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शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कोविद-19 महामारी, चीन, अमरीका और दुनिया के देश



चीन पर कोविद-19 वायरस को जन्म देने के लिए चीन पर सन्देह व्यक्त करने के लिए चीन ने ट्रम्प को बुरी तरह लताड़ा है। सीएनए की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक अमरीका में  85505 लोग कोविद-19 से प्रमाणित रूप से संक्रमित हो चुके हैं। यह लेख लिखने तक उन की संख्या में और वृद्धि हो चुकी होगी। जहाँ संक्रमित लोगों के स्वस्थ होने वालों की संख्या 681 और मरने वालों की संख्या 1288 है। अमरीका की स्थिति से ऐसा प्रतीत होता है कि जल्दी ही कोविद-19 से प्रभावितों और मरने वालों की संख्या में वह दुनिया के सभी देशों के रिकार्ड को चन्द दिनों में ही पीछे छोड़ देगा। भले ही अमरीकी सरकार को जनता चुनती हो और दुनिया का सर्वोत्तम जनतन्त्र होने का लगातार ढोल पीटती हो। लेकिन अब कोविद-19 से निपटने के उसके तरीके से यह स्पष्ट हो रह है कि वहाँ की सरकार पर अमरीकी पूंजीपतियों का नियन्त्रण बहुत मजबूत है। वहाँ जनता के नहीं बल्कि पूंजीपतियों के हित सर्वोपरि हैं।

चीन से आने वाली रिपोर्टों से पता लगता है कि उन्हों ने कोविद-19 के संक्रमण को अच्छी तरह से नियन्त्रित कर लिया है। दस दिन पहले भारत से चीन लौटने वाले एक व्यापारी ने सोशल मीडिया पर अपना अनुभव शेयर करते हुए कहा है कि चीन में एयरपोर्ट से अपने फ्लैट तक पहुँचने तक उसे अनेक बार स्क्रीनिंग से गुजरना पड़ा। प्लेन से उतरते ही, बस में बैठने के पहले, बस से उतरते ही,  स्टेशन में घुसने के पहले, ट्रेन में बैठने के पहले, ट्रेन में, ट्रेन से उतरने के तुरन्त बाद स्टेशन पर, टैक्सी में बैठने के पहले, सोसायटी के प्रवेश द्वार पर, फिर अपनी बिल्डिंग में लिफ्ट में प्रवेश करने के पहले उसकी स्क्रीनिंग हुई। शायद किसी भी अन्य देश में इतनी बड़ी तादाद में होना संभव नहीं है। उन्हों ने कोविद-19 वायरस की जन्मस्थली वुहान शहर की ओद्योगिक गतिविधियाँ पुनः आरम्भ कर दीं हैं। उद्योगपति, व्यापारी, विद्यार्थी और अन्य लोग जो संक्रमण के कारण चीन छोड़ गए थे वापस चीन और वुहान वापस लौटने लगे हैं। चीन में रह रहे भारतीय सुभम पाल के अनुभव को आज राजस्थान पत्रिका ने अपने संपादकीय पृष्ठ के अग्रलेख का स्थान दिया है उसे पढ़ें और समझें कि चीन कैसे इस महामारी पर नियंत्रण किया है  और इस महामारी से लड़ने का सही तरीका क्या होना चाहिए।

कल मेरी बेटी ने मुझे बताया कि चीन में कोविद-19 के संक्रमण से मरने वालों की संख्या बहुत अधिक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है जिसका आधार यह है कि वहाँ दिसम्बर से अभी तक 70 लाख से अधिक सेलफोन और 8 लाख से अधिक बेसिक फोन कनेक्शन बन्द हुए हैं।  यह सन्देह खुद चीन सरकार द्वारा जारी किए गए अधिकारिक आँकड़ों पर आधारित हैं। चीन ने उस पर व्यक्त किए जा रहे इस सन्देह पर अभी तक कोई बयान नहीं दिया है। लेकिन अनेक विष्लेषकोंल ने  यह बताया है कि बन्द टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या असाधारण नहीं है। चीन में बन्द हुए टेलीफोन कनेक्शनों की यह संख्या जो एक करोड़ से भी कम है वहाँ के कुल टेलीफोन कनेक्शनों की संख्या 162 करोड़ के मुकाबले मात्र आधा प्रतिशत है और नगण्य है। कोविद-19 से निपटने के क्रम में लाखों आप्रवासी मजदूर अपने काम के नगरों और प्रान्तों से अपने प्रान्तों में अपने गाँवों को लौट गए हैं और हजारों छोटी औद्योगिक इकाइयाँ और व्यापारिक प्रतिष्ठान बन्द हुई हैं। चीन में एक व्यक्ति को पाँच सेलफोन तक उपयोग करने की छूट है। आय के बन्द या कम होने और बचत किए जाने के लिए ये टेलीफोन बन्द किए गए हो सकते हैं।

आज सोशल मीडिया में कुछ पोस्टें ऐसे लोगों की हैं जो अमरीका को दुनिया में जनतंत्र का ईश्वर मानते हैं। उन्होंने लिखा है कि यह वायरस चीन सरकार का षड़यन्त्र है। और यदि चीन के स्थान पर कोई साधारण देश होता तो अमरीका वहाँ डेमोक्रेसी लाने पहुँच चुका होता। तो अमरीका के डेमोक्रेसी का भगवान होने सच यह है कि उस ने अब तक कहीं जनतन्त्र नहीं बनाया। जहाँ भी उसने जनतंत्र के नाम पर हस्तक्षेप किया, वहाँ अपनी दलाल सरकार बना कर लौटा। हाल ही में अफगानिस्तान का उदाहरण देखें। वह उसे फिर से उन्हीं कबीलावादी तालिबान के हाथों सौंप चुका है और तालिबान की छाया के तले वहाँ आईएस ने सिखों को कत्ल कर दिया है।

अमरीका जहाँ भी जाता है उस देश को वह राजशाही में, कबीलाई हालत में फिर तानाशाही में बदल देता है। अमरीका के तथाकथित शासक खुद भी अपने जनतंत्र से कम नहीं डरते। ट्रम्प की जनतंत्र के प्रति बिलबिलाहट बार-बार प्रकट होती है और वैश्विक समाचार बन जाती है। ट्रम्प का बस चले तो वह अमरीका का फ्यूहरर बन जाए। अमरीका और उसके जनतंत्र पर मर मिटने की हद तक फिदा लोगों के सन्देह कम्युनिस्ट शब्द से उन के मन में साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मीडिया द्वारा पैदा किए गए भय का परिणाम हैं। दुनिया के कुल मीडिया के 95 प्रतिशत पर साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों का कब्जा है। वे नए नए आँकड़े रचते हैं, अधिकारिक आँकड़ों का विश्लेषण मान्य स्टेटिकल रीति से करने के स्थान पर सन्देहपूर्ण तरीकों से करते हुए तमाम समाजवादी, साम्यवादी, जनप्रतिबद्ध ताकतों के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए करते हैं और दुनिया भर में झूठ फैलाते हैं। साम्राज्यवादी-पूंजीवादी ताकतें यह काम पिछली सदी के आरंभ में हुए पहले विश्वयुद्ध के समय से खूब कर रहा है।

हम आज की बात करें तो कथित जनतंत्र के भगवान अमरीका के कोविद-19 से निपटने के तरीकों  के सामने आने के बाद मैं यह मानने लगा हूँ कि यह दुनिया का सौभाग्य और कौविद-19 का दुर्भाग्य था कि वह चीन में पैदा हो गया। यदि उसने इटली, स्पेन, अमरीका या किसी अन्य पूंजीवादी देश में जन्म लिया होता तो सारी दुनिया अब तक इससे उत्पन्न महामारी से घायल पड़ी होती। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के नियंत्रण में पूंजीवाद को समाजवाद की और धकेलते चीन ने इस वायरस के विरुद्ध लड़ाई को पूरी तरह से वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की और उस पर सफलता पूर्वक नियंत्रण पाया। दूसरा समाजवादी देश क्यूबा है जिस क्रूज को कोई देश अपने बंदरगाह पर लंगर डालने की इजाजत नहीं दे रहा था उसे क्यूबा ने पनाह दी और संक्रमित लोगों का इलाज किया। अब जिस के डाक्टर्स अनेक देशों में जा कर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बनी केरल राज्य की सरकार है जिस ने भारत में सब से बेहतर तरीके से इस वायरस पर नियंत्रण पाया है।

जिन लोगों को जनतंत्र के भगवान अमरीका पर बहुत विश्वास है, और जो पहला अवसर मिलते ही तो वहाँ पलायन करने कौ तैयार बैठे रहते हैं। उसी अमरीका में कोविद-19 की महामारी से मरने वालों की संख्या बहुत तेजी से रिकार्ड तोड़ रही है। केवल साम्यवादी और समाजवादी ही हैं जो इस महामारी से सबसे बेहतर रीति से लड़ते हुए न केवल अपने अपने देशों की जनता की रक्षा कर रहे हैं। अपितु वे दूसरे देशों की मदद कर रहे हैं।  

बुधवार, 28 अगस्त 2019

राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता


प्रेमचन्द

राष्ट्रीयता

इसमें तो कोई सदेह नहीं कि अन्तर्राष्ट्रीयता मानव संस्कृति और जीवन का बहुत ऊँचा आदर्श है, और आदि काल से संसार के विचारकों ने इसी आदर्श का प्रतिपादन किया है. 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इसी आदर्श का परिचायक है. वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार ही तो किया. आज भी राष्ट्रीयता का रोग उन्हीं को लगा हुआ है, जो शिक्षित हैं, इतिहास के जानकार हैं. वे संसार को राष्ट्रों ही के रूप में देख सकते हैं. संसार के संगठन की दूसरी कल्पना उनके मन में आ ही नहीं सकती. जैसे शिक्षा से और कितनी ही अस्वाभाविकताएँ हमने अपने अन्दर भर ली हैं, उसी तरह से इस रोग को भी पाल लिया है. लेकिन प्रश्न यह है कि उससे मुक्ति कैसे हो? कुछ लोगों का ख्याल है कि राष्ट्रीयता ही अन्तर्राष्ट्रीयता की सीढ़ी है. इसी के सहारे हम उस पद तक पहुंच सकते हैं, लेकिन जैसा कृष्णमूर्ति ने काशी में अपने एक भाषण में कहा है, यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई कहे कि आरोग्यता प्राप्त करने के लिए बीमार होना आवश्यक है. 

तो फिर यह प्रश्न रह जाता है कि हमारी अन्तर्राष्ट्रीय भावना कैसे जागे? समाज का संगठन आदि काल से आर्थिक भित्ति पर होता आ रहा है. जब मनुष्य गुफाओं में रहता था, उस समय भी उसे जीविका के लिए छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बनानी पड़ती थीं. उनमें आपस में लड़ाइयाँ भी होती रहती थीं. तब से आज तक आर्थिक नीति ही संसार का संचालन करती चली आ रही है, और इस प्रश्न की ओर से आंखे बन्द करके समाज का कोई दूसरा संगठन नहीं हो सकता. यह जो प्राणी-प्राणी में भेद है, फूट है, वैमनस्य है, यह जो राष्ट्रों में परस्पर तनातनी हो रही है, इसका कारण अर्थ के सिवा और क्या है? अर्थ के प्रश्न को हल कर देना ही राष्ट्रीयता के किले को ध्वंस कर सकता है.

वेदान्त ने एकात्मवाद का प्रचार करके एक दूसरे ही मार्ग से इस लक्ष्य पर पहुंचने की चेष्टा की. उसने समझा, समाज के मनोभाव को बदल देने से ही यह प्रश्न आप ही आप हल हो जायेगा लेकिन उसे सफलता नहीं मिली. उसने कारण का निश्चय किये बिना ही कार्य का निर्णय कर लिया, जिसका परिणाम असफलता के सिवा और क्या हो सकता था? हजरत ईसा, महात्मा बुद्ध आदि सभी धर्म प्रवर्तकों ने मानसिक और आध्यात्मिक संस्कार से समाज का संगठन बदलना चाहा. हम यह नहीं कहते किउनका रास्ता गलत था. न ही; वही रास्ता ठीक था, लेकिन उसकी असफलता का मुख्य कारण यही था कि उसने अर्थ को नगण्य समझा. अन्तर्राष्ट्रीयता, या एकात्मवाद या समता तीनों मूलतः एक ही हैं. उनकी प्राप्ति के दो मार्ग हैं, एक आध्यात्मिक, दूसरा भौतिक. आध्यात्मिक मार्ग की परीक्षा हमने खूब कर ली है. कई हजार बरसों में हम यही परीक्षा करते चले आ रहे हैं, वह श्रेष्ठतम मार्ग था. उसने समाज के लिए ऊँचे से ऊँचे आदर्श की कल्पना की और उसे प्राप्त करने के लिए ऊँचे से ऊँचे सिद्धांत की सृष्टि की थी. उसने मनुष्य की स्वेच्छा पर विश्वास किया, लेकिन फल इसके सिवा और कुछ न हुआ कि धर्मोपजीवियों की एक बहुत बड़ी संख्य पृथ्वी का भार हो गयी. समाज जहां था वहीं खड़ा रह गया, नहीं और पीछे हट गया. संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा-भाव है, उतना शायद पहले कभी न था. आज दो भाई एक साथ नहीं रह सकते. यहां तक कि स्त्री-पुरुष में संग्राम चल रहा है. पुराने ज्ञानियों ने सारे झगड़ों की जिम्मेदारी जर, जमीन, जन' रखी थी. आज उसके लिए केवल एक ही शब्द काफी है – संपत्ति.

जब तक सम्पत्ति मानव-समाज के संगठन का आधार है, संसार में अन्तर्राष्ट्रीयता का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता. राष्ट्रों, राष्ट्रों की, भाई-भाई की, स्त्री-पुरुष की लड़ाई का कारण यही सम्पत्ति है. संसार में जितना अन्याय और अनाचार है, जितना द्वेष और मालिन्य है, जितनी मूर्खता और अज्ञानता है, उसका मूल रहस्य यही विष की गांठ है. जब तक सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार रहेगा, तब तक मानव समाज का उद्धार नहीं हो सकता. मजदूरों के काम का समय घटाइये, बेकारों को गुजारा दीजिये, जमींदारों और पूंजीपतियों के अधिकारों को घटाइये, मजदूरों और किसानों के स्वत्वों को बढ़ाइये, सिक्के का मूल्य घटाइये - इस तरह के चाहे जितने सुधार आप करें, लेकिन यह जीर्ण दीवार इस टीप-टाप से ही नहीं रह सकती. इसे गिराकर नये सिरे से  उठाना होगा.

संसार आदि काल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है. जिस पर वह प्रसन्न हो जाय, उसके भाग्य खुल जाते हैं, उसकी सारी बुराइयां माफ कर दी जाती हैं, लेकिन संसार का जितना नुकसान लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया. यह देवी नहीं, डायन है.

सम्पत्ति ने मनुष्य को अपना क्रीतदास बना लिया है. उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक बात केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है. मरते दम भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय इस संपत्ति का क्या होगा. हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं, सम्पत्ति के लिए गेरुए वस्त्र धारण करते हैं, सम्पत्ति के लिए घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भांति-भांति के वैज्ञानिक हिंसा-यन्त्र क्यों बनाते हैं? वेश्याए क्यों बनती हैं, और डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है. जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन न होगा, जब तक संपत्ति व्यक्तिवाद का अन्त न होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी.

कुछ लोग समाज के इस आदर्श को वर्गवाद, या 'क्लास वार' कह कर उसका अपने मन में भीषण रूप खड़ा कर लिया करते हैं. जिनके पास धन है, जो लक्ष्मी पुत्र हैं, जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिक हैं, वे इसे हौआ समझकर, आँखे बन्द करके, गला फाड़कर चिल्ला पड़ते हैं. लेकिन शांत मन से देखा जाय, तो असंपत्तिवाद की शरण में आकर उन्हें भी वह शांति और विश्राम प्राप्त होगा, जिसके लिए वे सन्तों और संन्यासियों की सेवा किया करते हैं, और फिर भी वह उनके हाथ नहीं आती. अगर वे अपने पिछले कारनामों को याद करें तो उन्हें मालूम हो कि सम्पत्ति जमा करने के लिए उन्होंने अपनी आत्मा का, अपने सम्मान का, अपने सिद्धान्त का खून किया. बेशक उनके पास करोड़ों की विभूति है, पर क्या उन्हें शान्ति मिल रही है? क्या वे अपने ही भाइयों से, अपनी ही स्त्री से सशंक नहीं रहते? क्या वे अपनी छाया से चौंक नहीं पड़ते, यह करोड़ों का ढेर उनके किस काम आता है? वे कुम्भकर्ण का पेट लेकर भी उसे अन्दर नहीं भर सकते. ऐन्द्रिक भोग की भी सीमा है. इसके सिवा उनके अहंकार को यह संतोष हो कि उनके पास एक करोड़ जमा है, और तो उन्हें कोई सुख नहीं है. क्या ऐसे समाज में रहना उनके लिए असह्य होगा, जहां उनका कोई शत्रु न होगा, जहाँ उन्हें किसी के सामने नाक रगड़ने की जरूरत न होगी. जहाँ छल-कपट के व्यवहार से मुक्ति होगी, जहां उनके कुटुम्ब वाले उनके मरने की राह न देखते होंगे, जहां वे विष के भय के बगैर भोजन कर सकेंगे? क्या यह अवस्था उनके लिए असह्य होगी? क्या वे उस विश्वास, प्रेम और सहयोग के संसार से इतना घबराते हैं, जहाँ वे निर्द्वन्द्व और निश्चित समष्टि में मिलकर जीवन व्यतीत करेंगे ? बेशक उनके पास बड़े-बड़े महल और नौकर-चाकर और हाथी-घोड़े न होंगे, लेकिन यह चिन्ता, संदेह और संघर्ष भी तो न होगा.

कुछ लोगों को संदेह होता है कि व्यक्तिगत स्वार्थ के बिना मनुष्य में प्रेरक शक्ति कहां से आयेगी. फिर विद्या, कला और विज्ञान की उन्नति कैसे होगी? क्या गोसाई तुलसीदास ने रामायण इसलिए लिखा था कि उस पर उन्हें रायल्टी मिलेगी? आज भी हम हजारों आदमियों को देखते हैं जो की उपदेशक हैं, कवि हैं, शिक्षक हैं, केवल इसलिए कि इससे उन्हें मानसिक संतोष मिलताहै. अभी हम व्यक्ति की परिस्थिति से अपने को अलग नहीं कर सकते, इसीलिए ऐसी शकाएं हमारे मन में उठती हैं, समष्टि कल्पना के उदय होते ही यह स्वार्थ चेतना स्वयं नष्ट हो जायेगी.

कुछ लोगों को भय होता है कि तब तक बहुत परिश्रम करना पड़ेगा. हम कहते हैं कि आज ऐसा कौन-सा राजा-धनी है जो आधी रात तक बैठा सिर नहीं खपाता. यहां उन विलासियों की बात नहीं है, जो बाप-दादों की कमाई उड़ा रहे हैं. वे तो पतन की ओर जा रहे हैं. जो आदमी सफल होना चाहता है, चाहे वह किसी काम में हो, उसे परिश्रम करना पड़ेगा. अभी वह अपने और अपने कुटुम्ब के लिए परिश्रम करता है, क्या तब उसे समष्टि के लिए परिश्रम करने में कष्ट होगा?

(२७ नवम्बर १९३३) 

शनिवार, 25 मई 2019

गांधीजी का छल

21 अक्टूबर, 1928 को ‘नवजीवन’ में गांधीजी ने लिखा - ‘बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो। यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता। परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है। ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।’ 


गांधीजी ने उक्त कथन में बोल्शेविज्म शब्द का प्रयोग किया है। बोल्शेविज्म शब्द से आज कुछ भी पता नहीं लगता है कि यह क्या है। क्या यह कम्युनिज्म है, या फिर वैज्ञानिक समाजवाद है या कुछ और। हम यदि रुसी बोल्शेविक क्रांति के बाद के दिनों में जाएँ तो उन दिनों क्रान्ति के बाद लेनिन के नेतृत्व में बनी राज्य-व्यवस्था को बोल्शेविज्म के रूप में जाना जाता था। हमें कुछ शब्दकोशो में भी उस का यही अर्थ मिलता है। हम जानते हैं कि लेनिन वैज्ञानिक समाजवाद की स्थापना करना चाहते थे उस के बिना एक कम्युनिस्ट व्यवस्था में संक्रमण संभव नहीं है। उन्हों ने जो सरकार स्थापित की थी वह सर्वहारा वर्ग का अधिनायकवाद था। 

लेकिन गांधीजी पहले कहते हैं – “बोल्शेविज्म को जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं समझ सका हूं वह यही कि निजी मिल्कियत किसी के पास नहीं हो— प्राचीन भाषा में कहें तो व्यक्तिगत परिग्रह न हो.” इस तरह वे यहाँ सीधे सीधे कम्युनिज्म की बात करते हैं। 

वे इस अवस्था को सही मानते हुए कहते हैं कि “यह बात यदि सभी लोग अपनी इच्छा से कर लें, तब तो इसके जैसा कल्याणकारी काम दूसरा नहीं हो सकता.” लेकिन फिर आगे कहते हैं “परंतु बोल्शेविज्म में जबरदस्ती से काम लिया जाता है. ...मेरा दृढ़ विश्वास है कि जबरदस्ती से साधा गया यह व्यक्तिगत अपरिग्रह दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता। ...फिर भी बोल्शेविज्म की साधना में असंख्य मनुष्यों ने आत्मबलिदान किया है। लेनिन जैसे प्रौढ़ व्यक्ति ने अपना सर्वस्व उसपर निछावर कर दिया था; ऐसा महात्याग व्यर्थ नहीं जा सकता और उस त्याग की स्तुति हमेशा की जाएगी।” 

उन का मतभेद यहाँ उस अवस्था अर्थात कम्युनिज्म तक पहुँचने में नहीं है। लेकिन उस तक पहुँचने के लिए जो सर्वहारा के अधिनायकवाद या “वैज्ञानिक समाजवाद” की स्थापना लेनिन करते हैं उस की आलोचना वे करते हैं क्यों कि वे कहते हैं कि “इस में जबर्दस्ती से काम लिया जाता है”। इस के समानान्तर वे “ट्रस्टीशिप” का सिद्धान्त ईजाद कर लेते हैं। 

इस तरह गांधीजी वस्तुतः “वैज्ञानिक समाजावाद”, सर्वहारा अधिनायकवाद” और साम्यवाद की अवधारणा को ठीक से समझ ही नहीं सके थे। उन्हों ने उसे समझने की चेष्टा भी नहीं की थी। अन्यथा वे देख पाते कि पूंजीवाद में जनता का जितना दमन पूंजीवादी सरकारें करती हैं, उतना सर्वहारा वर्ग के अधिनायकवाद में नहीं होता। समाजवाद में सिर्फ पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के साधन छिन जाते हैं। लेकिन शेष जनता को जो नए अधिकार मिलते हैं उस का दुनिया में इस से पहले कोई सानी नहीं था। “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” के सिद्धान्त गांधीजी के बहुत पहले अस्तित्व में आ चुके थे। यदि “समाजवाद” के समानान्तर उन्हें “ट्रस्टीशिप की व्यवस्था” की बात करने के पहले उनके लिए आवश्यक था कि वे पहले मार्क्सवाद के “सर्वहारा के अधिनायकवाद”, “वैज्ञानिक समाजवाद” और “साम्यवाद” की अवधारणाओं को ठीक से समझकर खंडन करते और फिर “ट्रस्टीशिप” के सिद्धान्त को तार्किक तरीके से स्थापित करने की कोशिश करते। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। 

सही बात तो यह है कि गांधीजी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत की आजादी के लड़ रहे थे और उनकी इस लड़ाई में देश के अनेक सामंत और पूंजीपति भी उन के साथ थे। इस तरह वे जिस पूंजीवादी व्यवस्था की उच्चतर अवस्था साम्राज्यवाद से लड़ रहे थे, उस लड़ाई में वे पूंजीपतियों को भी साथ लिए थे। जिस से पूंजीवाद की आलोचना उन के लिए संभव नहीं थी। साम्यवादी व्यवस्था की आलोचना संभव नहीं थी। उसकी आलोचना से उन के साथ जमीनी लड़ाई लड़ रहे करोडों किसान, मजदूर और मेहनतकश जनता उन के आंदोलन से दूर हो जाती। इस कारण उन्हों ने साम्यवाद तक पहुँचने के लिए एक पूरी तरह अव्यवहारिक “ट्रस्टीशिप” सिद्धान्त खड़ा कर दिया। यह सीधे-सीधे भारत के करोडों किसानों, मजदूरों और मेहनतकश जनता के साथ गांधीजी का छल था।

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मनुष्य समाज का भविष्य क्या है?


र्गहीन मानव समाज एक सपना नही अपितु यथार्थ है। मानव समाज को अस्तित्व में आए दो लाख वर्ष हुए हैं। इन में से 90 से 95 प्रतिशत समय उस ने वर्गहीन समाज की अवस्था में ही बिताया है। मनुष्य जीवन का मात्र पिछले दस हजार वर्षों का काल ही ऐसा है जिन में वर्गों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। पृथ्वी पर मनुष्य के आविर्भाव से आज तक के काल का केवल पाँच प्रतिशत के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त करना कि वर्गहीन समाज एक सपना है अपने आप में एक सपना है। साम्यवाद मनुष्य समाज से एक वर्ग को समाप्त कर देने मात्र से स्थापित नहीं हो सकता। उस के लिए मनुष्य समाज के सभी वर्गों का समूल नाश होना आवश्यक है। साम्यवाद तभी संभव है। सभी वर्गों के समूल नाश की बात से केवल वे लोग इन्कार करते हैं जो किसी न किसी प्रकार से शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और शोषकों और शोषण की व्यवस्था की रक्षा में खड़े हैं। मुझे उन लोगों पर हँसी आती है जो "साम्यवादी शासन" की बात करते हैं। साम्यवाद में तो शासन होता ही नहीं वह तो मानव समाज की शासनहीनता की अवस्था है। सभी समान हों तो कौन किस पर शासन करेगा? साम्यवाद और शासन में तो उतना ही बैर है, जितना रोशनी और अंधकार में। जब कोई वर्ग ही नहीं होगा तो कौन किस पर शासन करेगा? वर्गीय शासन में जनता शब्द या तो कोई अर्थ नहीं रखता और यदि रखता है तो उस से केवल वे लोग भासित होते हैं जो शोषक वर्ग के शिकार हैं। वास्तव में जनता एक भ्रामक शब्द है। समाज में शोषक होते और शोषित होते हैं। वर्तमान समाज व्यवस्था में जब पूंजीपति वर्ग ने अपने ही जाए उजरती मजदूरों के वर्ग के हाथों अपनी मृत्यु को निश्चित जान कर अपनी रक्षा के लिए सामंतवाद के समूल नाश के अपने कर्तव्य से च्युत हो कर उन से समझौता किया और अनेक ऐसे वर्गीय समूहों को जीवित रहने दिया जो खुद एक और श्रमजीवियों के शोषण में जुटे हैं तो दूसरी ओर सरमाएदारों के शोषण के शिकार भी हैं। यह पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग ही हैं जो मनुष्य समाज के सभी सदस्यों को जनता की संज्ञा प्रदान कर के भेड़ों और भेड़ियों की युति को रेवड़ बताने के भ्रम को जीवित रखते हैं। जब तक मनुष्यों की खाल में भेड़िये मौजूद हैं साम्यवाद किसी प्रकार संभव नहीं। ये भेड़िये ही हैं जो साम्यवाद के विरोधी हैं जो अपनी अवश्यंभावी मृत्यु के टल जाने को जनता द्वारा साम्यवाद के विचार को कूड़े के ढेर में फेंक देना घोषित करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि “वर्गहीन समाज भले स्थापित हो जाय पर शासनहीन होना सम्भव नहीं लगता। आदिम समय से ही मनुष्य मनुष्य पर शासन करता आया है। जानवरों तक में यह प्रवृत्ति पायी जा सकती है। काश मनुष्य की यह इच्छा सच हो पाती पर शायद यह (शासनहीनता की स्थिति) व्यावहारिक रूप से कभी नहीं हो सकेगा।” इस तरह सोचने वाले लोग मनुष्य जीवन के 95 प्रतिशत काल को मनुष्य जीवनकाल के संपूर्ण अनुभव को 100 प्रतिशत पर थोप रहे होते हैं। शासन को तो सभ्यता के युग ने उत्पन्न किया है। उस के पहले के इतिहास में शासन कहाँ था? कोई जरा इतिहास से खोज कर तो बताए। इस धारणा को भी शोषक वर्गो ने अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु को कुछ समय के लिए टालने के लिए जन्म देता है और उसे प्रचारित करता है। इस के बिना तो वे पाँच बरस भी जीवित नहीं रह सकते।

क्सर यह सन्देह प्रकट किया जाता है कि ये शोषक भेड़िये साम्यवाद की खाल में भी मौजूद हैं जो साम्यवाद के नाम पर शासन करने का मंसूबा पालते रहते हैं। तो उन के लिए जवाब हाजिर है कि भेड़िए साम्यवाद की खाल जरूर पहन सकते हैं। क्यों कि जब मौत आती है तो सियार शहर की ओर भागते हैं। हर समाजवाद और साम्यवाद विरोधी शासक ने समाजवाद का नारा जोरों से लगाया है। उन में हिटलर भी शामिल है और इंदिरागांधी भी।  लोग यह भी कहते हैं कि इतिहास में हजारों चीजें हैं जो वापस लौट कर नहीं आतीं। उसी तरह वर्गहीन समाज भी लौट कर नहीं आ सकता। वे सही कहते हैं कि हजारों चीजें है जो वापस नहीं लाई जा सकतीं। लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी चीज को वापस नहीं लाया जा सकता और न ही किसी भी समाज को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। हालांकि लोग और अनेक इतिहासकार यह घोषणा भी करते रहते हैं कि इतिहास दोहराया जाता है। लेकिन इतिहास कभी खुद को नहीं दोहराता। विकास की गति वृत्ताकार नहीं होती। वह गोलाकार कमानी (Spring) की तरह होती है। इस अवधारणा को अब तक के इतिहास ने बार बार प्रमाणित किया है। चीजें लौटती है लेकिन पहले से अधिक विकसित रूप में। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य समाज में वर्गो की उत्पत्ति क्यों कर हुई? वे क्या कारक थे जिन्होंने वर्गों को उत्पन्न किया? वर्गीय सत्ताएँ बार बार सत्ताच्युत की गई हैं, नए वर्गों ने पुराने वर्गों को हटा कर अपने वर्ग के लिए मुक्ति प्राप्त की है और अपनी सत्ता स्थापित की है। लेकिन इस पूंजीवाद ने उजरती मजदूरों के एक नए वर्ग को पैदा किया है (जिस में उच्च वेतनभोगी तकनीशियन, वैज्ञानिक और प्रबंधक भी सम्मिलित हैं) जो लगातार मुक्ति के लिए संघर्षरत है। उजरती मजदूरों का यह वर्ग अत्यन्त विशाल है। 
पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास के इस चरण में साबित कर दिया है कि पूंजीपति वर्ग मनुष्य समाज के लिए बिलकुल बेकार की चीज है, समाज में उस के लिए कोई काम नहीं है वह मनुष्य समाज के लिए एक व्यर्थ का बोझा मात्र है।  स्वयं पूंजीपति वर्ग ने सभी प्रकार के कामों को वेतनभोगी उजरती मजदूरों को करने को सौंप दिया है और उन्हें वे सफलतापूर्वक कर रहे हैं। पूंजीवादी विचारक उजरती मजदूरों के इस वर्ग को अनेक फर्जी उपवर्गों में विभाजित करते है। लेकिन ये सभी विभाजन आभासी हैं उन का समाप्त होना अवश्यंभावी है। यही वह क्रांतिकारी वर्ग है जिसे वर्तमान सत्ता को समाप्त करना है। लेकिन यही वह वर्ग भी है जो शासन कर के स्वयं मुक्त नहीं हो सकता। उस की मुक्ति और विजय इसी में है कि वह मनुष्य समाज से सदैव के लिए वर्गों का उन्मूलन कर दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो प्रतिक्रांति ही उस का भविष्य बन जाती है।  यह प्रतिक्रांति फिर से पूंजीपति वर्ग को जीवनदान देती है और उस की सत्ता की अस्थाई पुनर्स्थापना करती है। जब जब भी उजरती मजदूरों के इस सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद को परास्त करने के उपरान्त मनुष्य समाज से तमाम वर्गों के उन्मूलन के संघर्ष को स्थगित किया है वहाँ प्रतिक्रांतियाँ हुई हैं। लेकिन यह नया विशाल वर्ग अपने अनुभवों से लगातार सीखता है और सीख रहा है। उस ने अपनी मुक्ति के संघर्ष को त्यागा नहीं है, वह इसे त्याग भी नहीं सकता। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया है। आरंभ में यह संघर्ष केवल सुविधाएँ हासिल करने का होता था। लेकिन जब वह देखता है कि सुविधाएँ तो उस से बार बार छीन ली जाती हैं तो वह अपनी सत्ता स्थापित करने में इस का हल पाता है और जब वह यह अनुभव हासिल कर लेता है कि उस की सत्ता को भी बार बार पदच्युत कर दिया जाता है तो वह वर्गों के समूल नाश की और आगे बढ़ता है। वह वर्ग मुक्ति की कामना और उस के लिए संघर्ष का कभी त्याग नहीं कर सकता। उस की मुक्ति वर्गों के उन्मूलन में है जिसे वह एक दिन हासिल कर के रहेगा। साम्यवाद ही मानव समाज का भविष्य है।