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शनिवार, 21 मई 2011

अनाज अग्रिम (Food grain advance) कहाँ गया?

गेहूँ का उत्पादन इस वर्ष अच्छा हुआ है। मंडी में इतना गेहूँ आ रहा है कि रखने को स्थान नहीं है। नतीजा यह कि गेहूँ की कीमतें काबू  में हैं। इस से आम आदमी को कुछ राहत मिली है और महंगाई का आँकड़ा ऊपर न चढ़ने के कारण सरकार भी राहत में है। कुछ मायूसी है तो किसान को है कि उसे उतनी कीमत नहीं मिली जितनी मिलनी चाहिए थी। उस ने इस फसल की उम्मीद पर जितने सपने देखे थे उन में कुछ कसर रह गई। अब उसे उम्मीद है कि यदि खाद, बीज, कीटनाशक, बिजली और डीजल के दाम न बढ़ें तो उस की उत्पादन लागत न बढ़े। पर उस की यह उम्मीद फलती नजर नहीं आती। अधिकांश किसान तो अपनी फसल को सीधे मंडियों में या फिर खाद्य निगम के काँटों पर तुलवा कर नकदी बना रहे हैं। लेकिन कुछ छोटे और मध्यम किसान ऐसे भी हैं जो फसल  पर मेहनत कर के अनाज को साफ कर उसे ग्रेडिंग जैसा बना कर नगरों में ला कर सीधे उपभोक्ता को विक्रय कर रहे हैं। इस से दुतरफा लाभ है, किसान को कीमत कुछ अधिक मिल रही है और उपभोक्ता को कुछ कम देना पड़ रहा है। किसान खुद माल तौल रहा है तो तुलाई-भराई का पैसा भी बच रहा है। 
 
मने भी पिछले रविवार को साल भर के लिए गेहूँ खरीदा। कोटा जंक्शन क्षेत्र में रविवार को परंपरागत हाट लगता है। किसान अपनी गेहूँ से भरी ट्रॉलियाँ ले कर सुबह ही वहाँ पहुँच जाते हैं और उपभोक्ता भी। मुझे स्वयं तो गेहूँ कि पहचान नहीं इस लिए अपने कनिष्ठ नंदलाल शर्मा को साथ ले गया। वे किसान भी हैं और वर्षों से गेहूँ का उत्पादन कर रहे हैं। आम तौर पर उन के यहाँ से ही गेहूँ आता है। लेकिन उन्हों ने गेहूँ कि नई किस्म बोई है जिस का उत्पादन 9 क्विंटल बीघा अर्थात 56 क्विंटल प्रति हैक्टर हुआ है। जब कि आम प्रचलन के अच्छी किस्म के गेहूँ का उत्पादन मात्र 6 क्विंटल प्रति बीघा हुआ है। वह खाने में न जाने कैसा हो इसलिए वे स्वयं भी केवल प्रयोग के तौर पर थोड़ा सा गेहूँ घर लाए हैं। उसे इस बार वापर के देखेंगे, शेष गेहूँ वे मंडी में बेचेंगे। इस नई किस्म के गेहूँ और पुराने प्रचलित गेहूँ में दर का अंतर सौ रूपए क्विंटल से अधिक नहीं है। नन्दलाल जी का कहना है कि यह नई किस्म का गेहूँ पुराने किस्म के गेहूँ को कुछ ही वर्षों में विस्थापित कर देगा। क्यों कि जब दर का अंतर अधिक न होगा तो किसान इस अधिक उत्पादन वाली नई किस्म को ही बोएगा और पुरानी किस्म के गेहूँ का उत्पादन बंद हो जाएगा। दो-चार वर्ष बाद सभी को यही गेहूँ खाना पड़ेगा। 

गेहूँ को हम 35-35 किलो के 11 बैगों में भर कर लाए थे। नन्दलाल जी और मैंने ये 11 बैग अपनी मारूती-800 में भर लिए, और घर ले आए। बैगों का वजन कम होने के कारण घर पर भी हमने ही उन्हें उठा कर रख दिया। इस तरह हम्माली की भी बचत हो गई। कुल मिला कर 1300 रुपए क्विंटल की दर में चार क्विंटल गेहूँ घर आ गया। शोभा ने उन में से दो बैग तो छान बीन कर अलग भर दिए जिस से कम से कम एक-दो माह का काम चल जाए। बाकी गेहूँ को ड्रमों में भर कर रखना था। कल शाम ही हमें अल्टीमेटम मिला कि अभी दवा (कीड़ों से सुरक्षा के लिए पेस्टीसाइड) लाई जाए ताकि सुबह स्नान के पहले ही गेहूँ को ड्रमों में भर दिया जाए। हम बाजार से सल्फास के दस-दस ग्राम के चार पैकेट खरीद कर लाए और आज सुबह ही उन्हें ड्रमों में डाल कर गेहूँ भर गए। तब जा कर श्रीमती जी को चैन मिला है कि वर्ष भर उन्हें गेहूँ के लिए किसी का मुहँ नहीं देखने को मिलेगा। एक जैसा आटा साल भर खा सकेंगे और मंदिर पर चढ़ाने, त्योहारों पर ढोल बजाने वाले ढोली  व घर पर भिक्षा मांगने आने वालों के लिए साल भर गेहूँ उपलब्ध रहेगा। मुझे भी साल भर के लिए चैन मिला कि अब सिर्फ महिने में एक दो बार गेहूँ पिसाने के अलावा कोई झंझट नहीं रहा।

पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर बहुत हंगामा हुआ था कि अनाज को सड़ने से रोके जाने के लिए उसे मुफ्त गरीबों को बाँट दिया जाए। इस में कुछ गलत था भी नहीं। भारत में आज भी बहुत बड़ी आबादी है जो अनाज के लिए तरसती है। बच्चों को झूठन में से खाद्य बीनते और मंडी में मिट्टी में मिल चुके अनाज को अलग कर काम में लेने लायक बनाते हुए देखना एक आम चित्र है जिसे देखने के लिए श्रम करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में अनाज को सड़ने के लिए छोड़ देना अक्षम्य अपराध है। लेकिन तब हमारे खाद्यमंत्री का बयान था कि अनाज को मुफ्त में बाँटा नहीं जा सकता। उन्हें तब शायद उन व्यापारियों की चिंता थी जिन्हों ने अनाज गोदामों में भरा था और मुफ्त में अनाज बाँटने से उन्हें घाटा हो जाता, या फिर इस बात की चिंता थी कि सड़ाने में सरकार का कुछ भी खर्च नही होता जब कि बाँटने में कुछ तो खर्च करना पड़ता ही है। तब मैं ने भी यह कहा था  कि लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

ज से कोई बीस-तीस वर्ष पहले लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों को अप्रेल-मई के माह में अनाज अग्रिम अपने नियोजक से मिल जाता था और हर कर्मचारी अपनी जरूरत का अनाज खरीद कर उस का भंडारण कर लेता था और वर्ष भर, जब तक कि उस का उपयोग न हो लेता उस की सुरक्षा करता था। उद्योगों में भी जहाँ यूनियनें थीं वहाँ इस तरह के समझौते बहुतायत से हुए कि कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाएगा जो वर्ष भर प्रतिमाह उन के वेतन से किस्तों में काट लिया जाएगा। इस अनाज अग्रिम ने अनाज के भंडारण की समस्या को विकराल नहीं होने दिया था। बाजार में भंडारण योग्य अनाज बचता ही कितना था?

रकारों ने अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम देना बंद कर दिया। उद्योगों में भी यह परंपरा बन्द हो गई। लोग गेहूँ के बजाए बाजार से सीधे आटा खरीदने लगे। अब आटा कंपनियाँ तो गेहूँ उतना ही खरीदती हैं जितना उन की जरूरत है। वे गोदाम निर्माण में क्यों निवेश करें? करें तो फिर साल भर का गेहूँ खरीदने में भी निवेश करें। ऐसे में तो गेहूँ पीस कर बेचने का धंधा घाटे का हो जाए। अब गेहूँ का भंडारण सरकार के जिम्मे। वही गोदामों में निवेश करे। पर उस के पास भी  इतनी पूंजी कहाँ है? फिर इस में मंत्रियों-संत्रियों-अफसरों का लाभ कुछ नहीं, तो वे भी ऐसा क्यों करें? इस से तो अच्छा ही है कि अनाज सड़ जाए, कम से कम कुछ जानवर और कीट आदि तो पलेंगे जिससे अपरोक्ष धर्मलाभ ही होगा। सरकार को अभी भी अनाज अग्रिम का इलाज स्मरण नहीं हो पा रहा है। शायद किसी रोज सुप्रीम कोर्ट को ही इस के लिए आदेश देना पड़े। वह भी खुद कहाँ दे सकता है? पहले कोई एनजीओ वहाँ रिट लगाए फिर जवाब तलब और सुनवाई हो फिर जा कर आदेश हो।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

लोगों को पूरे वर्ष की जरूरत का अनाज फसल पर खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जाए

ज हमारे देश के महान कृषि मंत्री जनाब-ए-आला शरद पंवार साहब ने कह ही दिया कि गरीबों को अनाज मुफ्त में दिया जाना संभव नहीं है, और कि सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश नहीं दिया था अपितु सुझाव दिया था। आप की इस बात का क्या अर्थ निकाला जाए? यही न कि हम अनाज सड़ा सकते हैं लेकिन बाँट नहीं सकते। सड़ाने में हमारा कुछ खर्च नहीं होता (सिवाय मलबे को साफ करने के) (और अनाज के सड़ने से फैलने वाली बीमारियों से निपटने के, लेकिन उस से क्या? वह तो स्वास्थ्य और चिकित्सा विभाग का काम है, उस से उन्हें क्या लेना देना) 
लिए हम मान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव ही दिया था कोई निर्देश नहीं। लेकिन उस सुझाव में भी बात तो यही छिपी हुई थी ना कि जो अनाज आप ने जनता के पैसे से खरीदा है वह काम आए और सड़े नहीं। लेकिन लगता है कि शरद पंवार को बात आसानी से समझ नहीं आती। आए भी कैसे अभी जनता ने उन्हें शानदार सबक जो नहीं सिखाया। कोई बात नहीं, जनता किसी को भूलती नहीं और अवसर आने पर प्रसाद अवश्य ही बाँटती है। जल्द ही इस का सबूत भी देखने को मिल जाएगा। इस परिस्थिति में हमें इस पर अवश्य विचार करना चाहिए कि अनाज क्यों सड़ रहा है? निश्चित रूप से अनाज की फसल इतनी तो नहीं ही हुई है कि वह सड़ने लगे। फिर हुआ क्या है? देश की आबादी बढ़ी है और गोदाम भी बढ़े हैं फिर अनाज के भंडारण के लिए गोदाम कम क्यों पड रहे हैं? 
नाज गोदामों में ही नहीं भरा जाता। हर घर में इतनी जगह तो होती ही है कि परिवार के वर्ष भर का अनाज वहाँ सुरक्षित रखा जा सके। पहले यही होता था कि अधिकांश लोग चाहे उन की आर्थिक हैसियत कैसी भी क्यों न रही हो वे अपनी जरूरत के वर्ष, डेढ़ वर्ष का अनाज अपने घरों पर सुरक्षित कर के रखते थे। जिस के कारण बहुत सा अनाज लोगों के घरों में जा कर जमा हो जाता था। उन के भंडारण के लिए बड़े गोदामों की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन वर्ष भर का अनाज घर में एक साथ खरीद कर रख लेने की आदत लोगों में कम हुई है। अधिकांश लोग या तो बाजार से सीधे आटा खरीद रहे हैं या फिर पचास किलो का बैग खरीद कर लाते हैं और उस के समाप्त होने पर फिर से बाजार पहुँच जाते हैं। 
कुछ वर्ष पहले तक सभी सरकारी विभागों में अनाज की फसल आने पर अनाज अग्रिम कर्मचारियों को मिल जाता था। यहाँ तक कि इसी तर्ज पर अनेक उद्योगों में भी मजदूर यूनियनों ने यह मांग उठाई और मजदूरों को अनाज अग्रिम मिलने लगा था। लेकिन कुछ वर्षों से अनाज अग्रिम मिलने की बात सुनाई नहीं दे रही है। यह अनाज अग्रिम मिलने से कर्मचारी वर्ष भर का अनाज एक साथ खरीद लेते थे। इस तरह से वर्ष भर का अनाज लोगों के घरों में पहुँच जाता था और अनाज के भंडारण की समस्या ही नहीं होती थी।  
पिछले कुछ वर्षों से अनेक कारणों से लोगों के घरों में वर्ष भर का अनाज खरीदने की प्रवृत्ति समाप्त हुई है और अनाज के भंडारण के लिए गोदामों की समस्या खड़ी हुई है। इस समस्या से निपटने के लिए अब देश भर में नए गोदाम बनाए जाएंगे। उस के लिए पूंजी खर्च की जाएगी। उस के लिए खेती करने वाली जमीनों को अधिग्रहीत किया जाएगा। गोदामों के निर्माण कार्यों में मंत्रियों से ले कर अफसरों और ठेकेदारों के वारे-न्यारे होंगे। राजनैतिक दलों के लिए चंदा इकट्ठा करने का एक और जरिया बनेगा। गोदामों की  इस समस्या को हल करने का मुझे तो अब भी सब से बड़ा समाधान यही लगता है कि लोगों को साल भर का अनाज अपने घरों में खरीद कर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाए। सरकारी कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दिया जाए और उन्हें वर्ष भर का अनाज खरीदने का सबूत पेश करने को कहा जाए। निजि क्षेत्र के नियोजकों को भी कानून बना कर इस के लिए बाध्य किया जा सकता है कि वे अपने कर्मचारियों को अनाज अग्रिम दें। अनाज अग्रिम के लिए दिया गया धन कर्मचारियों के वेतन से प्रतिमाह कटौती के जरिए  वापस नियोजकों को मिल जाएगा।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

माफी गलती का हल नहीं, गलती के कारणों को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए

ल बोधि भाई का मेल मिला, उन्हों ने विनय पत्रिका पर अपने आलेख "बोलने पर जीभ और छीकने पर नाक काटने वाले शब्द हीन समाज में आपका स्वागत है" पढने का आग्रह किया था। मैं ने इस विषय पर लिखा बहुत पढ़ा है लेकिन मैं इस तरह के विवादों पर राय प्रकट करने से बचता रहा हूँ और उन से तब तक दूर रहने की कोशिश की है जब तक पानी सर से न गुजर जाए। हमेशा जुगाड़ों में विवादों की जड़ें छुपी रहती हैं। मैं कभी जुगाड़ी नहीं हो सका। पिता जी चाहते थे मैं नौकरी कर लूँ, वह भी सरकारी होनी चाहिए। पर जब राज्य सेवा जैसी नौकरी का वक्त आया तो घबरा गया कि यदि साक्षात्कार में किसी तरह चुन लिया गया तो नौकरी कैसे कर पाउंगा। जब न्यायिक सेवा में जाने का अवसर आया तो एक वरिष्ठ वकील साहब ने बैठ कर घंटे भर वक्तव्य दिया कि मैं कितनी भारी गलती कर रहा हूँ कि वकालत में मेरे जैसा कोई न होने पर भी मैं खुला मैदान छोड़ कर भाग रहा हूँ। मैं वकालत में बना रहा और वक्तव्य देने वाले वरिष्ठ वकील साहब कुछ माह बाद ही उच्च न्यायालय के जज हो गए। वकालत में भी मुझे सुझाव मिलते रहे कि मैं संस्थानिक वकालत करूँ। एक साथी की बदौलत जीवन बीमा निगम का वकील नियुक्त हुआ और आज तक अपने काम के आधार पर वहाँ टिका हूँ और इस लिए भी कि वहाँ जुगाड़ का कोई महत्व नहीं है। लेकिन यह जानता हूँ कि यदि मैं जरा भी जुगाड़ी होता और अपनी कमाई हुई शुल्क में से कुछ संस्थानिक अधिकारियों पर खर्च करने या फिर उन के साथ बांटने की चतुराई दिखाता तो बहुत सारे संस्थानों का सम्मानित वकील हो सकता था। ऐसे में जुगाड़ों का महत्व मैं अधिक जानता हूँ। विभूति जी आज जहाँ हैं जुगाड़ों के कारण हैं, यह वे भी जानते हैं और देश भी। वर्ना जहाँ वे हैं वहाँ होने के लायक और उन से बेहतर देश में दर्जनों व्यक्ति हैं। यदि वे जहाँ हैं वहाँ न होते तो उन का साक्षात्कार न तो नया ज्ञानोदय प्रकाशित करता और न ही प्रकाशन के उपरांत इतना हंगामा खड़ा होता। हो सकता था उन की कही बात का नोटिस भी न लिया जाता। 
मैं इस विवाद पर शायद चुप रहना चाहता हूँ। क्यों कि मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि गलती से भी विभूति जी ने जिन लेखिकाओं को छिनाल कहा वह किस संदर्भ में कहा? और वे लेखिकाएँ कौन हैं? इस तरह से संदर्भ को छिपा कर उन्हों ने सभी लेखिकाओं पर कीचड़ उछाल डाला।  यह भी विचित्र बात है कि आप बिना संदर्भ बताए किसी को किसी उपाधि से विभूषित कर दें और फिर उसे गलती बता कर माफी मांग लें। मैं समझता हूँ कि ऐसी गलती तब तक नहीं हो सकती जब तक कि अवचेतन में कुछ कुसंस्कार न छुपे हुए हों या फिर आप इरादतन कुछ कहना चाहते हों।
मैं ने ऐसे बहुत लोग देखे हैं जो ईमानदारी के साथ वामपंथी हैं और बने रहना चाहते हैं, लेकिन अपने पारिवारिक सामंती संस्कारों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके हैं और यदा-कदा इन संस्कारों की झलक अपने व्यवहार में प्रदर्शित करते रहते हैं। जब उन्हें खुद पता लगता है कि वे क्या कर गए हैं? तो उस व्यवहार को छुपाने का प्रयत्न करते हैं। नहीं छुपा सकने पर गलती मान कर माफ कर देने को कहते हैं। ऐसे लोगों के पास प्रायश्चित के अलावा कोई मार्ग नहीं है। वे केवल प्रायश्चित कर के ही इन बीमारियों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।

विभूति जी ने गलती की, यह उन की समस्या है। उस गलती से बहुत सारी समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, यह भी उन की समस्या है। उन्हों ने माफी मांग ली, इस से समस्या हल नहीं होती। उन्हें उस गलती के कारणों को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए, कि उन से गलती क्यों हुई?  क्या यह गलती उन के उन संस्कारों के कारण  हुई जिन्हें वे छोड़ना चाहते थे लेकिन नहीं छोड़ सके या फिर उन्होंने इरादतन किसी और इरादे से यह सब कहा था, यह तो वे ही बेहतर जानते हैं। उन्हें स्वयं आत्मालोचना करनी चाहिए औऱ गलती होने के कारण तलाश करना चाहिए। उस कारण से निजात पाने के लिए प्रायश्चित करना चाहिए।
हा सवाल इस बात का कि वे विश्वविद्यालय के कुलपति पद को छोड़ दें या उन्हें हटा दिया जाए तो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। खुद पद छोड़ देने और हटा देने के बाद भी जुगाड़ी व्यक्ति हैं तो कुछ न कुछ ऐसा ही या इस से कुछ बेहतर जुगाड़ कर लेंगे। फिर उन के जाने के उपरांत विश्वविद्यालय में एक और कोई जुगाड़ी आ बैठेगा। हो सकता है आने वाला व्यक्ति अब सावधानी से व्यवहार करे और उन से निकृष्ठ होते हुए भी उन पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर दे। वस्तुतः इस साक्षात्कार में की हुई गलतियों से जो कुछ उन्हों ने खोया है उस का शायद उन्हें या किसी अन्य को अनुमान भी नहीं है।
हाँ, एक बात विनम्रता पूर्वक मैं यह और कहना चाहता हूँ कि इतिहास में महान वे नहीं हुए जिन्हों ने कोई गलती नहीं की,अपितु वे हुए जिन्हों ने गलतियाँ कीं और पश्चताप की ज्वाला में जलते हुए खुद को कुंदन की तरह खरा बना लिया।

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

कैसे होगा इस समस्या का हल?

ज मन बहुत दुखी है। दंतेवाड़ा में 75 जवान नक्सल हमले के शिकार हो मारे गए। वे किसी न किसी माता-पिता के पुत्र, किसी पत्नी के पति और बच्चों के माता-पिता होंगे। क्या हुआ होगा जब यह खबर उन आश्रितों पर पहुँचेगी जिन का आश्रयदाता इस हमले में मारा गया। वे सभी शहीद कहलाएँगे। उन के कम से कम एक आश्रित को फिर से उसी सुरक्षा दल में नौकरी मिल जाएगी जो हो सकता है ट्रेनिंग के बाद फिर से उसी जंगल में नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए भेज दिया जाए।  पत्नियों और अवयस्क बच्चों को हो सकता है पेंशन मिलने लगे। हो सकता है कुछ ही दिनों में वे अपना दुख भुला कर जीवन जीने लगें। इस घटना की जानकारी मिलने के बाद मैं सोचने लगा कि आखिर उन की मौत का जिम्मेदार कौन है?
मारे राजनेता जो जनता से चुने जा कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचते हैं, उन्हीं में से कुछ मंत्री बनते हैं और सरकार बनाते हैं। उन्हीं मंत्रियों ने नक्सलियों से लोहा लेने और उन्हें समाप्त कर डालने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हंट का निर्णय लिया था। निश्चित रूप से यह निर्णय केवल हमारे मंत्रियों ने ही नहीं ले लिया होगा। उन्हों ने इस से पहले सुरक्षा बलों के मुखियाओं और विशेषज्ञों से भी राय की होगी। जब एक बार सुरक्षा बलों को यह जिम्मेदारी दे दी गई तो उन्होंने ऐसी योजना भी बनाई होगी जिस में सुरक्षा बलों के जवानों की कम से कम हानि हो और समस्या पर काबू पाया जाए। तब ऐसा कैसे हो गया कि ऑपरेशन के पहले ही कदम पर पहले प. बंगाल में और दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) में ये घटनाएँ हो गईं?
निश्चित रूप से सुरक्षा बलों के पास नक्सलियों की ताकत और रणनीति का आकलन उपलब्ध नहीं है। ऐसा लगता है कि वे इस भ्रम में थे कि उन पर तो हमला हो ही नहीं सकता। हमला करेंगे तो वे ही करेंगे। वे शायद नक्सलियों, को यह समझ बैठे थे कि वे नगर देहात की निरीह जनता हैं।  शायद वे सोच रहे थे कि वे खुद पूरे लवाजमे के साथ जा रहे हैं तो उन का तो कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। हो सकता है कि उन्हें अपने दिशा निर्देशकों पर भरोसा रहा हो कि उन्हों ने जो निर्देश दिए हैं उन के अनुसार वे सुरक्षित हैं। लेकिन हुआ उस के विपरीत अभियान अपने आरंभिक चरण में ही था कि उन्हें अपना बलिदान देना पडा। निश्चित रूप से इस घटना को केवल यह कह कर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता कि नक्सली बहुत क्रूर औऱ खून के प्यासे हैं। इन जवानों की मौत के लिए उन के दिशानिर्देशक सुरक्षा बलों के अधिकारी, उन के नीति निर्देशकों को अपने ही जवानों के वध की इस जिम्मेदारी से बरी नहीं किया जा सकता। इस आँच से वे राजनेता भी नहीं बच सकते जिन्हों ने नक्सल समस्या से निपटने के लिए ऐसी रणनीति बनाई जिस से पहले ही चरण में उन्हें अपनी भारी हानि उठानी पड़ी है। 
निश्चित रूप से यह समस्या केवल कानून और व्यवस्था की समस्या नहीं है। जनता के सही प्रशासन की समस्या भी है। ग्रीन हंट ऑपरेशन की घोषणा के साथ ही जिन कारणों से नक्सलवाद को पनपने का अवसर मिलता है उन कारणों को समाप्त करने के लिए भी क्या कोई योजना बनाई गई है और क्या उस पर अमल किया गया है? क्या उस के कुछ नतीजे भी सामने आए हैं। ये सभी प्रश्न अनुत्तरित हैं। इन प्रश्नों  को अब न केवल उन शहीद जवानों के परिवार जन हमारे राजनेताओं और सुरक्षा बलों के नेतृत्व से पूछेंगे अपितु जनता भी पूछेगी।
ज दिन में जब मैं अदालत में था तो मुझे इस घटना का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था। आज दो मुकदमों में बहस थी जिन में से एक गोपाल नारायण भाटी का मुकदमा भी एक था। वे देश के तीसरे नंबर के औद्योगिक घराने की एक फैक्ट्री में सीनियर इलेक्ट्रिकल सुपरवाइजर थे। उन से जुलाई 1983 में कहा गया कि वे नौकरी से त्यागपत्र दे दें। उन्हों ने नहीं दिया तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उन्हों ने मुकदमा लड़ा और जुलाई 1992 में उन के मुकदमे का फैसला हो गया और उन्हें फिर से नौकरी पर लेने का आदेश मिला। लेकिन कंपनी ने फैसले की अपील कर दी। जुलाई 2002 में वे उच्चन्यायालय से भी जीत गए। आगे अपील नहीं हुई। उन्हें फिर भी नौकरी पर नहीं लिया गया। नवम्बर 2004 में वे साठ वर्ष के हो गए और सेवानिवृत्ति की उम्र हो गई। अब उन्हें न्यायालय के निर्णय. के अनुसार अपने वेतन आदि की राशि कंपनी से लेनी है जिस की संगणना का मुकदमा चल रहा है। इस मुकदमें में जनवरी 2007 में अंतिम बहस हो जानी चाहिए थी लेकिन किसी न किसी कारण से टलती रही है। हर बार जब किसी कारण से तारीख बदलने लगती है तो भाटी जी आपे से बाहर हो जाते हैं। 
ज भी यही हुआ। जज अस्वस्थ थे, उन्होंने तारीख बदलने को कहा और भाटी जी आपे से बाहर हो गए। भाटी जी ने 1983 से ले कर 2010 तक के इस 27 साल के सफर में बहुत दिन देखे हैं। एक बेटा आत्महत्या कर चुका है। दूसरे को मकान गिरवी रख कर वित्तीय संस्था से ऋण लेकर एक छोटा व्यवसाय आरंभ कराया लेकिन बाजार की समझ न होने से उस में हानि उठानी पड़ी और अब वह कहीं नौकरी कर रहा है। मकान वित्तीय संस्था ने कुर्क कर रखा है। वे अदालत से कहते हैं कि वित्तीय संस्था को मुझ से तीन लाख ले ने हैं। मुझे कंपनी से बीस लाख लेने हैं। अदालत तीन लाख काट कर बाकी 17 लाख मुझे दिला दे। पर दोनों अदालतें अलग अलग हैं। एक उन से लेने को और न देने पर मकान बेचने को तैयार बैठी है। तो दूसरी दिला नहीं पा रही है। 
भाटी जी संस्कारों से हिन्दू हैं और कांग्रेस व साम्यवाद के विरोधी। उन्हों ने अपने जीवन में या तो जनसंघ को वोट दिया या फिर भाजपा को और जब ये दोनों दल नहीं थे तो एकाध बार जनता पार्टी को।  वे आज फिर अदालत में बोलने लगे तो कई बार कहा कि वे हिन्दू हैं इस लिए सहिष्णु हैं। बहुत कुछ कहा उन्हों ने।  कंपनी, उद्योगपति, उन के वकील, सरकार, नेता, अदालत और जजों किसी को नहीं बक्शा। लेकिन अंत में यही कहा कि "कंपनी के मालिकों को हक मारने और धन बनाने से मतलब है, नेता और सरकारें उन की गुलाम हैं। न ये सुनते हैं और न अदालतें सुनती है तो कहाँ जाएँ वे, कहाँ जाएँ मजदूर और गरीब लोग?  सभी बहरे हो चुके हैं.। इन्हें तो समाप्त ही करना होगा और उस के लिए नक्सल होना पड़ेगा।" यह कोटा है राजस्थान  के दक्षिण पूर्व का एक जिला। जहाँ मीलों दूर तक नक्सल आंदोलन की आहट तक नहीं सुनाई देती। यहाँ का प्रशासन और सरकार कभी सोच भी नहीं सकती कि यहाँ कभी नक्सली अपनी जमीन बना पाएँगे। यहाँ वैसे जंगल और आदिवासी भी नहीं हैं, जिन में उन की पैठ बन सकती हो। लेकिन यदि जनता को न्याय समय पर नहीं मिला तो क्या उस की सोच क्या वैसी ही नहीं बनेगी जैसी भाटी जी की बनने लगी है?