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रविवार, 10 जुलाई 2011

एक नया कविता ब्लाग "अमलतास"

'अमलतास' हिन्दी का एक नया कविता ब्लाग है। जिस में आप को हर सप्ताह मिलेंगी हिन्दी के ख्यात गीतकार कवि 'कुमार शिव' के गीत, कविताएँ और ग़ज़लें।
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिन्दी के गीतकार-कवियों के बीच 'कुमार शिव' का नाम उभरा और तेजी से लोकप्रिय होता चला गया। एक लंबा, भारी बदन, गौरवर्ण नौजवान कविसम्मेलन के मंच पर उभरता और बिना किसी भूमिका के सस्वर अपना गीत पढ़ने लगता। गीत समाप्त होने पर वह जैसे ही वापस जाने लगता श्रोताओं के बीच से आवाज उठती 'एक और ... एक और'। अगले और उस से अगले गीत के बाद भी श्रोता यही आवाज लगाते। संचालक को आश्वासन देना पड़ता कि वे अगले दौर में जी भर कर सुनाएंगे।
ये 'कुमार शिव' थे। उन का जन्म 11 अक्टूबर 1946 को कोटा में हुआ।  राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में चम्बल के किनारे बसे इस नगर में ही उन की शिक्षा हुई और वहीं उन्हों ने वकालत का आरंभ किया। उन्हों ने राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बैंच और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत की। अप्रेल 1996 से अक्टूबर 2008 तक राजस्थान उच्चन्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए 50,000 से अधिक निर्णय किए, जिन में 10 हजार से अधिक निर्णय हिन्दी में हैं। वर्तमान में वे भारत के विधि आयोग के सदस्य हैं। साहित्य सृजन किशोरवय से ही उन के जीवन का एक हिस्सा रहा है। 
1995 से वे कवि कविसम्मेलनों के मंचों से गायब हुए तो आज तक वापस नहीं लौटे। तब वह उच्च न्यायालय में मुकदमों के निर्णय करने में व्यस्त थे। उन का लेखनकर्म लगातार जारी रहा। केवल कुछ पत्र पत्रिकाओं में उन के गीत कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।  एक न्यायाधीश की समाज के सामने खुलने की सीमाएँ उन्हें बांधती रहीं। 'अमलतास' अब 'कुमार शिव' की रचनात्मकता को पाठकों के रूबरू ले कर आया है।
कुमार शिव का सब से लोकप्रिय गीत 'अमलतास' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। ब्लाग पर यह गीत पहली पोस्ट के रूप में उपलब्ध है। मिसफिट पर अर्चना चावजी के स्वर में इस गीत का पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है।  ने इस गीताआप इस मीठे गीत को पढ़ेंगे, सुनेंगे और खुद गुनगुनाएंगे तो आप के लिए यह समझना कठिन नहीं होगा कि इस ब्लाग को 'अमलतास' नाम क्यों मिला।

बुधवार, 8 जून 2011

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

कुमार शिव
नवरत पर आप ने कुमार शिव की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। उन के गीतों, ग़ज़लों और कविताओं में रूमानियत का रंग सदैव दिखाई देता है। सही बात तो यह है कि बिना रूमानियत के कोई नया काम संभव ही नहीं। यहाँ तक कि रूमानियत से भरी रचनाओं को अनेक अर्थों के साथ समझा जा सकता है। भक्ति काल का सारा काव्य रूमानियत से भरा पड़ा है। निर्गुणपंथी कबीर की रचनाओं में  हमेशा रूमानियत देखी जा सकती है। यह रूमानियत ही है जो उन्हें परिवर्तनकामी बनाती है। कुमार शिव की ऐसी ही एक ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है ...


सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

  •  कुमार शिव

आँसुओं का हिसाब भेजा है
उस ने ख़त का जवाब भेजा है

जिस को मैं जागते हुए देखूँ

उस ने कैसा ये ख़्वाब भेजा है

 
तीरगी दिल की हो गई रोशन
ख़त नहीं आफ़ताब भेजा है

खुशबुओं के सफेद कागज पर

हुस्न को बेनक़ाब भेजा है

होठ चस्पा किए हैं हर्फों पर

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है।












शनिवार, 28 मई 2011

दर्द कई चेहरे के पीछे थे

कोई चालीस वर्ष पहले एक कवि सम्मेलन में पढ़े गए  कुमार 'शिव' के एक गीत ने मुझे प्रभावित किया था। मैं उन से मिला तो मुझे पहली मुलाकात से ले कर आज तक उन का स्नेह मिलता रहा। मेरे कोई बड़ा भाई नहीं था। उन्हों ने मेरे जीवन में बड़े भाई का स्थान ले लिया। बाद में जब भी उन की कोई रचना पढ़ने-सुनने को मिली प्रत्येक ने मुझे प्रभावित किया। वे चंद उन लोगों में से हैं, जो हर काम को श्रेष्ठता के साथ करने का उद्देश्य लिए होते हैं, और अपने उद्देश्य में सफल हो कर दिखाते हैं। अनवरत पर 10 जून की पोस्ट में मैं ने उन की 33 वर्ष पुरानी एक ग़ज़ल "मुख जोशीला है ग़रीब का" से आप को रूबरू कराया था। उस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद उन की स्वयं की प्रतिक्रिया थी  "33 वर्ष पुरानी रचना जिसे मैं भूल गया था,  सामने लाकर तुम ने पुराने दिन याद दिला दिए"

न्हों ने मुझे एक ताजा ग़ज़ल के कुछ शैर मुझे भेजे हैं, बिना किसी भूमिका के आप के सामने प्रस्तुत हैं-

'ग़ज़ल'

दर्द कई चेहरे के पीछे थे
 कुमार 'शिव'


शज़र हरे  कोहरे के पीछे थे
दर्द कई  चेहरे के पीछे थे

बाहर से दीवार हुई थी नम
अश्क कई  कमरे के पीछे थे

घुड़सवार दिन था आगे  और हम
अनजाने खतरे के पीछे थे

धूप, छाँव, बादल, बारिश, बिजली
सतरंगे गजरे के पीछे थे

नहीं मयस्सर था दीदार हमें
चांद, आप पहरे के पीछे थे

काश्तकार बेबस था, क्या करता
जमींदार खसरे के पीछे थे




मंगलवार, 10 मई 2011

मुख जोशीला है ग़रीब का

स कवि सम्मेलन में आए अधिकतर कवि लोकभाषा हाडौ़ती के थे। एक गौरवर्ण वर्ण लंबा और भरी हुई देह वाला कवि उन में अलग ही नजर आता था। संचालक ने उसे खड़ा करने के पहले परिचय दिया तो पता लगा वह एक वकील भी है। फिर जब उस ने तरन्नुम के साथ कुछ हिन्दी गीत सुनाए तो मैं उन का मुरीद हो गया। कोई छह सात वर्ष बाद जब मैं खुद वकील हुआ तो पता लगा वे वाकई कामयाब वकील हैं। कई वर्षों तक साथ वकालत की। फिर वे राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो गए। वहाँ से सेवा निवृत्त होने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वकालत शुरू की तो सरकार ने उन्हें विधि आयोग का सदस्य बना दिया। वे राजस्थान उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश न्याय़ाधिपति शिव कुमार शर्मा हैं। उच्च न्यायालय के अपने कार्यकाल में उन्हों ने दस हजार से ऊपर निर्णय हिन्दी में लिखाए हैं। साहित्य जगत में लोग इन्हें कुमार शिव के नाम से जानते हैं। आज अभिभाषक परिषद कोटा में एक संगोष्ठी उन के सानिध्य में हुई। जिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे। 

मुझे उन की 1978 में प्रकाशित एक संग्रह से कुछ  ग़ज़लें मिली हैं, उन्हीं में से एक यहाँ प्रस्तुत है-

कुमार शिव की एक 'ग़ज़ल'

सूरज पीला है ग़रीब का
आटा गीला है ग़रीब का

बन्दीघर में फँसी चान्दनी
तम का टीला है ग़रीब का

गोदामों में सड़ते गेहूँ
रिक्त पतीला है ग़रीब का

सुर्ख-सुर्ख चर्चे धनिकों के 
दुखड़ा नीला है ग़रीब का 

स्वर्णिम चेहरे झुके हुए हैं
मुख जोशीला है ग़रीब का  



सोमवार, 11 अप्रैल 2011

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

हमद सिराज फ़ारूक़ी एम.ए. (उर्दू) हैं, लेकिन यहाँ कोटा में अपना निजि व्यवसाय करते हैं। जिन्दगी की जद्दोजहद के दौरान अपने अनुभवों और विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से उकेरते भी हैं। 'विकल्प' जनसांस्कृतिक  मंच कोटा द्वारा प्रकाशित बीस रचनाओं की एक छोटी सी पुस्तिका उन का पहला और एक मात्र प्रकाशन है। अपने और अपने जैसे लोगों के सच को वे किस खूबी से कहते हैं, यह इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है .......

'ग़ज़ल'

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

  • हमद सिराज फ़ारूक़ी

बढ़ी है मुल्क में दौलत तो मुफ़लिसी क्यूँ है
हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्यूँ है

मिला कहीं जो समंदर तो उस से पूछूंगा
मेरे नसीब में आख़िर ये तिश्नगी क्यूँ है

इसीलिए तो है ख़ाइफ ये चांद जुगनू से 
कि इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

ये एक रात में क्या हो गया है बस्ती को
कोई बताए यहाँ इतनी ख़ामुशी क्यूँ है

किसी को इतनी भी फ़ुरसत नहीं कि देख तो ले
ये लाश किस की है कल से यहीँ पड़ी क्यूँ है

जला के खुद को जो देता है रोशनी सब को
उसी चराग़ की क़िस्मत तीरगी क्यूँ है

हरेक राह यही पूछती है हम से 'सिराज' 
सफ़र की धूल मुक़द्दर में आज भी क्यूँ है



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रविवार, 30 जनवरी 2011

गालियाँ रचें तो ऐसी ...

न दिनों हम लोग जो ब्लागीरी में हैं, गालियों से तंग हैं। एक तो जो नहीं होनी चाहिए वे गालियाँ ब्लागों में दिखाई पड़ती हैं, और जो होनी चाहिए, वे नदारद हैं। हिन्दी बोलियों के लोक साहित्य में गालियों का एक विशेष महत्व है। जब भी समधी मेहमान बन कर आता है, तो रात के भोजन के उपरांत घर की महिलाएँ अपने पड़ौस की महिलाओं को भी बुला लेती हैं और मधुर स्वर में गालियाँ गाना आरंभ कर देती हैं। इन में तरह तरह के प्रश्न होते हैं। धीरे-धीरे गालियाँ समधी बोलने पर बाध्य हो जाता है। जैसे ही वह बोलता है। महिलाएँ जोर से गाना आरंभ कर देती हैं -बोल पड्यो रे बोल पड्यो ...  फिर आगे पुनः गालियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोक साहित्य की इन गालियों को हमें संग्रह करना चाहिए। लोकभाषाओं और बोलियों के कवि और साहित्यकार इन का पुनर्सृजन भी कर सकते हैं। कुछ ब्लागर और ब्लागपाठक सड़क छाप गालियों का प्रयोग कर रहे हैं। उन में क्या रचनात्मकता है? सड़क से उठाई और दे मारी। गाली देना ही हो तो मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की हाडौती भाषा में रची इस ग़ज़ल से सीखें जिस में गालियों का परंपरागत स्वरूप दिखाई पड़ता है। यह भी देखिए 'यक़ीन' किसे गालियाँ दे रहे हैं ...


'गाली ग़ज़ल'
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

सात खसम कर मेल्या पण इतरा री छै
या सरकार छंद्याळ घणी छणगारी छै
(सात पति रख कर इतराती है, ये सरकार बहुत श्रंगार किए हुए छिनाल नारी है)
पोथी कानूनाँ की, रखैल डकैताँ की 
अर चोराँ-दल्लालाँ की महतारी छै
( कानून की किताब रखने वाली यह डकैतों की रखैल और चोरो व दलालों की माँ है)

पीढ़्याँ सात तईं तू साता न्हँ पावे
थारा बाप कै माथे अतनी उधारी छै
(सात पीढ़ी तक भी इसे शांति नहीं मिल सकती इस के पिता पर इतनी उधारी है)

बारै पाड़ोस्याँ पे तू भुज फड़कावै काँईं
भीतर झाँक कै जामण तंगा खारी छै
(बाहर के पडौसियों पर बाहें तानती है भीतर इस की माँ धक्के खा रही है) 

लत्ता फाट्या, स्याग का पीसा बी न्हैं बचे
नळ-बिजळी का बिलाँ में तनखा जारी छै
(तन के कपड़े फट गए हैं, सब्जी के लिए भी पैसे नहीं बचते, वेतन नल-बिजली के बिलों में ही समाप्त हो जाता है)

च्हारूँ मेर जुलम को बंध्र्यो छे धोरो
ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै
 (चारों ओर जुल्म की नहरें बह रही हैं इस सत्ता की तलवार ज़हर बुझी और दो धार वाली है)

मूंडौ देखै र भाया वै काढ़े छै तलक
ईं जुग में पण या ई तो हुस्यारी छै
(वे मुहँ देख देख कर तिलक लगातै हैं, यही तो इस युग की होशियारी है)

दळदारी की बात 'यक़ीन' करै काँईं
थारी ग़ज़ल बी अठी फोड़ा पा री छै
(यक़ीन तुम अपने दारिद्र्य की बात क्या करोगे यहाँ तो तेरी ग़ज़ल ही दुखः पा रही है )