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शनिवार, 18 मार्च 2017

पेरिस कम्यून : पूरी दुनिया के सर्वहारा का ध्येय


पेरिस कम्यून जिन्दाबाद!
पेरिस कम्यून की स्थापना में मार्क्स का सीधे हाथ नहीं था. मगर प्रेरणा उसी की थी.अपने ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ की शुरुआत ही उसने इस वाक्य से की थी कि मानव-सभ्यता का अभी तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का रहा है. वह पूंजीवाद को सामंतवाद का ही परिष्कृत-परिवर्तित रूप मानता था. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने तर्क द्वारा समझाने का प्रयास किया था कि अपनी पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की भांति पूंजीवाद भी सामाजिक असंतोष को बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा, जो अंततः सामाजिक संघर्ष और उसके विखंडन का कारण बनेगा. उसे विश्वास था कि एक न एक दिन समाजवादी व्यवस्था पूंजीवाद को अपदस्थ कर अपना स्थान बनाने में कामयाब सिद्ध होगी, जो एक वर्गहीन, राज्य-विहीन समाज की जननी होगी. तभी पूर्णसमाजवाद का सपना सत्य हो सकेगा. उस अवस्था को मार्क्स ने ‘विशुद्ध साम्यवाद’ की संज्ञा दी थी. सामान्य रूप से समाजवाद और साम्यवाद को एक ही समझा जाता है. मार्क्स की दृष्टि में साम्यवाद ‘श्रमिक-राज्य’ अथवा ‘श्रमिक गणतंत्र’ के बाद की अवस्था है. श्रमिक-राज्य को वह ‘श्रमिकों की तानाशाही’ पूर्ण व्यवस्था भी मानता था, उसमें समस्त निर्णय श्रमिकों द्वारा, श्रमिकों के हित में लिए जाते हैं. मार्क्स का मानना कि वर्ग संघर्ष के दौर में श्रमिक पूंजीपतियों के सत्ता छीनकर उसपर कब्जा कर लेंगे. वह वांछित परिवर्तन का पहला चरण होगा. दूसरे चरण में श्रमिक-शासित राज्य वर्गहीन-राज्यविहीन समाज की आधारशिला रखेगा. पेरिस कम्यून वास्तव में श्रमिकों द्वारा गणतांत्रिक पद्धति पर अनुशासित, वर्गविहीन अवस्था थी. हालांकि नेतष्त्व और अनुभव की कमी के कारण वह प्रयोग मात्र दो महीने तक ही चल सका था, मगर इतने कम समय में ही उसने पूंजीवाद के समानांतर जिस वैकल्पिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया, वह कालांतर में दुनिया-भर के समाजवादी प्रयोगों का प्रेरक बना.


फ्रांस और प्रूशिया के युद्ध में फ्रांस की पराजय से वहां के आम नागरिकों के बीच जहां शासकवर्ग के प्रति आक्रोश की लहर थी. ऊपर से युद्ध के बाद बेरोजगारी और महंगाई की मार से जनजीवन अकुलाया हुआ था. घोर अराजकता का वातावरण था. अव्यवस्था के वातावरण में लोगों का तत्कालीन शासकों से भरोसा ही उठ चुका था. उल्लेखनीय है कि जुलाई 1870 में प्रूशिया से युद्ध की पहल तत्कालीन फ्रांसिसी सम्राट नेपोलियन तृतीय द्वारा की गई थी. बिना किसी तैयारी के युद्ध की घोषणा कर देना, सिर्फ एक राजसी सनक थी, जिसके कारण सम्राट को अंततः पराजय का मुंह देखना पड़ा. सितंबर आते-आते पेरिस का जनजीवन अस्तव्यस्त हो चला था. युद्ध के कारण अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चौड़ी हो चुकी थी. सूदखोर व्यापारी युद्ध की स्थितियों का लाभ उठाकर मनमाने तरीके से लूट मचा रहे थे. भोजन की काफी किल्लत थी. प्रशासन के स्तर पर पूरी तरह अराजक स्थिति थी. जनसाधारण की कोई सुनने वाला न था. ऊपर से प्रूशिया की सेनाओं द्वारा बमबारी और फ्रांसिसी सैन्यबलों की नाकामी से श्रमिक-असंतोष विद्रोह ही स्थिति तक जा पहुंचा था.

सेना में उच्चस्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सैनिकों के कमजोर मनोबल तथा हताशा के कारण फ्रांस का पतन हुआ. पराजित फ्रांसिसी सम्राट को जर्मनी के सम्राट के आगे, उसकी शर्तों पर युद्धविराम के लिए विवश होना पड़ा. इससे तुरंत बाद जर्मन सैनिकों ने नगर में विजेता के दंभ के साथ प्रवेश किया. पेरिसवासियों के मन में प्रूशियावासियों और जर्मन साम्राज्य के प्रति बेहद नाराजगी थी. लोग भीतर ही भीतर सुलग रहे थे. स्थानीय नागरिकों ने मिलकर एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षादल’ का गठन किया था. उसने सदस्यों में अधिकांश श्रमिक और कारखानों में काम करने वाले कारीगर थे. नागरिक सेना का नेतृत्व प्रगतिशील समाजवादी नेताओं के अधीन था. नागरिक सेना के प्रति जनसाधारण के समर्थन और विश्वास का अनुमान मात्र इसी से लगाया जा सकता है कि स्वयंसेवी सैनिकों की संख्या रातदिन बढ़ रही थी. स्त्री, बच्चे और बूढ़े जो लड़ाई में सीधे हिस्सा लेेने में असमर्थ थे, वे भी अपने अनुकूल काम खोज रहे थे, ताकि अवसर पड़ने पर दुश्मन से लोहा रहे राष्ट्रीय सुरक्षाकर्मियों को मदद पहुंचा सकें.

इस बात की अफवाह भी उड़ रही थी कि जर्मन सम्राट नगर में घुसने के बाद नागरिकों पर आक्रमण भी कर सकता है, उसके बाद नगर राजशाही के अधीन होगा. फरवरी 1871 का चुनाव भी राजशाही को बढ़ावा देने का संकेत देता था. ऐसी अफवाहें लोगों के गुस्से को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त थीं. पेरिसवासी वैसे भी निडर थे. युद्ध उनके लिए कोई नई बात न थी. वर्षों से वे स्वशासन और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते आ रहे थे. इसलिए जर्मन सम्राट के सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश के पूर्व ही उसके विरोध की तैयारियां हो चुकी थीं. नागरिक सेना के विद्रोह को जनसाधारण के समर्थन का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि सेना का सशस्त्र विरोध करने के लिए आवश्यक तोपों और हथियारों की खरीद के लिए पेरिस के सामान्य नागरिकों ने भी चंदा दिया था. जर्मन सम्राट के प्रवेश से पहले ही तोपें उपयुक्त स्थान पर अच्छी तरह से तैनात कर दी गई थीं. उनके संचालन के लिए नागरिक सैनिक तैयार किए जा रहे थे. ऊंचाई पर स्थित मोंटमेंट्री नामक स्थान को विद्रोह के प्रमुख ठिकाने के रूप में चुना गया था. वह सामरिक दृष्टि से भी अनुकूल था. उसके चारों ओर मजदूर बस्तियां थीं, निवासियों में से अधिकांश नागरिक सेना के प्रति समर्पित थे.

सारी तैयारी इतनी गुपचुप और भरोसेमंद थी कि भारी-भरकम सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश की तैयारी कर रहे जर्मन-सम्राट को इसकी खबर तक न लगी थी. गणतंत्र के अभ्यस्त हो चले पेरिसवासियों को राजशाही के नाम से ही चिढ़ थी. इसलिए जर्मन सेना से निपटने के लिए भीतर ही भीतर तैयारी चल रही थी. जर्मन की जंगी सेना के मुकाबले साधनविहीन, लगभग हार के मुहाने पर खड़े पेरिस- वासियों के मन में अपनी अस्मिता, मान-सम्मान और आजादी के प्रति इतना गहरा अनुराग था कि लोग नागरिक सेना में भर्ती होने उमड़े आ रहे थे. उनमें स्त्री-पुरुष, बूढ़े और बच्चे हर वर्ग के लोग थे, जो स्वेच्छा से मर-मिटने को तैयार थे. हर कोई ‘अपना राज’ चाहता था तथा उसके लिए यथासंभव बलिदान देने को उत्सुक था.

अस्थायी सरकार के मुखिया एडोल्फ थीयर को मालूम था कि राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल का लाभ उठाकर नागरिक सुरक्षादल ने वैकल्पिक शक्तिकेंद्र बना लिए हैं. आमजनता का उन्हें संरक्षण प्राप्त है. उसकी मुख्य चिंता थी कि हथियारबंद नागरिक सुरक्षादल के साथ-साथ श्रमिक-कामगार भी हथियार उठा सकते हैं, जिससे क्रुद्ध होकर जर्मन सेना नगर में तबाही मचा सकती है. इस बीच जर्मन सेना अल्प समय के लिए पेरिस में आई और समस्त आशंकाओं पर पानी फेरते हुए वहां से शांतिपूर्वक प्रस्थान कर गई. बावजूद इसके पेरिस का वातावरण गरमाया रहा. नगर के अशांत वातावरण से बचने के लिए नवनिर्वाचित राष्ट्रीय असेंबली ने बार्डोक्स के बजाय, उससे मीलों दूर पेरिस के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वर्सेलाइस को अपना सम्मेलन-स्थल बनाने का निर्णय किया. सम्मेलन के लिए अधिकांश नेताओं के पेरिस से प्रथान कर जाने से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हो गया. नेशनल असेंबली के सदस्यों में से

अधिकांश राजशाही और साम्राज्यवाद के के समर्थक थे. दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन में लोकतंत्र समर्थकों का वर्चस्व था. असेंबली के सदस्यों के वर्सेलाइस प्रस्थान करते ही स्थानीय प्रशासन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ गई. दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षादल की केंद्रीय समिति में सुधारवादियों का अनुपात और उनका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. हालात का अनुमान लगाते हुए सरकार ने निर्णय लिया कि सेना की चार सौ तोपों को नागरिक सुरक्षादलों के अधिकार में रखना सामरिक दृष्टि से उचित नहीं है. अतएव 18 मार्च को जनरल थीयर ने सेना को आदेश दिया कि वह मोंटमेंट्री की पहाड़ियों तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर तैनात तोपखाने को अपने अधिकार में कर ले. मगर कुछ ही दिन पहले जर्मन सेना से भारी पराजय झेल चुके सैनिकों का मनोबल बहुत गिरा हुआ था. अपने ही लोगों का सामना करने का उनमें साहस न था. विवश होकर नागरिक सुरक्षादल के स्वयंसेवकों तथा स्थानीय नागरिकों को भी उस टुकड़ी में शामिल करना पड़ा, जिनके मन में सरकार के प्रति पहले ही आक्रोश भरा था.

सरकारी तोपखाने को अपने कब्जे में लेने के लिए वह टुकड़ी जैसे ही मोंटमेंट्री पहुंची, स्थानीय नागरिक और सुरक्षाकर्मी भड़क गए. क्लाउड मार्टिन लेकाम्टे सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था, उसने अदूरदर्शिता और नासमझी का प्रदर्शन करते हुए सुरक्षाबलों और स्थानीय जनता पर गोलीबारी का आदेश सुना दिया. जिससे लोग भड़क गए. भीड़ ने लेकाम्टे तथा जनरल थाॅमस को उनके घोड़ों से खींच लिया. उत्तेजित नागरिक सैनिकों ने दोनों को वहीं गोली से उड़ा दिया. बुजुर्ग जनरल था॓मस कभी नागरिक सुरक्षादल का कमांडर होता था, मगर अवसरवादी रुख अपनाते हुए वह राजशाही के पक्ष में चला गया था. उत्तेजित भीड़ ने उसको भी वहीं दबोच लिया. विद्रोहियों का रुख पहचानकर सेना भी उनके साथ मिल गई. जनरल थीयर ने पेरिस को खाली कराने का आदेश दिया. तब तक विद्रोही पूरे शहर में फैल चुके थे. स्थानीय नागरिक बड़ी संख्या में उनका साथ दे रहे थे. सेना का कहीं अता-पता न था. उधर एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करना हुआ जनरल थीयर वर्सेलाइस के लिए प्रस्थान कर चुका था. इससे लोगों में संकेत गया कि वह घबराकर भागा है. इसके फलस्वरूप नागरिक सेना का मनोबल और भी बढ़ गया. यद्यपि जनरल थीयर ने बाद में दावा किया था कि पेरिस से हटना उसकी एक रणनीतिक चाल थी, तथापि उस समय नागरिकों और सुरक्षाबलों ने माना कि आसन्न पराजय से क्षुब्ध होकर पेरिस से भागा है.

पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिक सुरक्षाकर्मी छाए हुए थे. शासक के रूप में मात्र नागरिक सुरक्षादल तथा उनकी केंद्रीय समिति थी. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति के अनुरूप शासन चलाने का निर्णय लिया. आनन-फानन में लोकतांत्रिक विचारधारा के समर्थकों तथा श्रमिक नेताओं की बैठक बुलाई गई. आमचुनावों के लिए 26 मार्च, 1871 का दिन तय कर दिया गया. स्थानीय प्रशासन को व्यवस्थित रूप देते हुए 92 सदस्यीय कम्यून-परिषद का गठन किया गया. उसमें बड़ी संख्या दक्ष कामगारों और श्रमिक नेताओं की थी. उनके अलावा परिषद में डाॅक्टर, पत्रकार, नर्स, अधिवक्ता, अध्यापक जैसे पेशेवर, राजनीतिक कार्यकर्ता, सुधारवादी नेता, छोटे उद्यमी, उदार धर्मपंथी तथा समाजवादी नेता सम्मिलित थे. जर्मन सम्राट की सेना और उसके सभी सैनिक अवसर देखकर पेरिस छोड़ चुके थे. नगर पूरी तरह से विद्रोही नागरिक सेना के अधिकार में था.

इस अचानक सत्ता परिवर्तन का अनुमान न तो सरकार को था, न ही नागरिक सुरक्षाबलों को. इसलिए अप्रत्याशित परिवर्तन के बाद की स्थितियों के लिए कोई तैयार न था. प्रशासन को समाजवादी विचारधारा के अनुरूप, नए सिरे से गठित करने की आवश्यकता थी, जिसका सैनिकों और कार्यकर्ताओं को अनुभव ही नहीं था. उन्हें विश्वास था कि कि लुईस ब्लेंक और उसके समर्थक, अराजकतावादी-समाजवादी विचारक लुईस अगस्त ब्लेंकी प्रशासन और नागरिक सेना की बागडोर संभालेंगे तथा बदले हुए वातावरण में सबसे प्रभावी क्रांतिनेता सिद्ध होंगे. मगर नागरिक सेना का दुर्भाग्य रहा कि 17 मार्च के दिन ब्लेंकी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. जीवन के बाकी दिन उसको जेल ही में बिताने पड़े. एक सौदे के रूप में कम्यून के नेताओं ने ब्लेंकी के प्रत्यार्पण के बदले पेरिस के पुजारी डारबी तथा 74 अन्य युद्धबंदियों को छोड़ देने का आश्वासन दिया, मगर थीयर ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. तो भी नागरिक सुरक्षाबलों तथा आंदोलनकर्मियों के अनुशासन में 28 मार्च को पेरिस कम्यून में ढल गया. वर्गहीन-राज्यविहीन समाज गढ़ने की कोशिश में सभी स्थानीय निकायों को भंग कर दिया. अनुभव की कमी के बावजूद समाजवादी आंदोलन के इतिहास में पेरिस कम्यून को मिली कामयाबी अद्वितीय और चामत्कारिक थी.

क्रांति की सफलता और सुनिश्चितता के लिए जनजीवन को पटरी पर लाना अत्यावश्यक था. अतएव केंद्रीय परिषद ने जनसुविधाओं की बहाली और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए कई कदम उठाए, जिसके कारण पेरिसवासियों को आजादी का एहसास हुआ. मगर युद्ध के बाद अस्त-व्यस्त हो चुके जनजीवन को सहेजने के लिए बड़े पैमाने पर नागरिक सुविधाओं की जरूरत थी. इसलिए उनकी बहाली हेतु सार्थक कदम उठाए गए. पेरिस के उन विद्रोही समाजवादियों, लोकसेवकों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर बहुत कम, मात्र दो महीने ही मिल पाया. किसी भी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर पटरी पर वापस लाने के लिए इतना समय नगण्य होता है. तो भी इस अवधि में कम्यून के संचालकों ने आपसी सहमति और सर्वकल्याण की भावना के साथ कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे, जो आगे चलकर समाजवादी व्यवस्था के प्रेरणास्रोत बने—

क. राज्य और धर्मस्थलों को एक-दूसरे से असंबद्ध करना.

ख. जितने समय तक नगर का कामकाज ठप्प रहा था, उस अवधि का किराया पूरी तरह माफ माफ करना.

ग. पेरिस स्थित सैकड़ों बेकरियों में रात की ड्यूटी करने पर पाबंदी. उनमें बड़ी संख्या में स्त्री और बच्चे काम करते थे.

घ. अविवाहित जोड़ों तथा ड्यूटी के दौरान मारे गए नागरिक सैनिकों के लिए पेंशन की व्यवस्था करना.

ङ. युद्धकाल में श्रमिकों द्वारा गिरवी रखे गए औजारों और घर के साज-सामान की बिना किसी अदायगी के वापसी.

च. कम्यून का विचार था कि अधिकांश दक्ष कारीगरों को युद्धकाल अपने औजार गिरवी रखने के लिए विवश किया गया था.

छ. वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए गए ऋण पर भुगतान को स्थगित करना तथा सभी प्रकार के ऋणों पर देय ब्याज से मुक्ति.

ज. कारखाना मालिकों द्वारा छोड़े गए तथा निष्क्रय पड़े कारखानों को श्रमिकों को चलाने का अधिकार. यद्यपि पूर्व कारखाना मालिकों को क्षतिपूर्ति के रूप में समुचित भत्ता मांगने का अधिकार दिया गया था.

चर्च को राज्य से अलग करने का परिणाम यह हुआ कि उसकी समस्त परिसंपत्तियां जनता के स्वामित्व में आ गईं. पाठशालों में धार्मिक गतिविधियों का आयोजन तत्काल प्रभाव से बंद करा दिया गया. चर्च की धार्मिक गतिविधियों को सीमित करने का भी प्रयास किया गया. वे अपनी धार्मिक गतिविधियां उसी अवस्था में चला सकती थीं, जब उन्हें शाम के समय राजनीतिक बैठकों के लिए खुला रखा जाए. यह जीवन में धर्म के हस्तक्षेप को न्यूनतम करने तथा उसके नाम पर संरक्षित संसाधनों का व्यापक लोकहित में उपयोग करने की दूरदर्शी योजना थी. शिक्षा में सुधार और सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था भी की गई. स्पष्ट है कि आंदोलनकारियों द्वारा पेरिस कम्यून को पूर्णतः वर्गहीन समाज के अनुरूप गढ़ने का प्रयास किया गया था.

पेरिस कम्यून के गठन की घटना को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से फ्रांस में पहली बार स्त्री-शक्ति का ओजस्वी रूप सामने आया. यद्यपि रूसो(1712—1778) अठारहवीं शताब्दी में ही स्त्री समानता का समर्थन कर चुका था. बाद में फ्यूरियर ने उस आंदोलन को आगे बढ़ाने काम किया. उसी ने ‘फेमिनिज्म’ जैसा सार्थक शब्द गढ़ा. फ्यूरियर की ही प्रेरणा पर महिला श्रमिकों ने आगे बढ़कर ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ की सदस्यता ग्रहण की थी. पेरिस की आजादी के संघर्ष में भी महिला आंदोलनकारियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. उनमें से एक थी पेशे से जिल्दसाज, नेथाली लेमल. समाजवादी विचारों में आस्था रखने वाली नेथाली ने ऐलिजाबेथ डिमीट्रिफ के साथ मिलकर पेरिस की आजादी के लिए महिला संगठन बनाया था. उसका नाम था—‘पेरिस की सुरक्षा तथा घायलों की देखभाल के लिए महिला संगठन.’ डिमीट्रिफ अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रूसी शाखा की सदस्य रह चुकी थी और उन दिनों रूस से निर्वासन की सजा भोग रही थी. कुछ ही दिनों बाद इस संगठन को स्त्रीवादी लेखक आंद्रे लियो का भी समर्थन मिल गया. लियो पित्रसत्तात्मकता को पूंजीवाद को प्रश्रय देने वाली व्यवस्था मानते थे. उन्हें विश्वास था कि पित्रसत्तात्मकता के विरुद्ध उनका अभियान कालांतर में पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा बनेगा. नेथाली द्वारा गठित संगठन की मुख्य मांगें थीं—‘स्त्री समानता तथा समान मजदूरी’. इनके अलावा तलाक का अधिकार, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, संसाधनों में समान भागीदारी आदि भी स्त्रीवादियों की मांग में सम्मिलित थे. संगठन ने विवाहिता स्त्री और रखैल के बीच अंतर को मिटाने के साथ-साथ उनकी संतानों के बीच भेदभाव खत्म करने की मांग भी थी. आशय यह है कि पेरिस कम्यून का वातावरण पूरे समाज को नई चेतना सराबोर कर रहा था.

नागरिक संगठन एक ओर सामूहिक जीवन को समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नए प्रयास कर रहे थे, उधर पू्रशिया सरकार थीयर की मदद के लिए हाथ बढ़ा चुकी थी. उसी की मदद से पूरे पेरिस की घेराबंदी कर दी गई. अंततः 21 मई को थीयर के नेतृत्व में संयुक्त सेना ने पश्चिमी दरवाजे से नगर पर हमला बोल दिया. नागरिक सुरक्षाकर्मियों ने आम जनता की मदद से उन्हें रोकने का प्रयास किया. क्रुद्ध होकर प्रूशिया के सैनिकों ने कत्लेआम मचा दिया. पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिकों और सैनिकों के बीच घमासान युद्ध छिड़ा था. लोग राजशाही के अधीन रहने के बजाय स्वाधीन रहते हुए जान देना ठीक समझते थे. नगर के पूर्वी सिरे पर मजदूर बस्तियां थी. कम्यून की जीवनशैली में उन्हें सम्मानजनक अवसर मिले थे. इसलिए पू्रशिया और जनरल थीयर के सैनिकों का सर्वाधिक विरोध भी उसी ओर था. गरीब मजदूर जी-जान से संघर्ष कर रहे थे. मगर हथियारों की कमी और युद्धनीति की जानकारी का अभाव उनकी सफलता के आड़े आया. धीरे-धीरे श्रमिक सेना कमजोर पड़ने लगी. 28 मई, 1871 को आखिरकार पेरिस फिर से राजशाही के अधीन चला गया. क्रुद्ध सैनिकों ने खूब कत्लेआम किया. लेक्समबर्ग के बागों और लोबाउ छावनी में विशेषरूप से बनाई गई कत्लगाहों में हजारों विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया. करीब 40,000 से अधिक युद्धबंदियों को निष्कासन की सजा सुनाई गई. आमजनता यहां तक कि स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया.

सैनिकों ने हजारों स्त्रियों-बच्चों को अमानवीय अवस्था में भूखे-प्यासे कैद में रखा.

पेरिस पर सेना का कब्जा हो जाने के बाद 12,500 नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों पर मुकदमा चलाया गया. उनमें से 10,000 को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई गई, 23 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. लगभग 4,000 को न्यू सेल्डोनिया में निर्वासित कर दिया गया. बाकी को कैद की सजा हुई. सेना द्वारा सामूहिक नरसंहार के उस सप्ताह में कुल कितने लोगों को मौत के घाट उतारा गया, इसका सही-सही आकलन आज तक नहीं हो पाया है. बेंडिक्ट एंडरसन के अनुसार उस ‘खूनी सप्ताह’ के भीतर पकड़े गए लगभग 20,000 सैनिकों में से कुल 7,500 को सजा सुनाई गई. जबकि कुछ विद्वान इस संख्या को 50,000 से भी अधिक बताते हैं. यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि हालांकि पेरिस कम्यून की अवधारणा मार्क्स के सिद्धांत के अनुकूल थी. इसके पीछे कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो की प्रेरणा भी थी. बावजूद इसके पेरिस कम्यून में हुए खून-खराबे से मार्क्स को गहरा धक्का पहुंचा था, जिससे उसने खुद को लेखन और अध्ययन के प्रति समर्पित कर दिया.

पेरिस कम्यून में भारी उद्योगों का संचालन मजदूर संघों के समन्वित प्रयासों द्वारा लोकतांत्रिक आधार पर संभव होता था. सभी उद्योग एक श्रमिक महासंघ के अधीन संचालित होते थे. वह पूरी तरह एक वर्गहीन समाज था, जिसमें न पुलिस बल था, न जेल, न किसी प्रकार की हिंसा को वहां स्थान था. उत्पादन के स्रोतों में सबका साझा था. ऐसे वातावरण में वहां कोर्ट-कचहरी, जज-मुन्सिफ वगैरह की भी आवश्यकता नहीं थी. सरकार के सभी पदों का चुनाव लोकतांत्रिक परिषद द्वारा किया जाता था. सामंतवाद और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निचले और ऊपर के स्तर पर व्याप्त वेतनमान की असंगतियों को दूर करने की ईमानदार कोशिश की गई थी. चयनित अधिकारियों को भी कामगारों की औसत मजदूरी के बराबर वेतन प्राप्त होता था. कर्तव्य में कोताही बरतने, किसी भी प्रकार का आरोप सिद्ध होने पर उन्हें वापस बुलाया जा सकता था. यूजेन पोत्येर नामक एक कामगार ने कम्यून के जीवन पर एक कविता लिखी थी, जिसका आशय है—

‘सुबह जो नाला साफ करता है, वह दस बजे आकर आफिस में बैठता है, कोर्ट में जज बनता है, शाम को आकर कविता लिखता है.’

समाजवाद के पहले प्रयोग के रूप में ख्यात पेरिस कम्यून का जीवनकाल मात्र 70 दिन रहा, वह प्रयोग एक समानता-आधारित समाज का प्रतीक माना गया. मगर मार्क्स और उसके मित्र ऐंगल्स को उसी से संतुष्टि नहीं थी. उनकी आंखों में साम्यवाद और पूर्णतः वर्गहीन समाज का सपना बसा था. कम्यून-व्यवस्था को वे नौकरीपेशा मजदूरों (बुर्जुआ वर्ग) की तानाशाही मानते थे. उनका तर्क था कि, ‘राज्य और कुछ नहीं, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का अवसर देने वाली मशीन है…’ दोनों का विश्वास था कि श्रमिक-क्रांति द्वारा विनिर्मित ‘नवीन एवं मुक्त सामाजिक परिवेश में एक दिन सभी साहूकारों, पूंजीपतियों को कूड़े के ढेर में बदला जा सकेगा.’9 पेरिस कम्यून साम्यवाद की स्थापना का पहला चरण था. सरकार के भारी बलप्रयोग द्वारा समाप्त कर दिया गया, मगर समाजवादी व्यवस्था का जो रास्ता उसने दिखाया, वही आगे चलकर मार्क्स और ऐंगल्स के वैज्ञानिक समाजवाद के रूप में विकसित हुआ था, जिसने कुछ दशकों में ही दुनिया के लगभग आधे देशों में अपनी अच्छी-खासी पैठ बना ली.

पेरिस कम्यून की असफलता के पीछे मजदूर नेताओें के आपसी मतभेद भी थे. उनमें से हर कोई क्रांति का श्रेय स्वयं लेना चाहता था. इनमें मार्क्स और बकुनाइन के मतभेद भी जगजाहिर हैं. पेरिस क्रांति के बड़े नेताओं में से एक बकुनाइन का मानना था कि मार्क्स जर्मन मूल का घमंडी यहूदी है. तानाशाही उसके स्वभाव का स्वाभाविक हिस्सा है. इसलिए वह फस्र्ट इंटरनेशनल के माध्यम से श्रमिकों को अपनी तरह से हांकना चाहता है. दूसरी ओर मार्क्स मानता था कि सर्वहारा वर्ग को अपना राजनीतिक दल स्वयं गठित कर, अन्य राजनीतिक दलों को राजनीति के मैदान में ही टक्कर देनी चाहिए. बकुनाइन और उसके समर्थकों के लिए पेरिस कम्यून वांछित परिवर्तन की दिशा में क्रांतिकारी कदम था, जिसके माध्यम से वे सोचते थे कि मार्क्स द्वारा कल्पित ‘आधिकारिक साम्यवाद’ को जवाब दिया जा सकता है. इस तरह वे मार्क्स की उस छवि को धूमिल करना चाहते थे, जो कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो के बाद बुद्धिजीवियों और श्रमिकों के बीच बनी थी.

बहरहाल मार्क्स और बकुनाइन के समर्थकों के बीच विवाद बढ़ता ही बढ़ता ही गया, जिसके परिणामस्वरूप बकुनाइन को ‘फस्र्ट इंटरनेशलन’ से निष्कासित होना पड़ा. मगर विवाद का यहीं अंत नहीं था. बकुनाइन के निष्कासन के बाद भी विवाद थमा नहीं था. परिणामस्वरूप श्रमिक नेताओं और विचारकों में फूट बढ़ती ही गई. जिस ऊर्जा और बौद्धिक क्षमता का उपयोग क्रांति को सफल बनाने के लिए किया जाना चाहिए था, वह लगातार कमजोर पड़ता चलता गया. इससे लोगों का विश्वास अपने नेताओं से उठता चला गया. मार्क्स भी इससे काफी निराश हुआ. परिणाम यह हुआ कि उसने स्वयं को अध्ययन और लेखन के प्रति समर्पित कर दिया. जो हो, मार्क्स का सपना आज भी मरा नहीं है. पूंजीवाद के इस इस घनघोर जंगल में, इस शोषणकारी व्यवस्था में आज भी उसकी प्रासंगिकता पूर्वतः बनी हुई है. 
श्री ओम प्रकाश कश्यप के ब्लाग आखरमाला से साभार ...