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मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

लेखक-पाठक के बीच की दूरी पाटने के लिए लेखकों को स्वयं सामूहिक प्रयास करने होंगे

उपन्यासकार अशोक जामनानी के साथ एक विचारोत्तेजक संगोष्ठी 


कुछ दिन पहले अचानक मुझे महेन्द्र 'नेह' ने बताया कि युवा उपन्यासकार श्री अशोक जमनानी केन्द्रीय साहित्य अकादमी की लेखक यात्रा योजना के अंतर्गत 17 फरवरी को कोटा आ रहे हैं और "विकल्प" अखिल भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चा की कोटा इकाई को उन के साथ "लेखक और पाठक के बीच दूरी को कौन पाटेगा" विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करना है। उन्हों ने यह भी बताया कि उस दिन वे खुद और शकूर "अनवर" कोटा में नहीं होंगे। संगोष्ठी को आयोजित करने की दायित्व मुझे वहन करना है। यह सूचना मिलने के अगले दिन ही मुझे चार दिनों के लिए बाहर जाना था और 11 फरवरी को लौटना था। महेन्द्र ने मुझे आश्वासन दिया कि गोष्ठी के लिए आरंभिक तैयारी वे कर लेंगे और मुझे केवल एक दिन पहले उस काम में जुटना है। मैं 11 फरवरी रात को कोटा पहुंचा और यहाँ आते ही अपनी वकालत में व्यस्त हो गया। 15 फरवरी की शाम मुझे अचानक उक्त दायित्व का स्मरण हुआ तो मैं ने महेन्द्र 'नेह' को फोन किया। तो पता लगा वे मोर्चा के अखिल भारतीय सम्मेलन में जाने के लिए ट्रेन में बैठ चुके हैं और मोर्चा के अ.भा. सचिव होने के कारण उस की तैयारियों की व्यस्तता के कारण संगोष्ठी की तैयारी भी नहीं कर सके हैं, सब कुछ मुझे ही करना है।
अतिथि का स्वागत
मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से विगत तीन-चार वर्षों से इस तरह के कार्यक्रम आयोजनों के दायित्व से दूर ही था। अब अचानक यह दायित्व आ गया जिसे निभाना था। खैर! मैं ने विकल्प के सक्रिय साथियों में से तथा अपने मित्रों से टेलीफोन से संपर्क किया। गोष्ठी के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ साथियों के सहयोग से कराईं। मुझे आशा थी कि इस आयोजन में लगो पर्याप्त संख्या में जुट जाएंगे। समय की कमी के कारण पहली गलती तो यह हुई कि गोष्ठी की सूचना किसी स्थानीय अखबार में प्रकाशित कराने की बात तब स्मरण हुई जब 17 फरवरी का अखबार लोगों के हाथों में पहुँच गया। जिस का सीधा नतीजा यह हुआ कि संगोष्ठी में उपस्थिति अपेक्षित से कम रही। संतोष की बात यह रही कि संगोष्ठी के विषय में रुचि रखने वाले लेखक और विद्वान पर्याप्त संख्या में उपस्थित थे। करीब ढाई घंटे चली यह संगोष्ठी बहुत उपयोगी रही। विषय पर विस्तार से चर्चा हुई और जो प्रश्न संगोष्ठी में रखा गया था उस पर एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका।  
अशोक जमनानी
संगोष्ठी में अतिथि उपन्यासकार अशोक जमनानी ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि आज के लेखक अपने साहित्य के स्थान पर स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं, जिस के कारण लेखक और पाठक के बीच दूरी बढ़ी है। प्रकाशकों की रुचि भी लेखक को ब्राण्ड बनाने में है। पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर के साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने में उस की रुचि नहीं है क्यों कि उसे इस तरह हजारों पुस्तकें बेच कर जो लाभ होता है उस से अधिक लाभ वह ब्रांड लेखक की पुस्तकों को सरकारी और सांस्थानिक पुस्तकालयों को महंगी पुस्तकें बेच कर कमा लेता है। इन पुस्तकालयों में पहुँच कर पुस्तकें पाठक की पहुँच से दूर हो जाती हैं। लेखक को ब्रांड बनाने में अकादमियों और पुरस्कारों का योगदान है वे कृतियों को नहीं लेखक को पुरस्कार सम्मान देते हैं। पाठक लेखक को तो जानता है पर यह नहीं जानता कि वह क्या लिख रहा है और कौन सा साहित्य महत्वपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी साहित्य पर जोर नहीं दिया जाता लेकिन लेखक के जीवन पर जोर दिया जाता है। 
ओम नागर
विषय प्रवर्तन के उपरान्त सब से पहले तकनीकी विश्वविद्यालय के व्याख्याता रंजन माहेश्वरी बोले। वे लेखक नहीं हैं लेकिन फिर भी संगीत और लेखन की दुनिया से जुड़े हैं। उन्हों ने कहा कि लेखक को आज इंटरनेट से जुड़ना होगा। जो इंटरनेट पर लिख रहे हैं वे केवल देश के ही नहीं दुनिया भर के पाठकों से सीधे जुड़ रहे हैं। जब अमिताभ जैसे लोकप्रिय अभिनेता अपने दर्शकों से सीधे जुड़ने के लिए ब्लाग लिख सकते हैं तो लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कथाकार राधेश्याम मेहर ने कहा कि अकादमियाँ निष्पक्ष नहीं हैं। वे अपने हिसाब से काम करती हैं। व्यंगकार हितेष व्यास ने कहा कि लेखक प्रकाशक के पास जाता है और प्रकाशक अपने लाभ के लिए उस का उपयोग करता है। अकादमियाँ भी साहित्यकारों और पाठकों के बीच पुल बनाने का काम नहीं करती। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जमनानी जी को कोटा भेजा लेकिन वे कोटा के साहित्यकारों से परिचित नहीं हैं यह अकादमी की कमजोरी है। स्पिक मैके के अशोक जैन ने कहा कि जैसे संगीत के क्षेत्र में लोग अच्छे कंठ-संगीत के स्थान पर किसी नयी नृत्यांगना का नृत्य देखना पसंद करते हैं वैसी ही स्थिति साहित्य में है, इसे तोड़ना होगा। कवि ओम नागर ने कहा कि आज साहित्य की शर्तें बाजार तय कर रहा है वह लेखक और पाठक को दूर कर रहा है। उसे इस से कोई सरोकार नहीं कि लेखक और पाठक के बीच कोई रिश्ता स्थापित हो।  
संचालक शू्न्य आकांक्षी
स अवसर पर जब मुझे बोलने के लिेए कहा गया तो मैं ने अपनी बात कही कि तुलसीदास के पहले भी रामकथा थी लेकिन तुलसीदास ने जनता तक उसे पहुँचाने के लिए सघर्ष किया और जान की बाजी तक लगा दी। प्रेमचंद ने जनता के लिखा तो उसे प्रकाशित करने के लिए खुद प्रेस चलाई और पत्रिकाएं निकाली। उन में जनता के हित का साहित्य पाठक तक पहुँचाने की जिद थी। जिद आज भी लेखक को अपने अंदर पैदा करनी होगी तभी लेखक पाठक से अपनी दूरी कम कर सकेगा। कवि अम्बिकादत्त ने कहा कि रचनाकार को पाठक तक पहुँचने का माध्यम भी तलाशना पड़ेगा। उसे अपने साहित्य की भाषा, विधा और शैली को पाठक के अनुरूप बनाना होगा। गोष्ठी के अध्यक्ष अपने विचार रखें इस के पूर्व अशोक जमनानी ने पुनः कहा कि गोष्ठी के अंत में उन्हों ने कहा कि इस दूरी को पाटने के लिए लेखक को अपना व्यक्तित्व हिमालय की तरह उच्च और साहित्य को उस से निकलने वाली गंगा जैसा बनाना होगा जो धरती पर आ कर उसे सींचती है और जन-जन तक पहुँच जाती है। प्रकाशकों ने समाज के साथ रिश्ता कायम करने वाली रचनाओं और रचनाकारों को पहले हाशिए पर डाला और फिर परिदृश्य से गायब कर दिया।  संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि निर्मल पाण्डेय ने कहा कि साहित्यकार जर्रे से बनता है लेकिन फिर उसे विस्मृत कर अपना नाम करने में जुट जाता है यह एक दुर्भावना है। लेखक को इस दुर्भावना से मुक्त हो कर पाठकों की संवेदना से जुड़ना होगा। संगोष्ठी का संचालन करते हुए कवि शून्याकांक्षी ने कहा कि कोटा में सर्वाधिक लेखन होने के बावजूद भी यहाँ अच्छे प्रकाशक का अभाव है। वर्ष में बीसियों पुस्तकें कोटा के लेखकों की प्रकाशित होती हैं और वे बाहर के प्रकाशक तलाशते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए लेखकों को अपने सामूहिक प्रकाशन का प्रयास करना चाहिए। एक सामूहिक प्रकाशन ही लेखकों को पाठकों से बेहतर जोड़ सकता है। गोष्ठी के अंत में विकल्प की और से वरिष्ठ ग़ज़लकार अखिलेश अंजुम ने सभी प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया।
मंच पर अध्यक्ष निर्मल पाण्डेय, अशोक जमनानी, दूसरे अध्यक्ष अम्बिकादत्त और संचालक शून्य आकांक्षी
संगोष्ठी के उपरान्त मेरी जमनानी जी से बात हुई तो वे संतुष्ट थे।  उनका कहना था कि संगोष्ठी में भले ही उपस्थिति कम रही हो पर यह एक उपयोगी और विचारोत्तेजक संगोष्ठी रही।  यह विचार सामने आया कि लेखक को पाठक से दूरी कम करने के लिए स्वयं सभी स्तरों पर प्रयास करने होंगे।  न केवल उस की संवेदना से जुड़ना होगा, उस के लिए अपने लेखक को उस तक संप्रेषणीय बनाना होगा। वे मेरे इस विचार से भी सहमत थे कि प्रकाशन को सस्ता बनाना होगा और इस के लिए अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन अत्यन्त जरूरी है।  अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन की आवश्यकता क्यों पड़ रही है यह भी एक प्रासंगिक विषय है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए और इस पर भी इसे कैसे स्थापित किया जा सकता है।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए

शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। कल आप ने इस संगोष्ठी रिपोर्ट के पूर्वार्ध  में पहले दिन का हाल जाना। आज यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का उत्तरार्ध प्रस्तुत है ... 
मुख्य अतिथि का स्वागत करते कवि ओम नागर
बोलते हुए महेन्द्र 'नेह'
गले दिन 13 फरवरी का पहला सत्र ‘शमशेर की कविताओं में जनचेतना’ विषय पर था। जिस का  आरंभ ओम नागर की कविता ‘काट बुर्जुआ भावों की बेड़ी’ से आरंभ हुआ। इस सत्र में. बीना शर्मा ने कहा कि शमशेर को ऐंद्रिकता, दुर्बोधता और सौंदर्य का कवि कह कर पल्ला नहीं छुड़ा सकते। हम उन के समूचे काव्य कर्म का मूल्यांकन करें तो वहाँ पाएंगे कि पीड़ित जन की पीड़ा की अभिव्यक्ति उन के काव्य का केंद्र है। अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि उन के लेखन का मानवीय पक्ष बहुत सशक्त है, वे रूस की समाजवादी क्रांति से प्रभावित हुए और अंत तक श्रमजीवी जनता के लिए लेखन करते रहे। जयपुर से आए प्रेमचंद गांधी ने कहा कि वे सचेत जनपक्षधरता के कवि ही नहीं थे अपितु जनसंघर्षों में जनता के साथ सक्रिय रूप से खड़े थे। उन के जन का अर्थ बहुत व्यापक है। वे पूरी दुनिया के जन की बात करते हैं। वे आजादी के दौर में ही पूरी दुनिया के जन की मुक्ति की बात करते हैं। उन के काव्य की अमूर्तता अनेक स्तरों पर बोलती है। जब उस के अर्थ खुलते हैं तो दो पंक्तियों में पूरी दुनिया दिखाई देने लगती है। उन की कविता का दर्शन पूरी दुनिया कि जन की मुक्ति का दर्शन है। इस सत्र का मुख्य वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए शैलेंद्र चौहान ने कहा कि शमशेर वामपंथी तो हैं, लेकिन वे वाम चेतना को पचा कर रचनाकर्म करते हैं। वे एक सम्पूर्ण कलाकार के रूप में सामने आते हैं जो अन्य ललितकलाओं के रूपों को कविता में ले आते हैं। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे मनु शर्मा ने कहा कि शमशेर के साहित्य को समझने के लिए चित्रकला को समझना जरूरी है। उन का चित्रकला का अभ्यास उन की कविता में रूपायित हुआ है। इस सत्र का सफल संचालन डॉ. उषा  झा ने किया।
डॉ. हरे प्रकाश गौड़
महत्वपूर्ण प्रतिभागी हितेष व्यास, शकूर अनवर, नन्द भारद्वाज और उन के पीछे शैलेन्द्र चौहान
संगोष्ठी का चौथा सत्र ‘शमशेर : जीवन, कला और सौंदर्य’ विषय पर था। इस विषय को खोलते हुए कवि-व्यंगकार अतुल कनक ने कहा कि शमशेर की रूमानियत व्यक्तिगत नहीं अपितु सत्यम शिवम् सुंदरम है। डॉ. राजेश चौधरी ने कहा कि शमशेर ने अपनी हर रचना के साथ कला का नया प्रयोग किया, इसी से उन्हें दुर्बोध कहना उचित नहीं। साहित्यकार रौनक रशीद ने कहा कि शमशेर को दुरूह कहना उन के साथ अन्याय करना है वे ग़ज़ल जैसी परंपरागत विधा के साथ पूरा न्याय करते हैं और पूरी तरह सहज हो जाते हैं। वरिष्ठ ब्लागर दिनेशराय द्विवेदी ने उन की कविताएँ ‘काल से होड़’ और ‘प्रेम’ प्रस्तुत करते हुए कहा कि शमशेर का अभावों से परिपूर्ण जीवन अभावग्रस्त जनता के साथ उन का तादात्म्य स्थापित  करता था। उन के साहित्य में जीवन साधनों से ले कर प्रेम और सौंदर्य के अभाव की तीव्रता पूरी संश्लिष्टता के साथ प्रकट होती है। डॉ. नन्द भारद्वाज ने कहा कि शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए, ऐसा करने पर दुरूह नहीं रह जाते हैं। इस सत्र के अध्यक्ष सुरेश सलिल ने सब से महत्वपूर्ण पत्र वाचन करते हुए बताया कि शमशेर में मानवीय सौंदर्य से राजनैतिक दृष्टि का विकास दिखाई देता है, उन्हें समझने के लिए हम साहित्य के पुराने प्रतिमानों से काम नहीं चला सकते। हमें उन के लिए नए प्रतिमान खोजने होंगे। इस सत्र संचालन अजमेर से आए कवि अनंत भटनागर ने किया।
सुसज्जित सभागार और प्रतिभागी
     संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि व केन्द्रीय साहित्य अकादमी (राजभाषा) के सदस्य अम्बिकादत्त ने कहा कि शमशेर बहादुर सिंह का साहित्य यह चुनौती प्रस्तुत करता है कि समीक्षा के औजारों में सुधार किया जाए और आवश्यकता होने पर नए औजार ईजाद किए जाने चाहिए। यही कारण है कि शमशेर के साहित्य को व्याख्यायित करने की आवश्यकता अभी तक बनी हुई है और आगे भी बनी रहेगी। समापन सत्र में ‘शमशेर का गद्य और विचार भूमि’ विषय पर डॉ.गीता सक्सेना, कवियित्री कृष्णा कुमारी, साहित्यकार भगवती प्रसाद गौतम तथा डॉ. विवेक शंकर ने पत्र वाचन किया तथा कथाकार विजय जोशी ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस सत्र का संचालन करते हुए विकल्प के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने कहा कि केवल शमशेर ही हैं जो यह बताते हैं कि किस तरह एक महत्वाकांक्षी लेखक अपनी परंपरा, विश्वसाहित्य का सघन अध्ययन करते हुए तथा जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए वाल्मिकी, तुलसी, शेक्सपियर जैसा महान साहित्यकार बन सकता है।
    इस संगोष्ठी का आयोजन कोटा की प्राचीनतम संस्था भारतेंदु समिति के भवन पर किया गया था। भारतेंदु समिति ने इस के लिए संगोष्ठी स्थल की सज्जा स्वयं की थी। संगोष्ठी पुराने नगर के मध्य में आयोजन का लाभ यह भी रहा कि आम-जन भी इस में उपस्थित होते रहे। इस आयोजन में आगे बढ़ कर आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले वरिष्ठ नागरिक जवाहरलाल जैन ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि इस संगोष्ठी ने उन्हे पुराने दिन याद दिला दिये हैं जब इसी भवन में साहित्यकार अक्सर ही एकत्र हो कर साहित्य आयोजन करते थे और आम लोग उन में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। वे चाहते हैं कि कोटा में इस तरह के आयोजन होते रहें। देश के महत्वपूर्ण रचनाकार यहाँ आते रहें और उन के बीच नगर के रचनाकारों को सीखने और अपना विकास करने का वातावरण मिले और जनता भी उन से प्रेरणा प्राप्त करे। उन्हों ने बाबा नागार्जुन का अनायास कोटा में आ निकलने और पूरे पखवाड़े तक यहाँ जनता के बीच रहने का उल्लेख करते हुए कहा कि इस वर्ष नागार्जुन की जन्म शताब्दी भी है और उन पर भी एक बड़ा आयोजन करना चाहिए। उस के लिए जो भी सहयोग चाहिए उसे के लिए वे तैयार हैं।

नन्द भारद्वाज
संगोष्ठी के अंत में सब ने यह महसूस किया कि शमशेर बहादुर सिंह के रचनाकर्म को न केवल पढ़ना जरूरी है, अपितु उस का गहरा अध्ययन जनता के मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए नए कलारूपों का द्वार खोल सकता है।

शमशेर रोमांस से आरंभ हो कर जनता के दुख-दर्द और उससे मुक्ति के साथ प्रतिबद्धता की ओर बढ़े

पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। मेरे लिए यह शमशेर और उन के साहित्य को समझने का सुअवसर था। मैं ने उस का लाभ उठाया। यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का पूर्वार्ध प्रस्तुत है ... 

शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शील, अज्ञेय, फैज अहमद फैज और शमशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष को एक साथ पा कर आश्चर्य होता है कि इतने सारे महत्वपूर्ण कवि-साहित्यकार एक साथ कैसे पैदा हो गए। वस्तुतः यह कोई संयोग नहीं था। अपितु इन सब के जन्म के बाद का वह काल और उस काल की भारत की परिस्थितियाँ थीं जिस ने इन सब को महत्वपूर्ण बनाया। निश्चित ही उनके महत्वपूर्ण होने में उन के स्वयं के परिश्रम के योगदान को कमतर नहीं कहा जा सकता। इन सब को, और इन के रचना कर्म को समझने के लिए हमें उन के काल को समझना होगा। यदि हम उस परिप्रेक्ष्य में इन्हें समझने का प्रयत्न करें तो चीजें जो जटिल अथवा संश्लिष्ट दिखाई पड़ती हैं वे यकायक स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं जैसे हम उन्हें किसी सूक्ष्मदर्शी पर  परख रहे हों। शमशेर बहादुर सिंह पर यह काम ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच, कोटा और राजस्थान साहित्य  अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में 12-13 फरवरी को कोटा में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘काल से होड़ लेता सृजन में हुआ।

मशाल प्रज्वलित कर संगोष्ठी का शुभारंभ
द्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार और दूरदर्शन जयपुर के पूर्व निदेशक नन्द भारद्वाज ने यह स्पष्ट किया कि शमशेर बहादुर सिंह को प्रेम और सौंदर्य का कवि भी कहा जाता है, लेकिन उन का प्रेम सारी मानवता और प्रकृति से, और उन का सौंदर्य प्रकृति और मानवीय गुणों का सौंदर्य था। उन्हें एक जटिल कवि माना जाता है, लेकिन उन की जटिलता वास्तव में संश्लिष्टता है जो उलझाती नहीं है अपितु जगत के जटिल व्यवहारों के संबंध में समझ पैदा करती है। वे काल से जिस होड़ की बात करते हैं वह उन की व्यक्तिगत नहीं है अपितु समस्त मनुष्य की होड़ है। शमशेर हर विद्या में अनूठे थे, उनका लेखन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व्याख्या  चाहता है। उन के सभी समकालीन सभी श्रेष्ठ लेखकों ने उन के बारे में लिखा, उन की कविता और अन्य साहित्य के बारे में लिखा। लेकिन शमशेर का विस्तार इतना है कि अभी एक शताब्दी और उस के बाद भी उन के बारे में लिखा जाता रहेगा। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रमुख साहित्यकार और ‘अलाव’ के संपादक रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर अपने समकालीनों में सरोकार के स्तर पर सर्वोपरि दीख पड़ते हैं। उन की रचनाएँ स्वयं को और जन-मानस को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर हैं। वे समाज में उपस्थित तमाम अमानवीय ताकतों के विरुद्ध, और सताए हुए लोगों के साथ हैं। वे नए समाज की रचना चाहते हैं। इस के लिए वे जो कहना चाहते हैं, उस के लिए हर विधा का उपयोग पूरी कलात्मक श्रेष्ठता के साथ करते हैं, इसीलिए उन के लेखन में एक जादूगरी दिखाई पड़ती है। वे कलावादी नहीं हैं। वे कला का उपयोग सामाजिक सरोकारों के लिए करते हैं। बदलाव की गहरी आकांक्षा और चेतना उनके साहित्य में पग-पग पर मौजूद है। वे हमें आसान राह नहीं दिखाते क्यों कि मुक्ति कभी आसान नहीं होती।  यह रोशनी की साधना है।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी का शुभारंभ करते नन्द भारद्वाज
‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच के अखिल भारतीय महासचिव, कवि गीतकार और इस आयोजन के मुख्य सूत्रधार महेन्द्र ‘नेह’ ने सत्रारंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए ही स्पष्ट कर दिया था कि हम यहाँ दो दिन शमशेर के रचनाकर्म की गहराइयों में जाएंगे और जानेंगे कि वे कितने विलक्षण रचनाकार थे। उन्हें कलावादी और जनवादी दोनों अपना क्यों कहते हैं? हम पाएंगे कि वे जनता के कवि थे, उन की रचनाओं की मुख्य चिंता पीड़ित जन और उन की मुक्ति थी। विशिष्ट अतिथि कवि समीक्षक सुरेश ‘सलिल’ ने शमशेर के साहित्य और जीवन का परिचय दिया।इस सत्र का सफल संचालन कवि अम्बिकादत्त ने किया। उन्हों ने महेद्र ‘नेह’ की बात को  और स्पष्ट कर दिया था कि शमशेर समय को समझने में हमारी मदद करते हैं, हमें इन दो दिनों में हम शमशेर के माध्यम  से अपने समय को समझने का प्रयत्न करेंगे।  इस सत्र का आरंभ नंद भारद्वाज ने 'विकल्प'  की परंपरा के अनुरूप मशाल प्रज्वलित कर किया था और उस के तुरंत बाद रविकुमार के शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं पर बनाए गए पोस्टरों की प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया। संगोष्ठी स्थल पर जाने के पहले इस प्रदर्शनी से हर किसी को गुजरना होता था। इस प्रदर्शनी ने तथा सत्रारंभ के पूर्व जमनाप्रसाद ठाड़ा राही के प्रसिद्ध गीत ‘जाग जाग री बस्ती’ की शरद तैलंग द्वारा संगीतमय प्रस्तुति  ने संगोष्ठी के विमर्श को वातावरण प्रदान करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
परान्ह सत्र का विषय ‘हिन्दी ग़ज़ल में शमशेरियत’ था। सत्र का मुख्य पत्रवाचन करते हुए रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर की ग़ज़लों में भाषाई द्वैत नहीं है। वस्तुतः उन की ग़जलें हिन्दी में लिखी गई उर्दू ग़ज़लें हैं। वे उर्दू और हिन्दी के द्वैत को तोड़ कर हिन्दुस्तानी बोली और भारत की गंगा-जमुनी तहजीब तक जाती हैं। प्रयोगवादी और प्रगतिशील दोनों ही उन्हें अपना मानते हैं। यह सही है कि उन्हों ने अपनी रचनाओं में प्रयोग किए हैं, इतने, कि सभी प्रयोगवादी पीछे छूट जाते हैं। लेकिन शमशेर का आधार जनवाद है। वे जनता के दर्द को, उसकी वजहों को बखूबी बयाँ करते हैं। वे एंद्रीयबोध और वस्तुगत परिस्थितियों में एक संतुलन उत्पन्न करते हैं, वे कला पर विजय प्राप्त कर के खम ठोकते हुए अपनी बात कहते हैं, कला उन के कथ्य पर हावी नहीं होती, उन का कथ्य नए कला रूपों को उत्पन्न करता है। सत्र का दूसरे पत्र में प्रो. हितेष व्यास ने प्रमाणित  किया कि शमशेर के लिए हिन्दी और उर्दू दो भाषाएँ नहीं थीं अपितु एक जान दो शरीर थे। वे भाषा का प्रयोग पूरी कलात्मक सूक्ष्मता के साथ अपनी बात कहने के लिए करते थे।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी
सी सत्र में शायर पुरुषोत्तम यक़ीन ने कहा कि शमशेर ने अपने समकालीनों पर खूब लिखा और समकालीनों ने उन पर, इस से उस समय के साहित्य और रचनाकारों को विकास का अवसर प्राप्त हुआ, हमें इस परंपरा का अनुसरण करना चाहिए। सलीम खाँ फरीद ने अपने पत्र में बताया कि शमशेर सूक्ष्म सौंदर्यबोध के कवि थे जो उन की ग़ज़लों में भी पूरी तरह स्पष्ट है। डॉ. हुसैनी बोहरा को अगले दिन शमशेर के गद्य पर पत्रवाचन करना था लेकिन अगले दिन उपलब्ध न होने के कारण उन्हों ने मुख्यतः उन के निबंध संग्रह ‘दोआब’ पर अपना पत्रवाचन करते हुए कहा कि उन की सम्वेदना मनुष्य के प्रति थी, वे हिन्दी और उर्दू के साहित्य का अलग अलग मूल्यांकन कर के देखने के विरोधी थे। उन का मानना था कि हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग कर के देखना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीति थी। जब कि शमशेर के लिए दोनों भारत की जुबानें ऐसी जुबानें थीं जिन की आधारभूमि एक ही है। उन का कहना था कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में शमशेर का गद्य सर्वश्रेष्ठ है, वे साहित्य को मानवता का औजार मानते थे।
संगोष्ठी मंच
त्र की अध्यक्षता कर रहे डॉ. हरेप्रकाश गौड़ ने कहा कि शमशेर के आजादी पूर्व के साहित्य की चिंता राष्ट्रीय आंदोलन था। उन के साहित्य को समझने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन और उस की जटिलताओं को समझना होगा। वे आरंभ में रोमांस के कवि थे, रोमांस से आरंभ हो कर वे जनता के दुख-दर्द और उससे मुक्ति के साथ प्रतिबद्धता की ओर बढ़े। उन्हों ने जनता को बाँटने वाली कट्टरपंथी धार्मिकता के विरुद्ध और गरीब श्रमजीवी जनता के पक्ष में अपना रचनाकर्म किया। निराला ने ग़ज़ल को जनसंघर्ष से जोड़ा और शमशेर ने उस परंपरा को आगे बढ़ाया। वे एक मौलिक आलोचक थे। सभी वक्ताओं और पत्रवाचकों में तारतम्य बनाये रखते हुए इस सत्र का सफल संचालन शायर शकूर ‘अनवर’ ने किया। इसी दिन रात्रि को कविसम्मेलन-मुशायरा आयोजित किया गया, जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती कवियों के अतिरिक्त अतिथि कवियों ने कवितापाठ किया।