@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सृंजय
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गुरुवार, 26 जनवरी 2017

कामरेड का कोट


'कहानी'

‘सृंजय’

सारे से बाहर सिर निकालते ही माघ का तुषार बबूल के काँटे की तरह बरसा। कमलाकांत उपाध्याय के जोड़-जोड़ में सिहरन भर गयी। उनके दाँत जोरों से रपटने लगे। वह भीतर लौट आये और आलने पर के पुराने कपड़े उलटने-पुलटने लगे। पत्नी पास ही खड़ी थी। सूनी-सूखी आँख उठाकर उनकी तलाश को भाँपते हुए। कमलाकांत ने पुराने कपड़ों का गट्ठर छान मारा, लेकिन चादर न मिली।

''का खोज रहे हैं?'' उनकी उठापटक से पत्नी परेशान होकर बोली।

''चदरिया नहीं मिल रही है?'' उनके उत्तर में प्रश्न भी शामिल था। परेशान होकर वह बिखरे कपड़ों को फिर उसी जगह रखने लगे, ''पहले सोचा कि ऐसे ही निकल जाऊँ, लेकिन बाहर पाला झनझना रहा है।''

''मिलेगी कहाँ से!'' पत्नी बुदबुदायी, ''बबुआ को अपने तऽ ओढ़ा आये हैं।''

हारकर वह बेटे के पास चले गये। उसके लिलार पर हाथ रखा। वह प्रतिक्रियाहीन पड़ा रहा। निश्चेष्ट। लगभग एक घंटा पहले वह बेटे के पास ही बैठे थे। जब सरसाम की-सी हालत में उसका बड़बड़ाना तेज हो गया था। तेज बुखार में कँपकँपाहट के साथ जूड़ी ऐसे चढ़ी आ रही थी, जैसे बाढ़ का पानी। एक मात्र कंबल को खींच-खाँचकर उन्होंने उसकी थर्राहट कम करने का प्रयत्न किया था, लेकिन रेशा-रेशा घिस चुके बूढ़े कंबल को जैसे खुद किसी ओढ़ने की जरूरत थी। कमलाकांत ने वही किया था... अपनी चादर उतारकर कम्बल पर साट दी थी। इसके बाद भी उसका काँपना बंद न हुआ था। बाप का ममत्व... उनमें एक इच्छा जगी कि वह अंगीठी में बदल जाते तो सुलग-सुलगकर बेटे को गर्मी पहुँचा देते... लेकिन अंगीठी तो दिल में जलती है, जलती क्या, धुंधुआती है और शायद ही उससे खुद को भी राहत पहुँचती हो। उन्होंने तखत पर बिछी कथरी को भी बेटे पर फैला दिया था... और बेटा अभी बेहोश-सा पड़ा था। उन्होंने किसी जेबकतरे की तरह बड़ी सावधानी से उसकी देह से चादर खींचना शुरू किया। पत्नी उनके काम को ऐसे देखती रही, जैसे कोई खलखींचवा मुर्दार पशु की देह की आखिरी खाल उतार रहा हो, पत्नी से आँखें टकरायीं तो अपनी ही नजर में ओछे बन गये जैसे। पल-भर के लिए उनका हाथ सुन्न-सा हो गया और खुश्क आँखें सफ़ाई-सी देती मालूम पड़ीं। क्या करूँ? बाहर जाना नितांत आवश्यक न होता तो भला कौन बाप यूँ बज्जरकरेजी बने? हालाँकि पत्नी कुछ बोल नहीं रही थी... बुत बनी उनको निहारने के सिवाय... उसकी आँखों में वही सूनापन था, जो हर वक़्त रहता है। न कोई उलाहना, न कोई उमंग... एक तटस्थ-सा समझौते का भाव।

सामना न कर सके वह। कमलाकांत से ठहरा न गया, चादर उठायी और उसमें अपने को छुपाते हुए लम्बे-लम्बे डग भरने लगे। जिद्दी ठंड थी कि मच्छरों की तरह उनकी देह के नंगे हिस्सों पर डंक चुभो ही देती थी। लत्ते-सी हो चली इस चादर को बदलने का खयाल उन्हें फिर हुआ, लेकिन क्या-क्या बदलें वह? हालत तो ऐसी है कि आगे ढँको तो पीछे उघाड़। वह हथेलियाँ घिसते हुए तेज-तेज चलने लगे, ताकि इसी से गर्माहट बनी रहे।

पिछले दिनों वायुमंडल में अचानक निम्न चाप हो जाने से बूंदाबांदी हो गयी थी। आज मेघ के पूरी तरह खुल जाने से धरती का रहा-सहा लिहाफ़ भी जाता रहा, सो ठंड उग्र हो चली थी। कुहरे की धुंध में वह शीत से थर-थर बढ़े जा रहे थे। गाभिन गाय की तरह माघ की अलसायी रात में समय का अनुमान लगाना बड़ा मुश्किल था। तिथि के मुताबिक अंधरिया कब की बीत जानी चाहिए थी, लेकिन धुँआसी चांदनी घने कुहरे के सामने धरती को रोशन करने में कितनी बेबस थी।

पल-भर के लिए वह खड़े हो गये और अपने गाँव की ओर रुख किया। चारों तरफ सोता पड़ गया था। कुत्ते भी नहीं भौंक रहे थे। उनका गाँव गोलाकार बसा हुआ है। धुंध में डूबा गाँव किसी दैत्याकार पशु के गोबर के चोथ की तरह लग रहा था। गाँव के अमूमन बीच में खड़ी बाबू जगतनारायण सिंह की दोमंजिली हवेली बड़ी ही वीभत्स लग रही थी। उसका अगवासा ढह चुका था। जैसे किसी जंगली मकना हाथी का निचला जबड़ा तोड़ दिया गया हो और दर्द के मारे वह मुँह फैलाता जाये, ऐंठते हुए। मकान बनवाने के लिए अपशकुन से बचने के लिए लम्बे बाँस से जो सूप, जूता और झाडू़ लटकाये गये थे, उस पर शायद एक उल्लू आकर बैठ गया था। बड़े ही भयावह तरीके से उसने तीन आवाजें निकालीं, ''आऊक ...आऊक... ओ ऊ ऊ ऊ क्‌!''

कमलाकांत ने कानों पर हाथ रख लिया। कर्कशता से बचने के लिए, लेकिन अपशकुन से कहाँ बच पाया कोई? कितने अरमानों से बाबू जगतनारायण ने हवेली को नया रूप देना चाहा था। इसके लिए उन्होंने कितने सही वक़्त का चुनाव किया था। माघ का महीना मालिकों के लिए बड़ा अच्छा होता है। इस समय मजदूर सस्ते मिलते हैं। हर साल का नियम है, इस दोफ़सली देहात को भादो और माघ महीने में दुर्दिन आ घेरता है। भादो तो खैर बरसात और बाढ़-बूड़े के चलते, लेकिन माघ में फसल तो खेतों में लहलहा रही होती है और खेतिहर मजदूरों को बैठकी का सामना करना पड़ता है। खेतों में काम तो रहता नहीं और रोजी-रोजगार का दूसरा कुछ साधन मिलता नहीं। हाथ पर हाथ रखे भूखों मरने की नौबत आ जाती है। कुछ तो पंजाब-हरियाणे की तरफ भाग चलते हैं और जो बाकी बचे वे मालिकों से डेढ़ा-सवाई पर अनाज उधार लेते हैं। माघ में एक मन लिया तो चैत में कटनी-दवनी के वक़्त मजदूरी में से डेढ़ मन कटवा देंगे। भूख से बेहाल हुए मजदूर उनसे अनाज उधार माँगने गये थे। उन्होंने देना भी चाहा था। ताकि मजदूर दूसरे प्रांतों में न भाग जायें। लेकिन कुछ चीजें बंधक रखकर। मजदूरों के पास अपनी देह के अलावा बंधक रखने को था क्या! उन लोगों ने काम ही देने को कहा। जगतनारायण सिंह कई वर्षों से मन बनाते आ रहे थे, हवेली के पुराने ढंग के अगवासे को तोड़कर नयी डिजाइन देने का। नये ढंग के 'बैठका' में एयरकूलर भी लगाने का विचार था। पिछला हिस्सा यानी रिहायसी कमरे या 'जनानाकित्ता' उसी पुराने ढंग का रहता। चोरी-डकैती से वे कमरे सुरक्षित थे, क्योंकि उनमें जंगले नहीं थे। मजदूरों ने दो-तीन दिन काम करके उन हिस्सों को ढाह दिया। अब वे उनसे सरकार की तयशुदा मजदूरी की मांग करने लगे। बाबू जगतनारायण को लगा कि यदि एक बार उन लोगों को चोखी मजदूरी का स्वाद लग गया तो खेती के काम में भी वही दर मांगने लगेंगे। तत्काल उन्होंने काम बंद करवाया और दूसरे गाँव से मजदूर बुलवा लाये! 'आनगँवई' और 'निजगँवई' मजदूरों में हलकी-सी झड़प भी हो गयी। लेकिन समझाने-बुझाने से सरकारी रेट पर मिलने वाली मजदूरी की बात पर 'आनगँवई' मजदूर भी इनके साथ हो गये। अधखड़ी हवेली बाबू जगत नारायण को हिलते दाँत की तरह दुःख देने लगी... न टूटे, न कुछ ठंडा-गरम ही खाने दे। दोनों तरफ से आन चढ़ गयी और वह आन कैसी जो चुनौती की सान पर पजकर दुधारी से भी तेज न हो उठे? ...उल्लू फिर बोला, 'ओ ऽ ऽ क्‌- ओ ऽ ऽ ऽ ऽ क्‌ ...आऊक्‌' और डैना पटपटाते हुए उड़ चला। कमलाकांत को चेत हुआ उल्लू के बोलने पर, वरना न जाने कितनी देर तक हवेली के बारे में ही सोचते रह जाते।

वह अपने गाँव से काफ़ी दूर चले आये थे। अरना भैंसे की तरह गाँव के सीवान पर खड़ा खैरा पीपल इसकी गवाही दे रहा था। इस पीपल से न जाने कितनी किंवदंतियाँ, कितनी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। कहते हैं गाँव वाले कि सैकड़ों साल से यह पीपल ऐसे ही खड़ा है। इसके आगे की कितनी पीढ़ियाँ गंगाजी में सिरा गयीं, लेकिन यह पीपल अपने तने में एक और कोटर बढ़ाकर ऊपर सरक गया। यह पीपल बनते-बिगड़ते जमाने का गवाह है। अंगरेज हाकिमों के राज में इसने एक बार आदमी की तरह इजलास में गवाही दी थी... शीतल मिसिर बताते हैं, जिनकी उमर ही अदालत की सीढ़ियों पर मुकद्दमे की पैरवी करने में कटी... अभी जो हेमू साह हैं न पंसारी की दुकान वाले, इनके बाप धरीछन साह से एक अहीर ने पाँच मोहर का करज लिया था और वह पच्चीस साल तक नहीं चुका पाया। धरीछन साह ने ललमुँहा हाकिम के पास नालिश कर दी। पेशी हुई तो अहीर कहने लगा, 'माई किरिये, बाप किरिये, चाहें तो गुरु किरिया खिया लें होजूर! हमारी फूटली कौड़ी की औकाद नहीं तो मोहर का करज काहे वास्ते लेंगे?'' हाकिम ने गवाह लाने का हुकुम दिया। धरीछन साह सकपकाये। उन्होंने अकेले में मोहर दिया था। क्या बोले? कपार पीटने लगे, 'सरकार उहाँ आदमी तो कोई नहीं था। हाँ, एगो पीपर के पेड़ के नीचे करज दिया था।'' हाकिम बोला, ''उसी को लाव... डव्रीचन शाव!'' वह सुबकने लगे, ''इतना बड़का पेड़ कइसे आवेगा होजूर? जदी आवेगा तो कइसे सुनावेगा होजूर?'' ''अम गोवाह मांगटा।'' हाकिम ने टेबुल पर काठ की छुटकी हथौड़ी ठोकी, ''अम जो हुकुम डेटा, उसको बजा लाव... डव्रीचन शाव!'' धरीछन साह महाकंजूस थे। सिर धुनते चले कि पाँच मोहर गया सो गया, अब रुपया-दो रुपया पेड़ को किसी लकड़हारे से कटवाकर बैलगाड़ी पर लदवाकर इजलास में ले जाने में लगेगा। एक और बात पर वह दुःखी थे, ''अदालत की हतीमूटी दुआरी में हतना बड़ा पेड़ कइसे ढुकेगा?'' एक घंटा बीता तो हाकिम ने पेशकार से पूछा, ''डव्रीचन शाव आया?'' पेशकार बोला, ''नहीं।'' दूसरा घंटा बीता तो हाकिम ने पूछा, ''इटना बखट में नहीं आया?'' अहीर वहीं बैठा मन ही मन सोच रहा था कि यह हाकिम भी कैसा उजबक निकला। जइसन ऊद ओइसन भान, इनकी पूँछ ना उनका कान। वह खुश होकर बोला, ''अभी कइसे आवेगा होजूर! ऊ पेड़ इहाँ से बारह कोस दूर है।'' ''अंगरेज ससुरे हक बात पता लगाने में ओस्ताद थे तभी तो बाघबकरी को एके घाट पर पानी पियवाते थे, तभी तो उनके राज में सुरूज कभी डूबते नहीं थे।'' बताते हैं शीतल मिसिर। ''बस, हाकिम ने पकड़ लिया उसका गट्टा और लगा डाँटने। अहीर भूतखेलौनी लुगाई की तरह सब कुछ बकने लगा। फिर तो हाकिम ने सिपाही से दौड़ा दौड़ा के धरीछन साह को वापस बुलवाया और अहीर से पाँच मोहर के बदले दस मोहर हगवा लिया।''

...और पीपल की इसी विशेषता का गुणगान आज तक बच्चे करते आ रहे हैं, हर पीढ़ी के बच्चे :

चाक डोले चकबम-बम डोले,

खैरा पीपर कभी ना डोले।

काना रे कंडील-डील, पीपर तर हमार बिल

साँप बोले चें-चें, कबूतर माँगे दाना,

दूर सारा काना तोरे अतना बहाना।

कमलाकांत ने भी इस विरासती फकड़ा को सैकड़ों बार गाया होगा। इसी पीपल का डर दिखाकर उनकी माँ उन्हें बकरी का दूध पिलाया करती थी। लेकिन अब बचपने की नासमझी कहकर इसे उड़ा देने के बावजूद वह पीपल के पेड़ की ओर बढ़ने लगे। न जाने किस अनैच्छिक खिंचाव से। तनिक दूर रह जाने पर वह चौंक-से पड़े... पीपल के तने से सटे हुए चार-पाँच घुटे हुए सिर नजर आ रहे थे। उनकी ठुड्ढियों से लार बह रहा था। कमलाकांत एकदम से सावधान की मुद्रा में आ गये। अचानक उन्हें पदचाप-सी सुनाई पड़ी। पीछे की तरफ़। वह मुड़ गये। कुछ न था। फिर दाहिनी ओर किसी के एक बार चलने की आवाज मिली। वह फुर्ती से घूम गये। वहाँ भी कुछ न था। उनके रोंगटे खड़े हो गये... तो क्या भूतों की 'जोनी' सच निकली? अब तक इन बातों पर यकीन न था कमलाकांत को। लेकिन उनके चारों मृत साथी आज साक्षात भूत बनकर उनसे तरपण मांग रहे थे। गाँव वाले कहते भी हैं कि पीपल के नीचे भूतों का डेरा है और वे अमावस-के-अमावस वहाँ कबड्डी खेलते हैं। विरत रात को। लेकिन आज तो अमावस नहीं है। कहीं हत्यारे ही तो भूत का भेष धारे नहीं आ गये? कुछ भी हो- उन्हें लगा कि अगली सुबह बाट-बटोहियों को उनकी गला घोंटी हुई, रकत चूसी हुई लाश ही मिलेगी। बाल-बच्चे बिलख बिलख-कर पूछते ही रह जायेंगे कि वह यहाँ क्यों आये थे। उन्हें कोई बताने वाला न रहेगा कि कैसे काल ने उन्हें अशक्त कर दिया था। न चाहते हुए भी वह उधर खिंचते गये थे। अनायास, और सचमुच वह अपने को लाचार महसूस करने लगे। होनी होय सो होय रे मनवा, अब तो भागत ना बने। उनकी सारी शक्ति आँखों में निचुड़ आयी।

उनकी खिसियानी-सी हँसी निकल गयी। ''दुत्त तेरी कि...'' हमेशा शिष्ट-शालीन व्यवहार के हिमायती कमलाकांत सच्चाई जान लेने के बाद आत्मनियंत्रण खो बैठे और इस निभृत एकांत में भी मुँह से गाली निकल गयी। भरम के भूत का निराकरण हो गया। ऊपर की जमी शीत निचले पत्तों पर टप-टप चू रही थी... तने से चार-पाँच घंट लटक रहे थे और उनके छिदे पेंदे में ठुँसी कपास की बाती से पानी रिस रहा था।
इसे भरम का भूत भी कैसे कहें? मात्र पखवारे भर पहले जिस घड़ी चार मजदूरों को मारकर इसी पीपल की डाल पर उन्हें उलटा लटकाया गया था, उसके पहले तो- निपट देहाती से जैसे भावुक कवि बन गये कमलाकांत- उसके पहले तो इन चारों की जिंदा हकीकतें थीं। राग की, आग की, आशा की, जिजीविषा की धड़कनें थीं... वह आस-उम्मीदों भरा गतिमान वर्तमान अब जड़ भूत बना दिया गया है। क्या सचमुच?

पीपल की निचली डाल से एक बित्ते भर लम्बा चमगादड़ आ लटका। पैरों के बल उलटा लटककर कलाबाजियाँ खाते हुए वह 'चिंक्‌-चिंक्‌' कर रहा था। तो क्या उन्हें भी इसी तरह उलटा लटकाया गया होगा? उनकी आँखें पीड़ा से, मृत्यु की भीति से कैसे निकल-निकल पड़ रही होंगी। पीपल ने एक-एक वाक़या देखा होगा। इसकी कोटर-कोटर आँखें निकल आयी होंगी और पत्ते-पत्ते कान... दोनों तरफ़ से आन किसी आग-सिंकी डुग्गी की तरह तनी हुई थी। रत्ती भर की एक घुंघची (गुँजा) भी गिरे तो टन्न से बोले। ऐसे में जगत नारायण के लठैतों ने मजदूरों के एक मेठ को बुरी तरह पीट दिया। अनखन खोजा गया कि वह हटिया से ताड़ी पीकर लौट रहा था और बड़कऊ लोगों को गाली दे रहा था। मजदूरों को न अनाज उधार मिला, न निरापद काम और न चोखी मजूरी, लेकिन इतना जरूर हुआ कि इस पिटाई के बाद उनका मटिआया कलेजा भूख की आँच में तपकर ईंट बन गया। अब तो उनकी नाकेबंदी की जाने लगी। किसी भी भूमिहीन खेतिहर मजदूर के खेत-खलिहान में जाने पर पाबंदी लग गयी। यहाँ तक कि कोई बड़कऊ के बाग-बगइचा से खरिका-दातौन भी न तोड़ पाये। एक आम गैरमजरूआ जंगल था 'कुकुरबनवा', जहाँ गाँव भर के मवेशी चरा करते थे। वहाँ भी जाने से रोका जाने लगा। मजदूरों के पास अपनी जीवन-रक्षा का एक भी अवलम्ब न रहा। रात-बिरात वे खेतों में से चोरी-छुपे कुछ उखाड़ लाने लगे। गाभिन गैया से कोई दूध निकाले तो माघ में खेतों से अन्न भी पा ले। फ़सल तो अभी गदरा ही रही थी... चने के साग और मटर का गादा मिल सकते थे। सँपेलवा को भी मारो तो मरते-मरते भी उसकी चेष्टा एक बार डस लेने की होती है। मजदूर भी मरण-दंश देने पर उतारू हो गये। गुपचुप तय हुआ कि जगतनारायण के गैरकानूनी मिल्कियत वाले खेतों पर धावा बोला जाय। इसके सिवा अब कोई दूसरा चारा नहीं। पीपल के पेड़ से सटे ही आठ दूनी सोलह यानी दो बैलगाड़ियों के आने-जाने लायक सोलह हाथ चौड़ी एक डगर निकलती थी। डगर की बायीं ओर इन लोगों का अपना गाँव ''बलुआँ'' था और दायीं ओर ''पीपरपाँती'' गाँव था। एक तरह से दोनों गाँवों के बीच सीमा-रेखा भी थी यह डगर। लेकिन जगतनारायण की जमीन की भूख ऐसी बढ़ी कि उन्होंने इन्हीं मजदूरों से उस डगर को तुड़वाकर खेत बनवा लिया। मजदूरों की राय से चलें तो इन खेतों पर सरकार का हक बनता है और मेहनत भी इन्हीं की लगी हुई है। कुछ ऐसा ही तर्क ढूँढ़कर वे एक रात उस खेत से कुछ मटर उखाड़ लाये। एक दिन बीच डालकर यानी तीसरी रात को भी मजदूर मटर उखाड़ ही रहे थे, तब तक पीपल के नीचे टुटही जोन्ही (उल्का) जैसा कुछ कौंधा और तड़ातड़ गोलियाँ चलने लगीं। जिधर सींग समाया, उधर ही मजदूर खेतों को रौंदते हुए भाग चले... छिन गया यह भी निवाला। तब तक चार लोगों को गोली लग चुकी थी। भागे मजदूरों का कहना है कि उस वक़्त उनमें जान बाकी थी, लेकिन हमलावरों ने उन चारों आहतों को पकड़ लिया। उन्हें नंगा किया और उन्हीं की धोती से पैर बाँधकर डाल से उलटा लटका दिया। और तब तक मारते रहे जब तक उनके प्राण-पखेरू न उड़ गये। बाद में मूंड़ी काटकर लेते गये। यह सबक था आइंदा से विरोध करने वालों के नाम... सचमुच कोटर-कोटर आँखें निकल आयी थीं पीपल की और पत्ते-पत्ते कान। बड़े ही निर्लिप्त भाव से गवाही दिये जा रहा था खैरा पीपल। देर से खड़ी मानुस-मूरत को देख उलटे-लटके चमगादड़ की आँखों में शिकार का भ्रम हुआ। वह तेजी से झपटा उनके चेहरे की ओर। कमलाकांत ने झंप मारकर बचा लिया खुद को। उन्होंने तटस्थ-सा खेतों की ओर देखा। कच्ची-अधपकी छीमियाँ गंजे होते सिर पर बच रहे बालों के गुच्छे की तरह टापा-टुआँ दीख रही थीं। उनके जबड़े भिंच गये और आँखों में जुगनू कौंधने लगे। धीरे-धीरे उनकी मुट्ठी बंधी और दाहिना हाथ भूख के मोरचे पर कुरबान चढ़े शहीदों को लाल सलाम देने के लिए खुद-ब-खुद कंधे से ऊपर उठता गया। उनके लिए तो जाड़ा अब न जाने कांचनजंगा के किस कंगूरे पर जा भगा था।

जल्दी-जल्दी चलते हुए वह बलुआ हाई स्कूल के मैदान में पहुँचे। जहाँ मद्धिम जादव साइकिल का एक पुराना टायर जलाकर आग तापते हुए उन्हीं का इंतजार कर रहे थे।

''मुझे लगा कि अगिया बैताल यहाँ भी आ गया और लपटें फुफकार रहा है।'' वह उनके सामने खड़े हो गये। ''और ई साला प्लास्टिक का जूता...'' कमलाकांत ने जूते से पाँव निकाला और आग की ओर बढ़ा दिये।

मद्धिम जादव कुछ और पत्ते झोंकते हुए बोले, ''माघ ऐसा मकरा रहा है कि ससुरा हाड़-हाड़ हिला जाता है।'' पत्ते शीत से सील गये थे। धुआँ होने लगा तो मद्धिम ने टायर खिसका लिया।

''यही तो सवा महीना का मकरचिल्ला है।'' कमलाकांत खुद को लपट की जद में लेते हुए बोले।

''हाँ, मसल है कि धनु की पनरह मकर पचीस, चिल्ला जाड़ा दिन चालीस।'' मद्धिम जादव सिसकारने लगे, ''आप बहुत बिलम गये। तभी से आपकी आवाई ताक रहा हूँ।''

''सूचना ही लेट से मिली। वह भी रामगोबिन मास्टर ने भूइलोटन के मार्फ़त खबर भिजवायी। आज सुबह भी उनसे मुलाकात हुई थी, लेकिन 'हाँ-हूँ' कुछ नहीं बोले।'' कमलाकांत परेशान दिखने लगे। सेंक से अंगुलियाँ कुछ ढीली हो चली थीं। वह गाँठ चटखाने लगे।

''हमको भी भूइलोटन भाई ने एकदम गरदबेरे, (गोधूली) में बताया, हमें पता था कि आप इधर से आयेंगे ही, सो यहीं बैठ गया।''

''देरी का एक कारण और है। पीपल के पास से गुजरा तो थथमा लग गया।'' कमलाकांत ने कहकर मद्धिम को थमा दिया जैसे।

''मत कहिए कामरेड, उसकी याद से छाती फटने लगती है।'' मद्धिम जादव ने उस दुखद प्रसंग को छोड़े रखने का अनुरोध किया और लगे रामगोबिन मास्टर पर भड़ास निकालने, ''मास्टर साहेब ऐसी दरार में हगते हैं कि सूअर को भी बास नहीं मिलती। पता नहीं कैसा चक्कर है?'' नासमझी में वह जोर-जोर से मुण्डी हिलाने लगे, ''अबकी मीटिंग का पूरा इंतजाम रामगोबिन मास्टर के जिम्मे है, जबकि आपने ही राज्य कमेटी तक दौड़-धूप की थी कि वे लोग आकर यहाँ का हाल देख लें।''

देरी के एक और कारण को छुपा गये कमलाकांत। टायर ने चारों ओर से आग पकड़ ली थी... छल्ले की शक्ल में जलती हुई आग जमीन से ऊपर उठने लगी। अब यह कमलाकांत के सिर के चारों ओर अधर में जलने लगी, चाँद के प्रभामंडल की तरह या परीक्षा के लिए तैयार अनलचक्र की तरह। सिर को झटका दिया कमलाकांत ने, ''चला भी जाय। यहीं देर करने में कोई फ़ायदा नहीं।'' वह पता नहीं कहाँ से बोल रहे थे... जूड़ी में तपते बच्चे के पास से, पेड़ में लटके किसानों के पास से या पार्टी की उस मीटिंग के स्थान से, जहाँ अभी पहुँचे भी न थे। मन तो भनभनाते ततैया की तरह कभी यहाँ तो कभी वहाँ चक्कर काटे जा रहा था। अस्थिर... बेचैन।

चल पड़े वे। चलते-चलते उनके बीच ठंड पर ही बात होती रही। मद्धिम जादव उदास सूरत बनाकर बोले, ''माघ में पानी पड़ गया। लगहर (दुधारू) गायें एकदम चौपट हो जायेंगी।''

''मैनी (नीचे झुके सींग) गैया मनगर दूध दे रही है न?'' अगर कोई देखता तो शायद कमलाकांत का चेहरा उसे फटे दूध की तरह नजर आता।

मद्धिम जादव एकबारगी दोरसे मौसम के ऊपर बरस पड़े, ''देगी कहाँ से! कुकुरबनवा में हमारी गायें चरती थीं। जगत नारायण ने वहाँ भी पहरे खड़े कर दिये। कल बैजू की बछिया कांजी हौस में डाल दी गयी है। ऊपर से माघ का पानी... माघ बरसे तीन जाय, गेहूँ-गाय-बिवाय।''

''अरे भाई, मुझे दूध का उठौना चाहिए।'' आग अब उनके सीने में गुमड़ आयी थी। मुँह में जैसे कसैला धुआँ भर गया हो, बिना उगले अब रहा न जायेगा उनसे। ''बेटा बीमारी से बहुत कमजोर हो गया है। फल-फूल तो खिला नहीं सकता। दूध भी मिल जाये तो बहुत अच्छा।'' कहने के साथ ही कमलाकांत के अंदर बिवाई जैसा कुछ चिलका।

हठात उनके कानों में ''चर्र-चर्र, पुट् पुट्'' की आवाज आयी। जैसे फ़सल का गाभा नोचा जाय। कहीं इन लोगों के बहाने चोर-चाँई हाथ तो नहीं मार रहे हैं? दोनों चौकन्ने हो गये। घने कुहरे के चलते साफ़ कुछ दिखलाई नहीं पड़ता था। सधे क़दमों से वे आहट की ओर बढ़ने लगे। डर भी लग रहा था। हवा के क़तरे-क़तरे तक में क़ातिल घूम रहे हैं। बहुत कोशिश के बाद भी कुछ साफ़ नजर न आया। फ़क़त एक आभास-सा मिला। कई काली-सफ़ेद छायाएँ एक खेत में क़वायद कर रही थीं। दोनों जने एक-दूसरे से लगभग सट-से गये। ''चर्र-चर्र... पुट्-पुट्... पड़-पड़''... आवाजें तेज से तेजतर होने लगीं। बीच-बीच में कुछ कड़कड़ा उठता था। कंकालों की ठठरी बज रही हो जैसे। मद्धिम जादव कहीं से खोजखाज कर ईंट का एक अधपावा उठा लाये और बहुत हिम्मत करके उसे छायाओं की ओर उछाल ही तो दिया। छायाएँ पल-भर को ठिठकीं। उनमें से दो-तीन ने उछाल मारी... जैसे दोनों हाथ और दोनों पाँव के बल माँव बना कोई थिरक रहा हो। मद्धिम काँप गये। काटो तो खून नहीं। उनकी बेवकूफ़ी भरी हिम्मत महंगी पड़ी।

''धत्तेरे की! नीलगायें फसल चर रही हैं।'' मद्धिम जादव की जान में जान आयी। यदि इस वक़्त खेत का कोई विजूखा भी इनसानी शक्ल में होता तो वे दोनों उससे भिड़ जाते या भाग ही चलते।

''अब हमारा खाली हाथ चलना ठीक नहीं, कॉमरेड!'' मद्धिम पफुसपफसाये, ''न हो तो कोई गुप्ती-कटारी भी रखनी चाहिए। पता नहीं हम कब दबोच लिये जायें।''

''अपनी तरफ़ से तैयार तो रहना ही चाहिए।'' कमलाकांत पगडंडी से नीचे उतर आये। ''चलो हाँक दिया जाय।'' वह चादर को कमर में लपेटते हुए बोले, ''नाहक किसी की फसल बरबाद होगी।''

''छोड़िए भी। इधर के खेत धड़ाका सिंह के हैं। वह भी जगतनारायण के गुट का है।'' मद्धिम जादव नफ़रत से बिदककर बोले, ''पापियों की चीज ऐसे ही नष्ट होती है। पुन्नी संचै साधु खाय, पापी संचै दीमक खाय।''

''चीजों को नष्ट होते देना हमारा मकसद नहीं है, साथी!'' सर्द हवा और कमलकांत की आवाज में कोई फर्क करना मुश्किल था। हथेलियाँ पीटते हुए वह नीलगायों की ओर बढ़ चले। नीलगायें झुंड बनाकर ही भागती हैं। इसलिए उन्हें हाँकने में कुछ खास दिक्क़त न हुई। काफ़ी दूर तक खदेड़ने के बाद वे लोग फिर डगर पर आ गये।

आगे अरहर के खेत थे। रास्ता दोनों बाजू से तुप-सा गया था। एक लोमड़ी निश्चिंतता से किसी मरे जानवर का सड़ा मांस खा रही थी। इन लोगों ने नाक पर गमछा रख लिया। आदमी को देखते ही लोमड़ी के होश गुम हो गये। 'खेंक-खेंक' करती हुई वह कमलाकांत के दोनों पैरों की संध से ही निकल भागी। वह चिहुँककर गिरते-गिरते बचे।

''काटा तो नहीं न?'' घबड़ाकर पूछा मद्धिम ने।

''लगता है, ससुरी मूतकर भाग गयी।'' कमलाकांत का पैर भीग चला था। उनके तलवे में गुनगुनी सरसराहट-सी महसूस होने लगी। थोड़ी देर में तो पूरा जूता छप-छप बोथ गया। यदि खून की धार है तो दर्द क्यों नहीं हो रहा है? अचकचा कर वह नीचे-झुके तो पता चला कि पानी सरसराकर बहे आ रहा है। ''लगता है, कहीं से नलकूप का अरघा टूट गया है। नील-गायें इधर आयी होंगी... पानी पीने।'' अरहर के खेत पार कर लेने पर टूटा-अरघा दीख गया। अभी पतली-सी ही दरार पड़ी थी, लेकिन कगार गल रहा था। वह खड़े होकर गौर से देखने लगे।

''अब अरघा की मरम्मत भी करेंगे क्या?'' मद्धिम जादव हैरानी में बोले।

कमलाकांत ने कुछ जवाब नहीं दिया। चुपचाप गीली मिट्टी थोपने लगे, अरघे की तोड़ पर। बेचारे मद्धिम जादव भी कगार के ऊपरले सिरे से दो-एक ईंट उखाड़कर सहायता करने लगे। कामचलाऊ ढंग से तोड़ भर दी गयी।

सचमुच, इस आदमी को समझना मुश्किल है। कीचड़ सने हाथ धोते हुए मद्धिम सोच रहे थे। कमलाकांत की इस निस्संगता से उनका दम फूल रहा था। वह गंतव्य की टोह लेने लगे। कल्पना में तनिक दूर अलाव में लपलपाता रामगोबिन मास्टर का दुआर और उस लपलपाहट में काँपती इंसानी आकृतियाँ नजर आयीं। अब तो कमलाकांत का चेहरा खिल उठना चाहिए- उन्होंने कमलाकांत की ओर देखा- हाँ, उनका अनुमान सही था। या मद्धिम को कम-से-कम ऐसा ही लगा।

धुन में तो कुछ महसूस न हुआ। काम खत्म हो जाने पर उन्हें लगा कि हाथ-पाँव गलकर गिरे जा रहे हैं। ''जानता, तो टायरवा में से कुछ बचा लेता।'' पिघलते रबर की तरह मद्धिम की आवाज निकली, लेकिन तुरंत जमकर वह होंठों पर चिपक भी गयी। जमे शब्दों को जैसे उन्होंने नाखून से खुरचा, ''पुरनिया लोग ठीक कहते हैं

माघ मास की बादरी, और कुआरा घाम।

ये दोनों जो कोई सहै, करै पराया काम...''

वक़्त काफी जियान हो चुका था। ठार होते हाथ-पाँव बिना ढुलकाये गर्माहट नहीं मिलने को थी... वे दुलकी चाल चलने लगे। अलाव की लप-लपाहट आमंत्रण दे रही थी और शायद इसी ने उनके हाथ-पाँव की नसें गर्म कर दीं।



रामगोबिन मास्टर के दुआर पर पहुँचते ही इन्होंने अलाव के पास जगह ले ली।

''आप लोगों की ही राह देखी जा रही थी।'' कमलाकांत के पास चले आये रामगोबिन मास्टर। अब वह मद्धिम जादव को आत्मीय-सी फटकार देने लगे, ''का कमरेडवा! खाली मेले ददरी में हाथ चलता है! सुना है, बारह रकम के मसाले डालकर लिट्टी बनाना जानते हो। लेकिन यहाँ तो आग तापने लगे। ऐसे कैसे फरिआयेगा? चलो चार्ज संभालो।''

ईंट जोड़कर बने चूल्हे पर चाय का देग रखा हुआ था। एक ओर लिट्टियाँ गढ़ी जा रही थीं। उपले का आड़ा लपलप तैयार हो रहा था। ''जरा चाह पी लूँ कामरेड!'' मद्धिम लहसकर बोले। जल्दी-जल्दी चाय सुड़ककर और डबल खिल्ली खैनी होंठों तले दाबकर वह आटा हमवार करने लगे। दहकते अंगारे पर वह बेहिचक लिट्टियाँ रखते जा रहे थे, मानो उनका हाथ लोहे का चिमटा हो।

जिला कमेटी के सचिव चक्रधर जी कमलाकांत को एक तरफ़ ले गये और उनके कान में खुसरपुसर करने लगे, ''कॉमरेड आपकी दौड़-धूप ने रंग लाया। बात बहुत ऊपर तक चली गयी है। पोलित ब्यूरो के निर्देश पर बंगाल से दो कामरेड्स आये हुए हैं। एक आइडियालॉग हैं और दूसरे पार्टी के मुखपत्र से संबंधित हैं। इन पर इस घटना के साथ-साथ बिहार की परिस्थितियों के अध्ययन का भार भी सौंपा गया है। वैसे पहले वाले कॉमरेड हैं तो दक्षिण भारत के, लेकिन अर्से से बंगाल में रहते हैं। इन्होंने कुछ दिनों तक मध्य प्रदेश में भी काम किया था, लेकिन अब पार्टी के निर्देश पर पूर्वांचल का कार्य देखने लगे हैं।''

''ये लोग हिन्दी समझ लेंगे?''

कॉमरेड चक्रधर मन-ही-मन मुस्कराये, जैसे कोई आश्चर्यजनक भेद बताने जा रहे हों, ''रक्तध्वज के छद्म नाम से इन्होंने हिन्दी में ही कई, किताबें लिखी हैं। हाँ, दूसरे कॉमरेड बता रहे थे कि उन्हें हिन्दी नहीं आती।''

कमलाकांत को अपरिमित प्रसन्नता हुई, ''...तो रक्तध्वज जी यही है। अरे, इनकी लिखी पुस्तिकाएँ मैंने पढ़ी हैं और मजदूरों के बीच इनका पाठ भी किया है। अब तक इन किताबों को मैं हिन्दी अनुवाद समझता था।'' वह आल्हादित हो गये, ''कितना अच्छा संयोग है। अब बहुत कुछ जानने-समझने को मिलेगा। इनकी एक पुस्तिका 'आखिरी वक़्त का बिगुल' से मुझे बहुत सहायता मिली है। और इस संकट की स्थिति में हमारे लिए पार्टी की गाइडलाइन बहुत जरूरी है।''

''इसीलिए तो आये हैं वे लोग।'' चक्रधर जी की आवाज धीरे-धीरे गंभीर होने लगी, ''आपको बहुत होशियारी से 'फ़ेस' करना है, कॉमरेड। जाने या अनजाने में कुछ ऐसी बातें हो गयी हैं यहाँ, जिस पर आपत्तियाँ उठ सकती हैं।''

''आपत्ति?'' कमलाकांत का देहाती मन चौंका, ''लेकिन ऐसा क्या हो गया है?''

''अरे वही...'' चक्रधर जी टालमटोल करने लगे, ''कुछ नहीं... आप खुद संभाल लेंगे। असल में आपने अकेले निर्णय ले लिया न। स्वाभाविक है, कुछ कदम ग़लत भी पड़ जायें।''

''खैर, हम अपनी समस्या रखेंगे। निर्णय तो अब पार्टी को ही लेना है।'' कमलाकांत ज्यादा तूल-तबील में न गये। फिर भी एक हल्की-सी शिकायत की, ''कॉमरेड चक्रधर! दूसरे कामरेड को हिन्दी नहीं आती तो भोजपुरी या मगही तो आती होगी?''

''अंगरेजी जानते हैं, भई!'' चक्रधर ने आवाज को जरा लम्बा खींचा।

''बगैर जनभाषा जाने वह अध्ययन क्या करेंगे?'' कमलाकांत का देहाती फिर से सिर उठाने लगा।

''हम साथ रहेंगे। बीच-बीच में व्याख्या करते चलेंगे।''

''और वही सब लिखा जायेगा मुखपत्र में? हिन्दी नहीं जानते हैं तो मत जानें, लेकिन जिस इलाके का अध्ययन करना है वहाँ की कोई बोली तो जाननी चाहिए। सिर्फ़ अंगरेजी के बल पर हिन्दुस्तान का ठीक-ठीक अध्ययन हो पायेगा, मुझे संदेह है।'' अब कमलाकांत का देहाती आदतन वाचाल होने लगा।

''यह तो मजबूरी है। पोलित ब्यूरो में इतने बड़े हिन्दी प्रदेशों का एक भी आदमी सदस्य नहीं है, तो क्या वहाँ का काम रुक गया है? हिन्दुस्तान के आकलन में कोई कमी रह गयी है?'' चक्रधर जी बोले, ''हमारे लिए भाषा कभी आड़े नहीं आनी चाहिए।'' उन्होंने इस प्रसंग को यहीं रोक दिया, ''मार्क्स जब एशियाई ग्राम समाज पर लिख रहे थे तो क्या यहाँ की भाषाएँ जानते थे?''

''तभी तो उनका विश्लेषण कुछ-कुछ ग़लत रह गया... तमाम सद्भावना के बावजूद... खासकर भारत वाले मामले में, क्योंकि उन्हें अंगरेजी में उपलब्ध तथ्यों पर निर्भर रहना पड़ा था।''

''क्या कहा? फिर से कहिए तो। मार्क्स का विश्लेषण ग़लत रह गया?'' लगा कि चक्रधर जी उनका मुँह नोच लेंगे, ''आप मार्क्स को पढ़िए...फिर से पढ़िए।''

''पढ़ता हूँ। मार्क्स हमारी तरह जड़ नहीं थे। वह द्वंद्व को स्वीकार करते थे... और मार्क्सवाद ने मुझे यही सिखाया है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए... लेकिन पोलित ब्यूरो का आकलन तो आजकल स्थितियों को नारों में ढालना सिखला रहा है।''

''आपने भंग-वंग खा लिया है, क्या?'' चक्रधर जी तैश में आ गये।

कमलाकांत बोलना चाहते ही थे कि राज्य सचिव के साथ रक्तध्वज जी आते दिखे। उनको देखकर चक्रधर जी लौटने लगे। कमलाकांत को यह सारा कुछ अजीब लग रहा था। उन्हें अब एक नयी कचोट काटने लगी थी, ''कॉमरेड चक्रधर!...''

''क्यों अब क्या हुआ?''

''नहीं माने कि... मीटिंग प्रभावित इलाके में ही कहीं करवानी चाहिए थी। हत्या के बाद से वहाँ के लोग बड़े सहमे हुए हैं। साथ ही बैठकर चर्चा होती तो उनका हौसला भी बढ़ता।'' अपने मन की सबसे बड़ी भड़ास निकालकर उन्होंने खुद को काफ़ी हल्का महसूस किया।

''वहाँ खतरा जो था।'' चक्रधर जी ने कुछ इस ढंग से कहा, मानो अनिष्ट आसपास ही मंडरा रहा हो। ''सुरक्षा की दृष्टि से प्रभावित इलाके से दूर मीटिंग की जा रही है। वैसे वह इलाका आपके प्रभाव क्षेत्र में आता है। जब आप आ गये तो समझें कि सब आ गये।''

कमलाकांत के चेहरे से अविश्वासी-सा हो जाने का क्षोभ टपकने लगा। राज्य कमेटी के सचिव से तो उन्होंने उसी इलाके में मीटिंग करवाने का अनुरोध किया था। उन्हें ऐसा ही आश्वासन मिला था। अपने यहाँ के पीड़ितों को उन्होंने यही बात बतायी थी। लेकिन आज की मीटिंग न जाने किसके इशारों पर अफरा-तफरी में होने चली है कि अंत समय तक इस परिवर्तन के बारे में वह कुछ जान न पाये।

इसी बीच वे लोग बरामदे में पुआल पर बिछी दरी पर आकर बैठ गये थे। कॉमरेड रक्तध्वज सबसे एक सच्चे जन-नेता की तरह अहककर मिल रहे थे। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। गहरे ताम्बई रंग का कद्दावर शरीर, खुली सीपियों की तरह ज्ञानरंजित आँखें, लम्बी दाढ़ी जो भारत की दक्षिणी सीमा की तरह नीचे की ओर क्रमशः नुकीली होती गयी थी। ठुड्ढी पर से दाढ़ी के सफ़ेद हो रहे बालों का एक गुच्छा यों बढ़ता चला गया था, जैसे काली चट्टानों के बीच फेनिल झरना बहता है। सिर के आधे से अधिक उड़ चुके बाल उनके अनुभव और चिंतन की व्यापकता का परिचय दे रहे थे। उन्होंने एक बहुत ही नजर-खींचू लाल कोट पहन रखा था और कंधे पर गर्म ऊनी चादर तहिया कर डाल रखी थी।

कॉमरेड आलोक भट्टाचार्य, जो पार्टी के मेन ऑर्गन से संबंधित थे, गोरे, सुंदर मगर दुबले-पतले शरीर वाले थे। उन्होंने फ्रेंचकट दाढ़ी रखी थी। उन्होंने सिर के बाल इस तरह सँवारा हुआ था, मानो वे नहाते वक़्त भी कभी बिखरते न होंगे। उन्होंने बंगाल हैंडलूम के कुर्ते-पाजामे पर शाल ओढ़ रखी थी।

रामगोबिन मास्टर से अपनी उत्सुकता को रोका न जा सका। वह कोट का झूलता सिरा छूते हुए बोल ही तो पड़े, ''कॉमरेड, यह कोट! बड़ी ही उम्दा 'कोआलिटी' का मालूम पड़ता है।''

रक्तध्वज जी ने अपने शरीर को ऊपर से नीचे की ओर देखा। ''इदर का नईं है।'' किंचित मुस्कराये वह, फिर कुछ देर के लिए उनकी आँखें मुँद गयीं और वह विदेहावस्था में चले गये, जैसे कोई साधक गुनिया अपने इष्ट से संपर्क साधने के पहले खो-सा जाता है। आहिस्ता-आहिस्ता उनके चेहरे पर एक सुरूर-सा खिला और बोल पड़े वह, ''पिचले साल रूस गया ता। वईं उपहार में मिला ता। कजाकिस्तान के गाँउ में अइसा कोट-अ हात से बनाते हैं। उजली बेंड के ऊन से और वनस्पतियों से उस पर लाल रंग-अ चड़ाते हैं। ये देकिए...'' उन्होंने कोट उतार दिया और कालर की तरफ से उलटकर दिखाने लगे, ''लेबल-अ के रूप में दस्तकारी संघम की अउरतों ने पार्टी-ई के निशान को एमब्रॉयडर-अ किया है। अइसा कोट-अ जार के टाइम-अ में किसान अपना लिए बनाते ते। लेकिन बाद में सोवियत काल में बी हस्तकलाओं के संगरक्छन के लिए इसे अउर डेवलप-अ किया गया।''

रक्तध्वज जी काफ़ी ठहर-ठहरकर व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध हिन्दी बोल रहे थे। सिवाय कुछ ध्वनियों को छोड़कर जैसे 'भेड़' को 'बेंड', 'झंझट' को 'जंजट' या 'देखिए' को 'देकिए', उनकी 'त' और 'थ' ध्वनियों से इतना सूक्ष्म अंतर था कि किसी डिक्टाफ़ोन द्वारा भी उसे पकड़ना असंभव होता।

कोट के नीचे भी उन्होंने स्वेटर पहन रखा था। इसलिए प्रायः सब लोग कोट को उलट-पुलटकर प्रशंसा भाव से देखने लगे।

रक्तध्वज जी उदास-से दिखने लगे और उनकी भाषा में एक अजीब-सी लापरवाही झलकने लगी, ''ब्रिटिशों की अउप्निवेशिक लूट-अ ने हमें कईं का नईं रका। हमारे उद्योग-दंदे, लोक कलाएँ, दस्तकारी सबको नष्ट-अ कर दिया। उन साम्राज्यवादियों ने। ये कोट-अ क्या है? कउन-कउन-सी चीज नईं बनती तीं हमारे यहाँ। वस्त्र उद्योग तो हमारा बहुत ही उन्नत ता... हमारे ही सूत अउर कपास से इंग्लैंड-अ की मिलें चलती तीं।''...'ट-ड' ध्वनियों पर तो उनकी जीभ का निपात ऐसे होता था, जैसे छापेखाने का प्लेट खट से कागज पर गिरता है। कमलाकांत के अंदर उनकी हिन्दी बोलने की कोशिश पर श्रद्धा उमड़ आयी।

आलोक भट्टाचार्य तो और दुखी होकर बोले, ''हमारा पूर्बो बांग्ला में बेश भालो-भालो आउर सॅब माफिक का जिनिश बॅनता था। आप लोगिन श्योर शुना होगा ढाका का मॅलमॅल का बारा में। एक ठो आंग्ठी का भीतॅर से समस्तो कापॅड़ शाँप का माफ़िक बाइर हो जाता था। जारा ई ठो देखुन ना....'' उन्होंने अपनी शाल उतार दी और चमड़े की एक सदरी, जिसे उन्होंने हैंडलूम के कुरते पर पहन रखा था, दिखाने लगे, ''पोलैंड से एक टा डेलिगेशन आया था, उई लोगिन इशको हामको प्रेजेंट किया था, परां...तू, हाम जान्ता है हमारा हिन्दुस्तान में इशशे भी दारुन जिनिश गुली बनने शेकता है। बाबा! हामारा इंडिया का माथा कॅम आछे ना की?'' उनके गोरे ललाट पर चिंता की काली-काली लकीरें बल खाने लगीं। लेकिन इतनी पेच बतियाने के बाद भी भट्टाचार्य की सदरी किसी का ध्यान खींचने में असमर्थ रही। जूते और चमड़े का कारोबार करने वाले जियावन रैदास ने उसे दो-तीन बार छूकर परखा और वह चमड़े की किस्म के बारे में अपनी जानकारी देने लगे, ''लगता है ई उदंत (जवान) बाछा के चाम से बना है।''

भूइलोटन गड़ेरिया देख रहे थे कि अभी भी सबके आश्चर्य का केन्द्र लाल रूसी कोट ही बना हुआ है। अपने हाथ का 'गुर' दिखाने का शायद इससे अच्छा मौका न मिलता। अपना ताजा बुना कम्बल रक्तध्वज जी के आगे फैलाते हुए चहकने लगे, ''कमरेड साहेब, तनी हेकरा के छूइए तो, आजमाइए तो। उजर भेंड़ि के बार से हमहूँ बीने हैं। किनारी पर ऽ एकबरनिया करिया भेड़ि का बार लगाये हैं। अइसी भेड़ि साइते-संयोग से नु मिलती है। कई बरिस से तनी-तनी बार बटोरने पर अबकी साल जाके एगो कम्मर तेआर होखा।''

रक्तध्वज जी ने एक कुशल ज़र्रानवाज की तरह कम्बल ओढ़ लिया... बाप रे! कम्बल है कि नागपफनी की चादर! स्वेटर छेदकर गड़ने लगा उनको। झटके से उतारकर रख देने का मन किया, लेकिन शिष्टता के खयाल से बहाना बना गये, ''गरम तो इतना है कि मैं एक मिनट-अ नईं रक पा रहा हूँ।'' वह बड़े ही मृदुल स्वर में बोले, ''तनिक चुब रहा है। तोड़ा अउर सॉफ्रट-अ रहता तो...''

''गरम है तो ले लीजिए न, कमरेड साहेब!'' भूइलोटन बिछ पड़े।

''नईं-नईं। आपको कष्ट-अ जेलना पड़ेगा।'' रक्तध्वज की रूह काँप गयी, ''मेरे पास तो हैं ही गर्म कपड़े।''

उन्होंने कम्बल को सहला भर दिया और बोले, ''बेंडों के ऊपर क्लाइमेट-अ का असर पड़ता है। मैदानी इलाकों की बेंडों के रोवें कड़े हो जाते हैं, वईं कश्मीर बगैरा में स्पंज की तरह मुलायम रहते हैं। राजस्तान के सरहदी इलाके की बेंडों को रोवें उतने मुलायम तो नईं, लेकिन लम्बे अउर चटक रंग वाले होते हैं। राजस्तान में एक विशेष प्रकार का कम्बल बनता है। लूँकार कहते हैं उसे। वह भी एक-दम काली बेंड के ऊन से बनता है, लेकिन बार्डर-अ पर लाल रंग से काम किया रहता है। अब देकिए ना... पश्मीना, शाहतूश और जामावार न जाने कइसी-कइसी शालें बनती तीं हमारे यहाँ। शालबापों की एक से एक बुनाई और उन पर बड़े यत्न-अ से किये गये काम का नमूना देखने को मिलता ता। लेकिन पूंजी के इस युग में उनके हात का कौशल चिन गया। अब वह स्तान मशीनों ने चीन लिया।''

बातचीत अभी सम पर पहुँच ही रही थी कि रामगोबिन मास्टर बड़े अपनेपन से आग्रह करने लगे, ''अब जरा चाह-पानी हो जाय। काहे कि भोजन में अभी अबेर है। मीटिंग में न जाने कितना समय लग जाये, कोई ठीक नहीं।''

उनके कहते ही कार्यकर्ताओं ने सबके आगे चाय का कुल्हड़ और चार-चार ब्रिटेनिया बिस्कुट रखना शुरू कर दिया।
कमलाकांत को हँसिए के ब्याह में खुरपी का गीत रुच नहीं रहा था। वह सिर लटकाये बैठे रहे। चाय पड़ी-पड़ी ठंडी हो गयी और बिस्कुट अनकुतरा ही पड़ा रहा। जियावन रैदास की नजर पड़ी तो टोका उन्होंने, ''कमरेड, आप खा नहीं रहे हैं?''

रामगोबिन मास्टर ने उनके आगे की ठंडी चाय फेंककर गर्म चाय रख दी। वातावरण को खुशगवार करने के लिए उन्होंने चुहल की, ''बिस्कुट मत खाइए, क्योंकि इसमें विष कूट-कूटकर भरा रहता है, लेकिन चहवा तो पीजिए, कामरेड!'' उन्होंने मद्धिम जादव को पुकारा, ''कमरेडवा! चाह और दे दो।''

कमलाकांत ने एक सड़ाके में चाय सुड़क ली। सबके चाय-बिस्कुट से फारिंग हो लेने के बाद रामगोबिन मास्टर ने आज के इस आयोजन के उद्देश्य के बारे में बताया। जिला कमेटी के सचिव चक्रधर जी ने इलाके की समस्याओं और इनसे संबंधित पार्टी की गतिविधियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी। फिर राज्य कमेटी के सचिव सत्यार्थी जी ने राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति और भारतीय वामपंथी आंदोलन की भूमिका का विश्लेषण किया। भारतीय वामपंथी आंदोलन में भटकाव और इस भटकाव में भी अपनी पार्टी की सही नीतियों के बारे में बताया। इसके बाद कॉमरेड आलोक भट्टाचार्य से बोलने का अनुरोध किया गया।

उन्होंने बड़े ही तंद्रालस भाव से कहना शुरू किया, ''खॅमा कोरबेन, कॉमरेड्स! हींदी ते ना बोलार जोन्ने। ताऊ कामरेड्स! आमी बेशी किछु बोलते चाइ ना...सुधु इंग्रेजी ते दु-एक टी कॅथा रेखे निजेर वक्तव्यो शेष कोरबो...''

अचानक रक्तध्वज जी ने यहाँ वीटो पावर का इस्तेमाल किया, ''कॉमरेड-अ बट्टाचार्या, न हो तो आप बाद में बोलिएगा... यहाँ के लोकल लोगों को कुच बोलने दिया जाय।''

''...तो आप ही बोलिए न।'' कॉमरेड चक्रधर रक्तध्वज जी से ही बोलने का आग्रह करने लगे।

''अबी नईं।'' वह कमलाकांत को देख रहे थे।

कमलाकांत उलझन में पड़े हुए दीख रहे थे। जिस घटना को लेकर इस मीटिंग का आयोजन था, उसका कहीं जिक्र भी न हुआ। रामगोबिन मास्टर ने आयोजन का उद्देश्य महज संगठन में वृद्धि और उसे सुदृढ़ करने तक ही सीमित कर दिया। चक्रधर जी ने इलाके की समस्या में उनके गाँव की घटना का भूलकर भी उल्लेख न किया। यह क्या हो रहा है? उन्हें बोलने का मौका दिये बिना आलोक भट्टाचार्य या रक्तध्वज जी से ही बोलने का आग्रह किया जाने लगा है।

रक्तध्वज जी ने उनकी हड़बड़ाहट और आंगिक मुद्राओं को पहले ही ताड़ लिया था। तभी उन्होंने कॉमरेड आलोक को रोक लिया था। उन्होंने कमलाकांत से पूछ ही लिया, ''कॉमरेड-अ उपाद्याय। आप बेचैन दीक रहे हैं। कुछ बोलना है क्या?''

कमलाकांत ने जल्दी-जल्दी बीड़ी का कश लिया और टोंटा नीचे मसलने चले तो दरी नजर आयी। वह हड़बड़ाकर उठे और दो-तीन लोगों के पैर कुचलते हुए ओसारे से बाहर निकल आये और टोंटा दूर फेंक डाला। खड़े होते ही उन्हें लगा, बात को प्रभावशाली ढंग से कहने के जितने तरीके उन्होंने सोचे थे, सब भूल गये, सारा कुछ सपाट हो गया, पुआल पर बिछी उस दरी की तरह। उस सपाटता में सिर्फ़ चार खेत मजदूरों के झूलते शव नजर आये, बाकी सब साफ़। बिना किसी भूमिका के वह बोल उठे, ''मेरे गाँव में चार खेतिहर मजदूरों की हत्या कर दी गयी। हमारे गाँव में एक भूमिपति हैं बाबू जगतनारायण सिंह। ढाई-तीन सौ बीघे की काश्तकारी है उनकी। न्यूनतम मजदूरी को लेकर विवाद चल रहा था। इसी में उन्होंने हमारे दल के चार मजदूरों की हत्या करवाकर उनकी लाश पेड़ पर टंगवा दी।''

राज्य कमेटी के सचिव कॉमरेड सत्यार्थी जी बोल पड़े, ''कॉमरेड उपाध्याय, बातचीत के क्रम में उस घटना पर चर्चा अवश्य होगी। पहले जरूरी मुद्दों पर 'डिस्कशन' कर लिया जाय।''

''कॉमरेड सेक्रेटरी! आपकी नजर में मजदूरों की हत्या जरूरी मुद्दा नहीं है? आखिर यह मीटिंग किसलिए बुलायी गयी है? आज पखवारे भर से मैं पपीहा बना फिर रहा हूँ... इसी मीटिंग के लिए। इधर मेरे और कुछ साथियों के अपहरण की योजना बनायी जा रही है... फिर भी आप लोगों को यह जरूरी मुद्दा नहीं लगता?'' कमलाकांत जोर-जोर से बोलने लगे, ''कॉमरेड सत्यार्थी, मैं अपने गाँव में मीटिंग बुलवाने के लिए आपके पास पटना गया था। लेकिन यह सब क्या हो रहा है? मीटिंग यहाँ हो रही है। मुझे सूचना ऐन शाम को पहुँचायी जा रही है। हमारी पार्टी के ही लोग मारे गये हैं। और लोगों के मारे जाने की आशंका है। इसमें पार्टी हमें कितनी सहायता दे सकती है, इसे बताने को मैं जरूरी मुद्दा मानता हूँ।''

वे लोग बगलें झाँकने लगे।

''तो इतना चिल्लाते काहे हैं?'' रामगोबिन मास्टर ने मौन भंग किया, ''जैसे यहाँ भी कोई आपकी घेंटी दबा रहा है।''

''हमारे लोग आपकी गलती से मारे गये हैं, कॉमरेड कमलाकांत!'' चक्रधर जी ने हस्तक्षेप किया, ''मैं नहीं चाहता था कि यह बात खुले। मगर आप यहाँ भी अनुशासनहीनता का परिचय दे रहे हैं... तब बोलना पड़ा।''

''मेरी ग़लती से?'' कमलाकांत का चेहरा फक पड़ गया। कुछ देर तक उनसे बोलते न बना।

''जी हाँ, आपकी ग़लती से। न्यूनतम मजदूरी को लेकर तनातनी चल रही थी तो आप लोगों को संगठित करते, जनआंदोलन छेड़ते। ऐसी परिस्थिति में आपने मजदूरों को खेत लूटने के लिए क्यों उकसाया?'' रामगोबिन मास्टर क्रोध में बोले, ''आपने मुझसे भी राय नहीं ली।''

''अच्छा! मुझे कटघरे में खड़ा करने के लिए ही मीटिंग यहाँ बुलवायी गयी है।'' कमलाकांत असुविधा महसूस करने लगे। ''जिस दिन लठैतों ने मजदूरों के मेठ और हमारे पार्टी कार्यकर्ता शिवचरण राम को पीटा था, उसी दिन मैंने आपसे सलाह-मशविरा करना चाहा था, लेकिन आपने सब्र करने के सिवा और कौन-सी राय दी थी?''

''तो क्या कहता? मैं उसमें का नहीं हूँ जो कह दूँ, 'चढ़ जा बेटा सूली पर भला करे भगवान'।''

''अगले दिन भी मैं आपके पास गया था तो पता चला कि आप अपनी सास के श्राद्ध में ससुराल चले गये, नेवता लेकर...''

''आप क्या चाहते हैं कि मैं समाज से कट जाऊँ? एक तो ऐसे ही कम्यूनिस्टों के बारे में धारणा है कि वे नास्तिक होते हैं, विधर्मी होते हैं...तब तो कोई हमें सुनेगा भी नहीं।''

''कॉमरेड-अ उपाद्याय!'' इस बार रक्तध्वज जी बोले, ''मुझे इस गटना के बारे में पता है अउर यह बी पता है कि आपने प्रीमैच्योर्ड-अ स्टेज में इतना बड़ा दुस्साहस कर डाला। कैर, इसे सुलजाने के लिए ही हम एकत्र हुए हैं। आप दैर्य तो रकें।''

''कॉमरेड! दुस्साहस अगर किसी ने किया है तो ग़रीब मजदूरों की भूख ने। खेत लूटने को किसी ने उकसाया है तो मजदूरों के खाली पेट ने। पेट भरा हो तो धैर्य रखा जा सकता है। लेकिन भूखे पेट को धैर्य कहाँ! आप बिहार की परिस्थितियों का अध्ययन करने आये हैं। यदि गंभीरता से अध्ययन करें तब शायद पता चले कि यह दुस्साहस कौन करवाता है। लेकिन आप अध्ययन कर नहीं पायेंगे। खेद है कि पूरी बात सुने बिना आपने कह दिया कि इस घटना के बारे में मुझे पता है।''

''टीक है, आप बी बताइए अपना पक्छ।'' रक्तध्वज जी ने उदात्त भाव से कहा।

वह अभी बताने ही जा रहे थे कि कैसे न्यूनतम मजदूरी का विवाद उठा, कैसे जगतनारायण की तरफ से मारपीट करवायी गयी। इसके बाद किस मजबूरी में लोग खेत लूटने को बाध्य हुए। उनकी बात अभी चल ही रही थी कि रामगोबिन मास्टर और उनके पक्ष के लोगों की ओर से हल्ला-गुल्ला शुरू हो गया, ''बंद कीजिए यह बकवास! गाये हुए गीत को ही दुबारा गाये जा रहे हैं। यह मीटिंग इतिहास-पुराण सुनाने के लिए नहीं बुलायी गयी है। हम अगली कार्यनीति पर विचार करने के लिए एकत्र हुए हैं।''

रक्तध्वज जी ने बीच बचाव करके सबको शांत किया। वह कमलाकांत की ओर उन्मुख हुए, ''मजदूरी के सवाल पर टेन्सन-अ चल रहा ता तो समजौता बी करवाया जा सकता ता, उपाद्याय जी।''

''समझौते के लिए मैंने खुद पहल की थी, कॉमरेड! लेकिन जगतनारायण ने इसे हमारी कमजोरी समझा। बातचीत के लिए मैं दो-एक बुजुर्ग लोगों के साथ उनके दुआर पर भी गया था कि सरकार की तयशुदा मजदूरी से कुछ कम पर भी मामला पट जाय। लेकिन वह तो मुझे रीति-नीति समझाने लगे कि मैं ब्राह्मण जाति में जन्म लेकर भी नीच जातियों का पक्ष ले रहा हूँ, कि मैं कुल का कलंक हूँ वगैरह-वगैरह। मेरे विरोध करने पर बातचीत की कौन कहे उलटे उसने मेरे ऊपर लाठी चला दी। संयोग कहिए कि बगल में एक खूँटा गड़ा हुआ था। क्रोध में अंधा होकर वह दौड़ा तो उसी में ठेस लग गयी और निशाना चूक गया, वरना मेरी खोपड़ी के दो टुकड़े हो गये रहते। साथ के बुजुर्गों के मना करने पर वह चिल्लाकर ही रह गया, नहीं तो मैं इतनी आसानी से छूटने वाला न था। कहने लगा, 'भगवान ने मुझे ब्रह्महत्या से बचा लिया नहीं तो आज से कमलाकांत की लीडरी झाड़ दिये होता। हत्या के भरोसे कानी गाय खेत चरती है और सराप के भरोसे ब्राह्मण मुँहे लगता है। अब सीधे मन घसक जाओ यहाँ से।' मैं क्या करता?... मुँह लटकाये चुपचाप लौट आया।'' कमलाकांत सफ़ाई-सी देने लगे, ''यह जगतनारायण किसी की सुनता थोड़े है, जहाँ सोच लेगा वहीं खूँटा ठोककर ही मानेगा।''

''खूँटा काके बोलता?'' आलोक भट्टाचार्य की गर्दन प्रश्नवाचक चिन्ह की तरह तन गयी और उन्होंने मास्टर साहब से पूछ लिया।

कुछ देर विचारने के बाद वह बोले, ''खूँटा इज ए स्मौल पीस ऑफ बम्बू, कॉमरेड!... हाफ़ भीतर ऐंड हाफ़ बाहर।'' इसके आगे वह बोलने से ज़्यादा इशारों से बाहर और भीतर की स्थिति समझाने लगे।

''व्हाट?'' आलोक भट्टाचार्य की आँखें कोइन (महुवे का बीज) की तरह बाहर निकल आयीं, ''व्हेदर इट इज पुश्ड इनटू ह्‌यूमन बॉडी?... सो बूचरली...!''

विषम परिस्थिति में भी कमलाकांत हँस दिये, ''रामगोबिन भाई की अंगरेजी ही ऐसी होती है। खूँटे से पशु बाँधे जाते हैं। यहाँ खूँटा ठोंकने से मतलब अपनी जिद्द पर अड़े रहना है।''

''ताई तो बोली की...'' आलोक जी को सुकून मिला एकाएक।

''आप हमारी बात समझ तो रहे हैं न, कॉमरेड? या इंटरप्रेटर की जरूरत पड़ेगी?''

''नॉट सो, कॉमरेड! गो अहेड।'' आलोक जी अचकचा गये, ''हाम हिन्दी एकटू-एकटू जड़ू र सॅमॅजने शेकता। केबॅल बोल्ने आउर लिखने-पड़ने में नहीं शेकता। यू कैरी ऑन...'' कहकर उन्होंने चारमीनार सिगरेट सुलगा ली। उन्होंने बड़े प्यार से एक सिगरेट कमलाकांत की ओर भी बढ़ायी, ''शिग्रेट खाइए, कॉमरेड!''

कमलाकांत बीड़ी पी रहे थे, ''फिर भी उन्होंने पत रखने के लिए एक सिगरेट ले ली और उसे कान पर खोंस लिया।
मास्टर साहब बेतरह चिढ़ गये। एक तो अपनी अंगरेजी की खिल्ली पर, दूसरे कॉमरेड आलोक द्वारा सिगरेट पिलाकर बढ़ायी जा रही अंतरंगता पर। एक तरह से मास्टर साहब उनसे प्रतिस्पर्धा रखते थे। वैसे पार्टी के पोर्टफोलियो होल्डरों में अपनी वाक्‌चातुरी के बल पर उन्हें काफ़ी सम्मान प्राप्त था, लेकिन जनप्रियता के नाम पर कमलाकांत उपाध्याय उनसे बीस पड़ जाते थे। मास्टर साहब कमलाकांत उपाध्याय के साथ ही बलुआँ हाई स्कूल में ही हिन्दी के शिक्षक थे। उनका कम्यूनिज्म से पुराना लगाव था। लेकिन पिछले दो-तीन सालों से, जब से वह कलकत्ते से लौटकर आये हैं, तब से यह लगाव और गहरा हो गया है। कलकत्ता गये थे हाइड्रोसील का ऑपरेशन करवाने। उनका छोटा भाई वहाँ मारवाड़ी रिलीफ़ सोसायटी हास्पिटल में स्टोरकीपर है। गये थे दो महीनों के लिए, लेकिन रह गये नौ महीने...। इन नौ महीनों के बाद वह मानते हैं कि उनका नया जनम हुआ है। वह तो लौटना ही नहीं चाहते थे, लेकिन घर से चिट्ठी गयी कि स्कूल के हेडमास्टर और सेक्रेटरी उन्हें निकाल देने की धमकी दे रहे हैं... तब आये वह। वहीं कुछ-कुछ बंगला का अधकचरा अभ्यास हुआ और वामपंथी समझ भी विकसित हुई। कलकत्ते के मारवाड़ी रिलीफ़ सोसायटी हास्पिटल की सुव्यवस्था के पीछे वह वहाँ वामपंथी सरकार का होना मानते हैं... एक बिहार है, जहाँ श्मशान और अस्पताल में कोई फ़र्क ही नहीं दिखता। वह अपने कलकत्ता प्रवास के अनुभव सुनाते-सुनाते इतने उदास हो जाते हैं कि बिहार की जनता की चेतना कितनी 'लो' है... अंतहीन अनुभवों और सुरसामुखी संस्मरणों को सुनाते-सुनाते इतने उदास हो उठते हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहता कि सुनने वाला बिहारी है या बंगाली और वह घंटों बंगला में ही बोलते रह जाते हैं... अभी आलोक भट्टाचार्य को ऐसा करते देख उनकी पीड़ा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था। कुढ़ते हुए वह भोजन की व्यवस्था देखने चले गये।
इस बार रक्तध्वज जी काफी धीरज के साथ बोले, ''बातें तो सबी टीक हैं, लेकिन हमें शांतिपूर्न तरीकों से ही आंदोलन को आगे बड़ाना होगा। चोटे किसानों को अपने सात रकना होगा। मजदूरी अउर बूमि संबंदी विवाद में कबी बी समजौते की राह को बन्द-अ नईं करना चाइए। किसी डिमांड-अ को एक्सट्रीम-अ प्वाइंट-अ पर पउँचा देना किसी के हक में अच्चा नईं होता। इसके लिए जरूरत है विबिन्न तबकों के किसानों को अउर केतिहर मजदूरों को संगटित करने की। यदि आइसा, एक बड़ा-सा संघम बन जाता है तो ये सामंती उत्पीड़न अपने आप बन्द हो जायेंगे। नईं तो इक्का-दुक्का प्रयास से हम कुद ही मारे जायेंगे।''

''समझौते के बारे में किसी ने ठीक ही कहा है, कॉमरेड, कि वह एक ऐसी व्यवस्था की कोशिश है, जिसमें जो चीज मुझे नहीं मिलने वाली वह किसी दूसरे को भी न मिले। हमने सिर्फ़ मांग रखी थी, बदले में हमें मौत मिली। मारपीट भी उसी ने करवायी और हत्या की शुरुआत भी उधर से ही हुई।'' कमलाकांत बेचैन होकर बोले ''कॉमरेड रक्तध्वज, आप तो देश-विदेश घूम चुके हैं। आपको पता होगा, बिहार में उत्पीड़न अपने निकृष्ट रूप में है। अतः इन सामंती उत्पीड़नों, प्रहारों को रोकने के लिए उसे उसी भाषा में रिफ्लेक्ट करना एक तरह से पीड़ित लोगों की बाध्यता बनती जा रही है।''

कॉमरेड रक्तध्वज के साथ-साथ कई महत्वपूर्ण लोग भी चौंक उठे, ''आपका तात्पर्य?''

''पार्टी की तरफ़ से हमारे बीच हथियारों की सप्लाई की जानी चाहिए। बिना हथियार उठाये अब हमारा बचना मुश्किल है।'' कमलाकांत ने बेहिचक कह डाला।

''दादा, ई ठो केया बॅकता है आप? ओब्भी जॅदी पुलिस आपका धूल झाड़ दे तो कॉमरेड कमलाकांतो का सारा कमिटमेंट, सारा रिभल्यूशनिज्म झड़े जाबे।'' पार्टी ऑर्गन वाले आलोक भट्टाचार्य बुरी तरह भड़क गये और फ़र्राटेदार अंगरेजी में बोलने लगे। जिसका अर्थ था कि आपका यह कदम सामूहिक आत्मघात की ओर जाने वाला है। यह एक रूमानी क्रांतिकारिता है। जब तक बहुसंख्यक जनता इसके लिए प्रस्तुत नहीं होती तब तक सशस्त्र संघर्ष अंधे कुएँ में गिरने जैसा है। आप जिनके खिलाफ लड़ेंगे, वे आपसे अधिक शक्तिशाली हैं। पुलिस और प्रशासन उनके पक्ष में है। गंगा के इस मैदानी इलाके की, जहाँ आप रहते हैं, भौगोलिक संरचना इसकी इजाजत नहीं देती। चारों तरफ़ सड़कों का जाल बिछा है... दस मिनट के अंदर सुदूरवर्ती अंचलों में भी फ़ौज की पूरी बटालियन डिप्लॉय की जा सकती है। क्या आप फूस की इन झोंपड़ियों में से खूनी संघर्ष चलायेंगे? यह कुरुक्षेत्र का धर्मयुद्ध नहीं जो आप दिनभर लड़ेंगे और रात को निश्चिंत होकर थकान मिटायेंगे या विरोधियों के साथ बैठकर नीति-शास्त्र पर चर्चा करेंगे। आपको पता होगा, रूसी सहयोग से अंतरिक्ष में जाने वाले भारतीय अंतरिक्ष यात्री का कहना है कि धरती पर की छह इंच ऊँची कोई चीज भी वहाँ से साफ़ देखी जा सकती है। सारी मशीनरी, सारा तंत्र उनके पास है। आप किस बूते पर ऐसा सोचते हैं?

''तैश में आने की जरूरत नहीं, कॉमरेड! हम कोई स्टारवार करने नहीं जा रहे हैं। हम कुछ करें या न करें, लेकिन पुलिस हमारी धूल झाड़ती ही रहती है। वैसे किसी हिरोशिमा-नागासाकी पर अणु बम गिराना जितना आसान होता है, उससे कई गुना कठिन होता है देश में फैली बग़ावत की एक छोटी-सी चिनगारी को दबाना। सरकार बड़े-बड़े फौजी हमले को झेल लेती है, लेकिन जन आंदोलन के एक छोटे-से बीज से घबरा जाती है।''

''तो केया आप सिविल वार कॅरने मांगता है?''

कमलाकांत ने विवाद को भरसक बचाते हुए कहा, ''संभव है तर्क में आप मुझे परास्त कर दें। लेकिन मेरा एक छोटा-सा सवाल है। यदि आप लोग उसका समाधान कर दें तो हमारी सारी मुश्किल मिट जाये। मैं पूछता हूँ, जब भूमिपति सामंत तनिक विरोध पर ही हमें मारने को दौड़ रहे हैं तो क्या हम चुपचाप मार खा लें?''

''आप इसकूल का छेले का माफ़िक प्रश्नों कॅरता है...जस्ट लाइक अ मोरोन।'' आलोक भट्टाचार्य ने उन्हें बुरी तरह झिड़क दिया।

रामगोबिन मास्टर राज्य कमेटी के सचिव से शिकायत करने लगे, ''मैं पहले ही कहता था, कामरेड सेक्रेटरी, कि यह आदमी हम सबको भंडसार में झोंकवा देगा। मैं मना कर रहा था कि इनको मीटिंग में बुलाने की जरूरत नहीं, लेकिन आपने एक मौका देना चाहा। अब आपको कैसा प्रमाण चाहिए पार्टी विरोधी गतिविधि का? देखिए इस आदमी को... कैसे बहस किये जा रहा है। जिसे पार्टी की नीतियों से कोई वास्ता नहीं, पार्टी के अनुशासन को मानना नहीं, सोचिए वह जनता के साथ क्या सलूक करेगा।'' उनके होंठ वक्र हो गये।

''क्रांतिकारी जी सिविल वार करना चाहते हैं...ग्रीह-जुद्ध चाहते हैं, अराजकता फैलाना चाहते हैं... एक ऐसे समय में जब देश आंतरिक और बाहरी दोनों संकटों का सामना कर रहा हो।'' लगा कि देश की बात आते ही वह फूट-फूटकर रो पड़ेंगे।

''बातें तो सबी टीक हैं।'' रक्तध्वज जी ने रोका उन्हें, ''कामरेड-अ उपाद्याय! गाँउ-जोआर के सबी गरीब आपके सात हैं? सारे मजदूरों को आपने राजनीतिक रूप से प्रशिक्छित कर लिया है? जनमत आपके पक्छ में है? इसके बिना आपका हतियारबंद दस्ता सिवाय दो-चार कून-कराबा के अउर कुच नईं कर पायेगा।'' उन्होंने कमलाकांत की ओर तर्जनी उठायी, ''यदि आप स्वस्त तरीके से आंदोलन का विकास चाहते हैं तो पार्टी-ई आपकी सहायता करेगी। हम आँक के बदले आँक पोड़ने में आपकी मदद नईं करेंगे।''

कमलाकांत समझाने की गरज से धीरे से बोले, ''कॉमरेड आपने मुझे गलत समझा। मैं आतंकवाद के द्वारा समाज में सनसनी पैदा करना नहीं चाहता। हथियारों से लैस मरजीवड़े दस्ते की बात मैं आत्मरक्षा के लिए कर रहा हूँ, शक्ति में संतुलन के लिए कर रहा हूँ।''

''वाह जी... वाह! हमीं को हथियारबंद दस्ते की उपयोगिता सिखाने लगे...'' रामगोबिन मास्टर ने ताना मारा, ''जजमान की लकड़ी, जजमान का घी और पंडित जी का केवल ओम नमो स्वाहा। हथियार उठाकर मजदूर मरते रहें और आपकी सरदारी चलती रहे।''

''मान लीजिए आपने जगतनारायण को मार दिया। कुच अउर जमींदारों को मार दिया। आपको न्यूनतम मजदूरी बी मिल गयी। तो क्या इसके बाद आपका आंदोलन टप्प पड़ जायेगा?''

''बहुत-सी बातें रास्ते में स्वयमेव तय हो जाती हैं। समस्या केवल न्यूनतम मजदूरी की ही नहीं है। हमारे समाज में सामंतशाही ने लोगों के दिल और दिमाग पर कब्जा कर लिया है। इस सामंती हेकड़ी को तोड़े बिना किसी बदलाव की आशा धोखा है। अस्सी बरस का पोपले मुँह वाला बाप भी नहीं चाहता कि उसका बेटा उससे सर उठाकर बात करे। निखट्टू मर्द भी नहीं चाहता कि उसकी बीवी बराबरी की व्यवहार करे। इस कठोर काँच को उससे भी कठोर हीरे से ही काटा जा सकता है।''

''काँच के लिए एक छोटा पत्थर काफी है, कमलाकांत जी!'' रामगोबिन मास्टर बेरुखी से बोले, ''और आप उसके लिए कठिनाई से मिलने वाला महँगा हीरा तलाश रहे हैं। अरे, ककड़ी के चोर के लिए लात-मुक्का ही काफी है।''

''पत्थर से काँच चकनाचूर किया जा सकता है, लेकिन उससे मनमाना आकार नहीं पाया जा सकता।'' कमलाकांत बोले, ''किसी चीज को चूर-चूर करना कोई भी समझदार पसंद नहीं करेगा।''

भूइलोटन को भी यह नीति कुछ अटपटी-सी लगी तो रक्तध्वज जी से बोले, ''कमरेड साहेब, आप का चाहते हैं? हम सिरिफ मार खाते रहें?''

''ना चुप रहबऽ...धोती से बाहर मत होखऽ...'' रामगोबिन मास्टर उनको चुप कराने लगे, ''ये सब गूढ़ बातें हैं, सिद्धांत की। तुम्हारी समझ में नहीं आयेंगी।''

''ई कइसन सिधांत है, मास्टर साहेब, जे गरीब मनई के जान चल जाय बाकिर ऊ पलटा जबाब ना दें?''

''इतने दिनों से समझाते आ रहा हूँ, लेकिन दिमाग की कोठरी खाली हो तब न! उसमें तो भेड़ की लेंड़ी भरी हुई है...ठीक ही कहा गया है, सार-तत्व समझे बिना कागा हंस ना होय।'' रामगोबिन मास्टर तुनक गये। भूइलोटन का पूछना उन्हें छोटी बुद्धि बड़ी बात लगी। ''अरे जोंक जब नून देने से ही मर जाय तो उसके लिए संखिया लाने की क्या दरकार है? जगतनारायण कोई बाघ थोड़े हैं जो मान में नहीं आयेंगे।''

''मुझसे तो शांतिपूर्ण हल नहीं निकल सका। मैं अपनी कमजोरी मान लेता हूँ... तो आप हैं। रक्तध्वज जी भी आ गये हैं, सत्यार्थी जी और चक्रधर जी भी हैं... सब लोग मिलकर कल जगतनारायण से बात कीजिए। न हो तो पंचायत ही बैठायी जाय। शायद कोई रास्ता निकल आये।'' कमलाकांत ने आत्मसमर्पण कर दिया।

''एँह...एँह, देखिए कॉमरेड सत्यार्थी! इस आदमी की चाल देखिए। हम सबको यह 'गजरा-मूरई' की तरह कटवाना चाहता है।'' रामगोबिन मास्टर की जाँघ की पेशियाँ फड़कने लगीं, ''जगतनारायण एक नंबर का हंड़िकस (एक प्रकार का गूंगा भूत जो चुपके से पकड़ लेता है) है...और अभी तो वह जैसे जोड़ खाते नाग-नागिन को कोई छेड़ दे, वैसे बौखलाया हुआ है।'' मास्टर साहब को लगा कि उनका डर जाहिर हुआ जाता है तो बात पलटने लगे, ''मुझे कोई भय नहीं। मैं चाहूँ तो अभी दंड-पंचायत बैठा दूँ...लेकिन रक्तध्वज जी, आलोक जी को लेकर सोचना पड़ जा रहा है। इनके साथ यदि कुछ ऊपर नीच हो गया तो...।''

''अइसा कतरनाक है वह?'' ख़ौफ़ के मारे रक्तध्वज जी भी घबड़ा गये।

''और क्या!'' रामगोबिन मास्टर कूटनीति का सहारा थामने लगे, ''हड़बड़ी का काम शैतान का होता है। मैंने पूरी प्लानिंग कर ली है कि कैसे उसको नाथा जायेगा। कल हम जैतपुरवा गाँव के महेन्दर प्रसाद सिंह के पास चलेंगे। वे हमारी पार्टी के मेम्बर हैं... खानदानी रईस जमींदार हैं, फिर भी हमारी दिल खोलकर मदद करते हैं। जैसे पागल हाथी को ऊँट कान चबाकर काबू में कर लेता है, वैसे ही जगतनारायण को महेन्दर बाबू सोझ करेंगे...।'' वह फुसफुसा पड़े, ''टैक्टिस चाहिए, कामरेड सत्यार्थी, टैक्टिस!''

''अरे, वही महेन्दर प्रसाद सिंह न, जो क्रांतिकारी गीत-वीत भी लिखते हैं?'' सत्यार्थी जी ने पूछा।

''हाँ-हाँ, वही। रईस होते हुए भी वे प्रगतिशील मिजाज के हैं।''

''उससे क्या हुआ। एंगेल्स भी तो पूंजीपति थे। यदि वे नहीं होते तो बेचारे मार्क्स को कितनी मुसीबत झेलनी पड़ती। तालस्ताय, इतने बड़े लेखक, जमींदार ही तो थे।'' सत्यार्थी जी ने बताया, ''...और हमारे ये रक्तध्वज जी...इनके चाचा का बंगलोर के पास स्टील का बर्तन बनाने वाला विशाल कारखाना है। ये भी वहीं पर मैनेजर थे, लेकिन मजदूरों का शोषण देखकर समूची सुख-सुविधा पर लात मारकर चले आये।''

''हमारा बाबा जखुन पूर्वो बांग्ला शे आया, हुआ सुन्दोर बाड़ी, केला गाँछ का एक ठो बागान, रुई माछ का एक ठो पुखुर, ताल गाँछ का एक ठो बागान छुड़ के आ गिया।'' आलोक भट्टाचार्य ने बताया, ''हमारा बैकग्राउंड भी तो जमींदार फेमिली का था, परांतू उशशे केया...। शॅब मायेर भोगे चले गेलो।''

''क्रांति के लिए जरूरी है, पहले कुद को डीक्लास करना।'' रक्तध्वज जी जैसे स्मृति के सागर में गोते लगाकर ऊपर उठते हुए बोले, ''कुद को डीक्लास करने के लिए मैं जब मजदूरों के सात रहने लगा तो मेरे अंकुल ने जानते हैं क्या ब्लेम-अ लगाया?... ब्लेम लगाया कि कारकाना हड़पने के लिए मैं मजदूरों को बड़का रहा हूँ।'' कहते-कहते वह अपना शरीर हिलाने लगे, जैसे बारिश में भीगा पक्षी परों को झाड़कर पानी उड़ाता है। इस तरह से शायद वह अपने चाचा का निराधार आरोप उड़ा रहे थे।

''महेन्दर प्रसाद खुद अपने मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी दे पाये हैं जो हमारी मदद करने चले।'' कमलाकांत भड़क गये, ''आप लोग उसी महेन्दर प्रसाद सिंह से मदद की आशा करते हैं, जो हमारी पार्टी का मेम्बर होते हुए भी अपने आचरण में घोर सामंती है। अपनी बीवी को छोड़कर वह एम.ए. पास एक लड़की को रखे हुए है। कभी उसे वह क्रांतिकारी कवयित्री बताता है, तो कभी अपने क्रांतिकारी गीतों की गायिका।''
''ओह कबूतरी का गीत हमहूँ सुने हैं।'' भूइलोटन गड़ेरिया बोले, ''गाती है तो लगता है कि सरपत के जंगल में बकरी मेंमिया रही है।''

रामगोबिन मास्टर को उनका भड़कना अच्छा लगा। वह चाहते थे कि कमलाकांत गुस्से में अपना आपा खो बैठे। ''आचरण में एक आप ही तो वैष्णव हैं, बाद बाकी सभी गणिका हैं आपके लेखे।'' मास्टर साहब निहायत ही ठंडी आवाज में बोले, ''महेन्दर प्रसाद हमारी सहायता नहीं करेंगे, तो न करें। हम मृतकों को मुआवजा दिलाने के लिए डी.एम. का घेराव करेंगे...। एकता रहे तो पचासों उपाय हैं।''

''यह हुई एक बात।'' चक्रधर जी ने समर्थन किया, ''घेराव के लिए पाँच सौ आदमी का जिम्मा मैं लेता हूँ।''

इधर लोगों के बीच कानापफूसी शुरू हो गयी।

...पार्टी ऐसी बातों को कभी पसंद नहीं करती...

...फिर भी कमलाकांत आज कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हैं...

...पहले तो यह ऐसे न थे...

...किसी ने बरगला तो नहीं दिया?

...नक्सलियों ने झाँसापट्टी पढ़ाई होगी...

...ये साले नक्सली अब इधर भी टाँग पसारने के फिराक में हैं...

'मैं किसी नक्सली-फक्सली को नहीं जानता, साथियो!'' कमलाकांत चिल्लाते ही रह गये, ''यहाँ की स्थितियों ने ऐसा कदम उठाने के लिए हमें बाध्य कर दिया है। हक के लिए तन-मन से जूझ पड़ना ही नक्सली कहलाना है तो आप लोगों की खुशी... जो चाहें, कहें...''

...ये नक्सली और क्या करेंगे? किसी को नहीं छोड़ते ये...ममहर में बहिन बिआहते हैं...कानाफूसी जारी थी।

लिट्टी पककर तैयार हो चली थी। फुलौना मल्लाह उसमें लगी राख झाड़ने के लिए कपड़ा खोज रहे थे। रामगोबिन मास्टर ने एक छोटी-सी गमछी दी तो फुलौना ने असमर्थता जतायी, ''ढेर सारी लिट्टियाँ हैं...गमछा से झाड़ने पर पूरी रात सिगर जायेगी।'' फिर भी उन्होंने गमछी फैलाकर देखी तो राम-राम करने लगे, ''हटाइए मास्टर साहेब... ले जाइए इसे... इसमें किसी ने नेटा पोंछ दिया है।'' और उन्होंने गमछी छान पर फेंक दी।



आग तापते-तापते या गर्मागर्म बहस के बीच कमलाकांत ने न जाने कब अपनी चादर उतार दी थी... उन्हें पता ही न चला। रामगोबिन मास्टर उसे फालतू पड़ा समझकर उठा ले गये और लगे उसी से लिट्टी झड़वाने।

चक्रधर जी ने सबको रोकते हुए कहा, ''यह बहस सारी रात भी चले तो खत्म नहीं होने की। समय काफ़ी हो चुका है। अब भोजन कर लेना चाहिए। कमलाकांत जी अभी उत्तेजित हैं। जरा नार्मल हो लें तो फिर बातें होंगी। इस इलाके में इन्होंने पार्टी के लिए जो किया है, उसे देखें तो अब भी काफ़ी उम्मीद है इनसे।''

भोजन की अकुलाहट अधिकांश लोगों के अंदर थी। कहने भर की देर थी कि वे लोग खरखरा कर उठ गये। केवल तीन-चार लोग बैठे रहे।

रामगोबिन मास्टर ने भूइलोटन से पूछा, ''का हो, तू ना खइबऽका?''

''इच्छा नहीं है, मास्टर, साहेब!''

''तो चलो, परोसो...मेहमानों को खिलाओ।'' मास्टर साहब ने उनकी काँख में हाथ लगाकर उठा दिया, ''चलो भाई!''

मद्धिम जादव भी पीछे रह जाने वालों में थे। मास्टर साहब बड़े प्रेम से बोले, ''चलिए मद्धिम भाई। यह कैसी बात है? इतने प्रेम से आपने लिट्टी बनायी और अब बैठ गये।''

''मेरा भी मन नहीं है। मैं खाकर आया हूँ।''

''उससे क्या! अघाया भैंसा भी तीन कट्ठा चरता है। ठीक है, बाद में खा लीजिएगा। अभी चलकर परोसिए तो...''

वह कमलाकांत से मनुहार करने लगे, ''आप तो खाने बैठिए ही।''

''ब्रह्मभोज में किसी अश्रोत्रिय को खिलाया गया अन्न अकारथ जाता है, मास्टर साहब!'' कमलाकांत कुढ़कर आनाकानी करने लगे, ''यह सब अच्छा नहीं लगता मुझे।''

ऐसा नहीं कि रामगोबिन मास्टर ने व्यंग्य न समझा हो, लेकिन उनका मानना था कि भोजन के लिए कुत्ते को भी पुचकारकर बोलना चाहिए। यह तो फिर भी अपने साथी हैं। ''अच्छा किसे लगता है!'' न चाहते हुए भी उन्होंने एक स्वर में स्वर मिलाया, ''लेकिन क्या किया जाय? कोयल अंडे फोड़ देती है और उन्हीं से अपना बच्चा भी पलवा लेती है, तो क्या कौआ फिर से अंडे देना बंद कर देता है? या चारा चुगना छोड़ देता है? आपके या मुझे नहीं खाने से जो चले गये, वो तो आने से रहे। चलिए दो-चार कौर ही खा लीजिए।''

कॉमरेड रक्तध्वज ने भी उनका कंधा थपथपाया, ''आप मेरे सात बइटिए।'' और उन्हें लगभग खींचते हुए वे पंगत तक ले चले।

लोग आसन रोपकर बैठ गये थे। चीजें परोसी जा रही थीं... शुद्ध घी में चभोरी लिट्टियों की सोंधी महक...कोल्हू के पेरे सरसों के तेल में सना आलू और बैंगन का मसालेदार चोखा...भुने धनिया और जीरे की बुकनी डली टमाटर की खटमीठी चटनी...प्याज-गाजर-मूली-धनिया पत्ता का सलाद, जिस पर गोलमिर्च और काले नमक का चूर्ण तथा ईख का सिरका छिड़का गया था...

...भूख ऐसी बढ़ आयी कि लिट्टियों की कुटम्मस होने लगी।

रक्तध्वज जी कमलाकांत को साथ लिये अलाव की ऐन बगल में बैठे। कुछ देर बाद उनको गरमी लगने लगी। उन्होंने कोट उतार दिया और मोड़कर उसे घुटनों पर रखने ही वाले थे कि रामगोबिन मास्टर खातिरदारी में लपके, ''भूइलोटन भाई, कोटवा टाँग दो कहीं। मोड़ के रखने से घूर्ची पड़ जायेगी।''

भूइलोटन गड़ेरिया ने आगे बढ़कर कोट उठा लिया। उसे सहलाते हुए वह बड़ाई करने लगे, ''अजब सरकस बनवैया हैं रूस के लोग!''

मास्टर साहब ने मीठी चुटकी ली, ''तुम तो ऐसे सुहरा रहे हो, मानो सुगनी की माई (भूइलोटन की पत्नी) की जुलुफी हो।''

भूइलोटन लजा गये। कोट को वह बरामदे की खूँटी पर जतन से टाँग आये। अब रक्तध्वज जी से बतरस करने लगे, ''ई कोटवा ओही रूस के नु है, कमरेड साहेब, जहँवा से गोबरचन जी आये थे?''

रामगोबिन मास्टर रक्तध्वज जी को लिट्टी खाना सिखला रहे थे, ''ऐसे नहीं, कामरेड! लिट्टी को दबाकर फोड़िए... हाँ, ऐसे...दो टुकड़ों में...अब सत्तू वाला हिस्सा ऊपर कीजिए-अब लीजिए...'' उन्होंने सत्तू के ऊपर पैरी (लोहे या काठ की बड़ी करछी, जिसकी डंडी लंबवत रहती है) से गर्म-गर्म घी ढालना शुरू किया, ''अब खाइए...।''

''कौन गोबरचन?'' रक्तध्वज जी का सिर ऊपर उठा। झटके से। हालाँकि लिट्टी फोड़ने में वह माहिर हो चले थे, लेकिन दूसरी लिट्टी को दबाया ही था कि वह क्रिकेट की गेंद की तरह लुढ़कने लगी।

चक्कर काटते एक कुत्ते को मौका मिला और लिट्टी को दाँतों से दबाकर ले भागा।

''इन बिहारियों को जिन्दगी-भर हिन्दी बोलना नहीं आयेगा। श्रद्धेय लोगों का नाम भी ऐसा बिगाड़ देंगे!''

रामगोबिन मास्टर रोष में बोले, जैसे वह खुद बिहार के न होकर चिकमंगलूर के रहने वाले हों। लिट्टी छिटकने पर दुःख प्रकट करते हुए उन्होंने 'गोबरचन' शब्द को क्लियर किया, ''गोर्बाच्योव के बारे में कह रहे हैं, भूइलोटन। इनकी बेवकूफियों से मैं आजिज आ गया हूँ। कितना सिखाया 'मार्क्स' कहने को लेकिन यह 'मार-कस' से आगे नहीं बढ़ पाये।''

''नामों का अच्चा स्वदेशीकरन है!'' रक्तध्वज जी हँस पड़े।

उनके हँसते ही पार्टी अनुशासन की अच्छी मिसाल पेश करते हुए कुछ और लोग भी हँस पड़े। मजबूरी में रामगोबिन मास्टर को भी भभाकर हँसना पड़ा।

रूस का नाम उठा तो रक्तध्वज जी के अंदर कुछ गुरूर-सा खिला उनकी पाँचों उँगलियाँ घी से चिकनी हो रही थीं और रूस की स्मृतियाँ इस गुरूर से सुगंधित हो उठीं, ''रूस की ही बात लें, कामरेड-अ उपाद्याय! क्रांति वहाँ अनिवार्य हो गयी ती। वह अइसा वक्त ता, यदि क्रांति नईं होती तो लोगों का बचना मुहाल ता। कोई बी चीज समय पर होती है, जब बदलाव की सारी परिस्थितियाँ उसके गर्ब में आकार दारन कर लेती है। चीन में बी वइसा समय आ गया ता। वहाँ की हालत इतनी कराब ती कि अन्न के बदले अच्चे घरों की स्त्रियाँ अपनी देह बेचने लगी तीं। रोटी के केवल एक टुकड़े के लिए। यह सब कहने का मतलब है कि बारत में अइसी कराब स्तिति आने बी नईं देगा। कमलाकांत जी, एक बात याद रकें, उतावली में कोई काम नईं करना चाहिए। आपके बारे में मैंने सुना है। आपने दीरे-दीरे ही यहाँ के लोगों को एकजुट किया है। अब सई वक्त का इंतजार कीजिए, वक्त आते ही चोट कीजिए... सफलता जरूर मिलेगी।''

...जरा सलाद...

...लिट्टी एक इधर...

लोग चटखारे ले-लेकर खा रहे थे।

कमलाकांत का दिल बुझ-सा गया था। क्षुब्ध मन से वह कौर तोड़ते जा रहे थे। खाने का दिखावा करते हुए।

भोजन एकदम बेस्वाद लग रहा था, जैसे उन मजदूरों के श्राद्ध का अन्न खा रहे हों। आलोक भट्टाचार्य लिट्टी की खूब बड़ाई कर थे, ''बाह! केया जिनिश है लिट्टी! शच में प्रॅतेक प्राभिन्स का खाना में अलादा-अलादा मॅजा लागता है...डिसेंट एंड भिभिड टैस्ट!''

मद्धिम जादव ने इसे अपने लिए समझा। थोड़ी देर के लिए अपनी पाक कला पर आत्ममुग्ध-से हो गये। हालाँकि आलोक जी को यह पता नहीं था कि लिट्टी किसने बनायी है। वह मनुहार करने लगे, ''लेकिन खा कहाँ रहे हैं? कभी की परसी दूनो लिट्टिया में से खाली आधा खाँड़ा खाये हैं... और लीजिए ना।''

''दाँत में थोड़ा तोकलीफ है।''

''अरे, तब तो घी में फुलाकर खाइए।'' रामगोबिन मास्टर घी की कटोरी और पैरी लिए लपके, ''बंगाल का रसगुल्ला जैसा न हो जाये तो फिर कहिएगा।''

रक्तध्वज जी को मजाक सूझा, ''मचली के बिना इनका काम नईं चलता। एक बार गुजरात गये ते। वहाँ 'मांच-बात' के लिए बड़ा परेशान हुए।''

''ओफ्फोह! जानता तो फुलौना मल्लाह से मछली मंगवा लेता।'' मास्टर साहब बोले।

''अउर आप भी तो 'रसम्‌' खुजता था।'' आलोक जी ने भी इसका जवाब ठिठोली में दिया, ''साउथ इंडियन डिश नेंही माँगता था आप?''

भूइलोटन गड़ेरिया ने आलोक जी के पत्तल में बिना माँगे चोखा डालते हुए बंगला बोलने की कोशिश की, ''कामरेड दादा! इतना गँवे-गँवे खाबेन तऽ कबहूँ ना ओराबे... पलथी मारके बइठुन ना, आराम से। पैजामा का फीता तनी नीचे सरका दिन। पेट तबे से अउँसा गइल होबे।'' रामगोबिन मास्टर के चलते बंगला की कुछ क्रियाओं से उनका भी परिचय हो चला था। कलकत्ता प्रवास के ललित संस्मरण सुनाते-सुनाते वह भूइलोटन से बंगला में ही बतियाते जाते थे। वैसे भी भूइलोटन में जिज्ञासा का सहज संस्कार था।

आलोक जी हँस दिये, पता नहीं अपने बैठने के ढंग पर या उनकी बंगला पर।

रक्तध्वज जी ने कमलाकांत के कान के पास मुँह ले जाते हुए हौले से कहा, ''कामरेड-अ उपाद्याय! आप गबराते क्यों हैं? मैं यहाँ से जाते ही मुख्यमंत्री से मिलूँगा। देकिए न, मैं अइसा उपाय आजमाना चाहता हूँ कि साँप बी मर जाये अउर लाटी बी न टूटे।''

कमलाकांत के पूरे शरीर में आग लग गयी जैसे। मुँह में कौर रखे हुए ही वह ऊँट की तरह गलगलाने लगे, ''क्यों मजाक कर रहे हैं, कॉमरेड? मुख्यमंत्री किसके हैं? वह गरीबों की तरफ कब से हो गये?''

राज्य कमेटी के सचिव सत्यार्थी जी ने जड़ दिया, ''तभी तो मैं जोर देता हूँ कॉमरेड, कि जनता को राजनीतिक रूप से सचेत किया जाय। तभी तो वे अपने पक्ष के प्रतिनिधि चुन सकेंगे। तब कोई असंभव नहीं कि बंगाल की तरह, केराला की तरह एक दिन बिहार के मुख्यमंत्री भी हमारे हो जायें।''

''मैं भी पहले इस मुगालते में था, कॉमरेड सेक्रेटरी! लेकिन अब लग रहा है कि दर्जन-भर से अधिक प्रांतों में बंगाल की तरह मुख्यमंत्री हो जायें, तब भी वे कुछ कर नहीं पायेंगे।'' कमलाकांत ने पानी के घूँट से कौर निगल लिया था, ''उन्हें वर्तमान संसदीय व्यवस्था की कार्यप्रणाली के अनुसार चलना पड़ेगा। इस व्यवस्था में इतने बड़े-बड़े खाँचे हैं, जिसमें उनके नुकीले दाँते भी गच से फँस जायेंगे। इस व्यवस्था के साथ उनका चेन और व्हील का संबंध बन जाता है...चेन सरकता रहता है, व्हील घूमती रहती है। अपनी धुरी पर स्थिर। वैसे भी मसल है कि बूढ़ी घोड़ी को लाल लगाम लगा देने से चाल नहीं बदल जाती।''

...मद्धिम भाई, जरा चोखा...

...मास्टर साहेब, तनिक घी ढालिए तो...

...अरे-रे, हाथ बार लिया... कम से-कम एक और लीजिए...

...चप-चप...चपर-चप...
मांगने-खाने-मनुहार करने के स्वर आपस में घुलमिल रहे थे। कमलाकांत को लग रहा था कि वही लोमड़ी अपने दल-बल सहित इस भोज में भी आ बिराजी है।

''नो कॉमरेड! इट इज अंडरएस्टिमेशन ऑफ अवर एचीभमेंट।'' आलोक जी ने प्रतिवाद किया, क्योंकि बंगाल की मिसाल आते ही वह उस बहू की तरह खुश हो गये, जो बगैर दहेज के आयी हो, फिर भी सास ने उसके मायके की बड़ाई कर दी हो। वह अंगरेजी में टिप्पणी करने लगे, जिसका अर्थ था कि चुनाव भी एक तरह का वर्गसंघर्ष है, मजदूर वर्ग के प्रतिनिधि को सत्ता सौंपने का संघर्ष। हम इसमें सफल भी होते जा रहे हैं, क्योंकि इसमें हमें तेजी से बढ़ रहे मध्यवर्ग का भी साथ मिलता जा रहा है, जबकि सशस्त्र संघर्ष में मध्यवर्ग तनिक भी दिलचस्पी नहीं दिखाता।

तभी से जुमलेबाजी सुनते-सुनते और बोलते-बोलते कमलाकांत का अक्खड़ मन ऊबने लगा था। उन्होंने बिफरकर कहा, ''सच कहूँ तो आप लोगों का व्यवस्था-विरोध उस वेश्या के गुस्से की तरह है, कॉमरेड, जो तभी तक गुस्से में रहती है, जब तक उसे पूरे नजराने नहीं मिल जाते। फिर तो वह अपने को ऐसा परोसती है...ऐसा परोसती है...कि अब क्या कहूँ?'' उन्होंने दाँत से जीभ काट ली, ''वेश्या तो फिर भी हमारी एक मजबूर बहन ही है।''

''सच डिक्शन इज रादर ऑब्जेक्शनेब्‌ल...'' कॉमरेड आलोक भट्टाचार्य ने कसकर डाँटा। वह अभी चीख-चीखकर कुछ कहने ही वाले थे कि रक्तध्वज जी ने उन्हें इशारों से मना कर दिया। कमलाकांत की यह शैली वाकई बुरी लगी उन्हें भी, लेकिन राजनीति में उन्हें अनगिनत अवसरों पर इससे भी ज्यादा कड़े शब्दों, प्रतिवादों, आक्षेपों, आपत्तियों, तर्कों आदि का सामना करना पड़ा है। अंत में उन्हें अपने ज्ञान और अनुभव का सहारा ही लेना पड़ता है। कुतर्क करने वालों को भी वह अपने अकाट्य तर्कों से ही परास्त करते आये हैं। यदि अगले का उद्देश्य आपको विचलित करने का है और आप उसकी किसी दलील पर तिलमिला गये तो आपकी वैचारिक कमजोरी ही प्रकट होगी। रक्तध्वज जी ने भीतरी तिलमिलाहट को दबाकर एकदम जैसे कुछ हुआ ही न हो वैसे कहा, ''सशस्त्र संघर्ष बी एक तरीका होता है बदलाव का। लेकिन ऐसे संघर्ष से स्वस्त जन आंदोलन को बहुत दक्का पहुँचता है। मान लीजिए किसी जमींदार या पूंजीपति या टाइरेंट रूलर के किलाप जन आंदोलन चिड़ा हुआ है। इसी बीच उसकी हत्या कर दी जाती है तो वह जन आंदोलन वईं एकाएक रुक जाता है। जनता की लड़ाई एक व्यक्ति पर आकर टहर जाती है। यह किसी 'न्यूक्लियर एक्स-प्लोजन' की तरह अचानक होता है। इसके बाद का समूचा माहौल 'शॉक वेव' की चपेट में आकर दूलिसात हो जाता है।''

...तनिक चटनी...इनको...हाँ, इधर भी...

...पानी...जियावन जी...जरा-सा पानी...

...नहीं, अब लिट्टी नहीं...पेट फूल चला है...अब सिर्फ़ पानी...

खाना लगभग पूरा हो चला था। फिर भी कुछ लोग 'मनु भाव न जाने पेट भरने से काम' की तर्ज पर मिचरा-मिचरा कर टूंग रहे थे। कोई दाँत खोद रहा था तो कोई हाथ में लगे घी से मूँछें चिकना रहा था। कुछ लोग स्वादिष्ट भोजन के साथ-साथ पार्टी के वरिष्ठ लोगों की गरिष्ठ बातें भी सुन रहे थे।

''वह उदाहरण तो आपने सुना होगा...'' रक्तध्वज जी पत्तल से एक तिनका नोचकर दाँत खोदते हुए बोले, ''एक चोटे बच्चे ने सुबह-सुबह गुलाब का पौदा रोपा। उसे उम्मीद ती कि दोपहर तक उसमें पूल आ जायेंगे। पौदे में वह कूब काद-पानी डाल गया। हर तोड़ी देर बाद वह उसे जाँक लेता ता कि पूल किले या नईं। लेकिन पूल को नईं किलना ता तो नईं किला, दोपहर होते-होते चोटा बच्चा इतना जल्लाया कि उसने पौदे को ही उकाड़ पेंका। हमारे कुच बचकाने सातियों में क्रांति के प्रति कुच अइसी ही जल्दबाजी दीक रही है। मुजे तो शक है, वे कांग्रेस के ही एजेंट-अ हैं।''

''ए मद्धिम!'' अपनी आदत से लाचार भूइलोटन गड़ेरिया से रहा न गया, ''अरे ई चीन मुलुक के लहसून जी का कहानी है हो। तबकी पहिली मई के मास्टर साहेब सुनाये रहे।''

रामगोबिन मास्टर को इस बार नामों का बिगड़ना बुरा नहीं लगा। बल्कि वह प्रमुदित होकर बोले, ''यही कहानी मैंने पहली मई को सुनायी थी, कॉमरेड! इन लोगों को पोलिटिकली डेभलप करने के लिए मैं अकसर कुछ न कुछ सुनाता रहता हूँ।'' हठात वे 'यूरेका' की तर्ज पर बोल उठे, ''समझ गया...पहली मई की याद आयी तो आपके नाम का मरम समझ गया। उसी दिन मजदूरों के खून से सनी कमीज का झंडा बना था...

रक्तध्वज!''
''अघ... वई कून का द्वज।'' रक्तध्वज जी मुस्कराते हुए सिर हिला रहे थे।

रामगोबिन मास्टर ने उनके पास जाकर पूछा, ''जो आपने सुनायी, वह लु-शून की ही कहानी है न?''

''शायद यह वईं की एक लोक-कता है।'' उन्होंने अनिश्चय की स्थिति में बताया।

कौओं की जमात में उल्लू की दशा हो, वहाँ कमलाकांत उपाध्याय की वही दशा हो रही थी। 'मुझे उल्लू ही तो बनाया जा रहा है।' -उन्होंने सोचा। कुछ देर तक चुप रहने के बाद, माहौल को तोलने के बाद वह बोले, ''बहुत अच्छा दृष्टांत है। प्रसंगवश मुझे भी एक बोध कथा याद आ रही है, कॉमरेड रक्तध्वज!''

रक्तध्वज जी को खुशी हुई कि कमलाकांत उनकी बातों को समझने की कोशिश कर रहे हैं। यह आदमी भी क्या करे- उन्होंने सोचा- आश्चर्य की बात है बिहार के ये हिंसक व्यक्ति हिंसा से अलग कोई भाषा ही नहीं समझते और अब तो पूरे देश में हिंसा का ही दौर चल पड़ा है। उन्होंने जिज्ञासु होकर हाथ हिलाया, ''अवश्य सुनाइए। इन कताओं में विशाल अनुबव के सार चिपे रहते हैं।'' दरअसल, उन्हें अपने ही विशाल अनुभवों पर भरोसा हुआ कि उनके तर्कों का प्रभाव कमलाकांत जैसे अड़ियल के ऊपर भी पड़ने लगा है।

''पंचतंत्र की कहानी है।'' कमलाकांत के अंदर विषण्णता की तेज हँसी फूटने को हो आयी, लेकिन होंठों को धीरे-धीरे खोलते हुए उन्होंने कहा, ''तीक्ष्णविषाण नाम का एक सांड था। हमेशा झुंड से अलग चलने वाला और अक्खड़। एक दिन प्रलोभन नाम का एक सियार उसके लटकते हुए लाल अंडकोष को देखकर सोचने लगा, 'सांड की जंघाओं के बीच यह कितना सुंदर और सुडौल फल लटका हुआ है। पक जाने से यह टह-टह लाल भी हो चला है...लगता है, अब गिरे-तब गिरे।' वह उसके पीछे लग गया। उसने निरंतर कई वर्षों तक उसका पीछा किया, लेकिन वह फल नहीं गिरा। क्या हमारे कुछ साथी वर्तमान संसदवाद के प्रति कुछ ऐसी ही आशा लगाये नहीं बैठे हैं? संसद के दोनों सदन के बीच लटकता हुआ फल। पता नहीं अभी और कितने दिनों तक उसकी तरफ टकटकी लगाये रखनी पड़ेगी।'' मायूसी में उनकी ठंडी साँस निकल गयी।

अचानक वहाँ खड़मंडल हो गया। चक्रधर जी क्रुद्ध सांड की तरह ही हुँकारने लगे, ''यह सरासर अनुशासनहीनता है। किसी को अपमानित करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। आप एकदम उजड्ड हैं, अक्खड़ हैं। आपको बात करने की तमीज नहीं है। आपकी समझ बड़ी विध्वंसक है।'' रामगोबिन मास्टर उनके खिलाफ मौके की ताक में रहते ही थे। वह भी तारस्वर में गगन गुंजाने लगे, ''आपने इस इलाके में लुच्चे-लफंगों की जरा-सी फौज खड़ी कर ली तो अपने को तीसमार खाँ समझने लगे हैं? आपके बल पर इतनी बड़ी पार्टी नहीं चलती... समझे? रक्तध्वज जी को मैं जानता हूँ। इन्होंने दुनिया देखी है, कई जगह आंदोलन चलाया है। और आप? आप बंगला पर की मोदियाइन की चाह दुकान को छोड़कर जानते भी हैं कि दुनिया कितनी बड़ी है? आप क्या हैं? आप ईनार का बेंग हैं... आप गूलर का कीड़ा हैं...आप 'अलमुनिया' का तसला हैं, जी...तसलाऽऽ...पेंदा में आँच लगते ही गरम हो जायेंगे, जमीन पर रखते ही ठंडा।'' गुस्सा आ जाने पर मास्टर साहब अनगिन कवित्त और लोकोक्तियाँ सुनाने लगते थे। उन्होंने वही रूप पकड़ लिया, ''आप बड़ा दिसकूट (दृष्टकूट) झाड़ने चले हैं? शर्म नहीं आती, किससे बात कर रहे हैं! इसी को कहते हैं...महुआ नित उठि दाख सो, करत बतकही जाय।''

किसी को माहौल के इतना बिगड़ जाने का अंदाजा न था। अपनी-अपनी तरह से नाराजी जाहिर करते हुए लोग टिड्डी दल की तरह उठ गये। अब तक तो वह ठस-ठस जवाब देते आ रहे थे, लेकिन जब चारों ओर से व्यंग्य-बाणों की बौछार होने लगी तो कमलाकांत की सारी बुकराती गुम हो गयी। अब सिर झुकाये काठ की मूरत की तरह निष्कंप बैठे रहे।

''ऐसे तपाकी के साथ किसी निर्णय पर पहुँचना असंभव है।'' सत्यार्थी जी एक कोने में फुसफुसाकर सबसे हट जाने की सलाह देने लगे, ''अब इनसे बात करना अपना दिमाग़ खराब करना है। कल फिर कहीं बैठा जायेगा। हम खुद तय करेंगे कि क्या करना चाहिए। कहाँ इनको राज्य कमेटी में लेने की बात चल रही थी, लेकिन इन पर इस इलाके का भार देकर हमने आदमी समझने में सचमुच भूल कर दी।''

''मैं तो पहले ही कहता था, कॉमरेड सेक्रेटरी, कि यह आदमी सबको भंडसार में झोंकवा देगा।'' रामगोबिन मास्टर को खुशी इस बात पर थी कि उनका कहा होकर रहा। ''इसने मीटिंग की गरिमा और गंभीरता धूल में मिला दी। पूंजीवदिया सब क्या कहेंगे कि ये कम्युनिस्ट अपनी मीटिंग में पियक्कड़ों की तरह लड़ते हैं।''

''यह आदमी कम्युनिस्ट तो कहीं से नहीं लगता। कम्युनिस्ट मूवमेंट में इनको जरा-सा भी फ़ेथ नहीं है।'' चक्रधर जी ने लोगों को आगाह किया, ''अभी मीटिंग शुरू होने के पहले ये हजरत मार्क्स में ही खोट निकाल रहे थे। ही इज एन एजेंट ऑफ़ नक्सलाइट्स।''

लोग कमलाकांत को शक की निगाह से देखने लगे। वे यूँ खिसकने लगे जैसे उनकी छाया से बचना चाहते हों।

...लेकिन रक्तध्वज जी समाधिस्थ-सा बैठे रहे... कई बार पुकारे जाने के बावजूद। चोट उनके मर्म पर लगी थी, शायद।

कमलाकांत एक अजीब-सी बेचारगी की मुद्रा में आलोक भट्टाचार्य की दी हुई चारमीनार सिगरेट पीने लगे... शायद इस पराजय को धुआँ-धुआँ करने के लिए धुएँ का कवच बनाते हुए वह शून्य में ताक रहे थे। उनकी चेतना उस धुएँ के समान एक खास ऊँचाई तय करते हुए छितरा जा रही थी। उन्हें सिगरेट को दी गयी किसी विद्वान की परिभाषा याद आ गयी- सिगरेट उसे कहते हैं, जिसके एक सिरे पर आग होती है और दूसरे सिरे पर कोई मूर्ख। तो क्या वह मूर्खता कर रहे हैं? उस आग को अपनी चेतना और आचरण में खींचकर, जिसे क्रांति की ज्वाला कहते हैं। आज जिस आग को पीने के लिए वह कटिबद्ध हैं, इसके लिए माचिस की कितनी तीलियाँ घिसनी पड़ी थीं, ऐसे ओदे मौसम में... अनगिनत, बेहिसाब। गाँव के इन नंगे-भूखों को गोलबंद करना असाध्य-सा काम था, मेढक को तराजू के खुले पलड़ों पर तोलने जैसा। राजनीतिक पाठ का ककहरा सिखाना, डकैती-जुआ-शराब जैसे कुटेव छुड़वाना, गुप्त तरीकों से दस-दस, पाँच-पाँच आदमियों को किसी झोपड़ी में बैठाकर ढिबरी की रोशनी में पतली-पतली पुस्तिकाओं का बाँचना, कथा-कहानियों के माध्यम से जीवन के अलिखित रहस्यों को समझाना, एक नयी आशा का संचार करना...इसमें कितना घासलेट जला होगा, कितना वक़्त और कितना खून, कमलाकांत के पास कोई हिसाब नहीं। इतने दिनों का किया-कराया क्या एक धक्के से ही खत्म हो जायेगा? इसी के लिए उन्होंने अपना जीवन होम कर दिया।

राजनीति तो उन्होंने चक्रधर जी के साथ ही शुरू की थी। वही चक्रधर जिनके पास तन ढँकने के साबुत कपड़े तक नहीं थे... नहाते वक़्त धोती भीग जाती थी तो कमलाकांत की ही धोती पहनकर बाहर निकलते थे...और आज वह कहाँ पहुँच गये! जिला कमेटी के सचिव बनाये गये, जब से नगरपालिका की यूनियन करने लगे हैं, तब से न सिर्फ़ देह पर चर्बी चढ़ गयी, बल्कि शहर में मकान भी बनवा लिया, मटका-तसर ही पहनने लगे हैं, कॉन्फ्रेंस अटेंड करने लगे हैं। नहीं-नहीं! कमलाकांत का यह लक्ष्य कभी नहीं रहा। कुत्ते के कान से सटी चमजूई की तरह सत्ता से चिपक जाना चाहिए या जनता को जन-संघर्षों के माध्यम से एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए तैयार करना चाहिए?- उनके सामने बड़ा प्रश्न था कि वह क्या करें? पार्टी के इस टरकाऊ रवैये में वह भी शामिल हो जायें... लेकिन इससे तो पीड़ितों के बीच पस्तहिम्मती ही बढ़ेगी... अपने-आप फैसला लिया उन्होंने- मार्क्सवादी कर्मकांडियों की संघर्ष और क्रांति की किताबी व्याख्याओं के मकड़जाल से उन्हें बाहर निकलना ही होगा।

बाकी लोग जैसे 'फ़ेड आउट' हो गये थे, निरपेक्ष हो गये थे। सापेक्ष थे तो आपस में केवल वही दोनों- रक्तध्वज और कमलाकांत। दोनों की सोच में डूबी हुई आँखें मिलीं...चारों आँखों में कसक थी, असहायता के भाव थे। कमलाकांत धीरे से बोले, ''कॉमरेड मैं समझता था कि कम्युनिस्ट इतने भावुक नहीं होते... लेकिन...'' उन्होंने आँखें घुमा लीं।

रक्तध्वज जी के अंदर ग़जब की तितिक्षा थी। बहरहाल, वह एक कम्युनिस्ट इंसान थे। उन्होंने किसी ईसाई संत की तरह कमलाकांत की पीठ पर हाथ रखा, ''कॉमरेड-अ मतवेदों का मैंने कबी बी बुरा नईं माना है। मैंने हमेशा से कुले विचारों का स्वागत किया है।'' हठात उनके स्वर में बदलाव आ गया, खट्टी डकारें ले रहे हों जैसे, ''संसदीय पद्दति को आप पसंद नईं करते...चलिए मैं बी नईं करता... लेकिन मैं पूचता हूँ, यदि जनता आपको ही चुन दे तो आप क्या करेंगे? चुनौती से मुँह मोड़ लेंगे या...?''

''जनता हमें चुन कब पाती है, कॉमरेड?'' कमलाकांत के होंठों पर एक तिक्त मुसकान आ गयी, ''हाँ, चुनाव जीतने के लिए यदि हम भी उन्हीं चौरासी आसनों और चौंसठ कलाओं का सहारा लें तो बात अलग है।''

''साम्यवादी क्रांति के पहले जनवादी पड़ाव को पार करना ही होगा, कॉमरेड-अ उपाद्याय! आप बुनियादी बूल कर रहे हैं। इसके लिए जनता को इसी जनतंत्र में बागीदारी लेनी होगी। चुनने अउर मत व्यक्त करने की जो आजादी मिली हुई है। उसे बी चोड़ देने पर तो वर्गशत्रुओं को अउर सुविदा हो जायेगी।'' अब भी दुर्धर्ष चट्टान की तरह दीख रहे थे कॉमरेड रक्तध्वज।

''सतमासे बच्चे की तरह अविकसित भारतीय जनतंत्र में हमें जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मिली हुई है, उसका वर्गहित में इस्तेमाल करना मैं भी पसंद करता हूँ। लेकिन व्यूह के भीतर घुसपैठ के साथ-साथ बाहर से भी आक्रमण करना पड़ेगा। बाहरी और भीतरी आक्रमण के बीच एक तालमेल होना चाहिए। अगर सिर्फ़ चुनाव तक ही अपने को समेट लें तो जनतंत्र में चुनने और मत व्यक्त करने के लिए जिस सामाजिक विवेक की जरूरत पड़ती है, उसे हम खो देंगे।'' कमलाकांत बिना किसी हिचक के अपनी बात रखते जा रहे थे ''...यह सामाजिक विवेक जनसंघर्षों के लम्बे अनुभव से ही अर्जित किया जा सकता है। मैं उनमें भी इस विवेक का अभाव देखता हूँ, जिनका दावा है कि उन्होंने हमें सभ्य बनाया, प्रजातंत्र का शऊर सिखाया। जी हाँ, कॉमरेड! उसी ब्रिटेन के एक चुनाव के बारे में मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार कावेंट गार्डन की सीट से कोई चार्ल्स फॉक्ट चुनाव लड़ रहे थे। उनकी एक जवान और खूबसूरत दोस्त जो शायद डेवन शायर की डचेस थी, ने उनको जिताने का एक उपाय सोचा। उसने प्रचार किया कि चार्ल्स को वोट देने वाले हर मतदाता को वह अपना चुंबन देगी। फिर तो ब्रिटेन की सबसे सुंदर डचेस का चुंबन पाने के लिए मतदाताओं में चार्ल्स को वोट देने की होड़ लग गयी। इससे घबराकर विरोधी पक्ष वाले मतदान केन्द्र पर 'लेडी सेल्सबरी' को ले आये, लेकिन लेडी सेल्सबरी सुंदरता में डचेस से एक कदम पीछे थीं, इसलिए जीत अधिक सुंदरता की हुई। अब यदि फोटो देखकर छाप मारने वाली भारतीय जनता मदारियों, भांडों और बहुरूपियों के झाँसे में आ जाती है तो क्या दोष?''

रक्तध्वज जी की एक घुटी-सी कराह निकल गयी। उन्होंने एक ठंडी साँस ली और नपे-तुले शब्दों में बोले, ''कॉमरेड-अ कमलाकांत, आपको जवाब देने की स्थिति में कुद को नईं पा रहा हूँ, न मैं यई कह सकता हूँ कि बारतीय जनता के विक्छोब को कउन-सी पार्टी-ई लीड-अ कर ले जायेगी। वह कोई चोटी-सी बी पार्टी-ई हो सकती है या कई पार्टी के संगटन से बनी कोई बड़ी पार्टी-ई बी। कैर, आपके संतोष के लिए इतना बता दूँ कि सचमुच यदि जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हतियार आ जायेगा।'' अपने को संयत रखने की तमाम कोशिशों के बावजूद रक्तध्वज जी के शरीर में कँपकँपाहट थी, वाणी में निढालपना था, चेहरे पर दुविधा थी। वह चादर से अपने शरीर को बार-बार ढँकते हुए जम्हाइयाँ लेने लगे, ''अब चला जाय।''

''हाँ-हाँ, जाइए, कल से आपको बिहार का अध्ययन भी करना है न! खूब मोटी थीसिस लिखिएगा।'' व्यंग्य से कमलाकांत का चेहरा लम्बोतरा हो गया, ''बिहार प्रांत भी अजीब है, कॉमरेड! राजनीतिज्ञों को यह हरे-भरे चरागाह की तरह आकृष्ट करता है। इतना ही नहीं, लेखकों-कवियों-बुद्धिजीवियों को यहाँ का यथार्थ परीकथाओं की तरह आकृष्ट करता है। जलती हुई शमा के इर्द-गिर्द टूटते पतंगों की तरह सभी खिंचे आते हैं यहाँ, लेकिन अभागे बिहार की नियति को बदलने का समय आता है तो सब शिखंडी बनकर ताकने लगते हैं, दूसरों के द्वारा तीर चलाने की प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं सब।''

रक्तध्वज जी के केवल होंठ फड़फड़ाकर रह गये। किसी अल्हड़ युवती के दुपट्टे की तरह उनकी चादर बार-बार सरकी जा रही थी। उसे किसी तरह संभालते हुए वह सोने वाली कोठरी में घुस पड़े।



कमलाकांत अब वहाँ किसलिए ठहरते। खड़े होकर उन्होंने एक लंबी जम्हाई ली। मीटिंग के पहले जिस जाड़े को वह छोड़ आये थे, अब मौका पाकर वह उनके कंधे पर सवार हो गया और बड़े प्यार से अपना यख हाथ उनके बदन पर फिराने लगा। सर्द हवा का एक तेज झोंका आया और उसके कुछ कतरे उनके कानों में समा गये। सीत्कार के साथ उन्हें अपनी चादर का होश आया। हड़बड़ाकर वहाँ गये, जहाँ चादर उतारी थी... चादर लेकिन नदारद थी। बड़े परेशान हुए।

''का खोज रहे हैं?'' भूइलोटन गड़ेरिया ने पूछा।

कमलाकांत को पत्नी याद आयी... आते समय भी वह चादर खोज रहे थे और जाते समय भी चादर ही। कैसा संयोग है! ''चदरिया नहीं मिल रही है, भाई!''

शीत लहर भेड़ों के झुंड की तरह चल रही थी... माघ की रात का अंतिम पहर।

''ऊ तो मास्टर साहेब ने लिट्टी झड़वा दी उससे।'' मद्धिम ने याद करते हुए बताया।

''तुमने रोका भी नहीं'' कमलाकांत को रामगोबिन मास्टर पर बेपनाह गुस्सा आया। वह आड़े के पास चले गये। उपले के ढेर पर पड़ी चादर राख और धूल से बुरी तरह किन-किन हो चली थी। वह पछीट-पछीटकर उसे झाड़ने लगे, लेकिन शीत के चलते राख चिपट गयी थी। भद्दा-सा मुँह बनाते हुए उसे वहीं पटक दिया और अलाव के पास चले गये। अलाव कब का बुझ चला था... राख में दुबकी लूतियाँ यदाकदा झिलमिला जाती थीं। तब तक उनकी नजर बरामदे में खूँटी से लटकते लाल रूसी कोट से टकरायी... उनकी आँख चिनगारी की तरह जल उठी।

वह तड़पकर उठे और चल दिये।

पीछे पैरों की आहट सुनायी दी... पलटे तो देखा कि भूइलोटन गड़ेरिया, मद्धिम यादव और जियावन रैदास चले आ रहे थे। ''कामरेड, ई कम्मरवा ओढ़ लीजिए।'' भूइलोटन ने भरे गले से कहा।

''और तुम? तुम कैसे जाओगे, साथी?''

''अं-हं ऽऽऽ। ठीक है। हमनी का दुनो आदमी ओढ़ि के चलते हैं।'' उन्होंने अपना कम्बल इस तरह फैला लिया जैसे किसी शिशु चिड़िया को उसकी माँ अपने पंख में समेट लेती है।

...दो बेटे-दो बाप, बीच जिनके तीन ओढ़ना

एक-एक कम्बल उन्हें दे दो, नहीं किसी को खुला छोड़ना

बच्चो, जरा हिसाब जोड़ना...

अभी भी कभी-कभार मौका मिलने पर वह बच्चों के साथ बैठ जाते हैं और उनसे इसी तरह का 'बैठौव्वल' पूछा करते हैं। इसे चुटकियों में हल करता हुआ वह काफ़िला बढ़ने ही वाला था कि रामगोबिन मास्टर दाँत खोदते हुए आ निकले। उन्होंने आँखें झपका कर कुछ पल तक उन चारों को देखा, फिर टोक ही तो दिया, ''भूइलोटन भाई, तुम कहाँ?''

''उपधेया जी के साथे... इनके पहुँचाने बदे।''

''तुम्हारा भी दिमाग खराब हो गया। सब कुकुर काशी ही जावेंगे तो हांड़ी ढूँढ़ने वाला भी कोई चाहिए न?''

मास्टर साहब तुनककर बोले। उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग किया, ''मैं कहता हूँ...तुम लौट आओ।''

उनकी अनसुनी करते हुए एक कम्बल के दो ओढ़वैए चल पड़े। रामगोबिन मास्टर को कुछ शुबहा हुआ, ''कंबलवा में कुछ छुपाये हो क्या?''

इस कुत्सित मनोवृत्ति पर उन लोगों को ठिठक जाना पड़ा, मास्टर साहब का संदेह गहराया। कोट उन्होंने भूइलोटन को ही रखने के लिए दिया था और आँख गड़ा-गड़ाकर वही उसे देख भी रहे थे। वह लपककर आगे गये और कम्बल खींचने लगे, ''रक्तध्वज जी का कोटवा तो नहीं लिये भाग रहे हो?'' उन्होंने भरपूर जोर लगाया कि लहंगाझारी कर लें।

''काहे कलंक लगाते हैं, मास्टर साहेब?'' भूइलोटन व्यथित होकर बोले, ''कोटवा ऊ देखिए खूँटी पर लटक रहा है।''

मास्टर साहब सकुचा-से गये।

'अपजस लागत लाज परानी'...कमलाकांत को गुस्सा उसी घड़ी आया था, जब चादर की दुर्गति देखी थी। उन्होंने आव देखा न ताव, झटके से बढ़े और कोट उतार लिया। अगले पल वह उनके बदन पर था। ''अब समझिए कि मैं ले जा रहा हूँ।''

रामगोबिन मास्टर ने लपककर कोट की आस्तीन पकड़ ली, ''मैं अकारण शक नहीं कर रहा था। आपकी नीयत अपने-आप व्याप गयी।'' वह वहीं से चीखने-चिल्लाने लगे। चख-चख सुनकर एक बार फिर लोग एकत्र हो गये। कमलाकांत और रामगोबिन मास्टर के बीच छीनाझपटी जारी थी। बटन खुला कोट उनके बदन पर ऐसे झूल रहा था जैसे कोई बड़े-बड़े लाल डैने वाला मुर्ग लड़ाई में झपट्टा मारने पर उतारू हो।
चक्रधर जी ने डाँटकर पूछा, ''यह कैसी बेहूदगी हो रही है?''

''रक्तध्वज जी का कोट चुराकर भाग रहे थे कमलाकांत।'' रामगोबिन मास्टर ने हाँफते हुए बताया, ''यही इनका सशस्त्र संघर्ष है। इसी के बहाने लूटपाट करना चाहते हैं। अरे, छिनाल का वश चले तो समूचे बधार में अरहर बुवा दे।''

रक्तध्वज जी को विश्वास न हुआ तो पास सरक आये और थरथराती आवाज में बोले, ''चुराने की क्या जरूरत ती, कामरेड-अ?''

कमलाकांत ने अट्टहास किया, ''ठंड से बचने का एक हथियार है कोट, जो अपने-आप मेरे हाथ लग गया। वाकई इसकी जरूरत है मुझे। आपने कहा था न, कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा।''

रक्तध्वज जी भौंचक रह गये। वह बुरी तरह काँपने लगे। न जाने क्यों?... अपमान से या नुकसान से, युयुत्सा से या कुत्सा से, पकड़ से छूटते कालखंड से या बूँद-बूँद टपकती ठंड से...

कमलाकांत ने हँसते हुए कोट उतार दिया और बोले, ''मैं तो नब्ज टटोल रहा था कॉमरेड! आप जादुई कोट पहनकर सैद्धांतिक किताबें लिखिए। परवाह मत कीजिए कि कोई बात गाँव के लोगों की समझ में आयी या नहीं। हमें हमारी हालत पर छोड़ दीजिए। हम खुद निबट लेंगे।'' कमलाकांत की आवाज काफी ठहरी हुई थी, जैसे उन्होंने कोई फ़ैसला कर लिया हो। आगे बढ़कर उन्होंने कोट रक्तध्वज जी की ओर धीरे से बढ़ा दिया।

रक्तध्वज जी ने जल्दबाजी में कोट उलटा ही पहन लिया और तमतमाये हुए लौटने लगे। उनके साथ के खड़े लोगों ने कमलाकांत को ख़ौफ़ से देखा और रक्तध्वज जी के पीछे एक-एक कर लौटने लगे।

एक विचित्र-सी मुद्रा में कमलाकांत उपाध्याय उनका गुजरना देखते रहे। उनकी आँख के आगे लाल रंग वाले कोट-ही-कोट तैरने लगे...फ़क़त चलते-फिरते कोट, उनमें आदमी नहीं। हठात ये कोट उलटे लटक गये... धुंध में उनके सामने अब एक सीधा-सुधेर पीपल का वृक्ष उगना शुरू हुआ... और कुछ ही क्षणों में वह पूरा उग गया। कमलाकांत को शांति-सी मिली कि अब उन्हें बोलना न पड़ेगा... अब सारा वाक़या अपने-आप बयान हो जायेगा। लेकिन उनके कानों ने एक शब्द भी न सुना। चारों तरफ़ पागल सन्नाटा तारी था... उस सन्नाटे में ही उन्होंने देखा बिना सिर के चार उलटे लटके हुए धड़ टंग गये- पीपल की डालों से झूलते चार धड़!

कुदरत का धुनिया रात-भर ओसों की रुई धुनते-धुनते थक चला था। अब उसके चारों ओर धुनी हुई रुई की तरह कुहरे के पहाड़ खड़े थे। लेकिन कमलाकांत गाँव के ही आदमी हैं, उन्हें भटकने का भय नहीं, अपने शेष साथियों के साथ उनके सधे पाँव आगे बढ़ते गये।

(फरवरी, १९८९ में 'हंस' में प्रकाशित)



भोजपुर (बिहार) जिले के बलुआँ गाँव के एक व्यक्ति थे कमलनाभ उपाध्याय। मिडिल स्कूल में शिक्षक थे। वह पार्टी करते थे। कर्मठ, ईमानदार, परदुखकातर, समर्पित और मिलनसार प्रकृति के थे। जन्मना ब्राह्मण थे, लेकिन ब्राह्मणवाद से घृणा करते थे। दलित-दमित, शोषित-पीड़ित लोगों से सहजता से जुड़ जाते थे। मानवता के निकष पर खरे थे, लेकिन सवर्ण समाज में बेहद बदनाम भी थे।

मेरे साथ उनकी खूब छनती थी। वय वरिष्ठ होने के बावजूद कमलनाभ जी से मेरा दोस्ताना संबंध था। जब भी छुट्टियों में गाँव जाता तो उनसे जरूर मिलता। दुनिया-जहान, राज-समाज की खूब बातें होतीं। संस्मरण सुनाने में माहिर थे।

संभवतः जनवरी 86 की घटना होगी। एक शाम बड़े घबराए हुए से मिले। ठंड के बावजूद पसीने से लथपथ थे। घबराहट की वजह जाननी चाही, तो बोले कि यार! एक बहुत बड़ी गलती हो गयी है। मैंने पूछा कि क्या? तो झोले से एक लाल ओवरकोट निकालकर दिखाने लगे, 'इसे लेकर चला आया हूँ।' फिर तो पूरे विस्तार से उन्होंने माघ के महीने में गंगा के दियारे में स्थित एक गाँव में हुई उस पार्टी मीटिंग का पूरा ब्यौरा देना शुरू कर दिया। उस मीटिंग में बाहर से भी कई कॉमरेड आये हुए थे। पूरी घटना सुनने के बाद मैंने पूछा कि अब क्या होगा? बोले कि पार्टी से निकाल दिया जाऊँगा, मेरे ऊपर नक्सलवादी होने का ठप्पा मार दिया गया है। मैंने कहा कि तब आप ऐसी ही किसी समानधर्मा पार्टी से जुड़ जाइए। कमलनाभ उपाध्याय बहुत मायूस होकर बोले, ''वहाँ भी तो कोई समझदारी नहीं देख रहा हूँ। आमूलचूल परिवर्तन के बदले वहाँ भी वर्चस्ववाद की लड़ाई चल रही है, मेरे जैसा आदमी शायद हर जगह दुत्कारा ही जाएगा!''

पहली बार कमलनाभ उपाध्याय को इतना व्यथित और बेचैन देखा मैंने। यथार्थ का यही सचखंड मेरे हाथ लगा था। मैंने उनकी व्यथा को अपने मनोकोष में सहेज लिया कि सच्चे और प्रतिबद्ध लोगों की बेचैनी क्या चीज होती है। जनवरी 1986 से शुरू हुई लिखाई अक्टूबर 1988 में पूरी हुई। नवंबर 1988 में राजेंद्र यादव जी को प्रकाशनार्थ भेजी। फरवरी 1989 में कहानी 'हंस' में प्रकाशित हुई। इसके बाद की कहानी सबको मालूम है। लेखक और संपादक पर खूब हमले हुए। 'हंस' के साथ-साथ अन्य पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों में भी लगभग डेढ़ दो वर्ष तक लगातार बहसें जारी रहीं। इस कहानी ने मेरे लिए दोस्त कम दुश्मन ज्यादा पैदा किये। आज भी मुझे भद्र साहित्यिक समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता।

-सृंजय




रविवार, 31 मई 2015

‘कहानी’ माप -सृंजय

‘कहानी’

माप

-सृंजय

"अरे...हां, हमारे गाउन का क्या हुआ?''

साहब ने अपने पी.ए. से पूछा. ,

" 'सर, तब से में दो-तीन दफा तकाज़ा कर चुका हूँ"

"अभी तक सिला या नहीं?’ साहब उत्सुक होकर बोले.

"दर्जी कह रहा था कि एक बार हाकिम से कहते कि वो इधर तशरीफ़ लाते”. पी.ए.- ने लगभग अनुरोध-सा करते हुए कहा. .

तुम तो कहते थे कि वह सिर्फ हुलिया के आधार पर कपड़े सिल देता है !”

"यह तो एकदम आमजमाई हुई बात है, सर!'' पी. ए. ने गहरे आत्मविश्वास के साथ कहा, "अपने दामाद वाली घटना शायद आपको बताईं थी न¡ वह तो अब भी उसी दर्जी से मिलने की इच्छा रखता है.”

"आपका दामाद मिलना चाहता है...

शायद वह दर्जियों के पचड़े में कभी पड़ा नहीं है.. इसलिए” इस बार साहब का ड्राइवर धूपन राम बोल पडा, "जबकि मेरी जानकारी में एक ऐसी घटना है हुजूर !...कि एक दर्जी ने दामाद से जिंदगी भर के लिए ससुराल ही छुड़वा दी थी. कहा गया है न. . तीन जने अलगरजी - नाई, धोबी, दर्जी.”

' 'काम करें मनमर्जी." साहब ने भी अपनी तरफ से तुक जोड़ते हुए कहा.

"जिंदगी भर के लिए ससुराल छुडवा दी थी…वह भी एक अदने से दर्जी ने?” पी. ए. पहले तो विस्मित हुए फिर उत्सुक होकर उछल-सा पड़े. "वह कैसे धूपन?…तुमने आज तक इस बारे में मुझे कभी कुछ नहीं बताया”

“ अभी दर्जी की बात चली तो वह घटना याद आ गई." धूपन राम बोला, "वह घटना कोई गीता-रामायण थोड़े है कि हरदम चर्चा चलती रहे उसकी."

"धूपन ¡ गीता-रामायण की घटनाओं से अब हमें उतनी मदद नहीं" मिलेगी, जितनी अपनी जिन्दगी के छोटे-छोटे खटराग प्रसंगों को सुनने से." पी. ए.तनिक बेचैन होकर बोल पड़े. .

दरअसल पी. ए. के चार बेटियाँ और दो तो बेटे थे. चारों बेटियों और एक बेटे की शादियाँ करवा" चुके थे. बेचारे बेटी-दामाद से बड़े परेशान रहते थे. कभी यह बेटी तो कभी वह दामाद, कभी यह नतिनी तो कभी वह नाती . . आए दिन कोई-न-कोई आया ही रहता या. अपना और बेटे का परिवार ही कोई कम न था. बेटियों का भी भरा... पूरा कुनबा था. आने का कोई बहाना भर चाहिए. कोई दवा-बीरो करवाने के नाम पर आ गया तो कोई यूं ही भेंट करने के नाम पर. . .और नहीं तो अटेस्टेड करवाने के नाम पर ही आ धमके. . .चलो नाना के साहब से अटेस्टेड करवा लेंगे...

अपने यहाँ के अफसर बड़े मिजाज दिखाते हैं ... खूब जी हुजूरी की तो राजी हुए, लेकिन एक बार तीन से देशी अटेस्टेड भी नहीं करेंगे. अरे भई!  यह काम तो तुम लोग अपने यहाँ भी करवा सकते थे,' पी.ए. दबी जुबान में कहते भी, लेकिन कोई सुनता नहीं. एक बेटी का परिवार खिसकता, तब तक दूसरी का आ धमकता. जो कोई आता बिना कुछ लिए-दिए हटने का नाम ही नहीं लेता. पी. ए. बेचारे नाते-रिशतेदारी निभाते-निभाते ही हलकान-परेशान रहा करते थे. ऐसे में दामाद से ससुराल छुड़वा देने की धूपन की बात उनके मर्म को छू गई. बोले, "धूपन¡ जरा तफसील से बताओ न."

"बहुत लंबा किस्सा है." कहकर धूपन ड्राइवर ने साहब की ओर उनका रुख भांपने की गरज से देखा.

"लंबा है तो क्या हुआ¡ ऐसे प्रसंगों में ही जीवन के गहरे राज़ छुपे होते हैं, जिन्हें सबको सुनना ही चाहिए." पी.ए. से रहा नहीं जा रहा था, "सुनाओ न, साहब भी सुन लेंगे."

"अब सुना भी डालो.” साहब भी मंद-मंद मुस्कुराते हुए इशारा करने लगे. धूपन चालू हो गया--

"...यह सरकारी नौकरी पाने के पहले मैं प्राइवेट गाड़ी चलाया करता था. एक प्रोफेसर कुमार थे, उनकी गाड़ी. उन्होंने ही बताया था कि उनके गांव तेघरा के चौधरी का दामाद पहली बार ससुराल आया"- रिवाज है कि शादी के बाद दामाद जब पहली बार ससुराल जाए तो उसे कम-से-कम नौ दिन रहना पड़ता है. दूसरे ही दिन चौधराइन बोलीं कि मेहमान पहली बार आए हैं, इन्हें कपडा-लत्ता देना होगा न! 'क्या क्या देना होता है? चौधरी ने पूछा. 'अरे दिया तो पाँचों पोशाक जाता है' चौधराइन बोलीं, "धोती, कुरता, जांघिया, गंजी और गमछा." "वाह रे तुम्हारा दिमाग!' चौधरी बोले, "हमारा दामाद पुलिस अफसर बनने के लिए कंपटीशन की तैयारी कर रहा है और तुम उसे धोती-गमछा दोगी? अरे मैं तो अपने दामाद को पतलून दूंगा.. बल्कि सिलवाकर दूंगा, ताकि यहीं पहन सके चौधरी खाते-पीते घर से थे. खेती-किसानी तो करवाते ही थे, उनके अलावा जीरो माइल' चौराहे पर हाइवे से लगा प्लाट खरीदकर दर्जन भर दुकाने बनवाकर किराए पर उठा रखी थीं. उन्हीं में से एक दुकान मनसुख लाल बजाज की थी और एक हलीम दर्जी की थी. वहीं से अपने तई सबसे महंगा कपड़ा खरीदकर हलीम दर्जी को कुरता-पतलून सिलने के लिए दे दिया गया. हलीम दर्जी अपने आपको इलाके भर का वाहिद मास्टर मानता था...किसी भी तरह की पोशाक सिलने को कहो, ना नहीं कहता था. खातिरदारी में हलीम चौधरी के घर खुद जाकर दामाद की माप भी ले आया. अगले दिन कपडा सिल भी गया. खुशी-खुशी कपड़े चौधराइन के हाथ में देते हुए चौधरी बोले, "मेहमान से कहो कि आज़ यहीं पहनकर वह हवाखोरी के लिए निकले.' शाम को जब दामाद ने कपड़े पहने तो अजीब तमाशा हो गया...पतलून का एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे. पल-भर में ही दामाद ने खीजकर पतलून खोला और आलने पर फेंक दिया. ' चौधरी गुस्से में हलीम के सामने पतलून पटकते हुए बोले, "यह कैसा जोकरों जैसा पतलून सिलकर दे दिया?’,

‘क्यों क्या हुआ मालिक? हलीम ने कुछ न समझते हुए पूछा.

'देखो तो...एक पांयंचा चौवा भर ऊपर तो दूसरा चौवा भर नीचे,' चौधरी

नाराजगी में बोले, "ऐसा भी कहीं पतलून सिला जाता है."

हलीम ने पतलून को मेज पर फैलाया, दोनों मोहरी मिलाई, मियानी बीच में की, कमर टानटून कर सीधी की, कई कोनों से फीते से नापा, "मालिक देखिए तो...कमर से मोहरी तक दोनों पांव एकदम बराबर हैं कि नहीं?...न हो तो आप एक बार खुद नापकर देख ले. 

चौधरी से कुछ बोलते न बना, क्योंकि माप तो सचमुच सही निकल रही थी. उन्हें सकपकाया देखकर दर्जी बोला, "मालिक पहनते वक्त किसी वजह से जर्ब पड़ गया होगा" जाइए, फिर से पहनाकर देखिए-बिल्कुल सही निकलेगा."

चौधरी लौट आए दामाद को फिर से पतलून पहनाया गया. हाय रे किस्मत अब भी वही नजारा...एक पांयंचा ऊपर तो दूसरा नीचे. दामाद बेचारा "मेनिक्विन' (कपड़े की दूकान में लगाया जाने वाला सजावटी पुतला) की तरह बिना हिले-डुले खड़ा का खड़ा रह गया. नीचे झुककर पतलून को एक तरफ से चौधरी टान रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ से चौधिराइन ... लेकिन पतलून का अब भी वहीं हाल! आखिरकार खीजकर चौधरी बोले, "रहने दीजिए, मेहमान जी ! ... खोल दीजिए. ..मैं फिर जाता हूँ शैतान के बच्चे उस हलीम के पास. 'वह दुलकी चाल से हलीम के पास आए. जितना हो सकता था, ख़री खोटी सुनाई. हलीम ने चुपचाप सिर झुकाकर पतलून खोला, मेज पर फैलाया और उसे हर तरफ से मापने लगा.

'नाप तो एकदम सहीं है, मालिक! पता नहीं, कैसे, पहनते वक़्त बड़ा-छोटा हो जा रहा है! आप एक काम करेंगे?... मेहमान जी को एक बार यहीं ले आएंगे?'

यह भी हुआ. मेहमान जी दर्जी की दूकान तक पहुंचे. उन्हें फिर से पतलून पहनाया गया…पांयंचों की छोटाई-बड़ाई में कोई फर्क न आया...आता भी कैसे? हलीम ने वहुत टानटून किया. दामाद के दोनों पैर तो कम-से-कम दर्जनों बार मापे होंगे. परेशान होकर बोला, खोल दीजिए ... देखता हूँ क्या किया जा सकता है.' उसने दामाद से चले जाने को कहा. चौधरी को वहीं रोक लिया.

चौधरी को लेकिन कल नहीं पड़ रहा था, "लगता है तुमने ढंग से नाप नहीं ली है. अंदाज से सिल दिया है.'

नहीं, मलिक¡ यूं न बोलिए...नाप एकदम सही ली है. वैसे हमारा अंदाज भी कमजोर नहीं होता. वैसे भी बदन के हर हिस्से की माप लेना मुमकिन भी नहीं होता ... सिलाई में कई बार अंदाज़ से भी काम चलाना पड़ता है. अब कुरती के महरम (स्त्रियों की कुरती या अंगिया आदि का वह कटोरीनुमा अंश जिसमें स्तन रहते हैं) की माप हम लोग थोड़े लेते हैं. एक बार आंख उठाकर देख भर लेते हैँ...वह भी तिरछी नजर से ... लेकिन सिलाई एकदम फिट बैठती है।

'इस पकी दाढी में भी मेहंदी लगाते हो न¡’ चौधरी ने हलीम की ललछोंही दाढी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'जो मरहम की माप लेने लगे तो इस दढ़िया में एको बाल न बचेगा. ..सब चोथा जाएगा' इस परेशानी में भी चौधरी के होंठ अंदरूनी हंसी के चलते तिकोने हो गए.

"वह तो बात-बात में कहा मैंने,' हलीम भी मुस्कुरा पडा, "वऱना महरम की माप लेकर कौन अपना बाल नुचवाये.'

जब दामाद कछ दूर चले गए और उनको ले जाने वाले की मोटरसाइकिल की फटफ़टाहट आनी बन्द हो गई तो हलीम ने चौधरी से फुसफुसाकर कहा, "मालिक¡ एक बात कहू? किसी से कहिएगा तो नहीं?

"भला, मैं क्यों किसी से कुछ कहने जाऊं? चौधरी एकाएक शांत होकर बोले.

"मालिक¡ पतलून की सिलाई में कोई खोट नहीं "मेहमान जी के पैर ही छोटे-बड़े हैं तो मैं क्या करूं? आपने गौर किया होगा ... तसल्ली के लिए उनके दोनों पैरों को मैंने कई बार मापा था. खैर, घबराइए नहीं...मैं कमर की पट्टी खोलकर छोटे पांव ठीक कर दूंगा.’

चौधरी को काटो तो खून नहीं ... दामाद के पैर छोटे…बड़े कैसे हो गए? चलते समय तो बिल्कुल पता नहीं चलता. उन्होंने सिर पकड़ लिया.

"क्या कीजिएगा, मालिक.' हलीम दिलासा देते हुए कहने लगा, "ऊपर वाला अगर आदमी को सींग दे दे तो कोई सिर थोड़े कटा लेगा...उसी तरह जीना पड़ेगा...सींग के साथ ही जीना पडेगा... बहुत लाज लगी तो लंबी पगड़ी में छुपाकर जीना पड़ेगा.'

चौधरी एकदम निराश होकर घर लौटे. किसी से कुछ बोले-चाले नहीं. जब सहा नहीं गया तो चौधराइन को एकांत में बुलाकर कहने लगे, ."हमारे करम ही छोटे हैं, ज्ञानती की माँ?

'क्यों, क्या हुआ जी? चौधराइन घबरा गई. 'मेहमान जी अब पुलिस अफसर नहीं बन पाएंगे.' 'कैसे नहीं बन पाएँगे? रात-दिन तो मोटी…मोटी किताब बांचते रहते हैं.’ वह रुआंसी होकर चौधरी को ताकने लगीं.

'उनके पैर ही छोटे-बड़े हैँ...पतलून में कोई खराबी नहीं है. यहाँ आंगन टेढा नहीं है, नाचने वाली के पाँव ही टेढे हैं? चौधरी जितना संभव था फुसफुसाकर बोल रहे थे, 'कंपटीशन निकाल भी ले गए तो मेडिकल में छँट जाएंगे'.’

'डॉक्टर को कुछ खिला-पिला कर काम नहीं निकल पाएगा?

'मैं पहले ही बहुत कुछ दे चुका हूँ, अब क्या सारी संपत्ति इसी दामाद पर लुटा दूँ?

चौधराइन को तो मानो साँप. सूंघ गया, 'जा रे कपार¡ इसी आशा पर, हैसियत से भी ऊपर जाकर, दान-दहेज देकर, फूल जैसी ज्ञानती का इनसे ब्याह करवाया गया कि पुलिस अफसर बन जाएंगे तो बेटी राज करेगी, अपना भी गांव-जवार में मान बढेगा, वर्दी के रुतबे और रूल से लोग हौँस खाएंगे... लेकिन अब तो सिपाही बनने पर भी आफत है.’

सिपाही, अब तो होम गार्ड भी न बन पाएंगे.’ चौधरी ने हताशा में होंठ काट लिए. चौधराइन रोने के लिए राग काढ़ने ही वाली थी कि चौधरी ने डपट दिया, ‘अब रो-धो कर तमाशा मत बनाओ ... जो बात सिर्फ हमें और हलीम को मालूम है उसे तुम्हारे चलते पूरा गांव जान लेगा ... अब चुप रहने में ही भलाई है.‘

चौधराइन चीखी-चिल्लाई नहीं, लेकिन चुप भी नहीं बैठी. कांटे खोंट-खींटकर उस अगुआ को गलियाने लगी जिसने यह विवाह करवाया था. मन भर अगुआ को सरापने के बाद शाम ढलते भी बेटी को समझाने लगी, 'हलीम दर्जी कह रहा था कि पाहुन जी के गोड़ छोटे-बड़े हैं, इसीलिए पतलून उपर-नीचे हो जा रहा है. तू आज की रात जरा दोनों गोड़ नापना तो...हां, ध्यान रखना, जब निर्भेंद सो जाएं, तब नापना...‘

"लेकिन नापूंगी कैसे? . ज्ञानती भी सकते में आकर बोली, "कहीँ फीता देख लेंगे तो?

'दुत्त पगली! बित्ते से नाप लेना ... हाँ, उनको पता नहीं चलना चाहिए'

दो-तीन रोज बाद चौधराइन ने पूछा, क्या री, कुछ पता चला?

"खाक पता चलेगा ज्ञानती ज़रा ऊबकर तनिक गुस्से में बोती, 'सोते भी हैं तो अजीब ढंग से...बाई करवट ही सोते हैं लेकिन बायाँ गोड़ घुटने से मोड़कर और दायां उसके ऊपर चढाकर, सीधा करके. सीधा पैर तो नाप लेती हूँ, लेकिन मुड़े पैर पर जैसे ही जांघ के ऊपर मेरा बित्ता सरकता है कि चिहुँककर जाग जाते हैं और मेरा कंधा पकड़कर मुझे पटक देते हैं. इसी फेरे में तीन रात से भर नींद सो भी नहीं पाई हूँ. भगवान जाने कौन सी नींद सोते हैं ... कोए की नींद कि कुकुर की नींद !'

आखिर जिसका डर था, वही हुआ. . न जाने कैसे पूरे तेघरा गांव में, जीरो माइल चौराहे तक यह बात फैल गई कि चौधरी का दामाद 'ड़ेढ़ गोड़ा है.

दामाद को भी पता चला तो चीख-चीखकर इंकार करने लगा, 'यह कैसी बकवास फैला रखी है आप लोगों ने? मेरे दोनों पैर ठीक हैं, न चलने में दिक्कत है, न दौड़ने में. कहिए तो में ताड़ के पेड़ पर चढ़कर दिखा दूं अगर मैं डेढ़गोड़ा होता तो मेरे अन्य पतलून भी ऊपर-नीचे होते. यह हलीम ही एकदम फालतू दर्जी है. फतुही-लंगोट सिलने वाला यह देहाती दर्जी पतलून सिलना क्या जाने ? मैं अभी जाकर उसका कल्ला तोड़े दे रहा हूँ.'

किसी अच्छे से डॉक्टर से चेक करवा लेने में क्या हर्ज है? चौधरी हाथ जोड़कर निहोरा करने लगे, "हलीम का कल्ता तोड़ने से तो बात पर और पक्की मुहर लग जाएगी ... तब किस-किसका कल्ला तोड़ेगें?

सास भी समझाने लगी, ज्ञानती भी समझाने लगी. जब सब कहने लगे तो दामाद बेचारे को भी यकीन-सा हो गया कि सचमुच कहीं पैर में ही खराबी तो नहीं है. अब कौन नौ दिन ठहरता है. अगले दिन ही उसने ससुराल छोड़ दी. अपने घर गया और वहाँ से सीधा शहर भागा. महीने भर लॉज में रहा, कई तरह से जांच करवाई, मगर 'कोई नुक्स पकड़ में नहीं आया. हो तब तो पकड़ में आए. खामखाह बेचारे के पंद्रह-बीस हजार रुपये गल गए, शहर के डॉक्टरों ने झिड़की दी सो अलग. बेचारे ने जिंदगी में अब कभी भी ससुराल न जाने की कसम खा ली. तो इस तरह हलीम दर्जी ने दामाद से ससुराल छुडवा दी." कहकर धूपन ड्राइवर चुप हुआ.

अपने रुतबे की संजीदगी भूलकर साहब तो यह किस्सा सुनकर हँसते हुए लोट-पोट हो गए. जब हँसी का दौर थमा तो उन्होंने यूं ही पूछ लिया, "वह लड़का पुलिस अफ़सर बना कि नहीं?"

"यह कोई मायने नहीं रखता." पी.ए. फट से बोल पड़े, "क्यों कि अफसर बनने के लिए तेज दिमाग के साथ-साथ यह पसमंजर भी मायने रखता है कि कौन किसका बेटा है या कौन किसका दामाद या कौन कैसे खानदान से है! यहाँ काबिले तारीफ बात यह है कि हलीम दर्जी ने चौधरी को बचा लिया, वरना जिंदगी भर उनकी वह पेराई होती कि खल्ली भी नहीं बचती, कहा गया है न...वेश्या रूसी तो अच्छा हुआ. धन-धरम दोनों बचा." पी. ए. हलीम दर्जी से काफी प्रभावित नजर आ रहे थे, "काश उस जैसा दर्जी अपने यहाँ भी होता!"

"कहीँ आपका यह दर्जी भी उसी हलीम की तरह तो नहीं है?" साहब ने पूछ ही लिया

"बिल्कुल नहीं साहब¡ कहां राजा भोज, कहाँ भोजुवा तेली." पी.ए. ने तपाक-से प्रतिवाद किया, "बाकर अली और हलीम में ज़मीन-आसमान का अंतर है."

"तो फिर मेरा गाउन सिलने में वह इतनी देरी क्यों कर रहा है?.”

"यही तो मैं भी नहीं समझ पा रहा हूँ-" पी.ए. भी असमंजस में दिखे, "दर्जी पूछ रहा था कि यह बताओ कि ये हाकिम नए…नए अफसर बने हैं, यानी सीधी भर्ती से आए हैं या तरक्की करते-करते इस ओहदे तक पहुंचे हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं?

`क्यों, इससे गाउन का क्या ताल्लुक?" '

'मैं कुछ समझ नहीं पा रहा, सर¡" पी. ए. का असमंजस बरकरार था, "न हो तो आज शाम चल कर हुजूर पूछ ही लें कि वह गाउन सिल पाएगा भी या नहीं?"

वे नए-नए हाकिम (अफसर) बने थे. पहली तैनाती ही एक देहाती जिले में हुई. जिले का फैलाव काफी दूर-दराज तक था. विकास का काम बहुत कम हुआ था. जिले में गांवों और ढाणियों की संख्या अधिक थी. एकमात्र शहर जिला मुख्यालय ही था. यह भी नाम का ही शहर था, प्रशासनिक केंद्र होने के नाते, वरना अपने मिजाज में, चाल-ढाल में वह एक बड़ा गाँव ही था. राजधानी से काफी दूर होने की वजह से उस जिले पर ध्यान कम ही दिया जाता था. यहीं के सीधे-सादे अनपढ़ लोग, जिन्हें नए जमाने की हवा की छुअन तक न लगी थी, अपने ढंग से जीवन जी रहे थे. जिले का एक बड़ा हिस्सा जंगलों से ढंका था. लोग कुदरत की रहमत पर ही जिंदा रहते थे. काफी बड़ा जिला होने के चलते साहब को लंबे-लंबे दौरे करने पड़ते थे. जिस इलाके में जाते, कई-कई दिन रुक जाना पड़ता. वे दिन-भर तो तहसील और महकमे की जांच में ही व्यस्त रहते, लेकिन सुबह-शाम डाक बंगले में मुलाकातियों का आना-जाना लग जाता. इलाके के मोतबर लोगों से अंतरंग मुलाकात शाम ढले ही होती. साहब दिन-भर तो 'चुस्त-दुरुस्त चाक-चौबंद पोशाक पहने रहते, लेकिन सुबह-शाम कुछ ढीला-ढाला पहनने का जी करता. हालांकि उस वक्त वे कुरते-पायजामे में भी रह सकते थे, लेकिन कुरते-पायजामे में वह रोब नमूदार न हो पाता था, जिसकी उम्मीद एक ऊंचे अफसर से की जाती है. मानना पड़ेगा विलायती हाकिमों को भी. ऐसे ही मौके पर वे गाउन का इस्तेमाल करते थे. बाज हाकिम तो दफ्तर या कचहरी में भी गाउन पहने रहते थे. एकदम ढीला-ढाला आरामदायक चोगा (गाउन), लेकिन रोब ऐसा कि एक…एक धागे से टपके..

कुछ यही सोचकर साहब ने भी अपने लिए गाउन सिलवाने की सोची. अपनी ख्वाहिश उन्होंने अपने पी. ए. के सामने जाहिर की, "यहाँ, गाउन कहाँ मिलेगा?

"गाउन¡" पी.ए. की पेशानी पर बल पड़ गए, "गाउन का चलन तो आजकल रहा नहीं, सर!...इसलिए सिला-सिलाया गाउन मिलना तनिक नामुमकिन लगता है."

"कोई दर्जी है ऐसा...जो गाउन सिल सके?"

"हाँ, है न, हुजूर!" पी.ए. को अचानक याद आया, "अपना बाकर अली...वह नई-पुरानी सब काट की पोशाक सी देता है"

"तो आज शाम चलते हैं, उस के पास...माप दे जाएंगे" साहब खुश होकर बोले थे.

"उसकी जरूरत न पडेगी, हुजूर!” मैं ही चला जाऊंगा. वह ऐसा अकेला हुनरमंद है कि उसके सामने फकत हुलिया बयान कर दीजिए किसी ... आदमी का...अंदाज से ही वह ऐसी पोशाक सिल देता है कि फिटिंग में सूत बराबर भी झोल न आए." साहब, के खुश होते ही पी. ए. और खुश होकर बोले थे, "मेरी चौथी बेटी का ब्याह लगा था, सर! दामाद ने हठात् सूट की फरमाइश कर दी...वह भी ब्याह से केवल चार दिन पहले प्राइवेट कंपनी में नौकरी की वज़ह से न दामाद को यहीं जाकर माप दे जाने की छुट्टी थी, न मुझे फुर्सत कि जाकर माप ले आऊं. बाकर अली के सामने मैंने दामाद का सिर्फ हुलिया भर बयान कर दिया था. सुथरे ने सलेटी रंग का ऐसा सूट सिलकर दिया है कि मेरा दामाद हर खास मौके पर वही सूट पहनकर निकलता है...कहता है कि मेरी शख्सियत इसी सूट में खिल-खिल उठती है. कई बार उसने कहा भी कि एक बार दर्जी बाकर अली से मुझे मिलवा दें..." पी..ए. जरा धीरे बोले थे, "लेकिन सर! उसकी इस ख्वाहिश पर मैं ज्यादा तवज्जो नहीं देता...कि कहीं दुबारा कुछ फरमाइश न कर दे ... दामाद से ना कहते भी ना बनेगा."

साहब भी मुस्कुरा दिए थे, "ठीक कहते हो आप! अपने ससुर से नजदीकी और दामाद से दूरी बनाकर चलने में ही अक्लमंदी है."

दर्जी बाकर अली की दूकान में पहुँचते ही साहब ने कड़कदार आवाज़ में कहा, "क्यों जी! हमारे पी. ए. तो आपकी बड़ी तारीफ कर रहे थे कि आदमी को बिना देखे, फकत हुलिया के आधार पर आप कपड़े सिल देते हैं.”

"हुजूरे आला! वे कपड़े आम आदमी के होते हैं" बाकर अली मन-ही-मन गदूगद होते हुए दस्तबस्ता होकर बोला, "आम आदमी के चेहरे और लिबास में बहुत फर्क नहीं होता. अलबत्ता हाकिमों के लिबास अलहदा किस्म के होते हैं. वे उन के ओहदे और उस ओहदे पर उन के बिताए गए वक्त के हिसाब से तय होते हैं.” सीधेपन से कहकर दर्जी ने इधर उधर देखा. वहाँ कायदे की कोई कुर्सी न थी. कारीगरों के बैठने के लिए दो-चार तिपाइयां बेतरतीब पडी हुई थीं. उन्हीं में से एक तिपाई को फूँक मारकर साफ करते हुए उसने एक बिना कटे कपड़े को उस पर बिछा दिया और बोला, "तशरीफ़ रखें, हुजूर ¡ आपका गाउन तो कब का सिल चुका होता!"

साहब लेकिन तिपाई पर बैठे नहीं. शायद ऐसा शान के खिलाफ होता. उन्होंने खड़े-खड़े ही पूछा, '"...तो अब तक सिला क्यों नहीँ? गाउन का क्या! वह तो बिना माप का भी सिल सकता है...वह तो फ्री साइज होता है.'

“यही तो राज की बात है, हुजूर ! जो कपडा एक बार कैंची से कट गया, सुई से बिंध गया, धागे से नथ गया...वह कभी फ्री साइज नहीं हो सकता...उसे तो किसी-न-किसी साइज में जाना ही है. फ्री साइज़ कपडा तो बिना कटे…सिले पहना जाता है, जिसे मोटे-पतले, लंबे-ठिगने, जवान-बूढे हर किस्म के लोग पहन सकें.”

"भला ऐसा कौन सा कपडा है, जिसे बिना सिले पहना जा सके?" साहब को हँसी आ गई. उन्होंने तनिक तंज करते हुए कहा, "कहीं थान भी पहना जाता है, क्या?'

दर्जी के चेहरे पर नामालूम दर्द की एक लहर-सी उभरी, मानो सिलाई करते वक्त बेखयाली में अचानक सूई चुभ गई हो, "हुजूर । अब तो चंद पहरावे ही अपने मुल्क में ऐसे बचे हैं, जिन्हें वाकई फ्री साइज कहा जा सके!" दर्जी बाकर अली ने गहरे अफसोस से कहा, '"...मसलन साडी, धोती, कुंठा वगैरह...ऐसा कि सास की साड़ी बहू पहन ले या बाप की धोती बेटा पहन ले, उसके इंतकाल करते ही अपने तमाम विरसे और जिम्मेदारियों के साथ बाप का कुंठा बेटे के सिर पर बंध जाए...अपने यहाँ बिना सिला हुआ पहरावा ही उम्दा और पाक माना जाता है...पूजा-पाठ में ऐसा ही पहनावा मुबारक और मुकद्दस माना जाता है. शायद हुजूर को इल्म हो कि देवी माँ को जो चुनरी और गंगा मैया को जो पियरी चढ़ती है वह भी बिना सिली होती है. हज को जाने वाले हुज्जाज अपने साथ जो एहराम (हाजियों का वस्त्र, वे दो बिन सिली हुई चादरें जिनमें एक बांधी और एक ओढ़ी जाती है) ले जाते हैं वह भी बिन सिला ही होता है. यह उसकी अलामत है कि इंसान अपनी जिंदगी में चाहे जितना और जैसा पहनावा ओढ़ ले, लेकिन कफ़न ही होगा आखिरी पैरहन अपना…कफ़न ही एक ऐसा पहरावा है, जिसके आड़े किसी भी मुल्क और मजहब की दीवारें नहीं जाती" इस शदीद अफसोस से निजात पाने के लिए दर्जी ने जरा-सा दम लिया, फिर बोला, आपके मामले में देर इसलिए हुई कि पहले मैं यह जानकर तसल्ली कर लेना चाहता था कि आप किस तरह के हाकिम हैं... और कितने दिनों से हाकिम हैं?"

कहाँ तो जाए थे गाउन सिलवाने और यहाँ अजीब फैलसूफ़ से पाला पड़ गया. साहब ने तो कभी कपडों के मामले में इस तरह सोचा भी न था, जबकि रोज़ देखते थे रैयतों को धोती-साडी पहनते हुए-बिना सिले कपड़े का इतना इस्तेमाल¡ साहब बुरी तरह चकरा गए, "किस तरह के हाकिम?...और कितने दिनों से हाकिम?"

"जी हां! जाप अभी-जभी हाकिम बने हैं या बहुत पुराने हाकिम हैं या तरक्की करते-करते हाकिम के इस ओहदे तक पहुंचे हैं?"

साहब की त्यौरी चढ़ गईं. ये बौड़म-सी बातें उनकी समझ में न आ रही थीं. उन्होंने हैरानी से पूछा, 'एक अदद नए गाउन की सिलाई से इन सब बकवासों का क्या लेना-देना?"

'बस, इसी बात पर तो गाउन की माप और काट तय होती है, हुजूर!' दर्जी ने निहायत मासूमियत से कहा.

साहब ने आंखें तरेरते हुए कहा, "वह कैसे?"

दर्जी ने ज़वाब दिया, "अगर आप नए-नए हाकिम बने हैं तो दफ्तर में सारे काम बड़ी तेजी से निपटाने पड़ते हैं. अपने यहाँ रिवाज है की तमाम पेचीदा और बहुत दिनों से लटके काम अपने मातहत पर डाल दो. चूंकि नए अफसर को अभी खुद को काम का साबित करने का वक्त होता है और इसी पर उसकी अगली तरक्की मबनी होती है, सो एक तरह से कहें तो उसे खड़े-खड़े सारे काम निपटाने होते हैं. इस हालत में उसके गाउन के आगे की लंबाई ज्यादा और पीछे से कम " होनी चाहिए...क्योंकि नए अफसर के बदन की लंबाई भी सामने से ज्यादा और पीछे से कम होती है. चूंकि नए अफसर को कुर्सी पर बैठते ही लगता है कि दोनों जहान उसकी मुट्ठी में आ गए हैं, सो उसकी रीढ़ की हड्डी यूं तन जाती है मानो फौलाद हो, सो नए हाकिम कुछ ज्यादा ही घमंडी और अक्खड़ हो जाते हैं, वे हर वक्त अपना सिर ऊंचा उठाए रहते हैं, नाक चढाए और छाती फुलाए रहते हैं, सो शरीर के पिछले हिस्से पर मार ज्यादा पड़ने से वह तनिक छोटा पड़ जाता है."

साहब तो काठ की मूरत की तरह दर्जी को देखते रह गए.

वह अपनी रौ में कहता गया, "जो तरक्की करते-करते यानी प्रोमोशन पाकर अफसर बनते हैं, वे हर घाट का पानी पिये होते हैं, हर फटे में उनके पांव कभी न कभी दब चुके होते हैं. अपने से नीचे वालों पर वे जितनी हेकड़ी दिखाते हुए उतान होते हैं, अपने से ऊपर वालों की घुड़की के आगे वे बेचारे उतने ही निहुर भी जाते हैं. ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने और पीछे की लंबाई एक बराबर रहनी चाहिए."

अफसरी के बारे में दर्जी के इस अकथ ज्ञान के आगे साहब तो फक पड़ गए थे. चुपचाप उसका चेहरा निहारे जा रहे थे. अब उनसे ख़ड़ा न रहा गया. धम से तिपाई पर बैठ गए.

लेकिन दर्जी अपनी ही धुन में कहता गया, "रही बात पुराने हाकिमों की...तो उनका गाउन एकदम अलग किस्म का होता है. उनको इतनी बार अपने से उँचे और आला अफसरों की डाँट खानी पड़ती है कि वे उनके सामने बराबर झुके रहते हैँ...वह रीढ़ जो कभी फौलादी हुआ करती थी अब टेबिल लैंप के स्टैंड की तरह लचकदार और हर तरफ से मुड़ जाने वाली हो जाती है. चूंकि पुराने हाकिमों के कंधे झुके रहते हैं, गर्दन सामने की ओर लटकी रहती है, ऐसी हालत में उनके गाउन के सामने की लंबाई कम और पीछे की लंबाई बेशी होती है."

दर्जी ने कैची से एक उभरा धागा काटते हुए कहा, "रही बात किसी महकमे के सबसे ऊंचे अफ़सर की...तो उनका साबका अपने मंत्री से पड़ता है. उन्हें मंत्रीजी के अगल-बगल रहना पड़ता है, क्योंकि सिर्फ आलाकमान को छोड़कर मंत्रीं अपने सामने किसी को जगह देते नहीं, उनके पीछे चापलूसों की जमात होती है, सो ऊँचे अफसर को जगह मंत्रियों के अगल-बगल ही मिल पाती है. अब मंत्रियों की सनक और जहल तो बेलगाम होती है, वे कब किसी अफसर को दाएँ झुकने को कह दें और कब किसी को बाएँ, इसका पता उन्हें खुद नहीं रहता. अब मंत्रियों के दबाव और भार को झेल पाना सबके बूते की बात नहीं...यह हाथी को नाव पर चढाकर दरिया पार कराने जैसा मुश्किल होता है. हुजूर! हाथी की रुजूआत (प्रवृत्ति, झुकाव) भी अजीब होती है, जब वह इत्मीनान में होता है तो फकत तीन टांगों पर खडा हो जाता है, इस तरह से वह बारी-बारी से अपनी एक-एक टांग को आराम देता जाता है....अब वह कौन सी टांग कब उठा ले और नाव को किस तरफ झुका दे, कहा नहीं जा सकता...ऐसे में महावत और मल्लाह दोनों की साँसें टंगी रहती हैं ...नाव के तवाजुन के लिए उन्हें भी बार-बार दाएं-बाएं झुकना पड़ता है ... और अपने यहाँ के मंत्री¡ वल्लाह…सरापा सफेद हाथी होते हैं! ऐसी हालत में आला अफ़सर के गाउन में आगे-पीछे की लंबाई पर उतना खयाल नहीं किया जाता. उनके गाउन में घेर बडा रखना होता है, क्योंकि उम्र के उस मुकाम पर पेट भी कुछ आगे निकल आया रहता है, सो आला अफसर के गाउन में दोनों बगल देर सारी चुन्नटें डालनी पड़ती हैं. चुन्नटों से गाउन – तो शानदार बनता है, लेकिन जरा भारी भी हो जाता है. खैर, हाकिमे आला का गाउन ! वह तो बदन की निसबत में भारी होगा ही.' इतना कहकर दर्जी साहब की चौंधिया-सी गई आँखों में झांकते हुए बोला, "अब बताएं, हुजूर ! कि आप इनमें से कौन-सा हाकिम हैं, ताकि मैं उसी के मुताबिक मनमाफिक गाउन सिल सकूँ?"

साहब तो जैसे मंत्रबिद्ध होकर तिपाई से उठे और दर्जी बाकर अली के पहलू में खड़े हो गए. पहले तो कुछ बोला नहीं गया, फिर जरा साहस संजोकर उसके कान में कुछ कहा. शायद अपनी अफसरी की बाबत कुछ बताया.

बाकर अली की आंखें सीप के बटन की तरह चमक उठी, "समझ गया, हुजूर ! अब आपको यहाँ आने की जरूरत नहीं! परसों शाम को ..इसी वक्त पी. ए. साहब को भेज दीजिएगा-आपका गाउन मिल जाएगा-''