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शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हर कोई अपनी सुरक्षा तलाशता है, ... साहित्य भी

नुष्य ही है जो आज अपने लिए खाद्य का संग्रह करता है। लेकिन यह निश्चित है कि आरंभ में वह ऐसा नहीं रहा होगा। उस के पास न तो जानकारी थी कि खाद्य को संग्रह किया जा सकता है और न ही साधन थे। वह आरंभ में भोजन संग्राहक और शिकारी रहा। लेकिन कभी भोजन या शिकार न मिला तो? अनुभव ने उसे सिखाया कि भोजन संग्रह कर के रखना चाहिए। आरंभिक पशुपालन शायद भोजन संग्रह का ही परिणाम था। तब किसी विचार, सम्वाद या सूचना को संग्रह करने का कोई साधन भी नहीं था। भाषा, लिपि और लिखने के साधनों के विकास ने इन्हें संग्रह करने और उस के संचार का मार्ग प्रशस्त किया। अंततः कागज इस संग्रह के बड़े माध्यम के रूप मे सामने आया। लेकिन विचार, सम्वाद और सूचना के संग्रह और संचार के लिए बेहतर साधनों की मनुष्य की तलाश यहीं समाप्त नहीं हो गई। उस ने आगे चल कर कम्प्यूटर और इंटरनेट का आविष्कार किया।
ब लिखने के लिए कोई माध्यम नहीं था तो लोग विचार, सम्वाद और सूचना को रट कर कंठस्थ कर लेते थे। शिक्षा भी मौखिक ही थी और परीक्षा भी। बाद में कागज का आविष्कार हो जाने पर भी कंठस्थ करना जारी रहा। तमाम वैदिक साहित्य को श्रुति कहा ही इसलिए जाता है कि वे कंठस्थ किए जाते रहे और आगे सुनाए जाते रहे। सुनाए जाने की यह परंपरा आज भी नानी की कहानियों और कवि-सम्मेलनों के रूप में मौजूद है। समूचे लोक साहित्य का दो-तिहाई आज भी  कागज पर नहीं आया है, वह आज भी उसी सुनने और सुनाने की परंपरा से जीवित है। बोलियों के लाखों शब्द आज तक भी कागज और शब्दकोषों से बाहर हैं। मेरी अपनी बोली 'हाड़ौती' के अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत अभी तक कागज पर नहीं हैं। अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ ऐसे हैं कि खड़ी बोली हिन्दी या अन्य किसी भाषा में उन के समानार्थक नहीं हैं। अनेक भावाभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो अन्य शब्दों के माध्यम से संभव नहीं हैं। 
हिन्दी की खड़ी बोली के प्रभाव ने इन बोलियों को सीमित कर दिया है। मेरी चिंता है कि यदि किसी तरह ये शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत यदि संरक्षित न हो सके तो शायद हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे, और उन के साथ वे भावाभिव्यक्तियाँ भी जिन्हें ये रूप प्रदान करते हैं। उन्हें कागज तक पहुँचाने में विपुल धन की आवश्यकता है। लेकिन यह काम कम्प्यूटर से सीडी, या डीवीडी में संग्रहीत करने तथा उन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने से भी संभव है, और कम खर्चीला भी। यदि ऐसा हो सका तो बहुत सारा साहित्य कागज पर कभी नहीं पहुँचेगा और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर पहुँच जाएगा। छापे के साथ आज क्या हो रहा है। छापे की तकनीक उस स्तर पर पहुँच गई है कि कागज पर कोई चीज छापने के पहले उस का इलेक्ट्रोनिक संकेतों में तब्दील होना आवश्यक हो गया है। किताब, पर्चे और अखबार छपने के पहले किसी न किसी डिस्क पर संग्रहीत होते हैं। उस के बाद ही छापे पर जा रहे हैं। किसी भी साहित्य के किसी डिस्क पर संग्रहीत होने के बाद छपने और इंटरनेट पर प्रकाशित होने में फर्क इतना रह जाता है कि यह काम इंटरनेट पर तुरंत हो जा रहा है ,जब कि छप कर पढ़ने लायक रूप में पहुँचने में कुछ घंटों से ले कर कुछ दिनों तक का समय लग रहा है। 
दि कागज और डिस्क के बीच कभी कोई जंग छिड़ जाए तो डिस्क की ही जीत होनी है, कागज तो उस में अवश्य ही पिछड़ जाएगा क्यों कि वह भी डिस्क का मोहताज हो चुका है, इसे हम ब्लागर तो भली तरह जानते हैं। ऐसे में सभी कलाओं के लिए भी मौजूदा परिस्थितियों में सब से अधिक सुरक्षित स्थान डिस्क और इंटरनेट ही है। साहित्य भी एक कलारूप ही है। उस के लिए भी सुरक्षित स्थान यही हैं। हर कोई अपने लिए सुरक्षित स्थान तलाशता है, साहित्य को स्वयं की सुरक्षा के लिए डिस्क और इंटरनेट की ही शरण में आना होगा। 
....... और अंत में एक शुभ सूचना कि भाई अजित वडनेरकर की शब्दों का सफ़र भाग -२ की पांडुलिपि को एक लाख रुपये का विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार घोषित हुआ है। राजकमल प्रकाशन अजित वडनेरकर को यह सम्मान 28 फ़रवरी को नई दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में शाम पांच बजे आयोजित कार्यक्रम में प्रदान करेगा। पुरस्कार के चयनकर्ता मंडल में प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और अरविंद कुमार शामिल थे। इस सूचना ने आज के दिन को मेरे लिए बहुत बड़ी प्रसन्नता का दिन बना दिया है, मैं बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में था। अजित भाई को व्यक्तिगत रूप से बधाई दे चुका हूँ। आज सारे ब्लाग जगत को इस पर प्रसन्न होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण पुस्तक का जन्म पहले इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में हुआ। अजित भाई के साथ सारा हिन्दी ब्लाग जगत इस बधाई का हकदार है।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
तो पढ़िए.....
'थिरक उठेगी धरती'
Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

"बेहतर कैसे लिखा जाए?"

ल मैं ने कहा कि साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा।  वास्तविकता यह है कि जब से मनुष्य ने लिपि का आविष्कार किया और वह उस का प्रयोग करते हुए अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुँचाने लगा, तब से ही वह उस माध्यम को तलाशने लगा जहाँ लिपि को उकेरा जा सके और दूसरों तक पहुँचाया जा सके।  मिट्टी की मोहरें, पौधों के पत्ते, पेड़ों की छालें, कपड़ा, कागज, प्लास्टिक और न जाने किस किस का उस ने इस्तेमाल कर डाला। कागज पर आ कर उस की यह तलाश कुछ ठहरी और उस का तो इस कदर इस्तेमाल किया गया है कि जंगल के जंगल साफ हुए हैं। लेकिन इस सफर में बहुत सी चीजें ऐसी थीं जिन्हें कागज पर नहीं उकेरा जा सकता था, जैसे ध्वन्यांकन, और चल-चित्र। इन के लिए उसने दूसरे साधन तलाश किये। प्लास्टिक फिल्म से ले कर कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक का उपयोग किया गया। इस काम के लिए उपयोग की गई डिस्क ने एक मार्ग और खोज लिया। उस पर लिपि को बहुत ही कम स्थान पर अंकित किया जा सकता था। अब लिपि भी उस में अंकित होने लगी। लेकिन लिपि, ध्वन्यांकन, चल-दृश्यांकन आदि को अंकित ही थोड़े ही होना था, उन्हें तो पढ़ने वाले के पास पहुँचना था। इस के लिए इंटरनेट का आविष्कार हुआ। आज कंप्यूटर और इंटरनेट ने मिल कर एक ऐसा साधन विकसित किया है जिस पर आप कुछ भी अंकित कर देते हैं तो वह न केवल दीर्घावधि के लिए सुरक्षित हो जाता है, अपितु दुनिया भर में किसी के लिए भी उसे पढ़ना, देखना, सुनना संभव है, वह भी कभी भी, किसी भी समय। 
तो जान लीजिए कंप्यूटर और इंटरनेट कागज से बहुत अधिक तेज, क्षमतावान माध्यम है। यह कागज की जरूरत को धीरे-धीरे कम करता जा रहा है। वह मौजूदा पीढ़ी का माध्यम है, विज्ञान यहीं नहीं रुक रहा है। हो सकता है इस से अगली पीढ़ी का माध्यम भी अनेक वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में जन्म ले चुका हो, हो सकता है कि वह कहीँ लैब में भौतिक रूप भी ले चुका हो और यह भी हो सकता है कि उस का परीक्षण चल रहा हो। जीवन और उस की प्रगति दोनों ही नहीं रुकते। पर हमें आज इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि कागज हमारा हमेशा साथ नहीं देगा। इस के लिए नए माध्यमों की ओर हमें जाना ही होगा। जो यदि न जाएंगे और कागज के भरोसे बैठे रहेंगे तो उनकी कुछ ही बरसों में वैसी ही स्थिति होगी जैसी कि आज कल घर में दो बाइकों और कार के साथ कोने में खड़े बजाज स्कूटर की हो चुकी है। जिसे उस का मालिक रोज कबाड़ी को देने की सोचता है, लेकिन केवल इसीलिए रुका रहता कि शायद कोई इस का उपयोग करने की इच्छा रखने वाला कुछ अधिक कीमत दे जाए। 

लेकिन हम लोग जो इस नवीनतम माध्यम पर आ गए हैं। केवल इसी लिए अजर-अमर नहीं हो गए हैं कि हम कुछ जल्दी यहाँ आ गए हैं। हम केवल इसीलिए साहित्य सर्जक नहीं हो जाते कि हम इस नवीनतम माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। हमें निश्चित रूप से जैसा सृजन कर रहे हैं, उस से बेहतर सृजन करना होगा। अपनी अपनी कलाओं में निष्णात होना होगा। हमें बेहतर से बेहतर पैदा करना होगा। जो लोग कागज को बेहतर मानते हैं वे चाहे यह स्वीकार करें न करें कि कभी इंटरनेट बेहतर हो सकता है। लेकिन हम जो इधर आ चुके हैं, जानते हैं कि वे सभी एक दिन इधर आएंगे। इसलिए हमें उन तमाम लोगों से बेहतर सृजन करना होगा। इसलिए हम सभी लोगों का जो इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं,  सब से बड़ा प्रश्न होना चाहिए कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा

नुष्य का इस धरती पर पदार्पण हुए कोई अधिक से अधिक चार लाख और कम से कम ढाई लाख वर्ष बीते हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि आरंभ में वह अन्य प्राणियों की तरह ही एक दूसरे के साथ संप्रेषण करता होगा। मात्र ध्वनियों और संकेतों के माध्यम से। 30 से 25 हजार वर्ष पहले पत्थर की चट्टानों पर मनुष्य की उकेरी हुई आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं, जो बताती हैं कि तब वह स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए चित्रांकन करने लगा था। कोई 12 से 9 हजार वर्ष पहले जब उस ने खेती करना सीख लिया तो फिर उसे गणनाओं की आवश्यकता होने लगी और फिर हमें उस के बनाए हुए गणना करने वाले टोकन प्राप्त होते हैं। फिर लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व हमें मोहरें दिखाई देने लगती हैं जिन से रेत या मिट्टी पर एक निश्चित चित्रसंकेत को उकेरा जा सकता था। इस चित्रलिपि से वर्षों काम लेने के उपरांत ही शब्द लिपि अस्तित्व में आ सकी होगी जब हम भोजपत्रों पर लेखन देखते हैं। इस के बाद कागज का आविष्कार और फिर छापेखाने के आविष्कार से लिखी हुई सामग्री की अनेक प्रतियाँ बना सकना संभव हुआ। सचल टाइप का प्रयोग 1040 ईस्वी में चीन में और धातु के बने टाइपों का प्रयोग 1230 ई. के आसपास कोरिया में आरंभ हुआ। इस तरह हमें अभी पुस्तकों की अनेक प्रतियाँ बनाने की  कला सीखे हजार वर्ष भी नहीं हुए हैं। तकनीक के विकास के फलस्वरूप हम एक हजार वर्ष से भी कम समय में अपना लिखा सुरक्षित रखने के लिए कंप्यूटर हार्डडिस्कों का प्रयोग करने लगे हैं, इंटरनेट ने यह संभव कर दिखाया है कि इस तरह हार्डडिस्कों पर सुरक्षित लेखन एक ही समय में हजारों लाखों लोग एक साथ अपने कंप्यूटरों पर देख और पढ़ सकते हैं, उस सामग्री को अपने कंप्यूटर पर सुरक्षित कर सकते हैं और उस की कागज पर छपी हुई प्रति हासिल कर सकते हैं। 
मैं यह बातें यहाँ इसलिए लिख रहा हूँ कि अभी हाल ही में यह कहा गया कि "जितने भी अप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैं, वे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे , न  कर सकते क्योंकि वह उनके कूबत से बाहर है।" यह भी कहा गया कि साहित्य के क्षेत्र में नाम वाले लोग नेट पर नहीं आते। नेट का उपयोग सरप्लस पूंजी यानि कंप्यूटर और मासिक नेट खर्च और ब्लॉग-पार्टी का उपयोग कर संभ्रांत जन में अपना प्रभाव जमाने के लिये ही हो रहा है। नेट पर समर्पित होकर काम करने वालों को यहां  निराशा ही  हाथ लगती है। यहाँ चीजें बिल्कुल नये रूप में उपलब्ध नहीं होती।(बासी हो कर आती हैं)
इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में बिना किसी खर्च के अपना लिखा लोगों के सामने रख देने की जो सुविधा उत्पन्न हुई है, उस के कारण बहुत से, बल्कि अधिकांश लोग अपना लिखा इंटरनेट पर चढ़ाने लगते हैं कि इस से बहुत जल्दी वे प्रसिद्ध हो जाएंगे और बहुत सा धन कमाने लगेंगे। लेकिन कुछ ही महिनों में उन्हें इस बात से निराशा होने लगती है कि उन्हें पढ़ने वाले लोगों की संख्या 100-200 से अधिक नहीं है, और यहाँ वर्षों प्रयत्न करने पर भी धन और सम्मान मिल पाना संभव नहीं है। मुझे लगा कि उक्त आलोचना इसी बात से प्रभावित हो कर की गई है। 
लेकिन यदि हम संप्रेषण के इतिहास को देखें जो बहुत पुराना नहीं है, तो पाएंगे कि प्रिंट माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं। उस के द्वारा भी सीमित संख्या में ही लोगों तक पहुँचा जा सकता है। प्रिंट का माध्यम भी अभिव्यक्ति के लिए सीमित है। वहाँ भी केवल भाषा और चित्र ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यही कारण है कि प्रिंट के इस माध्यम के समानांतर ध्वनि और दृश्य माध्यम विकसित हुए। हम देखते हैं कि पुस्तकों की अपेक्षा फिल्में अधिक प्रचलित हुईं। टेलीविजन अधिक लोकप्रिय हुआ। कंप्यूटर किसी लिपि में लिखी हुई सामग्री को जिस तरह संरक्षित रखता है, उसी तरह दृश्य और ध्वन्यांकनों को भी संरक्षित रखता है। इंटरनेट इन सभी को पूरी दुनिया में पहुँचा देता है। इस तरह हम देखते हैं कि इंटरनेट वह आधुनिक माध्यम है जो संचार के क्षेत्र में सब से आधुनिक लेकिन सब से अधिक सक्षम है।
साहित्य के लिए इंटरनेट के मुकाबले प्रिंट एक पुराना और स्थापित माध्यम है, वहाँ साहित्य पहले से मौजूद है। लेकिन अब जहाँ पेपरलेस कम्युनिकेशन की बात की जा रही है। वहाँ साहित्य  को केवल पुस्तकों में सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे इंटरनेट पर आना होगा। एक बात और कि इंटरनेट पर लिखा तुरंत उस के पाठकों तक पहुँचता है। जब कि प्रिंट माध्यम से उसे पहुंचने में कम से कम एक दिन और अनेक बार वर्षों व्यतीत हो जाते हैं। यह कहा जा सकता है कि अभी इंटरनेट की पहुँच बहुत कम लोगों तक है, लेकिन उस की लोगों तक पहुँच तेजी से बढ़ रही है। मैं ऐसे सैंकड़ों  लोगों को जानता हूँ जिन्हों ने बहुत सा महत्वपूर्ण लिखा है। पुस्तक रूप में लाने के लिए उन की पाण्डुलिपियाँ तैयार हैं और प्रकाशन की प्रतीक्षा में धूल खा रही हैं। बहुत से लेखकों की पुस्तकें छपती भी हैं तो 500 या 1000 प्रतिलिपियों में छपती हैं और वे भी बिकती नहीं है। केवल मित्रों और परिचितों में वितरित हो कर समाप्त हो जाती हैं। इस के मुकाबले इंटरनेट पर ब्लागिंग बुरी नहीं है। हम जल्दी ही देखेंगे कि दुनिया भर का संपूर्ण महत्वपूर्ण साहित्य इंटरनेट पर मौजूद है।

मंगलवार, 14 जुलाई 2009

चौड़ी पट्टी के बंदर से दूर. तीन दिन

शुक्रवार की शाम अदालत से घर लौटा। अतर्जाल पर कुछ ब्लाग और आई हुई मेल पढ़ी, टिप्पणियाँ कीं और जवाब दिए। आगे चौड़ी पट्टी बोल गई। बरसात के चार माह रात्रि भोजन त्याग देने से स्नान और भोजन किया। लौटा तो चौड़ी पट्टी से संयोजन टूटा ही मिला। भारत संचार निगम को शिकायत दर्ज कराई और संबंधित कनिष्ठ संचार अधिकारी को फोन किया। शनिवारको पता लगा हमारे संयोजन का बंदर (पोर्ट) खराब था। उसे बदल दिया गया और संयोजन हो गया। लेकिन वह खुले कैसे? जब तक बंदर को हमारा कूटशब्द याद ना हो।  अब बंदर को कूटशब्द याद कराने वाले अध्यापक जी का दो दिन का अवकाश था। संचार अधिकारी ने पूरा प्रयत्न किया अध्यापक जी से संपर्क बन जाए तो वे उस के घर के कंप्यूटर से ही यह काम कर दें। पर वे पक़ड़ में न आने थे सो न आए।  सोमवार शाम पाँच बजे बंदर ने कूट शब्द याद किया तो यातायात चालू हुआ। पचास से अधिक मेल थे। सब को देखा, कुछ जरूरी जवाब दिए, कुछ ब्लाग बांचे और टिपियाए। फिर वही स्नान और सूर्यास्त पूर्व भोजन।  दफ्तर वापस लौटे तो एक मित्र अपनी पारिवारिक समस्या के लिए कानूनी परामर्श के लिए प्रतीक्षा में थे। उन से निपटता कि एक मित्र का फोन आया कि उस का वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया है। पत्नी को चोटें लगी हैं, अस्पताल में भर्ती है। अस्पताल दौड़े।  लौटते लौटते तारीख बदल गई। 
 
तीन दिन अंतर्जाल से दूर रहना हुआ। शनिवार को सुबह ही खबर मिली कि सुभाष का देहान्त हो गया है आज अस्थिचयन है। वहाँ से लौटे तो बारह बज चुके थे। शेष आधा दिन मन खराब रहा। फिर शाम को बेटी को आना था सिर्फ एक दिन के लिए।  उस ने अपनी मां को कुछ आदेश दिये थे। वह उनकी पूर्ति की तैयारी में लग गई। हम कानून पढ़ते रहे। रात को बेटी को लेकर आए तो घऱ का खालीपन भर गया। रविवार सुबह ही फिर एक दुर्घटना की खबर मिली एक मित्र के छोटे भाई की बेटी पत्रकारिता का स्नातकोत्तर कोर्स करने चैन्नई गई थी। पहले ही दिन ही होस्टल की चौथी मंजिल से गिर गई और मृत्यु हो गई। पिता और कुछ रिश्तेदार उस का शव हवाई मार्ग से जयपुर और फिर सड़क से कोटा लाए। मैं दिन भर प्रतीक्षा में दफ्तर की पत्रावलियाँ संभालता रहा। शाम अंतिम संस्कार में गई। समाज में कुछ कर गुजरने का जज्बा रखने वाली एक होनहार युवती का यूँ दुनिया से विदा हो जाना, बहुत अखरा। आज दिन भर अदालत की। ग्यारह दिनों के बाद कला ही बरसात वापस लौटी और खूब बरस कर मौसम सुहाना कर गई।  शाम कुछ बरसाती मौज-मस्ती का मन था। लेकिन शाम फिर दुर्घटना के समाचार और मित्र की पत्नी के घायल होने से दुःखद हो गई।