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शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

बलात्कार की रपट थाने में नहीं उच्च न्यायालय में दर्ज कराएँ

क महिला के साथ छेड़छाड़ हो जाए, यह केवल सारे समाज के लिए शर्म की बात ही नहीं है, अपितु भारतीय दंड संहिता में अपराध है, जिस के लिए अपराधी को दंडित कराने की जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार ने यह जिम्मेदारी अपनी पुलिस को सौंपी हुई है। पुलिस इस तरह के मामलों में किस तरह का बर्ताव करती है, यह सर्वविदित है। पुलिस को इस तरह के छोटे-मोटे मामलों पर शर्म नहीं आती। आए भी क्यों जब पुलिस महानिदेशक ऐसा करे तो साधारण पुलिस वाले तो उस का अनुकरण कर ही सकते हैं।
लो छेड़छाड़ की बात छोड़ दी जाए। किसी महिला के साथ बलात्कार हो, वह भी एक के साथ नहीं, एकाधिक महिलाओं के साथ और एक बार नहीं, पूरे सप्ताह भर तक; फिर यह सब करें पुलिस वाले, वह भी पुलिस थाने में और पुलिस थाने से महिला की आँखों पर पट्टी बांध कर कहीं और ले जा कर।   पुलिस को इस पर भी शर्म आने से रही। शायद वे ऐसा न करें तो उन की मर्दानगी पर लोग सन्देह जो करने लगेंगे। फिर जब वे महिलाएँ पुलिस के उच्चाधिकारियों के पास जा कर अपनी रिपोर्ट दर्ज करने की कहें और उच्चाधिकारी सुन लें यह कदापि नहीं हो सकता। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? पुलिस महकमे की इज्जत जो दाँव पर लगी होती है। आखिर पुलिस महकमे की इज्जत किसी महिला की इज्जत थोड़े ही है जिस से जब चाहे खेल लिया जाए। 
ब महिलाएँ क्या करें? कहाँ जाएँ? महिलाओं ने हिम्मत की और उच्चन्यायालय को शिकायत लिखी। उच्च न्यायालय ने पुलिस से जब जवाब तलबी की तब  जा कर पुलिस ने महिलाओं के बयान दर्ज किए। पुलिस को अब भी विश्वास नहीं है कि उन के सिपाही ऐसा कर सकते हैं, यह करतब कर दिखाने वाली अंबाला पुलिस  का कहना है कि यह राजस्थान के बावरिया गिरोह की सदस्य महिलाएँ हैं और खुद पर लगे आरोपों से बचने के लिए उलटे पुलिस पर ऐसे आरोप लगा रही हैं। महिलाओं के आरोप हैं कि पुलिस वालों ने न केवल बलात्कार किया, उन्हें बिजली का करंट भी लगाया जिस से एक महिला का गर्भ गिर गया और यह भी कि एक महिला इस बलात्कार के परिणाम स्वरूप गर्भवती हो गयी। 
खैर, पुलिस आखिर अपने सिपाहियों और अफसरों का बचाव न करेगी तो जनता उस के चरित्र पर संदेह करने लगेगी। लेकिन अब जनता क्या समझे? ये कि अब किसी महिला के साथ बलात्कार हो तो उसे पुलिस में रिपोर्ट करने नहीं जाना चाहिए, बल्कि सीधे उच्च न्यायालय में रिपोर्ट दर्ज करानी चाहिए। यानी अब पुलिस थाने का काम उच्च न्यायालय किया करेंगे?  
पुलिस द्वारा रिपोर्ट दर्ज न करने का किस्सा आम है। एक आम आदमी, जब भी उसे पुलिस में किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज करानी हो तो किसी रसूख वाले को क्यों ढूंढता है? यह किसी एक राज्य का किस्सा नहीं है, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो पूरे भारत में पुलिस का यह चरित्र आम है। तो फिर क्यों नहीं पुलिस के चरित्र को बदलने के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा जाता। लगता है सरकारों, राजनेताओं और उन के आका थैलीशाहों को ऐसी ही पुलिस की जरूरत है।

सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

हुकुम! मुझे ईनाम नहीं मिलेगा?

ल जयपुर यात्रा हुई। मुझे और बार कौंसिल सदस्य और पूर्व अध्यक्ष महेश गुप्ता जी दोनों को जाना था। तय हुआ कि जबलपुर जयपुर दयोदय एक्सप्रेस पकड़ेंगे। उस का समय सुबह 8.15 पर कोटा से रवाना होने का है। मैं सात बजे घर से कार लेकर निकला महेश जी के घर उसे पार्क किया और ऊपर उन के यहाँ पहुँचा तो जनाब अभी स्नान किए बिना बैठे अखबार देख रहे थे। मेरे पहुँचते ही तुरंत बेटे को टिकट लाने की कह बाथरूम में घुसे। तैयार होने पर नाश्ता किया गया। मुझे भी टोस्ट के साथ कॉफी मिली। घर से आ कर दो ऑटोरिक्षा बारगेनिंग में छोड़े तीसरे में बैठ स्टेशन पहुँचे। आठ बज रहे थे। ट्रेन को अब तक प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाना चाहिए था। लेकिन प्लेटफॉर्म खाली था। हाँ वहाँ सूचना अवश्य थी कि ट्रेन किसी भी समय आ सकती है। पौने नौ बजे ट्रेन पहुँची। हम सीधे एक आधे खाली स्लीपर में जा कर बैठ गए। नौ बजे ट्रेन चली। हमारी बैठक जयपुर में एक बजे थी। ट्रेन ही पौन घंटे लेट चली थी तो हमें भी पहुँचने में इतनी ही देरी हो सकती थी। कुछ ही देर में कंडक्टर आ गया। उसने टिकट को स्लीपर में बदल दिया। दोनों की रात की नींद शेष थी। लेकिन अब हम वैधानिक रूप से बर्थ पर आराम कर सकते थे। पर कुछ देर पढ़ते रहे। मैं ने महेश जी को लेटने के लिए बोला तो कहने लगे -माधोपुर में बड़े खा कर लेटेंगे। घंटे भर में सवाई माधोपुर पहुँच गए। महेश जी तुरंत उतर गए और कुछ देर में मूंग के बड़े ले कर लौटे। कहने लगे एक दम तो नहीं पर कुछ गर्म जरूर मिल गए हैं। बड़े (वड़ा) खा कर हम दोनों लेट गए कब नींद लगी पता नहीं। नींद खुली तो ट्रेन जयपुर के बाईस गोदाम स्टेशन पर खड़ी थी। वहाँ से हाईकोर्ट नजदीक था। मैं ने वहीं उतरने को कहा। लेकिन हम कुछ सोचते उस के पहले ही ट्रेन चल पड़ी। महेश जी ने आराम से कहा -हम जंक्शन पर ही उतरेंगे, वहाँ से वापसी का टिकट लेंगे फिर हाईकोर्ट चलेंगे। ट्रेन जयपुर जंक्शन पहुँची तो बिलकुल समय पर थी। पौन घंटे की देरी को उस ने कवर कर लिया था। 
यपुर में हाईकोर्ट में अपनी बैठक निपटा कर हम ने काका जी हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पानाचंद जी जैन से मिलना तय किया। उन्हें कोटा में सभी काका जी कहते हैं। हम ने दोपहर का भोजन किया और उन के कार्यालय पहुँचे। काका जी जब कोटा में वकालत में थे तो महेश जी उन के कनिष्ट थे और वकालत के आरंभ में मेरे तो तीन मुकदमों में से दो में वे खिलाफ वकील हुआ करते थे। उन से भिड़ते-भिड़ते ही मैं ने वकालत सीखी थी। बहुत दिनों के बाद हमें देख कर काका जी बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ हमें कॉफी पीने को मिली। करीब एक घंटे हम उन से बातें करते रहे। फिर शाम साढ़े पाँच की दयोदय एक्सप्रेस पकड़ कर रात नौ बजे कोटा स्टेशन पर उतर गए। इस मुलाकात में काका जी ने राजस्थान के एक मुख्य न्यायाधीश का संस्मरण सुनाया जिसे आप के साथ बांटता हूँ ---
........... वे हाई कोर्ट में वकालत कर रहे थे। हाईकोर्ट जज नियुक्त करने हेतु उन का नाम  प्रस्तावित किया गया था। नियुक्ति की प्रक्रिया में पुलिस वेरीफिकेशन आवश्यक था। हाईकोर्ट ने राज्य के आई.जी. को इस के लिए पत्र भेजा। आई. जी. पुलिस ने इसे जिले के एस.पी. को और एस.पी ने इसे संबंधित पुलिस थाने को अग्रेषित कर दिया। थानाधिकारी ने एक सिपाही को जाँच करने भेजा। सिपाही सीधा वकील साहब के घऱ पहुँचा और घंटी बजा दी। 
कील साहब अदालत से लौटे ही थे। खुद ही दरवाजा खोला और सामने सिपाही को देख कर चौंके। पूछा -कैसे आए? सिपाही ने बताया कि हाईकोर्ट से आप का पुलिस वेरीफिकेशन आया है, उसी के लिए आया था। वकील साहब बोले उस के लिए तो आप को थाने का रिकार्ड देखना पड़ेगा और पडौस में पूछताछ करनी होगी। सिपाही ने कहा बात तो आप की सही है। वकील साहब ने कहा -भाई जिस से भी पूछताछ करनी हो कर लो। उन्हों ने दरवाजा बंद किया और अंदर आ गए।
तीन-चार मिनट बाद ही फिर घंटी बज उठी। वकील साहब ने फिर दरवाजा खोला तो वही सिपाही बाहर खड़ा था। उस से पूछा -भाई! अब क्या रह गया है। सिपाही बड़ी मासूमियत से बोला -हुकुम! अब तो आप हाईकोर्ट के जज हो जाएँगे। मैं पुलिस वेरीफिकेशन के लिए आया हूँ मुझे ईनाम नहीं मिलेगा? ..........
फिर क्या हुआ यह काका जी ने नहीं बताया। इतना जरूर पता है कि वे वकील साहब हाईकोर्ट के जज ही न बने मुख्य न्यायाधीश हो कर सेवानिवृत्त हुए।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

संघर्ष विराम हुआ, चलो काम पर चलें ......


खिर 130 दिन की हड़ताल पर विराम लगा। आज हुई अभिभाषक परिषद की आमसभा में प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हुआ कि वर्तमान परिस्थितियों में संघर्ष को विराम दिया जाए। इस समय लगभग सभी राज्यों में हाईकोर्टों की बैंचें स्थापित किए जाने के लिए संघर्ष जारी है। अनेक राज्यों के अनेक संभागों के वकील अदालतों का बहिष्कार कर चुके हैं। कोटा के वकील भी पिछली 29 सितंबर से हड़ताल पर थे। इस बीच वकीलों ने अदालत में जा कर काम नहीं किया, जिस का नतीजा यह रहा कि अत्यंत आवश्यक आदेशों के अतिरिक्त कोई आदेश पारित नहीं किया जा सका। इन 130 दिनों में किसी मामले में कोई साक्ष्य रिकॉर्ड नहीं की गई। अदालतों का काम लगभग शतप्रतिशत बंद रहा।

स पूरे दौर में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं कोटा मे रहा होऊँ और अदालत नहीं गया होऊँ। हाँ यह अवश्य रहा कि आम दिनों में जैसे सुबह साढ़े दस-ग्यारह बजे अदालत पहुँचने की आदत थी वह खराब हो गई। दो माह तक तो स्थिति यह थी कि अदालत परिसर के द्वार साढ़े दस बजे वकील बंद कर उस पर ताला डाल देते थे। दो बजे तक कोई भी अदालत परिसर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता था। वकील जो पहुँच जाते थे वे भी परिसर में प्रवेश नहीं कर पाते थे। उन्हें सड़क पर या आस पास के परिसरों में बैठ कर इंतजार करना पड़ता था।  अधिकांश वकील  मुंशी आदि एक बजे के पहले अदालत जाने से कतराने लगे थे। मुझे खुद अदालत जाने की को कोई जल्दी नहीं रहती थी। आज भी मैं एक बजे अदालत पहुँच पाया था जब परिषद की आमसभा आरंभ होने वाली थी। इन दिनों अदालत से घर लौटने की जल्दी भी नहीं रहती थी।  शाम को अपने कार्यालय में कोई काम नहीं होता था। अक्सर पाँच बजे तक हम अदालत में ही जमे रहते थे।

ज जब परिषद ने हड़ताल स्थगित करने का निर्णय लिया तो तुरंत ही वकीलों को कल से काम पर नियमित होने की चिंता सताने लगी। मैं भी साढ़े तीन बजे ही अदालत से चल दिया। चार बजे घऱ पर था। आते ही कल के मुकदमों की फाइलें संभालीं। इस सप्ताह के मुकदमों पर निगाह डाली कि किसी मुकदमे की तैयारी में अधिक समय लगना है तो उस की तैयारी अभी से आरंभ कर दी जाए। अब मैं कल से पुनः काम पर लौटने के लिए तैयार हूँ। हालाँकि जानता हूँ कि अभी काम अपनी गति पर लौटने में एक-दो सप्ताह लेगा। बहुत से लोग जिन की सुनवाई के लिए जरूरत है उन्हें सूचना होने में समय लगेगा।  
भिभाषक परिषद ने तय किया है कि जब तक कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो जाती है तब तक वे सप्ताह के अंतिम दिन अर्थात शनिवार को काम नहीं करेंगे। इस तरह अब काम का सप्ताह केवल पाँच दिनों का रहेगा। पहले केवल अंतिम शनिवार को काम का बहिष्कार रहा करता था। इस हड़ताल के दौरान मिले समय में मैं ने एक काम यह किया कि तीसरा खंबा पर 'भारत का विधिक इतिहास' लिखना आरंभ किया जिस की तीस कड़ियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस तरह एक अकादमिक काम अंतर्जाल पर लाने का प्रयास आरंभ हो सका।

ब कल से काम पर जा रहे हैं। देखता हूँ अपनी ब्लागीरी के लिए कितना समय निकाल पाता हूँ।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

बुधवार, 30 सितंबर 2009

कौन सी काँग्रेस और कौन सी भाजपा?


कल जब अदालत पहुँचने को ही था तो सरकिट हाउस के कोर्नर पर ही पुलिस वाला वाहनों को डायवर्ट करता नजर आया।  आगे भीड़ जमा थी। मैं भीड़ तक पहुँचा तो वहाँ अदालत परिसर में प्रवेश करने वाला गेट बंद था। बाहर वकीलों और जनता का जमाव था। मैं अपनी कार को वहीं घुमा कर, एक चक्कर लगा कर दूसरे गेट तक पहुँचा। वहाँ भी वही आलम था। गेट बंद था, उस पर संघर्ष समिति का बैनर टंगा था और फिर शामियाने के नीचे दरियाँ बिछा कर वकील और हाईकोर्ट बैंच खोले जाने वाले आंदोलन के समर्थक बैठे थे। दोनों गेटों के बीच सड़क पर लोग फैले हुए थे। एक चकरी वाला गेट चालू था उस के सामने नौजवान वकीलों का जमावड़ा था वे किसी वकील, मुंशी और टाइपिस्ट को अंदर परिसर में न जाने दे रहे थे। हाँ न्यायार्थी जरूर अंदर आ जा रहे थे। मैं ने अंदर झाँक कर देखा तो वहाँ सन्नाटा पसरा था। जो लोग अंदर जा रहे थे मिनटों में वापस आ रहे थे। कोई कहता अदालत में न जज है और न रीडर, कोई कहता रीडर ने कार्यसूची पर सब मुकदमों की तारीखें दे रखी हैं। आज अखबारों ने भी खबरें छापी है और चित्र भी।

वकील, मुंशी, टाइपिस्ट सभी सड़कों पर डोल रहे थे या फिर धऱने पर बैठे थे। धरने पर लगातार वकीलों में से कोई या फिर राजनैतिक दलों, या संस्थाओं के प्रतिनिधि लाउडस्पीकर पर आंदोलन के समर्थन में बोले जा रहे थे। तभी काँग्रेस के प्रान्तीय प्रवक्ता माइक पर आए और कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित किए जाने के समर्थन में जोरदार भाषण दिया। कहा कि मांग जायज है, काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है।  मेरा सिर चकरा गया कौन सी काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है वह जिस के वे प्रवक्ता हैं? या फिर वह जिस की राज्य सरकार है,? या फिर वह जो केन्द्र सरकार का नेतृत्व करती है?

कुछ दिन पहले यहीँ, इसी आंदोलन के धरने पर भाजपा के प्रतिनिधि बैठे नारे लगा रहे थे और भाषण देते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन कर रहे थे और हाईकोर्ट बैंच न खोले जाने के लिए काँग्रेस सरकार की आलोचना भी। यह आंदोलन सात वर्ष पुराना है और तब आरंभ हुआ था जब काँग्रेस की सरकार का आखिरी साल बचा था। फिर चुनाव हुआ और सरकार बदल गई। भाजपा सत्ता में आई और पाँच साल बहुत कुछ कर के और न करके चली गई। अब यहाँ बैठी भाजपा न जाने कौन सी थी? वह जिस की पिछले पाँच साल से सरकार थी, या जो चुनाव हार चुकी है? साल भर से फिर काँग्रेस सरकार में बैठी है। पता नहीं क्या परेशानी है जो हाईकोर्ट का विकेन्द्रीकरण करने में उन्हें परेशानी आ रही है। परेशानी बताई भी नहीं जा रही है।

इधर डेढ़ बजा और धरना समाप्त, गेट खोल दिए गए। आधे घंटे बाद अदालत परिसर के अंदर गए। सब कुछ सामान्य होने लगा। पर तब तक मुकदमों की तारीखें बदली जा चुकी थीं। मुवक्किल गायब हो चुके थे और अधिकांश वकील भी। मैं ने अपने मुंशी को तारीखें लाने को कहा जो वह कुछ ही देर में ले आया। दिन का काम हो चुका था। मैं घर की ओर चल दिया। हड़ताल को एक माह हो चुका है। यही आलम पूरे संभाग में फैला पडा़ है। मैं कल्पना कर सकता हूँ कि यही स्थिति बीकानेर और उदयपुर संभागों की होगी वे भी अपने-अपने यहाँ हाईकोर्ट बैंचे खोलने के लिए आंदोलनरत हैं।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

फुरसत पर डाका


पिछले महीने की इकत्तीस तारीख से कोटा के वकील हड़ताल पर चल रहे हैं। हम भी साथ साथ हैं। रोज अदालत जाते हैं। वहाँ कोई काम नहीं, बस धरने पर बैठो, या अपने पटरे पर, या फिर दोस्तों के साथ चाय-कॉफी की चुस्कियाँ मारो। क्या फर्क पड़ता है? पर दिनचर्या बिगड़ गई है। जब काम ही नहीं होना है तो रोज फाइलें कौन निकाले और देखे। फाइलें अलमारी में पड़े पड़े आराम फरमा रही हैं। मुवक्किल भी फोन से पूछ रहे हैं कि हम आएँ या बिना आए काम चल जाएगा? अभी अदालतें सख्ती नहीं कर रही, शायद दुगने-चौगुने काम के बोझ से मारी अदालतें भी हड़ताल से मिले आराम का लाभ उठा रही हैं। मुवक्किलों की भीड़ अदालत में कुछ कम है।  मुंशी जाते हैं, तारीख ले आते हैं। किसी मुवक्किल को जल्दी होती है तो उस की दरख्वास्त पेश कर देते हैं। किसी की जमानत करानी होती है तो मुंशी अर्जी पेश कर देता है, वही फार्म भर देता है। अदालतें हैं कि बिना वकीलों का तनाव झेले बने बनाए ढर्रे पर जमानत ले लेती है, मुलजिम बाहर आ जाता है। जिस ने थोड़ा भी संगीन अपराध किया हो वह मुश्किल में हैं, उस की जमानत अटकी है। पुराना खुर्राट मुंशी एक जूनियर वकील को सलाह देता हुआ हमने सुन लिया "वकील साहब! मुवक्किलों को तो जरूर बुलाया करो। आएंगे तो कुछ तो नामा-पानी कर जाएंगे। वरना हड़ताल में सब्जी कहाँ से आएगी। दीवानी और गैरफौजदारी मुकदमों में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।

भले ही हड़ताल हो पर पेट हड़ताल नहीं करता। बिजली, पानी टेलीफोन वाले भी उन के बिल नहीं रोकते। पर भला हो उन मुवक्किलों का जो हड़ताल के वक्त अपने वकीलों का खयाल रखते हैं, फीस दे जाते हैं, कुछ तो इतने उदार हैं कि इस वक्त में ज्यादा भी दे जाते हैं। शायद वकील साहब बुरे वक्त में पाए पैसे की लाज रख लें। कुछ ज्यादा तवज्जो उस के मुकदमे पर दें।

हड़ताल तो कोटा के वकील छह साल से करते आए हैं, महीने के आखिरी शनिवार को। चाहते हैं, कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खुल जाए।  छह साल से एक हड़ताल चल रही है। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह स्वैच्छिक अवकाश जैसी चीज बन गई है। लेकिन हड़ताल बदस्तूर जारी है। कभी तो बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा। कभी तो हाईकोर्ट और उस की एक बैंच की कमर फाइलों के बोझ से दोहरी होने लगेगी। कभी तो सरकार सोचेगी ही कि और भी बैंचें बनाई जाएँ। वैसे भी बीस बीस जजों को दो जगह बिठाने से क्या फायदा? इस की जगह दस दस जजों को चार जगह बिठा दिया जाए तो जनता को तो सुविधा होगी ही। यह सीधे-सीधे डेमोक्रेसी के डीसेंट्रलाइजेशन का मामला बनता है। पर अभी हड़तालियों का ध्यान अपनी मांग के इस लोजीकल प्रेजेंटेशन की तरफ नहीं गया है।


काम के दिनों में फुरसत निकलती थी। सब समझते थे कि वकील साहब काम में व्यस्त हैं। इधर जब से हड़ताल का पता लगा है। पत्नी से ले कर दोस्तों तक को वकील साहब फुरसत में नजर आ  रहे हैं।  हर कोई हमारी फुरसत पर पिले पड़ा है। पत्नी को दिवाली की सफाई के काम में हाथ बंटवाना है. दोस्तों को कुछ खास काम निकलवाने हैं।  कुछ मुवक्किल भी इसी इंतजार में बैठे थे, वे भी चक्कर लगाने लगे हैं। शायद बहुत दिनों से क्यू में इंतजार कर रहे उन के काम की बारी आ जाए।  सब हमारी फुरसत पर निगाह जमाए बैठे हैं।  कब मौका मिले और हमारी फुरसत हथिया लें। मुश्किल से अब जा कर उन का मौका जो लगा  है। फुरसत पर डाका पड़ रहा है। इस डाके के लिए किसी थाने में रिपोर्ट, तफ्तीश और चालान का कायदा भी नहीं है।