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शनिवार, 10 अप्रैल 2010

होमियोपैथी हमारी स्वास्थ्यदाता हो गई

ज डॉ. सैम्युअल हैनिमेन  का जन्म दिवस था जिसे दुनिया होमियोपैथी दिवस के रूप में मनाती है। निश्चित रूप से डॉ. हैनिमेन एक विलक्षण व्यक्तित्व थे जिन्हों ने एक नई चिकित्सा पद्धति को जन्म दिया। जो मेरे विचार में सब से सस्ती चिकित्सा पद्धति है। इसी पद्धति से करोड़ों गरीब लोग चिकित्सा प्राप्त कर रहे हैं। यही नहीं करोड़पति भी जब अन्य चिकित्सा पद्धतियों से निराश हो जाते हैं तो इस पद्धति में उन्हें शरण मिलती है।
वैसे मेरे परिवार में आयुर्वेद का चलन था। दादा जी कुछ दवाइयाँ खुद बना कर रखते थे। पिताजी अध्यापक थे ,लेकिन आयुर्वेदाचार्य भी और अच्छे वैद्य भी थे। अपने पास सदैव दवाइयों का किट रखते थे और निशुल्क चिकित्सा करते थे। वैद्य मामा जी तो इलाके के सब से विद्वान वैद्य थे। उन्हों ने अपना आयुर्वेद महाविद्यालय भी चलाया। अब मामा जी खुद महाविद्यालय के प्राचार्य हों तो हमें तो उस में भर्ती होना ही था। सुविधा यह थी कि हम जीव विज्ञान में बी.एससी. करते हुए भी उस महाविद्यालय के विद्यार्थी हो सकते थे। नतीजा यह हुआ कि बी.एससी. होने के साथ ही हम वैद्य विशारद भी हो गए। मामा जी के डंडे से भय लगता था इस कारण हर रविवार उन के चिकित्सालय में अभ्यास के लिए भी जाना होता था। 
बी.एससी के उपरांत हम ने वकालत की पढ़ाई की और वकालत करने अपने गृह नगर को छोड़ कर कोटा चले आए। हमने पिताजी और मामाजी के अलावा किसी चिकित्सक की दवा अब तक नहीं ली थी। वैसे भी उस उम्र में बीमारी कम ही छेड़ती थी। लेकिन पहली बेटी हुई तो उस के लिए चिकित्सक की जरूरत पड़ने लगी। मेरे एक साथी के बड़े भाई होमियोपैथ थे। मैं उन्हीं के पास बेटी को ले जाने लगा। वे साबूदाने जैसी मीठी गोलियों को अल्कोहल के घोल में बनी दवाइयों से भिगोकर देते थे। कुछ ही दिनों में देखा कि वे शक्कर की गोलियाँ अदुभुत् असर करती हैं। मैं ने उसे जानने का निश्चय कर लिया।  इस तरह होमियो पैथी की पहली किताब घर में आई। 
 हमने घर बदला तो डाक्टर साहब दूर पड़ गए। पडौस के एक दूसरे होमियोपैथ को दिखाने लगे। लेकिन उस की दवा अक्सर असर नहीं करती थी। तब तक मैं कुछ कुछ समझने लगा था। मुझे लगा कि डाक्टर दवा का चुनाव गलत कर रहा है। एक दिन परेशान हो कर मैं होमियो स्टोर से पच्चीस चुनिंदा दवाओं के डायल्यूशन और गोलियाँ खरीद लाया और किताब से पढ़ पढ़ कर खुद ही चिकित्सा करने लगा। अपनी चिकित्सा चलने लगी। जो भी दवा देते उस का असर होता। धीरे धीरे आत्मविश्वास बढ़ता गया और डाक्टरों से पीछा छूटा। 
ब जब भी किसी नई दवा की जरूरत होती उस का डायल्यूशन घऱ में आ जाता। इस तरह घर में दो-तीन सौ तरह के डायल्यूशन इकट्ठे हो गए। मैं दिन में अदालत चला जाता। पीछे जरूरत पड़ती तो पत्नी  किताब पढ़ कर दवा देती। वह एक ऐलोपैथ चिकित्सक की बेटी है। धीरे-धीरे उस ने मेरा चिकित्सा का काम संभाल लिया। अब वह तभी मुझ से राय करती है जब वह उलझन में पड़ जाती है। नतीजा यह हुआ कि बच्चे हमारी दवाओं के सहारे बड़े हो गए। अब वे बाहर रहते हैं. लेकिन उन के पास चालीस-पचास दवाइयों का एक-एक किट होता है। जब भी उन्हें जरूरत होती है वे टेलीफोन पर अपनी माँ से या मुझ से राय करते हैं और दवा लेते हैं। मेरी बेटी तो एम्स के एक ट्रेनिंग सेंटर से जुड़ी है। जहाँ चिकित्सा की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। लेकिन जरूरत पड़ने पर हमेशा होमियोपैथी की दवा का प्रयोग करती है और वह भी अपनी माँ की राय से ही।