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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

सौ साल पहले ............ आज भी है, और कल भी रहेगा।

बी.एससी. के तीन में से दूसरा वर्ष था। उस दिन कॉलेज से लौटा था। कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कालेज की प्रतियोगिताओं में कहीं कहीं स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक छोटा सा मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की कबड़्डी की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, उसे देख पूछा। ये क्या है?
घर की शोभा, मेरा जवाब था।
जवाब पर मेरी छोटी बहन सुनीता हँस पड़ी। ऐसी कि रुक ही नहीं रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई।
मैं समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी मेरे लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में मुझे कई दिन लगे। 

कोई छह माह पहले जब गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। मैं, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो मैं ने मामा जी के गाँव जा कर कुछ दिन रहने को कहा। हर साल गर्मी में कुछ दिन मामा जी के गाँव में बिताने वाला मैं, दो बरस से वहाँ नहीं जा पाया था। पर बाबूजी ने सख्ती से कहा थानहीं, वहाँ हम सब जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे।  वहाँ दादाजी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

बात सही थी। मामा जी के यहाँ जाने की अपनी योजना के असफल होने पर मन में बहुत गुस्सा था। जाना दूसरे दिन सुबह था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। मेरा एक दोस्त ओम भी शादी में था। उसे उसी समय तत्काल साथ लौटने को तैयार किया और हम चल दिए। रेलवे स्टेशन तक की पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की। । वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

स्बे में मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल हो गए। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही कोयले के इंजन वाली ट्रेन का इंजन धुआँ उगलता दूर से दिखाई दे गया। उसे अभी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और हमें भी। अब ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता, रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह मैं वहाँ से गुस्से मैं रवाना हुआ था। वापस मौसी के गाँव लौटने का मन न था। मन ही मन तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए।

कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। मैं ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने हमें दौड़ता देख, हमारी अटैचियां सड़क पर ला रखी। मैं ने दोनों को उठाया और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ पड़ा। ट्रेन चल दी थी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में मैं खुद चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। सांसें फूल गई थीं जो दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज मैं उस वाकय़े को स्मरण करता हूँ तो डर जाता हूँ, अपनी ही मूर्खता पर। मैं ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो जाता तो। 

'शोभा' मेरी वेलेंटाइन (उत्तमार्ध)
र की शोभा कहने पर बहिन की हँसी की पहेली सुलझाने में कुछ दिन लगे। जिस दिन मैं ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते में पड़े एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और मुझ से ब्याहने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख रहे थे।  जब से मुझे उस के बारे में पता लगा। मैं उस लड़की के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा। उसे देखा न था, लेकिन मुझे उस से प्रेम हो गया था।

मुझे उस लड़की को देखने का पहला का अवसर दो बरस बाद तब मिला जब मेरी शादी हो चुकी थी और मुझे मेरी ब्याहता घर की शोभा के साथ कोहबर में बन्द कर घर की महिलाऐं जगराता कर रही थीं। उस से पहले तो हम एक दूसरे के चित्र भी न देख पाए थे।
घर की शोभा ही थी मेरी पहली और आखरी वैलेण्टाइन।
घर की शोभा कहने पर बहिन को हंसी आ कर नहीं रुकी थी।