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शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

वर्तमान में श्रेष्ठ हिन्दी ब्लाग संकलक 'हमारी वाणी'

जून 18, 2010 को ब्लागवाणी अचानक तंद्रा में चली गई। बहुत हंगामा हुआ, लोगों ने तरह-तरह के सुझाव दिए कि किसी भी तरह ब्लागवाणी की तंद्रा टूटे और वह वापस सजग हो मैदान में आ जाए। लेकिन छह माह से अधिक समय हो चुका है,  अभी तक ब्लागवाणी तंद्रा में है। फिर दिसम्बर 2010 के अंत तक चिट्ठाजगत ने बिना कुछ कहे विदाई ले ली। इस बार बहुत हो हल्ला नहीं हुआ। लेकिन अचानक दो सब से महत्वपूर्ण संकलकों की अनुपस्थिति इन दिनों ब्लागर बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहे हैं। प्रतिदिन ही कहीं न कहीं यह बात सामने आती है कि एक अच्छा संकलक होना चाहिए। हालाँकि ब्लागवाणी अभी जहाँ रुकी थी वहाँ अभी भी नजर आती है और इस पर सदस्य लोगिन भी हो रहा है। कभी भी इस की तंद्रा टूट सकती है।

संकलक की इस कमी को पूरा करने के लिए पहले तो हिन्दी ब्लाग जगत सामने आया। यह ब्लागस्पॉट की कुछ सुविधाओं का उपयोग कर बनाया गया एक संकलक जैसा ब्लाग है। इस के कुछ दिन बाद ही जर्मनी के लोकप्रिय ब्लागर राज भाटिया जी ब्लाग परिवार नाम से हिन्दी ब्लाग जगत जैसा ही एक ब्लाग ले कर सामने आए। अब राज भाटिया जी चाहते हैं कि वे एक एग्रीगेटर बनाना चाहते हैं, लेकिन उन के पास तकनीकी जानकारी की कमी है। उन्हें कोई तकनीकी सहयोग करे तो वे एक ऐसा संकलक लाना चाहते हैं जिस का अपना खुद का डोमेन हो, जिस के बारे में उन का आश्वासन है कि वह उन के जीतेजी बन्द नहीं होगा। राज जी बहुत बड़ा काम हाथ में ले रहे हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि वे इस काम को करने में सफल हो सकेंगे और हिन्दी ब्लाग जगत को एक अच्छा संकलक मिल जाएगा।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि एक अच्छा संकलक मौजूद ही न हो। ब्लागवाणी बन्द होने के उपरांत कुछ हिन्दी ब्लागरों के प्रयास से ही हमारी-वाणी आरंभ हुआ और वह बहुत अच्छे तरीके से काम करते हुए अधिकांश उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहा है जिन की पूर्ति ये दोनों महत्वपूर्ण संकलक कर रहे थे। यह संकलक इस के विकास के लिए लगातार सुझाव भी आमंत्रित कर रहा है। यदि किसी ब्लॉगर को कोई कमी इस में दिखाई देती है तो वह सुझाव दे सकता है। इन सुझावों के आधार पर इस का विकास होता रहे तो हमारी-वाणी एक संपूर्ण हिन्दी/भारतीय संकलक का स्थान ले सकता है। अभी इस संकलक के लिंक 'ताजा ताजा ' ताजा पोस्टें विवरण सहित देखी जा सकती हैं। यदि कोई विवरण न देख कर ब्लागपोस्ट का शीर्षक ही देखना चाहे तो  'ताजा 100 ' लिंक पर जा कर देख सकता है। इस के अतिरिक्त ब्लागर 'मेरा पन्ना' लिंक पर जा कर स्वयं की प्रोफाइल देख सकता है तथा 'हमारे साथी' पर जा कर इस संकलक पर सदस्य ब्लागीरों की सूची देख सकता है। इस के अतिरिक्त इस संकलक पर अधिक 'पसंद' और ज्यादा पढ़े गए ब्लागों की सूची भी क्रमवार उपलब्ध है। एक विशेषता यह भी है कि यदि कोई ब्लागपोस्ट किसी समाचार पत्र में स्थान पाती है तो उसे अलग से दिखाया गया है, जैसे दैनिक जागरण में आज ही छपी तीसरा खंबा की पोस्ट के बारे में यहाँ सूचित किया  गया है और लिंक को क्लिक करने पर 'ब्लाग इन मीडिया' की लिंक खुलती है। यही नहीं यहाँ नये जुड़े ब्लागों को अलग  से सूची भी उपलब्ध है। इस तरह यह संकलक ब्लागीरों की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ती करता है।
र्तमान में यदि कोई कमी दिखाई देती है तो वह यह है कि इस संकलक पर कुल 892 ब्लाग के ही लिंक उपलब्ध हैं, अर्थात इन्हीं ब्लागों की पोस्टों की सूचनाएँ इस संकलक पर उपलब्ध हो पाती हैं। जब कि हिन्दी ब्लागों की संख्या इस से लगभग 12 गुना अधिक तक जा चुकी है। इस कमी को भी पूरा किया जा सकता है। इस के दो तरीके हैं, पहला तो यह कि स्वयं संकलक संचालक शेष हिन्दी ब्लागों को इस से जोड़ दें, दूसरा यह कि स्वयं ब्लाग संचालक अपने ब्लाग को इस संकलक पर पंजीकृत कराएँ। दूसरा मार्ग अधिक उचित प्रतीत होता है कि जो भी ब्लागीर अपने ब्लाग को इस संकलक पर दिखाना चाहता है,  पहले स्वयं सदस्य बने और फिर ब्लाग को पंजीकृत कराए। 
मेरी दृष्टि में 'हमारी वाणी' एक अच्छे संकलक की लगभग सभी जरूरतें पूरी करता है और हिन्दी ब्लागों के लिए बहुपयोगी संकलक है। जिन ब्लागीर साथियों ने अभी इस संकलक पर खुद को सदस्य नहीं बनाया है, तुरंत इसकी सदस्यता ग्रहण करें और अपने ब्लागों को इस पर पंजीकृत कराएँ। 


सोमवार, 29 नवंबर 2010

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

पिछली 29 अक्टूबर की पोस्ट में मैं ने ब्लागीरी में पिछले दिनों हुई अपनी अनियमितता का उल्लेख करते हुए दीपावली तक नियमित होने की आशा व्यक्त की थी। मैं ने अपने प्रयत्न में कोई कमी नहीं रखी। उसी पोस्ट पर ठीक एक माह बाद भाई सतीश सक्सेना जी की टिप्पणी ने मुझे स्मरण कराया कि मुझे अपने काम का पुनरावलोकन करना चाहिए, कम से कम नियमितता के मामले में अवश्य ही। तो अनवरत पर मेरी अब तक 15 पोस्टें हो चुकी हैं और यह सोलहवीं है। इस तरह मैं ने अनवरत पर हर दूसरे दिन एक पोस्ट लिखी है। तीसरा खंबा पर इस एक माह में 18 पोस्टें हुई हैं। मुझे लगता है कि इन दिनों जब कि कुछ व्यक्तिगत कामों में व्यस्तता बढ़ गई है, यह गति ठीक है। हालांकि इस बीच हर उस दिन जब कि मैं ने कोई पोस्ट इस ब्लाग पर नहीं की यह लगता रहा कि आज मुझे यह बात लिखनी थी, लेकिन समय की कमी से मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है कि ब्लागीरी मेरे लिए एक ऐसा कर्म हो गई है, जिस के बिना दिन ढल जाना क्षय तिथि की तरह लगने लगा है जो सूर्योदय होने के पहले ही समाप्त हो जाती है। 
ल से ही अचानक व्यस्तता बढ़ गई। शोभा की बहिन कृष्णा जोशी के पुत्र का विवाह है, और उस के पिता को वहाँ भात (माहेरा) ले जाना है। शोभा उसी की तैयारियों के लिए मायके गई थी, कल सुबह लौटी। चार दिन में घर लौटी तो, सब से पहले उस ने घर को ठीक किया। मुझे भी चार दिन में अपने घर का भोजन नसीब हुआ। वह कल शाम फिर से अपनी बहिन के यहाँ के लिए चल देगी और फिर विवाह के संपन्न हो जाने पर ही लौटेगी। इन दो दिनों में उसे बहुत काम थे। उसे घर को तैयार करना था जिस से उस में मैं कम से कम एक सप्ताह ठीक से रह सकूँ। उसे ये सब काम करने थे। इन में कुछ काम ऐसे थे जो मुझ से करवाए जाने थे। मैं भी उन्हीं में व्यस्त रहा। आज मुझे अदालत जाना था और वहाँ से वापस लौटते ही शोभा के साथ बाजार खरीददारी के लिए जाना था। शाम अदालत से रवाना हुआ ही था कि संदेश आ गया कि अपने भूखंड पर पहुँचना है वहाँ बोरिंग के लिए मशीन पहुँच गई है। मुझे उधर जाना पड़ा। वहाँ से लौटने में देरी हो गई। वहाँ से आते ही बाजार जाना पड़ा। जहाँ से लौट कर भोजन किया है। अभी अपनी वकालत का कल का काम देखना शेष है। फिर भी चलते-चलते एक व्यसनी की तरह यह पोस्ट लिखने बैठ गया हूँ।
ल फिर व्यस्त दिन रहेगा। आज जो नलकूप तैयार हुआ है उसे देखने अपने भूखंड पर जाना पड़ेगा, कल शायद नींव खोदने के लिए रेखाएँ भी बनाई जाएंगी। वहाँ से लौट कर अदालत भी जाना है और शोभा को भी बाजार का काम निपटाने में मदद करनी है। कल उस की एक बहिन और आ जाएगी, एक यहां कोटा ही है। कल रात ही इन्हें ट्रेन में भी बिठाना है। कल भी समय की अत्यंत कमी रहेगी। इस के बाद पाँच दिसम्बर सुबह से ही मैं भी यात्रा पर चल दूंगा। उस दिन जयपुर जाना है, शाम को लौटूंगा और अगले दिन सुबह फिर यात्रा पर निकल पड़ूंगा। इस बार यात्रा में मेरी अपनी ससुराल झालावाड़ जिले में अकलेरा, फिर सीहोर (म.प्र.) और भोपाल रहेंगे। विवाह के सिलसिले में सीहोर तो मुझे तीन दिन रुकना है। एक या दो दिन भोपाल रुकना होगा। मेरा प्रयत्न होगा कि यात्रा के दौरान अधिक से अधिक ब्लागीरों से भेंट हो सके। 
ब आप समझ ही गए होंगे कि मैं 12 दिसम्बर तक व्यस्त हो गया हूँ। दोनों ही ब्लागों पर भी 4 दिसंबर के बाद अगली पोस्ट शायद 13 दिसम्बर को ही हो सकेगी। इस बीच मुझे अंतर्जाल पर आप से अलग रहना और अपनी बात आप तक नहीं पहुँचाने का मलाल रहेगा। लेकिन क्या किया जा सकता है? 
फ़ैज साहब ने क्या बहुत खूब कहा है ....
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

उन्हें जज नहीं, तोते चाहिए

ख़्तर खान अकेला (हालांकि फोटो बता रहा है कि वे अकेले नहीं) को आप द्रुतगामी ब्लागीर कह सकते हैं। वे वकील हैं और पत्रकारिता से जुड़े हैं। दिन भर अदालत में वकालत का काम करना और फिर दफ्तर करना। दफ्तर में जब भी वक़्त मिल जाए ब्लागीरी करना। ज़नाब ने 7 मार्च 2010 को अपने ब्लाग की पहली पोस्ट ठेली थी, आज यह पोस्ट लिखने तक उन की 1517वीं पोस्ट प्रकाशित हो चुकी थी। यदि वे दफ़्तर से निकल न चुके होंगे तो आज की तारीख में अभी और पोस्ट आने की संभावना पूरी पूरी है, यह पोस्ट लिखने तक यह संख्या 1518 ही नहीं 1520 भी हो सकती है। नवम्बर के 25 दिनों में पूरी 160 पोस्टें ठेली हैं ज़नाब ने। कब पाँच सौ, कब हजार और कब डेढ़ हजार पोस्टें डाल चुके पर चूँ तक भी नहीं की। कोई स्वनामधन्य होता तो अब तक के हर शतक पर एक-एक पोस्ट और ठेल कर ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनाएँ प्राप्त कर चुका होता। पर अख़्तर भाई हैं कि उन से कुछ कहो तो कभी मुस्कुरा कर और कभी हँस कर टल्ली मार जाते हैं। 
ब हम कोटा के वकील हड़ताल कुछ ज्यादा करते हैं। यह भी एक कारण है कि जो जो वकील ब्लागीर (मुझ समेत) हुआ सफल हो गया।  चार दिन पहले अख़्तर भाई ने लिखा, -कोटा के वकीलों की हड़ताल बनी मजबूरी। अब ये कोटा के वकीलों की मजबूरी थी या फिर हमारे मौजूदा नेताओं की। पर तीन दिन से अदालत में काम बंद है। आज मैं अदालत से जल्दी खिसक आया था। शाम होते होते पता लगा कि हड़ताल लंबी चलने वाली है, हो सकता है ये साल हड़ताल में पूरा हो जाए। इस साल की तरह फिर से हड़ताल को खत्म करने के लिए वकीलों के नेता बहाना तलाशने लगें।
ब हमारे यहाँ अभिभाषक परिषद के चुनाव हर साल होते हैं और विधान के मुताबिक 15 दिसंबर तक चुनाव होने जरूरी हैं और नए साल के पहले कार्यदिवस पर नयी कार्यकारिणी परिषद का कामकाज सम्भाल लेती है। इस बार प्रस्ताव आया कि चूँकि पिछले साल हमें चार माह की हड़ताल करनी पड़ी थी, मुख्य मंत्री ने कुछ आश्वासन दिए थे वे अब तक पूरे नहीं किये हैं। इस कारण से हमें लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। मौजूदा कार्यकारिणी अच्छा संघर्ष चला रही है इस लिए संघर्ष के समापन तक चुनाव स्थगित कर दिया जाए। यूँ कहा जाता है कि वर्तमान कार्यकारिणी पर भाजपा के लोग शामिल हैं। पर ये इंदिरागांधी से सीधे प्रेरणा ले रहे थे। कि आपातकाल बता कर अपनी उमर बढ़वा लो। प्रस्ताव असंवैधानिक था और वकीलों की आमसभा ने उस पर बहस से ही इन्कार कर दिया। चुनाव होना तय हो गया। लेकिन कार्यकारिणी ने दूसरे दिन से ही तीन दिन की सांकेतिक हड़ताल की घोषणा कर दी। दबे स्वर में लोग कह रहे हैं कि कार्यकारिणी का सोच यह है कि पिछली ने चार माह हड़ताल कर के नयी कार्यकारिणी को सौंप गए थे। अब मौजूदा कार्यकारिणी नयी को हड़ताल का कार्यभार न सोंप कर जाएँ तो कहीं ऐसा न हो उन्हें ग़बन का आरोप झेलना पड़े। 
यूँ मुझे व्यक्तिगत तौर पर भारत के समाजवादी या हिन्दू राष्ट्र होने तक की हड़ताल मंजूर है। वकालत के अलावा और भी बहुत जरीए हैं खाने-कमाने के। पर आखिर हड़ताल से काम बंद होता है और पहले से ही चींटी की चाल से चल रही न्याय की गाड़ी और धीमी हो जाती है। मैं जब ये बात कहता हूँ तो वकील मित्र कहते हैं पहले ही कौन न्याय हो रहा है जो रुक जाएगा, नुकसान तो हमें हो रहा है, जेब में पैसे आने ही बंद हो जाते हैं। मैं उन्हें कहता हूँ कि वकालत की गाड़ी दौड़ाने का एक तरीका है। जितनी अदालतों में जज नहीं है वहाँ जजों की नियुक्ति के लिए लड़ो, अदालतों में पाँच-पाँच हजार मुकदमे इकट्ठे हो रहे हैं, अधिक अदालतें खोलने के लिए लड़ो। जल्दी फैसले होंगे तो अदालतों की साख बढ़ेगी, ज्यादा मुकदमे आएंगे। सरकारें फिजूल का बहाना बनाती है कि जजों के लिए काबिल लोग नहीं मिलते। वकीलों में तलाश करने जाएँ तो बहुत काबिल मिल जाएंगे। पर उन्हें काबिल वकील नहीं चाहिए। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि कोई कामकाजी वकील उत्तीर्ण ही न हो। उन की परीक्षा ऐसी होती है कि वे ही उत्तीर्ण होते हैं जो साल-छह महीने से वकालत छोड़ कर सिर्फ किताबें रट रहा हो। उन्हें तोते चाहिए, जज नहीं। 
धर हड़ताल शुरू होने के पहले दिन से श्रीमती जी मायके चली गई हैं। मैं ने तो घर संभाल लिया है। आज हड़ताल समाप्त होने की खबर सुन कर वापस लौटने की उम्मीद थी। पर कल सुबह का अखबार जो कुछ बतायेगा उस से मैं ने तो उम्मीद छोड़ दी है। अब अख़्तर भाई इन दिनों क्या कर रहे हैं ये तो वही बताएंगे। चाहें तो आप पूछ कर देख लें।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

घूम-फिर कर, फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।

एक दिन के वकील
ज 18 नवम्बर हो गई है पिछली 15 नवम्बर के बाद अनवरत पर पोस्ट नहीं हुई। इसे समय की कमी कहा जा सकता है कुछ भौतिक और कुछ मानसिक व्यस्तताएँ रहीं। पिछली पोस्ट डॉ. अरविंद मिश्रा जी को डरावनी लगी, क्यों लगी? यह शोध का विषय है। 16 नवम्बर की दोपहर ललित शर्मा कोटा पहुँचे, ठीक 12 बज कर 3 मिनट पर कोटा की धरती  पर उन के कदम पड़े। मैं तो उन के इंतजार में था ही प्रकृति ने भी उन के स्वागत की तैयारी की हुई थी। बरसात कुछ उन्हों ने पहले ही यहाँ भेज दी थी, कुछ साथ ले कर आए थे। हमारी कार कई दिनों से सेवा की मांग कर रही थी। लेकिन ललित जी के आगमन के एक दिन पहले सेल्फ स्टार्टर ने अपना रंग दिखाया और रूँऊँऊँ......... कर के रह गया। हम ने बाइक से काम चलाया। उन के आने के दिन तो बारिश हो गयी। घर के नजदीक की सड़क के किनारे कुछ दिन पहले सीवर लाइन के पाइप डाले गये थे। मिट्टी ऊपर आई हुई थी, बरसात से वह सड़क पर आ गई। काली चिकनी मिट्टी ने फिसलने का पूरा-पक्का इंतजाम कर दिया। हम ने कार को अस्पताल पहुँचाया पूरी सेवा के लिए। बाइक पर अपना आत्मविश्वास वैसा ही रहता है जैसे साक्षात्कार देते वक्त नौकरी पाने वाले का रहता है। इस लिए बाइक को घर में ही रखा और बीस साल पुराना स्कूटर उठा कर अदालत पहुँचे। सोचा अपने जूनियर को कहेंगे कार ले चलेगा और ललित शर्मा जी को घर ले आएगा। पर ऐन वक्त जूनियर अदालत में फँस गया। 
अधरशिला
खैर, वकील मित्र राघवेंद्रपाल काम आए, अपनी स्विफ्ट डिजायर से ललित जी को स्टेशन से ला कर हमारे घर छोड़ा। रास्ते से हम कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ और खम्मन लेते आए थे, ललित जी को उन्हीं का नाश्ता कराया गया, यह बताते हुए कि अमिताभ बच्चन इन्हें खा कर कोलाइटिस के शिकार हो चुके हैं। हालांकि उन की गलती थी कि वे बासी कचौड़ी को गर्म कर के खाए थे, एक दम ताजा है। हम इस नाश्ते में शामिल नहीं थे।  बाद में राघवेंद्र बता रहे थे कि आप के मित्र बड़े इन्फोर्मल हैं, वे मेजबान की तरह मुझे कचौड़ियाँ परोसते रहे। हमें कुछ मुकदमे और निपटाने थे, हम अदालत चले गए। कम्प्यूटर पर मोर्चा संभाला ललित शर्मा ने और एक दिन के वकील हो गए। शाम को चार बजे तक लौटे तब तक न जाने क्या-क्या कर चुके थे। साढ़े पाँच बजे कार अस्पताल से फोन आया कि कार तैयार है। मैं और ललित जी पैदल ही जा कर कार ले आए। अब घूमने का कार्यक्रम था।  
मुक्तिधाम
रसात, भरमार शादियों के पहले का दिन और शहर में कीचड़। कोटा के ब्लागरों को इकट्ठा करने का अवसर ही नहीं था। कुल मिला कर केवल अख़्तर खान अकेला नजर आए, उन्हें टेलीफोन कर बुलाया। ललित जी की चंबल देखने की इच्छा थी। हमने उन्हें कई किनारे सुझाए, पर उन्हें मुक्तिधाम वाला स्थान ही रुचिकर लगा। रात के अंधेरे में हम कोटा के सब से सुंदर शमशान में पहुँचे तो वहाँ सिस्टम पर संगीत बज रहा था। निकट ही अधर शिला थी, अख़्तर ने उस का उल्लेख किया तो हम वहाँ पहुँचे। वहाँ भी कब्रिस्तान निकला। वहाँ से चौपाटी पर कुल्फी और पान खा कर अख्त़र के वकालत दफ्तर में पहुँचे जहाँ भेंट में ललित शर्मा को कोटा की जानकारी देने वाली एक पुस्तक और मुझे कुऱआन की हिन्दी प्रति भेंट में मिली। मैं ने अख़्तर भाई के कान में बोला। यार! ये ललित शर्मा को हमने क्या दिखाया? शमशान और कब्रिस्तान जैसे कह रहे हों, बेटे सारी दुनिया घूम आओ, घूम फिर कर फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।
ललित शर्मा, मैं और अख़्तर
र लौटते ही अख्त़र खिसक लिए, अगले दिन ईद थी और उन्हें  उस की तैयारियाँ भी करनी थीं। हम  ने ललित जी के साथ भोजन किया और उन्हें हिदायत दी कि वे कुछ समय बिस्तर पर बिताएँ। रात दो बजे स्टेशन के लिए निकले। ट्रेन लेट थी। चित्तौड़ जाने वाली इस ट्रेन ने तीन बज कर सात मिनट पर प्लेटफॉर्म छोड़ा। हम घर लौट कर बिस्तरशरण हुए तो सुबह साढ़े नौ बजे आँख खुली। ललित जी को फोन लगाया तो तसल्ली हुई कि वे सुबह छह बजे ही चित्तौड़ पहुँच चुके थे और अब इन्दु गोस्वामी की हिरासत में हैं और मौज कर रहे हैं।
ज फिर समय की कमी है। अदालत की छुट्टी करनी पड़ेगी। हमारे नए मकान के लिए जो भूखंड़ देखा गया है उस पर निर्माण के आरंभ का दिन है। श्रीमती शोभा भूमि पूजा की तैयारी कर रही हैं, हमें हिदायत है कि तुरंत नहा लिया जाए और बाजार से सारा सामान लाया जाए। मुहूर्त पर सब कुछ यथावत हो जाना चाहिए। अच्छा तो टा! टा!  बाय! बाय! फिर मिलते हैं...................

सोमवार, 1 नवंबर 2010

क्या है ब्लागीरी ?

पिछली पोस्ट में मैं ने अपनी व्यस्तता  और अपनी अनुपस्थिति का जिक्र किया था। जिस से बेकार में मित्रों और पाठको के मन में संदेह जन्म न लें। सोचा था फिर से नियमित हो लूंगा। लेकिन प्रयत्न कभी भी परिणामों को अंतिम रूप से प्रभावित नहीं करते, असल निर्णायक परिस्थितियाँ होती हैं। कल सुबह से ही जिस मसले में उलझा, अभी तक नहीं सुलझ पाया। कल सुबह से व्यस्त हुआ तो रात एक बज गया। सुबह थकान पूरी तरह दूर न हो पाने के बावजूद समय पर उठ कर आज के मुकदमों की तैयारी की और नये कार्यभारों को पूरा करता हुआ अदालत पहुँचा। अभी शाम को घर पहुँचा हूँ जबरन पाँच मिनट आँखें मूंद कर लेटा। सोचता था कम से कम पन्द्रह मिनट ऐसे ही लेटा रहूँ। लेकिन तब तक शोभा ने कॉफी पकड़ा दी। मैं उठ बैठा। बेटे को तीन माह बाद बंगलूरू से घर लौटे दो दिन हो गये हैं लेकिन उस से बैठ कर फुरसत से बात नहीं हो सकी है। बेटी घंटे भर बाद कोटा पहुँच रही है उसे लेने स्टेशन जाना है। कॉफी के बाद बचे समय में यह टिपियाना पकड़ लिया है।
म सोचते हैं कि हमें ब्लागीरी के लिए फुर्सत होनी चाहिए, मन को भी तैयार होना चाहिए और शायद मूड भी। पर यदि इतना सब तामझाम जरूरी हो तो मुझे लगता है कि वह ब्लागीरी नहीं रह जाएगी। ब्लागीरी तो ऐसी होना चाहिए कि जब कुंजी-पट मिल जाए तभी टिपिया लो, जो मन में आए। बनावटी नहीं, खालिस मन की  बात हो, तो वह ब्लागीरी है। 
प का क्या सोचना है? 

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

अनियमितता के लिए .......

ल सुबह श्री विष्णु बैरागी जी का संदेश मिला -
कई दिनों से मुझे 'अनवरत' नहीं मिला है। कोई तकनीकी गडबड है या कुछ और - बताइएगा। 
शाम  को सतीश सक्सेना  जी ने 'अनवरत' की पोस्ट "ऊर्जा और विस्फोट" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंप...": पर संदेश छोड़ा -
कहाँ अस्तव्यस्त हो भाई जी ! नया मकान तो अब तक ठीक ठाक हो चुका होगा...? 
 दैव मेरा प्रयत्न यह रहा है कि प्रतिदिन दोनों ही ब्लागों पर कम से कम एक-एक प्रकाशन हो जाए। मैं ने बैरागी जी को उत्तर दिया  -कुछ परिस्थितियाँ ऐसी बनी हैं कि मैं चाहते हुए भी दोनों ब्लागों पर नियमित नहीं हो पा रहा हूँ, लेकिन शीघ्र ही नियमितता बनाने का प्रयत्न करूंगा। मुझे उन का त्वरित प्रत्युत्तर मिला -
......सबसे पहली बात तो यह जानकर तसल्‍ली हुई कि आप सपरिवार स्‍वस्‍थ-प्रसन्‍न हैं। ईश्‍वर सब कुछ ऐसा ही बनाए रखे। आपकी व्‍यस्‍तता की कल्‍पना तो थी किन्‍तु इतने सारे कारण एक साथ पहली ही बार मालूम हुए। निपटाने ही पडेंगे सब काम और आप को ही निपटाने पडेंगे। मित्र और साथी एक सीमा तक ही साथ दे सकते हैं ऐसे कामों में। 
मैं ने बैरागी जी को तो उत्तर दे दिया, लेकिन सतीश जी को नहीं दिया। सिर्फ इसलिए कि सभी ब्लागर मित्रों और पाठकों के मन में भी यह प्रश्न तैर रहा होगा तो क्यों न इस का उत्तर ब्लाग पर ही दिया जाए।
मेरी गैर-हाजरी के कारण अज्ञात नहीं हैं। 19 सितंबर 2010 को मैं ने अपना आवास बदला, एक अक्टूबर को  बहुमूल्य साथी और मार्गदर्शक शिवराम सदा के लिए विदा हो लिए। आवास बदलने के साथ बहुत कुछ बदला है। और 40 दिन हो जाने पर भी दिनचर्या स्थिर नहीं हो सकी है। पुराने आवास से आए सामानों में से कुछ को अभी तक अपनी पैकिंग में ही मौजूद हैं। अभी मैं जिस आवास में आया हूँ वह अस्थाई है। संभवतः मध्य नवम्बर तक नए मकान का निर्माण आरंभ हो सकेगा जो अप्रेल तक पूरा हो सकता है। तब फिर एक बार नए आवास में जाना होगा। इन्हीं अस्तव्यस्तताओं के कारण दोनों ब्लागों पर अनियमितता बनी है। मैं इस अनियमितता से निकलने का प्रयत्न कर रहा हूँ। संभवतः दीवाली तक दोनों ब्लाग नियमित हो सकें। 
ब भी कोई व्यक्ति सार्वजनिक मंच पर नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है तो वह बहुत से लोगों के जीवन में शामिल होता है और उस का दायित्व हो जाता है कि जो काम उस ने अपने जिम्मे ले लिए हैं उन्हें निरंतर करता रहे। मसलन कोई व्यक्ति सड़क के किनारे एक प्याऊ स्थापित करता है। कुछ ही दिनों में न केवल राहगीर अपितु आसपास के बहुत लोग उस प्याऊ पर निर्भर हो जाते हैं। प्याऊ स्थापित करने वाले और उस सुविधा का उपभोग करने वाले लोगों को इस का अहसास ही नहीं होता कि उस प्याऊ का क्या महत्व है। लेकिन अचानक एक दिन वह प्याऊ बंद मिलती है तो लोग सोचते हैं कि शायद प्याऊ पर बैठने वाले व्यक्ति को कोई काम आ गया होगा। लेकिन जब वह कुछ दिन और बंद रहती है तो लोग जानना चाहते हैं कि हुआ क्या है? यदि प्याऊ पुनः चालू हो जाती है तो लोग राहत की साँस लेते हैं। लेकिन तफ्तीश पर यह पता लगे कि प्याऊ हमेशा के लिए बंद हो चुकी है। तो लोग या तो उस प्याऊ को चलाने के लिए एक जुट हो कर नई व्यवस्था का निर्माण कर लेते हैं, अन्यथा वह हमेशा के लिए बंद हो जाती है। एक बात और हो सकती है ,कि प्याऊ स्थापित करने वाला व्यक्ति खुद यह समझने लगे कि इस के लिए स्थाई व्यवस्था होनी चाहिए और वह स्वयं ही प्याऊ को एक दीर्घकाल तक चलाने की व्यवस्था के निर्माण का प्रयत्न करे और ऐसा करने में सफल हो जाए।
फिलहाल अनवरत और तीसरा खंबा फिर से नियमित होने जा रहे हैं। लेकिन यह विचार तो बना ही है कि इन्हें नियमित ही रहना चाहिए और उस की व्यवस्था बनाना चाहिए। इस विचार को संभव बनाने के लिए मेरा प्रयत्न  सतत रहेगा।
सार्वजनिक मंच पर स्वेच्छा से लिए गए दायित्वों को यदि किसी अपरिहार्य कारणवश भी कोई व्यक्ति पूरा नहीं कर पाए तो भी वह लोगों को किसी चीज से वंचित तो करता ही है। ऐसी अवस्था में उस के पास क्षमा प्रार्थी होने के अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं हो सकता।  अनवरत और तीसरा खंबा के प्रकाशन में हुई इन अनियमितताओं के लिए सभी ब्लागर मित्रों और अपने पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूँ, यह अनियमितता यदि अगले छह माहों में लौट-लौट कर आए तो उस के लिए भी मैं पहले से ही क्षमायाचना करता हूँ। आशा है मित्र तथा पाठक मुझे क्षमा कर देंगे, कम से कम इस बात को आत्मप्रवंचना तो नहीं ही समझेंगे।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

..... थैंक्यू ब्लागवाणी !! वैरी, वैरी मच थैंक्यू !!!

यी रामकथा की सीता दुविधा में अभी तक अटकी पड़ी है। ब्लागवाणी चालू है लेकिन नए फीड नहीं ले रही है। जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं उस से लगता है यदि ब्लागवाणी को वापस लौटना है तो भी कुछ समय तो इंतजार करना ही होगा। जब तक ब्लागवाणी मैदान में थी तब तक कोई किसी दूसरे संकलक को घास न डालता था। अंतर्जाल चालू होने के बाद जब तक ब्लागवाणी खोल कर न देख ले हिन्दी ब्लागर को चैन नहीं पड़ता था। वह थी ही ऐसी ही। हो भी क्यों न? हिन्दी को सैंकड़ों फोंट देने वाले, कम्प्यूटर और अंतर्जाल जगत में हि्न्दी की पैठ के लिए जी-जान से अपना समय, श्रम, कौशल और धन लगाने वाले मैथिलीशरण गुप्त के अद्वितीय योगदान का ही यह नतीजा था। पिछले तीन वर्षों में अंतर्जाल पर हिन्दी में जो काम हुआ है, उस में सर्वाधिक योगदान यदि किसी का है तो वह ब्लागवाणी का है।
केवल एक बार ही मैथिली जी और सिरिल गुप्त से मिलने का सौभाग्य मुझे मिला। उन्हें संपूर्ण रूप से समझ पाने के लिए यह मुलाकात पर्याप्त नहीं थी। लेकिन मैं इतना अवश्य समझ सका था कि केवल और केवल एक-दो या चार व्यक्तियों के आर्थिक योगदान से ब्लागवाणी जैसी निरन्तर विस्तार पाती गैरव्यवासायिक परियोजना को चला पाना संभव नहीं हो सकेगा। यदि उस का विस्तार नहीं होता तो वह भी अपनी सीमाओं में बंध कर रह जाती, और विस्तार हमेशा अधिक श्रम और अधिक पूंजी की मांग करता है। जो वैयक्तिक साधनों से जुटा पाना लगभग असंभव था। ऐसी परिस्थितियों में दो ही मार्ग शेष रह जाते हैं। एक तो यह कि उस का व्यवसायीकरण कर दिया जाए और दूसरा यह की उसे ऐसा संगठन चलाए जिस के सदस्य निरंतर आर्थिक योगदान करते रहें। दूसरे विकल्प की कोई गुंजाइश इसलिए नहीं कि स्थाई संगठन केवल वैचारिक हो सकते हैं। इसलिए केवल एक विकल्प शेष रहता है कि संकलक को व्यवसायिक बनाया जाए और यही शायद मैथिली जी और सिरिल गुप्त को स्वीकार नहीं था। यदि ब्लागवाणी पुनः आरंभ हो सकी तो उसे दीर्घजीवी होने के लिए व्यवसायिक रूप प्राप्त करना ही होगा।  ब्लागवाणी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी तो इस लिए कि वह थी और उस की वजह मैथिली जी का अनुभव और कौशल तथा सिरिल गुप्त का श्रम था। आज भी स्थिति यही है कि यदि इन दोनों के योगदान से ब्लागवाणी पुनः आरंभ होगी तो वह सर्वश्रेष्ठ हिन्दी संकलक होगी।
किसी भी विशाल वृक्ष के अभाव की कल्पना से सभी का हृदय थरथरा उठता है। यदि यह नहीं हुआ तो क्या होगा? जानवर कड़ी धूप में कहाँ आश्रय पाएंगे? गाडियों को फिर धूप में खड़ा करना होगा। कहाँ बुजुर्गों की चौपाल लगेगी? वृक्ष पर पलने वाले पंछी और कीट कहाँ जाएंगे? आदि आदि। जब एक दिन आंधी में वह वृक्ष गिर पड़ता है तो नयी परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। तीन दिन पहले एक नीम का पुराना विशाल वृक्ष गिर पड़ा। पहले उस की शाखाओं की छंटाई हुई लोग उन्हें ले भागे। आज उस के तने को काट कर लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े किए गए जिस से अच्छी खासी इमारती लकड़ी प्राप्त हो गई। एक दो दिनों में उन्हें भी हटा दिया जाएगा। फिर वही विशाल नग्न भूमि प्राप्त हो जाएगी जो इस वृक्ष के लगाए जाने के पहले मौजूद थी। लेकिन अभी से आस पास के लोग विचार करने लगे हैं कि अब इस एक वृक्ष और पिछले वर्ष गिरे वृक्ष से रिक्त हुई भूमि पर कम से कम तीन पेड़ लगाए जा सकते हैं। निश्चित ही लोग वहाँ पेड़ लगा ही देंगे। कुछ वर्ष प्रतीक्षा करनी होगी, जब तक कि ये वृक्ष बड़े हो कर छाँह न देने लगें। 
ब्लागवाणी के अभाव को दो सप्ताह तक झेलना बहुत बुरा लगा। न जाने कितनी आत्माएँ उस के अभाव में तड़पती रहीं। साथ ही उन्हों ने पुराने कुछ संकलकों में आश्रय पाना आरंभ किया। पुराने संकलकों के यहाँ जो ब्लाग पंजीकृत नहीं थे वे होने लगे। इस बीच इंडली जैसा संकलक सामने आया। कुछ और कतार में हैं, कुछ निर्माण की अवस्था में भी।   इस से यह हुआ कि इन नए संकलकों से भी ब्लागों को पाठक मिलने लगे हैं। ब्लागवाणी के रुकने के बाद के पहले सप्ताह में ब्लागों पर पाठकों की आवक तेजी से गिरी थी। फिर कुछ सुधरने लगी। अब पिछले सप्ताह से पाठकों की आवक में तेजी से वृद्धि हुई है। अब स्थिति यह है कि हिन्दी ब्लागों को पहले से अधिक पाठक मिल रहे हैं। इस में भी ब्लागवाणी का योगदान कम नहीं है। यदि वह इस तरह यकायक दृश्य से गायब न हुई होती तो इन संकलकों तक हिन्दी ब्लाग पहुँचते ही नहीं और वे उन पाठकों से वंचित रहते जो उन के माध्यम  से हिन्दी ब्लागों तक पहुँचते हैं। इस नयी और अपेक्षाकृत अच्छी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिए ब्लागवाणी निश्चित रूप से श्रेय प्राप्त करने की अधिकारी है। मेरी कामना है कि ब्लागवाणी वापस लौटे एक नए और सुधरे हुए रूप के साथ, सभी हिन्दी ब्लाग संकलकों का सिरमौर बन कर। अंत में इतना ही और कि ..... थैंक्यू ब्लागवाणी !!  वैरी,  वैरी मच थैंक्यू !!!

शनिवार, 19 जून 2010

कहीं आप बीमार तो नहीं ?

शाम तीन बजकर उन्नीस मिनट के बाद, पता नहीं क्या हुआ?
जैसे घड़ी की सुइयाँ अटक गई हों,
समय आगे ही नहीं खिसक रहा हो,

राम ने बंदूक तान रखी है
मणिरत्नम् की सीता दुविधा में है
बीच में आ कर खड़ी हो गई है
अब राम दुविधा में है
वह घोड़ा दबाए या न दबाए
रावण को कायदे से यहाँ अट्टहास करना चाहिए था
लेकिन उस के दसों चेहरे क्रोध से लाल हो रहा है
दसों चेहरों से पसीना टपक रहा है
और मक्खियाँ हैं कि चेहरों के
इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं

इधर तरुणा अस्पताल में बिस्तर पर लेटी दुविधा में है
माँ-बाप लड़ कर गए हैं, उसे विनीत अच्छा लगता है
ये बात सारे वार्ड को बता गए हैं
वह सोच रही है जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?
ससुराल? वहाँ सब उसे निचोड़ने को तैयार हैं
और देवर की क्षुधित आँखें?
नहीं वहाँ नहीं जाएगी
तो फिर, माँ-बाप के पास?
उन्हें छत के बदले एक नौकरानी चाहिए
सब लेने को तैयार हैं, देने को कोई नहीं
तभी विनीत आ जाता है,
वह भी उस से कुछ न कुछ लेने को बैठा है
पर वह है जो उसे कुछ दे सकता है

नीरज कुमार झा ने बीच में आ कर बोला
ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की हो गई है
मैं सोचता हूँ ये भी कितना बड़ा भ्रम है,
यूनियन कार्बाइड भी तो भारतीय होने को तैयार थी
पहले ही टैंक फट गया
गिनती नहीं, कितने मरे और
कितने ही पीढ़ियों तक भुगतेंगे


जूनियर ब्लागर ऐसोसिएशन का गठन हो चुका है
आखिर
कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी
हम नहीं चूसने देंगे
चूसना ही होगा तो आपस में चूसेंगे

पर गड़बड़ क्या हुई
अब तक रुकी पड़ी है सुई
कुछ भी हो सकती है

कुछ सोचते नहीं
कुछ समझते नहीं
बस करते रहते हैं
एक साथ कई काम
कहीं आप बीमार तो नहीं ?

बुधवार, 16 जून 2010

हिन्दी ब्लागीर पर हिंसक हमला, पुलिस और विधायक गुंडो के साथ

क इंजिनियर पाँच वर्ष पूर्व कंप्यूटर ले कर अपने गाँव जा बसा। इस लक्ष्य को ले कर कि वह अपने गाँव को बदलने से अपने अभियान को आरंभ करेगा। कंप्यूटर के उपयोग से पहली समस्या आरंभ हुई। गाँव में वैध बिजली कनेक्शन नाम के थे। नतीजा ये कि वोल्टता 230 के स्थान पर 50 से 100  ही रहती थी। इस वोल्टता पर तो कंप्यूटर काम नहीं कर सकता था। उन्हों ने बिजली विभाग से अपना काम आरंभ किया। बिजली विभाग चेता तो उस ने गाँव में बहुत लोगों के अवैध कनेक्शनों को हटाया, उन के विरुद्ध कार्यवाही की। नतीजा यह कि गाँव में बिजली की वोल्टता का संकट सुलझा। लेकिन जिन लोगों को वैध कनेक्शन हटाने पड़े वे शत्रु हो गए। गाँव में वोल्टता में सुधार के कारण बहुत से लोग इस इंजिनियर के समर्थक भी बने। इन इंजिनियर साहब ने गाँव में अन्य सुधार के काम भी किए। 
गाँव में गुंडों की एक गेंग भी है, जिसे ये सुधार के काम परेशान करते हैं। ये ही वे लोग हैं जो गाँव की पंचायत चुनाव में हावी रहते हैं और किसी भी तरह से पंचायत पर कब्जा कर लेते हैं। इंजिनियर के कामों से गाँव के लोगों में यह चर्चा हुई कि इस बार प्रधान उन्हें बनाया जाए। इंजिनियर साहब तैयार भी हो गए और गाँव वालों ने कानों-कान उन का प्रचार भी आरंभ कर दिया। खुद इंजिनियर साहब के मुताबिक गाँव के सत्तर प्रतिशत लोग उन्हें प्रधान बनाना चाहते हैं। इस आलम को देख कर गुंडा गेंग परेशान हो उठी। उस ने इंजिनियर साहब को परेशान करना आरंभ कर दिया, जिस से वे गाँव छोड़ दें। जब साधारण कार्यवाहियों से काम न चला तो गुंडों ने इन पर हमला कर दिया। ये पुलिस के पास पहुँचे, गाँव के लोगों का प्रतिनिधि मंडल ले कर भी मिले।  लेकिन पुलिस ने कार्यवाही नहीं की। कारण कि गुंडों की गेंग के पुलिस से गहरे रिश्ते हैं और क्षेत्र के विधायक से भी। खुद विधायक ने इन के मामले में कार्यवाही न करने का निर्देश पुलिस को दे दिया है।
इस तरह एक बहुत छोटे स्तर पर व्यवस्था में परिवर्तन की कोशिश पर भी व्यवस्था ने (गुंडे, पुलिस और राजनेता) सीधे हिंसा का प्रयोग किया है। इस का प्रतिरोध आवश्यक है। इस के लिए इंजिनियर साहब को गाँव के सुधार और विकास के समर्थकों को संगठित करना पड़ेगा, हिंसा का मुकाबला करने के लिए भी तैयार करना पड़ेगा।
ये इंजिनियर साहब और कोई नहीं, हिन्दी ब्लाग मेरा गाँव मेरा देश के ब्लागीर राम बंसल हैं, आप उन की आप बीती जानने के लिए उन के ब्लाग की ताजा पोस्ट  गुंडागर्दी और पुलिस की लापरवाही पर जा कर पढ़ सकते हैं। मेरा मानना है कि समाज में राम बंसल जी के सकारात्मक प्रयासों के कारण उन पर हुए इन हिंसक हमलों के विरुद्ध तमाम हिन्दी ब्लागीरों को समुचित कार्यवाही करनी चाहिए। कम से कम इलाके के पुलिस अधीक्षक को इस घटना के अपराधियों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए ई-मेल करना चाहिए साथ ही राम बंसल जी को सुरक्षा प्रदान करने की मांग भी करनी चाहिए।

शुक्रवार, 14 मई 2010

आलोचना, चाटुकारिता और निन्दा - अपराध और परिवीक्षा

मारे पास माध्यम के रूप में सब से पहले काव्य कृतियाँ सामने आईं जो लिखित न होते हुए भी श्रुति से हमारे बीच थीं। इन कृतियों में सब कुछ था। जीवन था, जीवन का दर्शन था, जगत की व्युत्पत्ति की व्याख्या थी, सौन्दर्य था, अभिव्यक्ति थी और भी बहुत कुछ था। श्रुति के रूप में काव्य  का विस्तार सीमित था। लेकिन जैसे ही लिपि और लेखन सामग्री अस्तित्व में आई लोगों तक इस के विस्तार में वृद्धि हुई। लेकिन जब छापाखाने का आविष्कार हो गया और लेखन की एक से अधिक प्रतियाँ बनाना संभव हुआ तो इस के विस्तार में उछाल आ गया। तब अपने अपने दृष्टिकोण से उपलब्ध रचनाओं का मूल्यांकन आरंभ हो गया। फिर समाचार पत्र  और पत्रिकाएँ अस्तित्व में आए तो दायरा औऱ बढ़ा, पाठक संख्या बढ़ने लगी। पुस्तकें, समाचार पत्र और पत्रिकाएँ एक ऐसे माध्यम के रूप में सामने आए जिस से अपने विचार, सूचनाएँ और रचनाएँ औरों तक पहुँचाना अत्यंत सुगम हो गया। विचार, रचनाएँ और सूचनाओं को पहुँचाने के लिए अनेक रूप सामने आए। कविता, कहानी, लेख, निबंध आदि सामान्य रूप थे लेकिन इन के अलावा और भी रूप दुनिया में मौजूद थे जिसमें मूर्ति शिल्प और चित्रकारी प्रमुख हैं, नाटक, नृत्य और संगीत भी सदियों  से अभिव्यक्ति का साधन बने रहे हैं। फिर चलचित्र एक नया माध्यम सामने आया। आज हमारे सामने टेलीविजन और अंतर्जाल ऐसे साधन हैं जिन के माध्यम से हम सूचनाएँ, विचार और रचनाओं को लोगों तक पहुँचा सकते हैं।
रंभिक काव्य कृतियों के जमाने से ही उन का मूल्यांकन और विश्लेषण होता रहा है। वे मनुष्य समाज के लिए कितनी उपयोगी हैं या नहीं? अथवा उन में गेयता कितनी है? या फिर उन की कला कैसी है? वे आकर्षक हैं या नहीं? क्या वे ऐसी हैं जिन्हें लोग ग्रहण करना पसंद करेंगे अथवा नहीं। ऐसे बहुत से आधार रहे हैं जिन पर किसी भी कृति का मूल्यांकन होता रहा है। समाचार पत्रों, या टेलीविजन चैनलों या पत्रिकाओं का भी मूल्यांकन और समीक्षा किया जाता रहा है। अब अंतर्जाल ने वह सब अपने अंदर समेट लिया है। यहाँ सब कुछ है। साहित्य, समाचार, विचार, दर्शन, चित्र, छायाचित्र, वीडियो, ओडियो आदि आदि। विकृत और विभत्स से ले कर सुंदरतम और आकर्षक तक यहाँ उपलब्ध है और कराया जा सकता है। इसी ने हमें यह अवसर दिया है कि हम अपने अपने ब्लाग बनाएँ और उन पर जो कुछ भी, जैसे भी अभिव्यक्त कर सकते हैं, करें। इन्ही अवसरों में ब्लाग भी एक अवसर है जिस का उपयोग  हम सभी लोग जो ब्लागीरी के माध्यम से कर रहे हैं। ब्लागीरी में भाषाई समूह भी हैं और हिन्दी ब्लागीरी ब्लागों का एक भाषाई समूह है जो तेजी से विकसित हो रहा है। अब तक इतने ब्लाग और उन पर इतनी सामग्री आ चुकी है कि ब्लागों और ब्लागीरों का मूल्यांकन किया जा सकता है। बल्कि यह होना चाहिए। जब हम मूल्यांकन करने लगेंगे तो उस में किसी भी ब्लाग पर प्रकाशित अथवा ब्लागीर द्वारा प्रस्तुत की गई सामग्री के संबंध में अपने विचार प्रकट करेंगे। उस में उस की खूबियों का भी उल्लेख होगा और कमियों का भी। हो सकता है किसी मूल्यांकनकर्ता ने ब्लाग या ब्लागर की जिन खूबियों का वर्णन किया है वह दूसरों की निगाह में खूबियाँ न हों या उल्लेखनीय न हों। यह भी हो सकता है कि जिन कमियों का वह वर्णन कर रहा है वे कमियाँ ही नहीं हों। यह भी हो सकता है कि ऐसा मूल्यांकन किसी को पसंद आए और किसी को न आए। फिर इस मूल्यांकन का भी मूल्यांकन किया जा सकता है। 
बात कुछ भी हो अब वह वक्त आ पहुँचा है जब हिन्दी ब्लाग और ब्लागीरों का मूल्यांकन होना चाहिए। साहित्य में इसी मूल्यांकन को आलोचना या समालोचना कहा जाता है। साहित्य में आलोचना या समालोचना का अपना महत्व है इसी कारण से अच्छे अच्छे साहित्यकार आलोचना और समालोचना के लिए तरसते दिखाई पड़ते हैं। वहाँ उस आलोचना और समालोचना की भी आलोचना और समालोचना होती रहती है। साहित्य के क्षेत्र के लिए वह आम बात है। 
ब यदि मूल्यांकन या समालोचना हो तो उस का आधार और रूप क्या होना चाहिए? हम पहले रूप की बात करें तो निश्चित रूप से जब हम किसी ब्लाग या ब्लागीर की समालोचना करने लगेंगे और अपने निष्कर्ष रखेंगे तो हमें यह तो करना ही होगा कि समालोचना में जो बात हम कहें उस के समर्थन में पर्याप्त तथ्य और साक्ष्य भी उसी रचना में अवश्य ही हों। मसलन यदि हम यह कहते हैं कि दिनेशराय द्विवेदी के ब्लाग इस कमी से या इस खूबी से युक्त हैं तो हमें उन कमियों और खूबिय़ों के उदाहरण भी सामने रखने चाहिए। यदि हम बिना किसी उदाहरण, तथ्य और साक्ष्य के अपनी बात कहते हैं तो प्रशंसा करने की स्थिति में यह चाटुकारिता और कमियों का उल्लेख करने पर यह निंदा का रूप ले लेगी। 
ज्ञानदत्त जी पाण्डेय की मानसिक हलचल पर समीरलाल जी और अनूप शुक्ल जी के बारे में जो तीन-तीन पंक्तियाँ कही गईं और जिन्होंने तीन दिनों से हिन्दी ब्लाग जगत में बवाल मचा रखा है उन की सबसे बड़ी कमी यही है कि उन्हों ने इन दोनों ब्लागीरों के बारे में जो कुछ भी कहा वह बिना किसी साक्ष्य, तथ्य और उदाहरण के कह दिया। इस दृष्टिकोण से उसे समालोचना, समीक्षा या मूल्यांकन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। उस के वर्गीकरण के लिए दो ही श्रेणियाँ बचती हैं, चाटुकारिता या निंदा। लेकिन मैं नहीं समझता कि ज्ञानदत्त जी की मंशा किसी की निंदा करना या चाटुकारिता करना हो सकती है। मेरा विनम्र मत है कि इसे हम आलोचना, मूल्यांकन या समीक्षा का आरंभ करने का एक प्रयत्न माना जाना चाहिए, लोगों का सोचना है कि इस में उन से एक अपराधिक गलती हो गई है।  लेकिन पहले अपराध के लिए तो कानून में भी सजा न दे कर परीवीक्षा (probation) पर छोड़े जाने का कायदा है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

ब्लागीरी को अपने काम और जीवन का सहयोगी बनाएँ

सोमवार से शोभा के बाऊजी, और जीजी हमारे बच्चों के नाना जी और नानीजी साथ हैं तो घर में रौनक है।  बच्चों के बाहर रहने से हम दोनों पति-पत्नी ही घर में रहते हैं। कोई भी आता है तो रौनक हो जाती है। बाऊजी अस्सी के होने जा रहे हैं, कोई सात बरस पहले उन्हें मधुमेह ने पकड़ लिया। वे स्वयं नामी ऐलोपैथिक चिकित्सक हैं और इलाके में बालरोग विशेषज्ञ के रूप में विख्यात भी। वे अपने शरीर में शर्करा की मात्रा नियंत्रित रखते हैं। फिर भी मधुमेह ने शरीर पर असर किया है। अब कमर के निचले हिस्से में सुन्नता का अनुभव करते हैं। उन की तंत्रिकाओँ में संचार की गति कुछ मंद हुई है। कोटा के एक ख्यात चिकित्सक को दिखाने आते हैं। इस बार जीजी को भी साथ ले कर आए। हम ने आग्रह किया तो रुक गए। पिछले दो दिनों से लोग उन से मिलने भी आ रहे हैं। लेकिन इन दो दिनों में ही उन्हें अटपटा लगने लगा है। अपने कस्बे में उन बाऊजी के पास सुबह से मरीज आने लगते हैं। वे परिवार के व्यवसायों पर निगरानी भी रखते हैं। जीजी भी सुबह से ही परिवार के घरेलू और खेती कामों पर  निगरानी रखती हैं और कुछ न कुछ करती रहती हैं। यहाँ काम उन के पास कुछ नहीं, केवल बातचीत करने और कुछ घूम आने के सिवा तो शायद वे कुछ बोरियत महसूस करने लगे हों। अब वे वापस घर जाने या जयपुर अपनी दूसरी बेटी से मिलने जाने की योजना बना रहे हैं। मुझे समय नहीं मिल रहा है, अन्यथा वे मुझे साथ ले ही गए होते। हो सकता है कल-परसों तक उन के साथ जयपुर जाना ही हो। सच है काम से विलगाव बोरियत पैदा करता है। 
रात को मैं और बाऊजी एक ही कमरे में सो रहे थे, कूलर चलता रह गया और कमरा अधिक ठंडा हो गया। मैं सुबह उठा तो आँखों के पास तनाव था जो कुछ देर बाद सिर दर्द में बदल गया। मैं ने शोभा से पेन किलर मांगा तो घर में था नहीं। बाजार जाने का वक्त नहीं था। मैं अदालत के लिए चल दिया। पान की दुकान पर रुका तो वहाँ खड़े लोगों में से एक ने अखबार पढ़ते हुए टिप्पणी की कि अब महंगाई रोकने के लिए मंदी पैदा करने के इंतजाम किए जा रहे हैं। दूसरे ने प्रतिटिप्पणी की -महंगाई कोई रुके है? आदमी तो बहुत हो गए। उतना उत्पादन है नहीं। बड़ी मुश्किल से मिलावट कर कर के तो जरूरत पूरी की जा रही है, वरना लोगों को कुछ मिले ही नहीं। अब सरकारी डेयरी के दूध-घी में मिलावट आ रही है। वैसे ही गाय-भैंसों के इंजेक्शन लगा कर तो दूध पैदा किया जा रहा है। एक तीसरे ने कहा कि सब्जियों और फलों के भी इंजेक्शन लग रहे हैं और वे सामान्य से बहुत बड़ी बड़ी साइज की आ रही हैं। मैं ने भी प्रतिटिप्पणी ठोकी -भाई जनसंख्या से निपटने का अच्छा तरीका है, सप्लाई भी पूरी और फिर मिलावट वैसे भी जनसंख्या वृद्धि में कमी तो लाएगी ही।
दालत पहुँचा, कुछ काम किया। मध्यांतर की चाय के वक्त सिर में दर्द असहनीय हो चला। मुवक्किल कुछ कहना चाह रहे थे और बात मेरे सिर से गुजर रही थी। आखिर मेरे एक कनिष्ठ वकील ने एनालजेसिक गोली दी। उसे लेने के पंद्रह मिनट में वापस काम के लायक हुआ। घऱ लौट कर कल के एक मुकदमे की तैयारी में लगा। अभी कुछ फुरसत पाई है तो सोने का समय हो चला है। कल पढ़ा था खुशदीप जी ने सप्ताह में दो पोस्टें ही लिखना तय किया है। अभी ऐसा ही एक ऐलान और पढ़ने को मिला। मुझे नहीं लगता कि पोस्टें लिखने में कमी करने से समस्याएँ कम हो जाएंगी। बात सिर्फ इतनी है कि हम रोजमर्रा के कामों  में बाधा पहुँचाए बिना और अपने आराम के समय में कटौती किए बिना ब्लागीरी कर सकें। इस के लिए हम यह कर सकते हैं कि हमारी ब्लागीरी को हम हमारे इन कामों की सहयोगी बनाएँ। जैसे तीसरा खंबा पर किया जाने वाला काम मेरे व्यवसाय से जुड़ा है और मुझे खुद को ताजा बनाए रखने में सहयोग करता है। अनवरत पर जो भी लिखता हूँ बिना किसी तनाव के लिखता हूँ। यह नहीं सोचता कि उसे लिख कर मुझे तुलसी, अज्ञेय या प्रेमचंद बनना है।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

नहीं सुन पाए राकेश मूथा की कविता

द्यान में मेरे पास ही बैठे संजय व्यास ने मुझे प्रभावित किया। एक दम सौम्य मूर्ति दिखाई पड़ रहे थे वे। वे पूरी बैठक में कम बोले लेकिन जितना बोले बहुत संजीदा। मैं ने उन्हें अब तक बिलकुल नहीं पढ़ा था। इस कारण उन के लिए बहुत असहज भी था। बाद में जब कोटा आ कर उन का ब्लाग 'संजय व्यास' खोल कर पढ़ा तो उन के गद्य से प्रभावित हुए बिना न रहा। उन की शैली अनुपम है और एक बार में ही पाठक को अपना बना लेती है। उन को बिलकुल वैसा ही पाया जैसे वे अपने ब्लाग पर रचनाओं से जाने जाते हैं। ब्लागीरी उन के लिए अभिव्यक्ति का बिलकुल स्वतंत्र माध्यम है जहाँ वे अपना श्रेष्ठतम व्यक्त कर सकते हैं, जो वे करते भी हैं। 
मेरी दूसरी ओर राकेश मूथा थे। वे राह से ही हमारे साथ थे। कुछ बातचीत भी उन से हुई थी। पेशे से इंजिनियर मूथा जी देखने से ही कलाप्रेमी दिखाई देते हैं। वे वर्षों से नाटकों से जुड़े हैं और अभी भी सक्रिय हैं। उन्हों ने अपने ब्लाग सीप का सपना पर अपनी कविताएँ ही प्रस्तुत की हैं। इसी नाम से उन का काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है। वे अपनी डायरी साथ ले कर आए थे और कुछ कविताएँ सुनाना चाहते थे। हम भी इस बैठक को कवितामय देखना चाहते थे। उन्हों ने अपनी डायरी पलटना आरंभ किया। उन की इच्छा थी कि वे चुनिंदा रचना सुनाएँ। मैं ने आग्रह किया कि वे कहीं से भी आरंभ कर दें। मुझे अनुमान था कि हरि शर्मा जी के उन की माता जी को अस्पताल ले जाने के लिए समय नजदीक आ रहा था। तभी भाभी का फोन आ गया। हरिशर्मा जी ने उत्तर दिया कि मैं अभी पहुँच ही रहा हूँ। अब रुकना संभव नहीं था। समय को देखते हुए मूथा जी ने अपनी डायरी बंद कर दी। हम उन के रचना पाठ से वंचित हो गए।
ब बाहर आ गए। मूथा जी को हरिशर्मा जी के साथ ही जाना था। हम सब ने उन दोनों को विदा किया। जाते-जाते मूथा जी को मैं ने अवश्य कहा कि मैं उन की रचनाओं से वंचित हो गया हूँ, लेकिन अगली जोधपुर यात्रा में अवश्य ही उन की रचनाएँ सुनूंगा, चाहे इस के लिए उन के घर ही क्यों न जाना पड़े। अब हम चार रह गए थे। मैं ने साथ बैठ कर कॉफी पीने का प्रस्ताव रखा, जो तुरंत ही स्वीकार कर लिया गया। हम चारों पास के ही एक रेस्टोरेंट में जा कर बैठे। कॉफी आती तब तक बतियाते रहे। शोभना का कहना था कि उन के ब्लाग पर टिप्पणियाँ बहुत मिलती हैं। इस तरह की भी कि वे एक लड़की हैं इस कारण से उन्हें अधिक टिप्पणियाँ मिलती हैं। यह बात सच भी है और इसे वे जानती भी हैं। कई बार तो अतिशय प्रशंसा भी मिलती है। जब कि वे जानती हैं कि पोस्ट उस के योग्य नहीं थी। इन्हीं बातों को लेकर उन का ब्लागीरी से मन उखड़ गया था। उन्हों ने उसे अलविदा भी कह दिया। उन्हें पता नहीं था कि इस घटना को हिन्दी ब्लागीरी में टंकी पर चढना कहते हैं। लेकिन अनेक ब्लागीरों ने उन का साहस बढ़ाया और वे टंकी से उतर पाने में सफल हो गई। आते-आते भी वे कह रही थीं - अंकल मैं टंकी से उतर आई हूँ, और अब दुबारा नहीं चढ़ने वाली। 
रेस्टोरेंट की कॉफी आई तो प्याला अच्छा खासा बड़ा था, कॉफी स्वादिष्ट भी और दर भी बिलकुल माकूल थी, सिर्फ दस रुपए। रेस्टोरेंट के बाहर आ कर हमने अपनी अपनी राह पकड़ी, इस आशा के साथ कि फिर दुबारा मिलेंगे और तब जोधपुर के और ब्लागीर भी साथ होंगे। काफिला बढ़ेगा ही घटेगा नहीं। संजय व्यास ने मुझे होटल के नजदीक छोड़ा। मुझे कुछ मित्रों से और मिलना था। उन से मिल कर मैं होटल पहुँचा। थकान जोर मार रही थी। होटल पहुँच कर मोबाइल पर अलार्म लगा कर आराम किया। अलार्म बजा तो उठने की इच्छा न थी, पर वापसी के लिए बस भी पकड़नी थी। शाम का भोजन होटल में ही कर बस पर पहुँचा तो बस के आने में समय था। मैं ने यह समय ब्लागरों से फोन पर बात करने में बिताया। हरिशर्मा जी की माताजी की आँख का ऑपरेशन हो चुका था। वे वापस घर पहुँच गई थीं। शोभना ब्लागर मिलन से अच्छा महसूस कर रही थीं। मूथा जी उलाहना दे रहे थे कि मैं ने होटल में भोजन क्यों किया, उन के घर क्यों नहीं गया? संजय व्यास से बात करता इतने बस लग गई। उन्हें फोन कर ही न सका। कोटा पहुँचने के बाद इतना व्यस्त रहा कि आज तक उन से बात न हो सकी।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लागीरी

शोक उद्यान में हरी दूब के मैदान बहुत आकर्षक थे। हमने दूब पर बैठना तय किया। ऐसा स्थान तलाशा गया जहाँ कम से कम एक-दो दिन से पानी न दिया गया हो और दूब के नीचे की मिट्टी सूखी हो। हम बैठे ही थे कि हरि शर्मा जी के मोबाइल की घंटी बज उठी। दूसरी तरफ कुश थे। वे उद्यान तक पहुँच चुके थे और पूछ रहे थे कि हम कहाँ हैं।  सूचना मिलते ही हमारी निगाहें प्रवेश द्वार की ओर उठीं तो कुश दिखाई दे गए। हम लोगों ने हाथ हिलाया तो उन्हों ने भी स्थान देख लिया। कुछ ही क्षणों में वे हमारे पास थे। सभी ने उठ कर उन का स्वागत किया। उम्र भले ही मेरी अधिक रही हो लेकिन कुश ब्लागीरी में मुझ से वरिष्ठ हैं, और उन्हें यह सम्मान मिलना ही चाहिए था। 
ब ने अपना परिचय दिया जो मुझ से ही आरंभ हुआ, और उस के बाद ब्लागीरी की अनौपचारिक बातें चल पड़ी। सब ने अपने अनुभवों को बांटा। कुश और मेरे सिवा जोधपुर के कुल चार ब्लागीर वहाँ थे। सभी ने तकनीकी समस्याओं का उल्लेख किया। यह एक वास्तविकता है कि हिन्दी ब्लागीरी में कदम रखना बहुत आसान है लेकिन जैसे-जैसे ब्लागीरी आगे बढ़ती है तकनीकी समस्याएँ आने लगती हैं। लेकिन यदि ब्लागीर में उन से पार पाने की इच्छा हो तो वह हल भी होती जाती हैं।  हिन्दी ब्लागीरी में इस तरह का माहौल है कि लोग समस्याओं को हल करने के लिए तत्पर रहते हैं। अवश्य ही कुश को ऐसी समस्याओं से कम पाला पड़ा होगा आखिर वे वेब डिजाइनिंग का काम करते हैं। तो पहले से उन की जानकारियाँ बहुत रही होंगी और नहीं भी रही होंगी तो उन पर पार पाने का तो उन का पेशा ही रहा है।
फिटिप्पणियों पर बात होने लगी। सब ने कहा कि वे टिप्पणी करने में बहुत अधिक समय जाया नहीं करते। उस का कारण भी है कि वे सभी अपने जीवन में व्यस्त व्यक्ति हैं। शोभना भौतिकी के किसी विषय पर शोधार्थी हैं और उन के दिन का अधिकांश समय शोध के लिए प्रयोग करने में प्रयोगशाला में व्यतीत होता है। सभी ने उन के शोध के बारे में जानना चाहा। उन्हों ने बताया भी लेकिन हम कुछ समझे, कुछ नहीं समझे। मैं ने कहा कि जिस क्षेत्र में वे शोध कर रही हैं उस के बारे में भी अपने ब्लाग पर लिखा करें, हम समझ तो सकेंगे कि आखिर समाज में किसी ब्लागीर के काम का क्या योगदान है और किस किस तरह के  लोग ब्लागीरी में आ रहे हैं?  मैं ने शोभना से उन की आयु पूछी थी, उन्हों ने 24 वर्ष बताई तो मैं ने कहा -मेरी बेटी उन से दो बरस बड़ी है। मुझे इस का लाभ यह हुआ कि मैं तुरंत अंकल हो गया। हालांकि इस लाभ का मिलना उस वक्त ही आरंभ हो गया था जब खोपड़ी की फसल आधी रह चुकी थी और जो शेष थी वह सफेद हो रही थी। 
शोभना कहने लगीं -अंकल! मैं दिन भर प्रयोगशाला में सर खपा कर घर लौटती हूँ और ताज़गी और बदलाव के लिए ब्लाग जगत में जाती हूँ, अगर मैं वहाँ भी वही लिखने लगी तो मेरी खोपड़ी का क्या होगा। उन की बात बिलकुल सही थी। मैं ने फिर भी कहा-कभी कभी अपने काम के बारे में बात करना अच्छा होता है। कम से कम ब्लाग पाठक जानेंगे तो कि उन का ब्लागीर क्या कर रहा है? और यह भी हो सकता है कि किसी पाठक की टिप्पणी ब्लागीर को उस के काम के लिए प्रेरित और उत्साहित करे। शोभना वास्तव में बहुत प्रतिभावान हैं। इस छोटी उम्र में जो उपलब्धियाँ उन्होंने हासिल की हैं उन के लिए मेरे जैसा पचपन में प्रवेश कर चुका व्यक्ति सिर्फ ईर्ष्या कर सकता है। हाँ साथ ही गर्व भी कि बेटियाँ अब उपलब्धियाँ हासिल कर रही हैं।
स बीच हरिशर्मा जी बताने लगे कि वे दस बरस से इंटरनेट पर चैटिया रहे हैं। यदि वे इस के स्थान पर ब्लाग लिख रहे होते तो उन का योगदान न जाने कितना होता। उन की बात भी सही थी। जब मैं ने चैट करना जाना तो मैं भी उस में फँस गया था। बहुत सा समय उस में जाया होता था। हालांकि मैं आगे से कभी चैटियाना आरंभ नहीं करता था। इस बीच मैं ने बताया कि नारी ब्लाग की मोडरेटर रचना जी दिन में चार-पांच बार चैट पर आ जाती थीं। मैं अपने स्वभाव के अनुसार उन्हें मना नहीं कर सकता था। एक दिन उन्हों ने किसी ब्लाग  पर की गई उन की टिप्पणियों के बारे में मेरी राय मांगी।  मेरे मन में रचना जी का सम्मान इस कारण से बहुत बढ़ गया था कि वे नारी अधिकारों और उन की समाज में बराबरी के लिए लगातार लिखती हैं और अन्य नारियों को लिखने को प्रेरित करती हैं। उन की भूमिका एक तरह से ब्लाग जगत में नारियों के पथप्रदर्शक जैसी थी।   मैं उन के बताए ब्लाग पर गया। उन की टिप्पणियों को पढ़ कर मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ। मैं ने उन को प्रतिक्रिया दी कि वह एक भद्दी बकवास है। बस, वे बहस कर ने लगी कि वह भद्दा कैसे है? और भद्दा का क्या अर्थ होता है। अंततः उन्हों ने कह दिया कि वे आज के बाद मुझ से चैट नहीं करेंगी। मुझे इस में क्या आपत्ति हो सकती थी? मेरी इस बात पर कुश ने कहा कि रचना का स्टेंड बहुत मजबूत और संघर्ष समझौता विहीन होता है। इस से उन का एक विशिष्ठ चरित्र बना है। मैंने कुश की इस बात  पर सहमति  जाहिर की। (जारी) 

विशेष-चैट की चर्चा चलने पर रचना जी के बारे में अनायास हुई इस बात को हरि शर्मा जी ने जोधपुर ब्लागर मिलन की रिपोर्ट में रचना जी के नाम का उपयोग किए बिना लिखा। इस पर स्वयं रचना जी ने इस पर आकर टिप्पणी भी की। लेकिन जब कुछ अनाम टिप्पणियाँ आने लगी तो हरिशर्मा जी ने उन्हें मोडरेट कर दिया। रचना जी ने नारी ब्लाग पर मेरे और उन के बीच हुए चैट के एक भाग को उजागर कर दिया। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। मैं आज भी रचना जी द्वारा मांगी गई राय पर की गई मेरी प्रतिक्रिया पर स्थिर हूँ। मैं ने जो महसूस किया वह प्रकट किया। उस के लिए मेरे पास अपने कारण हैं। उन्हें किसी और पोस्ट में व्यक्त करूंगा। फिलहाल जोधपुर मिलन की रिपोर्ट जारी रहेगी।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

शर्मा जी के घर रुचिकर स्वादिष्ट भोजन

जोधपुर की यह यात्रा पहली नहीं थी। मेरी बुआ यहाँ रहती थी, फूफाजी विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर थे। उन की बेटियों के ब्याह में कोई पेंतीस बरस पहले यहाँ आना हुआ था। यहाँ पहुँचने के पहले मार्ग में ही एक दुर्घटना में पिताजी को चोट लगी और उनका तत्काल ऑपरेशन हुआ दो सप्ताह बाद पुनः ऑपरेशन हुआ। हमें इतने दिन यहीँ रुकना पड़ा। तब कोई काम नहीं था। गर्मी का मौसम था तो दुपहर बाद सायकिल ले कर निकल पड़ता। इस तरह जोधपुर से पहला परिचय ही गहरा था। फिर कुछ बरस पहले यहाँ वकालत के सिलसिले में आना जाना आरंभ हुआ और अब बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति के सदस्य के नाते यहाँ निरंतर आना जाना हो रहा है। ऐसे में यह तो नहीं हो सकता था कि जोधपुर के ब्लागीरों से मिलना न होता। पिछली बार हरि शर्मा जी से भेंट हुई, इस बार उन्होंने एक संक्षिप्त ब्लागीर मिलन की योजना को ही कार्यरूप दे डाला।
मैं ने बार कौंसिल के दफ्तर पहुँचा तो रविवार के अवकाश के कारण वहाँ केवल दो कार्यालय सहायक ही उपस्थित थे। वे भी केवल उस दिन होने वाली सुनवाई के लिए। शिकायत कर्ता अपने साक्षियों के साथ उपस्थित थी। मैं ने कार्यवाही आरंभ होने के पहले ही बता दिया कि हरिशर्मा जी आएँगे। यदि वे कार्यवाही समाप्त होने के पहले आ जाएँ तो उन्हें बैठने को कह दिया जाए। कार्यवाही पूर्ण होने के पहले ही सूचना मिल गई कि वे आ चुके हैं। मैं उस दिन की कार्यवाही पूरी कर उन के पास पहुँचा और हम तुरंत ही उन के घर के लिए चल दिए। ब्लागीर मिलन अशोक उद्यान में रखा गया था। डेढ़ बजे तक वहाँ पहुँचना था। वहाँ सब से पहले शर्मा जी की स्नेहमयी माताजी से भेंट हुई। कुछ माह पहले उन की एक आँख के मोतियाबिंद का ऑपरेशन हो चुका था। और उसी दिन शाम को दूसरी का होने वाला था। जिस के लिए उन्हें चार बजे अस्पताल ले जाया जाना था। यह दायित्व भी हरि शर्मा जी का था। 
में ब्लागीर मिलन में जाने की जल्दी थी। भाभी जी (श्रीमती शर्मा) ने तुरंत भोजन लगा दिया। मैं चकित था। थाली में कम से कम छह कटोरियाँ विराजमान थीं। उन्हें पास में चावल थे। मेरी तो भूख ही देखते ही काफूर हो गई। ऐसा पता होता तो मैं सुबह के पराठे में खर्च किया धन अवश्य बचा लेता। खैर मैं ने तय किया कि चपाती और चावल का न्यूनतम उपयोग कर कटोरियाँ खाली कर दी जाएँ। मैं तेजी से इस काम को करने में सफल रहा। मैं ने बताया कि मैं इस काम में उतना सिद्ध-हस्त नहीं जितना मेरे पिताजी थे। उन के भोजन के बाद थाली और कटोरियाँ ऐसी दिखती थीं कि यदि यह पता न हो कि उन में भोजन किया गया है तो उन्हें धुले हुए बर्तनों के साथ जमा दे। भोजन बहुत रुचिकर, स्वादिष्ट, सादा, राजस्थानी मिजाज का और बिलकुल घरेलू था। ऐसा कि किसी भी जोधपुर यात्रा के समय भाभी जी को अचानक कष्ट देने लायक। हम शीघ्रता से वहाँ से ब्लागर मिलन के लिए निकले। भाभी ने शर्मा जी से कहा कि यदि उन्हें वापस लौटने में देर हो तो वे माताजी को समय पर ले कर निकल लेंगी। लेकिन शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे समय से पहुँच जाएंगे। 
म वहाँ से निकलते इस से पहले ही ब्लागीरों के फोन आने लगे। शर्मा जी ने आश्वस्त किया कि वे कुछ ही देर में पहुँच रहे हैं। पहले आने वाले रुके रहें। मार्ग में एक अधेड़ उम्र के संजीदा दिखने वाले सज्जन वाहन में सवार हुए। शर्मा जी ने परिचय दिया कि वे राकेशनाथ जी मूथा हैं, कवि हैं, एक संग्रह प्रकाशित हो चुका है और अपने ब्लाग पर केवल कविताएँ लिखते हैं। कुछ ही देर में हम उद्यान के बाहर थे। बाहर बोर्ड लगा था "सम्राट अशोक उद्यान"। शर्मा जी ने बताया कि पिछली भाजपा सरकार ने यह बोर्ड लगवा दिया। इस लिए कि कहीं यह "अशोक  गहलोत उद्यान "  न हो जाए। हम अंदर पहुचे तो वहाँ संजय व्यास और शोभना चौधरी मौजूद थीं।   

बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

कहीं सर्दी कहीं वसंत

निवार को जोधपुर यात्रा के पहले की व्यस्तता का उल्लेख मैं ने पिछली पोस्ट में किया था। वह पोस्ट लिखने के उपरांत भी व्यस्तता जारी रही। यहाँ तक कि सोमवार को वापस कोटा पहुँचने के बाद भी  व्यस्तता के कारण यहाँ कोई पोस्ट नहीं लिख सका।  शनिवार को जोधपुर के लिए निकलने के पहले जल्दी से भोजन निपटाया और कॉफी पी। जल्दी से बस पकड़ने के लिए रिक्षा पकड़ा। बस जाने को तैयार खड़ी थी। अपने स्लीपर में घुस कर बाहर पैर लटका कर बैठा तो तेज शीत के बावजूद पसीना निकल रहा था। यह तीव्र गति से की गई भागदौड़ का नतीजा था। मैं कुछ देर वैसे ही बैठा रहा। पसीना सूखने के बाद जब कुछ ठंडी महसूस होने लगी तो स्लीपर में लेट गया तब तक बस कोटा नगर की सीमा से बाहर आ चुकी थी। बूंदी निकलने के बाद एक जगह बस रुकी। तब तक मुझे नींद नहीं आई थी। मैं ने लघुशंका से निवृत्त होने का अच्छा अवसर जान कर बस से नीचे उतरा। वहाँ बस के लगेज स्पेस में जोधपुर भेजे जाने के लिए ताजी कच्ची हल्दी के बोरे लादे जा रहे थे। लदान में करीब पंद्रह मिनट लगे। लेकिन वहाँ शीत महसूस नहीं हुई। पूरी तरह वासंती मौसम था। बस ने हॉर्न दिया तो फिर से बस में चढ़ कर स्लीपर में घुस लिया। इस बार नींद आ गई।
फिर बस के रुकने और अंदर के यात्रियों की हल चल से नींद खुली। बस किसी हाई-वे रेस्टोरेंट के बाहर खड़ी थी। सवारियाँ नीचे उतरने लगीं। मैं भी उतर लिया। मेरे लिए यह नया स्थान था। पता करने पर जानकारी मिली कि यह स्थान नसीराबाद से कोई बीस किलोमीटर पहले है। बहुत से ट्रक और दो बसें और खड़ी थीं। कुछ लोग चाय पी रहे थे। कुछ चाय बनने के इंतजार में थे। प्लास्टिक के बने कथित डिस्पोजेबल  लेकिन चरित्र में कतई अनडिसपोजेबल  गिलासों में चाय एक काउंटर से टोकन ले कर वितरित की जा रही थी। टोकन एक दुकान से पांच रुपए की एक चाय की दर से दिए जा रहे थे, वहाँ स्नेक्स उपलब्ध थे।  मैं ने कॉफी के टोकन के लिए पचास का नोट दिया तो ने पंद्रह रुपए काट लिए। मुझे यह कीमत बहुत अधिक लगी। मैं ने उस से पूछ लिया -ऐसा क्या है कॉफी में? उस ने कहा शुद्ध दूध में बनाएँगे। मुझे फिर  भी सौदा महंगा लगा। मैं ने टोकन लौटा कर पैसे वापस ले लिए। चाय पीना तो अठारह बरस पहले छोड़ चुका हूँ। फिर यह कॉफी पीने लगा। कुछ महंगी होती है लेकिन कम पीने में आती है। मैं सोचने लगा रात को एक बजे जब वापस बस में जा कर सोना ही है तो कॉफी क्यों पी जाए, वह भी इतनी महंगी। कोटा में हमें उतनी कॉफी के लिए मात्र चार या पांच रुपए  देने होते हैं।  ड्राइवर और बस स्टाफ एक केबिन में बैठे भोजन कर रहे थे। बस करीब तीस-पैंतीस मिनट वहाँ रुकने के बाद फिर चल पड़ी। इस स्थान पर भी शीत महसूस नहीं हुई। 
जोधपुर पहुँचने के पहले बस बिलाड़ा में रुकी। वहाँ भी शीत नहीं थी। जोधपुर में जैसे ही बस से उतरे शीत महसूस हुई। अजीब बात थी। कोटा में सर्दी थी और जोधपुर में भी लेकिन बीच में कहीं सर्दी महसूस नहीं हुई। बस में नींद ठीक से नहीं निकली थी। होटल जा कर कुछ देर आराम किया। फिर कॉफी मंगा कर पी और स्नानादि से निवृत्त हो कर होटल से निकलने को था कि बेयरे ने आकर बताया कि आप नाश्ता ले सकते हैं। मैं ने उसे एक पराठा लाने को कहा। तभी हरि शर्मा जी का फोन आ गया। कहने लगे ब्लागर बैठक अशोक उद्यान में रखी है। अधिक नहीं बस चार पाँच लोग होंगे।  वे बारह के लगभग मुझे लेने बार कौंसिल के ऑफिस पहुँचेंगे। मैं नाश्ता कर मौसम में ठंडक देख शर्ट पर एक जाकिट पहनी और बार कौंसिल के कार्यालय के लिए निकल लिया।

बार कौंसिल कार्यालय जोधपुर

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

यात्रा के पहले काम का एक दिन

सुबह शेव बना कर दफ्तर में आ बैठा था। सुबह से कोहरा और बादल थे तो रोशनी की कमी ने दुपहर चढ़ने का अहसास ही समाप्त कर दिया। काम और आगंतुकों में ऐसा फँसा कि 12 बजे के पहले उठ नहीं सका। आगंतुकों के उठते ही ने उलाहना दिया -आज नहीं नहाना क्या?  मैं तुरंत उठ कर अंदर गया तो देखा भोजन तैयार है। पर स्नान बिना तो भूख दरवाजे के बाहर खड़ी रहती है। शोभा ठहरी शिव-भक्त दो दिन की उपवासी। मैं तुरंत स्नानघर में घुस लिया। बाहर निकला तब तक उपवासी उपवास खोल चुकी थी। 
आज शाम जोधपुर निकलना है। सोमवार की सुबह ही वापस लौटूंगा। उस दिन का अदालत के काम की आज ही तैयारी जरूरी थी, तो भोजन के बाद भी बैठना पड़ा। एक बजे फिर मकान का मौका देखने के लिए एक सेवार्थी का संदेश आया। थका होने से उसे तीन बजे आने को कहा और मैं काम निपटा कर कुछ देर विश्राम के लिए रजाईशरणम् हुआ।
ह साढ़े तीन बजे आया। कोहरा छंट चुका था, धूप निकल आई थी। लेकिन हवा में नमी और ठंडक मौजूद थी। फरवरी के मध्य़ में बरसों बाद ऐसा सुहाना मौसम दीख पड़ा। सेवार्थी का घर नदी पार था। चंबल बैराज पर बांध के सहारे बने पुल पर हो कर गुजरना पडा। बांध के पास बहुत लोग प्रकृति और बांध की विपुल जलराशि का नजारा लेने एकत्र थे और कबूतरों को दाना डाल रहे थे। सैंकड़ों कबूतर दाने चुग रहे थे। सैंकड़ों इंतजार में थे। मौका देख कर वापस लौटा तो फिर से काम निपटाने बैठ गया। प्रिंट निकालते समय लगा कि  इंक-जेट कार्ट्रिज में स्याही रीतने वाली है। तुरंत उसे भरने की व्यवस्था की गई। सूख जाने पर कार्ट्रिज खराब होने का अंदेशा जो रहता है। सिरींज में स्याही जमी थी। शोभा ने प्रस्ताव किया कि सिरींज वह ला देगी। वह चार रुपए की नई कुछ बड़ी सिरिंज तीन मिनट में केमिस्ट से ले आई। हमने स्याही भर कर दुबारा प्रिंट निकाल कर देखा ठीक आ रहा था। काम की जाँच की। अब सोमवार को सुबह कोटा पहुँचने पर अदालती काम ठीक से करने लायक स्थिति है और दफ्तर से उठ रहा हूँ।
ल जोधपुर में काम से निपटते ही हरि शर्मा जी को फोन करना है। उन्हों ने वहाँ एक छोटा ब्लागर मिलन रखा है। तीसरे पहर तक उस से निपट कर कुछ और लोगों से मिलना हो सकेगा। देखते हैं जोधपुर की इस यात्रा में क्या नया मिलता है? कल ब्लागीरी से अवकाश रहेगा।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

लो, मेरा रूमाल ले लो

शिवरात्रि के अवकाश का दिन बिना कोई उल्लेखनीय काम और उपलब्धि के रीत गया। कुछ ऐसे ही एक मौका देखने जाना पड़ा। वापसी में जोधपुर जाने-आने की यात्रा के टिकट ले कर आया बस में लोअर स्लीपर मिल गया इतना पर्याप्त था इस जाती हुई और जाते जाते अपने तमाम रूप और नखरे दिखाती सर्दी में। बस अब चंबल पुल पार होने के पहले स्लीपर के बॉक्स में घुस कर कंबल डाल लेना और लेटे हुए जब तक नींद न आ जाए तब तक बाहर के अंधेरे के दृश्य देखते रहना। अंधेरी रात में अंधियार के रंग में रंगे पेड़ों और गांवों में जलती बत्तियों की रोशनी के केवल आसमान में टंगे सितारों के सिवा और क्या देखा जा सकता है। पर वहाँ जहाँ बिजली की रोशनी न हो दूर दूर तक वहाँ सितारों की चमक अद्भुत लगती है। उन में से बहुतों को मैं पहचानता हूँ। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी और सब से अधिक चमकदार मृगशिर नक्षत्र। शुक्र, बृहस्पति और मंगल आसानी से पहचाने जाते हैं। बस की यात्रा में शनि को पहचानने में बहुत दिक्कत होती है। राशि मंडल के तारे हमेशा पहचानने में आ जाते हैं। खास तौर पर सिंह और वृच्छिक तो देखते ही पहचाने जाते हैं, मिथुन भी। 
खैर, यह सब तो कल रात को देखा जाना है। आज राज भाटिया जी की पोस्ट बहुत भावुक कर गई। सोने के पहले अनपैक्ड दिनेशराय द्विवेदी  को जो आधा रजाई में घुसा हुआ मोबाइल में डूबा था, शूट कर डाला। पास की टेबुल पर पैक्ड हुक्का उन से अधिक खूबसूरत लग रहा था। लगे भी क्यों न उस के पैदा होने के पहले ही जर्मनी जाने की टिकट जो बन गई थी। बिना कोई पासपोर्ट और वीजा के वह जर्मनी जाने वाला था हमेशा-हमेशा के लिए।  बाजार से गुजरते हुए एक दुकान पर हुक्के दिखे। बस हुक्के ही हुक्के। भाटिया जी का मन ललचा गया। बोले-एक ले लेता हूँ। वहाँ जर्मनी में लोग सिगरेट ऑफर करते हैं तो मैं बोलता हूँ हम ये नहीं पीते। पूछते हैं क्या पीते हैं? तो उन्हें कहता हूँ हुक्का। फिर सवाल होते हैं कि ये हुक्का क्या है? मैं  उन्हें बताता हूँ। इस बार असल ही ले जाकर बताता हूँ।
न्हें पसंद तो बहुत बड़ा वाला आ रहा था। पर छोटा तैयार करवाया गया। जिस से ले जाने में परेशानी न हो। अब जर्मन जा रहे हुक्के का दिनेशराय द्विवेदी से क्या मुकाबला। पर फँस गया। जर्मनी जाने के पहले दिनेशराय द्विवेदी के पास होने की सजा भुगती और शूट हो गया। अब तक तो हुक्का अनपैक्ड हो कर फूँकने की शक्ल में आ गया होगा और भाटिया जी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा होगा। 
जबूरी थी, कि बहिन के ससुराल में विवाह था और आना बेहद जरूरी था। भाटिया जी को छोड़ कर आना पड़ा। भाटिया जी में एक बेहतरीन साथी मिला। एक स्नेहिल भाई जैसा। शाम को शिवराम जी का कविता संग्रह माटी मुळकेगी एक दिन देख रहा था। साथी क्या होता है वहाँ जाना। आप भी देखिए .....


लो, मेरा रूमाल ले लो
 -- शिवराम



किसे ढूंढ रहे हो? क्या मुझे।

नहीं भाई नहीं
साथी जेबों में नहीं मिलते
दाएँ-बाएँ भी नहीं मिलते
नहीं, ब्रीफकेस में तो हर्गिज नहीं
वे होते हैं तो हाथों में हाथ डाले होते हैं
और नहीं होते तो नहीं होते

वे आसानी से खोते भी नहीं
वे आसानी से पीछा भी नहीं छोड़ते 

अपनी उंगलियों में ढूंढो
मैं अभी भी वहीं हूँ

अच्छा!
कोई और चीज ढूंढ रहे हो
कोई बात नहीं
मुझे गलतफहमी हो गई थी 
मैं समझा था कि तुम 
शायद मुझे ढूंढ रहे हो
तुम तो शायद रूमाल ढूंढ रहे हो
हथेलियों का मैल पोंछने के लिए
या माथे का पसीना
या शायद नाक सिनकना चाहते हो
और, रूमाल नहीं मिल रहा है

लो, मेरा रूमाल ले लो
जो चाहो साफ करो इस से
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी 
साफ किया जा सकता है।



शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है

पिछले छह दिन यात्रा पर रहा। कोई दिन ऐसा नहीं रहा जिस दिन सफर नहीं किया हो। इस बीच जोधपुर में हरिशर्मा जी से मुलाकात हुई। जिस का उल्लेख पिछली संक्षिप्त पोस्ट में मैं ने किया था। रविवार सुबह कोटा पहुँचा था। दिन भर काम निपटाने में व्यस्त रहा। रात्रि को फरीदाबाद के लिए रवाना हुआ, शोभा साथ थी। सुबह उसे बेटी के यहाँ छोड़ कर स्नानादि निवृत्त हो कर अल्पाहार लिया और दिल्ली के लिए निकल लिया वहाँ। राज भाटिया जी से मिलना था। इस के लिए मुझे पीरागढ़ी चौक पहुँचना था। मैं आईएसबीटी पंहुचा और वहाँ से बहादुर गढ़ की बस पकड़ी। बस क्या थी सौ मीटर भी मुश्किल से बिना ब्रेक लगाए नहीं चल पा रही थी। यह तो हाल तब था जब कि वह रिंग रोड़ पर थी। गंतव्य तक पहुँचने में दो बज गए। भाटिया जी अपने मित्र के साथ वहाँ मेरी प्रतीक्षा में थे। मैं उन्हें देख पाता उस से पहले उन्हों ने मुझे पहचान लिया और नजदीक आ कर मुझे बाहों में भर लिया। 
म बिना कोई देरी के रोहतक के लिए रवाना हो गए। करीब चार बजे हम रोहतक पहुँचे। वहाँ आशियाना (रात्रि विश्राम के लिए होटल) तलाशने में दो घंटे लग गए। होटल मिला तब तक शाम ढल चुकी थी। हम दोनों ही थके हुए थे। दोनों ने कुछ देर विश्राम किया। कुछ काम की बातें की जिस के लिए हमारा रोहतक में मिलना तय हुआ था। विश्राम के दौरान भी दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। भाटिया जी अपने जर्मनी के जीवन के बारे में बताते रहे। फिर भोजन की तलाश आरंभ हुई। आखिर एक रेस्तराँ में दोनों ने भोजन किया और फिर रात को वे ले गए उस मोहल्ले में जहाँ उन का बचपन बीता था। वे अपने बचपन के बारे में बताते रहे। हम वापस आशियाने पर पहुँचे तो थके हुए थे। फिर भी बहुत देर तक बातें करते रहे। बीच-बीच में दिल्ली और आसपास के बहुत ब्लागरों के फोन भाटिया जी के पास आते रहे। कुछ से मैं ने भी बात की। फिर सो लिए। दूसरे दिन हम सुबह ही काम में जुट लिए। पैदल और रिक्शे से इधर उधऱ दौड़ते रहे। दोपहर बाद कुछ समय निकाल कर भाटिया जी ने भोजन किया। मैं उस दिन एकाहारी होने से उन का साथ नहीं दे सका तो उन्हों ने अपने साथ भोजन करने के लिए। किसी को फोन कर के बुलाया। 
मुझे उसी दिन लौटना था। जितना काम हो सका किया। भाटिया जी के कुछ संबंधियों से भी भेंट हुई। मुझे उसी रात वापस लौटना था। फिर भी जितना काम हो सकता था हमने निपटाया और शेष काम भाटिया जी को समझा दिया। रात को दस बजे भाटिया जी मुझे बस स्टॉप पर छोड़ने आए। आईएसबीटी जाने वाली एक बस में मैं चढ़ लिया। कंडक्टर का कहना था कि रात बारह बजे तक हम आईएसबीटी पहुँच लेंगे। लेकिन पीरागढ़ी के नजदीक ही चालक ने बस को दिल्ली के अंदर के शॉर्टकट पर मोड़ लिया। रास्ते में अनेक स्थानों पर लगा कि जाम में फँस जाएंगे। लेकिन बस निर्धारित समय से आधे घंटे पहले ही आईएसबीटी पहुँच गई। मेरे फरीदाबाद के लिए साधन पूछने पर चार लोगों ने बताया कि मैं सड़क पार कर के खड़ा हो जाऊँ कोई न कोई बस मिल जाएगी। वहाँ आधे घंटे तक सड़क पर तेज गति से दौड़ते वाहनों को निहारते रहने के बाद एक बस मिली जिस का पिछला दो तिहाई भाग गुडस् के लिए बंद था। उस के आगे के हिस्से में कोई बीस आदमी चढ़ लिए। बस पलवल तक जाने वाली थी। मैं ने शुक्र किया कि मुझे यह बस बेटी के घर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर उतार सकती थी। एक घंटे बस में खड़े-खड़े सफर करने और एक किलोमीटर तेज चाल से पैदल चलने के बाद में सवा बजे बेटी के घऱ था। बावजूद इस के कि सर्दी भी थी और ठंड़ी हवा भी तेज चलने के कारण मैं पसीने में नहा गया था। 
दूसरे दिन दोपहर मैं पत्नी के साथ कोटा के लिए रवाना हुआ और रात नौ बजे के पहले घर पहुँच गया। आज अपनी वकालत को संभाला। दोपहर बाद भाटिया जी से फोन पर बात हुई। बता रहे थे कि कल वे दिन भर भोजन भी नहीं कर सके। पूछने पर बताया कि कोई खाने पर उन का साथ देने वाला नहीं था और उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है।

रविवार, 31 जनवरी 2010

हरि शर्मा जी से एक मुलाकात

क दिन की जोधपुर यात्रा से आज सुबह लौटा हूँ और अब फिर से सामान तैयार हैं शोभा सहित रवाना हो रहा हूँ, फरीदाबाद के लिए। उसे बेटी के पास छोड़ मैं निकल लूंगा दिल्ली। वहाँ राज भाटिया जी से भेंट होना निश्चित है। और किस किस के साथ भेंट हो सकेगी यह तो यह तो वहाँ की परिस्थितियों पर ही निर्भर करेगा।
क दिन की यह जोधपुर यात्रा बार कौंसिल राजस्थान की अनुशासनिक समिति की बैठक के सिलसिले में हुई। इस के अलावा मुझे एक दावत में भी शिरकत करने का अवसर मिला जिस में कानूनी क्षेत्र के बहुत से लोग सम्मिलित थे। लेकिन उस का उल्लेख फिर कभी। 
कोटा से निकलने के पहले जोधपुर के ब्लागर श्री हरि शर्मा का मेल मिला था। मेरे पास समय था। मैं ने काम से निपटते ही उन्हे फोन किया तो पता लगा कि रात को एक दुर्घटना में उन्हें चोट पहुँची है और कार को भी हानि हुई है। उन के सर में एक टांका भी लगा है। पूछने पर पता लगा कि वे अपनी ड्यूटी पर बैंक में उपस्थित हैं। उन का बैंक नजदीक ही था मैं पैदल ही उन से मिलने चल दिया। रास्ते में अटका तो वे खुद लेने आ गए। हरि शर्मा जी के साथ करीब एक घंटा बिताया। वे बात करते हुए भी लगातार अपना बैंक का काम निपटाते रहे। उसी बीच अविनाश वाचस्पति जी से भी बात हुई। हरि शर्मा जी से मिल कर अच्छा लगा।  मैं ने उन्हें बताया कि मुझे तो अब जोधपुर निरंतर आना पड़ेगा। तो कहने लगे कि अब की बार जब भी समय होगा कोई ऐसा कार्यक्रम बना लेंगे जिस से अधिक ब्लागीर एक साथ मिल सकें। हम ब्लागीरों को इस काम में अपना समय लगाने को व्यर्थ समझने वाले लोगों के लिए आभासी संबंधों वाले लोगों को वास्तविकता के धरातल पर एक साथ देखना एक विचित्र अनुभव हो सकता है।