@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: स्वास्थ्य
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रविवार, 23 अक्तूबर 2022

धनतेरस का धन से कोई संबंध नहीं, वह केवल स्वास्थ्य संबंधी त्यौहार है

आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस है। लोग इस को धनतेरस भी कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से इसका धन अर्थात भौतिक संपत्ति से कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः पौराणिक रूप से इसका महत्व सिर्फ इस कारण है कि समुद्र मंथन के दौरान इस दिन धन्वन्तरि उत्पन्न हुए जिन्हें आयुर्वेद (भारतीय चिकित्सा शास्त्र) का जनक माना जाता है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है।  

आज के दिन का धन अर्थात भौतिक संपत्ति से संबंध पहली बार बाजार ने ही स्थापित किया है। विशेष रूप से सोना चांदी और रत्न व्यापारियों ने। वरना न तो ऐतिहासिक और न ही पौराणिक रूप से इस संबंध के बारे में कहीं कोई सूचना नहीं मिलती है।

हमारी कुछ ज्योतिषीय मान्यताएँ हैं। चैत्रादि जिस मास में सूर्य की संक्रान्ति न पड़े वह अधिक मास होता है। यदि एक ही माह में दो संक्रान्तियाँ हों तो उन्हें पखवाड़े भर के दो माह माना जाता है। उसी तरह एक मान्यता है कि जिस तिथि में सूर्योदय न हो वह तिथि क्षय तिथि है और जिस तिथि में दो सूर्योदय हों वह तिथि बढ़ कर दो हो जाती है। इन्हीं मान्यताओं से एक और मान्यता निकली है कि जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में हो अगले सूर्योदय के पूर्व तक वही तिथि मानी जाएगी। इस हिसाब से असली धन तेरस आज है। जो आयु बढ़ाने, स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने के शास्त्र के प्रति समर्पित है। कल बाजारोत्पन्न नकली धन तेरस थी।

हमारे कई संकट हैं। उनमें एक संकट चंद्र सूर्य ग्रहण भी है। जिस दिन यह हो उस दिन पूजा वगैरा नहीं की जा सकती। अब अमावस तिथि पर सूर्य ग्रहण है इस कारण बाजार को दीवाली मनाने का एक दिन कम पड़ गया। उसने कल द्वादशी को धनतेरस मना डाली आज त्रयोदशी को नरक/ रूप चतुर्दशी मनाएगा और कल चतुर्दशी को तो दीवाली होगी ही। दीवाली ठीक है क्यों कि अमावस की रात तो कल ही होगी। अमावस की समाप्ति सूर्य ग्रहण के मध्य मंगलवार को होगी।

एक बात और कि किसी भी बड़े भारतीय त्यौहार का मूलतः किसी धार्मिक अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है। दीपावली भी एक कृषि त्यौहार है। बरसात का मौसम समाप्त हो चुका होता है। हम घरों में हुई बरसाती क्षतियों को मिटा कर उनकी साफ सफाई करके उन्हें फिर से साल भर के लिए रहने योग्य बनाते हैं। इसी समय बरसात की फसलें मूलतः धान की कटाई आरंभ होती है। यह खेतों में उत्पन्न धान्य को घर लाने के लिए कटाई शुरू करने का त्यौहार है। इसी लिए दीवाली के अगले दिन बैल सजाए जाते हैं। वे इस समारोह के साथ फसल कटाई के लिए निकलते हैं। सभी धर्मों को लोकोत्सवों और तमाम सुन्दर मनभावन स्थानों को कब्जाने का अद्भुत गुण होता है। तो संस्थागत धर्मों के विकास के साथ साथ हर त्यौहार के साथ कुछ न कुछ धार्मिक कर्मकांड जोड़ कर उन्हें धार्मिक संज्ञा दे दी गयी है। इससे वे त्यौहार देश के एक खास धर्म के लोगों के लिए रह गया है। यदि इन त्यौहारों को अपने मूल प्राकृतिक रूप में मनाया जाए तो देश की सारी आबादी को चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो इन त्यौहारों के साथ जोड़ा जा सकता है। असल में दीवाली हिन्दू त्यौहार नहीं भारतीय त्यौहार है।

मैंने कल घर से बाहर कदम नहीं रखा। बाजार नहीं गया जिससे कुछ भी खरीद सकूँ। बेटा-बेटी बाजार गए थे। कुछ बाथरूम फिटिंग्स खरीद कर लाए हैं। आज का दिन हम लोग घर में कुछ पकवान्न बनाने में बिताएंगे और दुनिया में सब के अच्छे स्वास्थ्य के लिए कामना करेंगे।

सभी मित्रों को भी धन्वन्तरि तेरस मुबारक¡ सभी लोग जीवन में स्वस्थ बने रहें।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

अजित वडनेरकर के साथ चार घंटे

शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं।  मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी।  लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है।  हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया।  अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे।  अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है,  पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले,  ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।

भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना।  वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था।  पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था।  पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी।  रवि रतलामी जी से मिल सकता था।  पर वे भी दूर थे।  अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था।  मैं ने किसी को बताया भी नहीं।  मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे।  पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।

26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए।  पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी।  हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए।  ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी।  ट्रेन चलते ही हम सो लिए।  आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी।  कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी?  बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी।  उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर।  मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है?  बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी।  यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था।  ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया।  स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया।  लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए।  ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे।  वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।

सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर।  एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ।  बरबस ही  आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे।  कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर।  मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो।  जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है।  जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं।  हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था।  कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा।  मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।

दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था।  हम दोनों और अजित बैठ गए।  दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई।  हम भोजन के साथ बातें करते रहे।  अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे।  ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई।  इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए।  तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है।  अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए।  भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं।  पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार।  इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।

अब चलने का समय हो चला था।  अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए।  अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है।  उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं।  चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है।  फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था।  मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।

जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ।  मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया।  धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा। 

मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी।   कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे।  हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे।  अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी।  मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म  तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया।  वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे।  अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले।  ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।

बुधवार, 12 नवंबर 2008

युद्ध विराम में दाल-मैथी की रेसिपी

मैं ने अपनी थकान का उल्लेख किया था। लेकिन चर्चा हुआ खाने का। खाने के मामले में जीभ और पेट दोनों में तालमेल का होना जरूरी है वर्ना इन दोनों की घरेलू लड़ाई गज़ब ढाती है। इस युद्ध में थकान और अनिद्रा सम्मिलित हो जाए तो फिर मैदान का क्या कहना? उस में राजस्थान की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की तस्वीर दिखाई देने लगती है। फिर लड़ाई अंतिम निर्णय तक जारी रहना जरूरी है। या तो ये जीते या वो, राणा जीते या भीलों के साथ जंगल चले जाएँ और गुरिल्ला युद्ध जारी रखें। हमारा हाल कुछ हल्दीघाटी ही हो रहा है। यह गुरू नानक की दुहाई जो एक युद्ध विराम मिल गया है घावों की दुरूस्ती के लिए। देखते हैं कल के इस युद्ध-विराम का कितना लाभ हमारी ये हल्दी-घाटी उठा पाती है।

मैं सोचता था, दाल-मेथी की रसेदार सब्जी जैसी सादा और स्वादिष्ट सब्जी तो सभी को पता होगी। मगर यहाँ तो उस की भी रेसिपी पूछने वालों की कमी नहीं। दीदी लावण्या ( लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`), रंजना जी [रंजू भाटिया] और pritima vats ने तो अनभिज्ञता प्रकट की और रेसिपी की मांग कर डाली और ताऊ रामपुरियाविष्णु बैरागी जी ने उस की तारीफ की। ज्ञान जी Gyan Dutt Pandey बोले -हम होते तो खिचड़ी खाते! पर ऐसे में मैं इस मौसम की मैथी-दाल ही पसंद करता। खिचड़ी जरा थोड़ी सर्दी कड़क होने पर अच्छी लगती।

अब हमें कोई चारा नहीं सूझ रहा था कि करें तो क्या करें? कि देवर्षि नारद ने मार्ग सुझाया कि मैं हर मामले में नारायण! नारायण! करते भगवान् विष्णु की शरण लेता हूँ,  तुम भी किसी को तलाशो।  सो हम पहुँचे देवी (शोभा) की शरण। उन से अपनी विपत्ति का हल पूछा? वे किसी तरह बताने को तैयार नहीं। आखिर तीन किस्तों में सुबह-दोपहर-शाम में हम ने उन से दाल-मैथी का राज जाना। आप को बताएँ इस शर्त पर कि अगर बनाएँ तो खाएँ और परिवार को खिलाएँ जरूर और फिर बताएँ कि कैसी लगी?

तो बस आप ले लीजिए 150 ग्राम मूंग की छिलके वाली दाल और सब्जी वाले से खरीदिए एक पाव यानी 250 ग्राम जितनी हो सके उतनी ताजा मैथी की हरी पत्तियाँ तथा एक टुकड़ा अदरक। मैथी में यदि डंठल अधिक हों तो कठोर-कठोर डंठल तोड़ कर निकाल दें और मैथी को चलनी में डाल कर नल चला दें पानी से धुल जाएगी। उस में हाथ न चलाएँ नहीं तो उस का स्वाद कम हो सकता है। अब मैथी को चाकू से काट कर बारीक कर लें।  मसालों में नमक, लाल मिर्च, जीरा और हींग आप की रसोई में जरूर होंगे। इन में से कुछ न हो तो पहले से व्यवस्था कर लें।  प्रेशर-कुकर में दाल के साथ स्वाद के अनुरूप नमक डाल कर अपनी रुचि और कुकर की जरूरत के माफिक न्यूनतम पानी डाल कर पकाएँ। एक सीटी आने पर कुकर को उतार लें, भाप निकाल कर उस का ढक्कन खोल दें। उस में मैथी की पत्तियाँ और एक अदरक के टुकड़े का कद्दकस पर कसा हुआ बुरादा डालें और एक बार उबल जाने दें। बस थोड़ी देर में सब्जी तैयार होने वाली है। इस से आगे दो रास्ते हैं।

यदि आप तेल-घी का तड़का पसंद नहीं करते तो आँच पर से उतार कर उस में स्वाद के अनुसार मिर्च डाल दें और एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग को एक चाय चम्मच भर पानी में घोल कर सब्जी में डाल कर चम्मच चला दें। बस सब्जी तैयार है। सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

दूसरा अगर तड़का लगाना हो तो खाली भगोनी में एक चम्मच देसी-घी डालें और गरम होने पर जरूरत माफिक जीरा डालें उस के सिकने पर पहले से पीस कर चूर्ण की गई एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग डाल दें और दो सैंकड में उस भगोनी में कुकर से दाल-मेथी डाल दें। चम्मच से चला कर उतार लें और वैसे ही सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

यह तो हुई दाल-मैथी की रेसिपी। है न बहुत सादा। शोभा ने इसे भी तीन किस्तों में बताया तो मुझे भी लगा कि ये भी कोई रेसिपी है। पर स्वादिष्ट इतनी कि बस पेट की खैर नहीं। फिर हमारे बचपन की तरह ऊँची कोर की थाली के एक ओर किसी चीज की ओट लगा कर नीचे रह गए हिस्से की और रसीली दाल-मैथी परोसी जाए और उसी थाली में रोटी या पराठा रख कर खाया जाए तो मजा कुछ और ही है। साथ में एक नए देसी गुड़ का टुकड़ा हो और मिर्च स्वाद में कम रह जाने में ऊपर से सूखी पूरी लाल मिर्च को हाथ से चूरा कर सब्जी में डाल कर खाएँ तो लगे कि वैकुण्ठ की डिश जीम रहे हैं।

और PD को कह रहा हूँ कि यह भी उन्हें यम्मी पोस्ट ही लगेगी। आप को कैसी लगी? जरूर बताएँ। आगे बताएँगे रहा हुआ मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में हुई शादी का हाल।

सोमवार, 6 अक्तूबर 2008

बलबहादुर सिंह की ऐंजिओप्लास्टी

इन्दौर के होल्कर राज्य की सेना में बहादुरी के बदले उन्हें राजपूताना की सीमा पर 12 गाँवों की जागीर बख्शी गई। पाँच पीढ़ियाँ गुजर जाने और जागीरें समाप्त हो जाने पर उन के वंशज अब किसान हो कर रह गए हैं। गाँव में रहते और किसानी करते करते वही ग्रामीण किसान का सीधापन उन के अंदर घर कर गया। जागीरदारी का केवल सम्मान शेष रहा। सीधेपन और सरल व्यवहार ने उस परिवार के सम्मान को नई ऊंचाइयाँ दीं। इसी परिवार के एक 68 वर्षीय बुजुर्ग बलबहादुर सिंह इसी साल 19 अगस्त को अपने गांव रावली के पास के निकटतम कस्बे सोयत जिला शाजापुर मध्य प्रदेश से अपने कुछ रिश्तेदारों से मिलने कोटा आने के लिए बस में बैठे पुत्र चैनसिंह साथ था।

बस कोटा से कोई तीस किलोमीटर दूर मंड़ाना के पास पहुँची थी कि बलबहादुर को पेट में दर्द होने लगा उन्हों ने इस का उल्लेख अपने पुत्र और सहयात्रियों से किया।कोटा के नजदीक आते आते पेट दर्द बहुत बढ़ गया तो सहयात्रियों ने सलाह दी कि वे कोटा में कामर्स कॉलेज चौराहे पर उतर कर वहाँ के किसी अच्छे अस्पताल में दिखा कर इलाज ले लें। बस कॉमर्स कॉलेज चौराहा पहुँची तो बलबहादुर सिंह अपने पुत्र सहित वहीं उतर गए और सब से नजदीकी अस्पताल पहुँचे। वे अस्पताल के गेट से अंदर प्रवेश कर ही रहे थे कि विजयसिंह नाम का एक नौजवान उन्हें मिला। उस ने उन से बातचीत की। खुद को उन की जाति का और सोयत में अपनी रिश्तेदारी बताई और उन्हें विश्वास में ले कर सलाह दी कि यह अस्पताल तो अब बेकार हो गया है। अच्छा इलाज तो पास के दूसरे अस्पताल में होता है, अस्पताल भी बड़ा है और वहाँ सारी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं। मैं वहीं नौकरी करता हूँ। आप को डाक्टर को दिखा कर अच्छा इलाज करवा दूंगा। मेरे कारण आप को खर्च भी कम पड़ेगा। एक तो जात का, दूसरे गांव के पास ही उस की रिश्तेदारी, बलबहादुर ने उस का विश्वास किया और उस के साथ उस बड़े अस्पताल आ गए।

अस्पताल पहुँचते ही विजयसिंह ने वहाँ के प्रधान डॉक्टर मिलवाया। डॉक्टर ने खुद जाँच की फिर दो अन्य डॉक्टरों को बुला कर दिखाया। सभी डॉक्टरों ने आपस में सलाह कर बताया कि अभी और जांचें करनी पड़ेंगी जिस का खर्च पाँच-छह हजार आएगा, यह राशि तुरंत जमा करानी पड़ेगी। विजय सिंह बलबहादुर के पुत्र चैन सिंह को अलग ले गया और कहा कि तुम्हारे पिता को तो हार्ट अटैक आने वाला है, इन का तुरंत इलाज जरूरी है, अन्यथा या तो इन से हाथ धो बैठोगे या फिर इन को लकवा हो जाएगा तो जीवन भर के लिए पलंग पकड़ लेंगे। लेट्रिन-बाथरूम के लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाएंगे। चैन सिंह कुछ समझता और निर्णय लेता उस से पूर्व ही डॉक्टरों ने उसे कहा कि 50-60 हजार रुपयों का इन्तजाम करो इन का तुरंत आपरेशन करना पड़ेगा। चैन सिंह भौंचक्का रह गया उस इतने पैसे का तुंरत तो इन्तजाम नहीं हो पाएगा कल तक कोशिश कर सकता हूँ। उसे जवाब मिला -इतना समय नहीं है, जितने पैसे अभी हों उतने अभी जमा करा दो तो हम इलाज चालू करें। इस बीच तुम जितना हो सके इंतजाम करो। पिता की तत्काल मृत्यु की आशंका से भयभीत हुए चैनसिंह ने अपने और पिता के पास के सवा तीन हजार रुपए जमा करवा दिए। वह रुपयों के इन्तजाम जुटा और बलबहादुर को अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में पहुँचा दिया गया।

उसी दिन बल बहादुर का ऑपरेशन कर के दो घंटे बाद जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया। दूसरे दिन चैनसिंह किसी तरह बीस हजार रुपये जुटा कर लाया लाया जिसे अस्पताल वालों ने जमा कर रसीद दे दी। लिया। उसे कहा गया कि अभी उस के पिता का इलाज शेष है, चालीस हजार रुपयों का इंतजाम और कर के जमा कराओ। हम कल तक इन की अस्पताल से छुट्टी कर देंगे। चैनसिंह ने अपने मौसा को खबर भेजी। तीसरे दिन वे चालीस हजार रुपया और ले कर आए वह भी अस्पताल में जमा करा दिया गया। यह रुपया जमा हो जाने पर बलबहादुर को बताया गया कि उस की एंजियोग्राफी और एंजियोप्लास्टी 19 अगस्त को ही कर दी गई है।

इस बीच बलबहादुर को सीने और पेट में दर्द होता, जिस की वह शिकायत करता तो उस से कहा जाता कि चुपचाप लेटे रहो, अभी बाहर से डाक्टर आएंगे और वही तुम्हें देखेंगे। बलबहादुर को अब तक लगने लगा कि वह कहीं इस अस्पताल में आ कर फंस तो नहीं गया है वह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। उस ने प्रतिपक्षीगण से अस्पताल से छुट्टी देने की प्रार्थना की तो उसे अस्पताल बयालीस हजार का बिल और बताया गया और कहा गया कि जमा करा दोगे तो शेष रहा जीवन भर लगातार चलने वाला इलाज बता कर छुट्टी कर देंगे। जब तक रुपया जमा नहीं होगा छुट्टी नहीं मिलेगी। इस बीच पुत्र ने उसे हिंगोली की गोली बाजार से ला कर दी तो पेट दर्द कम हो गया। इस तरह के व्यवहार से बलबहादुर अपने अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गया। अस्पताल वाले लगातार रुपया जमा कराने को कहते रहे। बलबहादुर को लगने लगा कि अब इस अस्पताल में उस की खैर नहीं है, यहाँ दो दिन भी रहा तो वह शायद ही जीवित घर वापस लौट सके। इस तरह के डाक्टर तो पैसे के लिए कुछ भी कर सकते हैं। यहाँ से उसे निकलना पड़ेगा।

खुद को ठगा हुआ, फंसा हुआ और बंदी समझ कर बलबहादुर अपने पुत्र के साथ 22 अगस्त को चुपचाप अस्पताल छोड़ भागा। उसी दिन उस ने खुद को हृदयरोग विशेषज्ञ और मेडीकल कॉलेज कोटा के एक सहायक प्रोफेसर डाक्टर को दिखाया तो उन्हों ने कहा कि आप को मात्र गेस्ट्रिक प्रोब्लम थी। आप का गलत इलाज कर दिया गया। आप की ऐंजिओप्लास्टी करने की जरूरत ही नहीं थी। उस ने गेस्ट्रिक प्रोब्लम के लिए सामान्य दवाइयाँ लिखीं जिन को लेने के बाद तुरंत ही बलबहादुर खुद को सहज और स्वस्थ महसूस करने लगा। लेकिन उस की शंकाएं नहीं गईं। दूसरे दिन उस ने खुद को मेडीकल कॉलेज एक पूर्व अधीक्षक,पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष मेडिसिन विभाग और हृदयरोग विशेषज्ञ, को दिखाया तो उन्हों ने भी यही कहा कि उसे हार्ट की कोई बीमारी ही नहीं थी जिस के इलाज की जरूरत होती। लेकिन अब एंजिओप्लास्टी कर दी गई है तो जीवन भर निरंतर दवाओं पर निर्भर रहना पड़ेगा। जिन का महिने भर का खर्च आठ सौ-हजार रुपए आएगा। यह खर्चा तो जीवन भर करना ही पड़ेगा।

इस बीच विजयसिंह बलबहादुर के गांव रावली जा पहुँचा, और घर में घुसते ही बलबहादुर और उस के परिवार वालों को चिल्ला कर अपशब्द कहते हुए कहा कि लोग अस्पताल में भरती हो कर इलाज करवा लेते हैं, और फिर बिना पैसा जमा कराए अस्पताल से भाग जाते हैं। पूछने पर बलबहादुर के परिवार वालों को उस ने बताया कि उन के परिवार के मुखिया ने उन के अस्पाताल मे इलाज करवाया और बिना रुपया दिए भाग आया है और धमकी दे गया कि बाकी का रुपया जमा करवा दो वरना इस का अंजाम बहुत बुरा होगा। परिवार वाले यह सब सुन कर घबरा गए, उन्हें बलबहादुर की बीमारी का कुछ पता ही नहीं था। वे बलबहादुर की खोज खबर करने को फोन पर फोन करने लगे। जब तक उन की बात उन से नहीं से हो गई उन्हें तसल्ली नहीं आई।

बाद में पता लगा कि यह अस्पताल अनेक लोगों के इसी तरह के आपरेशन कर चुका है। ऐसा करना उस की मजबूरी है। कुछ डॉक्टरों ने यह अस्पताल खोला था। बैंकों आदि से भारी कर्जे ले कर उसे तुरंत विस्तार दे दिया गया। अब जब तक रोज मरीज न मिलें तो कर्जे चुकाने ही भारी पड़ जाएँ। अस्पताल इसी तरह मरीज जुटाता है। अब बलबहादुर ने अपने भतीजे के वकील पुत्र की सलाह पर अस्पताल, उस के डाक्टरों और विजयसिंह के खिलाफ एक फौजदारी मुकदमा धोखाधड़ी के लिए किया है और उपभोक्ता अदालत में अलग से हर्जाना दिलाने की अर्जी पेश की है।

बुधवार, 16 जुलाई 2008

कब्जेदारों की बेदखली और शर्करा व लिपिड प्रोफाइल जाँचेँ

पिछले आलेख में मैंने आप को बताया था.... किस तरह शरीर से बाहर निकलने वाले अपशिष्ट बेदखल होने के बजाए वहीं कब्जा जमा कर बैठ गए। उस से जो हमारा हाल हुआ उस ने हमें पहुँचा दिया अस्पताल। जाँच पर रक्तचाप सामान्य निकला यानी 80/130 और ईसीजी में कुछ भी असामान्य नहीं। डाक्टर ने शर्करा जाँच कराने को लिखा। .....

मैं उस दिन के आलेख में आप को बताना भूल गया कि इस के अलावा लिपिड प्रोफाइल जाँच कराने के लिए भी लिखा था, और इस के लिए तो हमें अल्ल सुबह बिना कुछ खाए-पिए (पानी के अलावा) अस्पताल जाना था, रक्त-नमूना देने के लिए। अस्पताल की प्रयोगशाला खुलना था सुबह आठ बजे। हम रात को पंचसकार खा कर सोए थे शायद यही कब्जाधारियों को बेदखल करने में कामयाब हो? अब पांच से आठ तीन घंटे कैसे बिताए जाएँ। सुबह की कॉफी पिए बगैर और सब काम तो रुके पड़े थे। तम्बाकू के लिए रात डाक्टर मना कर ही चुके थे। खाली मटके का पानी पी पी कर हम कब्जाए हुओं को धक्का मारते रहे, बीच बीच में अन्तरजाल टटोलते रहे, जानने को कि ये लिपिड प्रोफाइल क्या बला है?

अन्तरजाल बता रहा था – लिपिड प्रोफ़ाइल अनेक जाँचों का समूह है, जो कि अक्सर कोरोनरी हृदय रोग की जोखिम निर्धारित करने लिए एक साथ किए जाने के लिए कराए जाते हैं। इस में समूचे-कोलेस्ट्रोल, एचडीएल-कोलेस्ट्रोल (जो अच्छा कोलेस्ट्रोल कहा जाता है), एलडीएल-कोलेस्ट्रोल (जो बुरा-कोलेस्ट्रोल कहा जाता है), तथा ट्राइग्लिसराइड की जाँचें शामिल की जाती हैं।

ये वे जाँचें हैं जो इस बात का अच्छा संकेत देती हैं कि किसी व्यक्ति की रक्तवाहिनियों के कठोर हो जाने या उन में अवरोध उत्पन्न हो जाने के कारण उसे हृदयाघात की कितनी संभावना हो सकती है?

इस का उपयोग यह है कि हृदय रोग के अन्य जाने हुए कारकों के साथ लिपिड प्रोफाइल की जाँचों के परिणामों को मिला कर रोगी के हृदय रोग की चिकित्सा की योजना बनाई जाती है।

इधर एक मामूली कब्जाधारी भी सरकने को तैयार नहीं था। तम्बाकू चबाने की याद आई तो डाक्टर का स्मरण हो आता। यह सोच कर कि उस ने कौन सा आज ही छोड़ने को कहा था। आखिर हम ने चुटकी भर तम्बाकू चूने के साथ रगड़ा, सुपारी काट कर उस में मिलाई और मुहँ में फाँक गए। तम्बाकू का रखना था कि कब्जाधारियों में हलचल मचने लगी। हम ने टेबुल पर रखे डाक्टर के पर्चे, ईसीजी रिपोर्ट और उस के साथ शुल्क जमा करने वाली रसीदों को घूर कर देखा। पर तब तक हल्ला गुल्ला बढ़ गया था। जाना ही पड़ा। कोई बीस प्रतिशत कब्जाधारी बेदखल हो गए। पौने आठ बज गए थे हम स्कूटर उठा सीधे पहुँचे अस्पताल और फिर प्रयोगशाला। एक अस्पताल का भर्ती मरीज पहले से रक्त देने बैठा था। सो हम हो गए दो नंबरी।

वापस लौटे, आते ही शोभा को कॉफी बनाने को बोला। कॉफी पी कर गए तो आधे से अधिक कब्जाधारी भाग छूटे थे। दुबारा कॉफी बनवाई और पी, तो 90 प्रतिशत का सफाया हो गया। हम सुबह का भोजन करने लायक हो गए थे। अदालत भी जाना था। शाम को अदालत से लौटे तो बहुत कुछ सामान्य हो चुके थे। घर पर बताया कि छह बजे खाना खाना है आठ बजे फिर शर्करा के लिए नमूना देने जाना है। पर खाना शुरू हुआ पौने सात बजे, नमूने का समय निर्धारित हुआ पौने नौ बजे। देकर आए।

आज सुबह जाँच परिणाम लेने जाना था। शोभा (गृहस्वामिनी) ने सुबह से ही हल्ला कर दिया। जाना नहीं क्या? बिना नहाए धोए जाओगे क्या? आज कॉफी समय पर मिल गई थी। कब्जाधारी जाते ही बेदखल हो गए। हम ने नहा-धो, टीका लगाया और पहुँच गए प्रयोगशाला। रिपोर्ट बन गई थी। रजिस्टर में दर्ज थी। लेकिन छपी नहीं थी। छपने में समय लगा। तब तक डाक्टर बहिरंग में विराजमान हो चुके थे। हम ने जाच परिणाम सीधे उन के पास जा जंचाया।

डाक्टर ने परिणाम देखा। फिर मुझे देखा। बोले –क्या खाते हो कोलेस्टरोल नियंत्रण के लिए। मैने कहा –कुछ भी तो नहीं। हाँ, देसी घी नहीं खाता पचास के बाद से। सोच रक्खा है कि यह दीपक, हवन और 50 से कम वालों के लिए है। वे बोले –कोई दवा नहीं। मैने कहा –बिलकुल नहीं। हाँ दौड़ने का शौक है, तो दौड़ लेता हूँ गाहे-बगाहे, नियमित वह भी नहीं।

मै भौंचक्का था। आखिर बात क्या है? मैं ने पूछ ही लिया –क्या कुछ गड़बड़ है डाक्टर साहब। वे बोले –कुछ भी नहीं। तिरेपन के हो रहे हो। मैं ने इस उमर में इतनी अच्छी प्रोफाइल नहीं देखी। आप को किसी दवा की जरूरत नहीं।

हम उछल पड़े जैसे परीक्षा में योग्यता सूची में नाम आ गया हो., वह भी सब से ऊपर। Lipid profile

शर्करा जाँच और लिपिड प्रोफाइल जाँच की रिपोर्ट यहाँ पेश है। आप भी जाँचें। खास तौर पर डाक्टर पाठक जरूर जांचें। बताएँ योग्यता सूची में नाम कहाँ है?

 

पिछले आलेख पर छत्तीसगढिया संजीव तिवारी, वकील रश्मि सुराणा, बवाल भाई, सतीश पंचम, प्रभाकर पाण्डेय, अनूप शुक्ला, उडनतश्तरी वाले समीर लाल, अरविंद मिश्रा, लोकेश, राज भाटिय़ा, विजयशंकर चतुर्वेदी, डा० अमर कुमार, अभिषेक ओझा, सिद्धार्थ, और अनिता कुमार, जी की टिप्पणियाँ मिलीं। कुछ ने खुद स्वीकार किया कि वे भी तम्बाकू सेवन करते हैं, और कहीं कहीं गृहमंत्रालय की आपत्ति पर बहस जारी है। किसी ने आलेख की तारीफ में कसीदे पढ़े. किसी ने सलाह दी कि तम्बाकू से मुक्ति प्राप्त कर ही ली जाए। किसी किसी ने नए चित्र की भी तारीफ की। चित्र पर पहली ही टिप्पणी आलोक जी की थी। उस के तुरंत बाद हम ने शोभा (गृहस्वामिनी) से कह कर नजर उतरवा ली। सब लोग खूब तारीफ कर सकते हैं चित्र की। पर चित्र में खूबसूरती जिस कारण से है वह चित्र में नहीं है। यह बच्चे के एक जन्मदिन के चित्र में से काटा गया टुकड़ा है। बच्चा मेरी साली की बेटी का बेटा है और सारा सौंदर्य उसी के कारण इस चित्र में है। सब से सुंदर टिप्पणी डाक्टर अमर कुमार जी की थी उसे पुनः उदृत कर रहा हूँ ...........

कभी देखता अनवरत का बदला कलेवर।
कभी भटकाता आपके फोटो का फ़्लेवर ।।
डाक्टर को बोले नहीं कि क्यों दिखाते तेवर।
मरीज़ों को धूल फँकाते और खुद खाते घेवर।।
वैसे..पोस्ट अच्छी बन पड़ी है, बड़े दिनों बाद मुकालात हो रही आपसे।
इतनी अच्छी कास्मेटिक सर्ज़री कहाँ से करवायी, हमें भी जरा बताइये तो।।

हाँ एक संकल्प जरूर किया है कि एकदमै तो नहीं, पर शनैः शनैः तम्बाकू का साथ जरूर छोड़ दूंगा। 

रविवार, 13 जुलाई 2008

तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है।

ये बरसात का सुहाना मौसम, सब ओर हरियाली छाई है। इधर बरसात भी मेहरबान है। घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में रौनक है। लोग नगर छोड़ कर बाहर भाग रहे हैं। नदी-नालों-तालाबो-झरनों के किनारे रौनक है, और इतनी है कि जगह की कमी पड़ गई है। नए-नए गड्ढे तलाशे जा रहें हैं, जिन के किनारे पड़ाव डाले जा सकें। गोबर के उपलों का जगरा लगा कर दाल-बाफले-कत्त बनाए जा सकें। पकौड़ियाँ तली जा सकें, विजया की घोटम-घोंट के लिए बढिया सी चट्टान नजदीक हो। बस मौज ही मौज है।

पर 50 से ऊपर वालों पर चेतावनियाँ लटकी हैं। उधर चार दिन पहले प्रयाग में गंगा किनारे ज्ञानदत्त जी को गर्दन खिंचवा कर सही करानी पड़ी, तो इधर हम अलग ही चक्कर में पड़ गए। इस मौज-मस्ती में कुछ खाने का हिसाब गड़बड़ा गया। खाए हुए का अपशिष्ट बाहर निकलने के बजाय शरीर में ही कब्जा जमाए बैठ गया। वेसै ही जैसे चुनाव के दिनों में बहुत से लोग खाली जमीनों पर कब्जा कर बैठते हैं और फिर जिन्दगी भर हटते नहीं। हट भी जाते हैं तो कब्जा किसी दूसरे को संभला जाते हैं।

कब्ज के इसी दौर में शादियाँ आ धमकीं। शुक्रवार रात शादी में गए और वहाँ पकवान्न देख रहा नहीं गया। नहीं-नहीं कर के भी इतना खा गए कि दो-तीन दिन की कब्ज का इंतजाम हो गया। वहाँ से लौट कर पंचसकार की खुराक भी ले ली। पर कब्जाए लोग कहाँ नगरपालिका और नगर न्यास की परवाह करते हैं जो हमारी आहार नाल पंचसकार की परवाह करती। शनिवार सुबह दो तीन बार कोशिश की, लेकिन कब्जा न हटना था तो नहीं हटा। दिन में हलका खाया। तीन घंटे नीन्द निकाली। रात को फिर मामूली ही खाया। काम भी मामूली किया।

रात को तारीख बदलने के बाद सोने गए तो निद्रा रानी रूठ गई। कब्जाए लोग हल्ला कर रहे थे। कभी पेट के इस कोने में, तो कभी उस कोने में। कभी ऊपर सरक कर दिल के नीचे से धक्का मारते, तो दिल और जिगर दोनों हिल जाते। पीठ की एक पुरानी पेशी कभी टूट कर जुड़ी थी, बस वहीं निगाह बनी रहती। लगता जोड़ अब खुला, तब खुला।

पिछले साल एक दिन अदालत में चक्कर खा गए थे। शाम को डाक्टर को दिखाया तो पता लगा। रक्त का दबाव कुछ बढा हुआ है। हम ने उछल-कूद कर, वजन घटा कर, (राउल्फिया सर्पैन्टाईना)  का होमेयोपैथी मातृद्रव ले कर यह दबाव तो सामान्य कर लिया। लेकिन उछल-कूद में कहीं साएटिका नामक तंत्रिका को परेशानी होने लगी तो उछलकूद बंद। वजन फिर बढ़ने लगा। हम ने घी दिया जलाने, और शक्कर वार-त्योहार को समर्पित कर, इसे कुछ नियंत्रित किया। लेकिन शक का कोई इलाज नहीं।

रात एक बजे तक नीन्द नहीं आई। दर्द शरीर में इधर-उधर भटक रहे थे। नीन्द नहीं आती, तब खयालात बहुत आते हैं और सब बुरे-बुरे। लोगों के किस्से याद आते रहे। जिन्हों ने दिल के दर्द को पेट की वात का दर्द समझा, ज्यादातर हकीम साहब तक पहुँचने के पहले ही अल्लाह को प्यारे हो गए, जो पहुँचे थे उनमें से कुछ ईसीजी मशीन पर शहीद हुए और कुछ आईसीयू में। इक्का-दुक्का जो बचे वे डाक्टर साहब की डाक्टरी चलाने के लिए जरूरी शोहरत के लिए नाकाफी नहीं थे।

हमने सोई हुई संगिनी को जगाया। पेट की वात बहुत तंग कर रही है। उस ने तुरंत ऐसाफिडिटा का तनुकरण आधा पानी प्याले में घोल कर पिलाया, ऊपर से बोली नाभि में हींग लगाई जाए। पर नौबत न आई। हमारी हालत देख कब्जा जमाए लोगों में से कुछ को ब्रह्महत्या के भय ने सताया होगा, तो भागने को दरवाजा भड़भड़ाने लगे। हमने भी शौचालय जाकर उन्हें अलविदा कहा। थोड़े बहुत जो जमे बैठे रह गए उन्हें सुबह के लिए छोड़ दिया। रात को ही संगिनी ने कसम दिलायी कि सुबह डाक्टर के यहाँ जरूर चलना है।

सुबह नहा-धोकर, चंदन-टीका किया ही था कि डाक्टर के यहाँ ठेल दिए गए। पचास रुपए में प्रवेश पत्र बना। चिकित्सक को दिखाया। उस ने विद्युतहृदमापक बोले तो ईसीजी और शुगर जाँच कराने को लिखा। तीन-सौ-सत्तर और जमा कराए। कुल हुए चार-सौ-बीस। ईसीजी हो गया। शुगर के लिए तो सुबह खाली पेट और खाने के दो घंटे बाद बुलाया गया, जो आज संभव ही नहीं था। उस के लिए कल की पेशी पड़ गई। फिर दिल का नक्शा जो कागज पर छाप कर दिया गया था, ले कर चिकित्सक के पास पहुँचे तो उस ने सब देख कर पूछा-धुम्रपान करते हो?

हमने कहा- तीस-पेंतीस साल पहले ट्राई किया था, पर स्वाद जमा नहीं।

तम्बाकू खाते हैं?

हम बोले- हाँ।

तो फिर पूछा- कितना खाते हो?

हमने कहा- कोई नाप थोड़े ही है।

चिकित्सक बोला- जाओ तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है। कुछ नहीं हुआ।

मैं मन ही मन भुन कर रह गया। वे चार-सौ-बीस जो मेरे टूटे, उन का क्या? डाक्टर को थोड़ा बहुत मनोविज्ञान भी आता था। एमबीबीएस या एमडी करते वक्त जरूर पढ़ाया गया होगा। हमारी मुखाकृति पढ़ कर भांप गया। उसने पर्ची वापस ली एक गोली सुबह-शाम भोजन के पहले, पाँच दिन तक। दवा वाले ने पूरे पैंतालीस रूपए झाड़े और बताया कि अम्लता की दवा है।

आज की सुबह पड़ी चार-सौ-पैंसठ की।

सोमवार, 7 अप्रैल 2008

पखवाड़े भर नीम कोंपलों की गोलियाँ सेवन करें और मौसमी रोगों से दूर रहें

नव सम्वतसर के अवसर पर अनवरत और तीसरा खंबा के सभी पाठकों को शुभ कामनाएं।

जी हाँ, एक और नव-वर्ष प्रारंभ हो गया है, हमारे लोक जीवन में इस का बहुत महत्व है। इन दिनों दिन और रात की अवधि बराबर होती है। कभी मौसम में ठंडक होती है तो कभी गरमी सताती है। सर्दी के मौसम के फलों और सब्जियों का स्वाद चला जाता है। ग्रीष्म के फल और सब्जियाँ अपना महत्व बताने लगते हैं। भोजन में हरे धनिये की चटनी का स्थान पुदीना ले लेता है। कच्चे आम के अचार में स्वाद आने लगता है। बाजार में ठंडे पेय की बिक्री बढ़ जाती है। खान-पान पूरी तरह बदल जाता है।

अब हमारे पाचन तंत्र को भी इन नये खाद्यों के लिए नए सिरे से अभ्यास करना पड़ता है। जब भी हम कोई पुराना अभ्यास छोड़ते हैं और नया अपनाते हैं तो संक्रमण काल में कुछ नया करना होता है। इन दिनों यदि हम कम भोजन करें, अन्न के स्थान पर फलाहारी हो जाएं अथवा एक समय अन्न और एक समय फलाहारी रहें और वह भी आवश्यकता से कुछ कम लें तो इस संक्रमण काल को ठीक से निबाह सकते हैं।

शायद यही कारण है कि मौसम के इस संधि-काल में हमारे पूर्वजों ने नवरात्र का प्रावधान किया। जिस में व्रत-उपवास रखना, एक-दो घंटे स्वाध्याय करना शामिल किया। इस से संक्रमण काल को सही तरीके से बिताया जा सकता है, पुराने खाद्य का अभ्यास छूट जाता है और नए को अपनाना सुगम हो जाता है।

मैं चार-पाँच वर्षों से एक समय अन्न और एक समय फलाहार कर रहा हूँ। इस का नतीजा है कि मैं मौसमी रोगों का शिकार होने से बच रहा हूँ। विशेष रुप से उदर रोगों से।

आप को यह भी स्मरण करवा दूँ कि ऐसा ही मौसम परिवर्तन सितम्बर-अक्टूबर में भी होता है। उस समय शारदीय नवरात्र होते हैं।

एक और परम्परा याद आ रही है। दादाजी के सौजन्य से वे चैत्र की प्रतिपदा से नव-वर्ष के पहले दिन से नीम की कोंपलों को काली मिर्च के साथ पीस कर उस की कंचे जितनी बड़ी गोलियाँ बना लेते थे। सुबह मंगला आरती के बाद उन का भगवान को भोग लगाते और मंदिर में आए सभी दर्शनार्थियों को एक एक गोली प्रसाद के रूप में वितरित करते थे। हमें तो दो गोली प्रतिदिन खाना अनिवार्य था। उन का कहना था कि एक पखवाड़े, अर्थात पूर्णिमा तक इन के खाली पेट खा लेने से पूरे वर्ष मौसमी रोग नहीं सताते। शायद शरीर की इम्युनिटी बढ़ाने का उन का यह परंपरागत तरीका था। यह कितना सच है? यह तो कोई चिकित्सक इस की परीक्षा करके अथवा कोई आयुर्वेदिक चिकित्सक ही बता सकता है।

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बहुत दिनों के अन्तराल पर अपने उपस्थित हो सका हूँ। निजि और व्यवसायिक व्यस्तताएं और उन की कारण उत्पन्न थकान इस का कारण रहे। पाठक और प्रेमी जन इस अनुपस्थिति के लिए मेरे अवकाश को मंजूरी दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।

शनिवार-रविवार दो दिन अवकाश के थे। सोचा था पड़ा हुआ कुछ काम करेंगे। लेकिन मेरे जैसे वकीलों के लिए जिन का कार्यालय भी घर पर हो अवकाश का अर्थ कुछ और होता है। एक तो वकील का काम अदालत और अपने कार्यालय तक बिखरा होता है। कार्यालय अपने घर पर होने का मतलब है वकालत-घर-परिवार-ब्लॉगिंग सबका गड्ड-मड्ड हो जाना। अवकाश कभी कभी काम का व्यस्त दिन बन जाता है। इस बीच कुछ अवांछित मेहमान भी आ टपकते हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।

रविवार, 27 जनवरी 2008

हर ब्लॉगर रोज बीस मिनट जॉगिंग करे

पिछले साल एक दिन अदालत में अचानक मुझे ऐसा लगा कि एक भी कदम चला तो गिर पड़ूंगा। किसी को कुछ बताए बिना ही जैसे-तैसे बाहर निकल पास ही जज साहब के पीए के चैम्बर में जा कर बैठा, कि थोड़ा आराम कर सकूँ। जज ने तुरन्त ही बुलवा भेजा। मैं जैसे-तैसे इजलास में पहुँचा और इस बुलावे को निपटा कर वापस वहीं आ बैठा। घंटे भर बाद वहीं बैठ कर कॉफी पी, तब सामान्य होने पर अपने काम पर लगा। शाम को अपने डॉ. ङी.आर. आहूजा को चैक कराया, तो रक्तचाप १००-१६० था। याने दिन में वह अपनी सीमाऐं तोड़ रहा होगा। डॉ. ने कहा कोई खास बात नहीं है, एक गोली रात को लेने को दे दी, कोलेस्ट्रोल की जाँच कराने और कुछ दिन रोज रक्तचाप नियमित रुप से जँचाते रहने की हिदायत कर दी। अगले मित्र ड़ॉ. आर.के. शर्मा की पेथोलोजी लेब में यह काम हुआ। पता लगा कोलेस्ट्रोल सीमा में ही है, लेकिन ऊपरी सतह को छू रहा है।

हमने गोली एक दिन ही खाई, रक्तचाप कुछ दिन चैक कराया। वह कभी ९५-१३५ आता, तो कभी १००-१४०, इस से नीचे आने को तैयार न था। डॉ. आहूजा का कहना था गोली तो लेनी ही होगी। अपने राम को पता था गोली जीवन भर के लिये बंध जाएगी, इस के लिए हम तैयार न थे। खुद की डॉक्टरी से इलाज को पत्नीजी तैयार नही। हम खुद बी. एससी. (बायो), ऊपर से निखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद विद्यापीठ के वैद्य विशारद। नॉवल्जीन-एविल के अलावा कोई एलोपैथी गोली कभी ही खाई हो। पच्चीस साल से घर की होमियोपैथी से खुद, पत्नीजी और बेटी-बेटी के चार सदस्यों के परिवार को चला रहे हैं, तो ऐलोपैथी कैसे रास आती? तय हुआ कि किसी दूसरे होमियोपैथ को इन्वॉल्व किया जाए। तो रोज अदालत जाते समय होमियोपैथ चिकित्सक डॉ बनवारी मित्तल के सरकारी क्लिनिक पर अपने राम की चैकिंग होने लगी। डॉ. मित्तल ने एक सप्ताह कोई दवा नहीं की। सप्ताह भर बाद एक मदर टिंचर सुबह-शाम बीस-बीस बून्द लेने को दिया।

इस बीच नैट पर सारी सलाहें देख डालीं। हम समझ गए, अधिक वजन बीमारी का असल कारण है और इसे कम करना है। अपने राम ने भोजन से घी बिलकुल नदारद किया। चीनी चौथाई कर दी (पूरी छोड़ने में ब्राह्मणत्व को खतरा था)। रोज सुबह जॉगिंग चालू की। जॉगिंग के लिए कहॉ जाएं? इसलिए अपने ही घर की छत की बत्तीस फुट लम्बाई में सौ राउण्ड बना कर एक किलोमीटर बनाया। एक माह में बढ़ा कर तीन सौ राउण्ड कर लिए। कुल तीस मिनट का काम। मदर टिंचर का असर कि दूसरे दिन से ही रक्तचाप ८०-१२० पर आ ठहरा। एक माह तक स्थिर रहा। तब तक वजन पाँच किलोग्रामं कम हो चुका था। हम ने डॉ. को सलाह दी कि अब मदर टिंचर बन्द कर देना चाहिए? वह बिलकुल तैयार नहीं था। हम ने उसे समझाया कि हमारे पास एक मेडीकल सेल्स रिप्रेजेण्टेटिव मुवक्किल के सौजन्य से नया रक्तचापमापी आ गया है। रोज दो बार जाँचेंगे, और कोई भी गड़बड़ नजर आई तो तुरंत उन के दरबार में हाजरी देंगे। डॉ. साहब थोड़ा मुश्किल से ही, पर तैयार हो गए। हम डॉ. साहब को तीन माह तक हर सप्ताह रिपोर्ट करते रहे। बाद में वह भी बन्द कर दिया। हमारा रक्तचाप ८०-१२० चल रहा है। वजन तकरीबन सोलह किलो कम कर चुके हैं। एक बात समझ गए हैं कि नब्बे किलोग्राम वजन को रक्त संचार करने वाला दिल, साठ किलो वजन में डेढ़ गुना अधिक समय तक रक्त संचार करने तक एक्सपायर नहीं होगा।

गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या की पूर्व-दोपहरी से ही नैट अवकाश पर था। गणतन्त्र मना कर शाम पाँच बजे वापस ड्यूटी पर लौटा। अपने राम सुबह चार बजे उठे, नैट की गैरहाजरी दर्ज कर वापस रजाई के हवाले हो लिए। साढ़े सात बजे उठे तो आलस करते रहे। धूप भी अदृश्य बादलों से छन कर आने से बीमार थी, सो छत पर जाने का मन न हुआ और नहाने के लिए साहस जुटाने को कम्प्यूटर पर स्पाईडर सोलिटेयर खेलने लगे। यह सब पत्नीजी की सहनशीलता के परे था। चेतावनी मिली कि- आज क्या इरादा है? हम ने कहा -सर्दी बहुत है, फिर से रजाई के हवाले होने का मन कर रहा है। वे चिढ़ गईं। बोली दस मिनट छत पर टहल ही लो। हमें जाना पड़ा। मन तो ब्लॉगिंग में भटक रहा था। मन्थर गति से जोगिंग चालू की, अपने राउण्ड गिनने लगे। फिर गिनती भूल गए। चमत्कार हुआ, हर तीसरे राउण्ड पर एक नया विषय याद आ रहा था। आधे घंटे में वापस लौटे तो कम से कम दस विषयों से उपर की मंजिल ओवर लोड थी। नीचे ऑफिस में एक सहायक वकील आ चुका था, दूसरा आने वाला था। उन्हें कुछ पढ़ने का काम बता कर बाथरूम पकड़ा। स्नान कर, प्रसाद पा, ऑफिस में घुसे तो छूटते-छूटते तीन बज गए। तब तक विषयों का लोड एक तिहाई रह चुका था। तय किया, कल से जोगिंग में राउण्ड की जगह विषय गिना करेंगे, और नीचे आते ही कागज पर लिख लेंगे। जिस से वे जान न छुड़ा भागें।

तो आज का सबक है, हर ब्लॉगर को बीस मिनट रोज जॉगिंग करनी चाहिए। इस से उस की ऊपरी मंजिल हमेशा ओवर लोड रहेगी। उसे किसी दिन इस वजह से एग्रीगेटर्स पर गैर हाजरी नहीं लगानी पड़ेगी, रक्तचाप सामान्य बना रहेगा। और 'रवि' भाई को कम सफाइयां देनी पड़ेंगी।