@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: हाड़ौती
हाड़ौती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
हाड़ौती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

'राकेश' जी ने सिद्ध किया कि हाडौ़ती केवल बोली नहीं, एक स्वतंत्र भाषा है।

हाडौती को राजस्थानी की एक शैली के रुप में जाना जाता है। राजस्थान के हाडौ़ती अंचल की यह सर्वसामान्य बोली है। इसे हिन्दी की 48 बोलियों में से एक के रूप में भी जाना जाता रहा है। लेकिन बोली के पास एक लिपि और लिपिबद्ध सामग्री हो तो वह एक स्वतंत्र भाषा का दर्जा प्राप्त करने में सक्षम हो जाती है। लेकिन हाड़ौती को तो देवनागरी में बहुत पहले से लिखा और बोला जाता रहा है। इसे भाषा का दर्जा बहुत पहले प्राप्त था। आजादी के पहले जब कोटा को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त था तो समस्त राजकाज इसी भाषा में होता रहा। इस भाषा में लिखे गए दस्तावेज अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या भाषा के लिए इतना ही पर्याप्त है? शायद नहीं। उस के लिए यह भी आवश्यक है कि उस भाषा में पर्याप्त मात्रा में लिखा गया साहित्य भी हो। हाडौती के पास लिखा हुआ और छपा हुआ साहित्य शायद उस वक्त तक इतनी मात्रा में नहीं था। यही कारण है कि उसे एक भाषा कह पाना संभव नहीं हो पा रहा होगा। वैसे समय में एक व्यक्ति ने इस काम का बीड़ा उठाया। उस ने हाड़ौती में काव्य सृजन की परंपरा को आगे बढ़ाया। उस के प्रकाशन की व्यवस्था की और हाडौती में सृजित साहित्य की उपलब्धता बढ़ने लगी। आज अनेक कवि और लेखक हैं जिन्हें हाडौ़ती के साहित्यकार के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन इस पहचान को बनाने में जिस व्यक्ति ने अहम् और केन्द्रीय भूमिका अदा की उस का नाम शांति भारद्वाज राकेश था।  जब तक हाड़ौती बोलने, लिखने और पढ़ने वाले रहेंगे, राकेश जी का नाम अमर रहेगा।
तीन दिन पहले राकेश जी नहीं रहे। एक लंबी बीमारी के उपरान्त उन का देहान्त हो गया। पहले भी वे ऐसे ही गंभीर रूप से बीमार हुए थे कि लोगों ने अस्पताल से लौट कर घर आने की संभावनाओं को अत्यंत क्षीण बताया। लेकिन हर बार उन की जिजिविषा उन्हें लौटा लाई और हर बार उन्हों ने लौट कर लेखन में नए कीर्तिमान स्थापित किए। कुछ दिन पहले अस्पताल में उन्हों ने ऐसा ही अभिव्यक्त किया था कि उन के दिमाग में पूरा एक उपन्यास मौजूद है, और ठीक हो कर घर लौटने पर वे उसे अगली बार बीमार हों उस के पहले पूरा कर देंगे। लेकिन प्रकृति ने उन्हें यह अवसर प्रदान नहीं किया। वे वापस नहीं लौटे। आज जब उन की शोक-सभा आयोजित हुई तो कोटा का शायद ही कोई अभागा साहित्य प्रेमी होगा जो वहाँ उपस्थित नहीं हो सका होगा। 
राकेश जी की कुल 15 पुस्तकें उन के जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। सूर्यास्त उपन्यास, परीक्षित कथा काव्य, समय की धार काव्य, इतने वर्ष काव्य, पोरस नाटक और हाडौ़ती का प्रथम उपन्यास उड़ जा रे सुआ प्रमुख हैं। मुझे साहित्य से आरंभ से प्रेम था, लेकिन लेखन के नाम पर मेरे पास अपनी दो-चार कविताओं और इतनी ही कहानियों के अतिरिक्त कुछ न था। तब एक पत्रिका के विमोचन समारोह में अचानक ही मुझे बोल देने को कहा गया। वह भी मुख्य अतिथि शांति भारद्वाज राकेश के तुरंत बाद। संकोच के साथ मैं खड़ा हुआ और बोलने लगा तो बहुत समय ले गया। बाद में राकेश जी ने मुझे कहा कि तुम लिखते क्यों नहीं हो। मैं ने उन से कहा मैं गृहत्यागी हूँ, और अदालती दावे और दरख्वास्तें लिखता हूँ, उन्हें न लिखूंगा तो घर कैसे बसा सकूंगा। वे मुझे हमेशा लिखने को प्रोत्साहित करते रहे और जब भी लिखा। उन्हों ने उसे सराहा और शिकायत की कि मैं नियमित क्यों नहीं हूँ। उन्हें मेरे ब्लाग लेखन का पता नहीं था, होता तो शायद वे संतुष्ट होते। 
हाँ मैं उन की एक छोटी सी हाडौती कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, यही मेरी उन के प्रति श्रद्धांजली है-

आप मरियाँ ही सरक दीखैगो
  • शांति भारद्वाज 'राकेश'

आज
अश्यो कुण छै- 
सत्त को सरज्यो 
ज्ये मेट द्ये
ईं गाँव की भूख?

कुण छै -
ज्ये धोळाँ दफैराँ 
चतराम द्ये 
ईं गाँव का सपना को उजास?

कुण छै-
ज्ये सणगार द्ये
ईं गाँव की मोट्याराँ की सळोटाँ
अर बाळकाँ की आस?

बात  को तोल 
अर धरम को मोल
म्हारों गाँव फेर सीखैगो
पण, बडा कह ग्या छै 
कै
आप मरियाँ ही सरग दीखैगो.

उन की विदाई में 'अनवरत' की आँखें नम हैं और सिर श्रद्धावनत।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे

ब के ताँई बड़ी सँकराँत को राम राम!
खत खड़ताँ देर न्हँ लागे। दन-दन करताँ बरस खड़ग्यो, अर आज फेरूँ सँकराँत आगी। पाछले बरस आप के ताँईं दा भाई! दुर्गादान जी को हाडौती को गीत 'बेटी' पढ़ायो छो। आप सब की य्हा क्हेण छी कै ईं को हिन्दी अनुवाद भी आप के पढ़बा के कारणे अनवरत पे लायो जावे। भाई महेन्द्र 'नेह' ने घणी कोसिस भी करी, पण सतूनों ई न्ह बेठ्यो। आखर म्हें व्हानें क्हे दी कै, ईं गीत को हिन्दी अनुवाद कर सके तो केवल दुर्गादान जी ही करै। न्हँ तो ईं गीत की आत्मा गीत म्हँ ही रे जावे, अनुवाद म्हँ न आ सके। म्हारी कोसिस छे, कै दुर्गादान जी गीत 'बेटी' को हिन्दी अनुवाद कर दे। जश्याँ ई अनुवाद म्हारे ताईँ हासिल होवेगो आप की सेवा में जरूर हाजर करुंगो। 
ज दँन मैं शायर अर ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच का सचिव शकूर अनवर का घर 'शमीम मंजिल' पे ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ छै। आज का ईं जलसा म्हँ हाडौती का सिरमौर गीतकार रघुराज सिंह जी हाड़ा को सम्मान होवेगो। ईं बखत म्हारी मंशा तो या छी कै व्हाँ को कोई रसीलो गीत आप की नजर करतो। पण म्हारे पास मौजूद व्हाँ की गीताँ की पुस्तक म्हारा पुस्तकालय में न मल पायी। पण आज तो सँकरात छे, आप के ताँईं हाडौती बोली को रसास्वादन कराबा बनाँ क्श्याँ रेह सकूँ छूँ। तो, आज फेरूँ दा भाई दुर्गादान जी को सब सूँ लोकप्रिय गीत ' नैण क्यूँ जळे रे ...' नजर करूँ छूँ ........

'हाडौती गीत' 

नैण क्यूँ जळे
  • दुर्गादान सिंह गौड़
नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ये आँसू क्यूँ ढळे? 


याँ काँपता होठाँ की थैं कहाण्याँ तो सुणो
याँ खेत गोदता हाथाँ की लकीराँ तो गणो
लगलगतो स्यालूडो़ काँईं रूहणी तपतो जेठ 
मेहनत करताँ भुजबल थाक्या तो भी भूखो पेट

कोई पाणत करे रे कोई खेताँ नें हळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........

रामराज माँही आधी छाया आधी धूप
पसीना म्हँ बह-बह जावे चम्पा बरण्यो रूप
ओ मुकराणा सो डील गोरी को मोळ मोळ जाय
बळता टीबा गोरी पगथळियाँ छाला पड़ पड़ जाय

झीणी चूँदड़ी गळे रे य्हाँ की उमर ढळे 
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........


अब के बेटी परणाँ द्यूंगो आबा दे बैसाख
ज्वार-बाजरा दूँणा होसी नपै आपणी साख
पण पड़्या मावठी दूंगड़ा रे फसलाँ सारी गळगी
दन-दन खड़ताँ पूतड़ी की धोळी मींड्याँ पड़गी

तकदीराँ की मारी उबी नीमड़ी तळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........

मत बिळखे मत तड़पे कान्ह  कुँवर सा पूत
मत रबड़े रीती छात्याँ नें कोनें य्हाँ में दूध
मती झाँक महलाँ आड़ी वे परमेसर का बेटा
वे खावैगा दाख-छुहारा, थैं जीज्यो भूखाँ पेटाँ

रहतो आयो अन्धारो छै दीप के तळे
धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
गोरा गोरा गालाँ पै ........
स गीत में दुर्गादान जी ने इस वर्गीय समाज के एक साधारण किसान परिवार की व्यथा को सामने रखा है। वह कड़ाके की शीत  रात्रियों में और जेठ की तपती धूप में अपने शरीर को खेतों में गलाता है। उस का मासूम शिशु फिर भी भूख से तड़पता रहता है और शिशु की माता के गालों पर उस की इस दशा को देख आँसू टपकते रहते हैं। साथ में श्रम करते हुए सुंदर पुत्री का रूप पसीने बहता रहता है और गर्म रेत पर चलने से पैरों के तलवों में छाले पड़ जाते हैं वह सोचता है कि अब की बार फसल अच्छी हो तो वह बेटी का ब्याह कर देगा। लेकिन तभी मावठ में ओले गिरते हैं और फसल नष्ट हो जाती है। घर में खाने को भी लाले पड़ जाते हैं। वैसे में बच्चे जब जमींदार और साहुकारों के घरों की ओर आशा से देखते हैं तो किसान उन को कहता है कि वे तो परमेश्वर के बेटे हैं जिन का भाग्य दीपक जैसा है और हम उस के तले में अंधेरा काट रहे हैं।

अंत में फिर से सभी को मकर संक्रान्ति का नमस्कार!

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

दर्पण झूठ बोलता है

श्री रघुराज सिंह हाड़ा हाड़ौती के शीर्षस्थ गीतकारों में से एक हैं। वर्तमान में वरिष्ठतम भी। उन्हों ने हाड़ौती के साथ साथ ही हिन्दी में भी सुंदर गीतों की रचना की है। उन के गीत जीवन से निकलते हैं और जीवन की सचाइयों को उद्घाटित करते हैं। आज प्रस्तुत है उन का एक हिन्दी गीत..........'दर्पण झूठ बोलता है'
 







 दर्पण झूठ बोलता है
  • रघुराज सिंह हाड़ा
किस से बात करें दर्पण झूठ बोलता है
मन का भेद छुपा केवल प्रतिबिंब खोलता है।
................................. दर्पण झूठ बोलता है।।

लगता है हर दर्पण धुंध लपेटे होता है
चेतन को चुप कर केवल आकृतियाँ ढोता है
दिखने-होने का अन्तर तो मन टटोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

बातों के बोपारी बोलें तो जादू जागे
भीड़ चले पीछे वो माला पहन चलें आगे
सच-सवाल कर लो तो उन का खून खौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

ऐसा शहर बसा देखा जो दिखता सुंदर था
ऊपर आकर्षक था भीतर पूरा बंजर था
विज्ञापन का बाट मगर सच कहाँ तौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई बार कुछ लोग सचाई से डर जाते हैं
(पर) मनगढ़ सपने दिखा उन्हें दर्पण बहलाते हैं
पर आत्म प्रवंचन तो जीवन में जहर घोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई कई समझौते मन समझाने आते हैं
सहमति को सुविधाओं का सुख सार बताते हैं
पर कबीर ओढ़े उसूल का कफन डोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।। 
  • मोटर गैराज, झालावाड़, (राजस्थान)

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बिलाग जगत कै ताईँ बड़ी सँकराँत को राम राम! आज पढ़ो दाभाई दुर्गादान सींग जी को हाड़ौती को गीत

सब कै ताईँ बड़ी सँकराँत को घणो घणो राम राम !

ब्लागीरी की सुरूआत सूँ ई, एक नियम आपूँ आप बणग्यो। कै म्हूँ ईं दन अनवरत की पोस्ट म्हारी बोली हाड़ौती मैं ही मांडूँ छूँ। या बड़ी सँकरात अश्याँ छे के ईं दन सूँ सूरजनाराण उत्तरायण प्रवेश मानाँ छाँ अर सर्दी कम होबो सुरू हो जावे छे। हाड़ौती म्हाइने सँकरात कश्याँ मनाई जावे छे या जाणबा कारणे आप सब अनवरत की 14.01.2008 अर 14.01.2009 की पोस्टाँ पढ़ो तो घणी आछी। आप थोड़ी भौत हाड़ौती नै भी समझ ज्यागा। बस य्हाँ तारीखाँ पै चटको लगाबा की देर छै, आप आपूँ आप  पोस्ट पै फूग ज्यागा।

ज म्हूँ य्हाँ आप कै ताईं हाड़ौती का वरिष्ट कवि दुर्गादान सिंह जी सूँ मलाबो छाऊँ छूँ। वै हाड़ौती का ई न्हँ, सारा राजस्थान अर देस भर का लाड़ला कवि छै। व्ह जब मंच सूँ कविता को पाठ करै छे तो अश्याँ लागे छे जश्याँ साक्षता सुरसती जुबान पै आ बैठी। व्हाँ को फोटू तो म्हारै ताँई न्ह मल सक्यो। पण व्हाँका हाड़ौती का गीत म्हारे पास छे। व्हाँ में सूँ ई एक गीत य्हाँ आपका पढ़बा कै कारणे म्हेल रियो छूँ। 

म्हाँ व्हाँसूँ उमर में छोटा व्हाँके ताँईं दाभाई दुर्गादान जी ख्हाँ छाँ। व्हाँ का हाडौती गीताँ म्हँ हाडौती की श्रमजीवी लुगायाँ को रूप, श्रम अर विपदा को बरणन छै, उश्यो औठे ख्हाँ भी देखबा में न मलै।  एक गीत य्हाँ आप के सामने प्रस्तुत छै। उश्याँ तो सब की समझ में आ जावेगो। पण न्हँ आवे तो शिकायत जरूर कर ज्यो। जीसूँ उँ को हिन्दी अनुवाद फेर खदी आप के सामने रखबा की कोसिस करूँगो। तो व्हाँको मंच पै सब सूँ ज्यादा पसंद करबा हाळा गीताँ म्हँ सूँ एक गीत आप कै सामने छे। ईं में एक बाप अपणी बेटी सूँ क्हे रियो छे कै ........

....... आप खुद ही काने बाँच ल्यो .....

 बेटी
(हाड़ौती गीत) 

  • दुर्गादान सिंह गौड़
अरी !
जद मांडी तहरीर ब्याव की
मंडग्या थारा कुळ अर खाँप
भाई मंड्यो दलाल्या ऊपर
अर कूँळे मंडग्या माँ अर बाप

थोड़ा लेख लिख्या बिधना नें
थोड़ा मंडग्या आपूँ आप
थँईं बूँतबा लेखे कोयल !
बणग्या नाळा नाळा नाप

जा ऐ सासरे जा बेटी!
लूँण-तेल नें गा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।


वे क्हवे छे, तू बोले छे,
छानी नँ रह जाणे कै
क्यूँ धधके छे, कझळी कझळी,
बानी न्ह हो जाणे कै



मत उफणे तेजाब सरीखी,
पाणी न्ह हो जाणे कै

क्यूँ बागे मोड़ी-मारकणी,
श्याणी न्हँ हो जाणे कै
उल्टी आज हवा बेटी
छाती बांध तवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

घणी हरख सूँ थारो सगपण
ठाँम ठिकाणे जोड़ दियो,
पण दहेज का लोभ्याँ ने
पल भर में सगपण तोड़ दियो


कुँण सूँ बूझूँ, कोई न्ह बोले 
सब ने कोहरो ओढ़ लियो
ईं दन लेखे म्हँने म्हारो
सरो खून निचोड़ दियो


वे सब सदा सवा बेटी
थारा च्यार कवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

काँच कटोरा अर नैणजल,
मोती छे अर मन बेटी
दोन्यूँ कुलाँ को भार उठायाँ 
शेष नाग को फण बेटी


तुलसी, डाब, दियो अर सात्यो,
पूजा अर, हवन बेटी
कतनों भी खरचूँ तो भी म्हूँ, 
थँ सूँ नँ होऊँ उरण बेटी 


रोज आग में न्हा बेटी
रखजै राम गवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

यूँ मत बैठे, थोड़ी पग ले,
झुकी झुकी गरदन ईं ताण
ज्याँ में मिनखपणों ई कोने
व्हाँ को क्यूँ अर कश्यो सम्मान

आज आदमी छोटो पड़ ग्यो,
पीड़ा हो गी माथे सुआण 
बेट्याँ को कतने भख लेगो,
यो सतियाँ को हिन्दुस्तान

जे दे थँने दुआ बेटी
व्हाँने शीश नवा बेटी
सब  ने रख जे ताती रोटी
अर तू गाळ्याँ खा बेटी।।

#######################

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

दीवाली बाद एक उदास दिन

बिटिया कुल छह दिन घर रही। आज सुबह छह बजे की ट्रेन पर उसे छोड़ा। उसे काम पर लौटना जरूरी  था। वह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था में सांख्यिकिज्ञ और जनसंख्या विज्ञानी है, जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में एम्स और कुछ राज्य सरकारों का सहयोग करती है। कुछ ही दिनों में संस्था का एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है जिस में उसे भी अपने काम की दो प्रस्तुतियाँ देनी हैं। उन्हें अंतिम रूप देना है। रुकना संभव न होने से सुबह पाँच बजे ही भाई को टीका लगा उस ने भैया दूज मना ली। 


मंगलवार सुबह पहुंच कर एक दिन आराम किया, दूसरे दिन अपने काम निपटाए और तीसरे दिन ही घर देखा और सजावट के स्थान चुने। बहिन-भाई ने सजावट का प्रारूप भी तय कर लिया। बाजार से तेल रंग मंगा कर मांडणे बनाने बैठी। कोई चार बरस बाद उस ने घर में मांडणे बनाए। हमारे यहाँ हाड़ौती में कच्चे घरों में गेरू मिला कर गोबर से घर के फर्श को लीपा जाता है। फिर खड़िया के घोल से उन पर मांडणे बनाए जाते हैं जो रंगोली की अपेक्षा अधिक स्थाई होते हैं और अगली लिपाई तक चलते हैं, जो घर में कोई और मंगल उत्सव न होने पर अक्सर होली पर होती है। इन मांडणों के बाद कच्चे घर पक्के घरों की अपेक्षा अधिक सुहाने लगते हैं। दीवाली के दिन उन्हों ने फूलों से घर सजाया। लक्ष्मी पूजा की और पटाखे छोड़े। दोनों बच्चे और शोभा इस काम में लगे रहे। मेरी भूमिका इस बीच दर्शक या मामूली सहयोगी की रही। पर यह सब होते देखना कम आनंददायक नहीं था।  लाल और सफेद पेंट से कोटा स्टोन के फर्श पर बनाए गए ये मांडणे कम से कम दो बरस तक इसी तरह चमकते रहेंगे।


 


हर दीवाली पर देसी-घी में घर पर पकाए गुलाब जामुन हमारे यहाँ जरूर बनाए जाते हैं। लेकिन इस बार मावे की संदेहास्पद स्थिति में तय किया गया कि मावे का कोई भी पकवान घर पर न बनेगा। घर पर मैदा, बेसन के नमकीन, और मिठाइयाँ बनाए गए। जिन में उड़द-चने की नमकीन पापड़ियों का स्वाद तो भुलाए नहीं भूला जा सकता। दीवाली हुई और दूसरा दिन बेटी की जाने की तैयारी में ही निकल गया। आज का दिन एक उदास दिन था। पौने बारह खबर मिली कि वह गंतव्य पर पहुँच गई है और सीधे अपने काम पर जा रही है, अब शाम को ही उस से बात हो सकेगी। आज का दिन उदास बीता। शाम होने के बाद ही दीदी के यहाँ टीका निकलवाने जा सका। (क्षमा करें कुछ चित्र अपलोड नहीं हो पाए)




गुरुवार, 17 सितंबर 2009

अश्यी काँई ख्हे दी ब्हापड़ा नें

घणो बवाल मचायो! अश्यी काँईं ख्ह दी।  य्हा ई तो बोल्यो थरूर के कैटल क्लास म्हँ जातरा कर ल्यूंगो।  अब थें ई सोचो;  ब्हापड़ा नें घणी घणी म्हेनत करी। पैदा होबा के फ्हेली ई हिन्दुस्तान आज़ाद होग्यो जी सूँ बिदेस म्हँ पैदा होणी पड्यो। फेर बम्बई कलकत्ता म्हँ पढणी पड़्यो। इत्य्हास मँ डिगरी पास करी व्हा बी अंग्रेजी म्हँ प्हडर। फेर अमरीका ज्यार एम्में अर पीएचडयाँ करणी पड़ी। नरी सारी कित्याबाँ मांडी। जद ज्यार ज्यूएन म्हँ सर्णार्थ्याँ का हाई कमीस्नर बण्यो। फेर परमोसन लेताँ लेताँ कणा काँई सूँ कणा काँईं बण बैठ्यो।  फेर बडी मुसकिल सूँ जुगाड़ भड़ायो अर ज्यू एन का सेकरेटरी जर्नल को चुणाव ज्या लड्यो। ऊँम्हँ भी हारबा को अंदसो होयो तो नाम ई पाछो जा ल्यो।
अब यो अतनो ऊँचो कश्याँ बण्यो? थाँ ईँ याद होव तो बताओ! न्हँ तो म्हूँ बताऊँ छूँ। अतनो बडो आदमी अश्याँ  ई थोड़ी बण ज्याव छे। घणा पापड़ बेलणी पड़ छे, ज्यूएन म्हँ घुसबा कारणे। जमारा भर का मोटा मोटा सेठ पटाणी पड़े छे।  कान काईँ बण ज्याबा प व्हाँ की सेवा करणी पड़े छे। जद परमोसन मले छे। अब अश्याँ परमोसन लेताँ लेताँ दोन्यूँ को गठजोड़ो अतनो गाढ़ो हो ज्यावे छे जश्याँ फेवीकोल को जोड़। दोन्यूँ आडी हाथी अड़ा र खींचे  जद  भी न छूटे। 
अब थाँ ई बोलो! जमारा भर का सेठाँ सूं गठजोड़ो बांधे अर फेर भी व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास म्हाइनें जातरा करे। य्हा कोई जमबा हाळी बात छे कईँ। अब य्हा ई तो गलती होगी, के उँठी ज्यूएन छोडर अठी आ मर् यो। पण काँई करतो ब्हापड़ो, उँठी मंदी की मार पड़ री छी। गठजोड़ा हाळा सन्दा सेठा के ही व्हा गळा में आ री छी तो यो व्हाँ काई करतो। अठी इटली हाळी माता जी नें देखी के यो ज्यूएन को बंदो फोकट म्हँ पल्ले पड़ रियो छे तो ईं ने छोडो मती, पकड़ ल्यो।  व्हाँ ने पकड़्यो अर किसमत नें जोर मारि्यो, अर चुणाव में जीतग्यो। अठी जीत्यो अर उठीं उँ की पौ बारा।  झट्ट सूं सेकिण्ड बिदेस मंतरी जा बणायो। आखर कार ऊँ ने गठजोड़ा को धरम भी तो निभाणो छो। 
अब थें ई बताओ! अतनो बडो आदमी ज्ये जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ो बणावे अर व्हाँ के कारणे सैकिंड बिदेस मंतरी बण के दिखावे। ऊँ से था खेवो के भाया खरचा माथे व्हाई ज्हाज का थर्ड किलास में बैठणी पड़सी। अब माता जी को खेबो भलाईँ न्ह माने पण गठजोड़ा को धरम तो निभाणी पडे। अर माताजी न्हें भी थोड़ी आँख्याँ दखाणी पड़े; के थें यूँ मती सोच जो के म्हूँ थाँ के न्हाईं छूँ। थानें हिन्दूस्तानी व्हाई ज्हाज का डिरेवर सूँ गठजोड़ो बणायो, पण म्हंने तो जमारा भर का सेठाँ सू बणायो छे, आज ताईँ निभायो छे। अर आगे भी निभाबा को पक्को इरादो कर मेल्यो छे। 
थें ई बताओ, के ससी थरूर न्हें काँई झूट बोल्यो? हिन्दुस्तान का व्हाई ज्हाज की थर्ड किलास गायाँ भैस्याँ के बरोबर छे क कोई न्हँ? थाईं तो याद छे के व्ह परदेसी गायाँ जे पच्चीस-पच्चीस सेर दूध देव व्हाँ के ताँई कूलर एसी म्हँ रखाणणी पड़े छे। अब ससी थरूर साइब के ताईं जमारा भर का सेठाँ सूँ गठजोड़ा को सरूर न्हँ होवेगो तो काँईँ थारे ताँई होवेगो के ?

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

भाया ! बैल बगाग्यो

पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास।  उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया।  पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी।  जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए।  पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए। 

व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई।  मुनाफा बढ़ गया।  गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।

खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान।  अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ?  बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' ।   व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा? 

किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ।  मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए।  किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे  कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया। 

पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'।  यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"। 

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

राजनैतिक स्वार्थों को साधने का घृणित अवसरवाद

मुझे पिछले दिनों दो बार जोधपुर यात्रा करनी पड़ी।  दोनों यात्राओं का सिलसिला एक ही था। एक उद्योग में नियोजित श्रमिकों ने अपनी ट्रेड यूनियन बना कर पंजीकृत कराई थी। जब उद्योग के दो तिहाई से भी अधिक श्रमिक इस यूनियन के सदस्य हो गए और उन्हों ने कानून के द्वारा दी जाने वाली सुविधाओं को लागू करने की मांग की तो उद्योग के मालिकों के माथे पर बल पड़ने आरंभ हो गए। उन्हों ने यूनियन का पंजीयन प्रमाणपत्र रद्द कर ने के लिए ट्रेड यूनियन पंजीयक के सामने एक आवेदन प्रस्तुत किया। इसी आवेदन में यूनियन का पक्ष रखने के लिए यह यात्रा हुई थी। उस का कानूनी पक्ष क्या था। यह यहाँ इस आलेख का विषय नहीं है। उसे फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किया जाएगा। पहली सुनवाई के दिन जोधपुर बंद था। मांग यह थी कि उदयपुर और बीकानेर के वकीलों की मांग पर राजस्थान हाईकोर्ट की बैंचे न खोली जाएँ और एक बार विभाजित हो चुके हाईकोर्ट को विभाजित न किया जाए। हाईकोर्ट की अधिक बैंचें स्थापित किए जाने का विषय भी विस्तृत है और यह आलेख उस के बारे में भी नहीं है। इन विषयों पर आलेख फिर कभी 'तीसरा खंबा' पर प्रस्तुत किए जाएँगे।

उस दिन सुनवाई के समय कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर से उद्योग के कोई सौ से अधिक मजदूर आए थे। वे अपने झंडे लिए जब ट्रेड यूनियन पंजीयक के कार्यालय की और जा रहे थे तो बंद कराने वालों का एक समूह वहाँ से गुजरा और उन्हों ने झंडे लिए मजदूरों को देखते ही नारे लगाने आरंभ कर दिए 'वकील-मजदूर एकता जिन्दाबाद !' मजदूरों ने भी उन के स्वर में स्वर मिलाया। कुछ देर नारेबाजी चलती रही फिर दोनों अपनी राह चल दिए। जब मजदूर पंजीयक कार्यालय पहुँचे तो वहाँ वे बाहर कुछ देर नारे लगाते रहे वहाँ बंद समर्थकों का एक और समूह आ निकला। फिर से नारे लगने लगे। मजदूरों ने भी वकील-मजदूर एकता के नारों में साथ दिया और साथ में अपने नारे भी लगाए जिस में उस समूह के लोगों ने भी साथ दिया। बंद समर्थक समूह में शिवसेना के कुछ कार्यकर्ता भी थे। जिन की पहचान गले में डाले हुए केसरिया रंग के पटके जिस पर लाल रंग से शिव सेना छपा था से स्पष्ट थी। उन्हों ने मारवाड़ के गौरव के संबंध में कुछ नारे लगाए। फिर यह भी कहा कि  उन्हें पृथक मारवाड़ राज्य  दे दिया जाए तो उन का अपना अविभाजित हाईकोर्ट वापस मिल जाएगा। फिर शेष राजस्थान का हाईकोर्ट वे कहीं भी ले जाएँ। इस तरह हाईकोर्ट को विभाजित नहीं किए जाने की मांग के बीच प्रदेश को ही विभाजित कर डालने की मांग पसरी दिखाई दी। 

कोटा वालों की यह पुरानी मांग है कि राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच के पास लम्बित मुकदमों मे चालीस प्रतिशत सिर्फ हाड़ौती से हैं, इस कारण से कोटा में भी एक बैंच स्थापित की जानी चाहिए। अपनी इस मांग के समर्थन में वे विगत छह वर्षों से माह के अंतिम शनिवार को हड़ताल रखते हैं। जब देखा कि हाईकोर्ट बैंच के लिए उदयपुर वाले पिछले दो माह से और बीकानेर वाले एक माह से अधिक से संघर्ष कर रहे हैं। यदि इस अवसर पर कोटा वाले चुप रहे तो कोटा में बैंच खोलने की उन की मांग कमजोर पड़ जाएगी। तो वे भी 31 अगस्त से हड़ताल पर आ गए हैं। वकीलों के काम न करने के कारण उदयपुर, बीकानेर और कोटा संभागों में अदालती काम पूरी तरह से ठप्प हो चुका है। 


आज सुबह जब मैं कोटा पहुँचा तो यहाँ हाईकोर्ट की बैंच कोटा में स्थापित करने के समर्थन में शिवसेना ने कलेक्ट्री के बाहर धरना दिया हुआ था। सुबह से ले कर शाम तक जोरों से भाषण होते रहे और नारे लगते रहे। मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जोधपुर में शिवसेना हाईकोर्ट को विभाजित न करने के आंदोलन के साथ थी तो कोटा में उसे विभाजित करने के आंदोलन के साथ। एक ही दल के दो संभागों की शाखाएं आमने सामने खड़ी थीं। गनीमत यह थी कि जोधपुर की शिवसेना जो दबे स्वरों में मारवाड़ प्रांत अलग स्थापित करने की मांग कर रही थी। कोटा की शिवसेना ने पृथक हाड़ौती प्रांत जैसी कोई मांग नहीं उठा रही थी। मैं सोच रहा था कि राजनैतिक स्वार्थों को साधने का  इस से घृणित भी कोई अवसरवादी रूप हो सकता है क्या?

रविवार, 19 जुलाई 2009

हाथी को ओवरटेक करने का नतीजा

इस सप्ताह रोजमर्रा कामों के साथ कुछ काम अचानक टपक पड़े, बहुत व्यस्तता रही। अपना कोई भी चिट्ठा ठीक से लिखने का काम नहीं हो सका।  तीसरा खंबा के लिए कुछ प्रश्न आए। मुझे लगा कि इन का उत्तर तुरंत देना चाहिए। इसी कारण से तीसरा खंबा पर कुछ चिट्ठियाँ इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए आ गई हैं। 

अनवरत पर चिट्ठियों का सिलसिला इस अवकाश के उपरांत फिर आरंभ कर रहा हूँ। आज हाथी की बहुत चर्चा है।  इरफान भाई के चिट्ठे इतनी सी बात पर कार्टून आया है, हाथी पसर गया! 
इसे देख कर एक घटना स्मरण हो आई। आप को वही पढ़ा देता हूँ......

हाड़ा वंश की राजधानी, वंशभास्कर के कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की कर्मस्थली बूंदी राष्टीय राजमार्ग नं.12 पर कोटा से जयपुर के बीच कोटा से मात्र 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  मार्ग के दोनों और हरे भरे धान के खेत हैं। बीच में तीन नदियाँ पड़ती हैं पहाड़ों के बीच बसा बूंदी नगर पांच किलोमीटर दूर से ही दिखाई देने लगता है। बूंदी से सैंकड़ों लोग प्रतिदिन अपने वाहन से कोटा आते हैं और इसी तरह कोटा से बूंदी जाते हैं। राजमार्ग होने के कारण वाहनों की रेलमपेल रहती है। 

कोई दस वर्ष पहले की घटना है। तब राष्ट्रीय राजमार्ग पर इतनी रेलमपेल नहीं हुआ करती थी।  बरसात का समय था। सड़क की साइडों की मिट्टी गीली हो कर फूल चुकी थी और किसी भी वाहन को सड़क से उतार देने पर वह मिट्टी में धंस सकता था। यातायात भी धीमा था।  इसी सड़क पर एक हाथी सड़क के बीचों बीच चला जा रहा था।  यदि उसे ओवरटेक करना हो तो वाहन को स़ड़क के नीचे उतारना जरूरी हो जाता जहाँ वाहन के धँस कर फँस जाने का खतरा मौजूद था। 

अचानक एक कार हाथी के पीछे से आई और हाथी के पीछे पीछे चलने लगी। कार चालक  हाथी को ओवरटेक करना चाहता था जिस से उस की कार सामान्य गति से चले। पर हाथी था कि दोनों तरफ स्थान नहीं दे रहा था।  कार चालक ने हॉर्न बजाया लेकिन हाथी पर इस का कोई असर न हुआ।  इस पर कार चालक ने ठीक हाथी के पिछले पैरों के पास तक कार को ले जा कर लगातार हॉर्न बजाना आरंभ कर दिया। हाथी पर उस हॉर्न के बजने का असर हुआ या कार ने हाथी के पिछले पैरों का धक्का मारने का, हाथी झट से बैठ गया।  कार का बोनट हाथी की बैठक की चपेट में आ गया। बोनट पिचक गया। गनीमत थी कि चालक और कार की सवारियों को आँच नहीं आई।  वे किसी भी प्रकार के शारीरिक नुकसान से बच गए। कार चलने लायक नहीं रही। उन्हें कार को वहीं छोड़ अन्य वाहन में लिफ्ट ले कर आगे का सफर तय करना पड़ा। कार तो वहाँ से सीधे वर्कशॉप वाले ही ले कर आए।
जब भी इस घटना का स्मरण आता है हँसी आ जाती है।  हाथी को मार्ग से हटाना या उसे ओवरटेक करना आसान नहीं है। कीजिए! मगर पूरे ऐहतियात के साथ।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

आखिर मौसम बदल गया, चातुर्मास आरंभ हुआ

मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है।  पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं।  उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है।  कुछ देर में उस में से भाप निकलती है।  सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है।  पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।

पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा।  पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे।  दिन में तेज धूप निकलती रही।  हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे।  फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए?  साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए।  हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया।  नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा।  यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता ।  कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं।   वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।

तभी  खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम!  हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी।  पर फिर पुलिसिये बादल ही  आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए।  जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं।  पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी।  आसोज की धूप को भी लजा रही थी।  लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे।  आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती।  फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे।  हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?

कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई।  कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात  कुछ कम हुई तो  लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा।  लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया।  फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी।  अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे।  चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था।  उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए।  यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।

धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे।  अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई।  एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं।  मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ।  (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों।  वे  बरसात करने वाले नहीं हैं।  चांद रोशनी बिखेर रहा है।  पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है।  लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा।  साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है।  मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।



मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था।  देव आज से सोने जो चले गए हैं।  बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है।  चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे।  पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं।  उन में तो जाना ही पड़ेगा।  लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा।  मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ।  सोचा है पूरे  चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा।  देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।

रविवार, 18 जनवरी 2009

नाड़े और इज़ारबंद, लटकाने, दिखाने, इतराने और कविता कहने के

आज दीतवार है।   बकौल मराठी माणूस कम और मालवी मिनख ज्यादा के ब्लाग पर उदृत पत्र के लेखक आर डी सक्सेना यह आदित्यवार है।  उधर मालवी में ही नहीं, इधर हाड़ौती में भी इसे दीतवार ही बागते हैं।  मगर हमारे नवीं कक्षा के अंग्रेजी के अध्यापक जी की नजर में इस का रिश्ता अंग्रेजी से भी है।  कक्षा में जब पूछा गया कि कल का सवाल हल कर लाए? तो एक छात्र का उत्तर था, -खाल तो दीतवार छो। (कल तो इतवार था, छुट्टी का दिन)  छात्र से उस का गांव पूछा तो पटना बताया।  पटना से यहाँ कैसे आए? तो जवाब था, पैदल।  अध्यापक जी चकरा गए।  बिहार की राजधानी से राजस्थान तक का सफर रोजाना पैदल?  दूसरे छात्रों ने बताया कि पटना आठ किलोमीटर पर एक गाँव का नाम है जहाँ से वह रोज पढ़ने आता है।  अध्यापक जी बोले, अब समझा यहाँ के लोग वार के पहले दी लगाकर बोलते हैं, दीतवार, दी सोमवार, दी मंगलवार............।

 आज भी दीतवार है, कुछ वक्त का लुत्फ उठाया जा सकता है।

 नए मुकदमे के सब कागज तैयार, अदालत में पेश करने के लिए कवर लगा कर सिलाई का काम ही शेष रह गया।  तभी आवाज आई नाड़ा कहाँ गया?  मुंशी बोल रहा था। सब जगह तलाश करने पर नाड़ा मेज के नीचे पाया गया।  कागजों को सहजते संवारते चुपके से नीचे खिसक गया था।  नाड़ा, यानी फाइल सीने का फीता जो कभी लाल रंग का होता था, आज हरे रंग का होने लगा है ताकि कोई इसे लाल फीताशाही न कहे।  हरी फीताशाही भारत में भी खूब चल रही है।  किसी जमाने में पाकिस्तान की फौजी हुकूमत ने सारे सरकारी फीतों को लाल से हरे रंग में बदल डाला था।  लाल फीताशाही एक ऑर्डर से खत्म हो गई।  फीताशाही वहाँ भी कायम है और यहाँ भी।  शाह अफसर या मंत्री कोई भी हो, फर्क क्या पड़ता है?

अब नाड़े का जिक्र हुआ तो उस के शानदार नाम इज़ारबंद का उल्लेख होना वाजिब है।   तो सीधे ग़ालिब पर ही आ जाएँ।  निदा फ़ाज़ली साहब फरमाते हैं....

इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था।  इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है। इसमें इज़ार का अर्थ पाजामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी।  ये इज़ारबंद मशीन के बजाय हाथों से बनाए जाते थे और औरतों के इज़ारबंद मर्दों से अलग होते थे। 
औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे। लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे। 
ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे। ये छुपाने के लिए नहीं होते थे।  पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे।  पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था। 
 
ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे।  जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे। सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे।
फ़ाज़ली साहब ने यहाँ इज़ारबंद से ताल्लुक रखते कुछ मुहावरों का उल्लेख भी किया है, जैसे एक ‘इज़ारबंद की ढीली’  जो उस स्त्री के लिए इस्तेमाल होता है जो चालचलन में अच्छी न हो. फ़ाज़ली साहब ने  इस मुहावरे को इस तरह छंदबद्ध किया है-
जफ़ा है ख़ून में शामिल तो वो करेगी जफ़ा
इज़ारबंद की ढीली से क्या उमीदे वफ़ा


‘इज़ारबंद की सच्ची’ से मुराद वह औरत है जो नेक हो ‘वफ़ादार हो'।  इस मुहावरे का शेर इस तरह है,
अपनी तो यह दुआ है यूँ दिल की कली खिले
जो हो इज़ारबंद की सच्ची, वही मिले

इज़ारबंदी रिश्ते के मानी होते हैं, ससुराली रिश्ता।  पत्नी के मायके की तरफ़ का रिश्ता।
घरों में दूरियाँ पैदा जनाब मत कीजे
इज़ारबंदी ये रिश्ता ख़राब मत कीजे

इज़ार से बाहर होने का अर्थ होता है ग़ुस्से में होश खोना।
पुरानी दोस्ती ऐसे न खोइए साहब
इज़ारबंद से बाहर न होइए साहब

इज़ारबंद में गिरह लगाने का मतलब होता है किसी बात को याद करने का अमल।
निकल के ग़ैब से अश्आर जब भी आते थे
इज़ारबंद में ‘ग़ालिब’ गिरह लगाते थे

ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे।
कबीर और नज़ीर को पंडितों तथा मौलवियों ने कभी साहित्यकार नहीं माना।  कबीर अज्ञानी थे और नज़ीर नादान थे।   इसलिए कि वो परंपरागत नहीं थे।  अनुभव की आँच में तपाकर शब्दों को कविता बनाते थे।
नज़ीर मेले ठेलों में घूमते थे।  जीवन के हर रूप को देखकर झूमते थे. इज़ारबंद पर उनकी कविता उनकी भाषा का प्रमाण है। उनकी नज़्म के कुछ शेर -
छोटा बड़ा, न कम न मझौला इज़ारबंद
है उस परी का सबसे अमोला इज़ारबंद
गोटा किनारी बादल-ओ- मुक़्क़ैश के सिवा
थे चार तोला मोती जो तोला इज़ारबंद
धोखे में हाथ लग गया मेरा नज़ीर तो
लेडी ये बोली जा, मेरा धो ला इज़ारबंद

तो ये हुआ इस दीतवार लुत्फ़िया।  इस में बीबीसी और निदा फ़ाजली साहब का उल्लेख हुआ है और इस्तेमाल भी।  दोनों का बहुत बहुत शुक्रिया। 

बुधवार, 14 जनवरी 2009

बड़ी संकरात को राम राम!

आज मकर संक्रांति है। पिछले वर्ष मैं ने मकर संक्रान्ति पर हिन्दी की बोलियों में से एक हाड़ौती बोली में आलेख लिखा था। उसे अधिक लोग नहीं पढ़ पाए थे। कुल तीन टिप्पणियाँ प्राप्त हुई थीं। लेकिन यह बोली व्यापक रूप से राजस्थान के चार जिलों कोटा, बाराँ, बून्दी और झालावाड़ में बोली जाती है। आप का इस से परिचय हो इस लिए आज फिर से इस बोली में अपना आलेख लिखा है। हो सकता है आप को यह बोझिल लगे। लेकिन पढ़िए अवश्य ही। इस से हिन्दी की एक बोली से आप का परिचय तो होगा ही। वैसे थोड़ा प्रयास करेंगे तो समझ भी सभी आएगा। विषय भी आप को रोचक लगेगा। आप पिछले वर्ष का आलेख पढना चाहें तो यहाँ चटका लगा कर पढ़ सकते हैं। उस में हाड़ौती में संक्रान्ति के पर्व से संबंधित परंपराओं का उल्लेख है। साथ वाले मानचित्र में देश और राजस्थान में हाड़ौती की स्थिति दिखाई गई है। 



राम राम! सभी जणाँ के ताईं बड़ी सँकरात को राम राम!!
बहणाँ बरो न मानँ, के जणाँ के ताईं तो राम राम करी। पण जण्याँ के ताईं न करी। पण जणाँन मँ जण्याँ भी तो सामिल छे।

आज बड़ी संकरात छे। बड़ी अश्याँ, के सँकराताँ तो बारा होवे छे, जद जद भी भगवान सूरजनाराण एक रासी सूँ दूसरी मँ परबेस करे, तो उँ सूँ सँकरात खेवे। आसमान मँ बण्या याँ बारा घराँ का सात मालिक बताया। एक घर तो खुद भगवान सूरजनाराण को, एक घर चन्दरमाँ को, अर बाकी मंगळ जी, बुध म्हाराज, बरहस्पति जी, शुक्कर जी अर् शनि म्हाराज का दो-दो घर। 

भगवान सूरजनाराण बरस का बारा म्हींना में हर घर मँ एक म्हीनों रेह छ।  अब शनि म्हाराज व्हाँका ही बेटा छ, ज्याँ का दोन्यूँ घर लाराँ लाराँ ही पड़ छ। जी सूँ दो म्हीनाँ ताईं भगवान सूरजनाराण क ताईं बेटा क य्हाँ रेहणी पड़ छ। अब आज व्ह शनि म्हाराज का घर मँ उळगा तो दो म्हीना पाछे मार्च का म्हीनाँ में ही खड़ेगा। सूरजनाराण एक म्हींना सूँ तो गुरू म्हाराज बरहस्पति का घर म्हँ छा, अब दो म्हींना बेटा शनी का घर म्हँ रहेगा, फेर म्हींनों भर बरहस्पति का घर मं रहेगा। फेर एक म्हीनों मंगळ म्हाराज क य्हाँ, फेर एक म्हीनो शुक्कर जी क य्हाँ, फेर एक म्हीनों बुध जी क य्हाँ। ऊँ क बाद एक म्हीनों चन्दरमा जी का घर रेह र आपणा घरणे फूगगा ज्हाँ फेर एक म्हीनों रेहगा। ऊंक पाछे फेर पाछा ई बुध जी, शुक्कर जी, मंगळ जी, बरहस्पति जी ती घराँ में एक एक म्हींना म्हींना भर रेता हुया जद पाछा बेटा का घरणे पधारेगा तो अगला बरस की बड़ी संकरात आवेगी। 

उश्याँ बरस को आरंभ मंगळ सूँ होणी छावे नँ, जीसूं तेरा अपरेल नँ जद भगवान सूरजनाराण मंगळ म्हाराज का घर मँ परबेस करे तो ऊँ दन बैसाखी मनावे छे। अर ऊं दन ही सूरजनाराण का बरस को आरंभ होवे छे। ऊँ क आस पास ही आपणी गुड़ी पड़वा भी आवे छे। 

दो म्हीनाँ ताईं जद भगवान सूरजनाराण को मुकाम गुरू म्हाराज बरहस्पति जी क य्हाँ रह छ। तो कोई भी आडो ऊँळो काम करबा की मनाही छ। अब आपण परथीबासियाँ का तो सारा काम ही आडा ऊँळा होवे। जीसूँ ही आपण याँ दो म्हीनां क ताईं मळ का म्हीना ख्हाँ छाँ। अर य्हाँ में भगवद् भजन, कथा भागवत अर दान पुण्य का कामाँ क अलावा दूसरा काम न्हँ कराँ। आज ऊ एक म्हींनो पूरो होयो। आज सूँ फेर सारा काम सुरू होता। हर बरस सुरू हो ही जावे छे। पण ईं बरस आज क दन ही बरहस्पति जी खुद भी घरणे फ्हली सूँ ई बिराज रिया छे। अब दोन्यूँ को मिलण अर साथ 10 फरवरी ताँईं रहगो जीसूँ व्हाँ ताईं आडा ऊँळा काम, जासूँ आपण मंगळ काम ख्हाँ छाँ न होवेगा, जश्याँ सादी-ब्याऊ, मुंडन आदी। 

बड़ी संकरात पे अतनो ही खेबो छ!
बड़ी संकरात की फेरूँ घणी घणी राम राम!! 
 
आप को परेमी,
ऊई, दिनेसराई दुबेदी

शनिवार, 15 नवंबर 2008

शादी के पहले की रात

रोका या टीका, सगाई, लग्न लिखना, भेजना, लग्न झिलाना, विनायक स्थापना, खान से मिट्टी लाना, तेल बिठाना, बासन, मण्डप, निकासी, अगवानी, बरात, द्वाराचार, तोरण, वरमाला, पाणिग्रहण, सप्तपदी, पलकाचार, विदाई, गृह-प्रवेश, मुहँ-दिखाई, जगराता आदि विवाह के मुख्य अंग हैं। इन सभी का अभी तक हाड़ौती में व्यवहार है। इन में बासन के लिए ताऊ रामपुरिया जी और रौशन जी ने सही बताया। वर के यहाँ बारात जाने के और वधू के यहाँ पाणिग्रहण के एक दिन पहले महिलाएं बैण्ड बाजे के साथ सज-धज कर कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के मटका, उस पर एक घड़ा और उस पर ढक्कन सिर पर रख कर लाती हैं। इस तरह के कम से कम पाँच सैट जरूर लाए जाते हैं। जब महिलाएं बासन ले कर घर पहुंचती हैं तो द्वार पर वर या वधू के परिवार के जामाता उन के सिर पर से बासन उतार कर गणपति के कमरे में ला कर रखते हैं और इस के लिए बाकायदे जमाताओं को नेग (कुछ रुपए) दिए जाते हैं।

महिलाएँ बासन लेने चल दीं उस का ज्ञान मुझे सुड़ोकू भरते हुए दूर जाती बैंड की आवाजों से हुई। कोई पौन घंटे बाद वे बासन ले कर लौटी। सुडोकू हल करने में कुछ ही स्थान रिक्त रह गए थे कि साले साहब ने फिर से हाँक लगा दी। हम अखबार वहीं लपेट कर चल दिए। हमें बाकायदा तिलक निकाल कर 101 रुपए और नारियल दिया गया। हम ने अकेले सारे बासन उतारे, और कोई जामाता तब तक विवाह में पहुँचा ही नहीं था। महिलाएँ होटल के अंदर प्रवेश कर गईं थीं, हम बाहर निकल गए। हमें आजादी मिल गई थी। बेतरतीबी से जेब में रखे गए 101 रुपए पर्स के हवाले कर रहे थे कि साले साहब सामने पड़ गए, नोट हाथ में ले कर मजा लिया -मेहन्ताना कम तो नहीं मिला? मैं ने जवाब दिया -वही हिसाब लगा रहा हूँ। छह बासन उतारे हैं एक का बीस रुपया भी नहीं पड़ा कम तो लग रहा है। वे बोले -ये तो एडवांस है। अभी पूरी शादी बाकी है, कसर पूरी कर देंगे। वे हमें पकड़ कर फिर से लंगर में कॉफी पिलाने ले गए।

हम ने अपने एक पुराने क्लर्क को फोन किया था तो कॉफी पीते पीते वह मिलने आ गया। आज कल वह यहीं झालावाड़ में स्वतंत्र रूप से काम कर रहा है। कहने लगा -उस का काम अच्छा चल रहा है। कुछ पैसा बचा लिया है, मकान के लिए प्लाट देख रहा है। मेरे साथ सीखी अनेक तरकीबें खूब काम आती हैं। अनेक लोगों के पारिवारिक विवाद उस ने उन्हीं तरकीबों से सुलझा दिए हैं। तीन-चार जोड़ियों को आपस में मिला चुका है, घर बस गए हैं पति-पत्नी सुख से रह रहे हैं। यहाँ के वकील पूछते हैं, ये तरकीबें कहाँ से सीखीं? तो मेरा नाम बताता है। कहने लगा -भाई साहब, लोगों के घर बस जाते हैं तो बहुत दुआ देते हैं। वह गया तब महिलाएँ प्रथम तल पर ढोल और बैंड के साथ नृत्य कर रही थीं। बासन लाने के बाद महिलाओं का नृत्य करना परंपरा है। हम भी उस का आनंद ले रहे थे। महिलाओं, खास तौर पर लड़कियों और दो चार साल में ब्याही बहुओं ने इस के लिए खास तैयारी की थी। नाच तब तक चलता रहा जब तक नीचे से भोजन का बुलावा नहीं आ गया। तब तक आठ बज चुके थे। सब ने भोजन किया। वापस लौटे तो मैं ने शहर मिलने जाने को कहा तो हमारी बींदणी बोली हम भी चलते हैं। मैं, पत्नी और दोनों सालियाँ एक संबंधी के घर मिलने चले गए। वहाँ पता चला उन की पत्नी को हाथ में फ्रेक्चर है। लड़की पढ़ रही थी। वे चाय-काफी के लिए मनुहार करते रहे। उन की तकलीफ देख कर हम ने मना किया फिर भी कुछ फल खाने पड़े। रात को बारह बजे वहाँ से लौटे तो होटल में सब मेहमान बातों में लगे थे। हमारे कमरे में महिलाओं के सोने के बाद स्थान नहीं बचा था। मैं हॉल में गया तो वहाँ सभी पुरुष सोये हुए थे, फिर भी स्थान रिक्त था। मैं वहीं एक रजाई ले कर सोने की कोशिश करने लगा। स्थान, बिस्तर और रजाई तीनों ही अपरिचित थे, फिर बीच बीच में कोई आ जाता रोशनी करता किसी से बात करता। पर धीरे-धीरे नींद आ गई। जारी

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

युद्ध विराम में दाल-मैथी की रेसिपी

मैं ने अपनी थकान का उल्लेख किया था। लेकिन चर्चा हुआ खाने का। खाने के मामले में जीभ और पेट दोनों में तालमेल का होना जरूरी है वर्ना इन दोनों की घरेलू लड़ाई गज़ब ढाती है। इस युद्ध में थकान और अनिद्रा सम्मिलित हो जाए तो फिर मैदान का क्या कहना? उस में राजस्थान की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की तस्वीर दिखाई देने लगती है। फिर लड़ाई अंतिम निर्णय तक जारी रहना जरूरी है। या तो ये जीते या वो, राणा जीते या भीलों के साथ जंगल चले जाएँ और गुरिल्ला युद्ध जारी रखें। हमारा हाल कुछ हल्दीघाटी ही हो रहा है। यह गुरू नानक की दुहाई जो एक युद्ध विराम मिल गया है घावों की दुरूस्ती के लिए। देखते हैं कल के इस युद्ध-विराम का कितना लाभ हमारी ये हल्दी-घाटी उठा पाती है।

मैं सोचता था, दाल-मेथी की रसेदार सब्जी जैसी सादा और स्वादिष्ट सब्जी तो सभी को पता होगी। मगर यहाँ तो उस की भी रेसिपी पूछने वालों की कमी नहीं। दीदी लावण्या ( लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`), रंजना जी [रंजू भाटिया] और pritima vats ने तो अनभिज्ञता प्रकट की और रेसिपी की मांग कर डाली और ताऊ रामपुरियाविष्णु बैरागी जी ने उस की तारीफ की। ज्ञान जी Gyan Dutt Pandey बोले -हम होते तो खिचड़ी खाते! पर ऐसे में मैं इस मौसम की मैथी-दाल ही पसंद करता। खिचड़ी जरा थोड़ी सर्दी कड़क होने पर अच्छी लगती।

अब हमें कोई चारा नहीं सूझ रहा था कि करें तो क्या करें? कि देवर्षि नारद ने मार्ग सुझाया कि मैं हर मामले में नारायण! नारायण! करते भगवान् विष्णु की शरण लेता हूँ,  तुम भी किसी को तलाशो।  सो हम पहुँचे देवी (शोभा) की शरण। उन से अपनी विपत्ति का हल पूछा? वे किसी तरह बताने को तैयार नहीं। आखिर तीन किस्तों में सुबह-दोपहर-शाम में हम ने उन से दाल-मैथी का राज जाना। आप को बताएँ इस शर्त पर कि अगर बनाएँ तो खाएँ और परिवार को खिलाएँ जरूर और फिर बताएँ कि कैसी लगी?

तो बस आप ले लीजिए 150 ग्राम मूंग की छिलके वाली दाल और सब्जी वाले से खरीदिए एक पाव यानी 250 ग्राम जितनी हो सके उतनी ताजा मैथी की हरी पत्तियाँ तथा एक टुकड़ा अदरक। मैथी में यदि डंठल अधिक हों तो कठोर-कठोर डंठल तोड़ कर निकाल दें और मैथी को चलनी में डाल कर नल चला दें पानी से धुल जाएगी। उस में हाथ न चलाएँ नहीं तो उस का स्वाद कम हो सकता है। अब मैथी को चाकू से काट कर बारीक कर लें।  मसालों में नमक, लाल मिर्च, जीरा और हींग आप की रसोई में जरूर होंगे। इन में से कुछ न हो तो पहले से व्यवस्था कर लें।  प्रेशर-कुकर में दाल के साथ स्वाद के अनुरूप नमक डाल कर अपनी रुचि और कुकर की जरूरत के माफिक न्यूनतम पानी डाल कर पकाएँ। एक सीटी आने पर कुकर को उतार लें, भाप निकाल कर उस का ढक्कन खोल दें। उस में मैथी की पत्तियाँ और एक अदरक के टुकड़े का कद्दकस पर कसा हुआ बुरादा डालें और एक बार उबल जाने दें। बस थोड़ी देर में सब्जी तैयार होने वाली है। इस से आगे दो रास्ते हैं।

यदि आप तेल-घी का तड़का पसंद नहीं करते तो आँच पर से उतार कर उस में स्वाद के अनुसार मिर्च डाल दें और एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग को एक चाय चम्मच भर पानी में घोल कर सब्जी में डाल कर चम्मच चला दें। बस सब्जी तैयार है। सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

दूसरा अगर तड़का लगाना हो तो खाली भगोनी में एक चम्मच देसी-घी डालें और गरम होने पर जरूरत माफिक जीरा डालें उस के सिकने पर पहले से पीस कर चूर्ण की गई एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग डाल दें और दो सैंकड में उस भगोनी में कुकर से दाल-मेथी डाल दें। चम्मच से चला कर उतार लें और वैसे ही सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

यह तो हुई दाल-मैथी की रेसिपी। है न बहुत सादा। शोभा ने इसे भी तीन किस्तों में बताया तो मुझे भी लगा कि ये भी कोई रेसिपी है। पर स्वादिष्ट इतनी कि बस पेट की खैर नहीं। फिर हमारे बचपन की तरह ऊँची कोर की थाली के एक ओर किसी चीज की ओट लगा कर नीचे रह गए हिस्से की और रसीली दाल-मैथी परोसी जाए और उसी थाली में रोटी या पराठा रख कर खाया जाए तो मजा कुछ और ही है। साथ में एक नए देसी गुड़ का टुकड़ा हो और मिर्च स्वाद में कम रह जाने में ऊपर से सूखी पूरी लाल मिर्च को हाथ से चूरा कर सब्जी में डाल कर खाएँ तो लगे कि वैकुण्ठ की डिश जीम रहे हैं।

और PD को कह रहा हूँ कि यह भी उन्हें यम्मी पोस्ट ही लगेगी। आप को कैसी लगी? जरूर बताएँ। आगे बताएँगे रहा हुआ मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में हुई शादी का हाल।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जलझूलनी एकादशी और बाराँ का डोल ग्यारस मेला

मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस shreeji1s(जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से। 
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो dolmela3s गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े dolmela11sवहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने  अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन dolmela14s ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद  सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को dolmela15s पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता  भगवान श्री जी का विमान और उस dolmela13s से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट dolmela9sपड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग  केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में dolmela2sअनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते। 
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।