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शनिवार, 18 मार्च 2017

पेरिस कम्यून : पूरी दुनिया के सर्वहारा का ध्येय


पेरिस कम्यून जिन्दाबाद!
पेरिस कम्यून की स्थापना में मार्क्स का सीधे हाथ नहीं था. मगर प्रेरणा उसी की थी.अपने ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ की शुरुआत ही उसने इस वाक्य से की थी कि मानव-सभ्यता का अभी तक का इतिहास वर्ग-संघर्ष का रहा है. वह पूंजीवाद को सामंतवाद का ही परिष्कृत-परिवर्तित रूप मानता था. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उसने तर्क द्वारा समझाने का प्रयास किया था कि अपनी पूर्ववर्ती सामाजिक-आर्थिक प्रणालियों की भांति पूंजीवाद भी सामाजिक असंतोष को बढ़ावा देने वाला सिद्ध होगा, जो अंततः सामाजिक संघर्ष और उसके विखंडन का कारण बनेगा. उसे विश्वास था कि एक न एक दिन समाजवादी व्यवस्था पूंजीवाद को अपदस्थ कर अपना स्थान बनाने में कामयाब सिद्ध होगी, जो एक वर्गहीन, राज्य-विहीन समाज की जननी होगी. तभी पूर्णसमाजवाद का सपना सत्य हो सकेगा. उस अवस्था को मार्क्स ने ‘विशुद्ध साम्यवाद’ की संज्ञा दी थी. सामान्य रूप से समाजवाद और साम्यवाद को एक ही समझा जाता है. मार्क्स की दृष्टि में साम्यवाद ‘श्रमिक-राज्य’ अथवा ‘श्रमिक गणतंत्र’ के बाद की अवस्था है. श्रमिक-राज्य को वह ‘श्रमिकों की तानाशाही’ पूर्ण व्यवस्था भी मानता था, उसमें समस्त निर्णय श्रमिकों द्वारा, श्रमिकों के हित में लिए जाते हैं. मार्क्स का मानना कि वर्ग संघर्ष के दौर में श्रमिक पूंजीपतियों के सत्ता छीनकर उसपर कब्जा कर लेंगे. वह वांछित परिवर्तन का पहला चरण होगा. दूसरे चरण में श्रमिक-शासित राज्य वर्गहीन-राज्यविहीन समाज की आधारशिला रखेगा. पेरिस कम्यून वास्तव में श्रमिकों द्वारा गणतांत्रिक पद्धति पर अनुशासित, वर्गविहीन अवस्था थी. हालांकि नेतष्त्व और अनुभव की कमी के कारण वह प्रयोग मात्र दो महीने तक ही चल सका था, मगर इतने कम समय में ही उसने पूंजीवाद के समानांतर जिस वैकल्पिक व्यवस्था का स्वरूप प्रस्तुत किया, वह कालांतर में दुनिया-भर के समाजवादी प्रयोगों का प्रेरक बना.


फ्रांस और प्रूशिया के युद्ध में फ्रांस की पराजय से वहां के आम नागरिकों के बीच जहां शासकवर्ग के प्रति आक्रोश की लहर थी. ऊपर से युद्ध के बाद बेरोजगारी और महंगाई की मार से जनजीवन अकुलाया हुआ था. घोर अराजकता का वातावरण था. अव्यवस्था के वातावरण में लोगों का तत्कालीन शासकों से भरोसा ही उठ चुका था. उल्लेखनीय है कि जुलाई 1870 में प्रूशिया से युद्ध की पहल तत्कालीन फ्रांसिसी सम्राट नेपोलियन तृतीय द्वारा की गई थी. बिना किसी तैयारी के युद्ध की घोषणा कर देना, सिर्फ एक राजसी सनक थी, जिसके कारण सम्राट को अंततः पराजय का मुंह देखना पड़ा. सितंबर आते-आते पेरिस का जनजीवन अस्तव्यस्त हो चला था. युद्ध के कारण अमीरी और गरीबी के बीच की खाई और भी चौड़ी हो चुकी थी. सूदखोर व्यापारी युद्ध की स्थितियों का लाभ उठाकर मनमाने तरीके से लूट मचा रहे थे. भोजन की काफी किल्लत थी. प्रशासन के स्तर पर पूरी तरह अराजक स्थिति थी. जनसाधारण की कोई सुनने वाला न था. ऊपर से प्रूशिया की सेनाओं द्वारा बमबारी और फ्रांसिसी सैन्यबलों की नाकामी से श्रमिक-असंतोष विद्रोह ही स्थिति तक जा पहुंचा था.

सेना में उच्चस्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार, सैनिकों के कमजोर मनोबल तथा हताशा के कारण फ्रांस का पतन हुआ. पराजित फ्रांसिसी सम्राट को जर्मनी के सम्राट के आगे, उसकी शर्तों पर युद्धविराम के लिए विवश होना पड़ा. इससे तुरंत बाद जर्मन सैनिकों ने नगर में विजेता के दंभ के साथ प्रवेश किया. पेरिसवासियों के मन में प्रूशियावासियों और जर्मन साम्राज्य के प्रति बेहद नाराजगी थी. लोग भीतर ही भीतर सुलग रहे थे. स्थानीय नागरिकों ने मिलकर एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षादल’ का गठन किया था. उसने सदस्यों में अधिकांश श्रमिक और कारखानों में काम करने वाले कारीगर थे. नागरिक सेना का नेतृत्व प्रगतिशील समाजवादी नेताओं के अधीन था. नागरिक सेना के प्रति जनसाधारण के समर्थन और विश्वास का अनुमान मात्र इसी से लगाया जा सकता है कि स्वयंसेवी सैनिकों की संख्या रातदिन बढ़ रही थी. स्त्री, बच्चे और बूढ़े जो लड़ाई में सीधे हिस्सा लेेने में असमर्थ थे, वे भी अपने अनुकूल काम खोज रहे थे, ताकि अवसर पड़ने पर दुश्मन से लोहा रहे राष्ट्रीय सुरक्षाकर्मियों को मदद पहुंचा सकें.

इस बात की अफवाह भी उड़ रही थी कि जर्मन सम्राट नगर में घुसने के बाद नागरिकों पर आक्रमण भी कर सकता है, उसके बाद नगर राजशाही के अधीन होगा. फरवरी 1871 का चुनाव भी राजशाही को बढ़ावा देने का संकेत देता था. ऐसी अफवाहें लोगों के गुस्से को परवान चढ़ाने के लिए पर्याप्त थीं. पेरिसवासी वैसे भी निडर थे. युद्ध उनके लिए कोई नई बात न थी. वर्षों से वे स्वशासन और आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ते आ रहे थे. इसलिए जर्मन सम्राट के सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश के पूर्व ही उसके विरोध की तैयारियां हो चुकी थीं. नागरिक सेना के विद्रोह को जनसाधारण के समर्थन का अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि सेना का सशस्त्र विरोध करने के लिए आवश्यक तोपों और हथियारों की खरीद के लिए पेरिस के सामान्य नागरिकों ने भी चंदा दिया था. जर्मन सम्राट के प्रवेश से पहले ही तोपें उपयुक्त स्थान पर अच्छी तरह से तैनात कर दी गई थीं. उनके संचालन के लिए नागरिक सैनिक तैयार किए जा रहे थे. ऊंचाई पर स्थित मोंटमेंट्री नामक स्थान को विद्रोह के प्रमुख ठिकाने के रूप में चुना गया था. वह सामरिक दृष्टि से भी अनुकूल था. उसके चारों ओर मजदूर बस्तियां थीं, निवासियों में से अधिकांश नागरिक सेना के प्रति समर्पित थे.

सारी तैयारी इतनी गुपचुप और भरोसेमंद थी कि भारी-भरकम सैन्यबल के साथ नगर-प्रवेश की तैयारी कर रहे जर्मन-सम्राट को इसकी खबर तक न लगी थी. गणतंत्र के अभ्यस्त हो चले पेरिसवासियों को राजशाही के नाम से ही चिढ़ थी. इसलिए जर्मन सेना से निपटने के लिए भीतर ही भीतर तैयारी चल रही थी. जर्मन की जंगी सेना के मुकाबले साधनविहीन, लगभग हार के मुहाने पर खड़े पेरिस- वासियों के मन में अपनी अस्मिता, मान-सम्मान और आजादी के प्रति इतना गहरा अनुराग था कि लोग नागरिक सेना में भर्ती होने उमड़े आ रहे थे. उनमें स्त्री-पुरुष, बूढ़े और बच्चे हर वर्ग के लोग थे, जो स्वेच्छा से मर-मिटने को तैयार थे. हर कोई ‘अपना राज’ चाहता था तथा उसके लिए यथासंभव बलिदान देने को उत्सुक था.

अस्थायी सरकार के मुखिया एडोल्फ थीयर को मालूम था कि राजनीतिक अस्थिरता और उथल-पुथल का लाभ उठाकर नागरिक सुरक्षादल ने वैकल्पिक शक्तिकेंद्र बना लिए हैं. आमजनता का उन्हें संरक्षण प्राप्त है. उसकी मुख्य चिंता थी कि हथियारबंद नागरिक सुरक्षादल के साथ-साथ श्रमिक-कामगार भी हथियार उठा सकते हैं, जिससे क्रुद्ध होकर जर्मन सेना नगर में तबाही मचा सकती है. इस बीच जर्मन सेना अल्प समय के लिए पेरिस में आई और समस्त आशंकाओं पर पानी फेरते हुए वहां से शांतिपूर्वक प्रस्थान कर गई. बावजूद इसके पेरिस का वातावरण गरमाया रहा. नगर के अशांत वातावरण से बचने के लिए नवनिर्वाचित राष्ट्रीय असेंबली ने बार्डोक्स के बजाय, उससे मीलों दूर पेरिस के दक्षिण-पश्चिम में स्थित वर्सेलाइस को अपना सम्मेलन-स्थल बनाने का निर्णय किया. सम्मेलन के लिए अधिकांश नेताओं के पेरिस से प्रथान कर जाने से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हो गया. नेशनल असेंबली के सदस्यों में से

अधिकांश राजशाही और साम्राज्यवाद के के समर्थक थे. दूसरी ओर स्थानीय प्रशासन में लोकतंत्र समर्थकों का वर्चस्व था. असेंबली के सदस्यों के वर्सेलाइस प्रस्थान करते ही स्थानीय प्रशासन पर उनकी पकड़ ढीली पड़ गई. दूसरी ओर राष्ट्रीय सुरक्षादल की केंद्रीय समिति में सुधारवादियों का अनुपात और उनका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा था. हालात का अनुमान लगाते हुए सरकार ने निर्णय लिया कि सेना की चार सौ तोपों को नागरिक सुरक्षादलों के अधिकार में रखना सामरिक दृष्टि से उचित नहीं है. अतएव 18 मार्च को जनरल थीयर ने सेना को आदेश दिया कि वह मोंटमेंट्री की पहाड़ियों तथा उसके आसपास के क्षेत्रों पर तैनात तोपखाने को अपने अधिकार में कर ले. मगर कुछ ही दिन पहले जर्मन सेना से भारी पराजय झेल चुके सैनिकों का मनोबल बहुत गिरा हुआ था. अपने ही लोगों का सामना करने का उनमें साहस न था. विवश होकर नागरिक सुरक्षादल के स्वयंसेवकों तथा स्थानीय नागरिकों को भी उस टुकड़ी में शामिल करना पड़ा, जिनके मन में सरकार के प्रति पहले ही आक्रोश भरा था.

सरकारी तोपखाने को अपने कब्जे में लेने के लिए वह टुकड़ी जैसे ही मोंटमेंट्री पहुंची, स्थानीय नागरिक और सुरक्षाकर्मी भड़क गए. क्लाउड मार्टिन लेकाम्टे सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व कर रहा था, उसने अदूरदर्शिता और नासमझी का प्रदर्शन करते हुए सुरक्षाबलों और स्थानीय जनता पर गोलीबारी का आदेश सुना दिया. जिससे लोग भड़क गए. भीड़ ने लेकाम्टे तथा जनरल थाॅमस को उनके घोड़ों से खींच लिया. उत्तेजित नागरिक सैनिकों ने दोनों को वहीं गोली से उड़ा दिया. बुजुर्ग जनरल था॓मस कभी नागरिक सुरक्षादल का कमांडर होता था, मगर अवसरवादी रुख अपनाते हुए वह राजशाही के पक्ष में चला गया था. उत्तेजित भीड़ ने उसको भी वहीं दबोच लिया. विद्रोहियों का रुख पहचानकर सेना भी उनके साथ मिल गई. जनरल थीयर ने पेरिस को खाली कराने का आदेश दिया. तब तक विद्रोही पूरे शहर में फैल चुके थे. स्थानीय नागरिक बड़ी संख्या में उनका साथ दे रहे थे. सेना का कहीं अता-पता न था. उधर एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व करना हुआ जनरल थीयर वर्सेलाइस के लिए प्रस्थान कर चुका था. इससे लोगों में संकेत गया कि वह घबराकर भागा है. इसके फलस्वरूप नागरिक सेना का मनोबल और भी बढ़ गया. यद्यपि जनरल थीयर ने बाद में दावा किया था कि पेरिस से हटना उसकी एक रणनीतिक चाल थी, तथापि उस समय नागरिकों और सुरक्षाबलों ने माना कि आसन्न पराजय से क्षुब्ध होकर पेरिस से भागा है.

पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिक सुरक्षाकर्मी छाए हुए थे. शासक के रूप में मात्र नागरिक सुरक्षादल तथा उनकी केंद्रीय समिति थी. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए उन्होंने गणतांत्रिक पद्धति के अनुरूप शासन चलाने का निर्णय लिया. आनन-फानन में लोकतांत्रिक विचारधारा के समर्थकों तथा श्रमिक नेताओं की बैठक बुलाई गई. आमचुनावों के लिए 26 मार्च, 1871 का दिन तय कर दिया गया. स्थानीय प्रशासन को व्यवस्थित रूप देते हुए 92 सदस्यीय कम्यून-परिषद का गठन किया गया. उसमें बड़ी संख्या दक्ष कामगारों और श्रमिक नेताओं की थी. उनके अलावा परिषद में डाॅक्टर, पत्रकार, नर्स, अधिवक्ता, अध्यापक जैसे पेशेवर, राजनीतिक कार्यकर्ता, सुधारवादी नेता, छोटे उद्यमी, उदार धर्मपंथी तथा समाजवादी नेता सम्मिलित थे. जर्मन सम्राट की सेना और उसके सभी सैनिक अवसर देखकर पेरिस छोड़ चुके थे. नगर पूरी तरह से विद्रोही नागरिक सेना के अधिकार में था.

इस अचानक सत्ता परिवर्तन का अनुमान न तो सरकार को था, न ही नागरिक सुरक्षाबलों को. इसलिए अप्रत्याशित परिवर्तन के बाद की स्थितियों के लिए कोई तैयार न था. प्रशासन को समाजवादी विचारधारा के अनुरूप, नए सिरे से गठित करने की आवश्यकता थी, जिसका सैनिकों और कार्यकर्ताओं को अनुभव ही नहीं था. उन्हें विश्वास था कि कि लुईस ब्लेंक और उसके समर्थक, अराजकतावादी-समाजवादी विचारक लुईस अगस्त ब्लेंकी प्रशासन और नागरिक सेना की बागडोर संभालेंगे तथा बदले हुए वातावरण में सबसे प्रभावी क्रांतिनेता सिद्ध होंगे. मगर नागरिक सेना का दुर्भाग्य रहा कि 17 मार्च के दिन ब्लेंकी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. जीवन के बाकी दिन उसको जेल ही में बिताने पड़े. एक सौदे के रूप में कम्यून के नेताओं ने ब्लेंकी के प्रत्यार्पण के बदले पेरिस के पुजारी डारबी तथा 74 अन्य युद्धबंदियों को छोड़ देने का आश्वासन दिया, मगर थीयर ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया. तो भी नागरिक सुरक्षाबलों तथा आंदोलनकर्मियों के अनुशासन में 28 मार्च को पेरिस कम्यून में ढल गया. वर्गहीन-राज्यविहीन समाज गढ़ने की कोशिश में सभी स्थानीय निकायों को भंग कर दिया. अनुभव की कमी के बावजूद समाजवादी आंदोलन के इतिहास में पेरिस कम्यून को मिली कामयाबी अद्वितीय और चामत्कारिक थी.

क्रांति की सफलता और सुनिश्चितता के लिए जनजीवन को पटरी पर लाना अत्यावश्यक था. अतएव केंद्रीय परिषद ने जनसुविधाओं की बहाली और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए कई कदम उठाए, जिसके कारण पेरिसवासियों को आजादी का एहसास हुआ. मगर युद्ध के बाद अस्त-व्यस्त हो चुके जनजीवन को सहेजने के लिए बड़े पैमाने पर नागरिक सुविधाओं की जरूरत थी. इसलिए उनकी बहाली हेतु सार्थक कदम उठाए गए. पेरिस के उन विद्रोही समाजवादियों, लोकसेवकों को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर बहुत कम, मात्र दो महीने ही मिल पाया. किसी भी व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त कर पटरी पर वापस लाने के लिए इतना समय नगण्य होता है. तो भी इस अवधि में कम्यून के संचालकों ने आपसी सहमति और सर्वकल्याण की भावना के साथ कई महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए थे, जो आगे चलकर समाजवादी व्यवस्था के प्रेरणास्रोत बने—

क. राज्य और धर्मस्थलों को एक-दूसरे से असंबद्ध करना.

ख. जितने समय तक नगर का कामकाज ठप्प रहा था, उस अवधि का किराया पूरी तरह माफ माफ करना.

ग. पेरिस स्थित सैकड़ों बेकरियों में रात की ड्यूटी करने पर पाबंदी. उनमें बड़ी संख्या में स्त्री और बच्चे काम करते थे.

घ. अविवाहित जोड़ों तथा ड्यूटी के दौरान मारे गए नागरिक सैनिकों के लिए पेंशन की व्यवस्था करना.

ङ. युद्धकाल में श्रमिकों द्वारा गिरवी रखे गए औजारों और घर के साज-सामान की बिना किसी अदायगी के वापसी.

च. कम्यून का विचार था कि अधिकांश दक्ष कारीगरों को युद्धकाल अपने औजार गिरवी रखने के लिए विवश किया गया था.

छ. वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए गए ऋण पर भुगतान को स्थगित करना तथा सभी प्रकार के ऋणों पर देय ब्याज से मुक्ति.

ज. कारखाना मालिकों द्वारा छोड़े गए तथा निष्क्रय पड़े कारखानों को श्रमिकों को चलाने का अधिकार. यद्यपि पूर्व कारखाना मालिकों को क्षतिपूर्ति के रूप में समुचित भत्ता मांगने का अधिकार दिया गया था.

चर्च को राज्य से अलग करने का परिणाम यह हुआ कि उसकी समस्त परिसंपत्तियां जनता के स्वामित्व में आ गईं. पाठशालों में धार्मिक गतिविधियों का आयोजन तत्काल प्रभाव से बंद करा दिया गया. चर्च की धार्मिक गतिविधियों को सीमित करने का भी प्रयास किया गया. वे अपनी धार्मिक गतिविधियां उसी अवस्था में चला सकती थीं, जब उन्हें शाम के समय राजनीतिक बैठकों के लिए खुला रखा जाए. यह जीवन में धर्म के हस्तक्षेप को न्यूनतम करने तथा उसके नाम पर संरक्षित संसाधनों का व्यापक लोकहित में उपयोग करने की दूरदर्शी योजना थी. शिक्षा में सुधार और सभी के लिए निःशुल्क और अनिवार्य तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था भी की गई. स्पष्ट है कि आंदोलनकारियों द्वारा पेरिस कम्यून को पूर्णतः वर्गहीन समाज के अनुरूप गढ़ने का प्रयास किया गया था.

पेरिस कम्यून के गठन की घटना को इसलिए भी याद किया जाना चाहिए कि उसके माध्यम से फ्रांस में पहली बार स्त्री-शक्ति का ओजस्वी रूप सामने आया. यद्यपि रूसो(1712—1778) अठारहवीं शताब्दी में ही स्त्री समानता का समर्थन कर चुका था. बाद में फ्यूरियर ने उस आंदोलन को आगे बढ़ाने काम किया. उसी ने ‘फेमिनिज्म’ जैसा सार्थक शब्द गढ़ा. फ्यूरियर की ही प्रेरणा पर महिला श्रमिकों ने आगे बढ़कर ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ की सदस्यता ग्रहण की थी. पेरिस की आजादी के संघर्ष में भी महिला आंदोलनकारियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. उनमें से एक थी पेशे से जिल्दसाज, नेथाली लेमल. समाजवादी विचारों में आस्था रखने वाली नेथाली ने ऐलिजाबेथ डिमीट्रिफ के साथ मिलकर पेरिस की आजादी के लिए महिला संगठन बनाया था. उसका नाम था—‘पेरिस की सुरक्षा तथा घायलों की देखभाल के लिए महिला संगठन.’ डिमीट्रिफ अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रूसी शाखा की सदस्य रह चुकी थी और उन दिनों रूस से निर्वासन की सजा भोग रही थी. कुछ ही दिनों बाद इस संगठन को स्त्रीवादी लेखक आंद्रे लियो का भी समर्थन मिल गया. लियो पित्रसत्तात्मकता को पूंजीवाद को प्रश्रय देने वाली व्यवस्था मानते थे. उन्हें विश्वास था कि पित्रसत्तात्मकता के विरुद्ध उनका अभियान कालांतर में पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की प्रेरणा बनेगा. नेथाली द्वारा गठित संगठन की मुख्य मांगें थीं—‘स्त्री समानता तथा समान मजदूरी’. इनके अलावा तलाक का अधिकार, धर्मनिरपेक्ष शिक्षा, संसाधनों में समान भागीदारी आदि भी स्त्रीवादियों की मांग में सम्मिलित थे. संगठन ने विवाहिता स्त्री और रखैल के बीच अंतर को मिटाने के साथ-साथ उनकी संतानों के बीच भेदभाव खत्म करने की मांग भी थी. आशय यह है कि पेरिस कम्यून का वातावरण पूरे समाज को नई चेतना सराबोर कर रहा था.

नागरिक संगठन एक ओर सामूहिक जीवन को समृद्ध बनाने के लिए निरंतर नए प्रयास कर रहे थे, उधर पू्रशिया सरकार थीयर की मदद के लिए हाथ बढ़ा चुकी थी. उसी की मदद से पूरे पेरिस की घेराबंदी कर दी गई. अंततः 21 मई को थीयर के नेतृत्व में संयुक्त सेना ने पश्चिमी दरवाजे से नगर पर हमला बोल दिया. नागरिक सुरक्षाकर्मियों ने आम जनता की मदद से उन्हें रोकने का प्रयास किया. क्रुद्ध होकर प्रूशिया के सैनिकों ने कत्लेआम मचा दिया. पेरिस के चप्पे-चप्पे पर नागरिकों और सैनिकों के बीच घमासान युद्ध छिड़ा था. लोग राजशाही के अधीन रहने के बजाय स्वाधीन रहते हुए जान देना ठीक समझते थे. नगर के पूर्वी सिरे पर मजदूर बस्तियां थी. कम्यून की जीवनशैली में उन्हें सम्मानजनक अवसर मिले थे. इसलिए पू्रशिया और जनरल थीयर के सैनिकों का सर्वाधिक विरोध भी उसी ओर था. गरीब मजदूर जी-जान से संघर्ष कर रहे थे. मगर हथियारों की कमी और युद्धनीति की जानकारी का अभाव उनकी सफलता के आड़े आया. धीरे-धीरे श्रमिक सेना कमजोर पड़ने लगी. 28 मई, 1871 को आखिरकार पेरिस फिर से राजशाही के अधीन चला गया. क्रुद्ध सैनिकों ने खूब कत्लेआम किया. लेक्समबर्ग के बागों और लोबाउ छावनी में विशेषरूप से बनाई गई कत्लगाहों में हजारों विद्रोहियों को मौत के घाट उतार दिया गया. करीब 40,000 से अधिक युद्धबंदियों को निष्कासन की सजा सुनाई गई. आमजनता यहां तक कि स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया.

सैनिकों ने हजारों स्त्रियों-बच्चों को अमानवीय अवस्था में भूखे-प्यासे कैद में रखा.

पेरिस पर सेना का कब्जा हो जाने के बाद 12,500 नागरिकों और सुरक्षाकर्मियों पर मुकदमा चलाया गया. उनमें से 10,000 को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई गई, 23 को फांसी पर चढ़ा दिया गया. लगभग 4,000 को न्यू सेल्डोनिया में निर्वासित कर दिया गया. बाकी को कैद की सजा हुई. सेना द्वारा सामूहिक नरसंहार के उस सप्ताह में कुल कितने लोगों को मौत के घाट उतारा गया, इसका सही-सही आकलन आज तक नहीं हो पाया है. बेंडिक्ट एंडरसन के अनुसार उस ‘खूनी सप्ताह’ के भीतर पकड़े गए लगभग 20,000 सैनिकों में से कुल 7,500 को सजा सुनाई गई. जबकि कुछ विद्वान इस संख्या को 50,000 से भी अधिक बताते हैं. यहां उल्लेख करना आवश्यक है कि हालांकि पेरिस कम्यून की अवधारणा मार्क्स के सिद्धांत के अनुकूल थी. इसके पीछे कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो की प्रेरणा भी थी. बावजूद इसके पेरिस कम्यून में हुए खून-खराबे से मार्क्स को गहरा धक्का पहुंचा था, जिससे उसने खुद को लेखन और अध्ययन के प्रति समर्पित कर दिया.

पेरिस कम्यून में भारी उद्योगों का संचालन मजदूर संघों के समन्वित प्रयासों द्वारा लोकतांत्रिक आधार पर संभव होता था. सभी उद्योग एक श्रमिक महासंघ के अधीन संचालित होते थे. वह पूरी तरह एक वर्गहीन समाज था, जिसमें न पुलिस बल था, न जेल, न किसी प्रकार की हिंसा को वहां स्थान था. उत्पादन के स्रोतों में सबका साझा था. ऐसे वातावरण में वहां कोर्ट-कचहरी, जज-मुन्सिफ वगैरह की भी आवश्यकता नहीं थी. सरकार के सभी पदों का चुनाव लोकतांत्रिक परिषद द्वारा किया जाता था. सामंतवाद और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में निचले और ऊपर के स्तर पर व्याप्त वेतनमान की असंगतियों को दूर करने की ईमानदार कोशिश की गई थी. चयनित अधिकारियों को भी कामगारों की औसत मजदूरी के बराबर वेतन प्राप्त होता था. कर्तव्य में कोताही बरतने, किसी भी प्रकार का आरोप सिद्ध होने पर उन्हें वापस बुलाया जा सकता था. यूजेन पोत्येर नामक एक कामगार ने कम्यून के जीवन पर एक कविता लिखी थी, जिसका आशय है—

‘सुबह जो नाला साफ करता है, वह दस बजे आकर आफिस में बैठता है, कोर्ट में जज बनता है, शाम को आकर कविता लिखता है.’

समाजवाद के पहले प्रयोग के रूप में ख्यात पेरिस कम्यून का जीवनकाल मात्र 70 दिन रहा, वह प्रयोग एक समानता-आधारित समाज का प्रतीक माना गया. मगर मार्क्स और उसके मित्र ऐंगल्स को उसी से संतुष्टि नहीं थी. उनकी आंखों में साम्यवाद और पूर्णतः वर्गहीन समाज का सपना बसा था. कम्यून-व्यवस्था को वे नौकरीपेशा मजदूरों (बुर्जुआ वर्ग) की तानाशाही मानते थे. उनका तर्क था कि, ‘राज्य और कुछ नहीं, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के शोषण का अवसर देने वाली मशीन है…’ दोनों का विश्वास था कि श्रमिक-क्रांति द्वारा विनिर्मित ‘नवीन एवं मुक्त सामाजिक परिवेश में एक दिन सभी साहूकारों, पूंजीपतियों को कूड़े के ढेर में बदला जा सकेगा.’9 पेरिस कम्यून साम्यवाद की स्थापना का पहला चरण था. सरकार के भारी बलप्रयोग द्वारा समाप्त कर दिया गया, मगर समाजवादी व्यवस्था का जो रास्ता उसने दिखाया, वही आगे चलकर मार्क्स और ऐंगल्स के वैज्ञानिक समाजवाद के रूप में विकसित हुआ था, जिसने कुछ दशकों में ही दुनिया के लगभग आधे देशों में अपनी अच्छी-खासी पैठ बना ली.

पेरिस कम्यून की असफलता के पीछे मजदूर नेताओें के आपसी मतभेद भी थे. उनमें से हर कोई क्रांति का श्रेय स्वयं लेना चाहता था. इनमें मार्क्स और बकुनाइन के मतभेद भी जगजाहिर हैं. पेरिस क्रांति के बड़े नेताओं में से एक बकुनाइन का मानना था कि मार्क्स जर्मन मूल का घमंडी यहूदी है. तानाशाही उसके स्वभाव का स्वाभाविक हिस्सा है. इसलिए वह फस्र्ट इंटरनेशनल के माध्यम से श्रमिकों को अपनी तरह से हांकना चाहता है. दूसरी ओर मार्क्स मानता था कि सर्वहारा वर्ग को अपना राजनीतिक दल स्वयं गठित कर, अन्य राजनीतिक दलों को राजनीति के मैदान में ही टक्कर देनी चाहिए. बकुनाइन और उसके समर्थकों के लिए पेरिस कम्यून वांछित परिवर्तन की दिशा में क्रांतिकारी कदम था, जिसके माध्यम से वे सोचते थे कि मार्क्स द्वारा कल्पित ‘आधिकारिक साम्यवाद’ को जवाब दिया जा सकता है. इस तरह वे मार्क्स की उस छवि को धूमिल करना चाहते थे, जो कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो के बाद बुद्धिजीवियों और श्रमिकों के बीच बनी थी.

बहरहाल मार्क्स और बकुनाइन के समर्थकों के बीच विवाद बढ़ता ही बढ़ता ही गया, जिसके परिणामस्वरूप बकुनाइन को ‘फस्र्ट इंटरनेशलन’ से निष्कासित होना पड़ा. मगर विवाद का यहीं अंत नहीं था. बकुनाइन के निष्कासन के बाद भी विवाद थमा नहीं था. परिणामस्वरूप श्रमिक नेताओं और विचारकों में फूट बढ़ती ही गई. जिस ऊर्जा और बौद्धिक क्षमता का उपयोग क्रांति को सफल बनाने के लिए किया जाना चाहिए था, वह लगातार कमजोर पड़ता चलता गया. इससे लोगों का विश्वास अपने नेताओं से उठता चला गया. मार्क्स भी इससे काफी निराश हुआ. परिणाम यह हुआ कि उसने स्वयं को अध्ययन और लेखन के प्रति समर्पित कर दिया. जो हो, मार्क्स का सपना आज भी मरा नहीं है. पूंजीवाद के इस इस घनघोर जंगल में, इस शोषणकारी व्यवस्था में आज भी उसकी प्रासंगिकता पूर्वतः बनी हुई है. 
श्री ओम प्रकाश कश्यप के ब्लाग आखरमाला से साभार ...

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक पेजी मार्क्सवाद

हुत लोग हैं जो मार्क्सवाद पर उसे बिना जाने बात करते हैं।  उन्हें लगता है कि मार्क्सवाद को समझना कठिन है या वह बहुत विस्तृत है उस में सर कौन खपाए। लेकिन मार्क्सवाद को समझना कठिन नहीं है। यूँ तो किसी भी दर्शन को समझने के लिए बहुत कुछ करना होता है। इसे यूँ समझ लीजिए कि कार्ल मार्क्स ने अपनी मूल प्रारंभिक पुस्तक "राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" लिखने के लिए पंद्रह वर्षो तक अनुसंधान कार्य किया और अपने आर्थिक सिद्धान्त का आधार तैयार किया। उन्हों ने अपने अन्वेषण के निष्कर्षों को अर्थशास्त्र के एक वृहत् ग्रंथ में सूत्रबद्ध करने की योजना बनाई। इस ग्रन्थ का पहला भाग जून 1859 में प्रकाशित हुआ। उस के प्रकाशन के तुरन्त बाद दूसरा भाग प्रकाशित करने का इरादा मार्क्स का था। लेकिन अगले विस्तृत अध्ययन के कारण उन्हों ने पूंजी लिख डाली। 

"राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" की जो भूमिका मार्क्स ने लिखी उस में एक पृष्ठ के एक पैरा में अपने सिद्धान्त, जो बाद में मार्क्सवाद की रीढ़ माना गया को स्पष्ट किया है।  जो लोग मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं उन्हें इस एक पैरा में सब कुछ मिल सकता है और इच्छा होने पर बाद में वे और आगे अध्ययन कर सकते हैं। आप इस एक पृष्ठ की मार्क्सवाद की रूपरेखा को "एक पेजी मार्क्सवाद" की संज्ञा दे सकते हैं। 


क्या है मार्क्सवाद?


पने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बन्धते हैं जो अपरिहार्य एवं उन की इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है – व ह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिस के अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्कर्या को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उन के अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उन का सामाजिक अस्तित्व उन की चेतना को निर्धारित करता है। अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच कर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों से, या – उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – उन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराती है।, जिन के अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती है। ये सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुरूप न रह कर उन के लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरु होता है। आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है। ऐसे रूपान्तरणों पर विचार करते हुए, एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपान्तरण है, जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी, या दार्शिनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिन के दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उस से निपटते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह हम ऐसे रूपान्तरण के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते। इस के विपरीत भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती, जब तक उस के अन्दर तमाम उत्पादन शक्तियाँ, जिन के लिए उस में जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नए, उच्चतर उत्पादन सम्बन्धों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उन के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट नहीं हो चुकतीं। इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें वह सम्पन्न कर सकती है। कारण यह कि मामले को गौर से देखने पर हमेशा हम यही पाएंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे सम्पन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियाँ पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं। मोटे तौर से ऐशियाई, प्राचीन, सामन्ती एवं आधुनिक, पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियाँ समाज की आर्थिक संरचना के अनुक्रमिक युग कही जा सकती हैं। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अन्तिम विरोधी रूप हैं – व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं, वरन् व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उद्भूत विरोध के अर्थ में विरोधी हैं। साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादन शक्तियाँ इस विरोध के हल की भौतिक अवस्थाएँ उत्पन्न करती हैं। अतः इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है।


-कार्ल मार्क्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास की भूमिका से (1859)

मंगलवार, 11 मई 2010

तथ्यों की पर्याप्तता और सत्यता


पाठकों और मित्रों !

नवरत की यह 500वीं प्रस्तुति है।  जब मैं ने अपना पहला ब्लाग 'तीसरा खंबा' आरंभ किया था तो मैं ने  सोचा भी न था कि मैं कोई दूसरा ब्लाग जल्दी ही आरंभ कर दूंगा। लेकिन यहाँ बातचीत का जो माहौल था,  उस ने मुझे प्रेरित किया कि मैं कानूनी विषयों के अतिरिक्त भी कुछ लिखूँ। तीसरा खंबा में उसे लिखा जाना उपयुक्त नहीं लगा। और अनवरत का जन्म हुआ।
जैसा कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ होता है। वह पैदा होते ही कुछ सीखना आरंभ करता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। बोलना आरंभ करने के साथ ही वह कहना सीखता है। जो कुछ वह देखता है, अनुभव करता है, पढ़ता है उसे विद्यमान परिस्थितियों पर लागू करता है। तब उस के पास कुछ कहने को होता है, वही सब कुछ वह किसी न किसी माध्यम से अभिव्यक्त करता है। मैं ने भी अनवरत पर जो कुछ लिखा है वह सब यह अभिव्यक्ति है। अपनी स्वयं की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त मैं ने जो  कुछ मुझे पसंद था वह भी प्रस्तुत किया। इस में कुछ मित्रों की रचनाएँ थीं। लेकिन बहुत कुछ ऐसा भी है जो मैं ने पढ़ा है और जिस ने मुझे प्रभावित किया है, जिस से मैं ने कुछ सीखा है।  मैं चाहता था कि वह सब भी हिन्दी अंतर्जाल के पाठकों को उपलब्ध हो। मैं ने इस के लिए भी प्रयत्न किया और लगातार करता रहूँगा। मुझे जिन चीजों ने प्रभावित किया है उन में से एक कार्ल मार्क्स का दर्शन भी है। जिसे आजकल मार्क्सवाद, या मार्क्सवाद-लेनिनवाद, या फिर माओवाद के माध्यम से जाना-पहचाना जाता है वह मार्क्स के दर्शन का विस्तार है। उसे जाँचने , परखने और उस पर बहस की पर्याप्त गुंजाइश है।  
मेरी नजर में मार्क्स का दर्शन, जिसे द्वंदात्मक भौतिकवाद भी कहा जाता है, जैसा कि मैं ने उसे जाना है और समझा है, वस्तुतः वह पद्यति है जिस से दुनिया चल रही है। मुझे वह इस भौतिक जगत के तमाम व्यवहारों को समझने का आज तक का सब से  बेहतर तरीका प्रतीत होता है। इस पद्यति का निर्माण स्वयं मार्क्स ने नहीं किया। यह तो वह पद्यति है जिस से दुनिया चल रही है, मार्क्स ने तो उसे सिर्फ खोज निकाला है। मार्क्स की खोज निकाली हुई इस पद्यति को किसी भी रुप में आज तक कोई चुनौती मिली हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है। सारे विवाद उस पद्यति का प्रयोग करते हुए दुनिया के बदलने के उपायों के संबंध में है। जो भी  व्यक्ति या व्यक्ति समूह इस पद्यति को समझ लेता है वह अपने अनुसार दुनिया के व्यवहारों का मूल्यांकन करता है और दुनिया की परिवर्तन में अपने तरीके से योगदान करना चाहता है। यहीं वे त्रुटियाँ होती हैं जो आलोचना का कारण बनती हैं। दुनिया के व्यवहारों का मूल्यांकन करते समय  उन के बारे में जुटाए गए तथ्यों की पर्याप्तता और सत्यता सदैव ही निष्कर्षों को प्रभावित करती है। यदि तथ्य पर्याप्त और सही नहीं हैं तो निष्कर्ष कभी भी सही नहीं हो सकते। आम तौर पर जो गलती होती है वह यहीं होती है। भारत में तो इस से आगे एक और बात है कि जो इस दर्शन को समझ कर यह सोच लेता है कि केवल दर्शन से दुनिया को बदला जा सकता है, वह तथ्यों को जुटाने पर कम से कम श्रम करता है और दर्शन की मदद से उन की कल्पना करने लगता है। फिर इन कल्पित तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालता है। अब आप अनुमान कर सकते हैं कि कल्पित तथ्यों के आधार पर काम करने वाला क्या कर सकता है?
सलन किसी वैज्ञानिक प्रयोग में आप को किसी खास तापमान पर कोई अभिक्रिया आरंभ करनी है, उस से कम या अधिक तापमान पर नहीं। आप तापमान का अनुमान कर अभिक्रिया आरंभ कर देते हैं और तापमान कम  या अधिक हुआ तो दोनों ही स्थितियों में इच्छित परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते। आप अपने सारे प्रयोग और उस के लिए जुटाई गई सामग्री को नष्ट कर देते हैं और साथ ही समय भी नष्ट करते हैं। 
खैर! वह सब विवाद का विषय है। आप समाज या दुनिया को बदलने न भी जाएँ तब भी मार्क्स का यह दर्शन किसी भी व्यक्ति के जीवन में रोजमर्रा के व्यवहारों को समझने और निर्णय लेने में सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध होता है। क्यों कि इस के कारण आप सही सही तरह से यह जान पाते हैं कि आप के आस पास जो घटनाएँ और परिघटनाएँ घट रही हैं वे क्यों घट रही हैं और वे आगे क्या रूप ले सकती हैं। आप को अपने निर्णय लेने में बहुत सुविधा होती है। हालांकि यहाँ भी परिणाम इसी बात पर निर्भर करते हैं कि आप ने मूल्यांकन के लिए पर्याप्त और सही तथ्यों को जुटाया है अथवा नहीं। 

स समय अनवरत पर मैं एंगेल्स की पुस्तिका "वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका" प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे समाप्त होने में दो सप्ताह लग सकते हैं। इस के साथ ही यहाँ यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य " परंपरा और विद्रोह" का एक एक सर्ग भी प्रस्तुत किया जा रहा है। दोनों ही बहुमूल्य निधियाँ हैं। पूरा हो जाने के उपरांत इन्हें ई-बुक के रूप में अंतर्जाल पर सहेजने की योजना है। जिस से हिन्दी के इच्छुक पाठकों को इस का लाभ मिल सके। इस से निश्चय ही अंतर्जाल पर स्थाई रूप से उपलब्ध हिन्दी सामग्री की वृद्धि में मेरा भी कुछ योगदान हो सकेगा।
मुझे विश्वास है कि आप इस ब्लाग पर आते रहेंगे।

गुरुवार, 6 मई 2010

फ्रेडरिक ऐंगेल्स का कार्ल मार्क्स की समाधि पर दिया गया भाषण

14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सब से महान जीवित विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गई। उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौट कर आए, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शांति से सो गए हैं -परन्तु सदा के लिए। 
स मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमरीका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है। इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसे अनुभव करेंगे। जैसे की जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्हों ने इस सीधी-सादी सचाई का पता लगाया - जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढंकी हुई थी - कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म आदि में लगने से पूर्व मनुष्य जाति को खाना पीना, पहनना ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलतः किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की मात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, कानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म-संबंधी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सब की व्याख्या की जा सकती है, न कि इस से उल्टा, जैसा कि अब तक होता रहा है।
रन्तु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का पता लगाया जिस से उत्पादन की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूँजीवादी समाज दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक सारा अन्वेषण - चाहे वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो य़ा समाजवादी आलोचकों न, अन्ध विश्लेषण ही था। ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए पर्याप्त हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली है, जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परंतु जिस भी क्षेत्र में मार्क्स ने खोज की -और उन्हों ने बहुत से क्षेत्रों में खोज की और एक में भी सतही छानबीन कर के ही नहीं रह गए - उस में यहाँ तक कि गणित में भी, उन्हों ने स्वतंत्र खोजें कीं।  
से वैज्ञानिक थे वह। परंतु वैज्ञानिक का उन का रूप उन के समग्र व्यक्तित्व में अर्धांश भी न था। मार्क्स के लिए विज्ञान ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक सिद्धांतों में किसी नयी खोज से, जिस के व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असंभव हो, उन्हें कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उन की खोज से उद्योग-धन्धों और सामान्यतः ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिलुकुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था। उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए आविष्कारों के विकास-क्रम का और मरसेल देप्रे के हाल के आविष्कारों का मार्क्स बड़े गौर से अध्ययन कर रहे थे। 

मार्क्स सर्वोपरि क्रान्तिकारी थे। जीवन में उन का असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उस से पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आजाद करने में योग देना था, जिसे सब से पहले उन्हों ने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उस का उद्धार हो सकता है। संघर्ष करना उन का सहज गुण था। और उन्हों ने ऐसे जोश, ऐसी लगन और ऐसी सफलता के साथ संघर्ष किया जिस का मुकाबला नहीं है। प्रथम राइनिश जाइटुंग (1842) में, पेरिस के वॉरवार्टस् (1844) में देत्शे ब्रूसेलर जाइटुंग (1847) में, न्यू राइनिश जाइटुंग (1848-49) में, न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून (1852-1861) में उन का काम, उस के अलावा अनेक जोशीली पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रुसेल्स और लन्दन के संगठनों में काम और अन्ततः उनकी चरम उपलब्धि महान अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना - यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, यदि उस ने और कुछ भी न किया होता, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था। 
न सब के फलस्वरूप मार्क्स अपने युग के सब से अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हे अपने राज्यों से निकाला। पूंजीपति चाहे वे रूढ़िवादी हों चाहे घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने मं एक दूसरे से होड़ करते थे। मार्क्स इस सब को यूँ झटकार कर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उस की ओर ध्यान न देते थे, आवश्यकता से बाध्य हो कर ही उत्तर देते थे। और अब वह इस संसार में नहीं हैं। साइबेरिया की खानों से ले कर केलिफोर्निया तक, यूरोप और अमरीका के सभी भागों में उस के लाखों क्रांतिकारी मजदूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उन के प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उन के निधन पर आँसू बहा रहे हैं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि चाहे उन के विरोधी बहुत रहे हों, परन्तु उनका कोई व्यक्तिगत शत्रु शायद ही रहा हो। 
न का नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा, वैसे ही उन का काम भी अमर रहेगा!

यह भाषण कार्ल मार्क्स के अभिन्न साथी फ्रेडरिक ऐंगेल्स द्वारा हाईगेट क़ब्रिस्तान, लंदन में, 17 मार्च 1883 को अंग्रेजी में दिया गया था।

बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?

रविवार, 28 दिसंबर 2008

पूँजीवाद, समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद के बहाने

दिसम्बर 22, 2008 को अनवरत पर एक छोटा सा आलेख था पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद जिस में मैं ने अपने दो वरिष्ठ अभिभाषकों के साथ हुए एक मुक्त वार्तालाप  का विवरण था। दोनों ही मेरे लिए आदरणीय थे और विनोद प्रिय भी। जगदीश नारायण जी के पिता नगर के प्रधान रह चुके थे और पैंतालीस बरस पहले की जिला कांग्रेस में महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। जगदीश जी भी पिता के पद चिन्हों पर थे। पर उतनी ख्याति अर्जित नहीं कर पाए थे। दोनों पिता-पुत्र बहुत अच्छे प्रोफेशनल वकील थे। मोहता जी ने जो व्यंग्य कहा था वह जगदीश जी पर नहीं था। आम काँग्रेसी ऐसे लगते भी नहीं, जैसा varun jaiswal ने अपनी टिप्पणी में कहा था, "लेकिन कांग्रेसी तो पूंजीपति से नही लगते |" लेकिन उन की पार्टी उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। इसी कारण से मोहता जी का इशारा उन की ओर था। 
सज्जनदास जी मोहता एक क्लासिकल समाजवादी थे। उन्हों ने तत्कालीन समाजवादी पार्टी के वे सभी काम किये थे जो एक कार्यकर्ता कर सकता था। अखबार निकाला, लेख लिखे, संगठन किया लेकिन जब से वकालत में आए तब से लेख लिखने या जलसों में शिरकत करने का ही काम रहा उनका। वकालत में वे अनुकरणीय उदाहरण रहे। बिना सोचे समझे किसी मुकदमे में हाथ नहीं डालते थे। अपने काम में चुस्त रहते। हमेशा काम करने को तैयार रहते। मैं ने उन्हें करीब बीस बरस देखा। कभी किसी अदालत में अपने या अपने मुवक्किल के किसी कारण से पेशी बदलवाते नहीं देखा। उन के मुकदमे जल्दी परवान चढ़ते थे। वे अपने मुवक्किल को पहले ही कह देते थे। मैं अदालत से पेशियाँ नहीं बढ़वाउँगा, जो होना हो सो हो। अंत तक उन का सम्मान बना रहा। उन से कनिष्ठ सभी वकील उन को गुरूजी ही कहा करते थे। मुझे भी उन से बहुत कुछ सीखने को मिला। मैं ने चाहा कम से कम प्रोफेशन में उन का जैसा बन सकूँ। लेकिन बहुत मुश्किल है उन के आदर्श को पाना।

उस दिन के आलेख को लोगों की उन के नजरिए के अनुरूप टिप्पणीयाँ मिलीं। लेकिन मैं तो उस घटना से यही समझा था कि समाज में लालच को नियंत्रित करने के लिए एक राजनैतिक शक्ति की आवश्यकता है। जिस से समाज में आवश्यकता और उत्पादन का संतुलन न गड़बाड़ाए। संभवतः मार्क्सवाद में इसे ही प्रोलेटेरियन की डिक्टेटरशिप कहा है।

जहाँ तक मार्क्सवाद और समाजवाद पर कुछ कहने की बात है। उतनी कूवत शायद अभी मुझ में नहीं। वहाँ हाथ धरने के पहले शायद बहुत अध्ययन की जरूरत है। अभी पूंजी को हाथ लगाया है। उस के संदर्भ ग्रंथों की सूची देख कर ही भय लगा। कैसे अकेले मार्क्स ने इतने ग्रन्थों को घोटा होगा? क्या उस की ताकत रही होगी? और उस ताकत के पैदा होने का जरिया क्या रहा होगा?

उस पोस्ट पर वरुण के अतिरिक्त अनूप शुक्ल, Ratan Singh Shekhawat, प्रवीण त्रिवेदी,Arvind Mishra, Anil Pusadkar,  ताऊ रामपुरिया,   प्रशांत प्रियदर्शी PD,   डा. अमर कुमार, विष्णु बैरागी, Gyan Dutt Pandey, Alag sa, डॉ .अनुराग, राज भाटिय़ा और कार्तिकेय की प्यारी टिप्पणियाँ मिलीं। सभी का बहुत आभार। 

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

कल दो समाचार पढ़ने को मिले जिन्हों ने कार्ल मार्क्स की पुस्तक "पूंजी" को पढ़ने और समझने की इच्छा को और तीव्र कर दिया। अब लगता है उसे पढ़ना और समझना जरूरी हो गया है। दोनों समाचार इस तरह हैं ...

म्युनिख (जर्मनी) के एक रोमन कैथोलिक आर्चबिशप रिन्हार्ड मार्क्स ने एक और दास कैपीटल लिख कर बाजार में उतार दी है। निश्चय ही वे इस समय कार्ल मार्क्स और उन की पूंजीवाद के विश्लेषण की पुस्तक "पूँजी" की बढ़ती हुई लोकप्रियता को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। हालाँकि उन्हों ने कहा कि यह पुस्तक साम्यवाद के प्रचार और उस की रक्षा के लिए नहीं अपितु रोमन कैथोलिक संप्रदाय की सामाजिक शिक्षाओं को मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में लागू करने के लिए लिखा गया है। इस पुस्तक का प्रथम अध्याय 19वीं शताब्दी के विचारक कार्ल मार्क्स को संबोधित करते हुए एक पत्र की शैली में लिखा गया है। इस पुस्तक को बुधवार को जारी किया गया। इस से यह तो साबित हो ही गया है कि कार्ल मार्क्स इन दिनों तेजी से फैशन में आए हैं और शिखर पर मौजूद हैं।

उधर 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो ने जो पुर्तगाल के अब तक के अकेले नोबुल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति हैं, ब्राजीलियन मास्टर फर्नान्डो मियरलेस द्वारा निर्देशित एक फिल्म प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि कार्ल मार्क्स उतने सही कभी भी नहीं थे जितना कि आज हैं। उन्हों ने कहा कि सारा धन बाजार में लगा दिया गया है, फिर भी वह इतनी तंगी है। ऐसे में किसे बचाने की आवश्यकता है?  बैंकों को?  नहीं, मनुष्य को?

सरमागो ने कहा कि अभी इस से भी खराब स्थिति आने वाली है। उन से जब पूछा गया कि फिल्म की थीम और अर्थव्यवस्था के संकट में क्या संबंध है तो उन्होंने कहा कि " हम हमेशा थोड़े बहुत अंधे होते हैं, विशेष रुप से इस मामले में कि कौन सी बात जरूरी है"। सरमागो के करीब तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन में कविता, गद्य और नाटक सम्मिलित हैं। अभी निमोनिया से उबरने के उपरांत उन्हों ने अपना नवीनतम उपन्यास "एक हाथी की यात्रा" सम्पन्न किया है, जिस में एक एशियाई हाथी की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप की कहानी का वर्णन है।

इन दोनों समाचारों को पढ़ने के बाद अपने एक अजीज मित्र से कार्ल मार्क्स की "पूँजी" को अपने कब्जे में करने का इन्तजाम आज कर लिया गया है। हो सकता है, अगले रविवार तक वह मेरे कब्जे में आ जाए। फिर उसे पढ़ने और आप सब के साथ मिल बांटने का अवसर प्राप्त होगा।
  • चित्र - 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

मार्क्स फिर से फैशन में .....

हसन सरूर लंदन से दी हिन्दू के लिए लिखते हैं ....... 

पूंजीवाद के वैश्विक संकट के समय कार्ल मार्क्स पश्चिम में फिर से फैशन में लौट आए हैं। उन का मौलिक काम दास कैपीटल फिर से बेस्ट-सेलर्स की सूची में है। उन की अपनी मातृभूमि जर्मनी में इस किताब की  अलमारियां खाली हो रही हैं, क्यों कि असफल बैंकर्स और स्वतंत्र बाजार के अर्थशास्त्रियों की  वैश्विक आर्थिक गलन को समझने की कोशिश नाकाम रही। मार्क्स के जन्मस्थान ट्रायर में दर्शनार्थियों की संख्या अचानक बढ़ गई है और एक फिल्मकार एलेक्जेंडर क्लूग दास कैपिटल के फिल्मीकरण की योजना बना रहे हैं। फ्रांसिसी राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी ने इसे दिशा-निर्धारक कहा है, जर्मन वित्त मंत्री पीर स्टीनब्रुक सर्वत्र इस की प्रशंसा कर रहे हैं और पोप इस के महान विश्लेषणात्मक गुणों की सराहना।

आर्चविशप कैंटरबरी रोवन विलियम्स मार्क्स के विश्लेषण को स्मरण करते हुए कहते हैं कि मार्क्स ने बहुत पहले दिखा दिया था कि निरंकुश पूँजीवाद एक प्रकार की पौराणिक कथा, घिसी हुई वास्तविकता और निर्जीव शक्तियों का अभिकर्ता हो जाएगा।  

आखिर क्या है? इस मार्क्स की दास कैपीटल में कि इस के लेखक को पूरी एक शताब्दी तक जम कर गालियाँ दी गई, जम कर कोसा गया।  आज फिर उन्हीं गालियाँ देने वालों के अनुयायी फिर से उसी मार्क्स को स्मरण कर रहे हैं। आखिर कुछ तो लिखा होगा उस ने।

बहुत पहले, करीब तीस साल पहले जब कार्ल मार्क्स भारत में बहुत चर्चा का विषय था। मैं ने पूंजी का हिन्दी अनुवाद खरीदा था, बहुत सस्ते में। मगर इस साल दीवाली की सफाई में वह नहीं मिला। मुझे उसे पढ़ने की फुरसत मिलती इस से पहले कोई उसे खुद अपने पढ़ने के लिए या फिर अपना पुस्तकालय सजाने के लिए ले गया।  

सोचता हूँ मार्क्स की पूंजी दास कैपिटल की एक प्रति मैं भी कहीं से प्राप्त कर पढ़ लूँ। जान लूँ , कि क्यों इन तमाम जाने माने लोगों को यह किताब पूँजी के वैश्विक संकट के समय याद आ रही है? वह मुझे मिल गई तो उसे जरूर पढ़ूंगा और आप को बताऊंगा भी, कि क्या लिखा है उस में? 

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

बीस साल बाद? लौट रहा है उस का प्रेत

बीस साल पहले जिसे दफ़्न कर दिया गया था। नगर के बीच की दीवार गिरा दी गई थी और उस के मलबे के ढेर के नीचे उस की कब्र को दबा दिया गया था। कभी न खुल सके उस की कब्र। कोई भूले से भी उसे याद न करे। वह अच्छे बुरे सपनों में भी न आए। लेकिन अब उसी कब्र में प्रेत अब लौट रहा है। दुनिया के मशहूर खबरची रॉयटर ने यही खबर दी है।

बर्लिन की दीवार के गिरने के बीस साल बाद जर्मनी के पुस्तक विक्रेताओं के लिए 141 वर्ष पुरानी एक किताब बेस्ट सेलर हो गई है। जी, हाँ¡ यह साम्यवाद के संस्थापक पिता कार्ल मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचनात्मक समीक्षा की पुस्तक दास कैपिटल (पूँजी) है। अकादमिक प्रकाशक दीत्ज़ वेर्लाग के लिए यह एक बेस्ट सेलर है। हर प्रकाशक सोचता था कि इस किताब को कभी कोई मांगेगा। लेकिन वे 1990 के मुकाबले दास कैपिटल सौ गुना प्रतियाँ बेच चुके हैं। यहाँ तक कि इन दिनों बैंकर्स और प्रबंधक दास कैपिटल पढ़ रहे हैं।

पूर्वी जर्मनी भारी बेरोजगारी से गुजर रहा है, ऐसे में कार्ल मार्क्स की वापसी को पूँजीवाद को खारिज करने के रूप में देखा जा रहा है। अमरीका में पिछले माह हुई भारी आर्थिक उथल पुथल और सरकारी बेल-आउट की श्रंखला जर्मनी और हर जगह पूँजीवाद विरोधी भावनाओं को पुनर्स्थापित कर रहा है।

एक ताजा सर्वे के अनुसार 52% पूर्वी जर्मनों की राय में स्वतंत्र बाजार की अर्थव्यवस्था उचित नहीं है। 43% की समझ है कि पूँजीवाद के मुकाबले समाजवाद बेहतर है। 46 वर्ष के एक आई टी प्रोफेशनल ने कहा कि हमने स्कूलों में पूँजीवाद की भयावहता के बारे में पढ़ा था, वह सब सही निकला। मेरा जीवन बर्लिन की दीवार गिरने के पहले बेहतर था। धन के बारे में किसी को दुख नहीं है क्यों कि उस का कोई महत्व नहीं है। आप नहीं चाहने पर भी आप के लिए एक नौकरी है, इस साम्यवादी विचार का कोई मुकाबला नहीं है। पूर्वी जर्मनी में बेरोजगारी 14 प्रतिशत है और वेतन कम हैं। जर्मनी के एकीकरण के बाद दसियों लाख नौकरियाँ चली गई हैं। बहुत से कारखाने पश्चिमी प्रतियोगियों ने खरीदे और उन्हें बंद कर के चले गए।

पुराने पूर्वी बर्लिन के एक 76 वर्षीय लुहार ने कहा कि मैं सोचता था कि साम्यवाद बुरा है लेकिन पूँजीवाद उस से भी बुरा है। स्वतंत्र बाजार क्रूर है, पूँजीपति अपने लिए और, और, और मुनाफा चाहते हैं। 46 वर्षीय क्लर्क मोनिका वेबर ने कहा कि मेरी सोच से पूँजीवाद  उचित व मानवीय व्यवस्था नहीं है। समृद्धि का वितरण अनुचित है, मेरे जैसे छोटे लोग देख रहे हैं कि लालची बेंकरों के संकट का भुगतान हम कर रहे हैं।

लेकिन सब ऐसा सोचने वाले नहीं है। कुछ यह भी कह रहे हैं कि पूँजीवाद बुरा है लेकिन समाजवाद में भी कुछ तो खामियाँ थीं।