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रविवार, 28 दिसंबर 2014

'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' .... सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भारत में धर्म और संस्कृति का ऐसा घालमेल हुआ है कि साम्प्रदायिक लोग तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को धार्मिक मूल्य प्रदर्शित करते हुए वैसे ही साम्प्रदायिकता का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जैसे साम्प्रदायिक लोग विवेकानन्द की छाप का झंडा उठा कर साम्प्रदायिकता उत्थान में जुट जाते हैं।

इन्हीं दिनों मुझे निराला जी की जनवरी 1938 में माधुरी मासिक में छपी कहानी 'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' पढ़ने को मिली। कहानी का आरंभिक अंश तमाम धर्मों के बारे में उन की समझ को अभिव्यक्त करता है। देखिए और निराला के व्यंग्य का आनन्द भी लीजिए ...

“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है -धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी जी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा -धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किए शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने साथ 'शास्त्रिणी' का साइन-बोर्ड टाँगा-धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रीणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं-धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-धर्म की रक्षा के लिए।

इस से सिद्ध है, धर्म बहुत ही व्यापक है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वालों का कहना है कि नश्वर संसार का कोई काम धर्म के दायरे से बाहर नहीं। सन्तान पैदा होने के पहले से मृत्यु के बाद-पिण्डदान तक जीवन के समस्त भविष्य, वर्तमान और भूत को व्याप्त कर धर्म-ही-धर्म है।

जितने देवता हैं, चूँकि देवता हैं, इसलिए धर्मात्मा हैं। मदन को भी देवता कहा है। यह जवानी के देवता हैं। जवानी जीवन भर का शुभमुहूर्त है, सबसे पुष्ट कर्मठ और तेजस्वी देवता मदन, जो भस्म हो कर नहीं मरे, लिहाजा काल और काल के देवता, सब से ज्यादा सम्मान्य, फलतः क्रियाएँ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण, धार्मिकता को लिए हुए। मदन को कोई देवता न माने तो न माने, पर यह निश्चय है कि आज तक कोई देवता इन पर प्रभाव नहीं डाल सका। किसी धर्म शास्त्र या अनुशासन को यह मान कर नहीं चले, बल्कि धर्म, शास्त्र और अनुशासन के मानने वालों ने ही इन की अनुवर्तितता की है। यौवन को भी कोई कितना निन्द्य कहे, चाहते सभी हैं, वृद्ध सर्वस्व भी स्वाहा कर। चिन्ह तक लोगों को प्रिय हैं - खिजाब की कितनी खपत है? धातु पुष्ट करने की दवा सब से ज्यादा बिकती है। साबुन, सेण्ट, पाउडर, क्रीम, हेजलीन, वेसलीन, तेल-फुलेल, के लाखों कारखाने हैं इस दरिद्र देश में। जब न थे रामजी और सीताजी उबटन लगाते थे। नाम और प्रसिद्धि कितनी है- संसार की सिनेमा स्टारों देख जाइए। किसी शहर में गिनिए-कितने सिनेमा हाउस हैं। भीड भी कितनी- आवारागर्द मवेशी काइन्ज हाउस में इतने न मिलेंगे। देखिए-हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, क्रिस्तान-सभी; साफा, टोपी, पगड़ी, कैप, हैट और पाग से लेकर नंगा सिर-घुटन्ना तक; अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, साम्राज्यवादी, आतंकवादी, समाजवादी, काजी, सूफी से लेकर छायावादी तक, खड़े-बेड़े, सीधे-टेड़े,-सब तरह के तिलक-त्रिपुण्ड; बुरकेवाली, घूंघटवाली, पूरे और आधे और चौथाई बालवाली, खुली और मुंदी चश्मेवाली आँखें तक देख रही हैं; अर्थात् संसार के जितने धर्मात्मा हैं, सभी यौवन से प्यार करते हैं। इसलिए उन के कार्य को भी धर्म कहना पड़ता है। किसी के कहने-न मानने से वह अधर्म नहीं होता।...”

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सरस्वती मेरे भीतर वास करती है ...

ब मैं छोटा था, यही करीब चार-पाँच बरस का, और खुद ठीक से  नहाना नहीं सीख सका था। यदि खुद नहाना होता था तो सर्दी में उस का मतलब सिर्फ यही होता था कि दो लोटा गरम पानी बदन पर डाल कर उसे गीला किया और तौलिए से पोंछ लिया। लेकिन गर्मी में उस का मतलब नदी पर जाना और घंटों तैरते रहना, जब तक कि मन न भर जाए, या कोई बड़ा डाँट कर बाहर निकलने को न कहे। यही कारण था कि कम से कम सर्दी के मौसम में नहलाने का काम माँ किया करती थी। अब भी कम से कम सात-आठ बरस का होने तक बच्चों को नहलाने की जिम्मेदारी माओं को ही उठानी पड़ती है, और शायद हमेशा उठानी पड़ती रहे। फरवरी में जब सर्दी कम होने लगती तो माँ नहाने को बुलाती, मैं पानी में हाथ डाल कर कहता -पानी कम गरम है। तब माँ मुझे पकड़ती और झट से एक लोटा पानी मेरे सर पर डाल देती। फिर मुझे मेरी पुस्तक में छपा वह गीत गाने को बोलती ...
आया वसंत, आया वसंत 
वन उपवन में छाया वसंत 
गेंदा और गुलाब चमेली 
फूल रही जूही अलबेली
देखो आमों की हरियाली 
कैसी है मन हर्षाने वाली 
जाड़ा बिलकुल नहीं सताता
मजा नहाने में है आता ......
ब तक मैं गीत पूरा सुनाता, माँ मुजे नहला कर तौलिए में लपेट चुकी होती थी। वसंत के दिन कोशिश की जाती कि हलके पीले रंग के कपड़े पहने जाएँ। दादा जी मंदिर में पीले रंग के वस्त्र ही ठाकुर जी को पहनाते। उस दिन भोग में मीठा केसरिया भात बनता। मंदिर में वसंत का उत्सव होता, गुलाल के टीके लगाए जाते और केसर का घोल दर्शनार्थियों पर छिड़का जाता। अपने कपड़ों पर वे पीले छींटे देख लोग प्रसन्न हो जाते। केसरिया भात का प्रसाद ले कर लोग घर लौटते। स्कूल में भी  आधा दिन पढ़ाई के बाद वसंत पंचमी मनाई जाती। एक ओर देवी सरस्वती की तस्वीर रखी होती तो दूसरी ओर महाकवि निराला की। बालकों को निराला के बारे में बताया जाता। 
क अध्यापक थे नाम मुझे अब स्मरण नहीं पर वे हमेशा हर सभा में अवश्य बोलते। वसंत पंचमी पर वे कहते "आज प्रकृति का उत्सव है, उस प्रकृति का जो हमें सब कुछ देती है, हमें पैदा करती है, उल्लास और जीवन देती है। आज निराला का जन्मदिन है और आज ही माँ सरस्वती की पूजा का दिन भी। लेकिन सरस्वती की पूजा वैसे नहीं होती जैसे और लोग करते हैं। उस की पूजा करनी है तो ज्ञान अर्जित करो और उस ज्ञान का स्वयं के पालन और समाज की बेहतरी के लिए काम करो।"  वे आगे कहते "जानते हो सरस्वती कहाँ रहती है? नहीं जानते। मैं बताता हूँ। सरस्वती हम सब के भीतर रहती है। दुनिया में कोई नहीं जिस के भीतर सरस्वती का वास न हो, बस लोग इसे मानते नहीं हैं। वह ज्ञानार्जन और अभ्यास से प्रसन्न होती है। जो जिस चीज का अधिक अभ्यास करता है वही उस में प्रवीण हो जाता है। इतना समझा कर वे वृन्द कवि का दोहा सुनाते ...
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान॥