रेगिस्तान पड़ा और उस के बाद यह हाडौती अंचल। यहाँ उन्हें पारियात्र पर्वत से निकली चर्मणवती, सिंध, परवन, पारवती (देवी) और उन की सहायक नदियाँ दिखाई दीं, पर्वत और मैदान दोनों का समिश्रण देखने को मिला और उन्हों ने इसे सरस्वती का अंचल मान कर इसे उसी के नाम पर हाडौ़ती नाम दिया। हाडौती शब्द की उत्पत्ति का यह स्वरूप कितना सही है, मैं नहीं जानता, किन्तु तर्क संगत प्रतीत होता है। इस संबंध में शब्दों के यात्री अजित वडनेरकर या अन्य विद्वान अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। 

पिछले सोमवार से वर्षा ने इस हाडौ़ती अंचल में प्रवेश किया। बुध से शुक्र तक खूब मेघ खूब बरसे। अनेक वर्षों बाद आषाढ़ मास के पूर्वार्ध में इतनी वर्षा हुई कि सभी नदियाँ किनारों से ऊपर बहने लगीं। सारे प्रकृति हरिया गई। फिर वर्षा ने कुछ अवकाश लिया, पर मौसम अभी शीतल और नम बना हुआ है। मेघों ने सूर्य को ढका हुआ है। मंद मंद शीतल पवन बहती रहती है। आज सुबह मैं अदालत के लिए निकला तो मार्ग में दोनो और के सारे वृक्ष हरिया गए थे। पिछले सोमवार से पहले दिखाई देने वाला पीला रंग कनेर के पुष्पों और अमलतास के बचे खुचे पुष्पगुच्छों तक सीमित हो चुका था। प्रथम वर्षा कितनी जीवनदायिनी हो सकती है हरियाई प्रकृति से पता लगता है। लोग शनि-रवि को लोग नगर त्याग कर आस-पास बह निकली जलधाराओं के किनारे जा पहुँचे। वहीं उन्हों ने भोजन बना कर आमोद के साथ इस प्रकृति उत्सव का आरंभ कर डाला। यह प्रकृति उत्सव अभी दो माह भादौं के उत्तरार्ध तक चलना है। इस बीच कुछ वृद्ध वृक्ष धराशाई हो गए, आषाढ़ के उत्तरार्ध से वर्षारंभ मानने से चल रहे विवाह समारोहों में बाधा पड़ी, बस पुलिया से नाले में खिसक गई और एक नई दुलहिन को नदी पार कराने को जो व्यवस्था करनी पड़ी आप इन चित्रों में देख सकते हैं -

अचानक तेज वर्षा में यातायात

वर्षा के थपेड़े से गिरा एक बुजुर्ग वृक्ष
चालक ध्यान नहीं रख पाया बस का पहिया पुलिया से नीचे चला गया, बचे 60 यात्री

हवा भरी ट्यूब, उस पर चारपाई, चारपाई पर नई ब्याही दुलहिन और उस के कपड़ों की गठरी को पार कराई गई नदी
 

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’

ज सुबह 7.07 बजे सावन का महिना आरंभ हो गया। सुबह सुबह इतनी उमस थी कि जैसे ही कूलर की हवा छोड़ी कि पसीने में नहा गए। लगा आज तो बारिश हो कर रहेगी। इंटरनेट पर मौसम का हाल जाना तो पता लगा 11 बजे बाद कभी भी बारिश हो सकती है। तभी बाहर बूंदाबांदी आरंभ हो गई। धीरे-धीरे बढ़ती गई। फिर कुछ देर बंद हुई तो मैं तैयार हो कर अदालत पहुँचा। बरसात एक अदालत से दूसरी में जाने में बाधा बन रही थी। लेकिन बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आई इस बरसात में भीगने से किसे परहेज था। भीगते हुए ही मैं चला अपने ठिकाने से अदालत को। चमड़े के नए जूतों के भीगने की परवाह किए बिना पानी को किसी तरह लांघते गंतव्य पर पहुँचा। आज अधिकतर काम एक ही अदालत में थे। दोपहर के अवकाश तक लगभग सभी कामों से निवृत्त हो लिया। हर कोई सारी पीड़ाएँ भूल खुश था कि बरसात हुई। गर्मी कुछ तो कम होगी। कूलरों से मुक्ति मिलेगी। चाय-पीने को बैठे तो बरसात तेज हो गई। पुलिस अधीक्षक के दफ्तर के बाहर पानी भर गया। हमने एक तस्वीर ले ली।   
ज पहली बरसात हुई है। कल गुरु-पूर्णिमा पर परंपरागत रीति से वायु परीक्षण किया गया। नतीजा अखबारों में था कि अगले चार माह बरसात होती रहेगी। बरसात के चार माह बहुत होते हैं। इस पूर्वानुमान के सही निकलने पर हो सकता था कि बहुतों को बहुत हानि हो सकती थी। पर फिर भी हर कोई यह चाह रहा था कि यह सही निकले। कम से कम पानी की कमी तो पूरी हो। प्यासे की जब तक प्यास नहीं बुझती, वह पानी के भयावह परिणामों को नहीं देखता।  शाम को बरसात रुकी, लोग बाहर निकले। यह सुखद था, लेकिन लोग इस सुख को नहीं चाहते थे। उन का मन तो अभी भी सूखा था। इस बार शायद जब तक उस से आजिज न आ जाएँ तब तक उसे भीगना भी नहीं है। मैं ने अभी शाम को फिर मौसम की तस्वीर देखी। बादल अभी आस पास हैं। यदि उत्तर पश्चिम की हवा चल निकली तो रात को या सुबह तक फिर घनी बरसात हो सकती है। चित्र में गुलाबी रंग के बादल सब से घने, सुर्ख उस से कम, पीले उस से कम और नीले उस से भी कम घने हैं। उस से कम वाला सलेटी रंग तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं भी चाहता हूँ कि कम से कम यह सप्ताह जो बरसात से आरंभ हुआ है। बरसातमय ही रहे।
ल महेन्द्र नेह के चूरू में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट में जर्मनी में रह रहे राज भाटिया जी की टिप्पणी थी .....

महेन्द्र नेह जी से एक बार मिलने का दिल है, बहुत कवितायें पढी आप के जरिये, और आज का लेख और जानकारी पढ कर बहुत अच्छा लगा, कभी समय मिले तो यह गजल जरुर अपने किसी लेख में लिखॆ....
‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ जिस गजल की पहली लाईन इतनी सुंदर है वो गजल कैसी होगी!!!
धन्यवाद आप का ओर महेंद्र जी का.....

तो भाटिया जी, इंतजार किस बात का? महेन्द्र जी ने आप की फरमाइश पर यह ग़ज़ल मुझे फोन पर ही सुना डाली। वैसे यह ग़ज़ल का पहला नहीं आखिरी शेर था। आप भी इसे पढ़िए ......

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
  • महेन्द्र 'नेह' 

जान मुश्किल में आ गई होगी
एक दहशत सी छा गई होगी

भेड़ियों की जमात जंगल से
घुस के बस्ती में आ गई होगी

सुर्ख फूलों को रोंदने की खबर
कोई तितली सुना गई होगी

उन की आँखों से टपकती नफरत
हम को भी कुछ सिखा गई होगी

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
बाज से तंग आ गई होगी
राज भाटिया जी! 
अगली भारत यात्रा में कोटा आने का तय कर लीजिए। महेन्द्र नेह के साथ-साथ शिवराम, पुरुषोत्तम 'यकीन' और भी न जाने कितने नगीनों से आप की भेंट करवाएंगे।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

बरसात की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है

यूँ तो इधर कोटा में एकाध बरसात मई में भी हो लेती है, फिर एकाध जून को उत्तरार्ध में भी हो ही जाती है। 15 से 20 जून के बीच तो बरसात बाकायदे आ धमकती है और जुलाई के महिने में तो अपना अड्डा जमा चुकी होती है। मुझे पता है कि मेरे एक चचेरे भाई का ब्याह 29 जून का था भोपाल बारात जानी थी। एक दिन पहले ही बरसात हुई थी। बारात के रास्ते में सारी नदियाँ या तो पुल पर चढ़ चुकी थीं या चढ़ने को तैयार थीं। शादी के दिन दिन भर बरसात होती रही। बारात के दुल्हन के घर तक जाने वाला जलूस भी बरसते पानी में ही निकाला जा सका था। वापसी में भी हम बरसात का सुहाना नजारा देखते हुए ही लौटे थे। उस बात को अठारह-बीस बरस हो चुके हैं। उस के बाद तो मैं बाकायदा जून में मध्यप्रदेश की ओर भागने की फिराक में रहता। जिस से बरसात का आनंद कुछ जल्दी लिया जा  सके। ऐसा शायद ही किसी साल हुआ हो कि जुलाई का महिना पूरा निकलने वाला हो और नदियों में नया पानी न आया हो और पूरी तरह सूख चुकी नदियाँ बहने न लगी हों। खेत सूखे पड़े हों और उन के आसपास के गड्ढे अभी प्यासे हों। आधे से अधिक खेतों में बुआई न हुई हो। आधे खेतों में बुआई हुई भी है तो उन की आवश्यक सिंचाई के चलते भू-गर्भिक जल का स्तर तेजी से गिर रहा हो। जिन दिनों में सब मर्सिबल मोटरों को ऊपर उठाया जाता हो उन दिनों उन्हें नीचे उतारना पड़ रहा हो।
स साल ऐसा ही है। कोटा नगर में अभी तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई है जिसे हम बरसात की संज्ञा दे सकें। न गड्ढे भरे, न नालों में मटमैला बरसाती पानी बहता दिखाई दिया। अभी तक वही बदबूदार काले रंग का नगर का मैला ले जाने वाला पानी ही उन में बह रहा है। अभी तक ठेकेदार प्रसन्न हैं कि उन की बनाई सड़कों की पोल खुलने लायक कुछ भी नहीं हुआ है। कोटा नगर ही नहीं कोटा से पचास-पचास किलोमीटर तक ऐसा ही है। मेरे एक सहायक वकील नन्दलाल जी पुश्तैनी किसान भी हैं। अपनी जमीन के दस बीघे में इस साल वे धान करना चाह रहे थे। उस के लिए नर्सरी में पौध भी तैयार कर चुके थे। लेकिन धान केवल भूगर्भिक जल के भरोसे तो नहीं की जा सकती है। उन्हों ने धान का रकबा कम कर के आधा कर दिया। आधी जमीन में तिल्ली फैंक दी। तिल्ली सूखे की फसल है। पानी के बिना भी उग आती है। खर्चा भी कुछ नहीं है। कम से कम नुकसान से तो बचेंगे। आधा रकबा जो धान के लिए छोड़ दिया गया है। सप्ताह भर यही हाल रहा तो वे इस में भी धान नहीं कर पाएँगे। आधी जमीनें बिना बोई छूट गई हैं। आधी में जो फसलें हैं उन से किसी तरह की कोई आशा नहीं है।
गाँव-गाँव में घास भैरूजी घसीटे जा रहे हैं। समस्या ये आ रही है कि वे लकड़ी की बनी तिपाई पर घसीटे जाते हैं। जहाँ अटक गए वहीं उन्हें खींचने के लिए नए बैलों की जोड़ियाँ जोड़ी जाती थीं। लेकिन गाँव तो बैलों की जोड़ियों से हीन हो चुके हैं। ट्रेक्टर हैं जिन की शक्ति के सामने भैरूजी क्या चीज हैं। फट्ट से घसीट कर पहुँचा दिए जा रहे हैं थान तक। अब समस्या ये भी है कि न तो माताजी पर भाव आ रहा है और न भैरूजी पर जो बताते थे कि पानी का क्या होगा और किसानी का साल कैसा रहेगा? भोली जनता के हाथों से मैंढ़की के ब्याह जैसे अंधविश्वास और टोटके छिन गए हैं।  बरसात के अभाव में मैंढ़की टर्रा भी नहीं रही है। उसे कैसे हासिल करें? किस का करें ब्याह। जनता नए टोटके ईजाद कर रही है। गाँव की औरतों ने खेत जोतने जा रहे ट्रेक्टर चालक से ट्रेक्टर छीन लिया, चालक को हटा कर उस के हाथ पैर बांध कर एक ओर पटक दिया और खुद ट्रेक्टर चला कर खेत में ले गई और खेत जा हाँका। इस से यह अहसास तो उन्हों ने जरूर करा दिया कि कभी खेती का आरंभ करने वाली वे ही थीं। लेकिन इस से बरसात कराने वाले सिस्टम पर जरा भी असर नहीं हुआ। पानी नहीं बरस रहा है तो नहीं ही बरस रहा है। 
क दिन जोरों की घटा छाई अंधेरा होने लगा। लेकिन तभी हवा चली और बादल उड़ चले। पता लगा कि बरसात कोई बीस किलोमीटर दूर हुई। नालों में पानी बहा जरूर पर रात भर में ही नाले फिर से सूख गए। तीस किलोमीटर दूर स्थित एक कस्बे में दो घंटों में दो इंच बरसात हो गई। लेकिन बाकी इलाका सूखा पड़ा है। कुल मिला कर जुलाई के महिना भी बरसात के लिए तरसते बीत रहा है। लोग कहते हैं यह पाप  बहुत बढ़ जाने का नतीजा है। लेकिन पापी हैं कि फिर भी पाप छोड़ने को तैयार नहीं हैं। अकाल की छाया चक्कर काटने लगी है। जन-जन उस की आशंका से भयभीत है। व्यापारी और जमाखोर अपने कर्तव्य निष्पादन में प्राण-प्रण से जुटे हैं। किसी भी तरह माल भर लें जिस से वक्त पर मनमाने दाम वसूल किए जा सकें। कमोबेश पूरे राजस्थान के ऐसे ही हालात हैं। लेकिन अभी तक राजस्थान की सरकार इस आशा में है कि पानी बेवक्त ही सही बरस ही जाएगा। अकाल से निपटने की कोई तैयारी नजर नहीं आती। अभी तक तो मुख्य मंत्री तो क्या किसी प्यादे ने भी यह नहीं कहा है कि अकाल पड़ा तो जनता को घबराने की जरूरत नहीं है।  
नता में यह चर्चा बड़े जोरों पर है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ही अपशकुनी हैं। जब-जब भी मुख्य मंत्री बनते हैं, बरसात रूठ जाती है। यह चर्चा किसी राजनीति से प्रेरित नहीं है लेकिन संयोग ऐसा है कि चर्चित हो रही है। अब तो कांग्रेस के पास इस जन चर्चा से बचने का एक ही रास्ता है कि मुख्यमंत्री बदल दे। अब अल्पमत विपक्षी भाजपा तो इस चर्चा से तत्काल लाभ का सपना देख नहीं सकती। लेकिन अशोक गहलोत के प्रतिद्वंदी कांग्रेसियों के चेहरे पर यही जनचर्चा सुर्खी ला देती है। कहीं सोनिया तक यह चर्चा पहुँचे तो उन का ही भला हो। गहलोत हटें तो उन का चाँस लगे। ज्योतिषियों के बरासात के सारे पूर्वानुमान गलत सिद्ध हो चुके हैं, इतने कि इन दिनों नगर का कोई भी ज्योतिषी भविष्यवाणी करने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।  मैं हूँ कि दिन में तीन चार बार वेदर अंडरग्राउंड की साइट पर जा कर मौसम का पूर्वानुमान देख लेता हूँ। वहाँ पानी से भरपूर गुलाबी बादल दिखाई तो पड़ते हैं, लेकिन कहाँ जाते हैं यह पता नहीं लगता। पूर्वानुमान हर रोज बदल जाता है। बरसात होने की संभावना हर दिन आगे खिसक जाती है।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

आखिर मौसम बदल गया, चातुर्मास आरंभ हुआ

मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है।  पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं।  उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है।  कुछ देर में उस में से भाप निकलती है।  सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है।  पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।

पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा।  पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे।  दिन में तेज धूप निकलती रही।  हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे।  फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए?  साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए।  हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया।  नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा।  यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता ।  कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं।   वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।

तभी  खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम!  हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी।  पर फिर पुलिसिये बादल ही  आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए।  जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं।  पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी।  आसोज की धूप को भी लजा रही थी।  लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे।  आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती।  फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे।  हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?

कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई।  कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात  कुछ कम हुई तो  लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा।  लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया।  फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी।  अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे।  चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था।  उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए।  यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।

धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे।  अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई।  एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं।  मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ।  (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों।  वे  बरसात करने वाले नहीं हैं।  चांद रोशनी बिखेर रहा है।  पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है।  लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा।  साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है।  मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।



मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था।  देव आज से सोने जो चले गए हैं।  बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है।  चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे।  पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं।  उन में तो जाना ही पड़ेगा।  लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा।  मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ।  सोचा है पूरे  चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा।  देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।