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सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

"बेहतर कैसे लिखा जाए?"

ल मैं ने कहा कि साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा।  वास्तविकता यह है कि जब से मनुष्य ने लिपि का आविष्कार किया और वह उस का प्रयोग करते हुए अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुँचाने लगा, तब से ही वह उस माध्यम को तलाशने लगा जहाँ लिपि को उकेरा जा सके और दूसरों तक पहुँचाया जा सके।  मिट्टी की मोहरें, पौधों के पत्ते, पेड़ों की छालें, कपड़ा, कागज, प्लास्टिक और न जाने किस किस का उस ने इस्तेमाल कर डाला। कागज पर आ कर उस की यह तलाश कुछ ठहरी और उस का तो इस कदर इस्तेमाल किया गया है कि जंगल के जंगल साफ हुए हैं। लेकिन इस सफर में बहुत सी चीजें ऐसी थीं जिन्हें कागज पर नहीं उकेरा जा सकता था, जैसे ध्वन्यांकन, और चल-चित्र। इन के लिए उसने दूसरे साधन तलाश किये। प्लास्टिक फिल्म से ले कर कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक का उपयोग किया गया। इस काम के लिए उपयोग की गई डिस्क ने एक मार्ग और खोज लिया। उस पर लिपि को बहुत ही कम स्थान पर अंकित किया जा सकता था। अब लिपि भी उस में अंकित होने लगी। लेकिन लिपि, ध्वन्यांकन, चल-दृश्यांकन आदि को अंकित ही थोड़े ही होना था, उन्हें तो पढ़ने वाले के पास पहुँचना था। इस के लिए इंटरनेट का आविष्कार हुआ। आज कंप्यूटर और इंटरनेट ने मिल कर एक ऐसा साधन विकसित किया है जिस पर आप कुछ भी अंकित कर देते हैं तो वह न केवल दीर्घावधि के लिए सुरक्षित हो जाता है, अपितु दुनिया भर में किसी के लिए भी उसे पढ़ना, देखना, सुनना संभव है, वह भी कभी भी, किसी भी समय। 
तो जान लीजिए कंप्यूटर और इंटरनेट कागज से बहुत अधिक तेज, क्षमतावान माध्यम है। यह कागज की जरूरत को धीरे-धीरे कम करता जा रहा है। वह मौजूदा पीढ़ी का माध्यम है, विज्ञान यहीं नहीं रुक रहा है। हो सकता है इस से अगली पीढ़ी का माध्यम भी अनेक वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में जन्म ले चुका हो, हो सकता है कि वह कहीँ लैब में भौतिक रूप भी ले चुका हो और यह भी हो सकता है कि उस का परीक्षण चल रहा हो। जीवन और उस की प्रगति दोनों ही नहीं रुकते। पर हमें आज इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि कागज हमारा हमेशा साथ नहीं देगा। इस के लिए नए माध्यमों की ओर हमें जाना ही होगा। जो यदि न जाएंगे और कागज के भरोसे बैठे रहेंगे तो उनकी कुछ ही बरसों में वैसी ही स्थिति होगी जैसी कि आज कल घर में दो बाइकों और कार के साथ कोने में खड़े बजाज स्कूटर की हो चुकी है। जिसे उस का मालिक रोज कबाड़ी को देने की सोचता है, लेकिन केवल इसीलिए रुका रहता कि शायद कोई इस का उपयोग करने की इच्छा रखने वाला कुछ अधिक कीमत दे जाए। 

लेकिन हम लोग जो इस नवीनतम माध्यम पर आ गए हैं। केवल इसी लिए अजर-अमर नहीं हो गए हैं कि हम कुछ जल्दी यहाँ आ गए हैं। हम केवल इसीलिए साहित्य सर्जक नहीं हो जाते कि हम इस नवीनतम माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। हमें निश्चित रूप से जैसा सृजन कर रहे हैं, उस से बेहतर सृजन करना होगा। अपनी अपनी कलाओं में निष्णात होना होगा। हमें बेहतर से बेहतर पैदा करना होगा। जो लोग कागज को बेहतर मानते हैं वे चाहे यह स्वीकार करें न करें कि कभी इंटरनेट बेहतर हो सकता है। लेकिन हम जो इधर आ चुके हैं, जानते हैं कि वे सभी एक दिन इधर आएंगे। इसलिए हमें उन तमाम लोगों से बेहतर सृजन करना होगा। इसलिए हम सभी लोगों का जो इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं,  सब से बड़ा प्रश्न होना चाहिए कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा

नुष्य का इस धरती पर पदार्पण हुए कोई अधिक से अधिक चार लाख और कम से कम ढाई लाख वर्ष बीते हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि आरंभ में वह अन्य प्राणियों की तरह ही एक दूसरे के साथ संप्रेषण करता होगा। मात्र ध्वनियों और संकेतों के माध्यम से। 30 से 25 हजार वर्ष पहले पत्थर की चट्टानों पर मनुष्य की उकेरी हुई आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं, जो बताती हैं कि तब वह स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए चित्रांकन करने लगा था। कोई 12 से 9 हजार वर्ष पहले जब उस ने खेती करना सीख लिया तो फिर उसे गणनाओं की आवश्यकता होने लगी और फिर हमें उस के बनाए हुए गणना करने वाले टोकन प्राप्त होते हैं। फिर लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व हमें मोहरें दिखाई देने लगती हैं जिन से रेत या मिट्टी पर एक निश्चित चित्रसंकेत को उकेरा जा सकता था। इस चित्रलिपि से वर्षों काम लेने के उपरांत ही शब्द लिपि अस्तित्व में आ सकी होगी जब हम भोजपत्रों पर लेखन देखते हैं। इस के बाद कागज का आविष्कार और फिर छापेखाने के आविष्कार से लिखी हुई सामग्री की अनेक प्रतियाँ बना सकना संभव हुआ। सचल टाइप का प्रयोग 1040 ईस्वी में चीन में और धातु के बने टाइपों का प्रयोग 1230 ई. के आसपास कोरिया में आरंभ हुआ। इस तरह हमें अभी पुस्तकों की अनेक प्रतियाँ बनाने की  कला सीखे हजार वर्ष भी नहीं हुए हैं। तकनीक के विकास के फलस्वरूप हम एक हजार वर्ष से भी कम समय में अपना लिखा सुरक्षित रखने के लिए कंप्यूटर हार्डडिस्कों का प्रयोग करने लगे हैं, इंटरनेट ने यह संभव कर दिखाया है कि इस तरह हार्डडिस्कों पर सुरक्षित लेखन एक ही समय में हजारों लाखों लोग एक साथ अपने कंप्यूटरों पर देख और पढ़ सकते हैं, उस सामग्री को अपने कंप्यूटर पर सुरक्षित कर सकते हैं और उस की कागज पर छपी हुई प्रति हासिल कर सकते हैं। 
मैं यह बातें यहाँ इसलिए लिख रहा हूँ कि अभी हाल ही में यह कहा गया कि "जितने भी अप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैं, वे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे , न  कर सकते क्योंकि वह उनके कूबत से बाहर है।" यह भी कहा गया कि साहित्य के क्षेत्र में नाम वाले लोग नेट पर नहीं आते। नेट का उपयोग सरप्लस पूंजी यानि कंप्यूटर और मासिक नेट खर्च और ब्लॉग-पार्टी का उपयोग कर संभ्रांत जन में अपना प्रभाव जमाने के लिये ही हो रहा है। नेट पर समर्पित होकर काम करने वालों को यहां  निराशा ही  हाथ लगती है। यहाँ चीजें बिल्कुल नये रूप में उपलब्ध नहीं होती।(बासी हो कर आती हैं)
इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में बिना किसी खर्च के अपना लिखा लोगों के सामने रख देने की जो सुविधा उत्पन्न हुई है, उस के कारण बहुत से, बल्कि अधिकांश लोग अपना लिखा इंटरनेट पर चढ़ाने लगते हैं कि इस से बहुत जल्दी वे प्रसिद्ध हो जाएंगे और बहुत सा धन कमाने लगेंगे। लेकिन कुछ ही महिनों में उन्हें इस बात से निराशा होने लगती है कि उन्हें पढ़ने वाले लोगों की संख्या 100-200 से अधिक नहीं है, और यहाँ वर्षों प्रयत्न करने पर भी धन और सम्मान मिल पाना संभव नहीं है। मुझे लगा कि उक्त आलोचना इसी बात से प्रभावित हो कर की गई है। 
लेकिन यदि हम संप्रेषण के इतिहास को देखें जो बहुत पुराना नहीं है, तो पाएंगे कि प्रिंट माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं। उस के द्वारा भी सीमित संख्या में ही लोगों तक पहुँचा जा सकता है। प्रिंट का माध्यम भी अभिव्यक्ति के लिए सीमित है। वहाँ भी केवल भाषा और चित्र ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यही कारण है कि प्रिंट के इस माध्यम के समानांतर ध्वनि और दृश्य माध्यम विकसित हुए। हम देखते हैं कि पुस्तकों की अपेक्षा फिल्में अधिक प्रचलित हुईं। टेलीविजन अधिक लोकप्रिय हुआ। कंप्यूटर किसी लिपि में लिखी हुई सामग्री को जिस तरह संरक्षित रखता है, उसी तरह दृश्य और ध्वन्यांकनों को भी संरक्षित रखता है। इंटरनेट इन सभी को पूरी दुनिया में पहुँचा देता है। इस तरह हम देखते हैं कि इंटरनेट वह आधुनिक माध्यम है जो संचार के क्षेत्र में सब से आधुनिक लेकिन सब से अधिक सक्षम है।
साहित्य के लिए इंटरनेट के मुकाबले प्रिंट एक पुराना और स्थापित माध्यम है, वहाँ साहित्य पहले से मौजूद है। लेकिन अब जहाँ पेपरलेस कम्युनिकेशन की बात की जा रही है। वहाँ साहित्य  को केवल पुस्तकों में सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे इंटरनेट पर आना होगा। एक बात और कि इंटरनेट पर लिखा तुरंत उस के पाठकों तक पहुँचता है। जब कि प्रिंट माध्यम से उसे पहुंचने में कम से कम एक दिन और अनेक बार वर्षों व्यतीत हो जाते हैं। यह कहा जा सकता है कि अभी इंटरनेट की पहुँच बहुत कम लोगों तक है, लेकिन उस की लोगों तक पहुँच तेजी से बढ़ रही है। मैं ऐसे सैंकड़ों  लोगों को जानता हूँ जिन्हों ने बहुत सा महत्वपूर्ण लिखा है। पुस्तक रूप में लाने के लिए उन की पाण्डुलिपियाँ तैयार हैं और प्रकाशन की प्रतीक्षा में धूल खा रही हैं। बहुत से लेखकों की पुस्तकें छपती भी हैं तो 500 या 1000 प्रतिलिपियों में छपती हैं और वे भी बिकती नहीं है। केवल मित्रों और परिचितों में वितरित हो कर समाप्त हो जाती हैं। इस के मुकाबले इंटरनेट पर ब्लागिंग बुरी नहीं है। हम जल्दी ही देखेंगे कि दुनिया भर का संपूर्ण महत्वपूर्ण साहित्य इंटरनेट पर मौजूद है।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

इंतजार खत्म !! किताब हाज़िर है ........................ "शब्दों का सफ़र"

जिस किताब का अर्से से मुझे इंतजार था,  वह कल भोपाल पुस्तक मेले में पहुँच रही है।  
ज जब भाई अजित वडनेरकर ने बताया कि " शब्दों का सफर" पुस्तक श्रृंखला की पहली पुस्तक भोपाल में आयोजित राजकमल प्रकाशन के पुस्तक मेले में पहुँच रही है तो अपनी प्रसन्नता का वारापार नहीं रहा। अजित के इसी नाम के हिन्दी ब्लाग का कब से उपयोग करता आ रहा हूँ। लेकिन मन नहीं भरता। इच्छा होती है कि यह सब किताब के रूप में अपने कार्यालय की सब से नजदीक की शेल्फ पर हो। अजित भाई के श्रम ने यह दिन दिखाया। 'शब्दों का सफर' अब पुस्तक रुप में आ चुका है और बिना जंघशीर्ष साथ लिए मैं इसे अपने सफरी थैले में साथ रख कर ले जा सकता हूँ और यात्रा के समय का सदुपयोग कर सकता हूँ। कल पहली बार यह किताब भोपाल पुस्तक मेले में पहुंचने वाले लोगों को देखने को मिलेगी। जो कल नहीं पहुँच सकते हों वे इसे दो दिन और देख सकते हैं जब तक हिन्दी भवन, पॉलिटेक्नीक चौराहा, भोपाल में यह पुस्तक मेला उपलब्ध है। 

ल ही शाम 6.30 बजे पुस्तक मेला स्थल पर लेखक से मिलिए कार्यक्रम में अजित जी उपलब्ध होंगे। भोपाल और नजदीक के लोग तो इस अवसर पर वहाँ उपस्थित होंगे ही। क्या नज़ारा हो सकता है यह सोच कर ही मैं रोमांचित हो उठा हूँ। यह दुर्भाग्य ही है कि मैं भोपाल में नहीं हूँ। कल ही कोटा में मोहन न्यूज एजेंसी को बोलता हूँ कि राजकमल से इस पुस्तक की प्रतियाँ बिक्री के लिए मंगा लें और पहली प्रति मुझे विक्रय करें।  आप भी अपने नजदीक के पुस्तक विक्रेता को ऐसा ही कह सकते हैं। वैसे राजकमल की वेबसाइट पर आर्डर देकर भी इसे सीधे मंगाया जा सकता है।

रविवार, 22 नवंबर 2009

"फिल वक्त" महेन्द्र 'नेह' की एक कविता 'थिरक उठेगी धरती से'

ज मथुरा में महेन्द्र 'नेह' के नए काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण है। उन के पिता श्री विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' का स्मृति समारोह भी है। निजि कारणों से इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ, इस का बहुत अफसोस भी है। इस अवसर पर इस काव्य संकलन से एक कविता आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद इसे ही उस समारोह में मेरी उपस्थिति मान ली जाए। 

फिल वक्त
  • महेन्द्र 'नेह' 

फिल वक्त
खामोश हैं / मेरे साथी


इस खामोशी में 
पल रहे हैं बवंडर
इस खामोशी में 
छुपी हैं समूची धरती की 
झिलमिलाती तस्वीरें / जिन पर 
इन्सानी फसलों को तबाह करते
खूनखोर जानवरों ने 
रख दिए हैं अपने / भारी भरकम बूट


पाँवो सहित 
तोड़ दिए जाएँगे बूट
तब हिंसा नहीं / प्रतिहिंसा होगी मुखर
जब टूटेगी खामोशी
मेरे साथियों की


धरती / अपनी धुरी पर
तनिक और झुकेगी
और तेजी से थिरक उठेगी तब 


फिल वक्त
खामोश हैं मेरे साथी।

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शनिवार, 21 नवंबर 2009

महेन्द्र 'नेह' के काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण विश्वंभर नाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' समारोह में 22 नवम्बर को

प अष्टछाप के कवियों कुम्भनदास (१४६८ ई.-१५८२ ई.), सूरदास (१४७८ ई.-१५८० ई.), कृष्णदास (१४९५ ई.-१५७५ ई.), परमानन्ददास (१४९१ ई.-१५८३ ई.), गोविन्ददास (१५०५ ई.-१५८५ ई.), छीतस्वामी (१४८१ ई.-१५८५ ई.), नन्ददास (१५३३ ई.-१५८६ ई.) और चतुर्भुजदास से अवश्य ही परिचित होंगे। इन में 'छीतस्वामी' स्वामी के वंश में प्रत्येक पीढ़ी में कम से कम एक वंशज कवि अवश्य ही हुआ है। इन्हीं के वंश में थे विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री'। वे स्वातंत्र्य चेतना, जनतांत्रिक मूल्यों, और श्रम सम्मान के उन्नायक; शिक्षा, साहित्य व संस्कृति के साधक; और पेशे से अध्यापक थे। प्रतिवर्ष उन की स्मृति में एक समारोह का आयोजन मथुरा के उन के प्रेमी और प्रशंसक करते हैं। इस वर्ष भी उन का स्मृति समारोह 22 नवम्बर,2009 रविवार को का. धर्मेंद्र सभागार बिजलीघऱ केंट, मथुरा में अपरान्ह 2 बजे से आयोजित किया जा रहा है।

स समारोह में मुख्य अतिथि साहित्यकार और समालोचक डॉ. जीवन सिंह हैं और अध्यक्षता डॉ. अनिल गहलोत कर रहे हैं। इस समारोह में कोटा से नाटककार-कवि शिवराम, दिल्ली से कवि रामकुमार कृषक, बड़ौदा से कवि डॉ. विष्णु विराट, जयपुर से कवि शैलेंद्र चौहान. रतलाम से कवि अलीक, दिल्ली से कवि रमेश प्रजापति और मथुरा से हनीफ मदार उपस्थित रहेंगे, समारोह का संचालन शिवदत्त चतुर्वेदी करेंगे। समारोह में एक परिचर्चा 'यह दौर और कविता' विषय पर होगी और महेन्द्र 'नेह' के काव्य संकलन 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण होगा। समारोह में सम्मिलित होने वालों के लिए रविकुमार (रावतभाटा) के कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी बोनस होगी।

मैं ने आरंभ में ही कहा था कि छीत स्वामी के वंशजों की हर पीढ़ी में कोई न कोई कवि हुआ है। स्व. विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' की अगली पीढ़ी के कवि आप के चिर-परिचित महेन्द्र 'नेह' हैं जिन के काव्य संग्रह का लोकार्पण इस समारोह में होना है। मेरी इस समारोह में उपस्थित होने की अदम्य इच्छा थी, पिछले पूरे सप्ताह यात्रा पर होने और थकान व सर्दी के असर से पीड़ित होने से मैं स्वयं इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। लेकिन यह मथुरा और आस-पास के लोगों के लिए अनुपम अवसर है इस समारोह में उपस्थित होने और इन सभी साहित्यिक व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त करने का। आप सभी इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।