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शनिवार, 28 मार्च 2015

कुशनाभ की सौ पुत्रियाँ

रामायण में एक कथा है ...

राम और लक्ष्मण की सहायता से विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ ले जनक के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए मिथिला की और चले और शोणभद्र नदी के किनारे रात्रि विश्राम के लिए रुके। राम ने पूछा- महात्मन् यह सुन्दर समृद्ध वन से सुशोभित देश कौन सा है इस के बारे में जानना चाहता हूँ। 
विश्वामित्र ने देश के बारे में बताना आरंभ किया। महातपस्वी राजा कुश साक्षात् ब्रह्मा के पुत्र थे। विदर्भ की राजकुमारी उन की पत्नी थी जिस से उन्हें चार पुत्र हुए। उन में एक पुत्र कुशनाभ था जिस ने महोदय नामक नगर बसाया। महाराजा कुशनाभ ने घ्रताची अप्सरा के गर्भ से सौ पुत्रियों को जन्म दिया जो सब की सब रूप-लावण्य से सुशोभित थीं। जैसे जैसे वे युवा होती गई उन का सौन्दर्य बढता गया। एक दिन वे सभी श्रंगारों से युक्त हो कर उद्यन में आमोद प्रमोद में मग्न थीं। 

इन सुन्दर युवतियों को देख कर वायु देवता उन पर मुग्ध हो गए और उन से निवेदन किया कि मैं तुम सब को अपनी प्रेयसी के रूप में पाना चाहता हूँ।  तुम सब मेरी भार्याएँ हो जाओ और मनुष्य भाव त्याग कर देवांगनाओं की तरह दीर्घ आयु प्राप्त करो और अमर हो जाओ। 

इस पर वे सभी कन्याएँ हँस पड़ीं और बोलीं- आप तो वायु रूप में सब के मन में विचरते हैं इस कारण आप को तो पता होगा कि हमारे मन में आप के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। फिर भी आप हमारा यह अपमान किस लिए कर रहे हैं। हम सभी कुशनाभ की पुत्रियाँ हैं देवता होने पर भी आप को शाप दे सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहतीं क्यों कि और अपने तप को सुरक्षित रखना चाहती हैं। (इस शाप से हमें भी बदनामी झेलनी होगी और जो मान सम्मान हम ने अपने व्यवहार से कमाया है वह नष्ट हो जाएगा) दुर्मते! ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब हम अपने पिता की अवहेलना कर के कामवश या अधर्मपूर्वक अपना वर स्वयं ही तलाश करने लगें। (युवतियों को जैसी शिक्षा और वातावरण मिला था उस में वे जानती थीं कि स्त्री का कोई अधिकार नहीं होता। वे पिता की संपत्ति हैं और वही उस की इच्छा के अनुसार उन का दान कर सकता है) हम पर हमारे पिता का प्रभुत्व है वे हमारे लिए सर्व श्रेष्ठ देवता हैं, वे हमें जिस के हाथ में दे देंगे वही हमारा पति होगा।

युवतियों की ऐसे वचन सुन कर वायुदेवता क्रोधित हो गए। जैसे आज कल के नौजवान ऐसी बात सुन कर युवतियों पर तेजाब डाल कर उन्हें बदसूरत बनाते हैं वैसे वायु देवता को इस के लिए तेजाब की व्यवस्था करने की जरूरत भी नहीं थी। वे उन सौ युवतियों के शरीर में घुस सकते थे। वे उन के शरीरों में घुस गए और उन के सारे अंगों को विकृत कर दिया जिस से वे कुरूप हो गयीं। 

युवतियों ने जब यह घटना पिता को सुनाई तो उन्हों ने पुत्रियों को कहा कि तुमने शाप न देकर ठीक ही किया क्यों कि क्षमा करना बहुत बड़ी बात है और देवताओं के लिए भी दुष्कर है। 

तब कुशनाभ ने गंधर्वकुमारी और ब्रह्मर्षि चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से अपनी सौ कन्याओं का विवाह कर दिया।  

पुत्रियों का विवाह होने के उपरान्त ब्रह्मदत्त युवतियों का पति हो गया तो वायु देवता ने युवतियों का शरीर त्याग दिया और वे पूर्व की तरह सुन्दर हो गयीं। कुशनाभ के गाधि नामक पुत्र जन्मा, यही गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म होने के कारण ही मुझे कौशिक भी कहते हैं। इस कारण यह मेरे पूर्वजों का ही देश है। 

उपकथन-

विश्वामित्र को अपने देश का परिचय देने के लिए इन सौ कन्याओं की कहानी कहना बिलकुल अप्रासंगिक था। लेकिन फिर भी रामायण के लेखक ने इस कथा को यहाँ जोड़ा। इसका कारण केवल यही समझ में आता है कि उनका उद्देश्य था कि स्त्रियों को सिखाया जाए कि उन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वे पहले पिता की संपत्ति होती हैं और विवाह के बाद में वे पति की संपत्ति हो जाती हैं। 

महान रामायण यही सिखाती है।  

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

उन्हें सिर्फ सत्ता चाहिए

शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो जिस दिन देश के समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में किसी न किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार का समाचार प्रकाशित न होता हो। घरों, कार्यस्थलों, विद्यालयों, रेलों, बसों, मनोरंजन स्थलों और मार्गों पर कोई स्थान ऐसा नहीं जहाँ वे लिंगभेद के कारण उत्पीड़न का शिकार न होती हों। स्त्रियाँ आम तौर पर इस उत्पीड़न को सहती हैं और अक्सर दरकिनार करती हैं। लोग कह सकते हैं कि वे उस का प्रतिकार क्यों नहीं करतीं? लेकिन कब तक वे प्रतिकार करें? कोई दिन तो ऐसा नहीं जब उन्हें यह सब न सहना पड़ता हो। वे बाजार के लिए निकलती हैं, दफ्तरों, स्कूलों आदि को आती-जाती हैं तो उन्हें मार्ग में नाना प्रकार की फब्तियों, छेड़खानी का सामना करना पड़ता है। अक्सर ये लोग समूह में तेजी से आते हैं और निकल जाते हैं। फिर पुरुषों की भीड़ से भरे स्थानों पर वे स्वयं को अकेली और असहाय महसूस करती हैं। उन्हें इन मार्गों पर यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और वे सहती चली जाती हैं। जब वे शिकायत करती हैं तो सब से पहली मुसीबत उन्हीं पर टूट पड़ती है। उन का पुरुष प्रधान परिवार उन के घर से बाहर निकलने को प्रतिबंधित करने को उतारू हो जाता है। जिस से समाज में वे जो अपना स्थान बनाना चाहती हैं उस में बाधा उत्पन्न होती है। उन की पढ़ाई छुड़ा दी जा सकती है, उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ सकती है। यदि वे मौके पर उत्पीड़न का प्रतिकार करें तो उन्हें उस से अधिक का सामना करना पड़ सकता है जैसा कि अभी हाल में गौहाटी में हुआ।

नीमत है कि गौहाटी की घटना की वीडियो बन गई और बज़रीए यू-ट्यूब राष्ट्रीय न्यूज चैनलों तक पहुँच गई। उन्हों ने आसमान सिर पर उठा लिया जिस से देश भर में इस उत्पीड़न के विरुद्ध एक लहर, चाहे वह अस्थाई ही क्यों न हो, पैदा हुई। यदि यह नहीं होता तो असम पुलिस तो उस शिकायत को दाखिल दफ्तर कर चुकी थी। जिस भयानक हादसे से लड़की को स्वयं पुलिस ने बचाया हो उस की प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना पुलिस की बदनीयती को स्पष्ट प्रदर्शित करता है। इस तरह का कोई भी मामला देख लें पुलिस कभी भी तब तक रिपोर्ट दर्ज नहीं करती जब तक कि उस पर किसी तरह का दबाव नहीं आता। पुलिस का चरित्र भी तो पुरुष प्रधान ही है, वह समाज से भिन्न हो भी कैसे सकता है?

भारत में किसी भी राजनैतिक दल का वैध अस्तित्व तभी बना रह सकता है जब कि वह संविधान के प्रति निष्ठा रखता हो। हमारा संविधान स्त्रियों को समानता का अधिकार प्रदान करता है। मंत्री, सांसद और विधायक सभी को पद ग्रहण करने के पूर्व संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी होती है। लेकिन उन का सामाजिक व्यवहार क्या है? गौहाटी की घटना जहाँ हुई है वह हमारे प्रधानमंत्री का निर्वाचन क्षेत्र है, एक सांसद के रूप में क्या वहाँ घटी घटना के प्रति उन का कोई दायित्व नहीं? लेकिन घटना के दिन से ले कर आज तक प्रधानमंत्री के श्रीमुख से उक्त घटना के संबंध में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है। जब कि उस क्षेत्र का सासंद और एक इंसान के रूप में उन्हें अंदर तक हिल जाना चाहिए था। देश के सब से बड़े राजनैतिक दल की नैत्री सोनिया स्वयं एक स्त्री हैं, क्या उन्हें इस घटना के बाद तुरंन्त सक्रिय नहीं होना चाहिए था? एक सामाजिक बदलाव के लिए काम करने की प्रेरणा उन्हें इस घटना से क्यों नहीं मिलती और वे सक्रिय होती क्यों नहीं दिखाई देतीं? उन के राजकुमार सुपुत्र क्यों ऐसे में किसी नांद में आराम फरमा रहे हैं? क्यों नहीं सब से बड़े विपक्षी दल भाजपा का कोई भी नेता इस पहल को लेने के लिए तैयार होता नजर नहीं आया? जिन राजनैतिक दलों की सरकारें राज्यों में हैं, वे क्यों सोए पड़े हैं? वे क्यों नहीं इस सामाजिक बदलाव के लिए कमर कसते दिखाई नहीं पड़ते। यहाँ तक कि सभी प्रकार की समानता के लिए संघर्ष करने वाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ और दूसरे वामपंथी दल स्त्री-पुरुष समानता के इस सामाजिक आंदोलन से दूर रहना चाहते हैं?

त्तर स्पष्ट है। सभी दलों को केवल सत्ता चाहिए। उन्हें समाज से कोई लेना-देना नहीं। वे केवल उन कामों में हाथ डालते हैं जिन से उन्हें कुछ वोटों का जुगाड़ होता हो। वोट उन्हें उसी समाज से लेने हैं जो पुरुष प्रधान है। वे क्यों समाज की पुरुष प्रधानता को चुनौती दे कर अपने अपने वोट बैंक खराब करें?

मंगलवार, 17 जुलाई 2012

संपत्ति या स्वतंत्र मनुष्य?

गुआहाटी में लड़कों के समूह द्वारा लड़की के साथ छेड़छाड़ करने और उस के कपड़े फाड़ देने का प्रयास करने की घटना, फौजियों द्वारा जंगल में एक लड़की के साथ छेड़खानी का प्रयत्न, लखनऊ में पुलिस दरोगा द्वारा मुकदमे में फँसाने का भय दिखा कर महिला के साथ संबंध बनाने की कोशिश, बेगूँसराय में मंदिर में दलित महिला के साथ सार्वजनिक मारपीट यही नहीं इस के अलावा घरों में खुद परिजनों द्वारा महिलाओं और बच्चियों के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपराधों की अनेक घटनाएँ लगातार मीडिया में आती रही हैं। मीडिया में आने वाली इन घटनाओं की संख्या हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति का नमूना भर हैं। इस तरह की सभी घटनाएँ रिपोर्ट होने लगें तो पुलिस थानों के पास इन से निपटने का काम ही इतना हो जाए कि वे अन्य कोई काम ही न कर सकें। स्थिति वास्तव में भयावह है।

ड़बड़ी हमारे समाज में है, हमारी व्यवस्था और राजनीति में है। अधिकांश लोग परम्परा और रिवाजों के बहाने स्त्रियों को समानता का अधिकार देने के हिमायती नहीं हैं। वे स्त्रियों को मनुष्य नहीं अपनी संपत्ति समझते हैं। बेटी उन के लिए पराया धन है जिस से वे जल्दी से जल्दी निजात पाना चाहते हैं, तो बहू परिवार की बिना वेतन की मजदूर और बेटे के लिए उपभोग की वस्तु है। दीगर महिलाएँ उन के लिए ऐसी संपत्ति हैं जिन्हें अरक्षित अवस्था में देख कर इस्तेमाल किया जा सकता है वहीं अपने घर की महिलाओं के प्रति उन में जबर्दस्त असुरक्षा का भाव है जो उन्हें बंद दीवारों के पीछे रखने को बाध्य करता है। लेकिन आजादी के बाद जिस संविधान को हम ने अपनाया और जो देश का सर्वोपरि कानून है वह स्त्रियों को समानता प्रदत्त करता है। समाज की वास्तविक स्थितियों और कानून के बीच भारी अंतर है। समाज का एक हिस्सा आज भी स्त्रियों को संपत्ति बनाए रखना चाहता है तो एक हिस्सा ऐसा भी है जो उन की समानता का पक्षधर ही नहीं है अपितु व्यवहार में समानता प्रदान भी करता है।

कानून और समाज के बीच भेद को समाप्त करने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो यह कि संविधान और कानून को समाज के उस हिस्से के अनुरूप बना दिया जाए जो महिलाओं को मनुष्य नहीं संपत्ति मान कर चलता है। दूसरा यह कि समाज को संविधान की भावना के अनुसार ऐसी स्थिति में लाया जाए जहाँ स्त्रियों और पुरुषों के समान अधिकार हों दोनों एक स्वतंत्र मनुष्य की तरह जीवन व्यतीत कर सकें। बीच का कोई उपाय नहीं है। पहला उपाय असंभव है। स्वतंत्र मनुष्य की तरह जी रही स्त्रियों को फिर से संपत्ति में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। हमें समाज को ही उस स्थिति तक विकसित करना होगा जिस में स्त्रियाँ स्वतंत्र मनुष्य की भाँति जी सकें। इस बड़े परिवर्तन के लिए समाज को एक बड़ी क्रांति से गुजरना होगा। लेकिन यह कैसे हो सकेगा? उस परिवर्तन के लिए वर्तमान में कौन सी शक्तियाँ काम कर रही हैं? कौन सी शक्तियाँ इस परिवर्तन के विरुद्ध काम कर रही हैं। हमारी राज्य व्यवस्था और राजनीति की उस में क्या भूमिका है? और क्या होनी चाहिए? इसे जाँचना होगा और भविष्य के लिए मार्ग तय करना होगा।

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दीवाली खास क्यों?

पिछले महीने कुछ निजि कारणों से अपनी ब्लागरी में व्यवधान आया। दीवाली का त्यौहार भी उन में से एक कारण था। बेटी और बेटा दोनों बाहर हैं, तो परिवार के चारों जन ऐसे ही त्यौहारों पर मिलते हैं, दीवाली उन में खास है। मैं इस बार विचार करता रहा आखिर दीवाली में ऐसा क्या है कि वह खास हो गई। निश्चित रूप से उस का कारण धनतेरस, रूप चौदस (काली चौदस), लक्ष्मीपूजा, महावीर निर्वाण दिवस, गोवर्धन पूजा या भाई दूज आदि नहीं है। मेरे विचार से इस के खास होने का कारण इस का मौसम है। 
भारत की 70% जनता गाँवों में निवास करती है। कोई पाँच दशक पहले के भारत के गाँवों की सोचें तो मिट्टी की ईंटों की दीवारों पर खपरैल की छत वाले घरों की बस्तियाँ जेहन में नजर आने लगती हैं। बरसात इन घरों की स्थिति क्या बना देती होगी यह अनुमान किया जा सकता है। आश्विन मास की अमावस उत्तर भारत के लिए वर्षा का अंतिम दिवस होता है। इस के साथ ही घरों को सुधारने, अनाज आदि को संभालने का काम आरंभ हो जाता है। घरों की सफाई कर, उन की दीवारें छतें सुधार कर, उन्हें लीपना-पोतना फिर से निवास के अनुकूल बनाना अत्यावश्यक है। अब सब लोग अपने अपने घर को दुरुस्त कर अपने हिसाब से सजाएंगे तो उन में सजावट की प्रतियोगिता स्वतः ही जन्म लेती है। व्यापारी वर्षाकाल अपने अपने परिजनों के साथ अपने घरों में व्यतीत कर पुनः व्यापार के लिए घरों से निकल कर परदेस जाने की तैयारी में होते थे। उन के लंबे समय के लिए घरों से बाहर जाने के पहले भी त्योहार का माहौल स्वतः ही बन ने लगता है। 

स बीच मैं ने यह जानने की कोशिश भी की कि भारतीय इतिहास में दीवाली का प्रचलन वास्तव में कब आरंभ हुआ?  राम का वनवास से लंका विजय कर लौटना। कृष्ण का इंद्रपूजा बंद करवा कर गोवर्धन की पूजा आरंभ कराना जैसे मिथक तो बहुत सारे हैं। लेकिन वास्तविक प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ गायब दिखाई पड़ते हैं। पहले पहल जो संदर्भ मिलता है वह जैन तीर्थंकर महावीर के निर्वाण का मिलता है। इस से ऐसा लगता है कि पहले पहले दीवाली का उत्सव जैन धर्मावलंबियों ने मनाना आरंभ किया। उन में अधिकांश व्यापारी थे, वे वर्षा के बाद घरों से बाहर धनोपार्जन के लिए निकलते थे, उन का निकलने के पहले धन की देवी लक्ष्मी का पूजा जाना स्वाभाविक ही था। इस से बाद में लक्ष्मी पूजा का संदर्भ उस से जुड़ा। दोनों महाकाव्यों का संपादन ईसा पूर्व पहली शताब्दी में हुआ और गुप्तकाल में उन का गौरव बढ़ा। संभवतः गुप्त काल से ही दीवाली के इस त्यौहार से राम और कृष्ण के संदर्भ जुड़े तथा बाद में अन्य संदर्भ जुड़ते चले गए। अभी भी यह खोज का विषय ही है कि ऐतिहासिक रूप से दीवाली के त्यौहार का विकास किस तरह हुआ? शायद कुछ इतिहास के विद्यार्थी और शोधार्थी इस पर प्रकाश डाल सकें।

स बार सप्ताह के मध्य में दीपावली का त्योहार पड़ने से दोनों दीपावली के अवकाश, दोनों ओर के दो-दो साप्ताहिक अवकाश के साथ दो-तीन दिनों के अवकाश और ले लेने पर बाहर नौकरी कर रहे लोगों के पास नौ दिनों के अवकाश हो गए और उन्हें अपने घरों पर परिवार के साथ रहने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ। मेरे यहाँ भी इन दिनों बेटी-बेटे के साथ रहने से, साथ ही महत्वपूर्ण हो गया। ये नौ दिन सब ने बहुत आनंद से बिताए। जब दीवाली के पहले के पन्द्रह-बीस दिनों का स्मरण करता हूँ तो लगता है वे पूरे साल के सब से व्यस्त दिन थे। घर की सफाई, सजावट, फालतू सामानों को कबाड़ी के हवाले करना और यह काम पूरा होते ही दीवाली के पकवान बनाने की तैयारी। पुरुष तो फिर भी बाहर के कामों में ही लगे रहते हैं लेकिन स्त्रियाँ। उन्हें तो पूरे एक माह से फुरसत ही नहीं थी। लगता था जैसे वे सोयेंगी नहीं। मेरे यहाँ तो घर में अकेली स्त्री मेरी उत्तमार्ध शोभा ही थी। पिछले एक माह से वह सोती नहीं थी। बस काम करते करते थक कर बेहोश हो बिस्तर पर पड़ जाती थी। जब होश आता था तो फिर से काम में जुटी नजर आती थी। ऐसा लगता था उसे घर को घर बनाने का जुनून सवार था। बेटा कल चला गया था, आज सुबह बेटी को रेल में बिठा कर लौटने के पर कुछ घंटे उस ने विश्राम किया, निद्रा ली। लेकिन कुछ घंटे बाद ही फिर से घर को संवारने में जुट गई और शाम को जब मैं अदालत से घर लौटा तो पाया कि घर फिर से हम दो प्राणियों के निवास के लिए तैयार है। लोग कहते हैं कि दीवाली न आए तो घरों की सफाई न हो। मैं सोचता हूँ यदि स्त्रियाँ न होती तो पुरुष दीवाली किस तरह मनाते? शायद उस का स्वरूप बहुत भिन्न होता या फिर दीवाली ही नहीं होती। आप क्या सोचते हैं?

दीपावली पर बहुत मित्रों के शुभकामना संदेश ई-मेल से मिले। उन में से अधिकांश एक साथ अनेक पतों को भेजे गए थे। मैं यदि उन का उसी संदेश के उत्तर के रूप में धन्यवाद करता तो वह भी सभी लोगों को प्राप्त होता। मुझे यह उचित नहीं लगा और ई-मेल की निःशुल्क सुविधा का दुरुपयोग भी। मैं ने एकल संदेशों का उत्तर देने का प्रयत्न किया लेकिन सामुहिक संदेशों का नहीं। यहाँ उन सभी मित्रों को दीपावली के शुभकामना संदेश के लिए आभार व्यक्त करता हूँ।  कामना है कि उन की ही नहीं सभी की दीवाली अच्छी मनी हो और वे सभी वर्ष भर प्रगति करें, उन्हें अनन्त प्रसन्नताएँ प्राप्त हों और अगली दीवाली वे और बेहतर तरीके से अधिक प्रसन्नताओं के साथ मनाएँ!