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सोमवार, 31 जुलाई 2023

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? – प्रेमचंद



भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रवाद की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण और निर्णायक रही है. लेकिन उस दौर में राष्ट्रवाद की कई किस्में मौजूद थीं. प्रभावशाली धारा वह थी जो राष्ट्रवाद के नाम पर अपने समाज में मौजूद भेदभाव, शोषण और अन्याय पर पर्दा डालती थी और इस तरह उसे बनाये रखती थी. हमारे राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप तय करने में इस धारा ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है. आज जब तरह–तरह के लोग राष्ट्रवादी होने का दावा कर रहे हैं तो उनके निहितार्थों की पहचान के लिहाज से (और राष्ट्रवाद की एक वैकल्पिक समझ निर्मित करने के लिहाज से भी) 8 जनवरी 1934 को ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख महत्त्वपूर्ण है.


यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें बहुत थोड़े आदमियों में आयी है. लेकिन इतना ज़रूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रीयता पर लम्बे–लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें ज़रूर यह जागृति आ गयी है और वह जात–पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गयीं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र–राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति–भेद का अंधकार छाया हुआ है. और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है. यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं. हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है. हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिंदू समाज पर प्रभुत्त्व बनाये रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव की धूल भी नहीं समझते. ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन–चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है. हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिंदू–जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते. हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा. और यह दस–पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है. उसका उद्यम यही है कि वह हिंदू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके. मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है.

अगर हिंदू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार–शासन को मिटाना होगा. हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिंदू ऐसा है, जो इस टके पंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं. निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चौधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की ज़रूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिंदू समाज को अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रीयता की हांक लगाकर भी भावी हिंदू समाज को पुरोहितों और पुजारियों ही का शिकार बनाये रखना चाहते हैं. मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिंदू–समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखें खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय ज़रा भी आपत्ति न की थी. वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते. हम उनका गला तो दबा न सकते थे. मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता. ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापीं, कि वे भी हिंदू समाज को टके पंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते. हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है. हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं. ब्राह्मण क्या इसे पसंद कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले–भाले हिंदुओं को ठगकर, बात–बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरें. यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसंद आ सकता है जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अधः स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बंद हैं. आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगेंगे. हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहितकुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपये साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया. आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा. ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो. सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, सरदार पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानंद हैं. वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए– ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश–पूजा और गौरी पूजा और अल्लम–गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाये नर्तकियों का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं.

हिंदू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है. और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढ़ंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख–धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाये रखता है. और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्ट्रवादी हैं. राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं. और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे.

कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निंदा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की सम्भावना भी नहीं रहती. इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच–नीच, पवित्र–अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की ज़िंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायें. ‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है. उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चौबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास–द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है. ऐसे चौबों को देखना हो, तो काशी या वृंदावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम  स्वराज्य संघ में चले जाइए, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे. और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई–बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे. हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि ज़रूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है.

निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिंदू समाज से कितने विरक्त हो जायेंगे. हम पूछते हैं कि महात्मा गांधी के हरिजन आंदोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिंदुओं ने कुचल रखा था. हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिंदू समाज में इसी तरह के पुजारियों, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे. निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते. हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है. ऐतिहासिक सत्य चुप–चुप करने से नहीं दब सकता. साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य. इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिंदू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता. इस अधोगति की दशा सुधार करना है. इसके प्रति घृणा फैलाइए, प्रेम फैलाइए, उपहास कीजिए या निंदा कीजिए सब जायज है और केवल हिंदू–समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिंदू–जाति को डुबोए डालता है. हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, मगर यह हमारी कमज़ोरी है कि बहुत–सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है. शायद इस साप्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय.

निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं. आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उनपर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बंद कर ली जाय. आदर्शवाद का जीता–जागता उदाहरण हरिजन–आंदोलन हमारी आंखों के सामने है. निर्मल जी को मंदिरों का खुलना और मंदिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, ज़हर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?

निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने हमें हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है. तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंचती है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता. फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है. हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है. हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के समाने रखो, चाहे हिंदू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो. इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा–भाव पाया है. और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साप्रदायिकता और यह अंधविश्वास हममें से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा. हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं. उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रवादी हैं. अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों की दहेज–प्रथा, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निंदा करे, तो मुझे ज़रा भी बुरा न लगेगा. कोई हमारी बुराई दिखाये और हमदर्दी से दिखाये, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता.

अंत में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करूंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व, के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महंतों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट्र-प्रेमियों की दृष्टि से गिर जाते हैं. आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं.


गुरुवार, 31 जुलाई 2014

शादी की वजह

  •  मुंशी प्रेमचन्द



ह सवाल टेढ़ा है कि लोग शादी क्यों करते है? औरत और मर्द को प्रकृत्या एक-दूसरे की जरूरत होती है लेकिन मौजूदा हालत में आम तौर पर शादी की यह सच्ची वजह नहीं होती बल्कि शादी सभ्य जीवन की एक रस्म-सी हो गई है। बहरलहाल, मैंने अक्सर शादीशुदा लोगों से इस बारे मे पूछा तो लोगों ने इतनी तरह के जवाब दिए कि मैं दंग रह गया। उन जवाबों को पाठको के मनोरंजन के लिए नीचे लिखा जाता है—


एक साहब का तो बयान है कि मेरी शादी बिल्कुल कमसिनी में हुई और उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह मेरे मां-बाप पर है। दूसरे साहब को अपनी खूबसूरती पर बड़ा नाज है। उनका ख्याल है कि उनकी शादी उनके सुन्दर रूप की बदौलत हुई। तीसरे साहब फरमाते है कि मेरे पड़ोस मे एक मुंशी साहब रहते थे जिनके एक ही लड़की थी। मैने सहानूभूतिवश खुद ही बातचीत करके शादी कर ली। एक साहब को अपने उत्तराधिकारी के रूप मे एक लड़के के जरूरत थी। चुनांचे आपने इसी धुन मे शादी कर ली। मगर बदकिस्मती से अब तक उनकी सात लड़कियां हो चुकी है और लड़के का कहीं पता नहीं। आप कहते है कि मेरा ख्याल है कि यह शरारत मेरी बीवी की है जो मुझे इस तरह कुढ़ाना चाहती है। एक साहब बड़े पैसे वाले है और उनको अपनी दौलत खर्च करने का कोई तरीका ही मालूम न था इसलिए उन्होंने अपनी शादी कर ली। एक और साहब कहते है कि मेरे आत्मीय और स्वजन हर वक्त मुझे घेरे रहा करते थे इसलिए मैंने शादी कर ली। और इसका नतीजा यह हुआ कि अब मुझे शान्ति है। अब मेरे यहां कोई नहीं आता। एक साहब तमाम उम्र दूसरों की शादी-ब्याह पर व्यवहार और भेंट देते-देते परेशान हो गए तो आपने उनकी वापसी की गरज से आखिरकार खुद अपनी शादी कर ली।


और साहबों से जो मैंने दर्याफ्त किया तो उन्होने निम्नलिखित कारण बतलाये। यह जवाब उन्ही के शब्दों मे नम्बरवार नीचे दर्ज किए जाते है—


१—मेरे ससुर एक दौलतमन्द आदमी थे और उनकी यह इकलौती बेटी थी इसलिए मेरे पिता ने शादी की।

२—मेरे बाप-दादा सभी शादी करते चले आए हैं इसलिए मुझे भी शादी करनी पड़ी।

३—मै हमेशा से खामोश और कम बोलने वाला रहा हूं, इनकार न कर सका।

४—मेरे ससुर ने शुरू में अपने धन-दौलत का बहुत प्रदर्शन किया इसलिए मेरे मां-बाप ने फौरन मेरी शादी मंजूर कर ली।

५—नौकर अच्छे नहीं मिलते थे और अगर मिलते भी थे तो ठहरते नहीं थे। खास तौर पर खाना पकानेवाला अच्छा नहीं मिलता। शादी के बाद इस मुसीबत से छुटकारा मिल गय।

६—मै अपना जीवन-बीमा कराना चाहता था और खानापूरी के वास्ते विधवा का नाम लिखना जरूरी था।

७—मेरी शादी जिद में हुई। मेरे ससुर शादी के लिए रजामन्द न होते थे मगर मेरे पिता को जिद हो गई। इसलिए मेरी शादी हुई। आखिरकार मेरे ससुर को मेरी शादी करनी ही पड़ी।

८—मेरे ससुरालवाले बड़े ऊंचे खानदान के है इसलिए मेरे माता-पिता ने कोशिश करके मेरी शादी की।

९—मेरी शिक्षा की कोई उचित व्यवस्था न थी इसलिए मुझे शादी करनी पड़ी।

१०—मेरे और मेरी बीवी के जनम के पहले ही हम दोनो के मां-बाप शादी की बातचीत पक्की हो गई थी।

११—लोगो के आग्रह से पिता ने शादी कर दी।

१२—नस्ल और खानदान चलाने के लिए शादी की।

१३—मेरी मां को देहान्त हो गया था और कोई घर को देखनेवाला न था इसलिए मजबूरन शादी करनी पड़ी।

१४—मेरी बहनें अकेली थी, इस वास्ते शादी कर ली।

१५—मै अकेला था, दफ्तर जाते वक्त मकान मे ताला लगाना पड़ता था इसलिए शादी कर ली।

१६—मेरी मां ने कसम दिलाई थी इसलिए शादी की।

१७—मेरी पहली बीवी की औलाद को परवरिश की जरूरत थी, इसलिए शादी की।

१८—मेरी मां का ख्याल था कि वह जल्द मरने वाली है और मेरी शादी अपने ही सामने कर देना चाहती थी, इसलिए मेरी शादी हो गई। लेकिन शादी को दस साल हो रहे है भगवान की दया से मां के आशीष की छाया अभी तक कायम है।

१९—तलाक देने को जी चाहता था इसलिए शादी की।

२०—मै मरीज रहता हूं और कोई तीमारदार नही है इसलिए मैंने शादी कर ली।

२१—केवल संयाग से मेरा विवाह हो गया।

२२—जिस साल मेरी शादी हुई उस साल बहुत बड़ी सहालग थी। सबकी शादी होती थी, मेरी भी हो गई।

२३—बिला शादी के कोई अपना हाल पूछने वाला न था।

२४—मैंने शादी नही की है, एक आफत मोल ले ली है।

२५—पैसे वाले चचा की अवज्ञा न कर सका।

२६—मै बुडढा होने लगा था, अगर अब न करता तो कब करता।

२७—लोक हित के ख्याल से शादी की।

२८—पड़ौसी बुरा समझते थे इसलिए निकाह कर लिया।

२९—डाक्टरों ने शादी केलिए मजबूर किया।

३०—मेरी कविताओं को कोई दाद न देता था।

३१—मेरी दांत गिरने लगे थे और बाल सफेद हो गए थे इसलिए शादी कर ली।

३२—फौज में शादीशुदा लोगों को तनख्वाह ज्यादा मिलती थी इसलिए मैंने भी शादी कर ली।

३३—कोई मेरा गुस्सा बर्दाश्त न करता था इसलिए मैंने शादी कर ली।

३४—बीवी से ज्यादा कोई अपना समर्थक नहीं होता इसलिए मैंने शादी कर ली।

३५—मै खुद हैरान हूं कि शादी क्यों की।

३६—शादी भाग्य में लिखी थी इसलिए कर ली।


इसी तरह जितने मुंह उतनी बातें सुनने मे आयी।

जमाना मार्च, १९२७




गुरुवार, 11 नवंबर 2010

गृहस्वामी, गृहस्वामिनी, शरलक होम्स औऱ रुस्तमे-हिन्द

कान बीस साल पहले बनना आरंभ हुआ था। पहले दो कमरे, रसोई, स्टोर, बरांडा और टॉयलट बनाया गया। दस साल बाद उन में कुछ परिवर्तन कर के एक बड़ा हॉल, एक शयनकक्ष और एक टॉयलट और जोड़ दिया गया और एक कमरे के आकार में वृद्धि कर दी गई। पाँच साल बीते होंगे कि यह भी छोटा पड़ने लगा। साथ ही मकान की डिजाइन असुविधाजनक लगने लगी। आज की जरूरतों के मुताबिक उसे दुरुस्त करने में बहुत पैसा लगना था। इस लिए एक नया भूखंड खरीदने की योजना बनाई गई। भूखंड की तलाश जारी थी, पर इस पर मकान तभी बन सकता था जब पहले मकान को बेच दिया जाए। गृहस्वामी ने मकान बाजार में खड़ा कर दिया। उस के खरीददार पहले आ गए। समस्या यह थी कि इसे बेचने का सौदा कर दिया तो रहेंगे कहाँ? तब एक मित्र काम आए। उन का मकान नया बना था और वे खुद उस में साल भर बाद रहने जा रहे थे। गृहस्वामी ने मौके का इस्तेमाल किया और उस मकान में रहने आ गए और अपना मकान बेच दिया। कुछ ही दिनों में भूखंड भी खरीद लिया गया। अगले सप्ताह से गृहस्वामी उस पर निर्माण आरंभ कराने वाले हैं।
मित्र के मकान में आए हुए कुछ ही समय हुआ था कि गृहस्वामी को जयपुर जाना पड़ा। जिन के साथ जाना हुआ वे जयपुर की फीणी के शौकीन हैं, वह भी सांभर वाले की फीणी लाजवाब के। उन्हों ने एक किलो खरीदी तो गृहस्वामी भी आधा किलो खरीद लाए। रात को जब घऱ पहुँचे तो खूबसूरत गोल डब्बे में पैक फीणी गृहस्वामी ने अपनी गृहस्वामिनी को सौंप दी। गृहस्वामिनी ने दो दिन बाद ही उस पर चीनी की चाशनी चढ़ा कर उसे मीठी कर दिया। अब इस फीणी चढ़े डब्बे ने भोजन कक्ष में खुलते रसोई के द्वार के बाहर रखे रेफ्रीजरेटर के ऊपर अपना अड्डा जमा लिया। जब जी चाहे डब्बे में से निकाल कर एक फीणी प्लेट में रखो और उस का स्वाद लो। इस बीच जितने भी बालक मेहमान आए सभी ने उस फीणी का स्वाद लिया। 
लेकिन फीणी के चक्कर में कोई और भी था। एक दिन सुबह गृहस्वामिनी उठी तो उस ने पाया कि डब्बे का ढक्कन उठा हुआ है। यानी फीणी किसी ने चुराई थी। अब घर में तो इस बीच गृहस्वामी और गृहस्वामिनी के अलावा कोई और तो आया नहीं था। गृहस्वामिनी ने तुरंत गृहस्वामी के थाने में रपट दर्ज कराई। गृहस्वामी को घरेलू मोर्चे पर एक तफ्तीश मिल गई। मौका-ए-वारदात और आस-पास का मुआयना किया गया। घर के सभी दरवाजे अंदर से बंद थे, चोर कहाँ से आया था इस का पता लगाना कठिन था, खिड़कियाँ आदि भी देख ली गईं। कोई सुराग लग ही नहीं रहा था। गृहस्वामी के अदालत जाने का वक्त हो चला था और वे अभी तक हजामत तक नहीं बना सके थे। 
गृहस्वामी ने तफ्तीश को शाम तक के लिए मुल्तवी किया और तुरंत अपना हजामत का डब्बा संभाला। वाश बेसिन पर पहुँचे तो उन की निगाह उस से निकल कर नीचे जा रहे पाइप पर पड़ी। उस की जाली कुछ हटी हुई थी। पाइप निकाल कर देखा तो वह जाली के अंदर-अंदर कटा हुआ था। गृहस्वामी के भीतर का शरलक होम्स तुरंत जागृत हुआ और मामूली दिमागी कसरत से पता लग गया कि चोर कौन हो सकता है। चोर ने घर में प्रवेश का जो मार्ग बनाया था उसे बंद किया गया उसे तुरंत बंद किया गया। इस बड़े ऑपरेशन से निबटने के बाद ही गृहस्वामी हजामत का अभियान आरंभ कर पाए। हजामत आरंभ होने के पहले तक देख लिया गया था कि और तो कोई स्थान ऐसा नहीं कि चोर घर में प्रवेश कर सके। अब गृहस्वामिनी और गृहस्वामी निश्चिंत थे कि चोर से घर सुरक्षित हो चुका है। लेकिन उन का यह भ्रम दूसरे दिन सुबह ही टूट गया। दूसरे दिन सुबह जब गृहस्वामिनी सो कर उठी तो पाया कि फीणी के गोल डब्बे का ढक्कन फिर से उठा हुआ है।
पिछले दिन बंद किए गए चोर-मार्ग की जाँच की गई, वह स्थान सुरक्षित पाया गया। फिर से पूरे घर का निरीक्षण किया गया। कोई स्थान नहीं था जहाँ से चोर घर में घुस सके। शरलक होम्स ने अपना विचार दिया कि चोर घर छोड़ कर गया ही नहीं कहीं घर में ही छुपा हुआ है। फिर से घर की तलाशी आरंभ हो गई। पूरी तलाशी के बाद भी पता नहीं लग सका कि चोर आखिर छुपा कहाँ है? अब तो एक ही मार्ग था कि चोर को पकड़ने के लिए जाल बिछाया जाए। गृहस्वामिनी ने सुझाया कि दो बरस पहले जब पुराने घर में ऐसे ही चोर घुस आए तब एक जाल खरीदा गया था, क्यों न उस का उपयोग कर लिया जाए? गृहस्वामी को इस में क्या आपत्ति हो सकती थी। तुरंत सुझाव पर अमल किया गया। जाल में कुछ रोटियाँ रख दी गईं। रात को जाल के पास से आवाजें आने लगीं, तो गृहस्वामी और गृहस्वामिनी दोनों प्रसन्न हुए कि तरकीब काम कर गई, चोर पकड़ा गया। 
सुबह उठ कर देखा तो जाल की दुर्दशा हो चुकी थी, रोटी गायब थी। लगता था चोर कुछ रुस्तमे हिन्द टाइप का था और जाल उस के लिए पर्याप्त नहीं था। रुस्तमे हिन्द इस सस्ती किस्म के हवालात में बंद होने को तैयार न थे इस लिए तय पाया कि उन के लिए नया, मजबूत और बड़े आकार का जाल लाया जाए। आखिर शाम को दोनों पति-पत्नी शॉपिंग के लिए निकले और पूरे सवा सौ रुपए खर्च कर नया जाल खरीद कर लाए। इस रात उस का उपयोग किया गया। पर सुबह फिर नतीजे के नाम सिफर था। जाल में रखी रोटियाँ बदस्तूर अपने स्थान पर मौजूद थीं। फीणी के डब्बे का ढक्कन रोज उठा हुआ मिलता था। अब गृहस्वामी पूरी तरह निराश हो चले थे। घर में आने जाने के सब मार्ग बंद हैं, आखिर चोर छुपा कहाँ है।
गली रात को जब गृहस्वामिनी सो चुकी थी और गृहस्वामी सोने जा रहे थे तब अचानक शरलक होम्स के दिमाग की बत्ती जल उठी। समझ आ रहा था कि जब फीणी का डब्बा आसानी से उपलब्ध है तो इस गच्च माल को छोड़ कर कौन उल्लू का पट्ठा रोटी की और झाँकने वाला था। हमारे रुस्तमें हिन्द से तो ऐसी अपेक्षा करना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं। शरलक होम्स को अफसोस हो रहा था कि दिमाग की बत्ती इतनी देर से क्यूँ रोशन हुई? गृहस्वामी ने तुरंत सारी भोजन सामग्री भोजन कक्ष से हटा कर रसोई में बंद की और एक फीणी निकाल कर जाल में चारे की जगह लगा कर सोने चले गए। 
गली सुबह सफलता शरलक होम्स के कदम चूम रही थी। रुस्तमे हिंद जाल में चीख रहे थे। सांभर वाले की फीणी के शौक ने उन्हें हवालात में डाल ही दिया था। दिन भर उन्हें हवालात में बंद रखा गया। सजा तो उन्हें दी नहीं जा सकती थी। गृहस्वामिनी के संस्कार इस में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। रुस्तमे हिन्द आखिर भगवान गणपति के वाहन का रिश्तेदार जो था। आखिर जिस तरह विपक्ष द्वारा पिकेटिंग करने पर गिरफ्तार कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ देर किसी स्कूल आदि में बंद रख कर शाम को शहर से दूर छोड़ दिया जाता है गृहस्वामी रुस्तमे हिन्द को नहर के नजदीक छोड़ आए। जैसे ही उन्हें जाल से बाहर निकाला गया, उन्हों ने कुलांचे भरी और घास के मैदान में गायब हो गए। 
दिवाली के लिए सफाई अभियान चला तो पता लगा कि रद्दी अखबारों के ढेर के पीछे रुस्तमे हिन्द जी ने अपना विश्राम कक्ष बनाया हुआ था और एक फीणी वहाँ ले जा कर संकटकाल के लिए सुरक्षित रखी गई थी। वैसे जितने दिन वे रहे रोज गोल डब्बे में सैंध लगाते रहे। कुछ भी हो रुस्तमे हिन्द गायब हो चुके थे। लेकिन कल रात फिर उन के दर्शन हुए वे खिड़की के परदे को सीढ़ी बना कर रोशनदान से बाहर जा रहे थे। गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का चैन फिर भंग हो चुका है। आज फिर से उन्हों ने जाल रखा है। इस बार फीणी नहीं है, दिवाली पर देसी घी में तले गए शकरपारों ने उस का स्थान ले लिया है। सुबह की प्रतीक्षा है इस बार रुस्तमे हिन्द हवालात में तशरीफ लाते हैं या नहीं?

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-2

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। कल आप ने प्रथम भाग पढ़ा आज दूसरा और अंतिम भाग प्रस्तुत है। 

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
 स सभ्यता का दूसरा सिद्धांत है - 'Business is business' अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है। उस में भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं है। पुराने जीवन सिद्धान्त में वह लट्ठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन देन का सवाल है, रुपये पैसे का मामला है, वहाँ न दोस्ती का गुजर है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, बिजनेस में दोस्ती कैसी, जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए, फिर आप की जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन जरूरत से लाचार हो कर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह कुछ मदद करे। यह भी आशा रखते हैं कि शायद दर में वह कुछ रियायत कर दे, पर जब देखते हैं कि यह सहानुभूति मेरे साथ भी वही कारोबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भर कर बड़े करुण स्वर में कहते हैं- महाराज,  मैं इस समय बड़ा परेशान हूँ, नहीं तो आप को कष्ट नहीं देता, ईश्वर के लिए मेर हाल पर रहम कीजिये। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त ..... वहीं बात काट कर आज्ञा के स्वर में फरमाया जाता है लेकिन जनाब, आप 'बिजनेस इज बिजनेस' भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उस के पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठ कर वह अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
हाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नयी रीति नीतियाँ चलाई हैं, उस में सब से अधिक और रक्त पिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीबी में बिजनेस; बाप-बेटे में बिजनेस; गुरू-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त, आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस बिजनेस पर !  लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गयी और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी तो बाप के घर में ही लोंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता, पर इस महाजनी सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लोंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृभक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई, स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में ही नहीं। भाई भी भाई के घर आए तो मेहमान है। अक्सर तो उसे उस मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आपस्वार्थी बनें, सब कुछ अपने लिए करें।
र यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुजर का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हल नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उस का भविष्य अन्धकारमय है।
अब तक दुनिया के लिए इस सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था, उसे झक मार कर उस के आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम में फूला फिरता था। सारी दुनिया उस के चरणों पर नाक रगड़ रही थी, बादशाह उस का बन्दा वजीर उस के गुलाम, सन्धि-विग्रह की कुंजी उस के हाथ में, दुनिया उस की महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाये हुए, हर मुलक में उस का बोल बाला।
रन्तु अब नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम से उदय हो रहा है, जिस ने इस नारकीय महाजनवाद या पूंजीवाद की जड़ खोद कर फैंक दी है, जिस का मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग से मेहनत कर के कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का कोई हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं, महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न हो कर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शमिल आवाज इस ई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है, व्यक्ति स्वातंत्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आजादी-वह इन सब की घातक, गला घोंट देने वाली बताई जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ हैं, काम ले कर उस के विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई जो इस सारे अंधकार को चीर कर दुनिया में य़अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है। 
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति स्वातंत्र्य के पंजे, नाखून  और दांत तोड़ दिए हैं। उस के राज्य में एक पूंजीपति लाखों मजदूरों का खून पी कर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आजादी नहीं कि अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, दूसरे अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बना कर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इस की स्वाधीनता ही स्वाधीनता है तो निस्सन्देह नई सभ्यता में स्वाधीनता नहीं पर यदि स्वाधीनता का अर्थ यह है कि जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यायाम सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य सुलभ  न्याय की प्राप्ति हो तो इस समजा की व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आजादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोरी जमात के दंभमय उपदेशों और अन्ध विश्वास-जनित रूढ़ियों का अनुसरण है तो वहाँ निस्सन्देह वहाँ पर इस स्वातंत्र्य का अभाव है। पर धर्म स्वातंत्र्य का अर्थ यदि लोक सेवा, सहिष्णुता, समाज के लिए व्यक्ति का बलिदान, नेकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और देश को उस के दर्शन भी नहीं हो सकते।
हाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, जोर-जबरदस्ती, बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्यावृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकांश मनुष्य एक जैसी स्थिति में हैं, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो और सतीत्व-विक्रय क्यों हो, झूठे मुकदमे क्यों चलें, और चोरी डाके की वारदातें क्यों हों। यह सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इन की सृष्टि की है। वही इन को पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीड़ित और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझ कर अपनी स्थिति से सन्तुष्ट रहें। उन की ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उन के सिर कुचलने के लिए पुलिस है, अदालत है, कालापानी है। आप शराब पी कर उस के नशे से बच नहीं सकते। आग लगा कर चाहें लपट न उठे, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी चीजें लाता है, जिन्हों ने दुनिया को नर्क बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने आप मिट जायेंगी, जड़ खोद कर केवल फुनगी की पत्तियाँ तोड़ना बेकार है। यह नयी सभ्यता धनाड्यता को हेय, लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता, बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है, गहनों से लदकर कोई स्त्री सुंदर नहीं बनती, घृणा का पात्र बनती है। साधारण जनसमाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पी कर वहाँ बहका नहीं जा सकता, अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, धार्मिक दृष्टि से नहीं, किन्तु शुद्ध सामाजिक दृष्टि से, क्यों कि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अंत हो जाता है।
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाए और तरह-तरह के बहानों से उन की मेहनत का फायदा उठाए या सरकारी पद प्राप्त कर के मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूँछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से उँचे अधिकारी की तनख्वाह भी उतनी ही है, जितनी एक कुशल कारीगर की, वह गगन-चुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर-बसर करना पड़ता है। उस की श्रीमती जी रानी साहिबा या बेगम बनी हुई स्कूलों में ईनाम बाँटती नहीं फिरतीं, बल्कि अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पा कर वह अपने को लाटसाहब नहीं बल्कि जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिस से उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चांदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं है ? पूंजीपति और जमींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उन की जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं पर जब वह लोग भी उस की खिल्ली उड़ाने और उस पर फब्तियाँ कसने लगते हैं तो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उन की दास-मनोवृत्ति पर हँसी आती है। जिस में मनुष्यता, आध्यात्मिकता, उच्चता और सौंदर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिस की नींव लोभ-स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की सम्पत्ति दी है तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उश से जन समाज पर हुकूमत चलाओ, उस का खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
न्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उस का, पदानुसरण अवश्य करेगी, यह सभ्यता अमुक देश की समाज रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है, यह तर्क नितांत असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूसलम में उगा और सारी दुनिया उस के सौरभ से बस गयी, बौद्ध धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरूदक्षिणा दी। मानव समाज अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है, पर मूल स्वरूप की दृष्टि से मानवजाति में कोई भेद नहीं। जो शासन विधान और समाज व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देश के लिए भी हितकारी होगी। हाँ महाजनी सभ्यता और उस के गुर्गे अपनी शक्ति भर उस का विरोध करेंगे, उस के बारे में भ्रमजनक प्रचार करेंगे, जनसाधारण को बहकायेंगे, उस की आँखों में धूल झोंकेंगे, पर जो सत्य है, एक न एक दिन उस की विजय होगी और अवश्य होगी। (समाप्त)  

महाजनी सभ्यता ----- मुंशी प्रेमचन्द भाग-1

मुंशी जी के जन्मदिन 31 जुलाई को मैं ने अफसोस जाहिर किया था कि मैं उस दिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख "महाजनी सभ्यता" को जो अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है, अनवरत पर लाना चाहता था। लेकिन पुस्तक नहीं मिल सकने के कारण ऐसा नहीं कर सका। मैं प्रेमचन्द जयन्ती नहीं मना सका था। लेकिन कल अपना कार्यालय पुनर्व्यवस्थित करने के दौरान पुस्तक मुझे मिल गयी और मैं उसे अंतर्जाल पर ले आने में सफल हो गया हूँ। इस आलेख के दो भाग हैं। मैं इन्हें एक-एक कर प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्रथम भाग प्रस्तुत है।

महाजनी सभ्यता
  • मुंशी प्रेमचन्द
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओं में परिगणित थे और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उन के आवश्यक साधन थे, पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लु्प्त नहीं हुए थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से प्यास बुझाता था, तो अक्सर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उस की अवज्ञा को कदापि सहन नहीं कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था। दूसरे के देश पर चढ़ाई या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम रखने के लिए या फिर देश विजय और राज्य विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उस की विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को स्वार्थसाधन और धन शोषण की भट्टी का ईंधन न समझते थे, किन्तु उन के दुख-सुख में शरीक होते थे और उन के गुण की कद्र करते थे। 
गर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों-पूंजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। इस दृष्टि से मानो आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को बस में किए हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, जरा भी रुरियायत नहीं। उस का अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाए, खून गिराए और चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यहग है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिस का फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उस का शिकार है समाज। वह खुद समाज से बिलकुल अलग है, अगर कोई संबंध है तो यह कि किसी या युक्ति से बस समाज को उल्लू बनाये और उस से जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
न लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने आधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा है।  जिस के पास पैसा है, देवता स्वरूप है, उस का अंतःकरण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत, कला सभी धघन की देहली पर  माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी जहरीली हो गयी है कि इस में जीवित रहना कठिन होता जा रहा है। डॉक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फीस लिए बात नहीं करता। वकील और बैरिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उस के आर्थिक मूल्य के हिसाब से मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसों के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलो-दिमाग पर इतना कब्जा जमा लिया है  कि उस के राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममता शून्य जड़ यन्त्र बन कर रह गया है।  इस महाजनी सभ्यता ने नये नये नीति नियम गढ़ लिए हैं जिन पर आज समाज व्यवस्था चल रही है, उन में एक यह है कि समय ही धन है, पहले समय जीवन था, उस का सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उस का सब से बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डॉक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर, उन का एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर एक अशर्फी नजर की है तो वह उसे मिनट से ज्यादा वक्त नहीं दे सकते, रोगी अपनी दुखगाथा सुनाने के लिए बैचेन है, पर डॉक्टर साहब का उधर बिलकुल ध्यान नहीं, उस से उन्हें जरा भी दिलचस्पी नहीं। उन की निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है, कि वह उन्हें फीस देता है। वह जल्द से जल्द नुस्खा लिखेंगे औऱ दूसरे रोगी को देखने चले जाएंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उन का एक घंटा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं। जैसे ही घंटा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया है तो रह जाय, उन की बला से, वह घंटे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं? क्यों कि समय रूपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी या लड़कों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और सम्बन्धी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बात करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा, कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय का नाश है। बिना खाए-सोये काम नहीं चलता, बेचारा लाचार है और इतना समय नष्ट करना पड़ता है। 
प का कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए, उस के यहाँ आप की रसाई मुमकिन नहीं। आप को उस के दरे दौलत पर जा कर कार्ड भेजना होगा, उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आप से एक दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुरसत नहीं है। अब वे पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
प का कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गए हैं, तो उस से किसी तरह की सहायता की आशा न रखिए, अगर वह मुरौवत को गंगा में न डुबो चुका है, तो आप से लेन-देन की बात शायद न करेगा, परक आप के मुकदमे की ओर तनिक भी ध्यान न देगा, इस से तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास चले जाँय और उस की पूरी फीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज में कमाल हासिल हो जाय, फिर मनुष्यता नाम को न रह जायेगी, उस का एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा। 
स का अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता-मित्रता-स्नेह-सहानुभूति सब को निकाल बाहर करे। 
र आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कह सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है, मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अभ्यास अर्जन करते थे। जब धन उस का एक मात्र उपाय है तब मनुष्य मजबूर है कि एक निष्ठ भाव से उसी की उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा-सन्यासी-उदासी नहीं, वह देख रहा है कि उस के तपेशे में जो सौभाग्यशाली सफळता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राज-मार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का, वह इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उस का क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से गिरायी नहीं जा सकती। वह देख रहा कि जिन के पास दौलत नहीं और जिन्हों ने वक्त को दौलत नहीं समझा, उन को कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उन की कहीं पूछ नहीं। जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है, वह तो उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बता कर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और यह इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उस के मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गयी है कि उसे धनार्जन के सिवा और किसी कार्य से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घंटा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उस की सारी मानसिक, भावगत और सास्कृतिक दिलचस्पियाँ इसी केन्द्र बिन्दु पर आ कर एकत्रित हो गयी हैं, और क्यों न हों? वह देख रहा है, कि पैसे के सिवा उस कोई अपना नहीं, स्नेही मित्र भी अपनी गरज ले कर ही उस के पास आते हैं, स्वजन सम्बन्धी भी उस के पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उस में एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता, उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिस से उन्हें दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य स्थिति का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में पड़ने नहीं देना चाहता, जो सारी आशाओं उमंगों पर पाला गिरा देती हैं, हिम्मत-हौंसले को तोड़ कर रख देती हैं। उसे वह सारी मंजिलें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होंगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्तों पर चलाये बिना वह इन में से एक भी मंजिल पार नहीं कर सकता।