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रविवार, 5 फ़रवरी 2012

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही होगा


सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह की जन्मतिथि से सम्बन्धित विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय अंतिम रूप से क्या निर्णय देता है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। उस से पूर्व 30 दिसंबर को रक्षा मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जनरल की उस याचिका को निरस्त कर दिया जिस में उन की जन्मतिथि को सेना के रिकार्ड में 10 मई 1950 के स्थान पर 10 मई 1951 दर्ज करने का निवेदन किया गया था। सेना के रिकार्ड में उन की दोनों तिथियाँ उन की जन्मतिथि के रूप में दर्ज हैं। उन की जितनी भी पदोन्नतियाँ हुई हैं उन पर विचार करते समय उन की जन्मतिथि 10 मई 1951 ही मानी गई थी। पिछले शुक्रवार को जनरल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल से पूछा कि क्या सरकार अपने 30 दिसंबर के निर्णय को वापस लेना चाहेगी? क्यों कि वह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों के विपरीत प्रतीत होता है। अटार्नी जनरल ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वे इस संबंध में सरकार से निर्देश प्राप्त करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन से स्पष्ट है कि सेना प्रमुख की शिकायत पर निर्णय करने के पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया।  
किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की शिकायत पर आदेश करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करना, उसे अपने पक्ष के समर्थन में सबूत और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का प्रमुख अंग है। यदि देश की सरकार सेना प्रमुख की शिकायत का निस्तारण भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन किए बिना करती है तो इस से यह संदेश जाता है कि सरकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की परवाह नहीं करती।
किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्णय करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना महत्वपूर्ण जनतांत्रिक अधिकार है इस अधिकार की अवहेलना करना सरकार के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है कि वह व्यवहार में जनतांत्रिक भी है अथवा नहीं। पिछले दिनों भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए जाने के लिए जन-लोकपाल कानून को बनाने के लिए अन्ना टीम द्वारा किए गए जनान्दोलन पर सरकार की ओर से जोरो से यह प्रश्न उठाया गया था कि आखिर अन्ना टीम क्या है जिस की बात पर सरकार विचार करे। वे किस प्रकार से सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात पर जोर दिया गया था कि केवल चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग ही सही जन प्रतिनिधि हैं।
लेकिन चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद, विधानसभा और अन्य निकायों में पहुँच जाने से इन जनप्रतिनिधियों को किसी भी तरह के निर्णय जनता पर या जनता की इकाई किसी एक व्यक्ति पर अपना निर्णय थोप देने का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन के द्वारा किए गए निर्णय साम्य, न्याय के सिद्धान्तों पर खरे उतरने चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि देश में चुनी हुई सरकारें जनतांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रही है। वर्ना स्थिति यह बनती जा रही है कि चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त सरकार बना लेने को ऐसा माने जाने लगा है जैसे सरकार को पाँच वर्ष तक देश में तानाशाही चलाने का  अधिकार मिल गया है।
म इस घटना को इस परिदृश्य में भी देख सकते हैं कि यदि सरकार सेना प्रमुख को सुनवाई का अवसर प्रदान न कर के देश के सभी नियोजकों को यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारियों की शिकायतों पर निर्णय के लिए उन्हें सुनवाई का अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  नियोजक कर्मचारियों पर अपनी मनमानी चला सकते हैं। यदि ऐसा संदेश नियोजकों तक पहुँचता है तो वे तो ऐसी मनमानी करने को तैयार बैठे हैं। वैसे भी देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारी के विरुद्ध यदि कोई अन्याय हो और वह न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका का रुख पकड़े तो उस मामले को नियोजक बरसों तक लटकाने में सफल रहते हैं। नियोजक मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में समर्थ हैं जब कि इस के विपरीत एक कर्मचारी में इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सर्वोच्च न्यायालय के किसी साधारण वकील से सलाह लेने की शुल्क अदा कर सके।
स मामले की सुनवाई विधिवत सुनवाई करने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह संकेत दे कर सही ही किया है कि देश में सभी नियोजकों को किसी भी कर्मचारी की शिकायत पर निर्णय करने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होगा और उसे अपने पक्ष के समर्थन में सुनवाई का अवसर देना होगा।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

गरीबी संख्या से हटती है।

ब से यह निठल्ला जनतंत्र आया है तब से गरीबों की सहायता करना सरकार के लिए सब से बड़ी समस्या बनी हुई है। उन्हें सारा हिसाब किताब रखना पड़ता है कि देश में कितने लोग गरीब हैं? फिर उन की नियमित रूप से सहायता करनी पड़ती है। जनतंत्र न होता तो ये समस्या होती ही नहीं। तब राज करना आसान था। बस तलवार का जोर चाहिए था। अब तो एक निर्धारित अंतराल के बाद जनता से वोट हासिल करने जाना होता है। अब जब जनतंत्र का पल्ला पकड़ ही लिया है तो जाना तो होगा ही। जब जब भी जाना पड़ता है जनता से मुकाबला भी करना पड़ता है। जनता के पास जाते हैं तो गरीब से भी पाला पड़ता ही है। तब गरीब से कहना पड़ता है कि बस उन की सरकार बन जाए तो फिर वे गरीबी को हटा देंगे। उन के राज में कोई गरीब न रहेगा। कोई चार दशक पहले जब यह बात भारत में पहली बार वोट मांगने के लिए इस्तेमाल की गई थी तो जो सरकार बनी वह टाटा की स्टील से भी कई गुना मजबूत थी। ऐसा लगा था कि अब गरीबी कुछ ही दिनों की मेहमान है। उस के बाद जनता दिन गिनती रह गई। दिन गिनते-गिनते साल निकल गए, गरीबी बहुत हटीली निकली हटी नहीं। सरकार ने पाँच के बजाए छह साल लिए फिर भी नहीं हटी। सरकार गरीबी हटाते हटाते गरीबों को हटाने में जुट गई। गरीबों ने सरकार को हटा दिया।तब से यह कायदा हो गया है कि वोट मांगने लिए गरीबी हटाने की बात करना जरूरी है। 

सा नहीं है कि गरीबी को हटाने के प्रयास न किए जाते हों। कई सरकारें बदलीं, अलग-अलग रंगों की सरकारें बनीं। कई मेल के रंगों की सरकारें बनीं। हर सरकार ने प्रयोग किए, पर सफल कोई न हुआ। फिर अचानक एक विद्वान प्रधानमंत्री के दिमाग में अचानक सौदामिनी दमक उठी। गरीबी इसलिए नहीं हट रही है कि हम उस पर जरा अधिक ध्यान दे रहे हैं। हमें ध्यान देना चाहिए अमीरी बढ़ाने पर। जब अमीरी बढ़ेगी तो गरीबी क्या खा कर बचेगी। उसे तो रसातल में जाना ही पड़ेगा। अमीरी के भारत प्रवेश के लिए खिड़की दरवाजे खोले जाने लगे। नई नई चीजें देश में दिखाई देने लगीं। गरीब खुश हो गया, नई नई चीजों का आनन्द लेने लगा। उसे लगा कि अब गरीबी गई, अब उसका बचना नामुमकिन है। अखबारों में, टीवी चैनलों में खबरें आने लगी। अब देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ गई है। अब अरबपति भी होने लगे हैं। दुनिया के सब से अमीर लोगों की सूची में स्थान पाने लगे हैं। गरीब की खुशी और बढ़ गई। 

रीब समाचार पढ़ सुन कर प्रसन्न था। फिर सुनने को मिलने लगा कि गरीब भारत में ही नहीं अमरीका इंग्लेण्ड में भी होते हैं। उस की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। वाह! क्या बात है? अमरीका और इंग्लेंड में भी गरीब रहते हैं! प्रसन्नता समाती भी कैसी उस की इज्जत बढ़ रही थी वह अमरीका इंग्लेंड से मुकाबला कर रहा था। अब गरीबी उन्हें रास आने लगी। गरीबों को ही क्यों वह तो अब अच्छे-अच्छों को रास आ रही थी। इस बात का पक्का सबूत भी लगातार मिलने लगा। सरकार ने जब गरीबों को बीपीएल नाम का पहचान पत्र देना आरंभ किया तो गरीब ही क्यों गरीबी की रेखा के उस पार दूर दूर तक विराजमान लोगों ने इस पहचान पत्र को बनवाने के लिए मशक्कत की और बनवा भी लिए। लेकिन सरकार उदास हो गई। वह तो चली थी गरीबी हटाने बीपीएल कार्ड तो गरीबों की संख्या बढ़ाने लगे। चिन्ता बढ़ने लगी, इतनी बढ़ी कि उसे घबराहट होने लगी। तुरंत योजना आयोग को बताया गया कि इस का इलाज करना होगा। योजना आयोग प्राण-प्रण से जुट गया। उस ने सारे देश में अपने जासूस भेज दिए आखिर उस ने तोड़ निकालने के लिए पता लगा ही लिया कि देश के किसी भी नगर में 32 और गाँव में 26 रुपए रोज खर्च करने तक की क्षमता रखने वाला गरीब नहीं हो सकता। उस ने यह बात छुपा कर भी नहीं रखी। सुप्रीमकोर्ट तक को बता दी। पर इस से गरीब बहुत नाराज हैं। इस तरह तो उन की संख्या कम हो जाएगी, जो उन्हें कतई पसन्द नहीं है।  आखिर जनतंत्र में संख्या का ही तो खेल है। संख्या से ही तो गरीबी मिटती है। अब झारखंड वाली पार्टी के पास संख्या न होती तो कोई सरकार बचाने को उन की गरीबी हटाता?

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

खुद ही विकल्प बनना होगा

पेट्रोल की कीमतें बढ़ा दी गई हैं। रसोई गैस की नई कीमतें निर्धारित करने के लिए होने वाली मंत्री समूह की बैठक स्थगित हो गई। वह हफ्ते दो हफ्ते बाद हो लेगी। इधर मेरे सहायक नंदलाल जी किसान भी हैं। वे खाद के लिए बाजार घूमते रहे। बमुश्किल अपनी फसलों के लिए खाद खरीद पाए हैं। तीन सप्ताह में खाद की कीमतें तीन बार बढ़ चुकी हैं। दूध की कीमतें बढ़ी हैं। सब्जियाँ आसमान में उड़ रही हैं। जब भी दुबारा बाजार जाते हैं सभी वस्तुओं की कीमतें बढ़ी होने की जानकारी मिल जाती है। दवाओं का हाल यह है कि दो रुपये की गोली बत्तीस से बयालीस रुपए में मिलती है। सस्ती समझी जाने वाली होमियोपैथी दवाएँ भी पिछले तीन-चार वर्षों में दुगनी से अधिक महंगी हो गई हैं। लगता है सरकार का काम सिर्फ महंगाई बढ़ाना भर हो गया है। इस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। आज एक टीवी चैनल दिखा रहा था कि किस किस मंत्री की संपत्ति पिछले दो वर्षों में कितनी बढ़ी है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिस देश में हर साल गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले इंसानों की संख्य़ा बढ़ जाती है उसी में मंत्रियों की अरबों की संपत्ति सीधे डेढ़ी और दुगनी हो जाती है।

धर पेट्रोल के दाम बढ़े, उधर प्रणव का बयान आ गया। पेट्रोल के दाम सरकार नहीं बढ़ाती। जब बाजार में दाम बढ़ रहे हों तो कैसे कम दाम पर पेट्रोल दिया जा सकता है? हमें चिंता है कि दाम बढ़ रहे हैं। उन का काम बढ़े हुए दामों पर चिंता करना भर है। चिंता करनी पड़ती है। यदि पाँच बरस में वोट लेने की मजबूरी न हो तो चिंता करने की चिंता से भी उन्हें निजात मिल जाए। कभी लगता है कि देश में सरकार है भी या नहीं। तभी रामलीला मैदान में बैठे बाबा पर जोर आजमाइश करते हैं। किसी को अनशन शुरु करने के पहले ही घर से उठा कर जेल में पहुँचा दिया जाता है, लोगों को अहसास हो जाता है कि सरकार है। सब सहिए, चुप रहिए वर्ना जेल पहुँचा दिए जाओगे। अन्ना भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल लाने को अनशन पर बैठते हैं तो जनता पीछे हो लेती है। राजनेताओं को नया रास्ता मिल जाता है। एक भ्रष्टाचार मिटाने को रथ यात्रा की तैयारी में जुटता है तो दूसरा पहले ही सरकारी खर्चे पर अनशन पर बैठ कर गांधी बनने की तैयारी में है। इन का ये अनशन न महंगाई और भ्रष्टाचार कम करने के लिए नहीं आत्मशुद्धि के लिए है। पीतल तप कर कुंदन बनने चला है।

लोग जो मेहनत करते हैं, खेतों में, कारखानों में, दफ्तरों में, बाजारों में फिर ठगे खड़े हैं। उन्हें ठगे जाने की आदत पड़ चुकी है। अंधेरे में जो हाथ पकड़ लेता है उसी के साथ हो लेते हैं। फिर फिर ठगे जाते हैं। ठगने वाला रोशनी में कूद जाता है, वे अंधेरे में खुद को टटोलते मसोसते रह जाते हैं। लेकिन कब तक ठगे जाएंगे? वक्त है, जब ठगे जाने से मना कर दिया जाए। लेकिन सिर्फ मना करने से काम नहीं चलेगा। लुटेरों के औजार बन चुकी राजनैतिक पार्टियों को त्याग देने का वक्त है। उन्हें उन की औकात बताने का वक्त है। पर इस के लिए तैयारी करनी होगी। कंधे मिलाने होंगे। एक होना होगा। जात-पाँत, धर्म-संप्रदाय, औरत-आदमी के भेद को किनारे करना होगा। मुट्ठियाँ ताननी होंगी। एक साथ सड़कों पर निकलना होगा। हर शक्ल के लुटेरों को भगाना होगा। इन सब का खुद ही विकल्प बनना होगा। 

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा में नाकाम क्यों रहती हैं?

जून माह की 20 तारीख को बंगाल की खाड़ी से चले मानसूनी बादल हाड़ौती की धरती पर पहुँचे और बरसात होने लगी। कई वर्षों से बंगाल की खाड़ी से चले ये बादल इस क्षेत्र तक पहुँच ही नहीं रहे थे। नतीजा ये हो रहा था कि वर्षा के लिए जुलाई के तीसरे सप्ताह तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। पहली ही बरसात से धरती के भीतर बने अपने घरों को छोड़ कर कीट-पतंगे बाहर निकल आए और रात्रि को रोशनियों पर मंडराने लगे। रात को एक-दो या अधिक बार बिजली का गुल होना जरूरी सा हो गया। उत्तमार्ध शोभा ने अगले ही दिन से पोर्च की बिजली जलानी बंद कर दी। रात्रि का भोजन जो हमेशा लगभग आठ-नौ बजे बन कर तैयार होता था, दिन की रोशनी ढलने के पहले बनने लगा। अब आदत तो रात को आठ-नौ बजे भोजन करने की थी, तब तक भोजन ठण्डा हो जाता था। मैं ने बचपन में अपने बुजुर्गों को देखा था जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चातुर्मास में  ब्यालू करते थे, अर्थात रात्रि भोजन बंद कर देते थे। अधिकांश जैन धर्मावलंबी भी चातुर्मास में रात्रि भोजन बंद कर देते हैं। कई ऐसे हैं जिन्हों ने जीवन भर के लिए यह व्रत ले रखा है कि वे रात्रि भोजन न करेंगे। कई जैन तो ऐसे भी हैं जो रात्रि को जल भी ग्रहण नहीं करते। मेरा भी यह विचार बना कि मैं भी क्यों न रात्रि भोजन बन्द कर दूँ, कम  से कम चातुर्मास  के लिए ही। देखते हैं इस का स्वास्थ्य पर कैसा असर होता है? चातुर्मास 11 जुलाई से आरंभ होना था, मैं ने 6 जुलाई से ही अभ्यास करना आरंभ कर दिया। अभ्यास का यह क्रम केवल 9 जुलाई को एक विवाह समारोह में टूटा। वहाँ घोषित रूप से भोजन साँय 7 बजे आरंभ होना था पर हुआ साढ़े आठ बजे। 11 जुलाई से यह क्रम बदस्तूर जारी है। सोच लिया है कि किसी जब रोशनी में भोजन न मिल पायेगा तो अगले दिन ही किया जाएगा। स्वास्थ्य पर इस नियम का क्या असर होता है यह तो चातुर्मास पूर्ण होने पर ही पता लगेगा।

ल संध्या भोजन कर के उठा ही था कि टेलीविजन ने मुम्बई में विस्फोटों का समाचार दिया। मुम्बई पर पिछले आतंकवादी हमले को तीन वर्ष भी नहीं  हुए हैं कि इन विस्फोटों ने उन घावों को फिर से हरा कर दिया। मुम्बई से बहुत करीबी रिश्ता रहा है। तेंतीस वर्ष पहले मैं मुम्बई में बस जाना चाहता था। गया भी था, लेकिन महानगर रास नहीं आने से लौट आया। फिर ढाई वर्ष बेटी मुम्बई में रही।  पिछले आतंकवादी हमले के समय वह वहीं थी। अब बेटा वहाँ है। यह सोच कर कि बेटा अभी काम पर होगा और कुछ ही देर में घर से निकलेगा। उसे विस्फोटों की खबर दे दी जाए। उस से बात हुई तो पता लगा उसे जानकारी हो चुकी है। फिर परिचितों और संबंधियों के फोन आने लगे पता करने के लिए कि बेटा ठीक तो है न। 

मुम्बई पर पिछले वर्षों में अनेक आतंकवादी हमले हुए हैं। न जाने कितनी जानें गई हैं। कितने ही अपाहिज हुए हैं और कितने ही अनाथ। सरकार उन्हें कुछ सहायता देती है। सहायता मिलने के पहले ही मुम्बई चल निकलती है। लोग आशा करने लगते हैं कि इस बार सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करेगी जिस से मुम्बई को ये दिन न देखने पड़ें। कुछ दिन, कुछ माह निकलते हैं। कुछ नहीं होता है तो सरकारें दावे करने लगती हैं कि उन का सुरक्षा इंतजाम अच्छा हो गया है। लेकिन जब कुछ होता है तो इन इन्तजामात की पोल खुल जाती है। फिर जिस तरह के बयान सरकारी लोगों के आते हैं। वे जनता में और क्षोभ उत्पन्न करते हैं। तब और भी निराशा हाथ लगती है जब सत्ताधारी दल के युवा नेता जिसे अगला प्रधानमंत्री कहा जा रहा है यह कहता है कि सभी हमले नहीं रोके जा सकते। प्रश्न यह भी खड़ा हो जाता है कि आखिर सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा करने में नाकाम क्यों हो जाती हैं?

क्यों नहीं सारे हमले रोके जा सकते? मुझे तो उस का एक ही कारण नजर आता है। जनता के सक्रिय सहयोग के बिना यह संभव नहीं है।  लेकिन जनता और प्रशासन के बीच सहयोग तब संभव है जब कि पहले सरकारी ऐजेंसियों के बीच पर्याप्त सहयोग औऱ तालमेल हो और सरकार को जनता पर व जनता को सरकार पर विश्वास हो। लेकिन न तो जनता सरकार पर विश्वास करती है औऱ न ही सरकारें जनता के नजदीक हैं। हमारी सरकारें पिछले कुछ दशकों में जनता से इतना दूर चली गई हैं कि वे ये भरोसा कर ही नहीं सकतीं कि वे सारे आतंकवादी हमलों को रोक सकती है और जनता को संपूर्ण सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। सरकारी दलों का रिश्ता जनता से केवल वोट प्राप्त करने भर का रह गया है। यह जनता खुद भली तरह जानती है और इसी कारण से वह सरकारों पर विश्वास नहीं करती।  

लेकिन इस का  हल क्या है? इस का हल एक ही है, जनता को अपने स्तर पर संगठित होना पड़ेगा। गली, मोहल्लों, बाजारों और कार्य स्थलों पर जनता के संगठन खड़े करने होंगे और संगठनों के माध्यम से मुहिम चला कर प्रत्येक व्यक्ति को  निरंतर सतर्क रहने की आदत डालनी होगी। तभी इस तरह के हमलों को रोका जा सकता है।

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

सारी सरकारें दलालों की

सने कहा और गाँव ने मान लिया कि यूपी सरकार दलालों की है। आखिर गाँव मानता भी क्यों नहीं? और न भी मानते तो भी मानना पड़ता। ये बात किसी ऐरे गैरे ने या किसी पीएम इन वेटिंग ने नहीं कही थी। ये बात कही थी पीएम इन मेकिंग ने। सुना है आजकल वह पदयात्रा पर है और लोगों को महापंचायत का न्यौता देते घूम रहा है। उस के पीछे बहुत से लोग इस आशा में चल रहे हैं कि कल पीएम बन जाए तो कम से कम उन्हें पहचान तो ले।

ह चला तो पूरी योजना बना कर चला। आखिर दादी के पापा से उस ने सीखा है कि बिना योजना के कोई काम नहीं करना चाहिए। उस ने योजना बनवाई और चल दिया। यूँ योजना वह खुद भी बना सकता था। वैसे ही जैसे मम्मी चाहती तो खुद राज कर सकती थी, लेकिन मम्मी ने तय किया कि ये ज्यादा मुश्किल काम है इसलिए खुद मत करो किसी और से करवाओ। मम्मी ने इस के लिए हिन्दी पढ़ी। हिन्दी के कथाकारों, उपन्यासकारों की कहानियाँ-उपन्यास पढ़े। मुंशी प्रेमचंद पढ़ा। उस की कहानियों में एक कहानी पढ़ी 'नमक का दरोगा' । यह कहानी पढ़ते ही मम्मी ने सोच लिया था कि जब भी यह जबर्दस्त काम पड़ेगा वह किसी नमक का दरोगा तलाश लेगी। उसे तो नमक का दरोगा नजदीक ही मिल गया। उस ने राज का काम करने के लिए उसे अच्छे सम्मान और वेतन का पद दे दिया। वह परम प्रसन्न हो गया। होना ही था आखिर उसे तो सुदामा की तरह सब कुछ मिल गया था।

पीएम इन मेकिंग ने भी योजना बनाने का काम किसी और से कराने का निश्चय किया। उस ने जब यह सूचना अपनी मम्मी को दी, तो मम्मी ने तुरन्त नजदीक में बैठा एक सावधि सन्यासी बेटे को पकड़ा दिया। आज से तुम्हारी सारी योजनाएँ यही बनाएगा। उस ने सन्यास सावधि लिया था। लौटना भी था। कहीं बोलने की आदत न छूट जाए, इसलिए योजनाएँ ही नहीं बनाता था, वह बोलता भी बहुत था। पीएम इन मेकिंग ने उसी से बोलना सीखा। महानगर और नगर तो नगर हैं, वहाँ सब कुछ चल जाता है। पर गाँव तो गाँव है वो भी भारत का गाँव। गाँव बोलता नहीं है। पहले आने वाले का सम्मान करता है फिर उस की पीड़ा बोलती है। गाँव ने पीएम इन वेटिंग का सम्मान किया। उस ने कहा तो मान लिया कि यूपी की सरकार दलालों की है। फिर पीड़ा बोलने लगी - हम तो पहले ही जानते थे कि सरकार दलालों की है। अब ये भी जानते हैं कि हर सरकार दलालों की होती है। हम यहाँ दलालों की सरकार से भी लड़ रहे हैं और लड़ लेंगे। लेकिन उस का क्या करें जो आप के आगे आगे आती है, आप के जाने के बाद भी आती रहती है और जब आती है पहले से लंबी हो कर आती है। सुना है ये दिल्ली से आती है। हर चीज के भाव बढ़ाती है। दिल्ली की सरकार उसे रोक नहीं पाती है।  आप का नमक का दरोगा कहता है, हम कतर ब्योंत कर रहे हैं, कम लंबी भेजेंगे। पर जितना वह कतर-ब्योंत करता है इस की लंबाई बढ़ जाती है।

धर सुना है नमक का दरोगा भी मुश्किल में है, उस के सहायकों का टूजी से रिश्ता ही नहीं टूट रहा है। हम समझ गए हैं, पीएम इन वेटिंग जी! कौन सरकार दलालों की नहीं? वहाँ भी सरकार नमक के दरोगा की नहीं, दलालों की है। ये जमीन के दलाल हैं, तो वहाँ हर चीज के दलाल हैं। कोई चीज है, जिस के दाम की लंबाई न बढ़ती हो? हर चीज के दलाल हो गये हैं और सारी सरकारें दलालों की हो गई हैं।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

टल्ला मारने का तंत्र

भारत आबादी का देश है। एक अरब इक्कीस करोड़ से ज्यादा का। लेकिन सरकार में कर्मचारी तब अधिक दिखाई देते हैं जब सरकार को उन्हें वेतन देना होता है। आँकड़ा आता है कि बजट का एक बड़ा हिस्सा सरकारी कर्मचारी ही निपटा जाते हैं, विकास के लिए कुछ नहीं बचता। तब वाकई लगने लगता है कि कर्मचारियों पर फिजूल ही खर्च किया जा रहा है। 

लेकिन किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइए। हर जगह कर्मचारी जरूरत से बहुत कम नजर आएंगे। अस्पताल में डाक्टरों की कमी है तो स्कूलों में अध्यापकों की। सरकारी विभागों में पद खाली पड़े रहते हैं। जब भी किसी अफसर से काम की कहें तो वह दफ्तर की रामायण छेड़ देता है। क्या करें साहब?  कैसे काम करें? दो साल से दफ्तर में स्टेनो नहीं है। केसे फाइलें निपटें। सरकार से कोई योजना आ जाती है उस में लगना पड़ता है। ज्यादातर योजनाएँ सरकार खुद नहीं बनाती सुप्रीमकोर्ट सरकारों को आदेश दे देता है और उन्हें करना पड़ता है। अब देखो श्रमविभाग में श्रमिक चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहे हैं कि उन्हें उन का मालिक न्यूनतम वेतन नहीं देता। श्रम विभाग का अधिकारी कहता है अभी फुरसत नहीं है अभी तो बाल श्रमिक तलाशने जाना है। पिछले चार-पाँच साल से श्रम विभाग युद्ध स्तर बाल श्रमिक तलाशने में लगा है। मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं पर बाल श्रमिक हैं कि ठीक श्रम विभाग के पीछे लगी चाय की गुमटी तक से कम नहीं होते। 

बाल श्रमिकों से फुरसत मिलती है तो उन्हें ठेकेदारों का पंजीयन करना है, उस के बाद सीधे मोटर वाहन मालिकों का पंजीयन का काम आ जाता है। उस के खत्म होते-होते अचानक राज्य सरकार की योजना आ गई है कि निर्माण श्रमिकों का पंजीयन करना है, उन के परिचय पत्र बनाने हैं। ऐसा करते करते साल पूरा हो जाता है तो दुकानों के पंजीयन के लिए केम्प चल रहे हैं। बेचारे न्यूनतम वेतन वाले चक्कर पर चक्कर लगाते रह जाते हैं। उन के साथ-साथ वे भी चक्कर लगा रहे हैं जिन्हें वेतन नहीं मिला है या उस में कटौती कर ली गई है। नौकरी पूरी होने के चार साल बाद तक भी एक मजदूर चक्कर काट रहा है कि उसे ग्रेच्युटी नहीं मिली है। बहुत सारे वे लोग हैं जो दुर्घटनाओं के शिकार हुए हैं  या फिर उन के आश्रित हैं जिन्हें अभी तक उन्हें मुआवजा नहीं मिला है। अधिकारी कहता है कि काम चार गुना बढ़ गया है और पाँच सालों से एक चौथाई पद खाली पड़े हैं। सरकार इन पदों को खत्म कर देगी कि जब इन के बिना काम चल रहा है तो इन पदों को बनाए रखने का फायदा क्या है? चक्कर लगाने वालों से कोई नहीं पूछता कि पद होने चाहिए या नहीं।

ब काम अधिक होता है और काम करने वाले कम तो एक नया तंत्र विकसित होने लगता है। अब दिन भर में काम तो दस ही होने हैं, अधिक हो नहीं सकते। फिर चालीस व्यक्ति चक्कर लगा रहे हों तो तीस को टहलाना होगा। उन्हें टहलाने का तंत्र विकसित कर लिया जाता है या अपने आप हो जाता है। आप को दर्ख्वास्त के साथ शपथ-पत्र लाना चाहिए था। आप शपथ पत्र बनवा कर लाइए। शपथ पत्र बन कर आ जाता है तो उस में स्टाम्प पूरा नहीं है, आप दोबारा बनवा कर लाइए। इस में चोकोर मोहर लगी है, गोल लगनी चाहिए थी। अच्छा ठीक है आप गोल मोहर भी लगवा लाए। अच्छा आप अपनी दर्ख्वास्त आमद में दे दीजिए, वहाँ से दर्ख्वास्त की नकल पर पावती ले लेना, सबूत रहेगा कि दर्ख्वास्त दी है। और नकल को संभाल कर रखना कहीं दफ्तर में खो गई तो दुबारा देनी पड़ सकती है। ये बहाने तो एक प्रतिशत से भी कम हैं। कोई शोध नहीं करता वरना इस के सौ गुना से भी अधिक की सूची बनाई जा सकती है। 

थाने में चले जाइए। अरे! कागज खत्म हो गए हैं, एक दस्ता कागज ले आइए, साथ में कार्बन और कोपिंग पेंसिल लाना न भूलिएगा। बस उलटे पैर चले आइए अभी रपट लिखी जाती है। इन सब को ले कर वापस पहुँचे तो पता लगा वहाँ सिर्फ मुंशी जी बैठे हैं। दरोगा जी तफ्तीश पर पधार गए हैं। अभी आते हैं घंटे भर में आप बैठिए। बैठिए कहाँ भला? टूटी हुई बैंच पर पहले ही दो लोग बैठे हैं। आप बाहर आ कर नीम की छाँह में जगह तलाशते हैं। डेढ़ घंटा गुजर गया है। दरोगा जी आए नहीं। मुंशी से पूछने पर बताता है उन का कोई भरोसा नहीं है। उधर छावनी ऐरिया में कहीं आग लग गई है सीधे वहीं चले गए हैं। ऐसा क्यों नहीं करते शाम को सात बजे आइए। उस समय वे यहीं रहते हैं। शाम को सात बजे दरोगा जी मिल जाते हैं। दो-तीन बदमाशों को पकड़ कर लाए हैं। एक की पट्टे से पिटाई हो रही है। दरोगा जी रौद्र रूप में हैं। अब इस रौद्र रूप में उन से रपट के लिए कहने की जुर्रत कौन करे। बस लौट आए की सुबह देखेंगे। 

दालतों की छटा और भी निराली है। वहाँ भी चौगुना काम है। अदालत के आज के मुकद्दमों की फेहरिस्त में सौ से ऊपर मुकदमे लगे हैं। जज को सिर्फ बीस निपटाने हैं। अस्सी को टल्ला मारना है। चालीस को रीडर निपटा चुका है। चालीस और हैं। एक दर्ख्वास्त पर बहस सुननी है। जज कहता है आज तो सीट पर से उठा तक नहीं हूँ। सुबह बैठा था। लंच में बैंक जा कर आया हूँ, चाय तक नहीं पी है। आप अगली पेशी पर बहस सुनाइएगा। वह तारीख दे देता है। तीन चार फाइलें उधर दफ्तर से ही नहीं निकली हैं, मुवक्किल दफ्तर के बाबू से भिड़े हैं कि उन की फाइल निकल जाए तो कुछ काम हो। पर चार बजे फाइल निकलती है तब तक साहब चैंबर में बैठ कर फैसला लिखाने लगे हैं। अब तो वहाँ घुसने में चपरासी भी कतरा रहा है। मुवक्किल रीडर से तारीख ले कर खिसक लेते हैं। एक मुकदमा दो साल पहले से चल रहा है उस में अभी तक विपक्षी ने जवाब नहीं दिया है। रीडर तारीख लगा देता है। कहता है अगली पेशी पर जरूर ले लेंगे। उसी अदालत में ताजा मुकदमा आया है, एक जज साहब फरियादी हैं। उस में जवाब के लिए पहली तारीख है। रीडर को सभी कायदे कानून  स्मरण हो गए हैं। वकील को कहता है आज जवाब ले आइये वरना जवाब बंद कर दिया जाएगा। देखते नहीं जज साहब का मुकदमा है। कुछ और भी मुकदमे हैं जो सीधे राजधानी में सफर कर रहे हैं। रीडर को उस का भरपूर ईनाम मिल रहा है। 
मारे पास कम पुलिस है, कम अदालतें हैं, कम स्कूल और कम शिक्षक हैं, कम डाक्टर और कम अस्पताल हैं। नगर पालिका के पास कम सफाई कर्मचारी हैं। जो हैं उन्हों ने टल्ला मारने का तंत्र विकसित कर लिया है। यदि न करते तो सरकारें कैसे चलतीं?

गुरुवार, 23 जून 2011

कैसी होगी, नई आजादी?

पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है


... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?

लिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता  को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है  ...

1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;
3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।

  
दालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी। 

प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

हते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध  बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?

चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

बुधवार, 22 जून 2011

मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है

ज मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है। हो भी क्यों न? मेरे ही नगर के एक ऐसे मुहल्ले से जिस में आज से तीस वर्ष पूर्व मुझे भी दो वर्ष रहना पड़ा था, समाचार मिला है कि एक बेटे-बहू मुम्बई गए और पीछे अपनी 65 वर्षीय माँ को अपने मकान में बन्द कर ताला लगा गए। तीन दिन बाद ताला लगे मकान के अन्दर से आवाजें आई और मोहल्ले वालों की कोशिश पर पता लगा कि महिला अंदर बंद है तो उन्होंने महिला से बात करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस पर महिला एवं बाल विकास विभाग, पुलिस और एकल नारी संगठन को सूचना दी गई। पुलिस ने दिन में महिला एवं बाल विकास विभाग की टीम के साथ पहुँच कर महिला से रोशनदान से बात करने का प्रयास किया, लेकिन वह घर से बाहर आने को राजी नहीं हुई। इस पर पुलिस लौट गई। तब कुछ लोगों ने जिला कलेक्टर को शिकायत की इस पर देर रात उन के निर्देश पर पुलिस ने घर का ताला तोड़ा गया। पुलिस ने उस से पूछताछ की, लेकिन वह घर पर ही रहना चाह रही थी। पुलिस यह जानने का प्रयास करती रही कि आखिर मामला क्या है? पुलिस ने उससे बेटे-बहू के खिलाफ शिकायत देने को भी कहा, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। पड़ोसियों ने बताया कि महिला को बेटे-बहू प्रताड़ित करते हैं और इसी कारण वह सहमी हुई है और शिकायत नहीं कर रही है।
 
पुलिस व लोगों को देखकर वृद्धा की रुलाई फूट पड़ी। उसने बताया कि बेटे-बहू पांच दिन के लिए बाहर गए हैं और पांच दिन का खाना एक साथ बनाकर गए हैं। तीन दिनों में खाना पूरी तरह सूख चुका था और खाने लायक नहीं रहा था। दही भी था जो गर्मी के इस मौसम में बुरी तरह बदबू मार रहा था। पुलिस से शिकायत करने पर रुंधे गले से सिर्फ यही निकल रहा था, मैं अपनी मर्जी से रह रही हूँ। मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है। कलेक्टर ने बताया कि सूचना मिलते ही उन्होंने महिला एवं बाल विकास विभाग तथा पुलिस को इसकी जानकारी दी। महिला अपने बेटे-बहू के बारे में कुछ नहीं बोल रही। यदि वह किसी प्रकार की शिकायत देती है तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस महिला के पति की चार वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है जो एक बैंक में मैनेजर थे। महिला के एक पुत्री भी है लेकिन वह अपनी माँ से मिलने यहाँ आती नहीं है। एक ओर संतानें इस तरह का अपराध अपने बुजुर्गों के साथ कर रहे हैं। दूसरी ओर एक माँ है जो अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रही है लेकिन अपनी संतानों के विरुद्ध शिकायत तक नहीं करना चाहती। यहाँ तक कि उस मकान से हटना भी नहीं चाहती। उसे पता है कि उस के इस खोटे सिक्के के अलावा उस का दुनिया में कोई नहीं। उन के विरुद्ध शिकायत कर के वह उन से शत्रुता कैसे मोल ले?
 
स घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज में वृद्धों की स्थिति क्या है? सब से बुरी बात तो यह है कि कलेक्टर यह कह रहा है कि यदि महिला ने शिकायत की तो कार्यवाही होगी। जब सारी घटना सामने है। एक महिला के साथ उस के ही बेटे-बहु ने निर्दयता पूर्वक क्रूर व्यवहार किया है और वह घरेलू हिंसा का शिकार हुई है। जिस के प्रत्यक्ष सबूत सब के सामने हैं, इस पर भी पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह महिला शिकायत देगी तब वे कार्यवाही करेंगे। इस से स्पष्ट है कि हमारी सरकार, पुलिस और प्रशासन जो उस के अंग हैं। इस हिंसा और अपराध को एक व्यक्ति के प्रति अपराध मान कर चलते हैं और बिना शिकायत किए अपराधियों के प्रति कार्यवाही नहीं करना चाहते। जब कि यह भा.दंड संहिता की धारा 340 में परिभाषित सदोष परिरोध का अपराध है। तीन दिनों या उस से अधिक के सदोष परिरोध के लिए दो वर्ष तक की कैद का दंड दिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार यह संज्ञेय अपराध है जिस में पुलिस बिना शिकायत के कार्यवाही कर सकती है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत यह उपबंध है कि हिंसा की ऐसी घटना पाए जाने पर संरक्षा अधिकारी इस तरह का आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर महिला को राहत दिला सकता है। लेकिन इन बातों की ओर न पुलिस का और न ही प्रशासन का ध्यान है। इस से पुलिस व प्रशासन की संवेदनहीनता अनुमान की जा सकती है। 

ब से बड़ी बात तो यह है कि बच्चों, बुजुर्गों और असहाय संबंधियों के प्रति इस तरह का अमानवीय और क्रूरतापूर्ण व्यवहार को अभी तक दंडनीय, संज्ञेय और अजमानतीय अपराध नहीं बनाया गया है। जिस से लोग इस तरह का व्यवहार करने से बचें और करें तो सजा भुगतें। इस तरह के उपेक्षित और असहाय लोगों के लिए सरकार और समाज द्वारा कोई वैकल्पिक साधन भी नहीं उपलब्ध कराए गए हैं कि वे अपने संबंधियों की क्रूरतापूर्ण व्यवहार की शिकायत करने पर उन से पृथक रह सकें। आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? क्या समाज को इस दिशा में जाने से रोकने के समुचित प्रयास किए जा रहे हैं और क्या हमारी सरकारें और राजनेता वास्तव में इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचते भी हैं?

मंगलवार, 7 जून 2011

सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा?

जमा अच्छा लगाया गया था। हर काम लाजवाब था। बड़ा मैदान बुक था, योग शिक्षा के लिए। वहीं अनशन होना था। वायु मार्ग से बाबा राजधानी पहुँचे। सत्ता के चार-चार नवरत्नों ने अगवानी की। बहुत मनाया। पर कसर रह गई। पाँच सितारा में फिर मनौवल चली। क्या बात हुई? क्या सहमति बनी किसी को नहीं बताया। बताया तो सिर्फ इतना कि अनशन होगा। अनशन हुआ तो दिन भर इधर से उधर, उधर से इधर फोन घनघनाते रहे। शाम को जय हो गई। सत्ता ने ज्यादातर मांगे मान ली हैं। शामियाना उल्लास से भर गया। तब सत्ता ने बताया कि जय तो कल ही हो गई थी। बाबा ने दोपहर तक अनशन और दो दिन तप करने का वायदा किया था। वायदा नहीं निभाया। लिखित चिट्ठी पढ़ दी गई। बाबा बैक फुट पर आ गए। संफाई पर सफाई देते रहे। कहते रहे -सत्ता ने उन के साथ धोखा किया। बाबा के सिर मुंढाते ही ओले पड़े। बाबा ने जनता का विश्वास खोया। बाबा ने को राजनीति का पहला सबक मिला। सत्ता के विश्वास से जनता का विश्वास बड़ा है। उसे जीतने की जल्दी में अनशन पर डट गए। जनता का  विश्वास तो जा ही चुका था। अब सत्ता का विश्वास भी गया।

नता जब विश्वास करती है तो आँख मूंद कर करती है। लेकिन जब उस का विश्वास टूटता है तो फिर से वापस वह विश्वास करे। यह आसान नहीं है। जनता का विश्वास हटते ही, सत्ता ने अपनी नंगई दिखाई। आधी रात के बाद हमला हुआ। पुलिस बाबा तक पहुँचे उस से पहले ही बाबा जनता के बीच कूद पड़े। पर देर हो चुकी थी। जनता भी घिरी पड़ी थी। कितना ही प्रयास किया। कपड़े बदले, वेष बदले पर पकड़े गए और सत्ता ने उन्हें उसी बदले वेष में राजधानी के बाहर कर दिया। सरकार के इस बेवकूफी और बर्बर तरीके की आलोचना आरंभ हो गई। जो जो सरकार से खार खाए बैठा था। वही उस के खिलाफ बोलने लगा। बाबा समझे उनको समर्थन है। वे राजधानी के अंदर नहीं तो परकोटे के बाहर बैठने चले। पर जिस ने जनता का विश्वास खोया, जिस ने सत्ता का विश्वास खोया। उसे कोई कैसे पनाह दे? सो बाबा वापस अपने घर लौटा दिए गए। अब वे वापस विश्वास जीतने बैठे हैं। लेकिन दुबारा विश्वास जीत पाएंगे या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा। यह सब से बड़ा योग है जिसे बाबा को अभी सीखना शेष है। 

रकार सिर्फ अपने आकाओं की सगी होती है। लेकिन आका तभी तक उसे पालते हैं जब तक वह जनता को भ्रम में रख पाती है। जनता के विश्वास को झटका देते ही सरकार ने बाबा पर हमला बोला। वह भी इस बेवकूफी के साथ कि बाबा के साथ-साथ जनता भी चपेट में आई। सरकार कहती है कि बाबा ने वादा तोड़ा। योगकक्षा के लिए अनुमति ले कर अनशन किया। अनुमति रद्द कर दी। उन्हें हटाना जरूरी था। हम मान सकते हैं कि उन्हें हटाना जरूरी था। लेकिन वहाँ इकट्ठे लोगों का क्या कसूर था? या तो वे योग कक्षा में आए थे, या फिर अनशन पर बैठने, या फिर दिन भर की पगार कमाने। उन पर लाठी की जरूरत क्या थी। उस के पास  दिल्ली और केंद्रीय सत्ता की ताकत थी। पाँच हजार जवानों ने मैदान को घेरा था। अंदर निहत्थे लोग थे, बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे। क्या जरूरत थी उन्हें जबरन वहाँ से हटाने की? आप के पास माइक भी जरूर रहे होंगे। आप के पास निकट ही सैंकड़ों बसें भी खड़ी थीं। उन्हें भी लगाया जा सकता था। घेरने के बाद यह घोषणा भी की जा सकती थी कि रामलीला मैदान का जमाव अवैध घोषित कर दिया गया है। वहाँ आयोजन की अनुमति रद्द कर दी गई है। सब वहाँ से हट जाएँ। सरकार ने उन्हें वापस उन के घरों तक पहुँचाने की व्यवस्था कर दी है। जो स्टेशन जाना चाहे स्टेशन तक पहुँचाया जाएगा। जो बस स्टेंड जाना चाहे उसे बस स्टेंड पहुँचाया जाएगा। जब तक लोगों के घर जाने का साधन न हो जाए तब तक उन के ठहरने खाने की व्यवस्था कर दी गई है। घिरे हुए लोगों को समय देते कुछ सोचने का। निहत्थे बुजुर्ग, महिलाएँ और बच्चे क्या कर लेते? 

र सरकार ने जनतंत्र का पाठ सीखा ही कहाँ है? तिरेसठ सालों में भी अंग्रेजों की विरासत ही ढोई जा रही है। उन्हीं का मार्ग नजर आता है। सरकार को जनता चार बरस तक कहाँ दिखाई देती है? वह तो सिर्फ चुनाव के साल में नजर आती है। सरकार को सिर्फ बाबा दिखाई दिए। उन को हवाई जहाज में बिठा कर उन के घर पहुँचाया। जनता दिखाई देती तो उसे पहुँचाते। सरकार सोचती है कि जनता में दिमाग नहीं होता। वह कभी सोचती नहीं। लेकिन वह सोचती भी है और जब वक्त आता है तो कर भी गुजरती है। जनता तो उस के पीछे जाएगी जो उस की बात करेगा और जो विश्वसनीय होगा। वह धोखा खाएगी तो फिर नया तलाश लेगी। लेकिन वह सोचेगी भी और करेगी भी। कोई विश्वास के काबिल न मिला तो अपने अंदर से पैदा कर लेगी। जब वह अपने अंदर से अपना नेता पैदा कर लेगी तब? सरकारों और सत्ताओं को सोचना चाहिए कि तब उन का क्या होगा? देर भले ही हो, पर किसी दिन यह जरूर होगा।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

दिनकर जी के परिवार के साथ न्याय कैसे हो?

दो दिनों से व्यस्तता रही। शनिवार को मकान की छत का कंक्रीट डलता रहा, वहाँ दो बार देखने जाना पड़ा। रविवार सुबह एक वैवाहिक समारोह में और दोपहर बाद एक साहित्यिक स्मृति और सम्मान समारोह में बीता। रात नौ बजे ही घर पहुँच सका। घर पहुँच कर खबरें देखीं तो एक खबर यह भी मिली कि पटना में दिनकर जी की  वृद्ध पुत्र-वधु हेमन्त देवी का किराएदार लीज अवधि समाप्त हो जाने के बाद भी दुकान खाली नहीं कर रहा है और उपमुख्यमंत्री का रिश्तेदार होने के कारण वह उन्हें धमकियाँ दे रहा है। 
ह समाचार भारतवर्ष की कानून और व्यवस्था की दुर्दशा की कहानी कहता है। हेमन्त देवी का कहना है कि वे मुख्यमंत्री तक से मिल चुकी हैं लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला। मुख्यमंत्री क्या करें? वे एक व्यक्ति, जो कानूनी रूप से किसी संपत्ति के कब्जे में आया था, जिस का कब्जा अब लीज अवधि समाप्त होने के बाद  अवैध हो गया है और जो अतिक्रमी हो गया है, से मकान कैसे खाली करवा सकते हैं? यह मामला तो अदालत का है। महेश मोदी यदि दुकान खाली नहीं करता है और अगर यह मामला किराएदारी अधिनियम की जद में आता है तो उस के अंतर्गत मकान खाली करने का दावा करना पड़ेगा, और अगर लीज से संबंधित कानून के अंतर्गत यह मामला आता है तो कब्जे के लिए दावा करना पड़ेगा। हमारे अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना करने का काम राज्य सरकारों का है। राज्य सरकारें इस काम में बरसों से लापरवाही कर रही हैं। पूरे देश में जरूरत की केवल 20 प्रतिशत अदालतें हैं जिस के कारण एक मुकदमा एक-दो वर्ष के स्थान पर 20-20 वर्ष तक भी निर्णीत नहीं होता। जो कानून और अदालतें सब के लिए हैं, वे ही दिनकर जी के परिजनों के लिए भी हैं। इस कारण उन्हें भी इतना ही समय लगेगा। सरकार या कोई और ऐजेंसी इस मामले में कोई दखलंदाजी करती है या ऐसा करने का अंदेशा हो तो महेश मोदी खुद न्यायालय के समक्ष जा कर यह व्यादेश ला सकता है कि दुकान पर उस का कब्जा सामान्य कानूनी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से न हटाए।
क मार्ग यह दिखाई देता है कि इस मामले में राज्य सरकार कोई अध्यादेश जारी करे, या फिर कानून बनाए जो संभव नहीं। एक मार्ग यह भी दिखाई देता है कि यदि राज्य में वरिष्ठ नागरिकों को उन के मकान का कब्जा दिलाने मामले में कोई विशिष्ठ कानून हो तो उस के अंतर्गत तीव्रता से अदालती कार्यवाही हो, अथवा अदालत हेमंत देवी को वरिष्ठ नागरिक मान कर त्वरित गति से मामले में फैसला सुनाए और यही त्वरण अपीलीय अदालतों में भी बना रहे। तब यह प्रश्न भी उठेगा कि हेमंत देवी के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह देश के सभी नागरिकों के लिए क्यों न किया जाए? वस्तुतः पिछले तीस वर्षों में जो भी केंद्र और राज्य सरकारें शासन में रहीं, उन्हों ने न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी नहीं निभाई। उन्हों ने उसे अपना कर्तव्य ही नहीं समझा।
पिछले तीस वर्षों में स्थितियाँ बहुत बदली हैं। इस अतिविलंबित न्याय व्यवस्था ने समाज के ढाँचे को बदला है। अब हर अवैध काम करने वाला व्यक्ति धमकी भरे स्वरों में कहता है तु्म्हें जो करना हो कर लो। वह जानता है कि अदालत में जूतियाँ घिस जाती हैं बीसियों साल तक अंजाम नहीं मिलता। जिस के पास लाठी है वही भैंस हाँक ले जा रहा है, भैंस का मालिक अदालत में जूतियाँ तोड़ रहा है। ये पाँच-पाँच बरसों के शासक, इन की दृष्टि संभवतः इस अवधि से परे नहीं देख पाती। यह निकटदृष्टि राजनीति लगातार लोगों में शासन सत्ता के प्रति नित नए आक्रोश को जन्म देती है और परवान चढ़ाती है। पाँच बरस के राजा नहीं जानते कि  यह आक्रोश विद्रोह का जन्मदाता है ऐसे विद्रोहों का जिन्हें दबाया नहीं जा सकता।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

सरकारों और निगमों की मर्जी से ही बनते हैं आदर्श सोसायटी और लवासा

आदर्श सोसायटी बिल्डिंग
देश की जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। नगर सुविधा संपन्न हैं और वहाँ पूर्णकालिक नहीं तो आंशिक रोजगार मिलने की संभावना सदैव बनी रहती है। नतीजा ये है कि नगरों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। अब नगरों की इस आबादी को रहने का ठौर भी चाहिए। लेकिन जिस गति से आबादी बढ़ रही है उस गति से उन्हें आवास की वैधानिक सुविधा नहीं मिल पा रही है। वैधानिक सुविधा से मेरा तात्पर्य यह है कि आबादी भूमि पर नगर पालिका नियमों के अंतर्गत बने और मंजूरशुदा मकान लोगों को उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। उस का एक प्रमुख कारण आवश्यक मात्रा में कृषि भूमि से नगरीय भूमि में रूपांतरण न होना है। राज्य सरकारें नगरों का विस्तार कर देती हैं। गजट में सूचना प्रकाशित हो जाती है कि अमुक-अमुक गाँवों को नगरीय सीमा में शामिल कर दिया गया है। लेकिन इन गावों की भूमि अभी भी कृषि भूमि में ही बनी हुई है। जिन के पास काला-सफेद धन है वे इस कृषि भूमि को खरीदते हैं, उन पर अपनी मर्जी के मुताबिक आवासीय योजना बनाते हैं और योजना के भूखंड बेच देते हैं। इन भूखंडों को जो लोग खरीदते हैं उन की  मंशा उन पर आवास बनाने की नहीं है। वे केवल उसे निवेश की दृष्टि से खरीदते हैं और रोक लेते हैं। एक कृषक द्वारा भूमि का विक्रय करते ही उस पर कृषि कार्य बंद हो जाता है। उन पर आवास निर्माण नहीं होता है। नतीजे के तौर पर भूमि कुछ बरसों के लिए बेकार हो जाती है।

लवासा (महाराष्ट्र)

ब राज्य सरकार भू-परिवर्तन के लिए नियम बनाती है। नियम ऐसे हैं कि केवल कॉलोनाइजर्स ही भू-परिवर्तन करा सकते हैं। लेकिन वे तो भूखंडों को अनेक लोगों को विक्रय कर चुके हैं। उन्हों ने अपना पैसा समेट लिया है और मुनाफा बना लिया है। वे आगे और कृषि भूमि खरीद रहे हैं, नयी योजनाएँ बना रहे हैं। अब जिन लोगों को ने भूखंड रोके हैं उन में से कुछ को पैसों की जरूरत है, वे खरीददार मिलने पर भूखंडों को बेच रहे हैं। खरीददारों में भी अधिकांश ने निवेश की दृष्टि से ही उन्हें खरीदा है। इक्का-दुक्का जरूरत मंदों ने भी खरीदा है, वे वहाँ मकान बना रहे हैं। भूमि अभी आबादी की नहीं है, इस कारण से नगर पालिका या विकास न्यास उन पर मकान बनाने की इजाजत नहीं दे सकता। 
कान फिर भी बन रहे हैं। कभी-कभी इन निर्माणों को रोकने की कवायद भी होती है, पर अधिकतकर अनदेखी होती है।  जैसे-जैसे मकान बनते रहते हैं जमीन की कीमतें बढ़ती रहती है। जब किसी योजना में तकरीबन आधे मकान बन चुके होते हैं तो सरकार भू-परिवर्तन नियमों में छूट देती है और उन का नियमन होने लगता है।इन योजनाओं में भूखंड हैं और सड़कें हैं। बिजली विभाग बिजली कनेक्शन देने में कोई आनाकानी नहीं करता। लेकिन पानी की सप्लाई नहीं है, हर घर में एक नलकूप बनता है। पानी की व्यवस्था भी हो गई है। लेकिन केवल इतना ही तो नहीं चाहिए। एक आबादी के बच्चों को खेल की जगह भी चाहिए, पार्क भी चाहिए और पेड़ पौधे भी। लेकिन वे इन योजनाओं से नदारद हैं। इस तरह हमारे नगर विकसित हो रहे हैं।
लवासा
रकारें और पालिकाएँ नगर की जरूरत को आँक कर, भूमि अधिग्रहण कर, लोगों को  समय पर आवास और आवास हेतु भूमि उपलब्ध कराए तो उन्हें राजस्व भी मिले। ठीक ढंग से योजनाओं में विकास भी हो, नागरिकों को उचित सुविधाएँ भी प्राप्त हों। लेकिन वह ऐसा नहीं करती। सरकार जब योजनाएँ बना कर भूखंड उपलब्ध कराती भी है तो चाहे वह नीलामी से बेचे या फिर आवेदन के आधार पर हर बार अधिकांश भूखंड उन्हीं के पास पहुँच जाते हैं जिन्हें उन में धन निवेश करना है। जरूरतमंद आदमी हमेशा एक उचित मूल्य के घर के लिए ताकता रहता है। एक सवाल यह भी उठता है कि सरकारें आवास की समस्या से निपटने में वाकई इतनी अक्षम हैं, या जानबूझ कर अक्षम बनी रहना चाहती हैं? इस प्रश्न का उत्तर सब को पता है कि सरकारें सक्षम हो जाएँ तो जिन लोगों के पास फालतू सफेद-काला धन है, उन्हें उसे दुगना-चौगुना अवसर कैसे मिले? 
ही कारण है कि देश में  आदर्श सोसायटी और लवासा जैसे कांड सामने आते हैं। अब इन पर कार्यवाही की जा रही है। लेकिन कितनी? हर नगर में एकाधिक आदर्श सोसायटियाँ और हर राज्य में लवासा जैसे एकाधिक नगर हैं। 

बुधवार, 12 जनवरी 2011

सारा पाप किसानों का

रित क्रांति किसान ले कर आया। लेकिन उस का श्रेय लिया सरकार ने कि उस के प्रयासों से किसानों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग सीखा और अन्न की उपज बढ़ाई, देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ। किसान सरकारों और रासायनिक खाद व कीटनाशक उत्पादित करने और उस का व्यापार कर उन के मुनाफे से अपनी थैलियाँ भरने वाली कंपनियों की वाणी पर विश्वास करता रहा और पथ पर आगे बढ़ता रहा। लेकिन इस वर्ष पड़ी तेज सर्दी के कारण जब फसलें पाला पड़ने से खराब हुईं तो किसान अपनी मेहनत को नष्ट होते देख परेशान हो उठा। खेती अब वैसी नहीं रही कि जिस में बीज घर का होता था और खाद पालतू जानवरों के गोबर से बनती थी। मामूली लागत और कड़ी मेहनत से फसल घर आ जाती थी। अब एक फसल के लिए भी किसान को बहुत अधिक धन लगाना पड़ता है। बीज, खाद, कीटनाशक, सिंचाई आदि सब कुछ के लिए भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। अधिकांश किसान इन सब के लिए कर्ज ले कर धन जुटाते हैं। 
ब पाले ने न केवल फसल बर्बाद की अपितु किसान पर इतना कर्जे का बोझा डाल दिया कि जिसे वह चुका ही न सके। मध्यप्रदेश के दमोह जिले में इसी बर्बादी के कारण दो किसान आत्महत्या कर चुके हैं। ऐसे में सरकार का फर्ज तो यह बनता था कि वह किसानों की इस प्राकृतिक आपदा से हुई हानि के का आकलन करे और कर्ज के बोझे से दबे किसानों को कुछ राहत पहुँचाए। किसानों की सरकार से यह अपेक्षा तब और भी बढ़ जाती है जब जिस जिले में यह बर्बादी हुई है, राज्य का कृषि मंत्री उसी जिले का हो। लेकिन कृषि मंत्री ने क्या किया? 
राज्य के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया अपने गृह जिले पहुँचे और बजाय इस के कि वे किसानों को लगे घावों पर मरहम लगाएँ, उलटे पुराण कथा बाँचना आरंभ कर दी। उन्हों ने कहा कि "यह सब किसानों के पापों का फल है। खेती में रसायनों का इस्तेमाल बढ़ने से मिट्टी की सेहत खराब हुई है और उसकी प्रतिरोधक क्षमता खत्म हो चुकी है। ऐसा होने से मिट्टी में नमी नहीं रहती और पाला अपना असर दिखा जाता है। वेद पुराणों में कामधेनु व कल्पवृक्ष का जिक्र है, मगर आज हम उनसे दूर हो चले हैं। इसलिए प्राकृतिक प्रकोप बढ़ा है। एक ओर जंगल कट गए हैं तो दूसरी ओर गाय का उपयोग कम हो रहा है। इस तरह संतुलन गड़बड़ा गया है, जिसके चलते यह सब हो रहा है" 
ह सही है कि कुसमरिया जी जैविक कृषि के भारी समर्थक हैं, वे चाहते हैं कि मध्यप्रदेश एक जैविक कृषि के लिए जाना जाए। लेकिन इस का अर्थ यह तो नहीं कि किसी व्यक्ति को जब चोट लगे तो उस पर नमक छिड़का जाए। उन्हों ने यह कहीं नहीं कहा कि उन के इस पाप में सरकारें भी भागीदार रही हैं जिन्हों ने रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया। उन्हों ने यह भी नहीं कहा कि राज्य सरकारों ने ऐसा इसलिए किया क्यों कि इन पदार्थों के उत्पादकों और व्यापारियों ने सरकार बनाने की संभावना रखने वाली राजनैतिक  दलों को चुनाव लड़ने के लिए चंदे दिए थे और व्यक्तिगत रूप से मंत्रियों और अफसरों को मालामाल कर दिया था। वे ऐसा कहने भी क्यों लगे? आखिर कोई अपने आप पर भी उंगली उठाता है? 

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

सभी कानून, नियम और आदेश प्रभावी होने के पहले सरकारें अपनी-अपनी वेबसाइट पर उपलब्ध क्यों न कराएँ

न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर
ह वास्तव में बहुत बड़ी बात है कि हम देश की सारी महिलाओं के पास यह जानकारी पहुँचा पाएँ कि उन के कानूनी अधिकार क्या हैं? ऑल इंडिया वूमन लायर्स कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अल्तमश कबीर ने महिला वकीलों को यही कहा कि उन्हें देश की महिलाओं में उन के अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए काम करना चाहिए, जिस से वे यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से अपना बचाव कर सकने में सक्षम हो सकें। उन्हों ने यह भी कहा कि उन्हें महिलाओं को यह भी बताना चाहिए कि वे अपने अधिकारों को प्राप्त करने के संघर्ष में कानून को किस तरह से एक सहायक औजार के रूप में उपयोग कर सकती हैं। उन का कहना था कि जागरूकता के इस अभियान में ग्रामीण महिलाओं की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
मुझे नहीं लगता कि न्यायाधिपति अल्तमश कबीर के इस आव्हान महिला वकीलों ने बहुत गंभीरता के साथ ग्रहण किया होगा, यह भी हो सकता है कि खुद न्यायाधिपति भी अपने भाषण में कहे हुए शब्दों को बहुत देर तक गंभीरता के साथ न लें और केवल सोचते रह जाएँ कि वे एक अच्छा भाषण दे कर आए हैं जिस पर बहुत तालियाँ पीटी गई हैं। लेकिन उन्हों ने जो कुछ कहा है वह केवल महिला वकीलों को ही नहीं सभी वकीलों को गंभीरता के साथ लेना चाहिए, यहाँ तक कि इस बात को सरकारों और उन के विधि व महिला मंत्रालयों को गंभीरता से लेना चाहिए और इस दिशा में अभियान चलाया जाना चाहिए। अभी तो हालत यह है कि महिलाओं से संबंधित कानून और उन की सरल व्याख्याएँ हिन्दी और भारत में बहुसंख्यक महिलाओं द्वारा बोली-समझी जाने वाली भाषाओं में उपलब्ध नहीं है।
यूँ तो मान्यता यह है कि जो भी देश का कानून है उस की जानकारी प्रत्येक नागरिक को होनी चाहिए। इस लिए सरकारों का यह भी जिम्मा है कि वे हर कानून की जानकारी जनता तक पहुँचाएँ। लेकिन शायद सरकारें इस काम में कोई रुचि नहीं रखतीं। जब कि होना तो यह चाहिए कि हर राज्य की अपनी वेबसाइट पर उस राज्य में बोली और समझी जाने वाली भाषाओं में उस राज्य में प्रभावकारी सभी कानून और नियम उपलब्ध हों। कम से कम हिन्दी जो कि राजभाषा है उस में तो उपलब्ध हों हीं। लेकिन इस ओर राज्य सरकारों की ओर से इस तरह की कोई पहल होती दिखाई नहीं पड़ती है। ऐसी हालत में सर्वोच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से सभी सरकारों को यह आदेश दे सकता है कि वे निश्चित समयावधि में सभी कानूनों, नियमों और उन के अंतर्गत जारी किए गए आदेशों को अपनी वेबसाइट पर अंग्रेजी, हिन्दी और राज्य की भाषा में उपलब्ध कराएँ और जब भी नए कानून, नियम और आदेश प्रभावी हों, उस से पूर्व उन्हें अपने-अपने राज्य की वेबसाइट पर उपलब्ध कराया जाए।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए

ल रात शोभा (श्रीमती द्विवेदी) ने पूछा, गाड़ी में पेट्रोल तो है ना? मैं चौंका। एक तो पिछले ही दिनों पेट्रोल की कीमतें बढ़ी हैं फिर अक्सर वे ये सवाल तभी करती हैं जब वे मेरे साथ कार में ऐसी जगह की यात्रा करती हैं जहाँ एक-दो किलोमीटर में पेट्रोल पम्प न हो और कोई सवारी भी न मिलती हो। मैं ने तत्काल पूछा, क्यों? कहीं जाना है क्या? वे बोलीं, नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि कल भारत बंद है, सुबह जरूरत पड़ेगी तो क्या करोगे? नहीं हो तो अभी जा कर भरवा लाओ। -कल तक के लिए पर्याप्त होगा। इतना कह कर मैं ने अपनी जान छुड़ाई। चलो इस बहाने हमें भारत बंद का तो पता लगा। वरना हमें तो सुबह अखबार या टीवी समाचार से ही यह पता लगता। वैसे भी कल किसी टीवी वाले को धोनी की शादी से ही फुरसत नहीं थी।
सुबह अखबार आया तो पता लगा कि बंद के कारण यातायात की अस्तव्यस्तता रहने से अधिवक्ता परिषद ने घोषणा कर दी है कि वे भी काम लंबित रखेंगे। हम कुछ रिलेक्स हो गए। हमें पता था कि आज कोई अदालत परेशान नहीं करेगी। क्यों कि अधिवक्ताओं के काम न करने से आज का दिन उन के काम के कोटे की गणना से अलग हो गया है। यह न्यायिक अधिकारियों के लिए बोनस का दिन है। इस दिन जितना काम वे अपने अपने चैंबर में करते हैं वह उन के कोटे को सुधार देता है। हम भी आराम से निबटे। बस भोजन करना शेष था कि बंगलूरू से बेटे का फोन आ गया। बता रहा था कि वह जल्दी ही नीचे जा कर कुछ नाश्ता ले आया है वरना दिन भर भोजन से वंचित रहना पड़ता। यूँ तो वह अपना भोजन खुद बनाता रहा है। लेकिन अभी इसे के लिए वहाँ पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाने के कारण चाय आदि के अलावा वह बाजार पर ही निर्भर रहता है। उस ने बताया कि यहाँ सारी कंपनियाँ आज बंद रहेंगी। ट्रेफिक भी बंद रहेगा। सुबह सुबह ही पुलिस वालों की टोलियाँ सड़क पर आ निकली थीं। जिस किसी ने दुकान खोल दी थी उसे बंद करवा रहे थे। कह रहे थे अपना नुकसान करवाओगे और हमारे कलंक लगाओगे, कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। मैं ने उसे कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है पुलिस बंद करवा रही है? तो उस का जवाब था कि यहाँ बीजेपी की सरकार जो है। 
म अदालत के लिए निकले तो ट्रेफिक रोज की तरह चलता नजर आया। हाँ ऑटो इक्का दुक्का नजर आ रहे थे। सिटी बसें नहीं थीं और दुकानें एक सिरे से बंद थीं। हम बड़े मजे में गाड़ी चलाते हुए अदालत पहुँचे तो दूर से हमारा पार्किंग पूरी तरह खाली देख प्रसन्नता हुई, कि आज किसी पेड़ की छाया के  नीचे कार पार्क कर सकेंगे। लेकिन यह खुशी पास जाने पर टूट गई। पुलिस वाले अस्पताल और अदालत के बीच वाली सड़क के किनारे वाले पार्किंग में गाड़ी पार्क करने ही नहीं दे रहे थे। हमने पार्किंग के लिए दूसरी जगह तलाशी तो सभी पार्किंग  पहले से भरे हुए थे। फिर परेशान हुए तो एक जूनियर साथी ने हमें सलाम ठोकी। हम ने गाड़ी रोक दी। उस ने कहा कि आज उस की कार अंदर पार्किंग में फँस गई है। मुझे पत्नी को अस्पताल ले जाना है। मैं गाड़ी से उतर गया और अपनी गाड़ी की चाबी उसे दे दी। मुझे पार्किंग तलाशने से मुक्ति मिली। 
दालत में जा कर अपना काम संभाला। अदालतों में गए। कुछ अदालतों ने मुकदमों में तारीखें बदल दी थीं। कुछ अदालतें जहाँ नए न्यायिक अधिकारी तबादला हो कर आए थे, तारीखें नहीं बदल रही थीं। शायद नए अधिकारी मुकदमों की पत्रावलियों से परिचित होना चाह रहे थे, या फिर वे कोटा की उस परंपरा से वाकिफ न थे, जिस के अनुसार अधिवक्ता परिषद की काम लंबित होने की चिट्ठी आने पर उन्हें प्रसन्न होना था। पर मैं जानता था कि उन की यह असामान्यता सिर्फ दोपहर के विश्राम तक ही टिकेगी। क्यों कि तब चाय पर वे पुराने अधिकारियों से मिलेंगे और उन से मिली सीख उन्हें सामान्य कर देगी। बंद के दिन भी कुछ तो मुवक्किल आ ही गए थे। कुछ उन से बातचीत की, कुछ उन्हें सलाहें दीं, कुछ टाइप का काम करवाया। एक नया मुकदमा मिला तो फीस भी मिली। इस के अलावा दो बार बैठ कर कॉफी भी पी। कुल मिला कर शाम के साढे़ चार बज गए। तब तक शहर में कुछ भी असामान्य होने की खबर नहीं थी। सब कुछ वैसे ही चल रहा था जैसे हर बंद में चलता है। दुकानें स्वतः ही बंद थीं। कुछ नुकसान होने के डर से और कुछ इस लिए कि व्यापारियों को रूटीन में सप्ताह में एक ही अवकाश मिलता है। जब कभी बंद की घोषणा होती है तो वे बड़े खुश होते हैं कि उन्हें एक दिन का अवकाश और मिला और पहले से ही पिकनिक का कार्यक्रम बना लेते हैं। फिर आज तो मौसम इस के लिए बहुत अनुकूल था। पिछले दो-तीन दिनों हुई बरसात ने वातावरण को भीगा-भीगा और कुछ कुछ सर्द तो कर ही दिया था। आज नगर के आस-पास के सभी पिकनिक स्पॉट आबाद थे। सभी महाराज भोजन बनाने के लिए पहले से बुक थे। 
शाम घर पहुँचने पर टीवी खोला तो न्यूज चैनलों पर बहसें चल रही थीं। विपक्ष इसे जनता का बंद साबित करने पर तुला हुआ था तो कांग्रेस कह रही थी कि विपक्ष सरकार में होता तो इस से भी बुरी हालत होती। विपक्षी दलों के प्रतिनिधि सोच रहे थे कि रोना ही यही है कि वे सरकार में नहीं हैं। यदि होते तो काँग्रेसी ये सब कर रहे होते जो उन्हें करना पड़ रहा है। जनता टीवी देखने में व्यस्त थी। हम सोच रहे थे कि गाड़ी कीचड़ में फँस गई है। निकाले नहीं निकल रही है। निकालने में एक और खतरा है कि कहीं टूट नहीं जाए। कोई एकाध पहिया कीचड़ में फंसा रह जाए तो और मुश्किल हो जाए। दूसरी कोई गाड़ी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है कि इसे छोड़ उस में सफर किया जाए। अब ऐसे में क्या किया जाए?  कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए। कीचड़ सूखे शायद उस से पहले कोई अच्छा वाहन ही नजर आ जाए।

रविवार, 20 जून 2010

सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?

भोपाल गैस त्रासदी के मामले में गृहमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता वाले पुनर्गठित मंत्री समूह की बैठकें जारी हैं। खबरें आ रही हैं कि सोमवार को दोपहर बाद समूह अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप देगा। जो खबरें छन कर आ रही हैं उन से पता लगा है कि अब केंद्र सरकार अमरीका पर एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए दबाव बना सकता है। यह भी कि भोपाल में मौजूद जहरीले कचरे की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। यह भी कि सुप्रीमकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार याचिका दाखिल कर 1996 के उस निर्णय को बदलने के लिए निवेदन किया जाएगा जिस से आरोपियों पर आरोपों को हलका कर दिया गया था। यह भी कि भोपाल के हाल के निर्णय की रोशनी में ऐसी याचिका दायर की जाएगी।
सारी खबरें आ रही हैं। लेकिन यह खबर नदारद है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद धारा 304 भाग 2 का आरोप होते हुए भी पुलिस ने उसे जमानत पर क्यों छो़ड़ दिया, अदालत के समक्ष प्रस्तुत क्यों न कर दिया? एंडरसन को भारत से निकल जाने का रास्ता दिया गया तो क्यों दिया गया? हालांकि अब सब बात सामने आ चुकी है कि एंडरसन ने आने के पहले ही भारत सरकार से यह शर्त मंजूर करा ली थी कि उसे वापस आने दिया जाएगा। यदि ऐसा है तो फिर उसे कागजों पर गिरफ्तार दिखाना अपने आप में बड़ा काम था, जिस ने भी किया उसे ईनाम जरूर मिलना चाहिए। लेकिन यह प्रश्न तो फिर भी बना रहेगा कि भारत सरकार ने ऐसा क्यों किया कि अमरीका की यह शर्त मान ली कि अपराधी को भारत तो आने दिया जाए लेकिन उस की वापसी सुनिश्चित की जाए। यानी भारत का कानून कानून नहीं है। भारत में लोकतंत्र और कानून का शासन नहीं है और उसे अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश बात माननी पड़ती है। यह प्रश्न देश की संप्रभुता से समझौता करने तक जाता है। निश्चित ही भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी इस आरोप का उत्तर देने की स्थिति में नहीं है।
वास्तव में भोपाल त्रासदी के मामले में जिस तरह भारत सरकार ने अमरीका के सामने घुटने टेके हैं उसे इतिहास और भारत की जनता कभी माफ नहीं कर सकेगी। उस ने केवल एंडरसन को ही नहीं जाने दिया। एक बहुत ही अपर्याप्त मुआवजा राशि के बदले यह भी स्वीकार कर लिया कि भोपाल दुर्घटना के सभी अपराधियों के विरुद्ध दांडिक मुकदमे वापस ले लिए जाएंगे। उस समझौते के आधार पर एक बार तो सभी दांडिक मुकदमे निरस्त कर ही दिए गए थे। सुप्रीमकोर्ट इन मुकदमों को पुनर्स्थापित करने का निर्णय नहीं करता तो शायद एक भी अपराधी को नाम मात्र की सजा भी नहीं मिलती और यह बखेड़ा फिर से खड़ा भी न होता। 
पुनर्गठित मंत्री समूह से आने वाले समाचारों में सब तरह की सूचनाएँ आ रही हैं। लेकिन इस बात पर कितना सोचा जा रहा है कि देश में इस तरह की औद्योगिक दुर्घटनाएँ नहीं घटें इस के लिए क्या किया जाए। ऐसा नहीं है कि देश में इन दुर्घटनाओं से सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून नहीं हैं। यदि नहीं भी हैं तो और बनाए जा सकते हैं। लेकिन देश की सरकारी मशीनरी जिस तरह से इन कानूनों की अनदेखी करती है उस का कोई इलाज क्या सरकार तलाश कर पाएगी? इस अनदेखी में केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों की भूमिका भी कम नहीं होती। आखिर सरकारी मशीनरी उन्हीं के नियंत्रण में तो काम करती है। भविष्य में आम जनता को सुरक्षित रखने के उपायों पर भी कोई बात केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रीमंडलों, संसद और विधायिका में होगी या नहीं यह तो समय ही बताएगा। समय यह भी सुनिश्चित करेगा कि हमारी इन सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?