@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: सहिष्णुता
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

अपने घर के आसपास

 
ल अपने गृह नगर बाराँ में था। अपने घर के बिलकुल पास के तीन चित्र साझा कर रहा हूँ। पहले चित्र में कल्याणराय मंंदिर का मुख्य द्वारा है। यह बाराँ नगर का सब से बड़ा मंदिर कहा जाता है। राजस्थान सरकार का देवस्थान विभाग इस की व्यवस्था का संचालन करता है। पुरातत्व विभाग ने इसे सुरक्षित निधि घोषित कर रखा है। इस चित्र में एक व्यक्ति दरवाजे के सामने सड़क पर आता हुआ दिखाई दे रहा है। इस व्यक्ति के दाहिने हाथ की ओर दो दुकानें हैं और उन के ऊपर एक मकान है। यही मकान हमारा घर है। इस मकान में मैं ने आठवीं कक्षा से ले कर एलएलबी तक की पढ़ाई की और एक साल वकालत भी। बाद में मैं कोटा चला आया।

इस चित्र के आते हुए व्यक्ति के बाएँ हाथ की ओर कौर्नर पर एक दुकान है जिस का स्वामित्व नगर पालिका का है। इस दुकान के एक तरफ सड़क पर नाली के किनारे घास भैरव की गोल प्रतिमा होती थी और दुकान में एक सार्वजनिक वाचनालय चलता था। जहाँ मुहल्ले के लोग अखबार और पत्रिकाएँ पढ़ते थे। धीरे धीरे जैसे टीवी का प्रचलन बढ़ा यहाँ पाठक कम हुए और वाचनालय बंद हो गया। एक दिन कुछ लोगों ने दुकान का ताला तोड़ कर वहाँ भैरूजी की प्रतिमा रख दी। भैरूजी नाली के किनारे से दुकान में प्रतिष्ठित हो गए। एक पढ़ने लिखने के केन्द्र का बन्द होना और वहाँ भैैरव प्रतिमा का स्थापित होना किस तरह की प्रगति का परिचायक हो सकता है आप समझ सकते हैं। इस घटना का उल्लेख संकेत रूप में शिवराम की हाडौती कविता कोड़ा जमालशाई में देखने को मिलता है।

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....


दूसरा चित्र उसी दुकान का है जो अब भैरव मंंदिर है। कल जब मैं ने यह चित्र लिया तो एक व्यक्ति भैरव प्रतिमा का श्रंगार कर रहा था। प्रतिमा के गोल मटोल पत्थर पर सिन्दूर चढ़ा कर उस पर काले चमकीले कागज से नाक, कान, मूँछें वगैरा बना कर उसे मानवीय रूप दिया जा रहा था।

पहले चित्र में एक स्थान पर हरे रंग की दीवार नजर आ रही है। जिस पर जाम लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है। यहाँ जामा मस्जिद लिखा है। यह वाकई जामा मस्जिद है। मंदिर और मस्जिद की दीवारें आपस में मिली हुई हैं। इसी मुहल्ले में कुल डेढ़ सौ मीटर के दायरे में एक गुरूद्वारा, एक और बड़ा हिन्दू मंदिर, एक जैन मंदिर और दाऊदी बोहरों की मस्जिद है। सुबह रात तक समय समय पर नगाड़ों, अजान, कीर्तन, भजन आदि की आवाजें गूंजती रहती हैं।

तीसरे चित्र में पृष्ठ भाग में एक पीपल का विशाल वृक्ष दिखाई पड़ता है। यह मेरे सामने ही उगा था जो अब इतना बड़ा हो गया है। इस की उम्र पचास वर्ष के लगभग की है। पीपल के पेड़ के ठीक नीचे भैरव मंदिर दिखाई दे रहा है। जिस तरह मंदिर गुलाबी रंग में रंगा है उसी तरह एक और मकान गुलाबी रंग में रंगा हुआ है। यही हमारा घर है। गुलाबी घर के ऊपर पीले रंग की एक और इमारत दिखाई पड़ती है। यह एक और बड़ा हिन्दू मंदिर है। मेरे दादाजी इसी मंदिर के पुजारी हुआ करते थे। चौक में एक व्यक्ति जमीन पर फूल मालाएँ बेच रहा है उस के ठीक सामने एक डंडा गड़ा हुआ है। यह होली का डंडा है। ठीक होली के दिन तक यहाँ लकड़ी व अन्य जलाई जाने वाली वस्तुएँ और कचरे का बड़ा ढेर होगा। यह शहर की सब से बड़ी होली होती है। जिस की पूजा करने के लिए राजस्थान सरकार का तहसीलदार आता है। इस कारण इसे सरकारी होली भी कहते हैं। होली की ज्वालाएँ बहुत तगड़ी होती हैं। पहले इस होली के ठीक ऊपर हो कर बिजली विभाग की लाइन के तार गुजरते थे। होली की ज्वालाओं से दो तीन बार वे पिघल कर टूट गए। फिर बिजली विभाग ने चौक में एक और खंबा लगा कर उन्हें साइड हो कर निकाल दिया।

इस माहौल में पल बढ़ कर तमाम धर्मों के साहित्य के साथ साथ विज्ञान पढ़ कर खास तौर पर सेल बायोलॉजी और ईवोल्यूशन (डार्विन) को पढ़ कर मैं कूढ़ मगज धार्मिक से एक विज्ञानपंथी कम्युनिस्ट में बदल गया। इन्हीं के बीच हम अपनी गोष्ठियाँ किया करते थे। तब घरों और मोहल्लों का माहौल अभी के बनिस्पत पढ़ाई लिखाई और समझदारी बढ़ाने के लिए अधिक जनतांत्रिक था। कम से कम मुझे बलपूर्वक कभी नहीं रोका गया था।