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सोमवार, 8 नवंबर 2010

विजिटिंग कार्ड बनाम बर्डे का न्यौता

ह 1990 के साल के मार्च महिने की चौबीस तारीख थी। मैं अदालत से वापस लौटा ही था। अचानक पहले कॉलबेल बजी, फिर लोहे के मेनगेट के बजने की आवाज आई। मैं देखने बाहर की और लपका तो वहाँ पास ही सेना का एक ट्रक खड़ा था। वह उसी से उतरी लगती थी। एक 6-7 वर्ष की एक सुंदर सी लड़की सजी-धजी खड़ी थी। एक महिला ट्रक से नीचे झाँक रही थी। लड़की के हाथ में मेरा विजिटिंग कार्ड था। तभी ट्रक से एक फौजी अफसर उतरा।पूछने लगा वकील दिनेशराय द्विवेदी का मकान यही है? मैं ने हाँ में सिर हिलाया। लड़की पूछ रही थी -पूर्वा यहीँ रहती है? फौजी अफसर ने बताया कि वह लड़की उस की बेटी है, पूर्वा के साथ पढ़ती है, उसे छोड़ कर जा रहे हैं दो घंटे बाद लौटेंगे। तब तक पूर्वा भी बाहर आ कर अपनी सहपाठिन को ले कर घर में जा चुकी थी।
म अंदर लौटे। वह पूर्वा का जन्मदिन था। वह टॉफियाँ ले कर स्कूल गई थी और अपने सहपाठियों को वितरित की थीं। पर जन्मदिन मनाने के लिए इतना पर्याप्त कैसे हो सकता था। सभी सहपाठियों में से दोस्तों को तो किसी तरह अलग करना था। श्वेत आइवरी शीट पर छप कर आए मेरे नए विजिटिंग कार्ड्स में से कुछ वह अपने साथ स्कूल ले गई थी और अपने दोस्तों को दे कर उन्हें घर आने का न्यौता दे चुकी थी। एक दोस्त आ भी चुकी थी और हमें अब खबर हो रही थी। हम ने सोचा था शाम को बाजार जाएंगे पूर्वा के लिए उपहार खरीदेंगे और वहीं किसी रेस्तराँ में शाम का भोजन करेंगे। पर हमारी योजना तो ध्वस्त हो चुकी थी।तुरंत नयी योजना पर काम आरंभ करना था।
मुझे यह पता करने के लिए कि पूर्वा ने कितने मित्रों को आमंत्रित किया था, उस से जिरह करनी पड़ी। पता लगा कि वह करीब आठ-दस कार्ड दे कर आई है। हमारा अनुमान था कि आधे मित्र तो आ ही जाएंगे। पत्नी ने कहा यदि तीन-चार बच्चे ही हुए तो पार्टी का कोई आनंद नहीं रहेगा। मुहल्ले के कुछ बच्चों को और आमंत्रित किया गया। मैं नमकीन, मिठाइयाँ और केक लेने बाजार दौड़ा। वापस लौटा तो ड्राइंग रूम सजाने के लिए  गुब्बारे-शुब्बारे कर आया, एक-दो मददगारों को भी बोल कर आया कि वे जल्दी पहुँचें। उन दिनों आज के शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' तब शायर नहीं हुए थे और फोटोग्राफी का स्टू़डियो चलाते थे, उनसे कहता आया कि उन्हें फोटो लेने आना है।  कुछ देर बाद एक और दंपति अपनी दो बेटियों के साथ नमूदार हुए। ये श्री बोहरा थे, इंजिनियरिंग कॉलेज में गणित के अध्यापक। वे भी अपनी बेटियों को छोड़ कर चले गए।
मरे को सजाया गया, केक काटा गया और पार्टी आरंभ हुई और चलती रही। पहला झटका तब लगा जब फौज की गाड़ी पहली लड़की को लेने आ पहुँची। धीरे-धीरे सब चले गए। बाद में बोहरा परिवार से दोस्ती हुई जो आज तक कायम है और पूरे जीवन रहेगी। इस दोस्ती की नींव तो बच्चों ने रखी थी लेकिन उसे परवान चढ़ाया गृहणियों ने। गृहणियाँ सदैव परिवार की धुरी रही हैं। ऐसी ही दो धुरियों पर परिवारों की दोस्ती कायम हो जाए तो स्थायी बन जाती है।
बोहरा और द्विवेदी दंपति