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रविवार, 8 सितंबर 2019

जज

सबसे बुरा तब लगता है जब जज की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति अपने इजलास में किसी मजदूर से कहता है कि "फैक्ट्रियाँ तुम जैसे मजदूरों के कारण बन्द हुई हैं या हो रही हैं"।

40 साल से अधिक की वकालत में अनगिन मौके आए जब यह बात जज की कुर्सी से मेरे कान में पड़ी। हर बार मेरे कानों से गुजर कर मस्तिष्क तक पहुँचे ये शब्द अंदर एक विस्फोट कर डालते हैं। यह सोच भी तभी तुरन्त प्रतिक्रिया स्वरूप आती है कि इस विस्फोट की गर्मी को शान्त करो, तुम किसी जनतांत्रिक अदालत में नहीं बल्कि पूंजीपतियों, जमींदारों के पोषक राज्य की अदालत में खड़े हो। यह अदालत प्रतिवाद का उत्तर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के आरोप, सुनवाई और सजा से दे सकती है। गुस्सा कभी अदालत पर नहीं आता। आता है उस व्यक्ति पर जो सिर से ऊंची पीठ वाली कुर्सी पर बैठता है। जिस ने भले ही प्रेमचंद की "पंच परमेश्वर" कहानी पढ़ी हो, पर उस पंच जैसा बनने की खुद की कोशिश को जरा देर में नाकामयाब बना देता है। 

मैं यहाँ उन व्यक्तियों की बात नहीां करता जो उस उँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय का सौदा करते हैं, कैश में या काइंड में। लेकिन उन की बात कर रहा हूँ जो पूरी ईमानदारी से, पूरी शुचिता के साथ उस ऊँची कुर्सी पर बैठ कर न्याय करना चाहते हैं। लेकिन वे अपनी वर्गीय स्थिति का क्या करें? वे ज्यादातर उच्च और उच्च मध्यवर्ग से आते हैं, कुछ निम्नमध्यवर्ग से भी। इन तमाम वर्गों के लोगों की सामान्य कोशिश यही रहती है कि किसी तरह मेहनत कर के, किसी तिकड़म से, और यहाँ तक कि परिवार की जमा पूंजी को बत्ती लगा कर, ऊपर से कर्जा लेकर भी अपने वर्ग से ऊपर के वर्ग में स्थान बना लें। बमुश्किल उन में से कुछ लोगों को कामयाबी मिलती है। वे डाक्टर, इंजीनयर, सरकारी अफसर, जज वगैरा बन पाते हैं। इस कोशिश में ज्यादातर पराजित हो कर निचले वर्ग में पहुँच जाते हैं। बहुत लोग मजदूर भी हो जाते हैं लेकिन वहाँ भी उन की मानसिकता उन्हीं टटपूंजिया वर्गों की जैसी बनी रहती है, जिन से वे आए हैं। हमारे पूंजीवादी सामंती समाज का सुपरस्ट्रक्चर उन्हें अपने पानी से भरे पूल में सतह से ऊपर सिर निकाल कर साँस लेने का अवसर ही नहीं देता। 

इस तरह के वाक्य जब ऊंची कुर्सी से कान में पड़ते हैं तो मैं तुरन्त जवाब देने से बचने की कोशिश करता हूँ। बाद में किसी मौके पर उसका प्रतिवाद भी करता हूँ। पर जब उस कुर्सी पर ईमानदारी से काम करते हुए व्यक्ति से ऐसा वाक्य सुनने को मिलता है, जिन से थोड़ी बहुत आशा मैं और मजदूर करने लगते हैं, तो चुप नहीं रहा जाता, भिड़न्त हो ही जाती है। कुछ दिन पहले फिर एक भिड़न्त हो गयी। मैंने कहा- आप ने तो वर्डिक्ट ही सुना दिया। पूरे वर्ग को दोषी ठहरा दिया। कोई गवाह नहीं, सबूत नहीं, बस हवा की सूली पर टांक दिया। अब जब तक वह मरेगा नहीें तब तक सोचता रहेगा कि यह केवल और केवल मजदूर वर्ग में पैदा होने का अभिशाप / कलंक है जो इस राज्य में कभी नहीां धुल सकता। आप किसी भी मुकदमे में इस बात को कभी साबित नहीं कर सकते कि किसी एक या अधिक मजदूरों के कारण कोई कारखाना बंद हुआ है। कारखाना पूंजीपति और उनकी सरकारों की इच्छा से खुलते हैं और उन्हीं की मर्जी से बन्द होते हैं। वे बस प्रोपेगण्डा करते हैं कि मजदूरों की वजह से कारखाने बंद होते हैं। खैर, भिड़न्त हो गयी। फिर कुर्सी ने उस विवाद से पल्ला झाड़ लिया। 

यह पूंजीवादी सामंती राज्य किसी हालत में मजदूरों, किसानों और मजलूमों के साथ कभी न्याय नहीं कर सकता। उस की कोई अदालत उन के साथ इंसाफ नहीं कर सकती। वे बनी ही इसलिए हैं कि वे इन वर्गों के असंतोष को किसी तरह दबाए रखें, उलझाए रखें। उस की आँच उस के मालिकों तक पहुँचे ही नहीं। इस राज्य में मजदूरोे किसानों का न्याय प्राप्ति की आशा करना ही व्यर्थ है। इस व्यवस्था के जज अखबारों को "मजदूर को न्याय मिला" जैसी खबरों से भरने के लिए मसाला जरूर पैदा करते हैं। लेकिन वे मजदूरों किसानों के साथ न्याय कर के वे वर्ग स्वामियों को नुकसान कैसे पहुँचा सकते हैं? वे तो उनके सब से बहुमूल्य सेवक हैं। वे इस व्यवस्था की "शॉक एब्जोर्बर" मात्र हैं।
- दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

राजनीति में सामंतवाद महत्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है।

पाँच राज्योें के विधानसभा चुनावों में एक परिदृश्य ठीक उन दिनों उपस्थित हो रहा है जब उम्मीदवारों के नामांकन की अन्तिम तिथि नजदीक आई है। यह परिदृश्य उपस्थित करने में पहले सत्ता में रह चुकी कांग्रेस और वर्तमान में सत्ता का स्वाद चख रही भाजपा प्रमुख हैं। कांग्रेस के वे नेता जो समझते थे कि उन्हें तो पार्टी चुनाव में उम्मीदवार बनाने से इन्कार कर ही नहीं सकती। उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाने पर वे रातों रात भाजपा मे गए और उन्हें तुरन्त वहाँ उम्मीदवार बना लिया गया। इसी तरह रातों रात भाजपा के एक पुराने सदस्य ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की और कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया। 


कांग्रेस के पुराने नेता बून्दी के बृजसुंदर शर्मा की पुत्रवधु जिस की कांग्रेस में अच्छी स्थिति थी इस बार उम्मीदवार न बनाए जाने पर उसे भाजपा ने अपने पाले में बुला कर तुरन्त इटावा विधानसभा से उम्मीदवार बनाया। उसी तरह कांग्रेस से संसद सदस्य रहे कोटा के भूतपूर्व राज परिवार के सदस्य इज्जेराज सिंह ने रातों रात कांग्रेस को त्याग कर भाजपा की सदस्यता प्राप्त कर ली और उन की पत्नी को भाजपा ने लाडपुरा विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बना लिया है। दूसरी और पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवन्त सिंह के पुत्र मानवेन्द्र सिंह ने भाजपा को छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता ली और वे अब वर्तमान मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के विरुद्ध कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में झालरापाटन से चुनाव लड़ रहे हैं। 


हाँ दोनों ही पार्टियाँ विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी नीतियों और घोषणापत्रों के आधार पर चुनाव लड़ती प्रतीत नहीं होती हैं। वे किसी भी तरह से अधिक से अधिक विधानसभा क्षेत्रों में जीत कर विधानसभा में अपना बहुमत बनाने के फेर में हैं। ममता शर्मा और इज्जेराज सिंह को उन्हों ने क्षत्रप माना है, जिनका किसी क्षेत्र विशेष में अपना प्रभाव है और उस प्रभाव के उपयोग से वे चुनाव जीत कर भाजपा की झोली में डाल देंगे। भाजपा जानती है कि यह चुनाव वह नहीं जीत रही है बल्कि जीतना है तो क्षत्रपों पर भरोसा करना होगा। कांग्रेस की स्थिति कुछ भिन्न है। उन्हों ने मानवेंद्र सिंह को मुख्यमंत्री वसुन्धरा के मुकाबले चुनाव में खड़ा किया है जहाँ से उन का जीतना अत्यन्त दुष्कर प्रतीत होता है। फिर भी वे वसुन्धरा को अच्छी टक्कर दे सकते हैं। 

ह स्थिति केवल हाड़ौती अंचल की नहीं है पूरे राजस्थान में और अन्य राज्यों में भी कमोबेश इस तरह की घटनाएँ घटी हैं। चुनाव के ठीक पहले ये घटनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि राजनीति आज भी उसी सामंतवादी स्वभाव से चल रही है, जहाँ राजा का राज इस आधार पर नहीं चलता था कि वह जनता के बीच लोकप्रिय है, बल्कि इस आधार पर चलता था कि उस ने कितने सूबेदारों का विश्वास जीत रखा है। इस तरह हम देखते हैं कि राजनीति के क्षेत्र में देश की सत्ता पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए पूंजीपति वर्ग को सामंती राजनीति पर बड़ा भरोसा रखना पड़ रहा है। बल्कि वह जानता है कि इस के बिना वह सत्ता को बहुत देर तक अपने पास बरकरार नहीं रख सकता। 


मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना आधार मानने वाले कुछ राजनैतिक दल पता नहीं किस आधार पर यह मानते हैं कि भारत में सामंतवाद सगभग समाप्त हो चुका है, सामंती संबंध प्रभावशाली नहीं रहे हैं। और इसी आधार पर वे मानते हैं कि जनवादी क्रान्ति के कार्यभार पूरे हो चुके हैं और भारत में समाजवादी क्रान्ति का दौर आ चुका है।

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

राज्य, मनुष्य समाज से अलग और उस से ऊपर : बेहतर जीवन की ओर-7

मने अब तक मानव समाज की जांगल-युग से राज्य के विकास तक की यात्रा का संक्षिप्त अवलोकन किया। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर जैविक विकास के एक स्तर पर हम मानवों का उद्भव वानर जाति के किसी पूर्वज से हुआ है। मनुष्य के प्रारंभिक रूप होमोसेपियन्स को प्रकट हुए अधिक से अधिक पाँच लाख वर्ष और आधुनिक मानव का प्राकट्य दो लाख वर्ष पूर्व के आसपास का है। प्रसिद्ध अमरीकन नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन ने मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को तीन युगों में वर्गीकृत किया है। जांगल युग, बर्बर युग तथा सभ्यता का युग। उन्हों ने पहले दो युगों के मानव समाज के इतिहास की तर्कसंगत और तथ्यात्मक रूपरेखा को स्पष्ट करने का महत्बपूर्ण काम किया। उन्हों ने इन दो युगों को भी तीन-तीन भागों में विभाजित किया है। जांगल युग की पहली निम्न अवस्था जो हजारों वर्षों तक चली होगी और जिस में मनुष्य आंशिक रूप से वृक्षों पर निवास करता था, हिंसक पशुओं का सामना करते हुए जीवित रहने का एक मात्र यही तरीका उस के पास था। इस युग की विशेषता यही है कि मनुष्य बोलना सीख गया था। इस युग के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि हम एक बार मान लेते हैं कि मनुष्य का उद्भव जैविक विकास के परिणाम स्वरूप हुआ हुआ है तो हमें इस संक्रमण कालीन अवस्था को मानना ही होगा। जांगल युग की दूसरी मध्यम अवस्था में मनुष्य जल-जन्तुओं मछली, केकड़े, घोंघे आदि को भोजन के रूप में प्रयोग करने लगा था। इसी अवस्था में उस ने आग का प्रयोग सीखा। नदियों और समुद्र तटों की यात्रा करते हुए इसी युग में मनुष्य लगभग पृथ्वी के भूभाग पर फैल गया था। पुरापाषाण युग के औजार इसी अवस्था के हैं। इसी युग में पहले अस्त्रों गदा और भालों का आविष्कार हुआ। इसी युग में वह शिकार करने और कभी कभी मांस को भोजन में शामिल करने लगा था। तीसरे और जांगल युग की उन्नत अवस्था धनुष-बाण के आविष्कार से आरंभ हुई, लेकिन वह अब तक मिट्टी के बर्तन भांडे बनाने की कला नहीं सीख सका था। हाँ वह लकड़ी के बर्तन अवश्य बनाने लगा था। पेड़ों के खोखले तनों से नाव बनाना उस ने आरंभ कर दिया था। इसी अवस्था में उस ने जीवन निर्वाह के साधनों पर किसी तरह काबू पा लिया था और गाँवों में बसने लगा था।
र्बर युग की निम्न अवस्था तब आरंभ हुई जब उस ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख ली। मनुष्य लगभग सारी धरती पर इस समय तक पहुँच चुका था। इस काल तक मानव विकास पूरी पृथ्वी में एक जैसा मिलता है। लेकिन खेती सीख लेने के निकट पहुँच जाने पर अलग अलग क्षेत्रों की प्राकृतिक परिस्थितियाँ उसे अलग अलग तरीके से प्रभावित कर रही थीं। आगे का विकास बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि धरती के जिस क्षेत्र में वह निवास कर रहा है वहाँ की धरती, जलवायु, मौसम आदि किस प्रकार के हैं और उसे किस तरह के प्राकृतिक साधन उपलब्ध करा रहे हैं। ये सब चीजें मनुष्य के सामाजिक विकास की गति को भी प्रभावित कर रही थीं। यही एक कारण है कि एक भूभाग पर विकास की गति मंद दिखाई देती है तो दूसरे स्थान पर वह तेज दिखाई देती है।

र्बर युग की मध्यम अवस्था पशुपालन से आरंभ हुई। इसी युग में खाने लायक पौधों की सिंचाई के माध्यम से खेती का आरंभ और मकान बनाने के लिए धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग आरंभ हो जाता है। अमरीकी इंडियन यूरोप के लोगों द्वारा विजय प्राप्त कर लेने तक भी इसी अवस्था का जीवन जीते थे। पूर्वी गोलार्ध में यह अवस्था दूध और मांस देने वाले पशुओं के पालन से आरंभ हुई, वे अभी खेती करना नहीं जानते थे। खेती बाद में पशुओं के चारे के लिए आरंभ हुई। बर्बर युग की उन्नत अवस्था लौह खनिज को गलाने और लिखने की कला के आविष्कार से आरंभ हुई। इसी अवस्था में हम पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग देखते हैं। इसी युग में धातुओं के औजार, गाड़ियाँ और नगरों का निर्माण देखने को मिलता है। यहीं से सभ्यता का काल आरंभ हो जाता है। जांगल युग में प्रकृति के पदार्थों को हस्तगत करने की प्रधानता थी और इन्हीं कामों के लिए आवश्यक औजार मनुष्य उस युग में विकसित कर सका। बर्बर युग में मनुष्य ने पशुपालन और खेती करने का ज्ञान अर्जित किया तथा अपनी क्रियाशीलता के कारण प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखे। जांगल और बर्बर युगों का काल बहुत लंबा चलता है जिस के मुकाबले सभ्यता का वर्तमान युग आधुनिक मनुष्य (होमो सेपियन्स सेपियन्स) के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों का पाँच प्रतिशत से भी कम, केवल कुछ हजार वर्षों का है।
धुनिक मनुष्य के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों में से सभ्यता के युग के कुछ हजार वर्ष निकाल दें तो हम पाते हैं कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया। तब भी जब समूह में दास सम्मिलित होने से वर्ग उत्पन्न हो गए थे, दासों के अतिरिक्त स्वतंत्र समुदाय अपनी व्यवस्था को बिना किसी राज्य के रक्त संबंधों पर आधारित संस्थाओं के माध्यम से चलाता रहा था। राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। वह ऐसी शक्ति भी नहीं जो अचानक बाहर से ला कर मनुष्य समाज पर लाद दी गई हो। वह किसी नैतिक विचार या विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप भी नहीं है। वह मनुष्य समाज की उपज है जो विकास की एक निश्चित अवस्था में उत्पन्न हुई है। वह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि मनुष्य समाज ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया है, जिन्हें वह हल नहीं कर पा रहा है, उन के हल का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। उसे ऐसी शक्ति की आवश्यकता पड़ गई है जो मनुष्य समाज में पैदा हो गए इन अन्तर्विरोधों का हल खोज निकालने तक मनुष्य समाज को व्यर्थ के वर्गसंघर्ष से नष्ट होने से बचा ले चले। वह एक ऐसी शक्ति बन गई है जो ऊपर से मालूम पड़े कि वह मनुष्य समाज से अलग उस के ऊपर खड़ी है। इस शक्ति ने जिसे हम राज्य के नाम से जानते हैं, जो समाज से ही उत्पन्न हुई, उस ने समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लिया और उस से अधिकाधिक पृथक तथा दूर होती चली गई।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

राज्य की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की ओर -6

ब तक हमने देखा कि किस तरह शिकार करते हुए पशुओं के बारे में अनुभव ने मनुष्य को पशुपालन की और धकेला और इसी पशुपालन ने मनुष्य समाज में दास वर्ग को उत्पन्न किया। ये दास स्वामी समूह की सहायता करते थे। इन्हीं में से तरह तरह के दस्तकारों का एक नया वर्ग उभरा। जिस ने मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने में मदद की। पशुओं के लिए चारा पैदा करते हुए उस ने अपने खाने के लिए अनाज की खेती करना सीख लिया। लोहे से औजार बनाने की कला विकसित हुई जिस ने जंगलों को काट कर खेती लायक बनाना और उन्हें जोतना आसान कर दिया। पशुओं और दासों का विनिमय पहले प्रचलित था, लेकिन खेती से उत्पन्न प्रचुर मात्रा में अनाज व दूसरी फसलों ने विनिमय को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसी से एक नया व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआ।

ब तक जितने भी वर्ग थे उन के जन्म के साथ उत्पादन प्रक्रिया का सीधा संबंध था। लेकिन व्यापारी वर्ग का उत्पादन प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं था। इस नए वर्ग ने उत्पादकों में यह विश्वास पैदा कर दिया था कि वह उन के उत्पादन को कहीं भी खपाएगा और उस के बदले उन्हें उपयोगी वस्तुएं ला कर देगा। इस तरह बिना किसी उत्पादन प्रक्रिया में भाग लिए इस वर्ग ने उत्पादकों को अपने लिए उपयोगी सिद्ध कर दिया था। इस वर्ग ने उत्पादकों और उन के उपभोक्ताओं दोनों से ही अपनी सेवाओं के बदले मलाई लूटना आरंभ कर दिया और बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही धातु के बने सिक्कों का उपयोग आरंभ हो गया। हर किसी को अपने उत्पाद के बदले ये सिक्के प्राप्त होते जिन से वे दूसरी चीजें प्राप्त कर सकते थे। इस नए साधन के द्वारा माल पैदा न करने वाला माल पैदा करने वालों पर शासन कर सकता था। मालों के माल का पता मिल चुका था। वह एक जादू की छड़ी की तरह था जिसे पलक झपकते ही इच्छानुसार वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता था। अब उत्पादन के संसार में उसी का बोलबाला था जिस के पास यह जादू की छड़ी सब से अधिक मात्रा में होती थी। यह सिर्फ व्यापारी के पास हो सकती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि आगे सभी उत्पादकों को इस मुद्रा के आगे नाक रगड़नी पड़ेगी। सब माल इस मूर्तिमान माल के सामने दिखावा रह गए थे।

विभिन्न मालों, दासों और मुद्रा के रूप में सम्पदा के अतिरिक्त अब जमीन भी एक संपदा के रूप में सामने आ गयी थी। कबीलों से परिवारों को खेती करने के लिए जमीनों के जो टुकड़े मिले थे उन पर अब उन का अधिकार इतना पक्का हो गया था कि वे वंशगत संपत्ति बन गए थे। जमीन के इन नए मालिकों ने गोत्र और कबीलों के अधिकार के बंधनों को उतार फेंका था। यहाँ तक कि उन के साथ संबंधों को भी समाप्त कर लिया था। जमीन पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया था। अब जमीन ने भी माल का रूप धारण कर लिया था। उसे मुद्रा के बदले बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। उधर माल हासिल करने के लिए मुद्रा एक आवश्यक चीज बन गई थी। उसे उधार दिया जा सकता था जिस पर ब्याज वसूला जा सकता था। इस तरह सूदखोरी का जन्म हुआ। निजि स्वामित्व के साथ सूदखोरी और रहन वैसी ही चीजें थी जैसे एकनिष्ठ विवाह के साथ अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति थी। मुद्रा का चलन, सूदखोरी, निजि भूस्वामित्व और रहन के साथ व्यापार के विस्तार से एक छोटे वर्ग के पास बड़ी तेजी से धन संग्रह होने लगा तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ने लगी। तबाह और दिवालिया लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी। इस से समाज में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। एथेंस में समृद्धि के उत्कर्ष के समय स्त्रियों और बच्चों सहित स्वतंत्र लोगों की संख्या मात्र 90,000 थी जब कि दासों की संख्या 3,65,000 थी। कोरिंथ और ईजिना नगरों मे दासों की संख्या स्वतंत्र लोगों के मुकाबले दस गुना थी।

लेकिन अब तक उन आदिकालीन संस्थाओं का हाल क्या हुआ यह भी देख लिया जाए। गोत्र व कबीले उन की इच्छा और सहायता के बिना पैदा हो गई नई चीजों के सामने निस्सहाय हो गये। गोत्रों और कबीलों का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि उन के सभी सदस्य एक इलाके में रहें और दूसरे न रहें। लेकिन ऐसा तो बहुत समय से नहीं रह गया था। गोत्र और कबीले आपस में घुल मिल गए थे। हर स्थान पर स्वतंत्र नागरिकों के बीच दास, आश्रित और विदेशी लोग रहने लगे थे। पशुपालन से खेती में संक्रमण से यायावरी ने जो स्थावरता हासिल की थी वह अब फिर से समाप्त हो रही थी। लोगों की गतिशीलता और निवास परिवर्तन उसे तोड़ रहा था। व्यापार धंधे बदलने, भूमि के अन्य संक्रमण से यह संचालित हो रहा था। गोत्र और कबीलों के सदस्यों के लिए यह संभव नहीं था कि वे सामुहिक मामलों को निपटाने के लिए एक स्थान पर एकत्र हो सकें। वे अब गौण महत्व के धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों के समय ही आपस में एकत्र होते थे, वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएँ जिन जरूरतों को हितों की देखभाल करती थीं उन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन की अवस्थाओं में क्रांति तथा उस के अनुरूप सामाजिक ढांचे में हुए परिवर्तन से कुछ नई जरूरतें और नए हित भी पैदा हो गए थे। जिन्हें गोत्र समाज की संस्थाएँ नहीं संभाल सकती थीं। श्रम विभाजन से दस्तकारों के नए समूह पैदा हुए थे। उन के हितों और देहात के मुकाबले नगरों के विशिष्ठ हितों के लिए नए निकायों की आवश्यकता थी।

न नए निकायों का निर्माण गोत्र समाजों के समानान्तर और गोत्र समाज के बाहर उस के विरोध में होने लगा। गोत्र समाज की प्रत्येक संस्था के भीतर अमीरों-गरीबों, सूदखोरों-कर्जदारों के एक साथ होने के कारण भीतरी टक्कर चरम सीमा पर पहुँच गई। रक्त संबंधों पर आधारित ये गोत्र, कबीले बाहरी लोगों की उपस्थिति को अपने अंदर जज्ब करने की क्षमता नहीं रखते थे। इस तरह गोत्र समाज का लोकतंत्र अब एक तरह का घृणित अभिजात तंत्र बन गया था। इन परिस्थितियों में एक ऐसा समाज उत्पन्न हो गया था जिस ने अनिवार्यतः स्वयं को स्वतंत्र नागरिकों और दासों में, शोषक धनिकों और शोषित गरीबों में विभाजित कर दिया था। लेकिन वह इन वर्गो में सामंजस्य लाने में असमर्थ था और स्वयं ही इन में और अधिक दूरियाँ पैदा कर रहा था। इस से एक तो यह हो सकता था कि ये वर्ग एक दूसरे के विरुद्ध खुला संघर्ष चलाते रहें और मारकाट व अराजकता की स्थितियाँ बन जाएँ। दूसरे यह हो सकता था कि एक तीसरी शक्ति का शासन हो जो देखने में संघर्षरत वर्गों से अलग तथा उन से ऊपर दिखाई पड़े और उन्हें खुले संघर्ष न चलाने दे। अधिक से अधिक उन्हें आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित रीति से संघर्ष करने की छूट दे दे। श्रम विभाजन और समाज के वर्गों में बँट जाने से गोत्र व्यवस्था की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी। उस का स्थान इस नयी जन्मी तीसरी शक्ति 'राज्य' ने ले लिया था।

सेना और व्यापारियों की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की तलाश-5


 शुओं के रूप में उत्पन्न हुई संपत्ति ने मातृवंश को पितृसत्ता में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रीति से चुपचाप अवश्य हुआ, लेकिन इस का सफर आसान नहीं था। पशुपालन के पूर्व तक गोत्रों के पास संपत्ति थी ही नहीं। पशुओं को पकड़ कर लाने, उन्हें पालतू बनाने और युद्ध बंदियों को दास बना कर रखने का काम पुरुषों ने किया था, इस कारण समूह के पुरुष ही इस पहली संपत्ति के स्वामी थे। पशुपालन और रेवड़ों में पशुओं की संख्या बढ़ने से उन के बदले कुछ भी प्राप्त किया जा सकता था। वे विनिमय का साधन हो गए, वे मुद्रा का काम करने लगे। पशुओं के बदले प्राप्त वस्तुएँ भी पुरुषों की संपत्ति हो गईं। पुरुषों ने घर के बाहर के सब काम संभाले और स्त्री के पास पहले से घर के अंदर के जो काम थे वे ही उन के पास रह गए। आजीविका का काम पुरुषों के पास आ जाने से घर के अंदर के कामों के कारण जो प्रमुख स्थान स्त्रियों को प्राप्त था, अब उसी कारण से स्त्रियों का स्थान गौण हो गया। उन के घरेलू कामों का महत्व जाता रहा। सामाजिक उत्पादन में उस का कोई योगदान नहीं रहा। इसी से हम आज यह सीख ले सकते हैं कि जब तक केवल घर के काम स्त्रियों के पास रहेंगे उन का पुरुषों के साथ बराबरी का हक प्राप्त करना असंभव है, और असंभव ही रहेगा। वे तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब बड़े सामाजिक पैमाने पर वे उत्पादन में भाग लेने लगें। मातृवंश के स्थान पर पितृसत्ता के कायम होने से समूह पर पुरुष की तानाशाही पूरी तरह स्थापित हो गयी। इस तरह संपत्ति के उद्भव ने स्त्री-पुरुष के बीच जो भेद कायम किया वह आज तक चला आ रहा है।
लोहे के आविष्कार ने जंगलों को काट कर खेती योग्य भूमि तैयार करने और भूमि को बड़े पैमाने पर जोतना संभव कर दिया। इस से खेती का विस्तार होने लगा। दस्तकारों को सख्त और तेज औजार मिल गए। धीरे धीरे पत्थर के औजार गायब होने लगे। कबीलों के और कबीलों के महासंघ के मुख्य स्थान नगर हो गए। बुर्जों और दरवाजों से युक्त चहारदिवारी के घेरे में पत्थर और ईंटों के मकान बनने लगे। यह वास्तुकला के विकास और संपदा के कारण उत्पन्न खतरों से प्रतिरक्षा की आवश्यकता के द्योतक थे। संपत्ति बढ़ रही थी और यह अलग अलग व्यक्तियों की थी। बुनाई, धातुकर्म, दस्तकारों का अपना विशिष्ठ रूप होता जा रहा था। खेती से अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ ही नहीं तेल और शराब भी मिलने लगे। कुछ लोग इन्हें बनाने की कला में विशिष्ठता हासिल करने लगे। इतने तरह के काम होने लगे थे कि हर कोई सब काम नहीं कर सकता था। इस से श्रम विभाजन हुआ और खेती से दस्तकारी अलग हो गई। इस से उत्पादन क्षमता बढ़ी, उस ने मानव की श्रम शक्ति का मूल्य बढ़ा दिया। इस से दासों का महत्व बढ़ गया। अब वे केवल सहायक नहीं रह गये। उन्हें कई तरह के कामों में झोंका जाने लगा। उत्पादन के खेती और दस्तकारी में बंट जाने से विनिमय के लिए ही माल का उत्पादन होने लगा। इस से कबीलों की सीमाओं के पार यहाँ तक कि समुद्र पार तक व्यापार होने लगा।
ब स्वतंत्र लोगों और दास के भेद के साथ ही अमीर गरीब का भेद भी दिखाई देने लगा। सामुदायिक कुटुम्ब कायम थे लेकिन उन के मुखियाओं के पास अधिक या कम संपदा होने के आधार पर वे टूटने लगे। समुदाय द्वारा मिल कर खेती करने की प्रथा भी समाप्त होने लगी। जमीन परिवारों में बंटने लगी। इस तरह निजि स्वामित्व में संक्रमण आरंभ हुआ। परिवार भी निजि स्वामित्व के बढ़ने के साथ ही एकनिष्ठ होने लगे। परिवार समाज की आर्थिक इकाई बन गए। आबादी के घनी होने से यह आवश्यक हो गया कि वह आंतरिक और बाह्य रूप से पहले से अधिक एकताबद्ध हो। पहले एक दूसरे से रिश्ते से जुड़े कबीलों के महासंघ बने और फिर कुछ समय बाद उन का विलय होने लगा। कबीलों के इलाके मिल कर एक जाति का इलाका बन गए। गोत्र समाज एक सैनिक लोकतंत्र के रुप में विकसित होने लगे। युद्ध करना और युद्ध के लिए संगठन करना जन जीवन का नियमित अंग बनने लगा। पड़ौसी जाति की दौलत देख कर ललचाना, उसे हासिल करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। उत्पादक श्रम से दौलत हासिल करने के स्थान पर लूटमार कर के हासिल करना अधिक आसान और सम्मानप्रद था। पहले जहाँ आक्रमण का बदला लेने या अपर्याप्त क्षेत्र को बढ़ाने के लिए ही युद्ध होते थे अब संपदा हासिल करने के लिए भी होने लगे। युद्धों ने सेना नायकों, उपनायकों की शक्ति को बढ़ा दिया। एक ही परिवार से उत्तराधिकारी चुने जाने की प्रथा वंशगत उत्तराधिकार में बदल गई। इस तरह वंशगत बादशाहत और अभिजात वर्ग की नींव पड़ गई। गोत्र व्यवस्था की जड़ें जनता के बीच से उखाड़ दी गईं। अपने मामलों की खुद व्यवस्था करने वाले कबीलों के संगठन अब पड़ौसियों को लूटने और सताने के संगठन बन गए। उसी के अनुसार गोत्र संगठनों के निकाय जनता की इच्छा को कार्यान्वित करने के स्थान पर जनता पर शासन करने और अत्याचार करने वाले स्वतंत्र निकाय बन गए।
न नयी परिस्थितियों ने श्रम विभाजन को और मजबूत किया। शहर और देहात का अंतर और अधिक बढ़ गया। एक और श्रम विभाजन हुआ। इस से एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो उत्पादन में बिलकुल भाग नहीं लेता था। वह केवल विनिमय करता था। यह व्यापारी वर्ग था। यह ऐसा वर्ग सामने आया था जो उत्पादन में बिलकुल भी भाग न लेते हुए भी उस के प्रबंध पर पूरा अधिकार जमा लेता था और उत्पादकों को अपने अधीन कर लेता था। वह उत्पादकों के बीच ऐसा बिचौलिया बन गया था जिस के बिना उन का काम नहीं चलता था और वह दोनों का शोषण करता था। इस अवस्था में इस नवोदित व्यापारी वर्ग को कल्पना भी नहीं थी कि भविष्य में उस के भाग्य में कितनी ही बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं। 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

मातृवंश से पितृसत्ता की ओर : बेहतर जीवन की तलाश-4


नुष्य जीवन का आरंभ समूह में ही हुआ था। उस के बिना उस का जीवन संभव नहीं था। लेकिन एक प्रश्न हमारे सामने आता है कि पशु अवस्था से मानव अवस्था में संक्रमण के समय इस समूह का संस्थागत रूप क्या रहा होगा? इस के लिए गोरिल्ला और चिम्पाजी जैसे वानरों के जीवन की ओर संकेत किया जाता है। लेकिन जैसी परिस्थितियों में ये वानर रहते हैं उन परिस्थितियों से तो मनुष्य रूप में संक्रमण संभव नहीं हो सकता था। ये वानर तो विकास के मुख्य क्रम से अलग हो कर लुप्त हो जाने की पतनोन्मुख अवस्था में हैं। इस कारण आदिम मानवों तथा इन वानरों में समानता तलाशना उचित नहीं है। केवल बड़े सामुहिक यूथों में रहते हुए ही मानवावस्था में संक्रमण संभव था। इन यूथों की सब से बड़ी शर्त यही थी कि वयस्क नरों के बीच पारस्परिक सहनशीलता हो और वे ईर्ष्या की भावना से मुक्त हों। मानव परिवार का जो सब से पुराना आदिम रूप, जिसके इतिहास में अकाट्य प्रमाण मिलते हैं वह यूथ-विवाह का रूप है। जिस में दस के सभी पुरुषों का पूरे दल की सभी स्त्रियों के साथ संबन्ध होता है, और जिस में ईर्ष्या की भावना लगभग नहीं होती।

मानव परिवार का यह रूप जांगल युग की उच्चतर अवस्था और बर्बर युग की आरंभिक अवस्था तक अनेक रूपों में विकसित होता रहा जिस में हमें, रक्तसंबंध परिवार, युग्म परिवार, सहभागी परिवार आदि रूप देखने को मिलते हैं। इन तमाम विभिन्न रूपों के होते हुए भी सामुदायिक कुटुम्ब बना रहा जिस में नारी का प्राधान्य था। सगे पिता का पता न हो सकने के कारण सगी माता की एकान्तिक मान्यता थी। जिस का अर्थ था स्त्रियों अर्थात माताओं का प्रबल सम्मान। इन सामुदायिक कुटुम्बों में अधिकतर स्त्रियाँ, यहाँ तक कि सभी स्त्रियाँ एक ही गोत्र की होती थीं और पुरुष दूसरे गोत्रों से आते थे। इस तरह के कुटुम्बों को मातृसत्तात्मक कहा और समझा जा सकता है, लेकिन तब तक वहाँ सत्ता जैसी चीज उत्पन्न ही नहीं हो सकी थी, सत्ता के लिए संपत्ति का होना जरूरी था। उस समय तक कुटुम्बों के पास जो वस्तुएँ थीं भी जिन्हें सम्पत्ति समझा जा सकता था, वे भी सत्ता की उत्पत्ति के लिए अपर्याप्त थीं। इस रूप में हम कह सकते हैं कि कुटुम्बों में स्त्री-प्राधान्य था लेकिन उस में मातृसत्ता जैसी कोई अवस्था नहीं थी। समाज का हर सदस्य यथाशक्ति समूह के लिए काम करता था और आवश्यकतानुसार अपना भाग प्राप्त करता था।

शुपालन और पशुप्रजनन ने संपदा का एक नया स्रोत उत्पन्न किया था जिस की उस से पहले के मानव ने कल्पना भी नहीं की थी। बर्बर युग की निम्न अवस्था तक मकान, वस्त्र, कुघड़ आभूषण, आहार उपलब्ध करने के लिए जरूरी औजार, नाव, हथियार और बहुत मामूली बर्तन-भांडे मात्र ही स्थायी संपत्ति थे। आहार नित्य ही प्राप्त करना पड़ता था। लेकिन पशुपालन ने घोड़े, ऊँट, गाय-बैल, भेड़-बकरियाँ और सुअरों के रेवड़ आदि नयी संपदा के रूप में मनुष्य को प्रदान किए थे। भारत में पंजाब और गंगा के क्षेत्रों में आर्यों तथा फरात और दजला के क्षेत्र में सामी लोगों की यह संपदा नदियों के पानी और हरे-भरे मैदानों के कारण दिन दूनी और रात चौगुनी दर से बढ़ रही थी। लोगों को दूध और मांस के रूप में अधिक स्वास्थ्यकर भोजन मिलने लगा था। आहार के पुराने तरीके पीछे छूट रहे थे। भोजन का प्राचीन तरीका शिकार अब शौक बन कर रह गया था। प्रश्न उठता है कि पशुओं के रूप में प्राप्त इस नयी संपदा पर किस का अधिकार था? निस्संदेह यह अधिकार संपूर्ण समूह (गोत्र) का था। लेकिन प्रामाणिक इतिहास के प्रारंभ में ही हम यह पाते हैं कि पशुओं के रेवड़ से लेकर मानव पशु (दास) तक मुखियाओं की अलग संपदा होते थे। कारण कि अब दास उत्पन्न हो चुके थे।

शुपालन के साथ ही धातुओं का प्रयोग होने लगा था और अंत में खेती होने लगी तब स्थिति परिवर्तित हो गयी। गोत्र आरंभ में मातृवंश थे और गोत्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर संपत्ति का गोत्र में रहना आवश्यक था। आरंभिक संपत्तियाँ साधारण थीं और वे किसी निकट के संबन्धियों को प्राप्त होती थीं। लेकिन मृत पुरुष के बच्चे उस के स्वयं के गोत्र के न हो कर उस की पत्नी के गोत्र के होते थे। पिता की संपत्ति उस के अपने बच्चों को नहीं मिल सकती थी। वह भाइयों, बहनों और बहनों के बच्चों या मौसियों के वंशजों को मिल जाती थी। लेकिन पुरुष के अपने बच्चे उस के उत्तराधिकार से वंचित थे। लेकिन जैसे जैसे संपत्ति बढ़ती गई नारी के स्थान पर पुरुष का महत्व बढ़ता गया। पुरुष के मन में यह इच्छा जोर पकड़ने लगी कि अपनी मजबूत स्थिति का लाभ उठा कर पुरानी प्रथा को उलट दिया जाए। जिससे उस के अपने बच्चे उस की संपत्ति प्राप्त कर सकें। ऐसा किया भी गया। लेकिन इस में अधिक कठिनाई भी नहीं थी क्यों कि जैसा चला आ रहा था उस में बहुत बड़े परिवर्तन की जरूरत नहीं थी। केवल इतना फैसला भर पर्याप्त था कि पुरुष सदस्यों के वंशज गोत्र में रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग किए जाएंगे वे उन के पिताओं के गोत्र में सम्मिलित किए जाएंगे। इस तरह चुपचाप एक क्रांति संपन्न हुई और मातृ वंशानुक्रम तथा दायाधिकार की प्रथा उलट गयी। हम इस क्रांति के बारे में कुछ भी नहीं जानते लेकिन वास्तव में यह हुई थी। क्यों कि मातृवंशानुक्रम के अनेक अवशेष मिले हैं। उत्तर भारत के परिवारों में नवरात्र की अष्टमी के दिन कुल देवी की पूजा आवश्यक मानी जाती है। यदि परिवार आरंभ से पितृवंशानुक्रम में होते तो यह कुल देवी कहाँ से उत्पन्न हुई थी और उस के साथ कोई कुल देवता क्यों नहीं है? केरल प्रान्त में अभी भी मातृवंशीय परिवार मौजूद हैं।

ह क्रांति मनुष्य को उत्पादन का नया साधन पशुपालन मिल जाने और संपत्ति के पैदा होने का सीधा परिणाम थी। इस ने परिवार में संबन्धों को तथा मनुष्य समाज के संस्थागत रूप को बदल दिया था। मातृवंशानुक्रम का विनाश हो चुका था। अब घर के अंदर भी पुरुष ने अपना कब्जा जमा लिया था। स्त्री पदच्युत कर दी गई थी, उसे जकड़ दिया गया था। वह पुरुष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने वाला यंत्र मात्र रह गयी थी। जो नया कुटुंब इस तरह स्थापित हुआ था वह बहुत कुछ भारतीय संयुक्त हिन्दू परिवार की तरह था जिस में एक पुरुष के कई पीढ़ियों के वंशज और उन की पत्नियाँ सम्मिलित होती थीं। सब साथ साथ रहते, खेतों को जोतते, समान भंडार से भोजन व वस्त्र प्राप्त करते और प्रयोग के बाद जो वस्तुएँ बच रहती वे परिवार की सामुहिक संपत्ति हो जाती थीं। प्रबंध सब एक मुखिया के हाथ में रहता। लगभग सभी अंतिम निर्णय वही करता था। हालांकि सभी की सलाह अवश्य प्राप्त की जाती थी।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

खेती का आविष्कार और सामंती समाज व्यवस्था का उदय : बेहतर जीवन की तलाश-3

शुपालन के साथ मनुष्य अनेक नयी चीजें सीख रहा था। जांगल युग में वह तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। लेकिन पशुपालन के माध्यम से उस ने स्वयं उत्पादन करना आरंभ किया। मांस और दूध उस के उत्पादन थे। मृत पशुओं के चर्म से उसे तन ढकने को पर्याप्त चमड़ा भी प्राप्त हो रहा था। लेकिन पशुओं को पालने के लिए सब से आवश्यक चीज थी पशुओं के भोजन के लिए चारा। जो उस समय तक प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। बस पशुओं को चारे के समीप ले जाना था। इस तरह मनुष्य समूह अपने पशुओं के साथ, जो तब तक उस की प्रमुख बन चुके संपत्ति थे, चारे की तलाश में स्थान बदलता रहा। इस दौरान उस ने देखा कि किस तरह एक मैदान का सारा चारा पशुओं द्वारा चर जाने पर भी अनुकूल परिस्थितियों में चारा दुबारा उगने लगता है। काल के साथ उस ने यह भी जाना कि चारे को उगाया जा सकता है। खेती का आरंभ संभवतः सब से पहले चारे के उत्पादन के लिए ही हुआ। इस तरह उस ने एक नयी उत्पादन पद्धति कृषि का आविष्कार किया। इस खेती के आविष्कार ने उस की बारम्बार जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन की आवश्यकता को कम कर दिया। उस ने मैदानों में जहाँ जल की उपलब्धता थी और चारे की खेती की जा सकती थी टिकना आरंभ कर दिया। वह मिट्टी की ईंटों के घर बनाने लगा। इसी दौरान उस का परिचय लौह खनिजों से हुआ और उस ने लौह खनिजों को गला कर उन से खेती में काम आने वाले औजार मुख्यतः हल का आविष्कार किया। लेकिन जब तक वह केवल चारा उगाता रहा तब तक मुख्यतः पशुपालक ही बना रहा। खेती भी उस के पशुपालन की आवश्यकता मात्र थी। जब घासों की खेती करना उस ने सीख लिया तो वह दिन भी दूर नहीं था जब उस ने यह भी जाना कि कैसे कुछ घासों के बीज मनुष्य को पोष्टिक भोजन प्रदान कर सकते हैं। इस तरह स्वयं के भोजन के लिए जब उस ने बीजों को उगाना सीख लिया तो उन का उत्पादन भी आरंभ हो गया। धीरे-धीरे खेती प्रमुखता प्राप्त करती गयी और पशुपालन खेती का एक सहायक उद्योग भर रह गया।  

सी दौर में उस ने अक्षर लिखने की कला का आविष्कार किया और लेखन में उस का प्रयोग आरंभ कर दिया। इसी अवस्था में हमें पहली बार पशुओं की मदद से लोहे के हलों के प्रयोग से जुताई कर के बड़े पैमाने पर खेती का उपयोग देखने को मिलता है। लोहे के औजार मनुष्य का जीवन बदल रहे थे। जंगलों को काट कर उन्हें खेती और चरागाह भूमि में बदलना लोहे की कुल्हाड़ी और बेलचे की मदद के बिना संभव नहीं था। जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगीं और बस्तियाँ आबाद होने लगीं। इस दौरान लोहे के उन्नत औजारों के साथ  धोंकनी, हथचक्की, कुम्हार का चाक, तेल और शराब निर्माण, धातुओं के काम का कलाओं के रुप में विकास। गाड़ियों, युद्ध के रथों, तख्तों से जहाजों का निर्माण, स्थापत्य का कला का प्रारंभिक विकास, मीनारों-बुर्जों व प्राचीरों से घिरे नगरों का निर्माण महाकाव्य और पुराणों की रचना इसी युग की देन हैं। 

खेती के आविष्कार ने मनुष्य को प्रचुर संपदा का मालिक बना दिया था। गुलाम अब भी मौजूद थे लेकिन खेती के काम के लिए उन्हें सदा के लिए बांध कर नहीं रखा जा सकता था। खेती के लिए उन्हें छूट की आवश्यकता थी। इस तरह दासों की एक नयी किस्म भू-दासों का उदय हो रहा था। इस तरह अब समूह खेती करने योग्य भूमि का स्वामी भी हो चुका था। भू-दास समूह के लिए खेती करते थे। समूह के सदस्य उन पर नियंत्रण रखने का काम करने लगे थे। खेती की उपज समूह की संपत्ति थी। भू-दासों को उपज का केवल उतना ही हिस्सा मिलता था जितनी कि उन के जीवनधारण के लिए न्यूनतम आवश्यकता थी। हम कुछ काल पहले तक देखते हैं कि अकाल आदि की अवस्था में भी किसान को जमींदार का हिस्सा देना होता था। चाहे वास्तविक उत्पादक के पास उस का जीवन बनाए रखने तक के लिए भी कुछ न बचे। उसे अपने जीवन को बचाए रखने के लिए जमींदार से कर्जा लेना होता था और इस तरह वह सदैव कर्जे में दबा रहता था।
स बीच समूह के सद्स्यों की संख्या भी बढ़ रही थी और खेती योग्य भूमि भी। यह संभव नहीं था कि समूह सारी भूमि पर खेती की व्यवस्था कर सके। इस के लिए समूह ने परिवारों को भूमि बांटना आरंभ कर दिया। इस तरह परिवारों के पास भूमि एक संपत्ति के रूप में आ गयी। परिवारों के मुखिया को भूमिपति की तरह पहचाना जाने लगा। संपत्ति की प्रचुरता से लेन-देन और वस्तुओं के विनिमय का भी आरंभ हुआ। समूह अब परिवारों में बंट गया था। परिवारों की अपनी संपत्ति होने लगी थी। परिवार के विभाजित होने पर संपत्ति का विभाजन भी होने लगा। इस तरह परिवार के हर सदस्य का भाग संपत्ति में निर्धारित होने लगा। उस के लिए लेन-देन, व्यापार, उत्तराधिकार और विवाह के लिए स्पष्ट विधि की भी आवश्यकता महसूस होने लगी। विधि की पालना के लिए राज्य के उदय के लिए परिस्थितियाँ बनने लगीं।  बाद में राज्य बने और उन के विस्तार के लिए युद्ध भी हुए। आने वाला संपूर्ण सामन्ती काल भूमि और संपदा के लिए युद्धों के इतिहास से भरा पड़ा है। अभी उस के विस्तार में जाने के स्थान पर केवल इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मनुष्य ने अपनी सहूलियत को बढ़ाने के लिए नयी उत्पादन पद्धति और साधनों का विकास किया। लेकिन प्रत्येक उत्पादन पद्धति ने न केवल मनुष्य के जीवन को बदला अपितु मनुष्य समाज के ढांचे, उस की व्यवस्था को भी अनिवार्य रूप से परिवर्तित किया।