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मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

कोविद-19 से लड़ाई मैदान में हमें खुद लड़नी पड़ेगी?


पिछले चार-पाँच दिनों से जिस तरह की रिपोर्टें आ रही हैं उन से लग रहा था कि भारत में 75-80 प्रतिशत कोरोना संक्रमित ऐसे हैं जिनमें कोई लक्षण ही नहीं नजर आ रहे हैं। वे समाज में खुले घूम रहे हैं और निश्चित ही अनेक को संक्रमित भी कर रहे हैं। इस पर कल ही लिखना चाहता था, पर अधिकारिक निष्कर्ष के बिना इस लेख को ले कर मेरी कुटाई भी हो सकती थी। लेकिन कल एमआईसीआर ने भी इस तथ्य की पुष्टि कर दी है।

इस स्थिति में यदि हम देश को कोविद-19 मुक्त करना चाहें तो देश के हर निवासी का हमें टेस्ट करना पड़ेगा वह भी एक बार नहीं कम से कम कुछ कुछ अन्तराल से तीन बार। फिर उन्हें क्वेरंटाइन कर के उनके संक्रमण को समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और उन्हें जीवित बनाए रखने के प्रयास भी जारी रखने होेगे। देश को सारी दुनिया से तब तक काट कर रखना होगा जब तक कि दुनिया कोविद-19 से मुक्त न हो जाए। जो मैं कह रहा हूँ, वह भारत के किसी एक नगर के लिए भी संभव नहीं है। राज्य और देश तो बहुत दूर की बातें हैं। फिर?

हमने देश को लॉकडाउन करके 40 करोड़ रोज मजदूर आबादी को संकट में डाल दिया है। उन्हें उनके घरों तक या जहाँ उन्हें काम उपलब्ध हो सके वहाँ तक पहुँचाने में हम असमर्थ हैं। हमने उन्हें परिस्थितियों की दया पर छोड़ दिया है। हम बाहर पढ़ रहे बच्चों को लाने मे राज्यों की मशीनरी झोंक चुके हैं। पर देश का निर्माण करने और उसे चलाने वाले मजूरों के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।

लॉकडाउन के एक माह में हम बेहाल हो चुके हैं। हम अधिक दिनों तक इस बीमारी का बोझा नहीं ढो सकते। सरकारें दिवालिया होने की कगार पर हैं। हम रिजर्व बैंक के रिजर्व को खर्च कर रहे हैं। उसका भी अधिक लाभ जनता को नहीं, वित्तीय पूंजी के रक्षक और पूंजीपतियों की सेवा करने वाले बैंकों को मिल रहा है।

लॉकडाउन  इस महामारी का इलाज नहीं है, न ह ो सकता है।  इस लॉकडाउन ने हमें रुक कर सोचने का मौका दिया है।  फिलहाल हमें सामाजिक सामञ्जस्य के साथ भौतिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं)  का अभ्यास करना है,  मास्क लगाने, नियमित रूप से हाथ साफ करने   तथा दूसरे साफ सफाई के तरीके  अपनाने और उन्हें आदत बना लेने  की जरूरत है। यही इस महामारी का इलाज हैं। 

आने वाला वक्त मुझे लगता है ऐसा हो सकता है बीमारी और मौत का डर छोड़ कर हमें अपनी वास्तविक गति में आने को बाध्य होना पड़ेगा। वही इस का इलाज भी होगा। हमें कोविद-19 से  लड़ाई हमें  घरों में छुप कर नहीं बल्कि मैदान में आ कर  खुद लड़नी होगी। लड़ाई में जरूर कुछ हजार या लाख खेत रह सकते हैं। तो वे तो अब भी खेत रह रहे हैं। पर अभी हमने सब कुछ दाँव पर लगा रखा है। तब शायद सब कुछ दाँव पर नहीं होगा। क्या होगा? यह तो भविष्य ही बता सकता है।


गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-7


मजदूरों के पलायन की वजह क्या थी?

भारत के प्रधानमंत्री ने 24 मार्च 2020 की शाम 8 बजे टीवी-रेडियो से जीवित प्रसारण में सूचना दी कि कोविद-19 महामारी से बचाव के लिए आधी रात अर्थात 25 मार्च शुरु होते ही देश भर में 21 दिनों का लॉकडाउन आरंभ हो जाएगा। इस के पहले उन्होंने 19 मार्च की रात 8 बजे 22 मार्च की सुबह 7 से रात 9 बजे तक जनता कर्फ्यू रखे जाने का आव्हान किया था। जिसके दौरान शाम 5 बजे थाली, ताली, घण्टे बजा कर कोविद-19 से बचाव में लगे स्वास्थ्य और पुलिसकर्मियों का आभार व्यक्त करने का भी आव्हान किया था। 22 मार्च की कवायद एक तरह की मोक-ड्रिल थी जो इसलिए कराई गयी थी कि भौतिक-दूरी (कथित सोशल डिस्टेंस) बनाए रखने को आदत बनाने का आरंभ किया जाए।
22 मार्च की यह कवायद शाम पाँच बजे तक ठीक चली। लेकिन शाम पाँच बजते ही वह भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसद में विश्वास मत जीत लेने के जश्न में बदल गयी। उन के विश्वसनीय समर्थकों यहाँ तक कि उनकी पार्टी के जाने-माने नेताओँ और अनेक सरकारी अफसरों ने भौतिक-दूरी की इस कवायद की बैंड बजा दी। ये लोग जलूस के रूप में सड़क पर निकल आए। थालियाँ- तालियाँ और घंटे-झालरें बजाते हुए मोदी जी की जयजयकार करने लगे। मोदी जी ने आभार प्रकट करने के इस घन्टा-नाद का समय शाम 5 बजे का ही क्यों रखा यह आज तक समझ नहीं आया।
हम इसे समझने की कोशिश करें तो हमें बन्द के आवाहनों के ताजा इतिहास में जाना पड़ेगा। मेरे 65 वर्ष के जीवन में मैंने उत्तर भारत में जितने नगर, प्रान्त या भारत बंद देखे हैं, उनमें से अधिकांश भारतीय जनता पार्टी, पूर्व जनसंघ या उसके बिरादर संगठनों के आव्हानों पर आयोजित हुए हैं। ये बन्द दिन भर के लिए होते हैं, और ज्यादातर तोड़-फोड़, मार-पीट और संपत्ति को हानि पहुँचने के भय से पूरे या पौने सफल भी हो जाते हैं। लेकिन शाम चार बजने के बाद धीरे-धीरे चहल-पहल बढ़ती है और शाम 5 बजते बजते बाजार आबाद हो जाते हैं। उसी समय आव्हान करने वाले कार्यकर्ता बंद की सफलता की आदिम प्रसन्नता अभिव्यक्त करने के लिए छोटे-मोटे जलूस निकालने लगते हैं। यह व्यवहार इन दक्षिणपंथी संगठनों की एक स्थायी आदत बन चुका है। इस आदत के चलते मुझे पहले ही लग रहा था कि ऐसा कुछ होने वाला है, और यह हुआ भी। भारतीय मीडिया ने जिसका अधिकांश पूरी तरह प्रधानमंत्री के समक्ष नतमस्तक है, जनता कर्फ्यू की सफलता को प्रधानमंत्री की जीत के रूप में अभिव्यक्त किया और विजय के विद्रूप प्रदर्शनों को छोटी-मोटी गलती बताया। बाद में प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी के इन नेताओँ और समर्थकों के व्यवहार पर अपने ट्वीट में या अन्यथा किसी भी प्रकार कोई आपत्ति या नाराजगी व्यक्त नहीं की। इससे यही समझा जा सकता है कि वे इससे प्रसन्न थे और ऐसा होते देखना चाहते थे। मेरे जैसे लोगों ने और मीडिया के उंगलियों पर गिने जाने वाली इकाइयों ने इस पर आश्चर्य प्रकट किया भी तो वह नगाड़ों के शोर में तूती की आवाज सिद्ध हुई और इसे खिसियाना भी कहा गया।
जब 24 मार्च की शाम देश को लॉक-डाउन करने के आव्हान का प्रसारण हुआ तो लॉक-डाउन शुरू होने के पहले लोगों के पास केवल 4 घंटों का समय था। लॉक-डाउन में अत्यावश्यक सेवाओँ के सिवा सभी कुछ बन्द हो जाना था। सरकारी कार्यालय, बाजार, दुकानें, कारखाने, निर्माण कार्य वगैरा-वगैरा। इस घोषणा के बाद से ही मध्यवर्ग बाजारों में निकल पड़ा कि जैसे-तैसे महीने भर घर पर रहने का राशन-पानी इकट्ठा कर ले। बाजारों में बड़ी भीड़ इकट्ठा हो गई और देखते ही देखते दुकानें सामानों से खाली नजर आने लगीं। यह तो मध्यवर्ग था जो इतना कुछ खरीद भी सकता था। लेकिन मजदूर वर्ग की रोज-मजूरी करने वाली आबादी के सामने भीषण संकट खड़ा हो गया था। अगले दिन से उन्हें कई दिनों तक रोजगार नहीं मिलने वाला था। यह महीने के बीच का समय था। रोज-मजूरों के जेबें लगभग खाली थीं। यदि वे खरीददारी के लिए निकलते भी तो अधिक से अधिक सप्ताह भर का राशन ही खऱीद सकते थे।
एक आकलन के अनुसार देश में लगभग 45 करोड़ लोग रोज-मजदूरी पर निर्भर हैं। यह भारत की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा है। जीवन के उनके अपने अनुभव हैं। मैंने खुद देखा है, अनेक बार ठेकेदार एक दो सप्ताह या महीने भर काम कराने के बाद उनकी मजदूरी देने से मना कर देते हैं। देश के किसी राज्य में ऐसी व्यवस्था नहीं कि उनकी बकाया मजदूरी तत्काल या महीने-दो महीने तो क्या साल भर में भी दिला सके। कानूनी व्यवस्था ऐसी है कि बकाया मजदूरी वसूलने में एडियाँ घिस जाती हैं, वकीलों को फीस देनी पड़ती है और बरस लग जाते हैं। फिर भी मजदूरी नहीं मिलती। अब रोज-मजदूर बकाया मजूदूरी के लिए बरसों चलने वाली लड़ाई लड़े या जहाँ उसे मजदूरी मिलती हो वहाँ जा कर मजदूरी करे। अधिकतर मामलों में वह सरकारी दफ्तरों में शिकायत करने और उनके चक्कर काट-काट कर थक जाने के बाद मजदूरी को डूबी मान कर अपना रास्ता देखता है।
लॉक-डाउन की घोषणा के साथ ही आबादी के इस हिस्से पर भीषण गाज गिर पड़ी थी। अपने अनुभव से वह जान चुका था कि 21 दिन तो आरंभ है। पड़ौसी देश चीन और दूसरे देशों से आ रही खबरें भी उनके कानों तक पहुँच ही रही थीं। इन से वह समझ गया था कि यह लॉक-डाउन महीनों चल सकता है। इसके समाप्त हो जाने पर भी गतिविधियाँ कई चरणों में आरंभ होंगी। इस कारण कम से कम अगले छह माह संकट में गुजरने वाले हैं। नगरों और महानगरों में जीना दूभर हो जाएगा। वहाँ काम मिलने में समय लगेगा। 
रोज-मजूरों के इस वर्ग एक हिस्सा ऐसा है जिनके परिवारों के पास कुछ न कुछ खेती की जमीनें हैं और परिवार के अधिकांश सदस्य मजदूरी के लिए नगरों-महानगरों को निकल जाते हैं। जब कि कुछ गाँव में बने रहते हैं जो उस नाम मात्र की पारिवारिक स्वामित्व की जमीन पर तथा ग्रामीण मजदूरी पर निर्भर करते हैं। गाँव में उनके पास रहने के लिए स्थान की कमी नहीं। कम से कम उसके लिए किराया नहीं देना पड़ता। रोज-मजूरों का दूसरा हिस्सा पूरी तरह भू-विहीन है। उसे भी पता था कि इस समय जब शहर में काम बन्द हो गया है, तब गाँवो में फसलें खड़ी हैं और इस बार यातायात के साधन बन्द हो जाने से फसलों की कटाई से ले कर उसे तैयार करने के लिए बाहर का मजदूर नहीं आएगा। लगभग हर गाँव में इस समय कम से कम 15 से 35 दिनों की मजदूरी उसे अवश्य ही मिल जाएगी, जो कुछ नकद होगी और कुछ अनाज के रूप में। इस से उनकी प्राण रक्षा हो सकेगी।
निर्माण मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिए 1996 में बनाए गए कानून के अंतर्गत जरूर कुछ उपाय पिछली मनमोहन सरकार के दौरान आरंभ किए गए थे। इस योजना में पंजीकृत मजदूरों के लिए तो कुछ सुविधाएँ मिलने की संभावना थी लेकिन अन्य मजदूरों के लिए किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। ऐसी सुविधा जिस से वे कुछ दिनों या महीनों के संकट में कुछ मदद की आशा कर सकें। ऐसे में उनके पास एक ही मार्ग था कि वे अपने घरों की ओर निकल पड़ें। इन रोज-मजूरों को अपने जीवन का तात्कालिक आश्रय अपने-अपने गाँवों में दिखाई पड़ा। उसे जैसे समझ पड़ा वह उसी रात, या अगले 1-2 दिनों में जैसे बन पड़ा गाँव के लिए निकल पड़ा। रोज-मजूरों के पास सामाजिक सुरक्षा का यही अभाव देश व्यापी नगर से गाँव की ओर पलायन का मुख्य कारण बना। जिस से आजादी के समय हुए देश के बँटवारे के समय हुए पलायन के बाद का सब से बड़ा पलायन देश को देखने को मिला। बहुत हृदय विदारक दृश्य देखने को मिले। इस पलायन से कोविद-19 को देश भर में फैल जाने का खतरा बढ़ गया।
इस तरह हम देखते हैं कि परिस्थितियों का सम्यक मूल्यांकन किए बिना जल्दबाजी में और बिना समय तथा अवसर प्रदान किए किया गया लॉक-डाउन ही इस वृहत-पलायन का आधार बना। यह बहुत जरूरी था लेकिन इस की तैयारी पहले से की जानी चाहिए थी।                    .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- लॉक-डाउन के बाद भी संक्रमण कैसे फैला?

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-6


छँटनी की परिभाषा बदलने से जन्मी श्रमिक-कर्मचारियों की नई श्रेणी

देश के श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में जो प्रकरण लंबित हैं, मेरे अनुमान के अनुसार उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक केवल छंटनी के मामले हैं। 1984 में छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन के पहले तक उसकी सामान्य व्याख्या यह थी कि नियोजक द्वारा किसी भी श्रमिक की प्रत्येक सेवा समाप्ति चाहे वह किसी भी कारण से की गयी हो छँटनी है। केवल कुछ प्रकार की सेवा समाप्तियाँ थी जो उस परिभाषा के बाहर थीं। छँटनी की परिभाषा से बाहर की गई सेवा समाप्तियों में, श्रमिक द्वारा स्वेच्छा से ली गयी सेवानिवृत्ति, सेवा संविदा के अनुसार निर्धारित उम्र हो जाने के कारण हुई सेवानिवृत्ति तथा लगातार बीमारी के कारण की गयी सेवा समाप्तियाँ थीं। 1984 में इनमें नियोजन के कॉन्ट्रेक्ट में वर्णित रीति से की गयी सेवा समाप्ति तथा इस कॉन्ट्रेक्ट का नवीनीकरण  न होने पर कॉन्ट्रेक्ट की अवधि की समाप्ति पर हुई सेवा समाप्ति को भी इस में सम्मिलित कर दिया गया।
इस संशोधन ने श्रमिकों की एक नई श्रेणी को जन्म दिया। यह तो सभी जानते हैं कि देश में बेरोजगारी की दर अत्यधिक है। जब बेरोजगारी की दर अधिक होती तो नौकरी चाहने वालों की नियोजक के साथ होने वाले नियोजन के कान्ट्र्रेक्ट में अपनी शर्तें शामिल करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। किसी भी काम चाहने वाले बेरोजगार व्यक्ति को नियोजक की शर्तों पर ही काम करना स्वीकार करना पड़ता है।  इस तरह इस संशोधन ने श्रमिकों के बेपानाह शोषण की छूट पूंजीपतियों को दे दी। और केवल पूंजीपति ही क्यों केन्द्र और राज्य सरकारें, सरकारी संस्थान और सार्वजनिक संस्थान भी उस छूट का लाभ उठाने में पीछे नहीं रहे।
इस संशोधन के बाद से नियोजक अब तमाम कामों के लिए श्रमिक कर्मचारी नियोजित करने के सम ही उसके नियुक्ति पत्र में यह शर्त रखने लगे कि यह नियुक्ति 3 या 6 माह के लिए अथवा 1, 2, या 3 वर्ष के लिए है और यह अवधि समाप्त होने पर स्वयमेव समाप्त हो जाएगी। इस तरह के श्रमिक कर्मचारियों को संविदा कर्मचारी या संविदा श्रमिक कहा गया। धीरे-धीरे यह शब्द प्रचलित हो गया और उनकी अलग श्रेणी बन गयी। अब यह श्रेणी आम है। इन संविदा कर्मियों को एक निश्चित वेतन दिया जाता है, आठ घण्टों के स्थान पर कई-कई घण्टे काम लिया जाता है, साप्ताहिक अवकाश के दिनों में भी काम लिया जाता है। उनसे निर्धारित कार्य जिसके लिए वे नियोजित किए गए होते हैं उन कामों के अतिरिक्त अनेक प्रकार काम लिए जाते हैं। उनके अधिकारी उन से घरों के काम भी खूब कराते हैं।
इस तरह इस संशोधन ने ठेकेदार श्रमिकों के बाद सबसे अधिक शोषित श्रमिकों / कर्मचारियों की नई श्रेणी खड़ी कर दी। आज तमाम सरकारी अर्ध-सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक उद्योगों में इस तरह के कर्मचारियों की भरमार है। ये कर्मचारी भर्ती नियमो के भी परे हैं। समय-समय पर सरकार के मंत्री यह घोषणा करते रहते हैं कि संविदा कर्मचारियों को स्थायी नौकरी देने पर विचार किया जाएगा। ये घोषणाएँ वह चारा है जो तांगे वाले ने एक बाँस पर बान्ध कर घोड़े के आगे उसकी पहुँच से दूर लटका रखा है। घोड़ा दौड़ता है यह सोच कर कि जल्दी ही उसे चारा खाने को मिलेगा। लेकिन जितना वह दौड़ता है चारा आगे खिसकता जाता है और कभी भी उसे नहीं मिलता।  घोड़े को जितनी तेज भूख लगती है वह उतनी ही तेज भागता है। तांगे का मालिक घोड़े को कभी भरपेट चारा नहीं देता। क्यों कि भरपेट खाना मिल जाने पर तो चारे से अरूचि हो जाएगी और वह सुस्त चलने लगेगा। इस रूपक में ये संविदा कर्मचारी और श्रमिक घोड़े हैं।
हालाँकि इस लॉकडाउन में हुए मजदूरों के पलायन में ये संविदा श्रमिक सम्मिलित नहीं हैं। लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम में इस संशोधन ने भारत में श्रम-बाजार के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है। इस संशोधन के पहले जहाँ पूंजीपति और सरकारें खुद कानूनों से बंधी महसूस करती हैं। अब पूरी तरह आजादी की साँस लेने लगी हैं। उन के हिस्से में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ गयी है। वहीं श्रमजीवी जनता के हिस्से में ऑक्सीजन कम हो गयी है और उस का दम घुट रहा है।                                            .... (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें- इतने भारी पलायन की वजह क्या है?

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-5

श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

फरवरी 1978 में सुप्रीमकोर्ट के 7 न्यायाधीशों की वृहत पीठ ने बैंगलोर वाटर सप्लाई एण्ड सीवरेज बोर्ड व अन्य बनाम आर. राजप्पा व अन्य के मुकदमे में निर्णय पारित कर यह स्पष्ट कर दिया था कि किस तरह के संस्थानों को उद्योग कहा जाएगा। इस निर्णय से बहुत बड़ी संख्या में संस्थान उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और उनके कर्मचारियों को औद्योगिक विवाद अधिनयिम के अंतर्गत अपने विवाद उठाने का अधिकार मिल गया था। इससे देश भर के पूंजीपतियों को बहुत परेशानी हो गयी। तब केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार थी जो अपने ही अन्तर्विरोधों के कारण अस्थिर थी। 1979 में संसद भंग हो गयी और मध्यावधि चुनाव हुए। जिनमें कांग्रेस फिर से शासन में आ गयी और श्रीमती इन्दिरा गांधी फिर से प्रधान मंत्री चुनी गयी।  पूंजीपति केन्द्र सरकार पर लगातार दबाव बनाने लगे कि ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदला जाए तथा जो संस्थान बैंगलोर वाटर सप्लाई केस के निर्णय के बाद उद्योग की श्रेणी में आ गए थे उन्हें फिर से इस से बाहर किया जाए। उसी साल सितम्बर माह में सुप्रीम कोर्ट ने अन्य केस एक्सल वियर व अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया व अन्य के केस में यह निर्धारित कर दिया गया था पूंजीपतियों पर उद्योग बंद करने के के पूर्व सरकार से अनुमति प्राप्त करने की पाबंदी लगाने का 1976 में पारित किया गया संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया था और अब उन्हें उद्योगबंदी करने के लिए किसी तरह की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता नहीं रही थी। इस निर्णय से मजदूर संगठनों में रोष था। उद्योगबंदी पर रोक के कानून को बनाए रखने के लिए कानून में संशोधन चाहते थे। इस तरह फिर से औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन किया जाना आवश्यक समझा जाने लगा था।

तब केंद्र सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम में संशोधन हेतु बिल प्रस्तुत किया जो 1982 में पारित हो गया। इस संशोधन द्वारा ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा को बदल दिया गया था। बड़े उद्योगों में विवादों को उद्योग में ही हल करने के लिए एक ग्रीवेंस कमेटी का प्रावधान किया था। सरकार जानती थी कि इस संशोधन कानून का विरोध होगा। उस विरोध को दबाने के लिए इस संशोधन में औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए समय सीमा निर्धारित कर दी थी। (जो कभी भी व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुई) किसी भी मजदूर की मृत्यु के कारण न्यायालय में लम्बित कोई भी विवाद समाप्त नहीं होने की व्यवस्था की गयी थी। सेवा से हटाए गए मजदूर को पुनः सेवा में लिए जाने का निर्णय श्रम न्यायालय से होने तथा आगे ऊंची अदालत में उस निर्णय को चुनौती दिए जाने पर मजदूर को अन्तिम प्राप्त वेतन पाने का अधिकारी बना दिया गया। उद्योग बंदी और ले-ऑफ को कुछ हद तक रोके जाने की व्यवस्था की गयी। इसके साथ ही अनुचित श्रम आचरण को परिभाषित करने के लिए कुछ कृत्यों की एक सूची कानून में जोड़ी गयी और उसे दंडनीय अपराध बना दिया गया था। लेकिन मजदूरों के पक्ष में दिखाई देने वाले इन प्रावधानों में इतने छेद रखे गए थे कि वे व्यवहारिक सिद्ध नहीं हुए।

मजदूर यूनियनों ने इस संशोधन से ‘उद्योग’ की परिभाषा को बदल देने का जबरर्दस्त विरोध किया। जिसके कारण यह पूरा संशोधन अधिनियम 1984 तक लागू नहीं किया जा सका। 1984 में एक और बिल पारित हुआ जिसके द्वारा छंटनी की परिभाषा में परिवर्तन किया गया। 1982 और 1984 के संशोधन अगस्त 1984 में प्रभावी कर दिए गए। मजदूर यूनियनों के विरोध के कारण ‘उद्योग’ शब्द की परिभाषा बदलने के प्रावधान को कभी लागू नहीं किया जा सका। लेकिन उसे कभी निरस्त भी नहीं किया गया, वह आज भी अप्रभावी प्रावधान के रूप में कानून की किताब में मौजूद है।

इन दोनों संशोधनों के प्रभावी होने के बाद आज तक का अनुभव रहा है कि श्रमिक की मृत्यु हो जाने पर यदि उसका कोई विधिक प्रतिनिधि रेकार्ड पर नहीं लाया जाता है तो वह विवाद समाप्त तो नहीं होता, लेकिन उस विवाद में श्रमिक के विधिक प्रतिनिधियों को न्यायालय से कोई राहत नहीं मिलती जिससे वह लगभग निष्प्रभावी सिद्ध हुआ है।  औद्योगिक विवादों को तीन माह और एक वर्ष में निपटारा किए जाने का जो निर्देशक प्रावधान किया गया था वह पूरी तरह बेकार सिद्ध हुआ क्योंकि इसे प्रभावी बनाने के लिए पर्याप्त मात्रा में श्रम अदालतें खोली जानी थीं। लेकिन सरकारों ने ऐसा नहीं किया। नतीजे में अभी भी 20 से 30 वर्ष से अधिक पुराने मुकदमे लंबित हैं। अनेक विवादों में मुकदमों के चलते श्रमिक की मृत्यु ही हो जाती है, या सेवा निवृत्ति की आयु ही व्यतीत हो जाती है। श्रमिक को सेवा में पुनर्स्थापित करने का निर्णय होने पर उसे नियोजक द्वारा चुनौती देने पर श्रमिक द्वारा जब तक उच्च न्यायालय को आवेदन नहीं दिया जाता तब तक उसे न तो सेवा में लिया जाता है और न ही उस का अंतिम वेतन आरंभ किया जाता है। उच्च न्यायालयों में चुनौती देने वाली अधिकांश याचिकाएँ दस वर्ष से भी अधिक समय से लंबित पड़ी हैं। अनुचित श्रम आचरण के लिए किसी  नियोजक को दंडित करने का समाचार कभी नहीं मिला। उसके अभियोजन की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि दंडित कराने के लिए आवेदन करने वाला  श्रमिक थक कर ही हार जाता है। इस तरह समय ने यह सिद्ध किया कि श्रमिकों के हक में दिखाई देने वाले कानून सिर्फ दिखावे के साबित हुए।

उद्योग को बंद करने के लिए सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त करने का प्रावधान भी बेकार सिद्ध हुआ। पूंजीपतियों ने नई तरकीब यह निकाली कि वे अपनी कंपनी की बैलेंस शीट को दो-चार साल तक घाटे में दिखा कर उसे बीमार घोषित कराने और उद्योग के पुनर्संचालन के लिए सहायता प्राप्त करने केन्द्र सरकार द्वारा अलग से स्थापित बोर्ड फॉर इंडस्ट्रियल एंड फाइनेंशियल रिकंस्ट्रक्शन  (बीआईएफआर) के पास आवेदन करने लगे। बोर्ड से कंपनी को बीमार घोषित करवा कर उद्योग का संचालन बिना किसी पूर्वानुमति के बन्द करने लगे। एक कंपनी के मामले में तो यह भी हुआ कि सरकार ने उद्योग बंदी की अनुमति प्राप्त करने के आवेदन को निर्धारित अवधि के अन्तिम दिन अनुमति देने से इन्कार करने का आदेश पारित किया। लेकिन आदेश की प्रति समय पर उद्योग के प्रबंधक को श्रम विभाग द्वारा नहीं पहुँचाए जाने के कारण प्रबंधक उद्योग बंद कर चलते बने। श्रमिकों को बकाया वेतन और मुआवजा प्राप्त करने के लिए भी मुकदमे लड़ने पड़े और अनेक तो कभी प्राप्त ही नहीं कर सके। 

छंटनी की परिभाषा में जो मामूली परिवर्तन 1984 के संशोधन से किए गए थे वे मजदूर वर्ग के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुए। इस संशोधन ने बिना किसी कानूनी अधिकार वाले श्रमिक-कर्मचारियों की एक नई श्रेणी खड़ी कर दी।  जिसके सिर पर हमेशा नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती है।                                        .... (क्रमशः)



अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 के संशोधन से श्रमिक कर्मचारियों की कौन सी नई श्रेणी खड़ी हुई?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-4


नए कानूनों ने मजदूर वर्ग को कमजोर और असहाय बनाया

केन्द्र और देश के अधिकांश राज्यों में श्रीमती इन्दिरागांधी की पार्टी कांग्रेस (इ) की सरकारें थी। तभी ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम-1970 संसद में पारित हुआ। इसका उद्देश्य बताया गया था कि ठेकेदार मजदूरों को कुछ सुविधाएँ प्रदान की जाएंगी और जिन उद्योगों को जिन ट्रेड्स में उचित समझा जाएगा ठेकेदार के माध्यम से काम कराया जाना विधि से वर्जित किया जाएगा। किस उद्योग के किस ट्रेड में ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन किया जाएगा यह पूरी तरह केन्द्र या राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में रखा गया। इस कानून के पारित होने से पहले अक्सर मजदूरों के संगठन न्यायालय में औद्योगक विवाद उठाते थे और ठेकेदारी प्रथा को हटाने का आदेश औद्योगिक न्यायाधिकरण या श्रम न्यायालय से प्राप्त कर सकते थे। इस से उद्योगपतियों को बहुत परेशानी थी। उन्हें अपने यहाँ नियमित होने वाले कामों के लिए नियमित मजदूर नियोजित करने पड़ते थे जिन्हें ठेकेदार मजदूरों से लगभग दुगना वेतन व लाभ देना पड़ता था और उन का मुनाफा कम होता था। इस कानून के अंतर्गत अब मजदूर अदालत नहीं जा सकते थे। अब ठेकेदारी प्रथा का उन्मूलन पूरी तरह सरकार की मर्जी पर निर्भर था। यह तो सब जानते हैं कि जो सरकारें उद्योगपतियों के धन-बल पर शासन में आयी हों वे उनके हितों की अनदेखी नहीं कर सकतीं थी।

इस कानून के प्रभावी होने के पहले तक उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को यह भय रहता था कि नियमित कामों के लिए ठेकेदार मजदूरों से काम लिया गया तो अदालत उन मजदूरों को उद्योग का मजदूर घोषित कर के उन्हें उद्योग के मजदूरों के समान लाभ दिलाने का आदेश दे देगी। इस कानून के पारित होने का नतीजा यह हुआ कि पूंजीपति बेधड़क ठेकेदार मजदूरों से नियमित काम भी करवाने लगे। कारखानों और उद्योगों में नियमित मजदूरों की भर्ती कम होने लगी और वे काम ठेकेदारों के मजदूरों से कराए जाने लगे। धीरे-धीरे उद्योगों में नियमित मजदूरों की संख्या जो पहले 70-80 प्रतिशत होती थी अब 20-30 प्रतिशत तक रह गयी। ठेकेदार मजदूरों की संख्या बढ़ कर 70-80 प्रतिशत तक चली गयी।

इसके पूंजीपतियों को अनेक लाभ मिले। अब ठेकेदार मजदूरों पर नियमित मजदूरों की बनिस्पत आधा ही खर्च करना पड़ता था। ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देकर काम चलाया जाने लगा। इस से पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ गया। इस नए कानून ने जो सुविधाएँ देने का प्रावधान किया था वे सुविधाएँ भी उन्हें नहीं मिलीं। क्योंकि सुविधाएँ दी जा रही हैं या नहीं इस बात का निरीक्षण तो सरकारी निरीक्षकों को करना था।  इन निरीक्षकों को मैनेज करना तो पूंजीपतियों के बाएँ हाथ का खेल था। यदि मजदूर इन सुविधाओं को देने की मांग करते या ट्रेड यूनियन के सदस्य बनते या ट्रेड यूनियन के माध्यम से अपनी आवाज उठाते तो उन्हें नौकरी से हटाना बहुत आसान हो गया। पूंजीपति ठेकेदार का ठेका खत्म कर देते। जिससे सभी मजदूरों की नौकरियाँ चली जातीं। वे किसी दूसरे ठेकेदार के माध्यम से या उसी ठेकेदार के किसी रिश्तेदार के नाम से नया ठेका दे देते। नए मजदूरों को काम पर रख लिया जाता। यह देश में बेरोजगारों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण आसान था। इससे ठेकेदार मजदूरों को यह समझ आ गया कि वे अपने हकों की मांग नहीं कर सकते।

इसका दूसरा असर यह हुआ कि जैसे-जैसे उद्योगों में नियमित मजदूर कम होते गए वैसे-वैसे उनकी संगठन बना कर अपने हकों के लिए लड़ने की क्षमता भी कम होती गयी। इस तरह देश के मजदूर आंदोलन को धीरे-धीरे कमजोर बनाया गया। अनेक उद्योगों में समय-समय पर ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई नियमित मजदूरों की यूनियनों ने लड़ने का प्रयत्न किया। लेकिन ऐसे आंदोलन कुचल दिए गए। ठेकेदार मजदूर बेकार हो गए। यहाँ तक कि नियमित मजदूरों के नेताओं को भी अपनी नोकरियाँ खोनी पड़ीं। धीरे-धीरे नियमित मजदूरों की मजबूत यूनियने ठेकेदार मजदूरों की लड़ाई लड़ने से कतराने लगीं। पूंजीपतियों और उनके प्रचारक मध्यवर्ग और प्रेस ने ऐसी धारणाएँ पैदा की कि मजदूर नेता आंदोलन के माध्यम से अपने हित साधते हैं और ठेकेदार मजदूरों को उन की नौकरियाँ खोनी पड़ती हैं। इस तरह पूंजीपतियों ने मजदूर वर्ग के ईमानदार नेताओँ को बेईमान प्रचारित कर उन्हें मजदूर वर्ग से दूर करने में सफलता प्राप्त कर ली। दूसरी और पूंजीपति वर्ग ने अपने समर्थक नेताओं की यूनियनें खड़ी कीं। जिन का उद्देश्य मजदूरों को उनके हकों के लिए लड़ने से रोकना और मजदूरों के वोट पूंजीपति वर्ग के राजनैतिक दलों के पक्ष में मोड़ने का काम करना था। पूंजीपति वर्ग अपने इस उद्देश्य में एक हद तक सफल रहा।

लेकिन देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि कांग्रेस (इ) को 1977 में सत्ता से बाहर हौना पड़ा और जनता पार्टी सत्ता में आ गयी जिसमें दक्षिणपंथी हिन्दूवादी दल जनसंघ भी विलीन हो गया था। वामपंथी इसी कारण इस सरकार से बाहर रहे। लेकिन जब तक जनता पार्टी शासन में रही तब तक पूंजीपति अपना प्रभाव नहीं बना सके और मजदूर वर्ग के दमन का बड़ा अवसर प्राप्त नहीं हुआ। इस दौर में मजदूर वर्ग के आंदोलनों का एक बड़ा उभार देखा गया। लेकिन जल्दी ही जनता पार्टी अपने अंतर्विरोध से टूट गयी और पुनः इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में केन्द्र में सरकार बनी। कांग्रेस की इस नयी सरकार ने पुनः श्रम कानूनों में 1982 तथा 1984 में महीन परिवर्तन किए। कहा यह गया कि इस का लाभ मजदूर वर्ग को मिलेगा। लेकिन हुआ इस के उलट। मजदूर वर्ग की हालत श्रम कानूनों में इन परिवर्तनो से और बदतर हुई।                         ...  (क्रमशः)

अगली कड़ी में पढ़ें- 1984 में श्रम कानून में परिवर्तन से मजदूर वर्ग की स्थिति कैसे बदतर हुई?

शनिवार, 22 जून 2019

प्रधानाध्यापक की गवाही

पोक्सो की विशेष अदालत में (Protection of Children from Sexual Offences Act – POCSO) बच्चों का यौन अपराधों से बचाव अधिनियम में म.प्र. के झाबुआ जिले के एक आदिवासी भील नौजवान के विरुद्ध मुकदमा चल रहा है। उस पर आरोप है कि वह एक आदिवासी भील नाबालिग लड़की को भगा ले गया और उस के साथ यौन संबंध स्थापित किए। चूंकि मुकदमे में लड़की को नाबालिग बताया गया है इस कारण से यह यौन संबंध बलात्कार की श्रेणी में भी आता है। इस बलात्कार को साबित करने के लिए यह भी जरूरी है कि पीड़ित लड़की को नाबालिग साबित किया जाए। इस के लिए पुलिस अन्वेषक ने लड़की का पहली बार स्कूल में भर्ती होते समय भरा गया प्रवेश आवेदन पत्र तथा स्कॉलर रजिस्टर, अगले स्कूल की टी.सी. को भी सबूत के रूप में पेश किया था। इन दस्तावेजों को साबित करने के लिए जरूरी था कि मूल असली रिकार्ड न्यायालय के समक्ष लाया जाए जिसे स्कूल का वर्तमान प्रभारी इन दस्तावेजों को अपने बयान से प्रमाणित करे। 

उस प्राथमिक शाला का प्रधानाध्यापक गवाही देने आया। हालांकि स्कॉलर रजिस्टर की प्रतिलिपि अदालत में पुलिस द्वारा पेश की गयी थी। लेकिन वह असल रिकार्ड ले कर नहीं आया था। वैसी स्थिति में उस के बयान लेने का कोई अर्थ नहीं था। उसे हिदायत दी गयी कि वह अगली पेशी पर स्कॉलर रजिस्टर तथा प्रवेश पत्र साथ लेकर आए। 

अगली पेशी पर प्रधानाध्यापक असल स्कॉलर रजिस्टर साथ ले कर आया। साथ में प्रवेश आवेदन पत्र भी था। लेकिन मुझे प्रवेश आवेदन पत्र नकली और ताजा बनाया हुआ लगा। 2007 में जब प्रवेश आवेदन पत्र भरा गया था तब आधारकार्ड वजूद में नहीं थे। जब कि लाए गए प्रवेश आवेदन पत्र पर आधार कार्ड का विवरण दाखिल करने का कालम छफा हुआ मौजूद था। जो हर हाल में 2009 या उस के बाद का था। इस के अलावा उस का कागज बिलकुल अछूता लगता था, किसी फाइल में नत्थी करने के छेद उस में नहीं बने थे। मैं ने अदालत का ध्यान बंटाया कि यह प्रवेश आवेदन पत्र फर्जी लगता है और ताजा बनाया गया है। अदालत ने मेरी आपत्ति को तब दरकिनार किया और कहा कि एक बार यह दस्तावेज रिकार्ड पर तो आए। फिर देखेंगे। आखिर हेडमास्टर की गवाही शुरू हुई। मैं ने जिरह की। गवाही के अन्त में मैं ने गवाह से प्रवेश आवेदन पत्र के बारे में पूछना आरंभ किया। 

- क्या यह प्रवेश आवेदन पत्र पीड़ित लड़की का ही है? 

– हाँ। 

- इसे आप कहाँ से लाए? 

- स्कूल रिकार्ड से लाया हूँ। 

- पर यह तो ताजा बना हुआ प्रतीत होता है, पुराना नहीं लगता। इस पर किसी फाइल में नत्थी करने के निशान तक नहीं हैं। यह कब बनाया गया? 

- अभी चार-पाँच रोज पहले बनाया है। 

- क्या आप पीड़िता के पिता को जानते हैं? 

- नहीं जानता। 

- तो इस आवेदन पत्र पर जो पीड़िता के पिता की अंगूठा छाप है, वह कब लगवाई गई? कैसै लगवाई गयी? 

- वहीँ गाँव में किसी से लगवा ली थी। 

- मतलब यह प्रवेश आवेदन पत्र अभी चार-पाँच दिन पहले तुमने ही बनाया है? 

- हाँ, मैंने ही बनाया है। 

- तो हेडमास्टर साहब, आपने ये फर्जी क्यों बनाया? 

- पिछली पेशी से जाने के बाद मैं ने स्कूल में जा कर सारा रिकार्ड खंगाला। मुझे पीड़िता का प्रवेश आवेदन पत्र नहीं मिला। जब कि रिकार्ड में होना चाहिए था। अदालत ने इस पेशी पर इसे हर हाल में लाने के लिए कहा था, इस कारण मुझे बनाना पड़ा। अदालत के आदेश की पालने कैसे करता? 

- तुम्हें पता भी है, तुमने एक दस्तावेज को नकली बनाया और फिर उसे पेश कर न्याय को प्रभावित करने का प्रयत्न किया है? यदि अदालत चाहे तो इसी वक्त तुम्हें हिरासत में ले सकती है और जेल भेज सकती है। 

- सर¡ मुझे नहीं पता। मैं तो एक गाँव के प्राइमरी स्कूल का प्रधानाध्यापक हूँ। पढ़ाई पर ध्यान देता हूँ। स्कूल में कोई बच्चा फेल नहीं होता। कभी शहर में नहीं रहा। अब कागजों दस्तावेजों का मामला है तो सब ऐसे ही बना लेते हैं, किसी को कुछ होते न देखा। मुझे लोगों ने सलाह दी कि बना लो। किसी को पता थोड़े ही लगेगा। नहीं ले जाओगे और अदालत ने विभाग को कुछ लिख दिया तो नौकरी खतरे में पड़ जाएगी। इस लिए बना लिया। 

-और अभी तुरन्त जेल जाना पड़ा और इस फर्जी दस्तावेज के कारण नौकरी चली गयी तो क्या करोगे? अभी जमानत का इंतजाम भी तुम परदेस में नहीं कर पाओगे। और तुम्हारे बीवी-बच्चों का क्या होगा? 

प्रधानाध्यापक मेरे सवालों को सुन कर हक्का-बक्का खड़ा था। उस की समझ में कुछ नहीं आया था। आखिर उस ने ऐसा कौन सा गलत काम या अपराध कर दिया था जिस के कारण उसे जेल जाना पड़ सकता है और उस की नौकरी जा सकती है? वह अपना बयान शुरु होते समय बहुत खुश था, अब रुआँसा हो चला था। अदालत के जज साहब भी हक्के-बक्के थे। वे मुझे कहने लगे क्या करें, इस का? इस प्रवेश आवेदन पत्र से संबंधित बयान को गवाही में शामिल किया तो इसे तो जेल भेजना पड़ेगा। 

मुझे भी लगा कि प्रधानाध्यापक ने जो किया था वह उसकी समझ से गलत या अपराध नहीं था, बल्कि उस ने आदिवासी जीवन की सरलता में, नागरिक जीवन के सवालों को धता बताने के लिए एक होशियारी जरूर कर ली थी। उसे उसका परिणाम भी पता नहीं था। 

मैंने जज साहब से कहा कि इस आदमी का आशय न्याय को धोखा देना कतई नहीं था। अब ये जेल चला जाएगा और इसकी नौकरी जाएगी और यही नहीं परिवार भी बरबाद हो जाएगा। बेहतर है कि इस के प्रवेश आवेदन पत्र वाले बयान को इस की गवाही से निकाल दिया जाए। जज ने सरकारी वकील की ओर देखा तो उस की भी इस में सहमति नजर आई। आखिर फर्जी प्रवेश आवेदन पत्र अदालत में ही नष्ट कर दिया गया। प्रधानाध्यापक के उस के बारे में दे गए बयान को उस की गवाही से निकाल दिया गया। उसे डाँट लगाई गयी। आइंदा के लिए उसे कड़ी हिदायत दी गयी कि ऐसा करेगा तो जेल जाएगा। अब तक प्रधानाध्यापक समझ गया था कि उस ने कोई भारी अपराध कर दिया था। मैं इजलास से बाहर निकला तो प्रधानाध्यापक मेरे पीछे आया और मेरा अहसान जताने लगा। मैं ने भी उसे कहा कि वह जो कुछ भी करे बहुत सोच समझ कर किया करे। हमेशा ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जो तुम्हारे अपराध को इस तरह अनदेखा कर दें। आखिर वह चला गया। मैं भी खुश था कि लड़की को नाबालिग साबित करने में अभियोजन पक्ष असफल रहा था।

-दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 9 मई 2015

क़ायदा-ए-ज़मानत ज़ारी रहे

लमान खान को ताजीराते हिन्द की दफा 304 पार्ट 2 में पाँच साल की सजा हुई। सजा देने वाली अदालत को इस सजा को अपील करने के कानूनी वक्त के दौरान सस्पैंड करने का अधिकार नहीं था। लेकिन सलमान की घुड़साल के घोड़े पहले से दौड़ने को तैयार खड़े थे। वे दौड़े और ऐसा दौड़े कि हाईकोर्ट तक को उसी दिन अन्तरिम जमानत का आर्डर देना पड़ा। अगले दिन अपील पेश हो गयी और उस से अगले दिन अपील के पैसले तक की जमानत का आर्डर भी हो गया। जब हाईकोर्ट जमानत का आर्डर दे तो सेशन कोर्ट की क्या औकात है कि वह टाइम से उठ जाए। उस ने घोड़ों की इज्जत रखी और टाइम के बाद भी रुक कर अन्तरिम जमानत को तस्दीक किया। ऐसा लगा जैसे सलमान की नहीं पूरे देश की अटकी हुई साँसे चलने लगी है, वर्ना न जाने क्या से क्या हो जाता। 
बहुत लोग सोचते होंगे कि ये जमानत क्या चीज है जिस के लिए इत्त्ती जद्दोजहद होती है कि वकील तो वकील पूरे देश का मीडिया लाइव खड़े रहने के लिए अपनी छतरियाँ लगी गाड़ियाँ सलमान के घर से ले कर फिल्म इंडस्ट्री, सेशन कोर्ट, हाईकोर्ट और जेल तक इधर से उधर दौड़ाता रहता है? 
तो सुन लीजिए,  एक जमाना था जब न्याय जमींदार कर दिया करते थे। फिर राज्य थोड़े मजबूत हुए तो जमींदारों की शिकायतें राजा तक जाने लगीं और राजा उन की सुनवाई करने लगा। तब तक जमानत का कोई कायदा नहीं था। जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता था मुलजिम को जेल में ही रहना पड़ता था। फिर जब मुकदमे बहुत बढ़़ गए और न्याय अकेले राजा के बस का न रहा तो फौजदारी अदालतें कायम हुई। 
दुनिया में अंग्रेजों का सितारा बुलन्द था इस लिए आधुनिक न्याय व्यवस्था का जन्म भी वहीं होना था, सो हुआ। सेशन अदालतें खोली गयीं और उन में न्याय होने लगा। अदालतें मुकदमे की सुनवाई रोज करती थी जब तक कि सारे सबूत सामने न आ जाएँ और मुकदमे का फैसला न हो जाए। इस काम में महिना पन्द्रह दिन लगते थे। जब न्याय होने लगा तो गाँव गुआड़ी के लोग भी अपराधों की शिकायत करने लगे। इस से दूर दराज के इलाकों में न्याय करने की जरूरत पड़ने लगी। पर वहाँ मुकदमे इतने नहीं थे कि सेशन अदालतें खोली जाएँ। 
तरकीब निकाली गयी कि कुछ सेशन अदालतें ऐसी खोली जाएँ जो गाँवों-तहसीलों में जा कर मुकदमों की सुनवााई करें और फैसले करें। जब मुकदमा निपट जाए तो दूसरे गाँव-तहसील जाएँ और मुकदमों की सुनवाई करें। इन्हें सर्किट अदालतें कहा गया। लेकिन सर्किट अदालत तो गाँव-तहसील जब जाती तब जाती थीं, जब उसे फुरसत होती। अब अपराध करने वाला कभी यह नहीं सोचता कि वह पकड़ा जाएगा। इसलिए यह भी नहीं सोचता कि सर्किट अदालत आने के दिनों में ही अपराध किया जाए बाकी समय खाली बैठा जाए। अपराध तो कभी भी हो जाते थे। पुलिस मुलजिम को पकड़ भी लेती थी। लेकिन उन को फैसले तक बन्दी बना कर रखना पड़ता था। यह राज्य के लिए एक नई मुसीबत थी।
पराधी को बन्दी बना कर रखो तो उस के रहने खाने का इन्तजाम राज्य को करना पड़ता। राज्य के कोष में कमी आती। इस का यह रास्ता निकाला गया कि जहाँ अपराध हो वहाँ का शेरिफ यदि यह समझे कि मुलजिम भागेगा नहीं और सर्किट अदालत के आने पर अदालत के सामने हाजिर हो जाएगा तो वह उसे अपनी रिस्क पर छोड़ देता था। शेरिफ का दबदबा इतना था कि मुलजिम इधर से उधर नहीं हो सकता था और हो गया तो शेरिफ को ही यह कवायद करनी पड़ती थी कि उसे कैसे भी अदालत के सामने हाजिर करे। अब शेरिफ ये रिस्क क्यों ले? शेरिफ लोग इस तरह मुलजिमों को आजाद करने से हिचकिचाने लगे। जेलें फिर भरी रहने लगी, राज्य के खजाने को फिर बत्ती लगने लगी। 
फिर नया रास्ता खोजा गया। मुलजिम को आजाद होना हो तो वह इतनी नकदी जमा करा दे जिस से उसे वापस आना ही पड़े। अब मुलजिम नकद जमा कर के आजाद होने लगे। पर मुलजिमों को भी रास्ता मिल गया कि वे नकद राशि जमा कर के किसी दूसरे राज्य में भाग जाएँ तो सजा से हमेशा के लिए छुट्टी मिली। तो वे ऐसा भी करने लगे। मुलजिमों को धन के माध्यम से सजा से मुक्ति मिलने लगी। धन तो आया पर मुलजिमों के भागने से राजा की बदनामी होने लगी।
मुसीबत फिर भी बनी रही। तब यह कायदा बना कि नकदी के बजाए हैसियत वाले लोगों की जमानत क्यों न ली जाए। इस से यह होगा कि किसी को नकदी न जमा करनी पड़ेगी बस एक कांट्रेक्ट होगा और मुलजिम जमानत पर आजाद। यदि वह अदालत में सुनवाई पर हाजिर न हुआ तो जमानतियों को बुला कर उन से जमानत की रकम वसूस कर ली जाएगी। अब जमानती ने अपराध तो किया नहीं जो वह अपनी रकम जब्त कराए। वह जरूर मुलजिम को ढूंढ कर लाएगा। तो इस तरह मौैजूदा जमानत और मुचलके का कायदा चल पड़ा और दुनिया भर में ऐसे फैला जैसे बोद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म भी न फैले।
तो जनाब! ये जमानत का कायदा पैदा ही इस लिए हुआ कि राज्य फौरन न्याय नहीं कर सकता था, ऐसा करना उसे महंगा पड़ता था। मुलजिमों को ज्यादा दिन बंदी नहीें रखा जा सकता था क्यों कि इस पर भी राज्य का खर्चा बढ़ता था। 
धर भारत का हाल ये है कि जितनी अदालतों की जरूरत है उस की बीस फीसदी अदालतें भी वह खोल नहीं पा रहा है। अब सुनवाई में देरी भी होगी और नम्बर भी देर से आएगा। उधर वकीलों का धन्धा इस बात पर निर्भर करने लगा कि जितनी देरी होगी मुलजिम को बरी कराने में उतना ही सुभीता रहेगा। तो उन्हों ने तरह तरह की दर्ख्वास्तों की ईजाद कर डाली और रोज करते हैं जिस से मुकदमे देरी से निपटें।  सुनवाई और फैसलों में देरी होने लगी और जमानत का कानून पक्का ही नहीं हो गया। सुनवाई में देरी के कारण वह मुलजिमों का हक बन गया। 
जमानत के कायदे का फायदा मुजरिम उठाने लगे। अब तो अदालत पर भी उंगलियाँ उठती हैं। ऐसा ही हाल रहा तो कही हाथ भी न उठने लगें। इस का तो एक ही इलाज है वो ये कि इधर मुलजिम गिरफ्तार हो और उधर दस-पन्द्रह दिन में सुनवाई शुरू हो कर दस पन्द्रह दिन में समाप्त हो जाए। जमानत के कायदे की जरूरत ही नहीं पड़े। पर ये कैसे हो? नयी अदालतें खोलने में भी तो नियमित पैसा खर्च होता है। इत्ता पैसा राज्य कहाँ से लाए। फिर मुलजिम लोगों की लॉबी कोई कमजोर थोडे़े ही है, वह इत्ती अदालतें राज को खोलने दे तब ना। आखिर राज पे कब्जा भी तो उन का ही है। तो सुन लो मितरों! ये जमानत का कायदा जारी रहेगा। मुलजिम लोग मजा लेते रहेंगे। टीवी वालों की छतरियाँ सलामत रहेंगी और जनता का मनोरंजन सलामत रहेगा। सोच लो तुम्हें क्या करना है।

शनिवार, 24 अगस्त 2013

सभी तरह के मीडिया के कर्मचारियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए

मीडियाकर्मियों को जिस तरह 300 और 60 की बड़ी संख्या में नौकरी से निकाला गया है उस से यह बात स्पष्ट होती है कि पूंजीवादी आर्थिक ढाँचे में कर्मचारियों और मजदूरों को कानूनी संरक्षण की आवश्यकता रहती है। इस आर्थिक ढाँचे में कभी भी कर्मचारी-मजदूर किसी संविदा के मामले में पूंजीपति के बराबर नहीं रखे जा सकते। अखबारों में काम करने वाले कर्मचारियों की सेवा शर्तों, कार्यस्थल की सुविधाओं, वेतनमान तय करने, वेतन और ग्रेच्यूटी भुगतान, तथा नौकरी से निकाले जाने के मामलों के नियंत्रण के लिए वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट बना हुआ है। लेकिन यह कानून सिर्फ न्यूजपेपर्स और न्यूजपेपर संस्थानों पर ही प्रभावी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम कर रहे कर्मचारियों को किसी तरह का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इस कारण इस क्षेत्र के नियोजकों द्वारा मनमाने तरीके से नौकरी के वक्त की गई संविदा की मनमानी शर्तों के अन्तर्गत उन्हें संस्थान के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इस कारण यह जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित संपूर्ण मीडिया संस्थानों को इस कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए।

ज के जमाने में कर्मचारियों और श्रमिकों का संघर्ष केवल अपने मालिकों से नहीं रह गया है। कहीं मजदूर अपनी सेवा शर्तों की बेहतरी के लिए सामुहिक सौदेबाजी के तरीके अपनाते हैं तो सरकारी मशीनरी पूरी तरह मालिकों के पक्ष में जा खड़ी होती है। इस तरह यह लड़ाई किसी एक मीडिया ग्रुप को चलाने वाले पूंजीपति के विरुद्ध न हो कर संपूर्ण पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध हो जाती है जिस का प्रतिनिधिनित्व सरकारें अपने सारे वस्त्र त्याग कर करती हैं।

स कारण यह एक संस्थान के मीडिया कर्मियों का संघर्ष सम्पूर्ण मीडिया कर्मियों का और संपूर्ण मजदूर वर्ग का हो जाता है। इस संघर्ष में मजदूर वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करने वाली सभी ट्रेड युनियनों और राजनैतिक दलों व समूहों को सहयोग करना चाहिए। यह सही है कि इस बार बहुत से सफेद कालर इस दमन का शिकार हुए हैं। उन के ढुलमुल वर्गीय चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जा सकती हैं। लेकिन वह कर्मचारी वर्ग के आपसी संघर्ष का भाग होगा। इस लड़ाई में उन मुद्दों को हवा देना एक तरह से मालिकों की तरफदारी करना है।
अब लड़ाई छँटनी करने वाले मीडिया संस्थान के विरुद्ध तो है ही साथ के साथ सरकार के विरुद्ध भी होनी चाहिए। साथ के साथ संपूर्ण मीडियाकर्मियों को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट से कवर करने की और विवादों के हल के लिए तेजगति से काम करने वाली मशीनरी की व्यवस्था करने की लड़ाई सीधे सरकार के विरुद्ध चलाई जानी चाहिए। मीडिया कर्मियों को इस लड़ाई में संपूर्ण श्रमिक कर्मचारी जगत को  अपने साथ लाने का प्रयास करना चाहिए।

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

कोई कारण नहीं कि जल्दी ही ... उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए

 देश में कुछ लोग हैं जो खुद को कानून से अपने आप को ऊपर समझते हैं। उन में ज्यादातर तो कारपोरेट्स हैं, वे समझते हैं कि देश उन के चलाए चलता है। वे जैसा चाहें वैसा कानून बनवाने की ताकत रखते हैं। राजनेताओं का एक हिस्सा सोचता है देश उन के चलाए चलता है। जनता ने उन्हें देश चलाने के लिए चुना है, लेकिन वे ये भी जानते हैं कि इस लायक वे कार्पोरेट्स की बदौलत ही हैं। कार्पोरेट्स के पास इतनी ताकत है कि वे किसी को भी किसी समय नालायक सिद्ध कर सकते हैं और सामने दूसरा कोई खड़ा कर सकते हैं। लेकिन जनता को किसी तरह उल्लू बना कर भुलावे में रखना इन दोनों के लिए निहायत जरूरी है। इस कारण एक तीसरे लोगों की श्रेणी की जरूरत होती है जो इस काम को आसान बनाते हैं। यह तीसरी श्रेणी भी यही समझती है कि वे कानून के ऊपर हैं, देश की सारी जनता पर चाहे कोई कानून चलता हो लेकिन उन पर नहीं चलता। वे पूरी तरह से कानून के परे लोग हैं,क्यों कि उन हैसियत ऐसी है जिस का इस दुनिया से कोई नाता नहीं है। वे दूसरी दुनिया के लोग हैं, ऐसी दुनिया के जो इस दुनिया को नियंत्रित करती है। वे लोग तो इस पृथ्वी ग्रह पर केवल इस लिए रहते हैं जिस से इस दुनिया के लोगों का सम्पर्क दूसरी दुनिया से बना रहे और उन के जरिए इस दुनिया के लोग उन्हें नियन्त्रित करने वाली दूसरी दुनिया से कुछ न कुछ फेवर प्राप्त करते रहें।

लेकिन कभी न कभी इन तीनों तरह के लोग कानून की गिरफ्त में आ ही जाते हैं। जब आते हैं तो पहले आँख दिखाते हैं, फिर कहते हैं कि उन्हें इस लिए बदनाम किया जा रहा है कि वे कुछ दूसरे बुरे लोगों की आलोचना करते हैं। फिर जब उन्हें लगता है कि अपराध के सबूतों को झुठलाना संभव न होगा, तो धीरे-धीर स्वीकार करते हैं। एक दिन मानते हैं कि वे उस नगर में थे। फिर ये मानते हैं कि उस गृह में भी थे। तीसरे दिन ये भी मानने लगते हैं कि उन की भेंट शिकायती बालिका से हुई भी थी। लेकिन इस से ज्यादा कुछ नहीं हुआ था।


ये जो धीरे-धीरे स्वीकार करना होता है न! इस सब की स्क्रिप्ट लायर्स के चैम्बर्स में लिखी जाती है। ठीक सोप ऑपेरा के स्क्रिप्ट लेखन की तरह। जब उन्हें लगता है कि दर्शक जनता ने उन की यह चाल भांप ली है तो अगले दिन की स्टोरी में ट्विस्ट मार देते हैं। ये वास्तव में कानून के भारी जानकारों की कानूनी जानकारी का भरपूर उपयोग कर के डिफेंस की तैयारी होती है। लेकिन यह भी सही है कि इस दुनिया में जनता की एकजुट आवाज से बड़ा कानूनदाँ कोई नहीं होता। यदि जनता ढीली न पड़े और लगातार मामले के पीछे पड़ी रहे तो कोई कारण नहीं कि धीरे धीरे तैयार किया जा रहा डिफेंस धराशाई हो जाए और अभियुक्त जो एंटीसिपेटरी बेल की आशा रखता है वह जेल के सींखचों के पीछे भी हो और जल्दी ही उस का बाहर निकलने का सपना भी सिर्फ सपना रह जाए। 

बुधवार, 1 जून 2011

सार्वजनिक भट्टी अभिनंन्दन

भ्रष्टाचार के विरुद्ध चली मुहिम फिर कानून के गलियारों में फँस गई है। अन्ना हजारे ने पिछले दिनों लोकपाल बिल  लाने और उसे कानून बनाने के मुद्दे पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन किया तो लोगों को लगने लगा था कि अब एक अच्छी शुरुआत हो रही है। यह अभियान परवान चढ़ा तो निश्चित रूप से भ्रष्टाचार के निजाम को समाप्ति की ओर ले जाएगा। लोगों को उस से निजात मिलेगी। इसी से उस के लिए पर्याप्त जनसमर्थन प्राप्त हुआ। नतीजो में सरकार को झुकना पड़ा और लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने को संयुक्त समिति बनी और काम में जुट गई। अभियान ब्रेक पर चला गया। ब्रेक में बिल बन रहा है। बिल बनने के पहले ही खबरें आने लगीं कि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि पाक-साफ नहीं हैं। मतभेद की बातें होने लगीं। लेकिन बिल निर्माण के लिए बैठकें होती रहीं। कई मुद्दे उछाले गए, अब ताजा मुद्दा है कि प्रधानमंत्री को इस कानून की जद से बाहर रखा जाए। यह भी कि न्यायाधीशों को उस की जद से बाहर रखा जाए या नहीं। इस बीच भारत सरकार ने मोस्ट वांटेड अपराधियों की सूची पाकिस्तान को भेजी। पता लगा कि सूची पुरानी है। उसे भेजे जाने के पहले ठीक से जाँचा ही नहीं गया। कुछ ऐसे लोगों के नाम भी उस में चले गए हैं जो भारत में गिरफ्तार हो चुके हैं और उन में से कुछ एक तो जमानत पर छूट भी चुके हैं। अब यह लापरवाही है या इस में भी कोई भ्रष्टाचार है। इस का पता लगाना आसान नहीं है। 

मेरी जानकारी में एक स्थानीय मामला है। इस मामले में मुलजिम की जमानत हुई। उस पर कई मुकदमे थे। कुछ में वह अन्वीक्षा के दौरान लंबे समय तक  जेल में था। गवाहों के बयान होने में इतना समय लग गया कि आखिर उस के वकील ने उसे सलाह दी कि वह पहले ही इतने दिन जेल में रह चुका है कि यदि जुर्म स्वीकार कर ले तो भी अदालत को उसे छोड़ना पड़ेगा, वह पहले ही सजा से अधिक जेल में रह चुका है। उस ने जुर्म स्वीकार किया और जेल से छूट कर आ गया। पुलिस ने नए मुकदमे बनाए और उसे फिर जेल पहुँचा दिया। पता लगा कि उस पर उस दौरान चोरी करने का आरोप है जिस दौरान वह जेल में था। अदालत ने उस की जमानत ले ली, मुकदमा अभी चल रहा है। पुलिस ने उसे फिर नए मुकदमे में गिरफ्तार किया और जेल पहुँचा दिया। पुलिस का पिछला रिकार्ड देख कर अदालत ने इस बार भी जमानत ले ली। उसे छोड़े जाने का हुक्म जेल पहुँचा तो जेलर ने उसे बताया कि इस मुकदमे में तो छूट जाओगे पर पुलिस ने एक और मुकदमा उस पर बना रखा है और जेल में उस का वारंट मौजूद है इसलिए उसे पुलिस के हवाले किया जाएगा। अभियुक्त परेशान हुआ। उस ने जेलर से याचना की कि उसे पुलिस को न सौंपा जाए। वह छूट जाएगा तो जमानत का इंतजाम कर लेगा। पुलिस को दे दिया गया तो जमानत में परेशानी होगी। जेलर ने दया कर के उसे पुलिस के हवाले करने के बजाय रिहा कर दिया और दया की कीमत वसूल ली। वारंट के मामले में जेलर ने जवाब दे दिया कि वारंट जेल पहुँचने के पहले ही अभियुक्त छोड़ा जा चुका था। 
स भ्रष्टाचार की खबर बहुत लोगों को है लेकिन इस पर कोई कार्यवाही होगी इस मामले में किसी को संदेह नहीं है। अब जेलर कह सकता है कि पुलिस के वारंट पर कैसे भरोसा किया जाए? पुलिस तो पाकिस्तान तक को गिरफ्तार और जमानत पर छूटे लोगों को मोस्ट वांटेड की लिस्ट में शामिल कर लेती है। जेल और पुलिस महकमों में इस तरह की बातें होती रहती हैं। इन पर ध्यान देने की कोई परंपरा नहीं है और डालने की किसी की इच्छा भी नहीं है। पुलिस का रोजनामचा हमेशा देरी से चलता है। इस में बड़ा आराम रहता है। नहीं पहचाने गए अभियुक्तों के नाम तक प्रथम सूचना रिपोर्ट में आसानी से घुसेड़े जा सकते हैं। 

मारे पास हर समस्या का स्थाई हल है कि उस समस्या पर कानून बना दिया जाए। पहले  बाल विवाह होते थे। उसे कानून बना कर अपराध घोषित कर दिया गया। बाल विवाह समाप्त हो गए। महिलाओं पर अत्याचार हो रहे थे। आईपीसी में धारा 498-ए जोड़ दी गई, महिलाओं पर अत्याचार समाप्त हो गए। अब पुरुषों पर अत्याचारों की खबरें आने लगीं। भ्रष्टाचार के कारण सरकार की बदनामी होने लगी तो भ्रष्टाचार निरोधक कानून बना। सोचा भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा। पर भ्रष्टाचार अनुमान से अधिक कठिन बीमारी निकली जो कानून से मिटने के बजाए बढ़ती नजर आयी। उस के उलट उस ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए बनाए गए विभाग को ही अपनी जद में ले लिया। यह बहुत आसान था। पहले भ्रष्टाचारी को रंगे हाथों पकड़ो, फिर उसे हलाल करो। आरोप पत्र में उस के बरी होने के लिए सूराख छोड़ो। सस्पेंड आदमी बाहर रह कर काम-धंधा कर कमाता रहे और कुछ बरस बाद बरी हो कर पूरी तनख्वाह ले कर फिर से  नौकरी पर आ जाए। इस से कितनों का ही पेट पलने लगा।

भ्रष्टाचार कानून से मिटता नजर नहीं आता। वह कानून से और मोटा होता जाता है। लोगों को लग रहा है कि इस से भ्रष्टाचार मिटेगा नहीं तो कम से कम कम जरूर हो जाएगा। उधर भ्रष्टाचारी सोच रहे हैं कि कानून हमारा क्या कर लेगा? पहले ही कौन सा कर लिया जो अब करेगा। वैसे भी भ्रष्टाचारी को भले ही कानून कुछ साल रगड़ ले लेकिन समाज में तो वह इज्जत पा ही जाता है। उस के लड़के को शादी में अच्छा दहेज मिलता है। उस की लड़की से शादी करने को कोई भी तैयार हो जाता है। वह हजारों को पार्टी देता है। पुलिस, कलेक्टर और मंत्री उन शादियों में शिरकत करते हैं। ऐसे में किसे परवाह है कानून की? हाँ समाज भ्रष्टाचारियों के साथ उठना बैठना बंद करे। उन के साथ रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करे। 100-200 मेहमानों से अधिक की पार्टियाँ और भोज गैर कानूनी घोषित किए जाएँ। उन का आयोजन करना अपराध घोषित किया जाए। जनता भ्रष्टाचारियों का सार्वजनिक जसपाल भट्टी अभिनंदन (?) करना आरंभ करे तो कुछ उम्मीद दिखाई दे सकती है। 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सभी कानून, नियम और आदेश प्रभावी होने के पहले सरकारें अपनी-अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध क्यों न कराएँ

न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर
ह वास्तव में बहुत बड़ी बात है कि हम देश की सारी महिलाओं के पास यह जानकारी पहुँचा पाएँ कि उन के कानूनी अधिकार क्या हैं? ऑल इंडिया वूमन लायर्स कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने महिला वकीलों को यही कहा कि उन्हें देश की महिलाओं में उन के अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए काम करना चाहिए, जिस से वे यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से अपना बचाव कर सकने में सक्षम हो सकें। उन्हों ने यह भी कहा कि उन्हें महिलाओं को यह भी बताना चाहिए कि वे अपने अधिकारों को प्राप्त करने के संघर्ष में कानून को किस तरह से एक सहायक औजार के रूप में उपयोग कर सकती हैं। उन का कहना था कि जागरूकता के इस अभियान में ग्रामीण महिलाओं की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
मुझे नहीं लगता कि न्यायाधिपति अल्तमश कबीर के इस आव्हान महिला वकीलों ने बहुत गंभीरता के साथ ग्रहण किया होगा, यह भी हो सकता है कि खुद न्यायाधिपति भी अपने भाषण में कहे हुए शब्दों को बहुत देर तक गंभीरता के साथ न लें और केवल सोचते रह जाएँ कि वे एक अच्छा भाषण दे कर आए हैं जिस पर बहुत तालियाँ पीटी गई हैं। लेकिन उन्हों ने जो कुछ कहा है वह केवल महिला वकीलों को ही नहीं सभी वकीलों को गंभीरता के साथ लेना चाहिए, यहाँ तक कि इस बात को सरकारों और उन के विधि व महिला मंत्रालयों को गंभीरता से लेना चाहिए और इस दिशा में अभियान चलाया जाना चाहिए। अभी तो हालत यह है कि महिलाओं से संबंधित कानून और उन की सरल व्याख्याएँ हिन्दी और भारत में बहुसंख्यक महिलाओं द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषाओं में उपलब्ध नहीं है।
यूँ तो मान्यता यह है कि जो भी देश का कानून है उस की जानकारी प्रत्येक नागरिक को होनी चाहिए। इस लिए सरकारों का यह भी जिम्मा है कि वे हर कानून की जानकारी जनता तक पहुँचाएँ। लेकिन शायद सरकारें इस काम में कोई रुचि नहीं रखतीं। जब कि होना तो यह चाहिए कि हर राज्य की अपनी वेबसाइट पर उस राज्य में बोली और समझी जाने वाली भाषाओं में उस राज्य में प्रभावकारी सभी कानून और नियम उपलब्ध हों। कम से कम हिन्दी जो कि राजभाषा है उस में तो उपलब्ध हों हीं। लेकिन इस ओर राज्य सरकारों की ओर से इस तरह की कोई पहल होती दिखाई नहीं पड़ती है। ऐसी हालत में सर्वोच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से सभी सरकारों को यह आदेश दे सकता है कि वे निश्चित समयावधि में सभी कानूनों, नियमों और उन के अंतर्गत जारी किए गए आदेशों को अपनी वेबसाइट पर अंग्रेजी, हिन्दी और राज्य की भाषा में उपलब्ध कराएँ और जब भी नए कानून, नियम और आदेश प्रभावी हों, उस से पूर्व उन्हें अपने-अपने राज्य की वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जाए।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

निर्णय का दिन

श्राद्धपक्ष चल रहा है। यूँ तो परिवार में सभी के गया श्राद्ध हो चुके हैं और परंपरा के अनुसार श्राद्ध कर्म की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। लेकिन मेरे लिए यह उन पूर्वजों को स्मरण करने का सर्वोत्तम रीति है। आज मेरे दादा जी, उन के छोटे भाई और दादा जी की माता जी के श्राद्ध का दिन था। सुबह-सुबह मैं ने अपने मित्र को भोजन पर बुलाने के लिए फोन किया तो पता लगा आज अभिभाषक परिषद ने नगर के एक स्वतंत्रता सेनानी के निधन पर 12 बजे शोक सभा रखी है।  निश्चित था कि अदालतों में काम नहीं होगा। हम ने तय किया कि अदालत से एक बजे भोजन के लिए घर आएंगे। दस बजे एक संबंधी के साथ पुलिस थाने जाना पड़ा। उन्हें किसी मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया था। चौसठ वर्षीय  संबंधी का कभी पुलिस से काम न पड़ा था। वे मुझे साथ ले जाने को तुले थे। प्रिय हैं, उन के साथ जाना पड़ा। थानाधिकारी ने कहा कि वे आज कानून और व्यवस्था में व्य्स्त हैं और संबंधी को बाद में बुला भेजेंगे। सड़कों पर यातायात रोज के मुकाबले चौथाई था और अदालत में मुवक्किल सिरे से गायब थे। वकील और मुंशी दो बजे तक मुकदमों में पेशियाँ ले कर घर जाने के मूड़ में थे।  सब की दिनचर्या को अयोध्या के निर्णय की तारीख प्रभावित कर रही थी।
मैं ने भी अपना काम एक बजे तक निपटा लिया। मित्रों के साथ घर पहुँचा तो डेढ़ बज रहे थे। भोजन से निपटते दो बज गये। मित्र वापस अदालत के लिये रवाना हो गये। गरिष्ठ भोजन के कारण उनींदा होने लगा, लेकिन एक काम अदालत में छूट गया था। उस के बारे में सहायक को फोन पर निर्देश दिया तो उस ने बताया कि वह भी यह काम कर के अदालत से निकल लेगा। मैं बिस्तर पर लेटा तो नींद लग गई। उठा तो पौने चार बज रहे थे। मुझे ध्यान आया कि कल पहनने के लिए एक भी सफेद कमीज पर इस्त्री नहीं है। नए आवास पर आने के बाद कपड़े इस्त्री के लिए दिए ही नहीं गए थे। मैं पास के धोबी तक बात कर ने गया तो वह घर जाने की तैयारी में था। उस ने आज दुकान तो खोली थी पर केवल इस्त्री किए कपड़े देने के लिए। आज कोई काम नहीं लिया था। इस्त्री गरम ही नहीं की गई वह ठंडी पड़ी थी। मैं ने किराने वाले की दुकान पर नजर डाली, लेकिन एक जमीन-मकान के दलाल की दुकान के अलावा सब बंद थीं। मैं घर लौट आया। पत्नी ने बताया कि बीमा कंपनी से फोन आया था कि उन्हें नया पता नहीं बताया गया इस कारण से मुझे भेजी डाक वापस लौट गई है। मैं ने फोन कर के पूछा कि कोई आवश्यक डाक तो नहीं है। डाक आवश्यक नहीं थी। फिर भी मैं ने बीमा कंपनी जाने का निश्चय किया। नया पता भी उन्हें दर्ज करा देंगे और डाक भी ले आएंगे। मैं घर लौटा। टीवी पर बताया जा रहा था कि कुछ ही देर में अयोध्या निर्णय आने वाला है। 
मेरा मन हुआ कि न जाऊँ और टीवी पर समाचार सुनने लगूँ। लेकिन फिर जाना तय कर लिया। सड़कें पूरी तरह सूनी पड़ी थीं। कार चलाने का वैसा ही आनंद मिला जैसा रात एक बजे से सुबह चार बजे के बीच मिलता है। बीमा कंपनी पहुँचा तो निर्णय आ चुका था। उसी की चर्चा चल रही थी। लोग खुश थे कि निर्णय ऐसा है कि खास हलचल नहीं होने की। कुछ देर रुक कर डाक ले कर मैं लौटा। इस बीच जीवन बीमा के कार्यालय से फोन आ गया। यह मार्ग में पड़ता था मैं कुछ देर वहाँ रुका। उन का आज अर्धवार्षिक क्लोजिंग था। कर्मचारियों को देर तक रुक कर काम निपटाना था। मैं ने वहाँ भी नया पता दिया और डाक ली। 
स बीच बेटी का फोन आ गया कि वह ट्रेन में बैठ गयी है। शाम को पहुँच जाएगी। मुझे तुरंत पंखे का स्मरण आया कि उस के  कमरे में पंखा नहीं है, बाजार से ले कर आज ही लगवाना पड़ेगा। मैं बाजार निकल गया। अब सड़कों पर यातायात सामान्य हो चला था। पंखे की दुकान पर मनचाहा पंखा नहीं मिला। मैं ने पंखा अगले दिन लेना तय किया। पास ही सब्जी मंडी लगी थी। मुझे कांटे वाले देसी बैंगन दिख गए तो आधा किलोग्राम खरीदे और घर के लिए चल दिया। अब यातायात सामान्य से कुछ अधिक लगा। वैसे ही जैसे बरसात रुकते ही रुके हुए लोग सड़कों पर अपने वाहन ले कर निकल पड़ने पर यातायात बढ़ जाता है।  मैं घर पहुँचा तो कुछ मुवक्किल दफ्तर में प्रतीक्षा कर रहे थे। उन का काम निपटाया तब तक स्टेशन बेटी को लेने जाने का वक्त हो गया। स्टेशन के रास्ते में पूरी रौनक थी। बेटी ट्रेन से उतर कर कार को खड़ी करने के स्थान पर आ गयी। ट्रेन से उतरने वाली सवारियाँ सामान्य से चौथाई भी नहीं थीं। बेटी ने बताया कि ट्रेन खाली थी। रास्ते के स्टेशनों के प्लेटफॉर्म भी सूने पड़े थे। मथुरा के स्टेशन पर पुलिस सतर्क थी लेकिन सवारियाँ वहाँ भी नहीं थीं। कार में बैठते ही बेटी फोन करने लगी। उस के सहकर्मियों ने उसे आज यात्रा करने के लिए मना किया था। वह उन्हें बता रही थी कि वह सकुशल आराम के साथ कोटा पहुँच गई है और अपने पापा-मम्मी के साथ कार में घर जा रही है। वह यह भी कह रही थी कि - मैं ने पहले ही कहा था कि आज कुछ नहीं होने का है। लोग वैसे ही बौरा रहे थे।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

माता-पिता बच्चों को यातायात के नियम सिखाएँ!!!

राजस्थान में आज विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के छात्र संघों के चुनाव थे। मेरे नगर कोटा में भी दो विश्वविद्यालयों और तीन पाँच महाविद्यालयों में चुनाव थे। आठ से एक बजे तक मतदान हुआ और फिर मतगणना आरंभ हो गई जो परिणाम आने तक चलेगी। मतदान के कारण सभी महाविद्यालय जो कि नगर के मुख्य मार्गों पर स्थित हैं मतदाता छात्र छात्राओं की भारी भीड़ थी। प्रत्याशियों के समर्थकों में मतदान को लेकर उत्तेजना होना स्वाभाविक है, इस की आशंका तब और अधिक होती है जब कि सभी मतदाताओं की रगों में गर्म ताजा लहू दौड़ता हो। इन सारी संभावनाओं के कारण जिन मार्गों पर महाविद्यालय मौजूद हैं उन पर यातायात रोक कर वैकल्पिक मार्गों की ओर मोड़ा जा रहा था। कोटा में नगर से स्टेशन  जाने के दो मुख्य मार्ग हैं इन में से एक पर कोटा के सर्वाधिक छात्र छात्राओं की संख्या वाले जानकीदेवी बजाज कन्या महाविद्यालय और राजकीय महाविद्यालय कोटा पड़ते हैं। यह मार्ग बंद होने से सारा यातायात एक ही मार्ग पर आ गया। जिस का परिणाम यह हुआ कि मार्ग पर जाम लग गया। 
प ऊपर जो मानचित्र देख रहे हैं इस में नीचे दक्षिण पश्चिमी कोने पर एक काला चौकोर बिंदु आप देख रहे हैं वहाँ मेरा वर्तमान निवास है। जो लाल रेखा है वह मेरा नित्य अदालत जाने और वापस लौटने का मार्ग है। इस में बीच में जो समानांतर हरी रेखा देख रहे हैं उस पर दोनों महाविद्यालय हैं और इस मार्ग पर आज यातायात बंद कर दिया गया था। नतीजे में मुझे नीले रंग के वैकल्पिक मार्ग से जाना पड़ा जिस पर पीले रंग के स्थान पर लगभग डेढ़ किलोमीटर लंबा जाम था, जिसे पार करने में मुझे पौन घंटा अधिक लगा। वापसी में मैं ने एक अन्य मार्ग चुना जो  इस मानचित्र में नही दिखाया गया है। यह वापसी का मार्ग साढ़े छह किलोमीटर के नियमित मार्ग के स्थान पर साढ़े ग्यारह किलोमीटर का पड़ा पर वहाँ किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आई। कोटा में इस तरह के जाम की स्थिति कभी कभार ही होती है। हाँ चंबल पुल अवश्य अक्सर जाम होता रहता है। उस के लिए एक समानांतर पुल का निर्माण जारी है। उच्चमार्ग के लिए एक अन्य पुल बन रहा है जो निर्माण के दौरान दुर्घटना के कारण अभी बंद सा पड़ा है। कोटा में नगर में यातायात के मार्ग कम हैं और उन के वैकल्पिक मार्ग उपलब्ध नहीं हैं। उन के बारे में जल्दी ही कोई स्थाई उपचार राज्य सरकार को तलाशना होगा। क्यों कि नगर की आबादी तो निरंतर  बढ़ ही रही है। मैं भी सोच रहा हूँ कि यदि मैं वर्तमान आवास के स्थान पर न्यायालय परिसर के नजदीक ही कोई नया आवास निर्माण कर लूँ तो रोज इस व्यस्त मार्ग से निकलने की फज़ीहत से बच सकूंगा। यातायात के इन अवरोधों के होने पर तुरंत ध्यान महानगरों की ओर जाता है कि कैसे वहाँ लोग रोज लगने वाले यातायात अवरोधों से निपटते होंगे?
वापसी में जब घर मात्र आधा किलोमीटर रह गया था तो एक दस-ग्यारह वर्ष के बालक साइकिल सवार ने सड़क पार की। आधी सड़क वह पार कर चुका था। मैं ने नियमानुसार उस के पीछे से अपनी कार निकालनी चाही। लेकिन तभी उस ने साइकिल वापस मोड़ ली। मेरी कार की गति बहुत धीमी थी। मैं ने अपनी कार को वहीं रोक दिया। बालक ने वापस साइकिल मोड़ कर सड़क पार कर ली तभी मैं आगे बढ़ा। इस समय बालक गलती पर था। सड़क पार करने के लिए एक भी कदम बढ़ा देने पर किसी भी ओर से कोई भी वाहन आने पर वापस लौटने के स्थान पर तेजी से सड़क पार करनी चाहिए। शायद इस नियम को न तो उस के परिजनों ने उसे सिखाया था। विद्यालयो में तो शायद इस नियम को सिखाना उन के पाठ्यक्रम में नहीं रहा होगा। होगा तो उसे बेकार समझ कर बताया नहीं गया होगा। मैं समझता हूँ कि सभी बालकों को जब वे अकेले सड़क पर जाने लायक हो जाते हैं तभी इस नियम और अन्य यातायात के नियम सिखाने की जिम्मेदारी मात-पिता को निभानी चाहिए।   

मंगलवार, 22 जून 2010

जनता के धन से चल रहे राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय केवल 'एंडरसनों' के सेवक तैयार कर रहे हैं

पिछले कुछ वर्षों में भारत के लगभग सभी राज्यों ने अपने यहाँ विधानसभाओं में कानून बना कर अपने-अपने राज्य में  कम से कम एक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय स्थापित किया है। हालाँ कि ये सभी स्वायत्त निकाय हैं लेकिन इन में धन राज्य सरकारों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का ही लगा है। ये विश्वविद्यालय क्या कर रहे हैं? इस बात की जानकारी भी जनता को होनी चाहिए। लेकिन जनता इस से लगभग अनभिज्ञ है।  नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जोधपुर ने अपनी वेबसाइट पर जो वक्तव्य दे रखा है वह निम्न  प्रकार है-
The National Law University, Jodhpur is an institution of national prominence established under the National Law University, Jodhpur, Act, 1999 (Act No. 22 of 1999) enacted by the Rajasthan State Legislature. The University is established for the advancement of learning, teaching, research and diffusion of knowledge in the field of law. It caters to the needs of the society by developing professional skills of persons intending to make a career in advocacy, judicial service, law officer / managers and legislative drafting as their profession.
ह वक्तव्य बताता है कि 'राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह संस्थान राजस्थान विधान सभा द्वारा पारित 1999 के कानून सं.22 से स्थापित किया गया है। इसे विधि क्षेत्र में शिक्षा, शिक्षण, शोध और ज्ञान के प्रसार की उन्नति के लिए स्थापित किया गया है। यह वकालत, न्यायिक सेवा, विधि प्रबंधन और विधायी प्रारूपण के क्षेत्र में कैरियर बनाने के इच्छुक व्यक्तियों की पेशेवर कुशलता को विकसित कर के समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है'। 
स संस्थान में शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी है। हिन्दी का वहाँ कोई महत्व नहीं। यहाँ तक कि  राज्य की राजभाषा हिन्दी और स्थानीय राजस्थानी भाषाओं की विद्यार्थियों की योग्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब कि राजस्थान के सभी अधीनस्थ न्यायालयों की कामकाज की भाषा हि्न्दी है। अब जो विद्यार्थी इस संस्थान से निकलेंगे वे कैसे राजस्थान की जनता की समस्याओं को समझेंगे और किस तरह उन की मदद कर सकेंगे? यह समझ में आने वाली बात नहीं है। 
न संस्थानों में सर्वाधिक जोर प्लेसमेंट पर है। लगभग सभी विद्यार्थी उन का अध्ययन पूरा होने के पहले ही किसी न किसी निजि कंपनी द्वारा नियोजित कर लिए जाते हैं, उन के वेतन भी अच्छे होते हैं। इस विश्वविद्यालय का कोई भी स्नातक शायद ही अभी तक वकालत के व्यवसाय में आया हो, न्यायिक सेवा में भी अभी तक कोई नहीं आया है। न ही किसी सरकार के विधायी विभाग में किसी को नियोजन हासिल हुआ है। वे वहाँ आएँगे भी कैसे? उन्हें कारपोरेट सैक्टर में पहले ही अच्छे वेतनों पर नौकरियाँ जो मिल रही हैं। 
स तरह  इन विश्वविद्यालयों के जो उद्देश्य नियत किए गए थे उन में से वकालत, न्यायिक सेवा और विधायी प्रारूपण के लिए अच्छे कर्मी तैयार करने के उद्देश्य की पूर्ति बिलकुल नहीं हो रही है। केवल कॉरपोरेट सैक्टर की मदद के लिए विधिज्ञान से युक्त कर्मचारी तैयार करने के एक मात्र उद्देश्य की पूर्ति ये विधि विश्वविद्यालय कर रहे हैं। इस तरह जनता के धन से केवल देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा के लिए कार्यकर्ता तैयार किए जा रहे हैं। हमारी सरकारें किस तरह से इन देशी विदेशी धनकुबेरों की सेवा के लिए संस्थान स्थापित करती है यह इसी से स्पष्ट है। इन विश्वविद्यालयों से निकलने वाले विधि विशेषज्ञ अपने कैरियर में यूनियन कार्बाइड जैसी कंपनियों को कानून के शिकंजे से बचाने, उन से पीड़ित जनता के हकों को प्राप्त करने के मार्ग में काँटे बिछाने और एंडरसन जैसे देश की जनता और संपूर्ण मानवता के अपराधियों को बचा कर निकालने का काम ही करेंगे, देश की जनता को उन के हक दिलाने, और जनता व मानवता के अपराधियों को दंडित कराने का काम नहीं।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित हों

ये मोटे-मोटे आंकड़े हैं-
2001 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जन संख्या में 80% हिन्दू, 12% मुस्लिम, 2% से कुछ अधिक ईसाई, 2% सिख, 0.7% बौद्ध और 0.5 प्रतिशत जैन हैं। 0.01 प्रतिशत पारसी और कुछ हजार यहूदी हैं। शेष न्य धर्मों के लोग अथवा वे लोग हैं जो जनगणना के समय अपना धर्म नहीं प्रदर्शित नहीं करते। 
चूंकि हिन्दू विवाह अधिनियम  मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी पर प्रभावी है। इस कारण से इस के प्रभाव क्षेत्र की जनता की जनसंख्या हम 85 प्रतिशत के लगभग मान सकते हैं। 
हिन्दू विवाह अधिनियम अनुसूचित जन-जातियों के लोगों पर प्रभावी नहीं है। जिन की जनसंख्या भारत में मात्र 8.2 प्रतिशत है।  इन्हें कम करने पर हम इस अधिनियम से प्रभावित जनसंख्या 77% रह जाती है। 
भारत में अनुसीचित जाति के लोगों की जन संख्या 16.2 प्रतिशत है और अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। सभी अनुसूचित जातियों और लगभग सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता प्रथा प्रचलित है। यदि इस आधार पर हम इन्हें भी हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्ण प्रभाव क्षेत्र अलग मानें तो शेष लोगों की जनसंख्या केवल 9 प्रतिशत शेष रह जाती है। 
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
जाद होने के बाद वह स्त्री एक अन्य शपथ पत्र निष्पादित कर अपने इच्छित पुरुष के साथ रहने की सहमति दे देती है। पुरुष भी उसे भली तरह रखने के लिए एक शपथपत्र निष्पादित करता है। इस के उपरांत दोनों स्त्री-पुरुष साथ साथ कुछ फोटो खिंचाते हैं। जिस की सुविधा आज कल अदालत परिसर में चल रहे कंप्यूटर ऑपरेटरों के यहाँ उपलब्ध है। अब दोनों स्त्री-पुरुष साथ रहने को चले जाते हैं। इसी को नाता करना कहते हैं। इन स्त्री-पुरुषों के साथ इन के कुछ परिजन साथ होते हैं।
बाद में जब पति को इस की जानकारी होती है तो वह अपनी पत्नी के परिजनों को साथ लेकर उस पुरुष के घर जाते हैं जहाँ वह स्त्री रहने गई है और झगड़ा करते हैं। इस झगड़े का निपटारा पंचायत में होता है।  जिस पुरुष के साथ रहने को वह स्त्री जाती है वह उस स्त्री  के पति को  पंचायत द्वारा निर्धारित राशि मुआवजे के बतौर दे देता है। 
न्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता बहुत कम होता है लेकिन इन जातियों में इसे गलत दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस तरह भारत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या में से लगभग 15 से 20 % को छोड़ कर शेष  65-70 % जनसंख्या में विवाह के कानूनी और शास्त्रीय रूप के अलावा अन्य रूप प्रचलित हैं और समाज ने उन्हें एक निचले दर्जे के संबंध के रूप में ही सही पर मान्यता दे रखी है। विवाह के इन रूपों में समय के साथ परिवर्तन भी होते रहे हैं। लिव-इन-रिलेशन को ले कर इन जातियों में कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। जितनी भी चिंता दिखाई देती है या अभिव्यक्त की जा रही है वह केवल इस 15-20% जनता में से ही अभिव्यक्त की जा रही है। लिव-इन-रिलेशन को ले कर भी चिंता अधिक इसी बात की है कि इस संबंध से उत्पन्न होने वाली संतानों के क्या अधिकार होंगे।  
कानून में कभी भी बिना विवाह किए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के संबंध को अपराधिक नहीं माना गया है। आज के मानवाधिकार के युग में इसे अपराधिक कृत्य ठहराया जाना संभव भी नहीं है। सरकार की स्थिति ऐसी है कि वह वर्तमान वैवाहिक विवादों के तत्परता के हल के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने में अक्षम रही है। मेरा तो यह कहना भी है कि वैवाहिक विवादों के हल होने में लगने वाला लंबा समय भी लिव-इन-रिलेशन को बढ़ावा देने के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। ऐसे में यही अच्छा होगा कि लिव-इन-रिलेशन अथवा विवाह के अतिरिक्त नाता जैसे संबंधों से उत्पन्न होने वाली संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और इन संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित किए जाने आवश्यक हैं।

सोमवार, 29 मार्च 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप को शीघ्र ही कानून के दायरे में लाना ही होगा

नवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं  ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में  शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं?  इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम  से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात  भी स्पष्ट हो गई है  कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह  है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है।  अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
म इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है। 
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं?  इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों  को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।