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शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

सांख्य का सार

हम सांख्य को संक्षेप में इस तरह समझ सकते हैं-

1.  प्रलय की अवस्था में सारा पदार्थ, समस्त तत्व एक अपूर्वता (Singularity) में निहीत होता है।  इसे साँख्य प्रधान अथवा मूल प्रकृति कहता है।

2.  मूल प्रकृति के तीन आंतरिक अवयव सत्व, रजस् और तमस् होते हैं जिन्हें गुण कहा गया है। प्रलय की अवस्था में साम्य होने से मूल प्रकृति अचेतन प्रतीत होती है। लेकिन ये आंतरिक अवयव लगातार क्रियाशील रहते हैं केवल साम्य बनाए रखते हैं। तीनों अवयवों को सम्मिलित रूप से त्रिगुण कहा गया है और प्रकृति को त्रिगुण मय।

3.   त्रिगुणों द्वारा स्थापित साम्य के भंग होने से जगत का विकास आरंभ होता है।

4.   प्रकृति से अन्य 24 तत्वों की उत्पत्ति होती है। ये तत्व भी प्रकृति की भाँति त्रिगुणमय होते हैं।  किन्तु उन में किसी एक गुण की प्रधानता होती है, जिस से उन का चरित्र और कार्य निर्धारित होता है।

5.   प्रथमतः सत्व की प्रधानता वाले तत्व महत् की उत्पति होती है, जिसे बुद्धि भी कहा गया है। यह साँख्य का दूसरा तत्व है। यह प्रकृति से उत्पन्न होने से भौतिक है, लेकिन उस का रूप मानसिक और बौद्धिक है

6.   महत् से रजस् प्रधानता वाले तीसरे तत्व अर्थात अहंकार की उत्पत्ति हुई, जो स्वः की अनुभूति को प्रकट करता है। यह साँख्य का तीसरा तत्व है।

7.   अहंकार से तत्वों के दो समूह उत्पन्न होते हैं। सात्विक अहंकार से ग्यारह तत्वों का प्रथम समूह जिस में एक मनस या मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं।

8.   चौथा तत्व मन, बुद्धि से पृथक है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं।  साँख्य तत्व बुद्धि,  स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है।

9.   सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  1.श्रोत्र, 2.त्वक, 3.चक्षु, 4.रसन और 5.प्राण  हैं।

10. सात्विक अहंकार से ही उत्पन्न पाँच कर्मेन्द्रियाँ 1.वाक, 2.पाणि, 3.पाद, 4.पायु और 5.उपस्थ हैं। 

11. तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्मभूत 1.शब्द, 2.स्पर्श, 3.रूप, 4.रस और 5.गंध हैं। 

12.  इन पाँच तन्मात्राओं या सूक्ष्मभूतों से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत 1.आकाश 2.वायु 3.अग्नि 4.जल और 5.पृथ्वी हैं।
मूल साँख्य के ये 24 तत्व हैं।

13.  इस तरह प्रकृति से जगत का विकास होता है। विकास का अंतिम चरण पुनः प्रलय है। जब सभी 23 तत्वों में निहित त्रिगुण पुनः साम्यावस्था में पहुँच जाते हैं। पुनः प्रधान या मूल प्रकृति स्थापित हो जाती है। इस मूल प्रकृति में त्रिगुणों का साम्य भंग होने से पुनः एक नवीन जगत का विकास प्रारंभ हो जाता है।

14.  परवर्ती साँख्य वेदांत के प्रभाव से 25वें तत्व पुरुष को मानता है। जो वेदान्त की आत्मा के समान है। लेकिन यह वेदांत के ब्रह्म से भिन्न है। पुरुष अनेक हैं। प्रत्येक शरीर के लिए एक भिन्न पुरुष है। इस पुरुष की मुक्ति के लिए ही प्रकृति विकास करती है। पुरुष का कोई कार्य नहीं है। वह केवल दृष्टा है जो प्रकृति के विकास को देखता रहता है। प्रकृति उसे दिखाने के लिए ही विकास करती है।

15.  परवर्ती साँख्य भी किसी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। उस का मानना है कि ईश्वर को सिद्ध नहीं किया जा सकता, उस का कोई अस्तित्व नहीं है।

16. योग प्रणाली भी साँख्य का ही विस्तार है जो ईश्वर या ब्रह्म को 26 वाँ तत्व मानती है। उस का मानना है कि ब्रह्म या ईश्वर से मूल प्रकृति और पुरुष उत्पन्न होते हैं और फिर पुरुष की मुक्ति के लिए प्रकृति उसी भांति विकास करती है, जिस भांति दर्शकों के मनोरंजन के लिए एक नर्तकी नृत्य करती है।

17.  प्रकृति-परिणामवाद साँख्य का मूल सिद्धान्त है। उस का कथन है कि प्रकृति सत्य है, और उस का परिणाम यह जगत भी सत्य है।

18.  वेदांत का सिद्धांत ब्रह्म-विवर्तवाद है जिस का कथन यह है कि एक ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है, और मूल कारण ब्रह्म की विकृति है।
(समाप्त)


गुरुवार, 6 अगस्त 2009

जगत का विकास, प्रलय और पुनः जगत का विकास

साँख्य कारिका के पुरुष केवल अनुमान हैं। ईश्वर कृष्ण कहते हैं कि ये सब प्रकृति के तत्व हैं वे सब उपभोग के लिए हैं इस कारण भोक्ता जरूरी है। इसी से पुरुषों की सिद्धि होती है। इस से कमजोर प्रमाण पुरुषों की सिद्धि के लिए दिया जाना संभव नहीं है।  लेकिन साँख्य की जगत व्याख्या की जो विधि है उस में पुरुष किसी भी तरह से प्रासंगिक नहीं होने से कोई मजबूत साक्ष्य मिलना संभव नहीं था। यह साक्ष्य भी चेतन पुरुष को सिद्ध नहीं कर सका और साँख्य प्रणाली के अनुसार उसे एक से अनेक होना पड़ा, कारिकाकार को कहना पड़ा कि प्रत्येक शरीर के लिए एक अलग पुरुष है और बहुत से पुरुष हैं।  इन प्रमाणों से प्रतीत होता है कि पुरुष की उत्पत्ति शरीर से है। कुल मिला कर पुरुष प्रत्येक शरीर का गुण बन कर रह जाता है। वह शरीर के साथ अस्तित्व में आता है और मृत्यु के साथ ही उस की मुक्ति हो जाती है।  हम कारिका और उस के बाद के साँख्य ग्रन्थों में पुरुष की उपस्थिति पाते हैं। लेकिन सभी तरह के तर्क देने के उपरांत भी साँख्य पद्धति में पुरुष एक आयातित तत्व ही बना रहता है।
मेरा अपना मानना है कि साँख्य पद्धति ने उस काल में अपनी विवेचना से जगत की जो व्याख्या की थी वह सर्वाधिक तर्कपूर्ण थी,  उसे झुठलाया जाना संभव ही नहीं था।  इस कारण से प्रच्छन्न वेदांतियों ने सांख्य में पुरुष की अवधारणा को प्रवेश दिया और उसे एक भाववादी दर्शन घोषित करने के अपने उद्देश्य की पूर्ति की। कुछ भी हो, इस से साँख्य पद्धति का हित ही हुआ।  यदि यह भाववादी षडदर्शनों में सम्मिलित न होता तो इस की जानकारी और भी न्यून रह जाती।  फिर इस की केवल आलोचना ही देखने को मिलती।  प्रधान (मूल प्रकृति) को अव्यक्त कहा गया है। इस अव्यक्त के साथ एक और अव्यक्त माना जाना संभव नहीं है।  इस मूल प्रकृति से ही जगत का विकास होना तार्किक तरीके से समझाया गया है।  विकास के पूर्व की अवस्था को प्रलय की अवस्था कहा गया है जब केवल अव्यक्त प्रकृति होती है और उस के तीनों अवयवों के साम्य के कारण उस में आंतरिक गति होने पर भी वह अचेतन प्रतीत होती है।  सांख्य इसी तरह यह भी मानता है कि जगत का विकास तो होता ही है,  लेकिन उस का संकुचन भी होता है और यह जगत पुनः एक बार वापस प्रलय की अवस्था में आ जाता है और त्रिगुण साम्य की अवस्था हो जाने से संपूर्ण जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है। 
साँख्य की यह व्यवस्था केवल बिग बैंग जैसी नहीं है  जिस में बिग बैंग के उपरांत यह जगत लगातार विस्तार पा रहा है और उस का सम्पूर्ण पदार्थ एक दूसरे से दूर भाग रहा है।  आज वैज्ञानिकों ने श्याम विवरों (ब्लेक होल) की खोज कर ली है। इन श्याम विवरों में पदार्थ की गति इस सिद्धांत के विपरीत है। अर्थात इन की सीमा में कोई भी पदार्थ इन से दूर नहीं जा सकता यहाँ तक कि प्रकाश की एक किरण तक भी नहीं। हमारी नीहारिका के केंद्र में भी एक ऐसे ही ब्लेक होल की उपस्थिति देखी गई है। श्याम विवर जगत के संकुचन के सिद्धांत की पुष्टि करते है। साँख्य के इस सिद्धांत की  कि जगत पुनः प्रधान में परिवर्तित हो जाता है विज्ञान की नयी खोजें पुष्टि कर रही हैं।  प्रधान की अचेतन अवस्था को  ही साँख्य  में प्रलय की संज्ञा दी गई है और प्रधान से पुनः नए जगत के विकास की अवधारणा प्रस्तुत की गई है।

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

पुरुष बहुत्वम् : पुरूष अनेक हैं।

पिछले पाँच आलेखों में साँख्य के बारे में जो कुछ लिखा गया उस में पुरुष कहीं नहीं था।  वस्तुतः  अब तक साँख्य को कहीं भी पुरुष की आवश्यकता नहीं हुई।  वह साँख्य के चौबीस तत्वों में कहीं भी सम्मिलित नहीं है।  यदि अब उसे सांख्य में लाया जाए तो अब तक जो विकास का जो मॉडल सामने आया वह गड़बड़ा जाएगा। 'प्रधान' या 'मूल प्रकृति' से जगत के विकास क्रम में पुरुष की उपस्थिति पूरी तरह असंगत है। परवर्ती साँख्य में पुरुष ने उपस्थित हो कर ठीक यही किया। इस संबंध में देवीप्रसाद चटोपाध्याय लिखते हैं .....
'प्रकृति' के ठीक प्रतिकूल, साँख्य में 'पुरुष' की स्थिति गौण थी, यह 'अ-प्रधान' था।  इसे आम तौर पर उदासीन भी कहा जाता था।  पुरुष का यह उपनाम हमें 'ब्रह्मसूत्र' पर लिखे भाष्यों (शंकर) में मिलता है। याहँ तक कि 'कारिका' में भी इस उपनाम का प्रयोग हुआ है।  इस से हमारे मन में  यह संदेह उठ सकता है कि यदि ये पुरुष इस विश्व की सृष्टि की वास्तविक प्रक्रिया के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन थे और यदि पदार्थ मूल अविकसित पदार्थ से विकसित हो कर गोचर जगत बनने तक के विकासानुक्रम में इनकी कोई भूमिका नहीं थी तो फिर साँख्य के प्रतिपादकों को इस आत्मनिर्भर सत्य से अलग उन पुरुषों को मान्यता देने की आवश्यकता क्यों पड़ी।  वास्तविक परिस्थितियों में इन के लिए स्थान क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम देखेंगे, इस का कारण केवल इतना था कि कुछेक दार्शनिक, इस 'प्रधानवाद' में विसंगतिपूर्ण  स्थिति होने के बावजूद पुरुष के सिद्धांत को मान्यता देना चाहते थे। इस के पीछे कुछ और कारण भी थे। 
शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में लिखा......
"हम इन दोनों प्रणालियों (साँख्य और योग) के उन अंशों को सहर्ष स्वीकार करते हैं जो वेद विरुद्ध नहीं हैं।  उदाहरण के लिए उन्हों ने आत्मा (पुरुष) को सभी प्रकार के गुणों से मुक्त बता कर वेदों के अनुरूप विचार प्रस्तुत किए हैं।  वेदों में जीव (पुरुष) को मूलतः शुद्ध बताया गया है। उदाहरण के लिए 'वृहदोपनिषद'  ' क्यों कि इस जीव का किसी के साथ कोई संबंध नहीं है।'
शंकर की यह टिप्पणी जितनी दिखाई देती है उस से अधिक महत्वपूर्ण है। शंकर ने साँख्य की निंदा केवल इसलिए नहीं की थी कि वह वेदांत के विरुद्ध था बल्कि इसलिए भी की थी कि वह वेदांत के सच्चे अनुयायियों के उपदेशों के भी विरुद्ध था। तब फिर ऐसी प्रणाली में वेदांत के अनुरूप पुरुष के विवरण के लिए स्थान होना विचित्र बात थी। हाँ यह विचित्रता उस परिस्थिति में नहीं रहेगी जब कि यह मान लिया जाए कि वेदांत के अनुरूप आत्मा (पुरुष) के विवरण वाली बात साँख्य के बाद के प्रणेताओं ने ऐसे दार्शनिकों से ग्रहण की हो जो वास्तव में वेदांत के अनुयायी थे।  साँख्य कारिका के लेखक ईश्वरकृष्ण ने यही किया। वेदांत से उधार लिया गया पुरुष सिद्धांत साँख्य में ले आए जो साँख्य के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खा सका।

अब हम देखें कि कारिका में  पुरुष की स्थिति क्या है। साँख्य में  'पुरुष बहुत्वम'  कहा गया है अर्थात पुरुष अनेक हैं।साँख्य कारिका  के सूत्र-18 में कहा है.....
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च।
पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रेगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 18 ।।
 "चूँकि सब के लिए जनम, मरण और जीवन के साधन (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) अलग हैं क्योंकि सब के कार्य सर्वव्याप्त और एक ही समय नहीं होते और चूँकि सब के अलग-अलग गुण हैं, इस से प्रत्यक्ष है कि पुरुष अनेक हैं।"
साँख्य कारिका के पुरुष न केवल अनेक हैं अपितु प्रत्येक जीवधारी को एक पुरुष की संज्ञा दे दी गई है। यह आत्मा की विशिष्टता नहीं हो सकती। वह जन्मता है और मरता है जिस के शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हैं। यह आत्मा का तत्वमीमाँसीय दृष्टिकोण नहीं हो सकता,  और आत्मा के वेदांतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह भिन्न है।  सांख्य कारिका का  पुरुष साधारण भौतिक शरीर वाले व्यक्ति में परिवर्तित हो कर रह गया है। प्रत्येक पुरुष का कोई शरीर नहीं है। वे शरीर से संबद्ध नहीं। उन का शरीरों  की किसी भी गतिविधि में कोई योगदान नहीं है। व्यक्तियों के जीवन में जो कुछ हो रहा है, उन से वे पूरी तरह उदासीन हैं। उन की कोई भूमिका नहीं। वे व्यक्ति के जीवन के केवल साक्षी मात्र हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे या तो साँख्य में बिन बुलाए अतिथि हैं या फिर किसी खास उद्देश्य से उन का प्रवेश इस प्रणाली में कराया गया है। (जारी)


शनिवार, 1 अगस्त 2009

परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व 'पुरुष' का प्रवेश

हम ने पिछले आलेख में मूल साँख्य के 24 तत्वों के बारे में चर्चा की थी जो  1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ  15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व  हैं।

 बुद्धि और मन
यहाँ साँख्य में एक जैसे दो तत्व  दिखाई पड़ते हैं। एक बुद्धि या महत् और दूसरा मन या मस्तिष्क।  यह मन बुद्धि से पृथक तत्व है।  यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है।  साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं होगा। साँख्य तत्व बुद्धि स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है। 

 ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और महाभूत
सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ  श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसन और प्राण  हैं तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ हैं।  तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्र अथवा सूक्ष्म भूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध हैं। पाँच तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्मभूत से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या  महाभूत आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी हैं।

हम ने देखा कि अहंकार से सूक्ष्म और स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। स्थूल-भूत सूक्ष्म-भूतों के विभिन्न योगों से उत्पन्न होते हैं।  जैसे शब्द से आकाश का जन्म होता है, शब्द और स्पर्श के योग से वायु या मरूत, रूप से तेज या अग्नि और शब्द, स्पर्श, रूप और रस से जल की उत्पत्ति होती है। सभी पाँच सूक्ष्म भूतों से महाभूत क्षिति या पृथ्वी की उत्पत्ति होती है।

पुरुष
अब तक हम ने मूल साँख्य के बारे में जाना जो बुद्ध के काल तक जाना जाता था। इस में पुरुष तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित था। तब तक हम इसे एक भौतिकवादी दर्शन कह सकते हैं, जिस की आलोचना बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में की। शंकर और रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्यों में भौतिकवादी दर्शन के रूप में ही साँख्य को  अपनी आलोचना का केन्द्र बनाया।  लेकिन इस काल में भारत और लगभग संपूर्ण पूर्व एशिया के मानव समाजों और उन के राजनैतिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे, जो दर्शन पद्धतियों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकते थे। इन पूर्व एशियाई समाजों में अब तक गणपद्धति की राजनैतिक व्यवस्था हुआ करती थी, जो परिवारों, कुलों और गोत्रों के प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाती थी। अक्सर गणों की संपत्तियाँ सामूहिक होती थीं। उन का उपभोग गण के सदस्य आवश्यकतानुसार किया करते थे। यह एक तरह का बड़ा संयुक्त परिवार था। इस पद्धति में राजा नहीं हुआ करता था। गणाध्यक्ष या गणपति गण का प्रमुख होता था। लेकिन यह पद्धति कृषि के विकास को अवरुद्ध किए हुए थी।  विकास के लिए इस अवरोध का टूटना अवश्यंभावी था। वह टूटी, और गणों का स्थान राज्य लेने लगे।  इस से समाज में अनेक विकृतियाँ और उन के कारण क्षोभ उत्पन्न हुआ। सामूहिकता नष्ट हो रही थी जिस के प्रति आदर और मोह मौजूद था। इस सामुहिकता के प्रति आदर और मोह का संरक्षण बोद्धों ने एक अभिनव संगठन संघ के माध्यम से किया। यही कारण था कि उस वातावरण में बौद्ध संघ एक अल्पकाल में ही पूरे एशिया में फैल गए। 

गण-संघों के स्थान पर राज्यों की स्थापना दर्शनशास्त्र में एक ब्रह्म, एक ईश्वर और एक परम पुरुष की अवधारणा की आवश्यकता पर जोर दे रही थी इस का मूल वैदिक उपनिषदों में मौजूद था। साँख्य में इस के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन इस तरह की किसी अवधारणा के अभाव में साँख्य का  नए सामाजिक -राजनैतिक वातावरण में जीवित रहना ही दूभर था।  यही वह बिन्दु था जहाँ मूल साँख्य में पुरुष का प्रवेश हुआ जिस ने परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व के रुप में अपना स्थान बनाया।  लेकिन मूल साँख्य की पद्धति इतनी मजबूत और अभेद्य थी कि पुरुष ने उस में प्रवेश तो कर लिया, लेकिन उस के लिए वहाँ कोई भूमिका थी ही नहीं। वह साँख्य में प्रवेश के बाद भी परिवार में बाहरी अतिथि की तरह दर्शक मात्र ही  बना रहा। हम आगे परवर्ती साँख्य में पुरुष के बारे में चर्चा करेंगे।