@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Business
Business लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Business लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

राज्य, मनुष्य समाज से अलग और उस से ऊपर : बेहतर जीवन की ओर-7

मने अब तक मानव समाज की जांगल-युग से राज्य के विकास तक की यात्रा का संक्षिप्त अवलोकन किया। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर जैविक विकास के एक स्तर पर हम मानवों का उद्भव वानर जाति के किसी पूर्वज से हुआ है। मनुष्य के प्रारंभिक रूप होमोसेपियन्स को प्रकट हुए अधिक से अधिक पाँच लाख वर्ष और आधुनिक मानव का प्राकट्य दो लाख वर्ष पूर्व के आसपास का है। प्रसिद्ध अमरीकन नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन ने मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को तीन युगों में वर्गीकृत किया है। जांगल युग, बर्बर युग तथा सभ्यता का युग। उन्हों ने पहले दो युगों के मानव समाज के इतिहास की तर्कसंगत और तथ्यात्मक रूपरेखा को स्पष्ट करने का महत्बपूर्ण काम किया। उन्हों ने इन दो युगों को भी तीन-तीन भागों में विभाजित किया है। जांगल युग की पहली निम्न अवस्था जो हजारों वर्षों तक चली होगी और जिस में मनुष्य आंशिक रूप से वृक्षों पर निवास करता था, हिंसक पशुओं का सामना करते हुए जीवित रहने का एक मात्र यही तरीका उस के पास था। इस युग की विशेषता यही है कि मनुष्य बोलना सीख गया था। इस युग के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि हम एक बार मान लेते हैं कि मनुष्य का उद्भव जैविक विकास के परिणाम स्वरूप हुआ हुआ है तो हमें इस संक्रमण कालीन अवस्था को मानना ही होगा। जांगल युग की दूसरी मध्यम अवस्था में मनुष्य जल-जन्तुओं मछली, केकड़े, घोंघे आदि को भोजन के रूप में प्रयोग करने लगा था। इसी अवस्था में उस ने आग का प्रयोग सीखा। नदियों और समुद्र तटों की यात्रा करते हुए इसी युग में मनुष्य लगभग पृथ्वी के भूभाग पर फैल गया था। पुरापाषाण युग के औजार इसी अवस्था के हैं। इसी युग में पहले अस्त्रों गदा और भालों का आविष्कार हुआ। इसी युग में वह शिकार करने और कभी कभी मांस को भोजन में शामिल करने लगा था। तीसरे और जांगल युग की उन्नत अवस्था धनुष-बाण के आविष्कार से आरंभ हुई, लेकिन वह अब तक मिट्टी के बर्तन भांडे बनाने की कला नहीं सीख सका था। हाँ वह लकड़ी के बर्तन अवश्य बनाने लगा था। पेड़ों के खोखले तनों से नाव बनाना उस ने आरंभ कर दिया था। इसी अवस्था में उस ने जीवन निर्वाह के साधनों पर किसी तरह काबू पा लिया था और गाँवों में बसने लगा था।
र्बर युग की निम्न अवस्था तब आरंभ हुई जब उस ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख ली। मनुष्य लगभग सारी धरती पर इस समय तक पहुँच चुका था। इस काल तक मानव विकास पूरी पृथ्वी में एक जैसा मिलता है। लेकिन खेती सीख लेने के निकट पहुँच जाने पर अलग अलग क्षेत्रों की प्राकृतिक परिस्थितियाँ उसे अलग अलग तरीके से प्रभावित कर रही थीं। आगे का विकास बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि धरती के जिस क्षेत्र में वह निवास कर रहा है वहाँ की धरती, जलवायु, मौसम आदि किस प्रकार के हैं और उसे किस तरह के प्राकृतिक साधन उपलब्ध करा रहे हैं। ये सब चीजें मनुष्य के सामाजिक विकास की गति को भी प्रभावित कर रही थीं। यही एक कारण है कि एक भूभाग पर विकास की गति मंद दिखाई देती है तो दूसरे स्थान पर वह तेज दिखाई देती है।

र्बर युग की मध्यम अवस्था पशुपालन से आरंभ हुई। इसी युग में खाने लायक पौधों की सिंचाई के माध्यम से खेती का आरंभ और मकान बनाने के लिए धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग आरंभ हो जाता है। अमरीकी इंडियन यूरोप के लोगों द्वारा विजय प्राप्त कर लेने तक भी इसी अवस्था का जीवन जीते थे। पूर्वी गोलार्ध में यह अवस्था दूध और मांस देने वाले पशुओं के पालन से आरंभ हुई, वे अभी खेती करना नहीं जानते थे। खेती बाद में पशुओं के चारे के लिए आरंभ हुई। बर्बर युग की उन्नत अवस्था लौह खनिज को गलाने और लिखने की कला के आविष्कार से आरंभ हुई। इसी अवस्था में हम पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग देखते हैं। इसी युग में धातुओं के औजार, गाड़ियाँ और नगरों का निर्माण देखने को मिलता है। यहीं से सभ्यता का काल आरंभ हो जाता है। जांगल युग में प्रकृति के पदार्थों को हस्तगत करने की प्रधानता थी और इन्हीं कामों के लिए आवश्यक औजार मनुष्य उस युग में विकसित कर सका। बर्बर युग में मनुष्य ने पशुपालन और खेती करने का ज्ञान अर्जित किया तथा अपनी क्रियाशीलता के कारण प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखे। जांगल और बर्बर युगों का काल बहुत लंबा चलता है जिस के मुकाबले सभ्यता का वर्तमान युग आधुनिक मनुष्य (होमो सेपियन्स सेपियन्स) के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों का पाँच प्रतिशत से भी कम, केवल कुछ हजार वर्षों का है।
धुनिक मनुष्य के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों में से सभ्यता के युग के कुछ हजार वर्ष निकाल दें तो हम पाते हैं कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया। तब भी जब समूह में दास सम्मिलित होने से वर्ग उत्पन्न हो गए थे, दासों के अतिरिक्त स्वतंत्र समुदाय अपनी व्यवस्था को बिना किसी राज्य के रक्त संबंधों पर आधारित संस्थाओं के माध्यम से चलाता रहा था। राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। वह ऐसी शक्ति भी नहीं जो अचानक बाहर से ला कर मनुष्य समाज पर लाद दी गई हो। वह किसी नैतिक विचार या विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप भी नहीं है। वह मनुष्य समाज की उपज है जो विकास की एक निश्चित अवस्था में उत्पन्न हुई है। वह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि मनुष्य समाज ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया है, जिन्हें वह हल नहीं कर पा रहा है, उन के हल का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। उसे ऐसी शक्ति की आवश्यकता पड़ गई है जो मनुष्य समाज में पैदा हो गए इन अन्तर्विरोधों का हल खोज निकालने तक मनुष्य समाज को व्यर्थ के वर्गसंघर्ष से नष्ट होने से बचा ले चले। वह एक ऐसी शक्ति बन गई है जो ऊपर से मालूम पड़े कि वह मनुष्य समाज से अलग उस के ऊपर खड़ी है। इस शक्ति ने जिसे हम राज्य के नाम से जानते हैं, जो समाज से ही उत्पन्न हुई, उस ने समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लिया और उस से अधिकाधिक पृथक तथा दूर होती चली गई।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

राज्य की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की ओर -6

ब तक हमने देखा कि किस तरह शिकार करते हुए पशुओं के बारे में अनुभव ने मनुष्य को पशुपालन की और धकेला और इसी पशुपालन ने मनुष्य समाज में दास वर्ग को उत्पन्न किया। ये दास स्वामी समूह की सहायता करते थे। इन्हीं में से तरह तरह के दस्तकारों का एक नया वर्ग उभरा। जिस ने मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने में मदद की। पशुओं के लिए चारा पैदा करते हुए उस ने अपने खाने के लिए अनाज की खेती करना सीख लिया। लोहे से औजार बनाने की कला विकसित हुई जिस ने जंगलों को काट कर खेती लायक बनाना और उन्हें जोतना आसान कर दिया। पशुओं और दासों का विनिमय पहले प्रचलित था, लेकिन खेती से उत्पन्न प्रचुर मात्रा में अनाज व दूसरी फसलों ने विनिमय को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसी से एक नया व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआ।

ब तक जितने भी वर्ग थे उन के जन्म के साथ उत्पादन प्रक्रिया का सीधा संबंध था। लेकिन व्यापारी वर्ग का उत्पादन प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं था। इस नए वर्ग ने उत्पादकों में यह विश्वास पैदा कर दिया था कि वह उन के उत्पादन को कहीं भी खपाएगा और उस के बदले उन्हें उपयोगी वस्तुएं ला कर देगा। इस तरह बिना किसी उत्पादन प्रक्रिया में भाग लिए इस वर्ग ने उत्पादकों को अपने लिए उपयोगी सिद्ध कर दिया था। इस वर्ग ने उत्पादकों और उन के उपभोक्ताओं दोनों से ही अपनी सेवाओं के बदले मलाई लूटना आरंभ कर दिया और बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही धातु के बने सिक्कों का उपयोग आरंभ हो गया। हर किसी को अपने उत्पाद के बदले ये सिक्के प्राप्त होते जिन से वे दूसरी चीजें प्राप्त कर सकते थे। इस नए साधन के द्वारा माल पैदा न करने वाला माल पैदा करने वालों पर शासन कर सकता था। मालों के माल का पता मिल चुका था। वह एक जादू की छड़ी की तरह था जिसे पलक झपकते ही इच्छानुसार वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता था। अब उत्पादन के संसार में उसी का बोलबाला था जिस के पास यह जादू की छड़ी सब से अधिक मात्रा में होती थी। यह सिर्फ व्यापारी के पास हो सकती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि आगे सभी उत्पादकों को इस मुद्रा के आगे नाक रगड़नी पड़ेगी। सब माल इस मूर्तिमान माल के सामने दिखावा रह गए थे।

विभिन्न मालों, दासों और मुद्रा के रूप में सम्पदा के अतिरिक्त अब जमीन भी एक संपदा के रूप में सामने आ गयी थी। कबीलों से परिवारों को खेती करने के लिए जमीनों के जो टुकड़े मिले थे उन पर अब उन का अधिकार इतना पक्का हो गया था कि वे वंशगत संपत्ति बन गए थे। जमीन के इन नए मालिकों ने गोत्र और कबीलों के अधिकार के बंधनों को उतार फेंका था। यहाँ तक कि उन के साथ संबंधों को भी समाप्त कर लिया था। जमीन पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया था। अब जमीन ने भी माल का रूप धारण कर लिया था। उसे मुद्रा के बदले बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। उधर माल हासिल करने के लिए मुद्रा एक आवश्यक चीज बन गई थी। उसे उधार दिया जा सकता था जिस पर ब्याज वसूला जा सकता था। इस तरह सूदखोरी का जन्म हुआ। निजि स्वामित्व के साथ सूदखोरी और रहन वैसी ही चीजें थी जैसे एकनिष्ठ विवाह के साथ अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति थी। मुद्रा का चलन, सूदखोरी, निजि भूस्वामित्व और रहन के साथ व्यापार के विस्तार से एक छोटे वर्ग के पास बड़ी तेजी से धन संग्रह होने लगा तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ने लगी। तबाह और दिवालिया लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी। इस से समाज में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। एथेंस में समृद्धि के उत्कर्ष के समय स्त्रियों और बच्चों सहित स्वतंत्र लोगों की संख्या मात्र 90,000 थी जब कि दासों की संख्या 3,65,000 थी। कोरिंथ और ईजिना नगरों मे दासों की संख्या स्वतंत्र लोगों के मुकाबले दस गुना थी।

लेकिन अब तक उन आदिकालीन संस्थाओं का हाल क्या हुआ यह भी देख लिया जाए। गोत्र व कबीले उन की इच्छा और सहायता के बिना पैदा हो गई नई चीजों के सामने निस्सहाय हो गये। गोत्रों और कबीलों का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि उन के सभी सदस्य एक इलाके में रहें और दूसरे न रहें। लेकिन ऐसा तो बहुत समय से नहीं रह गया था। गोत्र और कबीले आपस में घुल मिल गए थे। हर स्थान पर स्वतंत्र नागरिकों के बीच दास, आश्रित और विदेशी लोग रहने लगे थे। पशुपालन से खेती में संक्रमण से यायावरी ने जो स्थावरता हासिल की थी वह अब फिर से समाप्त हो रही थी। लोगों की गतिशीलता और निवास परिवर्तन उसे तोड़ रहा था। व्यापार धंधे बदलने, भूमि के अन्य संक्रमण से यह संचालित हो रहा था। गोत्र और कबीलों के सदस्यों के लिए यह संभव नहीं था कि वे सामुहिक मामलों को निपटाने के लिए एक स्थान पर एकत्र हो सकें। वे अब गौण महत्व के धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों के समय ही आपस में एकत्र होते थे, वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएँ जिन जरूरतों को हितों की देखभाल करती थीं उन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन की अवस्थाओं में क्रांति तथा उस के अनुरूप सामाजिक ढांचे में हुए परिवर्तन से कुछ नई जरूरतें और नए हित भी पैदा हो गए थे। जिन्हें गोत्र समाज की संस्थाएँ नहीं संभाल सकती थीं। श्रम विभाजन से दस्तकारों के नए समूह पैदा हुए थे। उन के हितों और देहात के मुकाबले नगरों के विशिष्ठ हितों के लिए नए निकायों की आवश्यकता थी।

न नए निकायों का निर्माण गोत्र समाजों के समानान्तर और गोत्र समाज के बाहर उस के विरोध में होने लगा। गोत्र समाज की प्रत्येक संस्था के भीतर अमीरों-गरीबों, सूदखोरों-कर्जदारों के एक साथ होने के कारण भीतरी टक्कर चरम सीमा पर पहुँच गई। रक्त संबंधों पर आधारित ये गोत्र, कबीले बाहरी लोगों की उपस्थिति को अपने अंदर जज्ब करने की क्षमता नहीं रखते थे। इस तरह गोत्र समाज का लोकतंत्र अब एक तरह का घृणित अभिजात तंत्र बन गया था। इन परिस्थितियों में एक ऐसा समाज उत्पन्न हो गया था जिस ने अनिवार्यतः स्वयं को स्वतंत्र नागरिकों और दासों में, शोषक धनिकों और शोषित गरीबों में विभाजित कर दिया था। लेकिन वह इन वर्गो में सामंजस्य लाने में असमर्थ था और स्वयं ही इन में और अधिक दूरियाँ पैदा कर रहा था। इस से एक तो यह हो सकता था कि ये वर्ग एक दूसरे के विरुद्ध खुला संघर्ष चलाते रहें और मारकाट व अराजकता की स्थितियाँ बन जाएँ। दूसरे यह हो सकता था कि एक तीसरी शक्ति का शासन हो जो देखने में संघर्षरत वर्गों से अलग तथा उन से ऊपर दिखाई पड़े और उन्हें खुले संघर्ष न चलाने दे। अधिक से अधिक उन्हें आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित रीति से संघर्ष करने की छूट दे दे। श्रम विभाजन और समाज के वर्गों में बँट जाने से गोत्र व्यवस्था की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी। उस का स्थान इस नयी जन्मी तीसरी शक्ति 'राज्य' ने ले लिया था।

सेना और व्यापारियों की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की तलाश-5


 शुओं के रूप में उत्पन्न हुई संपत्ति ने मातृवंश को पितृसत्ता में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रीति से चुपचाप अवश्य हुआ, लेकिन इस का सफर आसान नहीं था। पशुपालन के पूर्व तक गोत्रों के पास संपत्ति थी ही नहीं। पशुओं को पकड़ कर लाने, उन्हें पालतू बनाने और युद्ध बंदियों को दास बना कर रखने का काम पुरुषों ने किया था, इस कारण समूह के पुरुष ही इस पहली संपत्ति के स्वामी थे। पशुपालन और रेवड़ों में पशुओं की संख्या बढ़ने से उन के बदले कुछ भी प्राप्त किया जा सकता था। वे विनिमय का साधन हो गए, वे मुद्रा का काम करने लगे। पशुओं के बदले प्राप्त वस्तुएँ भी पुरुषों की संपत्ति हो गईं। पुरुषों ने घर के बाहर के सब काम संभाले और स्त्री के पास पहले से घर के अंदर के जो काम थे वे ही उन के पास रह गए। आजीविका का काम पुरुषों के पास आ जाने से घर के अंदर के कामों के कारण जो प्रमुख स्थान स्त्रियों को प्राप्त था, अब उसी कारण से स्त्रियों का स्थान गौण हो गया। उन के घरेलू कामों का महत्व जाता रहा। सामाजिक उत्पादन में उस का कोई योगदान नहीं रहा। इसी से हम आज यह सीख ले सकते हैं कि जब तक केवल घर के काम स्त्रियों के पास रहेंगे उन का पुरुषों के साथ बराबरी का हक प्राप्त करना असंभव है, और असंभव ही रहेगा। वे तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब बड़े सामाजिक पैमाने पर वे उत्पादन में भाग लेने लगें। मातृवंश के स्थान पर पितृसत्ता के कायम होने से समूह पर पुरुष की तानाशाही पूरी तरह स्थापित हो गयी। इस तरह संपत्ति के उद्भव ने स्त्री-पुरुष के बीच जो भेद कायम किया वह आज तक चला आ रहा है।
लोहे के आविष्कार ने जंगलों को काट कर खेती योग्य भूमि तैयार करने और भूमि को बड़े पैमाने पर जोतना संभव कर दिया। इस से खेती का विस्तार होने लगा। दस्तकारों को सख्त और तेज औजार मिल गए। धीरे धीरे पत्थर के औजार गायब होने लगे। कबीलों के और कबीलों के महासंघ के मुख्य स्थान नगर हो गए। बुर्जों और दरवाजों से युक्त चहारदिवारी के घेरे में पत्थर और ईंटों के मकान बनने लगे। यह वास्तुकला के विकास और संपदा के कारण उत्पन्न खतरों से प्रतिरक्षा की आवश्यकता के द्योतक थे। संपत्ति बढ़ रही थी और यह अलग अलग व्यक्तियों की थी। बुनाई, धातुकर्म, दस्तकारों का अपना विशिष्ठ रूप होता जा रहा था। खेती से अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ ही नहीं तेल और शराब भी मिलने लगे। कुछ लोग इन्हें बनाने की कला में विशिष्ठता हासिल करने लगे। इतने तरह के काम होने लगे थे कि हर कोई सब काम नहीं कर सकता था। इस से श्रम विभाजन हुआ और खेती से दस्तकारी अलग हो गई। इस से उत्पादन क्षमता बढ़ी, उस ने मानव की श्रम शक्ति का मूल्य बढ़ा दिया। इस से दासों का महत्व बढ़ गया। अब वे केवल सहायक नहीं रह गये। उन्हें कई तरह के कामों में झोंका जाने लगा। उत्पादन के खेती और दस्तकारी में बंट जाने से विनिमय के लिए ही माल का उत्पादन होने लगा। इस से कबीलों की सीमाओं के पार यहाँ तक कि समुद्र पार तक व्यापार होने लगा।
ब स्वतंत्र लोगों और दास के भेद के साथ ही अमीर गरीब का भेद भी दिखाई देने लगा। सामुदायिक कुटुम्ब कायम थे लेकिन उन के मुखियाओं के पास अधिक या कम संपदा होने के आधार पर वे टूटने लगे। समुदाय द्वारा मिल कर खेती करने की प्रथा भी समाप्त होने लगी। जमीन परिवारों में बंटने लगी। इस तरह निजि स्वामित्व में संक्रमण आरंभ हुआ। परिवार भी निजि स्वामित्व के बढ़ने के साथ ही एकनिष्ठ होने लगे। परिवार समाज की आर्थिक इकाई बन गए। आबादी के घनी होने से यह आवश्यक हो गया कि वह आंतरिक और बाह्य रूप से पहले से अधिक एकताबद्ध हो। पहले एक दूसरे से रिश्ते से जुड़े कबीलों के महासंघ बने और फिर कुछ समय बाद उन का विलय होने लगा। कबीलों के इलाके मिल कर एक जाति का इलाका बन गए। गोत्र समाज एक सैनिक लोकतंत्र के रुप में विकसित होने लगे। युद्ध करना और युद्ध के लिए संगठन करना जन जीवन का नियमित अंग बनने लगा। पड़ौसी जाति की दौलत देख कर ललचाना, उसे हासिल करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। उत्पादक श्रम से दौलत हासिल करने के स्थान पर लूटमार कर के हासिल करना अधिक आसान और सम्मानप्रद था। पहले जहाँ आक्रमण का बदला लेने या अपर्याप्त क्षेत्र को बढ़ाने के लिए ही युद्ध होते थे अब संपदा हासिल करने के लिए भी होने लगे। युद्धों ने सेना नायकों, उपनायकों की शक्ति को बढ़ा दिया। एक ही परिवार से उत्तराधिकारी चुने जाने की प्रथा वंशगत उत्तराधिकार में बदल गई। इस तरह वंशगत बादशाहत और अभिजात वर्ग की नींव पड़ गई। गोत्र व्यवस्था की जड़ें जनता के बीच से उखाड़ दी गईं। अपने मामलों की खुद व्यवस्था करने वाले कबीलों के संगठन अब पड़ौसियों को लूटने और सताने के संगठन बन गए। उसी के अनुसार गोत्र संगठनों के निकाय जनता की इच्छा को कार्यान्वित करने के स्थान पर जनता पर शासन करने और अत्याचार करने वाले स्वतंत्र निकाय बन गए।
न नयी परिस्थितियों ने श्रम विभाजन को और मजबूत किया। शहर और देहात का अंतर और अधिक बढ़ गया। एक और श्रम विभाजन हुआ। इस से एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो उत्पादन में बिलकुल भाग नहीं लेता था। वह केवल विनिमय करता था। यह व्यापारी वर्ग था। यह ऐसा वर्ग सामने आया था जो उत्पादन में बिलकुल भी भाग न लेते हुए भी उस के प्रबंध पर पूरा अधिकार जमा लेता था और उत्पादकों को अपने अधीन कर लेता था। वह उत्पादकों के बीच ऐसा बिचौलिया बन गया था जिस के बिना उन का काम नहीं चलता था और वह दोनों का शोषण करता था। इस अवस्था में इस नवोदित व्यापारी वर्ग को कल्पना भी नहीं थी कि भविष्य में उस के भाग्य में कितनी ही बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं।