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गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

चुनाव परिणाम से उत्पन्न अवसाद

 ल शाम मेरे साथी ब्लागर अख़्तर खान अकेला अवसाद में थे। उसी अवसाद में उन्हों ने कल शाम पोस्ट लिखी। लेकिन अच्छा यह हुआ कि अवसाद की यह धुंध तात्कालिक थी, जो सुबह तक छंट गई और वे पुनः अपनी शैली में आ गए। अवसाद का कारण था अभिभाषक परिषद कोटा के वार्षिक चुनाव के परिणाम। चुनाव में इस बार कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। कोटा की अभिभाषक परिषद को ऐसी कार्यकारिणी चाहिए थी जो वकीलों और वकालत के व्यवसाय के हितों का सही प्रतिनिधित्व कर सके। लेकिन इस के उपयुक्त उम्मीदवार तलाश के बावजूद भी नहीं मिल रहे थे।  
पिछले दो वर्ष कोटा की वकालत के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण थे। इस बीच वकालत कम हुई और वकीलों की हड़तालें और कामबंदी अधिक। उस के कारण भी थे। कोटा राजस्थान का महत्वपूर्ण संभागीय मुख्यालय है। इस संभाग की भूमि उपजाऊ है। मध्य प्रदेश के पारयात्र पर्वत (विन्ध्याचल पर्वत का पश्चिमी भाग) से निकलने वाली पार्वती और चंबल और इस के बीच की सभी नदियाँ इसी संभाग में आ कर आपस में मिल जाती हैं, जिस के कारण जल संसाधन भरपूर हैं। जल की उपलब्धता के कारण इस संभाग में जनसंख्या घनत्व राजस्थान के सभी संभागों से अधिक है। कृषि उत्पादन भरपूर होता है, इस से व्यापार भी कम नहीं। संसाधनों के कारण यहाँ उद्योग भी लगे और कोटा नगर औद्योगिक हो गया। लेकिन हर वस्तु की भांति उद्योगों की भी एक आयु होती है। धीरे-धीरे उद्योग बूढ़े होते गए और मरते गए। 1997 में एक साथ पाँच बड़े उद्योग बंद हो गए। उन से बेरोजगारी का सैलाब उत्पन्न हुआ। लेकिन इस नगर की किस्मत अच्छी थी। इस बीच यहाँ के कुछ टेक्नोक्रेट्स ने आईआईटी, इंजिनियरिंग और चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग देना आरंभ किया और उन्हें सफलता हासिल हुई हजारों छात्र यहाँ कोचिंग लेने आने लगे। अब नगर में बाहर से आने वाले साठ हजार से अधिक कोचिंग छात्र रहने लगे तो उद्योगों से बेरोजगार हुए लोग उन्हें सेवाएँ प्रदान करने में जुटे और बेरोजगारी का दंश कुछ कम हुआ। लोग इस नगर को औद्योगिक नगर के स्थान पर शिक्षा नगरी कहने लगे। हालांकि यह एक गलत तखल्लुस है। क्यों कि यह अभी भी शिक्षा का केन्द्र नहीं अपितु केवल प्रवेश परीक्षा में सफलता के लिए प्रशिक्षण का केंद्र है।
राजस्थान के राज्य प्रशासन में कोटा जैसे महत्वपूर्ण संभाग का हिस्सा भी महत्वपूर्ण होना चाहिए था। लेकिन राजस्थान के गठन के समय जयपुर राजधानी हुई, जोधपुर को उच्चन्यायालय मिला, अजमेर को राजस्व मंडल मिला, उदयपुर को कुछ अन्य मुख्यालय मिले लेकिन कोटा को कुछ नहीं मिला। राजधानी होने के कारण जयपुर को उच्चन्यायालय की पीठ भी मिल गई। कोटा लगातार अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत रहा। जनसंख्या घनत्व अधिक होने से राज्य प्रशासन के हर क्षेत्र में कोटा संभाग का काम अधिक है। यदि संभागों की दृष्टि से देखा जाए तो उच्चन्यायालय में सर्वाधिक मुकदमे कोटा संभाग के हैं। इस दृष्टि से यदि राजस्थान उच्चन्यायालय की एक और पीठ स्थापित होती है तो वह कोटा का अधिकार है। लेकिन राजनैतिक समीकरणों में कमजोर होने के कारण लगता है कि उस का यह अधिकार भी उदयपुर, बीकानेर या अजमेर न छीन ले जाए। इसी आशंका को देखते हुए कोटा ने उच्चन्यायालय की पीठ के लिए आंदोलन आरंभ कर दिया। कोटा के वकील 2009-10 में पाँच महिने हड़ताल पर रहे, उन्हें देख कर उदयपुर, बीकानेर के वकील भी इस से कुछ कम समय हड़ताल पर रहे। राज्य के एक बड़े हिस्से में न्यायिक प्रक्रिया बिलकुल बाधित रही, लेकिन राज्य सरकार को इस की तनिक भी चिंता न हुई। पाँच माह की काम बंदी के बाद जब उच्चन्यायालय की बैंच के लिए स्थान तय करने के लिए समिति गठित हो गई और मुख्यमंत्री ने आश्वासन दिया कि कोटा में राज्य उपभोक्ता आयोग की सर्किट बैंच, राजस्व मंडल की खंड पीठ स्थापित की जाएगी तथा वकीलों को मकान बनाने के लिए रियायती दर पर भूखंड दिए जाएंगे तो हड़ताल समाप्त हुई।  
लेकिन जब पूरा एक वर्ष जाने को हुआ और आश्वासन कोरे आश्वासन बने रहे तो वकीलों को फिर से संघर्ष के मैदान में उतरना पड़ा। नवम्बर में फिर से हड़ताल हुई। इस बीच आनन फानन में राज्य उपभोक्ता आयोग की सर्किट बैंच के आरंभ होने की तिथि तय कर दी गई। वकीलों को भूखंड आवंटित करने की प्रक्रिया आरंभ करने के लिए नगर विकास न्यास से पत्र अभिभाषक परिषद को मिल गया। लेकिन राजस्व न्यायालय की खंड पीठ के लिए बात करने को मुख्यमंत्री ने समय नहीं दिया। उन का कहना है कि पहले हड़ताल समाप्त की जाए तब वे बात करेंगे। वकील इस बात पर अड़ गए कि हड़ताल के जारी रहते बात क्यों नहीं की जा सकती है? अब हड़ताल जारी है। इस बीच चुनाव का समय आ गया। यह लगातार दूसरा वर्ष है जब अभिभाषक परिषद कोटा के चुनाव हड़ताल के दौरान हुए हैं। 
बात अख़्तर खान अकेला के क्षणिक अवसाद से आरंभ हुई थी। जब उन्हों ने उम्मीदवारी के लिए पर्चा दाखिल किया तो मैं समझता था कि वे इसे वापस ले लेंगे, लेकिन उन्हों ने वापस नहीं लिया। उन का सोचना था कि वे वकीलों के हर संघर्ष, हर काम में आगे रहे हैं और वकीलों तथा न्यायिक व्यवस्था की बेहतरी के लिए अच्छा काम कर सकते हैं, इस कारण से वकीलों को उन्हें परिषद का अध्यक्ष चुनना चाहिए। लेकिन यह सोच मतदाताओं की नहीं है। मतदाताओं का समूह अभी किसी भी क्षेत्र में काम के आधार पर संगठित ही नहीं होता। मतदान के लिए अनेक आधार होते हैं जो परंपरागत अधिक हैं। जिनमें उम्मीदवार की जाति, धर्म, किन समूहों से वह जुड़ा है आदि आदि हैं। काम और योग्यता के आधार पर मतदान करने वाले लोग भी देखते हैं कि उम्मीदवार में इन परंपरागत आधारों पर जीत के नजदीक पहुँचने की क्षमता भी है या नहीं। स्वयं अख़्तर यह जानते थे कि वे इस पर खरे नहीं हैं, उन्हों ने कभी लॉबिंग नहीं की। नतीजा यह हुआ कि उन्हें केवल आठ-नौ प्रतिशत मत प्राप्त हुए। यह उन की अपेक्षा से बहुत कम थे। उसी ने उन में यह अवसाद उत्पन्न किया। यह अवसाद उन की कल शाम आई ब्लागपोस्ट में स्पष्ट दिखाई पड़ता है। आज सुबह जो पोस्टें आई हैं वे बताती हैं कि वे अवसाद से पूरी तरह निकल चुके हैं। मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि उन्हें कल शाम उन का अवसाद प्रदर्शित करने वाली पोस्ट को हटा लेना चाहिए। 
स चुनाव में भाग लेने से अख़्तर को कोई हानि नहीं हुई है। उन्हें चुनाव का अनुभव हुआ है और बहुत सारी वास्तविक सचाइयाँ उजागर हुई हैं। वे इस अनुभव से और अधिक परिपक्व हुए हैं। यदि इस अनुभव के साथ वे आगे बढ़ेंगे और सही दिशा में काम करेंगे तो वह वक्त भी आ सकता है कि वे अभिभाषक परिषद कोटा के अध्यक्ष बनें। यहाँ तक वे सामान्य जनता में भी लोकप्रियता प्राप्त कर उन का अनेक मंचों पर प्रतिनिधित्व करें। मेरी शुभकामनाएँ उन के साथ हैं।

रविवार, 13 दिसंबर 2009

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी

दि कोई पूछे कि भारत में सब से अधिक क्या होता है? तो सब से आसान उत्तर है, जी चुनाव!
बिलकुल सही है यहाँ चुनाव ही सब से अधिक होते हैं। शायद सब से मजबूत जनतंत्र की यही निशानी है, या फिर जनतंत्र है, यह साबित करने को यह सब करना होता है। अब देखिए ना, अभी मई में देश भर में लोकसभा के चुनाव हुए ही थे। पूरे दो माह तक देश इन की चपेट में रहा।  ये चुनाव निपटे ही  थे कि फिर से चुनाव के लिए मतदाता सूचियों में संशोधन का काम आरंभ हो गया। नवम्बर में नगर निगम के चुनाव जो होने थे। इस बार इस चुनाव में बहुत कुछ बदला गया। वार्डों का पुनर्सीमांकन किया गया। नए सिरे से पर्चियाँ डाल कर तय किया गया कि किस वार्ड से किस-किस तरह का आरक्षण रहेगा। ऐन वक्त पर यह भी तय हुआ कि इस बार मेयरक का चुनाव वार्ड पार्षद के स्थान पर सीधे जनता ही करेगी। इस जरा सी बात ने बहुत कुछ बदल दिया। पन्द्रह वर्ष से नगर निगम पर काबिज भाजपा को जनता ने विदा किया और मेयर कांग्रेसी चुन दिया। साथ में तीन चौथाई से अधिक वार्ड पार्षद भी कांग्रेस के चुन दिए।

स बीच कोटा के वकील 29 अगस्त को हड़ताल पर चले गए। हड़ताल एक सौ दस दिन पूरे कर के भी जारी है।  बून्दी और झालावाड़ जिलों के वकील भी इस हड़ताल में शामिल हैं। चाहते हैं कि कोटा में हाईकोर्ट की एक अदद बैंच स्थापित की जाए। एक चौथाई साल  हड़ताल चलते हो चुका है, लेकिन कोई नतीजा ही सामने नहीं है। जिस दिन नगर निगम के चुनाव के लिए आचार संहिता लागू होनी थी उस के ठीक पहले मुख्यमंत्री ने बुलाया, बात की। वे सभी मांगें मानने को तैयार थे। लेकिन हाईकोर्ट के मामले में आश्वासन तो दूर मुहँ से कुछ भी निकालने को मना कर दिया। वे जोधपुर से हैं जहाँ हाईकोर्ट की मुख्य पीठ है। वहाँ के लोग जयपुर में स्थापित की गई बैंच को ही पिछले 32 साल में बर्दाश्त नहीं कर पाए तो एक और बैंच को कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। यह बात मुख्यमंत्री के मुहँ से निकले तो कैसे? आखिर उन्हें अगली बार फिर वहीं से चुनाव जो लड़ना है। मुख्यमंत्री और तमाम राजनेता चुनाव में व्यस्त हो गए। इधर हड़ताल जारी रही। 

चुनाव के दौरान ही केन्द्रीय विधि मंत्री से दिल्ली में प्रतिनिधि मंडल ने भेंट की उन्हें सब कुछ बताया। उन के मुख से केवल इतना ही निकला कि 2010 में हाईकोर्टों की बैंचें खोलने के प्रस्ताव हैं। इन में एक बैंच राजस्थान में स्थापित की जाएगी।  स्थापना कहाँ हो? इस के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट के साथ राज्य सरकार रिपोर्ट करेगी तब निर्णय हो सकेगा। वकीलों का आंदोलन फिर से वहीं आ गया था। गेंद फिर से राज्य सरकार के पाले में थी। चुनाव संपन्न हो गए।  उसी दौर में कोटा अभिभाषक परिषद के सदस्य और कोटा  ही विधायक चुने गए राजस्थान के विधिमंत्री से बात हुई तो कहने लगे अभी चुनाव में व्यस्त हूँ, चुनाव नतीजे निकलते ही आप लोगों से आ कर मिलता हूँ। हड़ताल चलती रही। जब हड़ताल आरंभ हुई थी तो  बार काऊंसिल के चुनाव  की तैयारी आरंभ हो चुकी थी और कहा जा रहा था कि हड़ताल तो चुनाव की वजह से हो रही है जिस से उम्मीदवारों को  प्रचार का अवसर मिल जाए। हड़ताल के बीच ही राजस्थान की बार कौंसिल के चुनाव हो लिए। डेढ़ माह बाद  ठीक दो दिन पहले उस के नतीजे भी आ चुके हैं। हड़ताल फिर भी जारी है।

ब अभिभाषक परिषद के चुनाव आ गए हैं। सब चुनाव टल सकते हैं लेकिन अभिभाषक परिषद के नहीं। विधान में लिखा है कि दिसम्बर की 15 तारीख तक किसी भी हाल में चुनाव संपन्न किए जाएंगे और जनवरी की 3 तारीख तक हर हाल में नयी कार्यकारिणी को कार्यभार सोंप दिया जाएगा। तब से ये दो तारीखें पत्थर की लकीर हो गई हैं। लोगों ने अपने अपने नामांकन भर दिए हैं। परिषद के अध्यक्ष के लिए नौ और सचिव के लिए ग्यारह उम्मीदवार मैदान में हैं। कल नामांकन वापसी का दिन है। उस के बाद ही पता लगेगा कि कितने उम्मीदवार मैदान में रह गए हैं। जिन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ना ही है, उन्हों ने प्रचार आरंभ कर दिया है।  वकील जब शाम को घर लौटते हैं और पत्नियाँ उन की जेब तलाशी करती हैं तो वहाँ रुपयों की जगह उम्मीदवारों द्वारा याद्दाश्त के लिए दी गई पर्चियाँ  निकलती हैं। उन्हें भी पता लग चुका है कि चुनाव आ गया है। वे पूछती हैं। इस चुनाव के बाद तो कोई चुनाव नहीं है न? जवाब मिलता है  -नहीं, अब कम से कम एक-दो माह तो कोई चुनाव नहीं है, तो वे कहती हैं तब तो अब हड़ताल भी खत्म हो ही जाएगी।

शनिवार, 7 मार्च 2009

अधिवक्ता संघ दुर्ग ने किया विधि ब्लागिरी का सम्मान

अधिवक्ता संघ के सचिव श्री ओम प्रकाश शर्मा बैठक का संचालन करते हुए
अधिवक्ता संघ दुर्ग शायद देश का पहला जिला स्तरीय अधिवक्ता संघ है जो जुलाई 2008 से अपना मासिक अखबार संचालित करता है और उस का नेट संस्करण भी ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करता है।  यह नेट संस्करण ही मेरा इस संघ के साथ संपर्क का माध्यम बना।  दुर्ग अधिवक्ता संघ के कार्यालय का कमरा न्यायालय परिसर में ही प्रथम तल पर स्थित कोई 12 गुणा 20 फुट के कमरे में स्थित था।  उसे एक बैठक की तरह सजाया हुआ था।  एक तरफ चार पांच कुर्सियाँ लगी थीं उन के सामने मेज थी और उस के सामने मेज की ओर मुँह किए शेष कुर्सियां लगी थीं कुल बीस-पच्चीस व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था। मुझे भी चार कुर्सियों में से एक पर बैठने को कहा गया वहाँ पहले से अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन, सचिव ओम प्रकाश शर्मा मौजूद थे।  हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद ही औपचारिक बैठक आरंभ हुई। सचिव शर्मा जी ने कार्यक्रम का संचालन किया अतिथि (मैं) और अध्यक्षा को माल्यार्पण और बुके भेंट के बाद मुझ से इंटरनेट की वकीलों के लिए उपयोगिता पर प्रकाश डालने को कहा गया। 
 अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी बोलते हुए
मैं ने उन्हें बताया कि हमारी पीढ़ी तो शायद इंटरनेट का उपयोग बहुत ही कम कर पाए लेकिन आने वाली पीढी़ का काम इस के बिना नहीं चलेगा।  सर्वौच्च न्यायालय के 1950 से ले कर आज तक के सभी महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैं और 2000 के बाद तो लगभग सभी उच्चन्यायालयों के निर्णय भी उपलब्ध होने लगे हैं।  आज जब सैंकड़ों की संख्या में विधि जर्नल प्रकाशित होने लगे हैं।  महत्वपूर्ण निर्णयों तक पहुँचना कठिन हो चला है।  आगे आने वाले वर्षों में और भी कठिन होता जाएगा।  उन तक पहुँच केवल इंटरनेट के माध्यम से ही संभव हो सकेगी।  तब बिना इंटरनेट की सुविधा के वकील को योग्य वकील ही नहीं समझा जाएगा।  जैसे मुवक्किल आज वकील के दफ्तर की किताबों की संख्या को देख कर वकील की योग्यता का अनुमान करता है। तब प्रत्येक वकील के दफ्तर में एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक होगा।
स्वागत और परिचय
मुफ्त साधनों के साथ बहुत से डा़टाबेस भी उपलब्ध हैं। जिनका हम उपयोग कर सकते हैं जहाँ सभी निर्णयों के साथ साथ वकालत की अन्य सामग्री भी तुरंत उपलब्ध हो सकती है।  अधिकांश कानून और नए संशोधनों की जानकारी अभी भी इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।  लोग इस का उपयोग प्रारंभ करें तो जल्द ही उस के बहुत से नतीजे भी सामने आने लगेंगे।  मैं ने उन्हें तीसरा खंबा, जूनियर कौंसिल, अभिभाषक वाणी और अदालत ब्लॉगों के बारे में भी बताया।  यह सौभाग्य ही था कि तीनों के मॉडरेटर या प्रतिनिधि वहाँ उस बैठक में उपस्थित थे।  मैं ने अदालतों की कमी और साधनों की कमी के बारे में उन्हें बताया और यह भी कहा कि हम वकील यदि छोटी छोटी समस्याओं पर काम बंदी के स्थान पर अदालतों की संख्या वृद्धि और साधनवृद्धि के मामले में आंदोलित हों तो सरकारों को चेतन होना पड़ेगा।  वकीलों के आंदोलित हुए बिना इस समस्या की ओर सरकारें ध्यान नहीं देंगी।   इस छोटी सी बैठक को अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन ने भी संबोधित किया।  सभा का संचालन न केवल रोचक था अपितु काव्यत्मक भी था।  अनपेक्षित रूप से मुझे संघ की ओर से श्रीफल और एक शॉल भी एक सम्मान पत्र के साथ भेंट किया गया।
स्वागत और परिचय
इस संक्षिप्त सभा के उपरांत कार्यकारिणी ने हमारे साथ पास ही एक रेस्तराँ में दोपहर का भोजन किया।  वहाँ से  अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी, संजीव तिवारी और कुछ अन्य अधिवक्ता मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी आए पाबला जी और वैभव तो साथ थे ही।  अधिवक्ता संघ दुर्ग ने जो सम्मान मुझे दिया वह केवल मेरा सम्मान नहीं था।  वह मेरी सवा वर्ष की कानून और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लागिरी और हि्दी ब्लागिरी का भी सम्मान था।  यह इस बात का भी द्योतक था कि ब्लागिरी केवल व्यक्तिगत विचारों को प्रकट करने का साधन नहीं है। अपितु यदि इस का उपयोग किया जाए तो यह समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने और उपयोगी सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने का एक प्रभावकारी माध्यम भी हो सकती है।

हिन्दी ब्लागिरी का सम्मान
 
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के आने तक प्लेटफार्म पर भी बातों का सिलसिला जारी रहा।  एक एक कॉफी वहाँ पी ली गई।  जो मेरी छत्तीसगढ़ की इस संक्षिप्त यात्रा की अंतिम कॉफी थी।  मैं पाबला जी से कह रहा था कि समय की कमी से बहुत कुछ छूट गया है।  मेरी पंकज अवधिया से मुलाकात नहीं हो सकी वे बाहर थे और उसी दिन सुबह लौट कर आए थे, जिस दिन मैं वापस लौट रहा था।  एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति जिस से मुलाकात नहीं हो सकी वे अदालत ब्लाग के मॉडरेटर और पाबला जी के साथी लोकेश थे।  अदालत वह ब्लाग है जिस ने तीसरा खंबा को बहुत सहयोग किया।  अदालत यदि महत्वपूर्ण अदालती खबरें हिन्दी ब्लाग जगत तक निरंतर नहीं पहुंचाता तो शायद यह काम सीमित दायरे में रह कर तीसरा खंबा को करना पड़ता और जो काम तीसरा खंबा के माध्यम से अब तक हो सका है वह उतना नहीं हो सका जितना होना चाहिए था।
दुर्ग के एक वरिष्ठ वकील मिलते हुए
ट्रेन आई और मुझे ले कर चल दी।  सब लोग जो मुझे छोड़ने आए थे हाथ हिला कर मुझे विदा कर रहे थे।  मुझे लग रहा था कि मैं अपने पुत्र के अतिरिक्त बहुत कुछ यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।  मैं ने बहुत कुछ यहाँ पाया और जो छोडे़ जा रहा हूँ उसे पकड़ने के लिए जल्द ही मुझे वापस यहाँ आना पडे़।
संजीव तिवारी (जूनियर कौंसिल) मैं और बी. एस. पाबला जी

बुधवार, 4 मार्च 2009

दुर्ग जिला अदालत परिसर का हाल भी भारत भर जैसा ही बुरा

दुर्ग जिला न्यायालय परिसर में जब पाबला जी की वैन ने प्रवेश किया तो वहाँ का नजारा वैसा ही था जैसा लगभग सभी स्थानों पर अदालत परिसरों का है।  सारा खाली स्थान दुपहिया, चौपहिया वाहनों से अटा पड़ा था।  लगता था कि वैन अब रोकनी पड़ेगी।  पर पाबला जी का इस परिसर का अनुभव शानदार निकला। वे वैन को अंतिम छोर तक इस कुशलता से ले गए कि वैन को देख रहे दर्शक भी चकित रह गए।  वैन से उतरे तो सामने ही अभिभाषक परिषद का पुस्तकालय था।  मैं ने समय देखा तो दो बजने में कुछ मिनट शेष थे।  किसी को वहाँ न पा कर पाबला जी ने संजीव तिवारी को फोन किया।  कुछ देर बाद ही वे आ गए।  उन के साथ ही शकील अहमद थे।  हम ने सब से पहले पुस्तकालय देखा।  पुस्तकालय में पुस्तकें कोटा  अभिभाषक परिषद के पुस्तकालय से आधी से भी कम रही होंगी।  बताया कि पुस्तकालय अभी कुछ वर्षों पूर्व ही प्रारंभ हुआ है और धीरे धीरे इसे धनी बनाने के प्रयत्न जारी हैं।  पुस्तकालय में ही टीवी रखा था, कुछ वकील उसे देख रहे थे, कुछ पुस्तकें पढ़ने और तलाशने में मशगूल थे। 

जब मैं वकालत में आया तो अभिभाषक परिषद के पास न बाराँ में पुस्तकालय था और न ही कोटा में।  और तब दो या तीन जर्नलों से काम चल जाया करता था। एक एआईआर था जो सब वकील मंगाया करते थे।  एक फौजदारी का जर्नल होता था, एक रेवेन्यू का और एक राज्य स्तरीय जर्नल।  इन से काम चल जाता था।  इन जर्नलों में वे मुख्य मुकदमें प्रकाशित होते थे जिन में कोई नया कानूनी बिंदु तय हुआ करता था।  लेकिन फिर जर्नलों की एकाएक बाढ़ सी आ गई।  श्रम , उपभोक्ता, दुर्घटना, विवाह-परिवार, मकान मालिक किरायेदार आदि मामलों के अलग अलग जर्नल निकलने लगे। हर विषय पर दो-दो, चार-चार और उस से भी अधिक। उन में प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई।  जर्नलों के सालाना खंड़ो की संख्या दो से छह तक हो गई और उन में छपने वाले निर्णयों की बाढ़ आ गई।   जो कानूनी बिंदु एक मामले में तय हो चुका है उसी पर एक जैसे अनेक निर्णय़ जर्नलों में छपने लगे।  अब स्थिति यह हो गई है कि किसी भी जर्नल के एक खंड में नयी नजीर वाले मुकदमे इक्का दुक्का ही होते हैं शेष पिछले निर्धारित बिंदुओं को दोहराने वाले होते हैं।  अदालतें भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरसों पहले अंतिम रूप से निर्धारित बिंदु पर लेटेस्ट रूलिंग मांगने लगी हैं।  स्थिति यह है कि पचासों जर्नल खरीदना किसी भी वकील के बस का नहीं रह गया है और अभिभाषक परिषद के पुस्तकालय आवश्यक हो चले हैं।  लगभग सभी जिला स्तर की अभिभाषक परिषदों के पुस्तकालय विकास के दौर में हैं। 

शकील अहमद जी ने बताया कि कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं रखा है।  केवल अभिभाषक संघ की कार्यकारिणी और कुछ वरिष्ठ सदस्यों के साथ ही बैठक रखी गई है जो कि संघ के कार्यालय में रख ली गई है।  कुछ देर में सभी वहाँ एकत्र हो रहे हैं।  मै ने तब तक न्यायालय परिसर देखना चाहा।  मैं और संजीव निकल पड़े।  कोई दस मिनट में हम पूरी इमारतों को एक नजर देखते हुए अभिभाषक संघ के कार्यालय पहुँचे।  जितनी अदालतों के लिए इमारत बनाई गई थी उस से कहीं अधिक अदालतें वहाँ चल रही थीं। वकीलों के बैठने के स्थान का इमारत बनने के वक्त भी शायद कोई स्थान न रहा होगा।  क्यों कि सब वकील अदालत के बाहर की गैलरी में अपनी अपनी टेबलें और कुर्सियाँ इस कदर लगाए थे कि लोगों को आने जाने में भी तकलीफ थी।  मैं ने अनेक अदालत परिसरों को देखा है।  हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट परिसरों को छोड़ कर सभी स्थानों की यही स्थिति है। वकील बरामदों और जहाँ खुला स्थान उपलब्ध है वहाँ पेड़ आदि के नीचे ही अपने बैठने का स्थान बना लेते हैं।  पता नहीं कब अदालतों की इमारतों में अदालतों के नजदीक ही वकीलों के बैठने के लिए स्थान बनाने की शुरुआत होगी।

अब बरामदों और आने जाने के रास्तों पर वकीलों के बैठने के स्थान के बाद आने जाने के लिए भी स्थान अपर्याप्त हो तो न्यायार्थियों को कहाँ स्थान मिलेगा?  मेरे हिसाब से दुर्ग जिला न्यायालय परिसर अपर्याप्त हो चला है।  यह तो स्थिति तब है जब कि अदालतों की संख्या एक चौथाई से भी कम है।  यदि उस कमी का चतुर्थांश भी पूरा किया जाए तो तुरंत ही न्यायालय परिसर के लिए नया स्थान चाहिए।  मेरे विचार में पूरे देश की सरकारों को न्यायालयों के लिए नए परिसरों के निर्माण के लिए नए स्थान नियत कर देने चाहिए जो इतने बड़े हों कि वहाँ वर्तमान की जरूरत की इमारत बनाने के उपरांत कम से कम आठ दस गुना स्थान रिक्त हो,  वाहन पार्किंग हो।   भारत में प्रत्येक अदालत के पीछे कम से कम पच्चीस वकील हैं इस कारण से हर अदालत के इजलास के पास ही कम से कम एक हॉल हो जिस में कम से कम पच्चीस वकीलों के बैठने और प्रत्येक वकील के साथ कम से कम पाँच व्यक्ति और बैठने का स्थान जरूर बना हो।  अदालत परिसर में टाइपिस्ट अनिवार्य हैं जिन का स्थान अब क्म्प्यूटर ऑपरेटर ले रहे हैं।  प्रत्येक अदालत परिसर में स्थित वकीलों के प्रत्येक हॉल में कम से कम दो टाइपिस्टों या कम्प्यूटर ऑपरेटरों के लिए स्थान का होना जरूरी है। अदालत में स्टाम्प वेंडर भी जरूरी हैं जो जरूरी फार्म व स्टेशनरी उपलब्ध कराते हैं,  उन के लिए भी स्थान निर्धारित होना चाहिए। कुछ फोटो कॉपी मशीनों आदि के लिए और जलपान के लिए भी पर्याप्त स्थान चाहिए।  इन सभी जरूरतों से युक्त अदालत परिसर हम कब देख पाएँगे? मैं निकट भविष्य में तो इन की कल्पना तक नहीं कर पाता। अभी तो हमें जितनी अदालतें वर्तमान में हैं उन की चार गुना अदालतों की स्थापना तक बढ़ना है।  भारत के मुख्य न्यायाधीश तो केवल दुगनी करने की बात कर रहे हैं।  लेकिन जिन राज्य सरकारों को यह सब करना है, उन के किसी मुख्य मंत्री या राज्यपाल के कान पर तो अभी जूँ भी नहीं रेंग रही है।

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1 दुर्ग न्यायालय  परिसर का गूगल अर्थ चित्र  2. एक पुस्तकालय 3 व 4 न्यायालय परिसरों के चित्र