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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

राज्य पूर्व के समाज : बेहतर जीवन की ओर-8

स श्रंखला के पिछले आलेख में मैं ने कहा था कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया ... और कि राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। लेकिन इस के विपरीत धारणाएँ रखने वालों की भी कोई कमी नहीं है। वे कहते हैं- बिना किसी राज्य के जीवन कैसे संभव है? राज्य न होगा तो मनुष्य आपस में लड़-खप कर खुद ही नष्ट हो जाएगा। पर जब राज्य न था तब भी मनुष्य समाप्त नहीं हुआ। हमारी समस्या यह है कि हम ने उन समाजों के बारे में लगभग कुछ नहीं जाना जिन में राज्य नहीं था।

ब भी हम भारतीय इतिहास का अध्ययन करते हैं तो  हमारा श्रीगणेश सैंधव सभ्यता के नगरों से होता है जिन का अस्तित्व बिना किसी राज्य व्यवस्था के संभव नहीं था। लेकिन ये नगर तो यकायक इतिहास के पृष्ठों से गायब हो गए और एक लंबा काल ऐसा निकल गया, जिन के बारे में हमें निश्चितता के साथ कुछ भी नहीं पता। फिर हमारी भेंट इस बीच के काल में रचे हुए वैदिक श्रुति ग्रंथों से होती है जिन में हमें जन की उपस्थिति मिलती है।  उस के बाद हम यकायक बुद्ध और महावीर के काल में आ जाते हैं। इस काल में हमें कुछ राज्य भी मिलते हैं और कुछ गण भी।  ये जन और गण  क्या थे? ये निश्चित रूप से एक निश्चित भूभाग पर निवास करते मानव समाज थे जिन के पास राज्य नहीं था। लेकिन ऐसी व्यवस्था थी जिस में वे मनुष्य जीवन को व्यवस्थित रख सकते थे।

ग्वेदिक काल के जन के बारे में हमें ऋग्वेद से सांकेतिक जानकारी मिलती है। यह समाज की सर्वोच्च इकाई होती थी। ऋग्वेद में जन शब्द का प्रयोग 275 बार हुआ है। समाज कुल, ग्राम, विश् तथा जन में संगठित था। कुल सब से छोटी इकाई होते थे। कुलों से ग्राम निर्मित होते थे। ग्राम स्वशासी और आत्मनिर्भर होते थे। यह संगठन निश्चित रूप से गोत्रीय संगठन थे। इन की व्यवस्था किस प्रकार की रही होगी उस के कुछ स्पष्ट संकेत हमें नहीं मिलते। लेकिन वहाँ राज्य जैसी व्यवस्था का अभाव दिखाई देता है। क्यों कि कोई स्थाई सशस्त्र इकाई वहाँ नहीं है। अर्थव्यवस्था निर्वाह अर्थव्यवस्था थी जिस में अधिशेष के बचे रहने लायक गुंजाइश नहीं थी। अधिशेष के अभाव में राज्य की आवश्यकता ही नहीं थी। बाद के काल के गणों के मुखिया का पद भी आनुवंशिक नहीं था। उसे कोई अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। सभी निर्णय समाज के सामने परिषदें किया करती थीं। जिस में हर व्यक्ति को अपना मत रखने का अधिकार होता था। सब की राय को ध्यान में रख कर ही परिषदें निर्णय किया करती थीं। हमें भारत में राज्यों की स्थापना के पूर्व की समाज व्यवस्था के बारे में संकेत तो अवश्य मिलते हैं लेकिन उन से संपूर्ण रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती।

विश्व की कुछ ऐसी व्यवस्थाओं का अध्ययन भिन्न-भिन्न लोगों ने किया है जो गोत्रों पर आधारित थीं। उन में अमेरिका की इरोक्वाई समुदाय का नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन द्वारा किया गया अध्ययन महत्वपूर्ण है। यह अध्ययन भारतीय स्थितियों को समझने के लिए भी इसलिए महत्वपूर्ण है कि हम भारत के जातीय समाजों में उसी की भांति की गोत्र व्यवस्था पाते हैं। आज भी अनेक मामलों में हमारे भारतीय राज्य को इस गोत्र व्यवस्था से जूझना पड़ रहा है।