@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: शकूर 'अनवर'
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शनिवार, 8 जनवरी 2011

कहाँ से मिल गई हम को ये बिजलियों की सिफ़त

र्वीले अतीत की सब लोग बात करते हैं। लेकिन अपने अतीत के गौरव की बात करते समय हमें इस बात पर तनिक भी लज्जा नहीं आती कि वे भी हम ही थे, जिन्हों ने अपने गौरव को मिट्टी में मिला दिया। ऐसी कौन सी बात थी, जिस ने हमारे गौरव को इस अंजाम तक पहुँचाया? और क्या उस चीज से हम अब भी निजात पा सके हैं? इसी बात को शायर शकूर 'अनवर' किस तरह कहते हैं? आप खुद ही देखिए -


ग़ज़ल
कहाँ से मिल गई हम को ये बिजलियों की सिफ़त
  • शकूर 'अनवर'

उठे  तो     सारे  जमाने  पे     छा  गए  हम  लोग
गिरे तो   ज़ात की पस्ती में    आ  गए  हम  लोग


जो  एक     जिन्से-मुहब्बत    हमारी  अपनी  थी
उसी को     बेच के   दुनिया में   खा गए हम लोग


हमारे     आबा-ओ-अजमाद    ने   जो   छोड़े   थे 
वो नक़्श     सारे के सारे     मिटा गए    हम लोग


हम   अपने आप के    दुश्मन   बने हुए हैं    यहाँ
खुद   अपनी राह में    काँटे बिछा गए    हम लोग


कहाँ से मिल गई हम को ये बिजलियों की सिफ़त
जिधर से निकले   वहीं घर   जला गए   हम लोग


निकल के   बहरे-मुहब्बत से   आजकल 'अनवर'
हवस के      अंधे कुवें      में समा गए     हम लोग


शकूर 'अनवर' कोटा के अजीम शायरों में से एक हैं, आप उन का परिचय यहाँ जान सकते हैं।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अपनी गरदन पे खंजर चला तो चला

कूर 'अनवर' न केवल एक अज़ीम शायर हैं, बल्कि शहर में अदब और तहज़ीबी एकता के लिए काम करने में उन का कोई सानी नहीं। हर अदबी कार्यक्रम में उन्हें कुछ न कुछ करते देखा जा सकता है। अनेक कार्यक्रमों की सफलता में उन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हर साल मकर संक्रांति के दिन उन के घर अदबी जश्न होता है जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के लेखक, कवि, शायर ही नहीं हाजिर होते, मेरे जैसे तिल्ली के लड्डुओं और पतंग उड़ाने के शौकीन भी खिंचे चले आते हैं। उन का पहला ग़ज़ल संग्रह 'हम समन्दर समन्दर गए' 1996 में प्रकाशित हुआ था। उस के बाद 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच ने उन के लघु काव्य संग्रह 'महवे सफर' प्रकाशित किया। हिन्दी-उर्दू की प्रमुख पत्रिकाओं हंस, कथन, काव्या, मधुमति, शेष, अभिव्यक्ति, समग्र दृष्टि, कथाबिंब, नई ग़ज़ल, सम्बोधन, अक्षर शिल्पी, गति, शबखून, शायर, नख़लिस्तान, तवाजुन, इन्तसाब जदीद फिक्रो-फन, परवाजे अदब, ऐवाने उर्दू, पेशरफ्त, असबाक़ आदि में उन की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं और होती रहती हैं। वे उर्दू स्नातक हैं और उर्दू के अध्यापक भी। उन का मानना है  कि समाज का मिजाज गैर शायराना भी है, जिस से सामान्य व्यक्ति के बौद्धिक स्तर और कलाकृतियों के बीच एक  दूरी बनी रहती है। इस स्थिति से उबरने के लिए रचनाकारों को मनुष्य जीवन और समाज का गहराई से अध्ययन करते हुए समाज के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। उन की कोशिश रहती है कि उन की रचना आम लोगों के सिर पर गुजर जाने के स्थान पर उन के दिलों में उतर जाए। यहाँ पेश है उन की एक ग़ज़ल, कैसी है? यह तो बकौल खुद शकूर 'अनवर'  आप ही बेहतर बता सकेंगे।


इश्क में  अपना सब कुछ  लुटा तो  चला
दिल की ख़ातिर मैं सर को कटा तो चला

राह  की  मुश्किलें  हमसफ़र  बन   गयीं
साथ   मेरे    मेरा    क़ाफ़िला   तो   चला

देख   मरने   की   ख़ातिर   मैं   तैयार  हूँ
ओ   सितमगर   तू  तेग़े-जफ़ा  तो  चला

कितने  दिन  हुस्न  की  ये  हुकूमत चली
उम्र   ढलने  से   उन  को   पता  तो  चला

नफ़रतों   की   दिलों   से   घुटन  दूर  कर
कुछ   मुहब्बत  की  या  रब हवा तो चला

कैसे     ठहरेगा    खुर्शीद      के     सामने
रात  भर  जो   जला  वो   दिया  तो  चला

जान   'अनवर'   वफ़ा   में   गई   तो  गई
अपनी  गरदन  पे  खंजर  चला  तो  चला


शकूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृष्य