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मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है, वह मुझे कभी ओछी नहीं पड़ती

म हिन्दी भाषी हैं, हमें हिन्दी से अनुराग है और स्वयं को इस भाषा में सब से अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं। हम में से अनेक हैं जो अंग्रेजी और दूसरी अन्य भाषाओं को जानते हैं और बहुत से उन भाषाओं में पारंगत है। कोई कोई तो इतने अधिक पारंगत हैं कि उन्हें हिन्दी ओछी पड़ने लगती है। वे समझते हैं कि वे स्वयं को हिन्दी से भी अच्छी तरह से अंग्रेजी या दूसरी भाषा में अभिव्यक्त कर सकते हैं। फिर वे अंग्रेजी की वकालत और हिन्दी के ओछे पन की बातें करते हैं। कभी वे कहते हैं कि हिन्दी में तकनीकी काम कर पाना संभव नहीं है, अदालतों का काम हिन्दी में संभव नहीं है, एक अच्छे उपन्यास का अच्छा अनुवाद हिन्दी में संभव नहीं है आदि आदि......
मुझे हिन्दी कभी ओछी नहीं पड़ती। मैं हिन्दी में कुछ भी कह सकता हूँ। यह भी हो सकता है मैं किसी दूसरी भाषा में पारंगत नहीं हो सकने के कारण ऐसा समझता होऊँ। लेकिन यदि ऐसा है तो फिर मैं चाहूँगा कि मैं कभी भी किसी अन्य भाषा में पारंगत नहीं होऊँ। यदि हो भी गया तब भी मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को कभी भी अपनी भाषा के मुकाबले किसी भी अन्य भाषा में सहज रूप से अभिव्यक्त नहीं कर सकता।
मैं वकील हूँ। अदालत में हिन्दी भाषा का प्रयोग करता हूँ। मुझे हिन्दी का उपयोग करने में कभी भी परेशानी नहीं आई। चाहे कानून  की किताबें अंग्रेजी में हैं। कभी मुझे अंग्रेजी के कुछ खास शब्दों के पारिभाषिक हिन्दी शब्द नहीं मिलते। लेकिन मैं अधिक परेशान नहीं होता। वहाँ अंग्रेजी के शब्दों से काम चला लेता हूँ। यदि में कुछ सौ शब्द अंग्रेजी के उपयोग में लेता हूँ तो इस से मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती और न ही मेरी हिन्दी भ्रष्ट हो जाती है। मेरा मूल उद्देश्य यह होता है कि मैं अपनी बात को कैसे बेहतरीन तरीके से कह सकता हूँ। मुझे इस बात से भी कोई परेशानी नहीं है कि मेरी हिन्दी में कुछ शब्द अरबी, फारसी या किसी और मूल के हैं। मैं यह जानता हूँ कि मेरी भाषा हिन्दी है। मैं न्यायाधीश महोदय को जज साहब बोलता हूँ तो मेरी भाषा अंग्रेजी नहीं हो जाती वह हिन्दी ही रहती है।
कुछ लोग अंग्रेजी का साहित्य पढ़ते हैं बहुत आनंदित होते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसी किताब हिन्दी में नहीं लिखी जा सकती या उस खास किताब का अनुवाद हिन्दी में नहीं किया जा सकता, यदि किया भी जाए तो वह उतना अच्छा नहीं हो सकता जैसा कि मूल है। लेकिन यह तो उन की सोच है। एक व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानता या कम जानता है। वह उस पुस्तक को या तो पढ़ नहीं सकता। पढ़े तो भी उतना आनंदित शायद न हो जितना वे सज्जन खुद हुए हैं। लेकिन इस से क्या फर्क पड़ता है? दुनिया में किसी के आनंदित होने के लिए और भी बहुत सी पुस्तकें और दूसरी चीजें हैं। यदि वह पुस्तक कुछ अनुभव या ज्ञान बांटती है तो एक हिन्दी भाषी को उस का खराब अनुवाद भी आनंदित करेगा। यह भी हो सकता है कि उस पुस्तक का खराब अनुवाद किसी अच्छे अनुवादक को अच्छा अनुवाद करने को प्रेरित कर दे। यह भी हो सकता है कि अनुवादक एक मूल पुस्तक को उस से भी अच्छे तरीके से अनुवाद में प्रस्तुत कर दे।
हिन्दी मेरे लिए दुनिया की सब से अच्छी भाषा है। मैं उसे सब से अच्छे तरीके से बोल, पढ़, लिख और समझ सकता हूँ, स्वयं को उस के माध्यम से सब से अच्छे तरीके से अभिव्यक्त कर सकता हूँ। मुझे गुड़ पसंद है, चीनी नहीं। मुझे आप श्रेष्ठतम चीनी ला कर खिला भी देंगे तो भी मुझे गुड़ ही अच्छा लगेगा।