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बुधवार, 1 अप्रैल 2020

कोविद-19 महामारी और भारत-3

संगठित मजदूरों के क्षेत्र को न्यूनतम बनाए रखने की साजिश

इस विमर्श की कल की कड़ी में मैं ने कहा था कि कोविद-19 महामारी को फैलने से रोकने के उपायों की घोषणा मात्र से, लोगों को विशेष रूप से देश से औद्योगिक केन्द्रों से मजदूरों और उनके परिवारों द्वारा उनके गाँवों की ओर पलायन से, महामारी के तैजी से फैलने के जो अवसर पैदा हो गए, उसके पीछे को कारणों की पड़ताल करना और जानना अत्यन्त आवश्यक है। यदि इन तथ्यों को न जाना गया तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम परमाणु बम से भी खतरनाक बम पर बैठे हैं जो कभी भी फट पड़ सकता है।  
मैंने अपने पैतृक नगर बाराँ में जो एक उपजिला मुख्यालय था 1978 में वकालत शुरू की थी। साल भर बाद 1979 के सितम्बर माह में ही मैं राजस्थान के औद्योगिक शहर कोटा में आ गया था। यह नगर जिला मुख्यालय के साथ-साथ संभाग मुख्यालय भी था। यहाँ श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थित था। जिस में संभाग के चारों जिलों के ओद्योगिक विवादो की सुनवाई की होती थी।  मैं ने वकालत के लिए श्रम-विवादों का क्षेत्र चुना जो मेरी रुचि के अनुरूप भी था। जल्दी ही मैं पहला श्रम विवाद मजदूर के पक्ष में जीतने में सफल रहा। मुझे लगा कि मेरा निर्णय सही था। तभी से मैं औद्योगिक क्षेत्र तथा मजदूरों से जुड़ा रहा हूँ। मैंने देखा कि 1980 तक आम तौर पर लगभग सभी उद्योगों में 75 प्रतिशत से 100 प्रतिशत मजदूर उद्योग के स्थायी मजदूर हैं। शेष 0 से 25 प्रतिशत मजदूर ठेकेदार के माध्यम से उद्योगों में काम करते हैं। कुछ काम तो ऐसे हैं जो ठेकेदारों को करने के लिए ठेके पर दे दिए जाते हैं। ये लोडिंग-अनलोडिंग, पेकिंग वगैरा के काम हैं जिनमें निरन्तर मजदूरों की जरूरत घटती बढ़ती रहती है। किसी भी कोयले से चलने वाले उद्योग में कोयले की रैक आने पर उस में से कोयला खाली कर गोदाम में रखने का काम तथा तैयार माल के बैगों या कंटेनरों को तैयार करने और उन्हें ट्रकों में लोड करने का काम ठेकेदारों को पीस-रेट पर दे दिया जाता हैं। ठेकेदार अपने मजदूरों से यह काम कराता हैं। इस तरह मूल उद्योगपतियों को यह सुविधा मिल जाती है कि उन्हें जो वेतन अपने स्थायी मजदूरों को देना होता है, उससे लगभग आधे मूल्य पर ठेकेदार मजदूरों के माध्यम से यह काम सम्पन्न हो जाते हैं, जिसमें मजदूरों की मजदूरी के साथ साथ पीएफ और ईएसआई वगैरा के खर्च तथा ठेकेदार का कमीशन भी निकल जाता है।
आंदोलनरत संगठित मजदूर 
हालाँकि ठेकेदार मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) कानून वर्ष 1970 में पारित हो चुका था। इस कानून के नाम से ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य बड़े उद्योगों में से ठेकेदार मजूरी की शोषणकारी व्यवस्था का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया है, लेकिन वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। इस कानून के पहले यह स्थिति थी कि जब मजदूरों को ठेकेदारी में काम करते हुए कुछ वर्ष हो जाते थे तो वे ठेकेदार की जगह उद्योग का स्थायी कर्मचारी घोषित कर देने और उनके समान वेतन व लाभ देने की मांग करने लगते थे। इस कानून में यह व्यवस्था की गयी थी कि उचित सरकार (केन्द्र या राज्य की) किसी भी उद्योग में किसी खास ट्रेड में ठेकेदारी व्यवस्था को खत्म करने का नोटिफिकेशन जारी कर सकती थी। उस के बाद उस ट्रेड में ठेकेदार मजदूर नहीं रखे जा सकते थे। शुरू-शुरू में कुछ उद्योगों में ठेकेदारी उन्मूलन के लिए नोटिफिकेशन जारी भी किए गए। लेकिन जल्दी ही यह समझ में आ गया कि यह कानून वास्तव में मजदूरों को मूल उद्योग का स्थायी कामगार बनाने के औद्योगिक विवादों को श्रम न्यायालय या औद्योगिक न्यायाधिकरण में न्याय निर्णयन के लिए ले जाने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है। अब यह अधिकार सीधे-सीधे केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आ गया था।
जैसा की सभी जानते हैं कि पूंजीवादी जनतंत्रों में सरकारों को चुने जाने में प्रचार और धन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। बड़ी मात्रा में यह धन केवल पूंजीपति और बड़ी-बड़ी औद्योगिक कंपनियाँ ही राजनैतिक पार्टियों को उपलब्ध करवा सकती हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग राजनैतिक दलों को यह धन ऐसे ही उपलब्ध नहीं करा देता, बल्कि उसके पीछे उनकी शर्तें होती हैं। चुनाव लड़ने के लिए पूंजीपतियों द्वारा उपलब्ध कराए गए धन के कारण सत्ता में रहने वाली राजनैतिक पार्टियाँ मजबूर हो जाती हैं कि वे सभी कानूनों की अनुपालना उनके हितों में करें। ठेकेदार मजदूरी प्रथा सीधे-सीधे पूंजीपतियों के मुनाफों और उन की पूंजी को बढ़ाती है। यह सिद्ध तथ्य है कि मुनाफों और पूंजी का निर्माण केवल और केवल अतिरिक्त श्रम से अर्थात वस्तुओँ में मजदूरों द्वारा पैदा किए मूल्य से कम मुल्य चुका कर ही किया जा सकता है। यह सारा का सारा मुनाफा और पूंजी केवल और केवल अतिरिक्त-मूल्य की ही उपज होता है। मजूरों को उनके श्रम के वास्तविक मूल्य से जितना मूल्य कम चुकाया जाता है वही मुनाफों और पूंजी में परिवर्तित होता है।
जब मजदूर संगठित होने लगता है तो वह उचित मजदूरी की मांग करने लगता है। संगठित होने से बिखरे हुए और अशक्त मजदूरों का समूह बन जाता है और उसमें शक्ति का संचार हो जाता है। मजदूरों की इस संगठित शक्ति को राज्य की मशीनरी पुलिस, प्रशासन तथा गुंडों की मदद से दबाना कठिन हो जाता है और पूंजीपतियों और सरकारी-अर्धसरकारी उद्योगों द्वारा मजदूरों की मांगों को दबाना संभव नहीं रह जाता। ऐसे में उन की मजदूरी और सुविधाएँ बढ़ानी पड़ती हैं। इस सब से पूंजीपतियों का मुनाफा कम हो जाता है, पूंजी का बढ़ना भी उसी अनुपात में कम हो जाता है, पूंजी की वृद्धि की गति कम हो जाती है। इस गति को बनाए और बचाए रखने के लिए जो उपाय हो सकते थे उनमें सर्वोत्तम उपाय यही सकता है कि किसी भी प्रकार से संगठित मजदूरों की संख्या सीमित बनी रहे और अधिकांश श्रम-शक्ति को संगठित क्षेत्र से असंगठित क्षेत्र में विस्थापित कर दिया जाए। भारत में पूंजीपतियों के पक्ष में यह काम दो तरीको से हुआ और यह दोनों तरीके कानून बदलकर ईजाद किए गए।           ...  (क्रमशः)
अगली कड़ी में पढ़ें कानून को बदल कर  ईजाद किए गए तरीके क्या हैं?

रविवार, 17 जुलाई 2011

हम कहाँ से आरंभ कर सकते हैं?

'जो बदलाव चाहते हैं, उन्हें ही कुछ करना होगा' पर आई टिप्पणियों में सामान्य तथ्य यह सामने आया कि समाज का मौजूदा शासन गंभीर रूप से रोगी है। उसे इतने-इतने रोग हैं कि उन की चिकित्सा के प्रति किसी को विश्वास नहीं है। इस बात पर लगभग लोग एकमत हैं कि रोग असाध्य हैं और उन से रोगी का पीछा तभी छूट सकता है जब कि रोगी का जीवन ही समाप्त हो जाए। यह विषाद सञ्जय झा  की टिप्पणी में बखूबी झलकता है। वे कहते हैं, - जो रोग आपने ऊपर गिनाए हैं वे गरीब की मौत के बाद ही खत्म होंगे क्यों कि अब बीमारी गहरी ही इतनी हो चुकी है।
क निराशा का वातावरण लोगों के बीच बना है। ऐसा कि लोग समझने लगे हैं कि कुछ बदल नहीं सकता। इसी वातावरण में इस तरह की उक्तियाँ निकल कर आने लगती हैं-
सौ में से पिचानवे बेईमान,
फिर भी मेरा भारत महान...
या फिर ये-
बर्बाद गुलिस्ताँ करने को सिर्फ एक ही उल्लू काफी था,
याँ हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्ताँ क्या होगा
निराशा और बढ़ती है तो यह उक्ति आ जाती है -
बदलाव के रूप में भी इस देश में सिर्फ नौटंकी ही होगी।

निराशा के वातावरण में कुछ लोग, कुछ आगे की सोचते हैं-
देखना तो यह है कि अपने रोज के झमेलों को पीछे छोड कर कब आगे आते हैं ऐसे लोग।
जो बदलाव चाहते हैं उन्हें ही क्रांति करनी होती है... बाकी तो सुविधा भोगी हैं...
और ये भी -
निश्चय ही, ऐसे नहीं चल सकता है, कुछ न कुछ तो करना ही होगा।

सतत गतिमयता और परिवर्तन तो जगत का नियम है। वह तो होना ही चाहिए। पर यह सब कैसे हो?
शायद उपरोक्त नियम का समय आया ही समझिये।

में यहाँ भिन्न भिन्न विचार देखने को मिलते हैं। सभी विचार मौजूदा परिस्थितियों से उपजे हैं। सभी तथ्य की इस बात पर सहमत हैं कि शासन का मौजूदा स्वरूप स्वीकार्य नहीं है, यह वैसा नहीं जैसा होना चाहिए। उसे बदलना चाहिए। लेकिन जहाँ बदलाव में विश्वास की बात आती है तो तुरंत दो खेमे दिखाई देने लगते हैं। एक तो वे हैं जिन्हें बदलाव के प्रति विश्वास नहीं है। सोचते हैं कि बदलाव के नाम पर सिर्फ नाटक होगा। उन का सोचना गलत भी नहीं है। वे बदलाव को पाँच वर्षीय चुनाव में देखते हैं। चुनाव के पहले वोट खींचने के लिए जिस तरह की नौटंकियाँ राजनैतिक दल और राजनेता करते रहे हैं, उस का उन्हें गहरा अनुभव है। लेकिन क्या पाँच वर्षीय चुनाव ही बदलाव का एक मात्र तरीका है? 
 
हीं कुछ लोग ऐसा नहीं सोचते। वे सोचते हैं कि बदलाव के और तरीके भी हैं। वे कहते हैं, हमें कुछ करना चाहिए,  जो लोग बदलना चाहते हैं उन्हें ही कुछ करना होगा। इस का अर्थ है कि ऐसे लोग बदलाव में विश्वास करते हैं कि वह हो सकता है। लेकिन वे भी पाँच वर्षीय चुनाव के माध्यम से ऐसा होने में अविश्वास रखते हैं। लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो परिवर्तन को जगत का नियम मानते हुए और उन का यह विश्वास है कि वक्त आ रहा है परिवर्तन हुआ ही समझो। यहाँ एक विश्वास के साथ साथ आशा भी मौजूद है। 

लेकिन, फिर प्रश्न यही सामने आ खड़ा होता है कि ये सब कैसे होगा? निश्चित रूप से राजनेताओं और नौकरशाहों के भरोसे तो यह सब होने से रहा। जब बात शासन परिवर्तित करने की न हो कर सिर्फ भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने मात्र की है तो भी यह बात सामने आ रही है कि ये सिविल सोसायटी क्या है और इस सिविल सोसायटी को इतनी बात करने का क्या हक है? क्या वे चुने हुए लोग हैं? हमें देखो, हम चुने हुए लोग हैं, इस जनतंत्र में वही होगा जो हम चाहेंगे। यह निर्वाचन में सभी तरह के निकृष्ठ से निकृष्टतम जोड़-तोड़ कर के सफल होने की जो तकनीक विकसित कर ली गई है उस का अहंकार बोल रहा है। सिविल सोसायटी कुछ भी हो। उसे किसी का समर्थन प्राप्त हो या न हो। वे इस विशाल देश की आबादी का नाम मात्र का हिस्सा ही क्यों न हों। पर वे जब ये कहते हैं कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए कारगर तंत्र बनाओ, तो ठीक कहते हैं। सही बात सिविल सोसायटी कहे या फिर एक व्यक्ति कहे। उन चुने जाने वाले व्यक्तियों को स्वीकार्य होनी चाहिए। यदि यह स्वीकार्य नहीं है तो फिर समझना चाहिए कि वे भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के पक्ष में नहीं हैं। 

निर्वाचन के माध्यम से शक्ति प्राप्त करने की तकनीक के स्वामियों का अहंकार इसलिए भी मीनार पर चढ़ कर चीखता है कि वह जानता है कि सिविल सोसायटी की क्या औकात है? उन्हों ने भारत स्वाभिमान के रथ को रोक कर दिखा दिया। अब वे अधिक जोर से चीख सकते हैं। उन्हों ने भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के कानून के मसौदे पर सिविल सोसायटी से अपनी राय को जितना दूर रख सकते थे रखा। उस के बाद राजनैतिक दलों के नेताओं को बुला कर यह दिखा दिया कि वे सब भी भले ही जोर शोर से सिविल सोसायटी के इस आंदोलन का समर्थन करते हों लेकिन उन की रुचि इस नियंत्रण कानून में नहीं मौजूदा सरकार को हटाने और सरकार पर काबिज होने के लिए अपने नंबर बढ़ाने में अधिक है। इस तरह उन्हों ने एक वातावरण निर्मित कर लिया कि लोग सोचने लगें कि सिविल सोसायटी का यह आंदोलन जल्दी ही दम तोड़ देगा। इस सोच में कोई त्रुटि भी दिखाई नहीं देती। 

ज ही जनगणना 2011 के कुछ ताजा आँकड़े सामने आए हैं। 121 में से 83 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं। आज भी दो तिहाई से अधिक आबादी गाँवों में रहती है और कृषि या उस पर आधारित कामों पर निर्भर है। इस ग्रामीण आबादी में से कितने भूमि के स्वामी हैं और कितनों की जीविका सिर्फ दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर करती है? यह आँकड़ा अभी सामने नहीं है, लेकिन हम कुछ गाँवों को देख कर समझ सकते हैं कि वहाँ भी अपनी भूमि पर कृषि करने वालों की संख्या कुल ग्रामीण आबादी की एक तिहाई से अधिक नहीं। नगरीय आबादी के मुकाबले ग्रामीण आबादी को कुछ भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं हैं। उन का जीवन किस तरह चल रहा है। हम नगरीय समाज के लोग शायद कल्पना भी नहीं कर सकते। इसी तरह नगरों में भी उन लोगों की बहुतायत है जिन के जीवन यापन का साधन दूसरों के लिए काम करना है। दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवनयापन करने वालों की आबादी ही देश की बहुसंख्यक जनता है। हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इस देश में दो तरह के जनसमुदाय हैं, एक वे जो जीवन यापन के लिए दूसरों के लिए काम करने पर निर्भर हैं। दूसरे वे जिन के पास अपने साधन हैं और जो दूसरों से काम कराते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि इस देश में ये दो देश बसते हैं। 

स वक्त बदलाव की जरूरत यदि महसूस करता है तो वही बहुसंख्यक लोगों का देश करता है जो दूसरों के लिए काम कर के अपना जीवन चलाता है। यह भी हम जानते हैं कि दूसरा जो देश है वही शासन कर रहा है। पहला देश शासित देश है। हम यह भी कह सकते हैं कि बहुसंख्यकों के देश पर अल्पसंख्यकों का देश काबिज है। यह अल्पसंख्यक देश आज भी गोरों की भूमिका अदा कर रहा है। बहुसंख्यक देश आज भी वहीं खड़ा है जहाँ गोरों से मुक्ति प्राप्त करने के पहले, मुंशी प्रेमचंद और भगतसिंह के वक्त में खड़ा था। इस देश के कंधों पर वही सब कार्यभार हैं जो उस वक्त भारतीय जनता के कंधों पर थे। अब हम समझ सकते हैं कि बदलाव की कुञ्जी कहाँ है। यह बहुसंख्यक देश बहुत बँटा हुआ है और पूरी तरह असंगठित भी। उस की चेतना कुंद हो चुकी है। इतनी कि वह गर्मा-गरम भाषणों पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करती। इस देश को जगाने की हर कोशिश नाकामयाब हो जाती है। 

ह चेतना कहीं बाहर से नहीं टपकती। यह लोगों के अंदर से पैदा होती है। यह आत्मविश्वास जाग्रत होने से उत्पन्न होती है। लेकिन यह आत्मविश्वास पैदा कैसे हो। आप सभी दम तोड़ते हुए पिता का आपस में लड़ने-झगड़ने वाली संतानों को दिए गए उस संदेश की कहानी अवश्य जानते होंगे जिन से पिता ने एक लकड़ियों का गट्ठर की लकड़ियाँ तोड़ने के लिए कहा था और वे नाकामयाब रहे थे, बाद में जब उन्हें अलग अलग लकड़ियाँ दी गईं तो उन्हों ने सारी लकड़ियाँ तोड़ दीं। निश्चित रूप से संगठन और एकता ही वह कुञ्जी है जो बहुसंख्यकों के देश में आत्मविश्वास उत्पन्न कर सकती है। हम अब समझ सकते हैं कि हमें क्या करना चाहिए? हमें इस शासित देश को संगठित करना होगा। उस में आत्मविश्वास पैदा करना होगा। यह सब एक साथ नहीं किया जा सकता। लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में किया जा सकता है। हम जहाँ रहते हैं वहाँ के लोगों को संगठित कर सकते हैं, उन्हें इस शासन से छोटे-छोटे संघर्ष करते हुए और सफलताएँ अर्जित करते हुए इन संगठनों में आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयत्न कर सकते हैं। बाद में जब काम आगे बढ़े तो इन सभी संगठित इकाइयों को जोड़ सकते हैं। 

ब सब कुछ स्पष्ट है, कि क्या करना है? फिर देर किस बात की? हम जुट जाएँ, अपने घर से, अपनी गली से, अपने मुहल्ले से, अपने गाँव और शहर से आरंभ करें। हम अपने कार्यस्थलों से आरंभ करें। हम कुछ करें तो सही। कुछ करेंगे तो परिणाम भी सामने आएंगे.

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा में नाकाम क्यों रहती हैं?

जून माह की 20 तारीख को बंगाल की खाड़ी से चले मानसूनी बादल हाड़ौती की धरती पर पहुँचे और बरसात होने लगी। कई वर्षों से बंगाल की खाड़ी से चले ये बादल इस क्षेत्र तक पहुँच ही नहीं रहे थे। नतीजा ये हो रहा था कि वर्षा के लिए जुलाई के तीसरे सप्ताह तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। पहली ही बरसात से धरती के भीतर बने अपने घरों को छोड़ कर कीट-पतंगे बाहर निकल आए और रात्रि को रोशनियों पर मंडराने लगे। रात को एक-दो या अधिक बार बिजली का गुल होना जरूरी सा हो गया। उत्तमार्ध शोभा ने अगले ही दिन से पोर्च की बिजली जलानी बंद कर दी। रात्रि का भोजन जो हमेशा लगभग आठ-नौ बजे बन कर तैयार होता था, दिन की रोशनी ढलने के पहले बनने लगा। अब आदत तो रात को आठ-नौ बजे भोजन करने की थी, तब तक भोजन ठण्डा हो जाता था। मैं ने बचपन में अपने बुजुर्गों को देखा था जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चातुर्मास में  ब्यालू करते थे, अर्थात रात्रि भोजन बंद कर देते थे। अधिकांश जैन धर्मावलंबी भी चातुर्मास में रात्रि भोजन बंद कर देते हैं। कई ऐसे हैं जिन्हों ने जीवन भर के लिए यह व्रत ले रखा है कि वे रात्रि भोजन न करेंगे। कई जैन तो ऐसे भी हैं जो रात्रि को जल भी ग्रहण नहीं करते। मेरा भी यह विचार बना कि मैं भी क्यों न रात्रि भोजन बन्द कर दूँ, कम  से कम चातुर्मास  के लिए ही। देखते हैं इस का स्वास्थ्य पर कैसा असर होता है? चातुर्मास 11 जुलाई से आरंभ होना था, मैं ने 6 जुलाई से ही अभ्यास करना आरंभ कर दिया। अभ्यास का यह क्रम केवल 9 जुलाई को एक विवाह समारोह में टूटा। वहाँ घोषित रूप से भोजन साँय 7 बजे आरंभ होना था पर हुआ साढ़े आठ बजे। 11 जुलाई से यह क्रम बदस्तूर जारी है। सोच लिया है कि किसी जब रोशनी में भोजन न मिल पायेगा तो अगले दिन ही किया जाएगा। स्वास्थ्य पर इस नियम का क्या असर होता है यह तो चातुर्मास पूर्ण होने पर ही पता लगेगा।

ल संध्या भोजन कर के उठा ही था कि टेलीविजन ने मुम्बई में विस्फोटों का समाचार दिया। मुम्बई पर पिछले आतंकवादी हमले को तीन वर्ष भी नहीं  हुए हैं कि इन विस्फोटों ने उन घावों को फिर से हरा कर दिया। मुम्बई से बहुत करीबी रिश्ता रहा है। तेंतीस वर्ष पहले मैं मुम्बई में बस जाना चाहता था। गया भी था, लेकिन महानगर रास नहीं आने से लौट आया। फिर ढाई वर्ष बेटी मुम्बई में रही।  पिछले आतंकवादी हमले के समय वह वहीं थी। अब बेटा वहाँ है। यह सोच कर कि बेटा अभी काम पर होगा और कुछ ही देर में घर से निकलेगा। उसे विस्फोटों की खबर दे दी जाए। उस से बात हुई तो पता लगा उसे जानकारी हो चुकी है। फिर परिचितों और संबंधियों के फोन आने लगे पता करने के लिए कि बेटा ठीक तो है न। 

मुम्बई पर पिछले वर्षों में अनेक आतंकवादी हमले हुए हैं। न जाने कितनी जानें गई हैं। कितने ही अपाहिज हुए हैं और कितने ही अनाथ। सरकार उन्हें कुछ सहायता देती है। सहायता मिलने के पहले ही मुम्बई चल निकलती है। लोग आशा करने लगते हैं कि इस बार सरकार कुछ ऐसी व्यवस्था अवश्य करेगी जिस से मुम्बई को ये दिन न देखने पड़ें। कुछ दिन, कुछ माह निकलते हैं। कुछ नहीं होता है तो सरकारें दावे करने लगती हैं कि उन का सुरक्षा इंतजाम अच्छा हो गया है। लेकिन जब कुछ होता है तो इन इन्तजामात की पोल खुल जाती है। फिर जिस तरह के बयान सरकारी लोगों के आते हैं। वे जनता में और क्षोभ उत्पन्न करते हैं। तब और भी निराशा हाथ लगती है जब सत्ताधारी दल के युवा नेता जिसे अगला प्रधानमंत्री कहा जा रहा है यह कहता है कि सभी हमले नहीं रोके जा सकते। प्रश्न यह भी खड़ा हो जाता है कि आखिर सरकारें अपनी ही जनता की सुरक्षा करने में नाकाम क्यों हो जाती हैं?

क्यों नहीं सारे हमले रोके जा सकते? मुझे तो उस का एक ही कारण नजर आता है। जनता के सक्रिय सहयोग के बिना यह संभव नहीं है।  लेकिन जनता और प्रशासन के बीच सहयोग तब संभव है जब कि पहले सरकारी ऐजेंसियों के बीच पर्याप्त सहयोग औऱ तालमेल हो और सरकार को जनता पर व जनता को सरकार पर विश्वास हो। लेकिन न तो जनता सरकार पर विश्वास करती है औऱ न ही सरकारें जनता के नजदीक हैं। हमारी सरकारें पिछले कुछ दशकों में जनता से इतना दूर चली गई हैं कि वे ये भरोसा कर ही नहीं सकतीं कि वे सारे आतंकवादी हमलों को रोक सकती है और जनता को संपूर्ण सुरक्षा प्रदान कर सकती हैं। सरकारी दलों का रिश्ता जनता से केवल वोट प्राप्त करने भर का रह गया है। यह जनता खुद भली तरह जानती है और इसी कारण से वह सरकारों पर विश्वास नहीं करती।  

लेकिन इस का  हल क्या है? इस का हल एक ही है, जनता को अपने स्तर पर संगठित होना पड़ेगा। गली, मोहल्लों, बाजारों और कार्य स्थलों पर जनता के संगठन खड़े करने होंगे और संगठनों के माध्यम से मुहिम चला कर प्रत्येक व्यक्ति को  निरंतर सतर्क रहने की आदत डालनी होगी। तभी इस तरह के हमलों को रोका जा सकता है।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

नागरिक और मानवाधिकार हनन का प्रतिरोध करने को समूह बनाएँ

विगत आलेख  पुलिस को कहाँ इत्ती फुरसत कि ..............?   पर अब तक अंतिम  टिप्पणी श्री Bhavesh (भावेश ) की है कि 'रक्षक के रूप में भक्षक और इंसानियत के नाम पर कलंक इस देश की पुलिस से जितना दूर रहे उतना ही ठीक है.'  मुझे भावेश की ये टिप्पणी न जाने क्यों अंदर तक भेद गई। मुझे लगा कि यह रवैया समस्या से दूर भागने का है, जो आजकल आम दिखाई पड़ता है। 
दालत पुलिस को सिर्फ जाँच के लिए मामला भेजती है जिस में पुलिस को केवल मात्र गवाहों के बयानों और दस्तावेज आदि के आधार पर अपनी रिपोर्ट देनी है कि मामला क्या है। इस रिपोर्ट से कोई अपराध होना पाया जाता है या नहीं पाया जाता है इस बात का निर्णय अदालत को करना है। अपराध पाया जाने पर क्या कार्यवाही करनी है यह भी अदालत को तय करना है ऐसे में पुलिस एक व्यक्ति को जिस ने कोई अपराध नहीं किया है। यह कहती है कि तुम बीस हजार रुपए दे दो और आधा प्लाट अपने भाई को दे दो तो हम मामला यहीं रफा-दफा कर देते हैं, अन्यथा तुम्हें मुकदमे में घसीट देंगे। ऐसी हालत में पुलिस जो पूरी तरह से गैर कानूनी काम कर रही है उस का प्रतिरोध होना ही चाहिए। 
ब से पहला प्रतिरोध तो उस के इन अवैधानिक निर्देशों की अवहेलना कर के होना चाहिए। संबंधित पुलिस अफसर के तमाम बड़े अफसरों को इस की खबर की जानी चाहिए और अदालत को भी इस मामले में सूचना दी जानी चाहिए। यह सीधा-सीधा मानवाधिकारों का हनन है। यदि इस का प्रतिरोध नहीं किया जाता है तो सारे नागरिक अधिकार और मानवाधिकार एक दिन पूरी तरह ताक पर रख दिए जाएंगे।  कुछ तो पहले ही रख दिए गए हैं। वास्तव में जब भी किसी देश के नागरिक अपने नागरिक अधिकारों के हनन को सहन करने लगते हैं तो यह आगे बढ़ता है। 
ब भी एक अकेला व्यक्ति ऐसा प्रतिरोध करता है तो यह बहुत संभव है कि पुलिस उसे तंग करे। उस के विरुद्ध फर्जी मुकदमे बनाने के प्रयत्न करे। लेकिन जब यही प्रतिरोध एक समुदाय की और से सामने आता है तो पुलिस की घिघ्घी बंध जाती है। क्यों कि वह जानती है समुदाय में ताकत होती है, जिस से वह लड़ नहीं सकती। समुदाय की जायज मांगों पर देर सबेर कार्यवाही अवश्य हो सकती है। फिर पुलिस एक मुहँ तो बंद कर सकती है लेकिन जब मुहँ पचास हों तो यह उस के लिए भी संभव नहीं है। जब समुदाय बोलने लगता है तो राजनैताओं को भी उस पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है, शायद इस भय से ही सही कि अगले चुनाव में जनता के बीच कैसे जाया जा सकता है। इस तरह की घटनाएँ समुदाय के मुहँ पर आ जाने के बाद अखबारों और मीडिया को भी बोलना आवश्यक प्रतीत होने लगता है।
म में से कोई भी ऐसा नहीं जो किसी न किसी समुदाय का सदस्य न हो। वह काम करने के स्थान का समुदाय हो सकता है। वह मुहल्ले को लोग हो सकते हैं। वे किसी अन्य जनसंगठन के लोग भी हो सकते हैं। निश्चित रूप से हमें इस तरह की घटनाओं की सूचना सब से पहले समुदाय को दे कर उसे सक्रिय करना चाहिए। एक बाद और कि हमें समुदाय को संगठित करने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ के निवासियों की एक सोसायटी तो कम से कम बना ही लें और उस का पंजीयन सोसायटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट के अंतर्गत करा लें। इस से उस क्षेत्र के बाशिंदों को एक सामाजिक और कानूनी पहचान मिलती है। इस के लिए कुछ भागदौड़ तो करनी पड़ सकती है। लेकिन यह सोसायटी है बड़े काम की चीज और ऐसे ही आड़े वक्त काम आती है। एक बात और कि सोसायटी बनने पर चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार भी सोसायटी को पूछने लगते हैं। निश्चित रूप से एक-एक वोट के स्थान पर समूहबद्ध वोटों का अधिक महत्व है। लोगों का संगठनीकरण आवश्यक है।