@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: विज्ञान
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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

मेरी हड्डियाँ आर्सेनिक से बनी हैं।

वे पाँच बहुत इतराते हैं। हम हैं तो जीवन है। वह छठा? उस के लिए कहा जाता है कि वह घातक विष है, जीवन नष्ट करने वाला।
ब उन पाँचों के इतराने का वक्त ख़त्म हुआ। एक जगह उन पाँचों में से एक गायब पाया गया। उस के स्थान पर छठा मौजूद था, और जीवन बरकरार। 
नासा ने घोषणा की है कि उन्हों ने प्रकृति में ऐसा जीवित बैक्टीरिया पाया है जिसमें जीवन के लिए आवश्यक पाँच तत्वों कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन ऑक्सीजन फॉसफोरस और सल्फर में से फॉस्फोरस को आर्सेनिक से बदला गया और वह उस के बाद न केवल जीवित रहा अपितु उस ने प्रजनन भी किया। अब तक यह माना जाता था कि जीवन के लिए ये पाँच तत्व ही आवश्यक हैं। लेकिन आज उन में से एक अनावश्यक सिद्ध हो चुका है, उस के स्थान पर एक अन्य पाँचवें ने ले ली है। इस आविष्कार ने प्रकृति में जीवन के नए रूपों की संभावना को प्रबल किया है। कभी प्रकृति में ऐसा जीवन भी देखने को मिल सकता है जिस की कभी मनुष्य ने कल्पना भी न की हो। प्रकृति असीमित है और उस की संभावनाएँ भी, और जीवन वह अक्षुण्ण है। 
किसी दिन अखबार में यह समाचार हो सकता है कि एक बैक्टीरिया ने दूसरे से कहा, तुम पुरातनवादी! अभी तक फॉसफोरस इस्तेमाल करते हो। मुझे देखो! मैं ने उसे कभी से त्याग दिया है। मैं आर्सेनिक इस्तेमाल करता हूँ। कोई विज्ञापन दिखाई दे सकता है जिस में  खली टाइप कोई व्यक्ति यह कहता नजर आए, मैं विश्वचैम्पियन हूँ, मेरी हड्डियाँ आर्सेनिक से बनी हैं। हम विषकन्याओं के बारे में पढ़ते-सुनते आए हैं। पर यह बैक्टीरिया वह पहली विषकन्या है जिस के पास अपने शरीर में उर्जा संवाहक अणु में फॉस्फोरस के स्थान पर घातक विष आर्सेनिक (संखिया) मौजूद है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है

मैं ने सहज ही डॉ हैनिमेन जन्मदिवस पर अपनी बात अपने अनुभव  के साथ रखी थी। उस पर आई टिप्पणियों में होमियोपैथी को अवैज्ञानिक और अंधविश्वास होने की हद तक आपत्तियाँ उठाई गईं। तब मैं ने अपनी अगली पोस्ट में एक सवाल खड़ा किया कि क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है
स पोस्ट पर उन्हीं मित्रों ने पुनः होमियोपैथी को अवैज्ञानिक बताया और कुछ ने उस पर विश्वास को अंधविश्वास भी कहा। भाई बलजीत बस्सी ने तो यहाँ तक कहा कि---
"दावे पर दावा ठोका जा रहा है. मैं हैरान हूँ हमारे देश का पढ़ा लिखा तबका अंध-विश्वास में पूरी तरह घिर चूका है. यहाँ तो विज्ञानं पर से ही विश्वास उठ चूका है. मनुष्य के शरीर में बीमारी से लड़ने की ताकत होती है और ६०% प्लेसीबो प्रभाव भी होता है"।
डॉ. अमर की प्रारंभिक टिप्पणी बहुत संयत थी कि -
"मैं विरोधी तो नहीं, किन्तु इसे लेकर अनावश्यक आग्रहों से घिरा हुआ भी नहीं !
सिबिलिया सिमिलिस आकर्षित तो करती है, और इसमें मैंनें मगजमारी भी की है ।
ऍलॉस पैथॉस के सिद्धान्त को लेकर आलोच्य ऎलोपैथिक से जुड़े विज्ञान सँकाय, आज जबकि मॉलिक्यूलर मेडिसिन की ओर उन्मुख हो रहा है । होम्योपैथी को अपनी तार्किकता सिद्ध करना शेष है । लक्षणों के आधार पर दी जाने वाली दवायें सामान्य स्थिति में उन्हीं लक्षणों के पुनर्गठन में असफ़ल रही हैं । अपने को स्पष्ट करने के लिये मैं कहूँगा कि The results of any scientific experiment should be repeatedly reproducible in universality ! जहाँ बात जीवित मानव शरीर से छेड़खानी की हो, वहाँ सस्ते मँहगे और मुनाफ़े से जुड़े मुद्दों से ऊपर उठ कर, उपचार की तार्किकता देखनी चाहिये ।" 
लेकिन बाद की टिप्पणियों में वे भी संयम तोड़ गए। 
मैं मानता हूँ कि होमियोपैथी को अभी अपनी तार्किकता सिद्ध करनी शेष है। होमियोपैथी का अपना सैद्धांतिक पक्ष है। उस का अपना एक व्यवहारिक पक्ष भी है। ऐलोपैथी के समर्थकों का एक ही तर्क होमियोपैथी पर भारी पड़ता है कि आखिर उस की 30 शक्ति वाली दवा इतनी तनुकृत हो जाती है कि उस की एक खुराक में मूल पदार्थ के एक भी अणु के होने की संभावना गणितीय रूप से समाप्त हो जाती है। इस तर्क पर होमियोपैथी के समर्थकों की ओर से जो तर्क दिए जाते हैं वे निश्चित रूप से आज गले उतरने लायक नहीं हैं। उन्हीं तर्कों के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक करार दिया जाता है।
दि हम बलजीत बस्सी के कथन पर ध्यान दें कि शरीर में स्वयं खुद को ठीक करने की शक्ति होती है और 60 प्रतिशत प्लेसबो प्रभाव होता है। यदि ऐसा है तो फिर किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी। मनुष्य के अतिरिक्त इस हरित ग्रह पर संपूर्ण जीवन बिना किसी चिकित्सा पद्धति पर निर्भर रहा है और उस ने अपना विकास किया है। लेकिन यह कह देने से काम नहीं चल सकता। हम स्वयं जानते हैं कि मनुष्य को चिकित्सा की आवश्यकता है और यदि चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं होती तो आज मानव विश्व पर सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं होता। निश्चित रूप से ऐलोपैथी ने मानव को आगे बढ़ने, उस की आबादी में वृद्धि करने और उस की उम्र बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। लेकिन ऐलोपैथी की इस विश्वविजय के उपरांत भी दुनिया भर में अन्य औषध पद्धतियाँ मौजूद हैं और समाप्त नहीं हुई हैं। ऐलोपैथी का यह साम्राज्य भी उन्हीं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों की नींव पर खड़ा हुआ है। आज भी विभिन्न प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों से ऐलोपैथी निरंतर कुछ न कुछ ले कर स्वयं को समृद्ध करती रहती है। 
ह भी एक तथ्य है कि स्वयं डॉ. हैनीमेन एक एलोपैथ थे। ऐलोपैथी के लिए ही मैटीरिया मेडीका लिखते समय अनायास पदार्थो (प्राकृतिक अणुओं) के व्यवहार पर ध्यान देने और फिर उस व्यवहार को परखने के फलस्वरूप ही होमियोपैथी का जन्म हुआ। होमियोपैथी कोई प्राचीन पद्धति नहीं है। उस का जीवन काल मात्र दो सौ वर्षों का है। मेरे विचार में होमियोपैथी के प्रति कठोर आलोचनात्मक और उसे सिरे से खारिज कर देने वाला रुख उचित नहीं है। वह भी तब जब कि वह बार बार अपनी उपयोगिता प्रदर्शित करती रही है। मैं स्वयं अवैज्ञानिक पद्धतियों का समर्थक नहीं हूँ। यदि मैं ने उसे प्रभावी नहीं पाया होता तो शायद मैं आज यह आलेख नहीं लिख रहा होता। मैं ने पिछले अट्ठाईस वर्षों में अनेक बार और बार बार इसे परखा है और प्रभावी पाया है। मैं भी होमियोपैथ चिकित्सकों से सदैव ही यह प्रश्न पूछता हूँ कि आखिर होमियोपैथी दवा काम कैसे करती है? 
मुझे इस प्रश्न का उत्तर आज तक भी प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन मैं ने होमियोपैथी को प्रभावी पाया है और बारंबार प्रभावी पाया है। मैं यह भी जानता हूँ कि होमियोपैथी मात्र एक औषध पद्धति है। ऐलोपैथी ने अनेक परंपरागत और प्राचीन औषध पद्धतियों के अंशो को अपनाया है। यह नवीन पद्धति भी खारिज होने योग्य नहीं है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, इस पर शोध की आवश्यकता है, इस के उपयोगी तत्वों को साबित कर उन्हें विज्ञान सम्मत साबित करने की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे धार्मिक मान्यताओं को आज के विज्ञान पर खरा उतरने की आवश्यकता है। अधिक कुछ नहीं कहूँगा पर समय-समय पर होमियोपैथी के अपने उन अनुभवों को अवश्य साझा करना चाहूँगा जो मेरे लिए उसे विश्वास के योग्य बनाते हैं।  भाई सतीश सक्सेना जी को यह अवश्य कहूँगा कि मैं किसी भी तरह का डाक्टर नहीं हूँ। मुझे वकील ही रहने दें। एक प्रश्न यह भी कि हिन्दी ब्लाग जगत में कुछ होमियोपैथी चिकित्सक भी हैं, वे क्यों इस बहस से गायब रहे?

रविवार, 11 अप्रैल 2010

क्या होमियोपैथी अवैज्ञानिक है?

ल मैं ने इस विषय पर पोस्ट लिखी थी कि विश्व होमियोपैथी दिवस और डॉ. हैनिमैन के जन्मदिवस पर होमियोपैथी का मेरे जीवन में क्या स्थान रहा है? इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निशांत मिश्र ने कहा कि यह पद्धति जड़ संदेहियों के लिए नहीं बनी है। डॉ. अरविंद मिश्र, प्रवीण शाह और बलजीत बस्सी ने उन का समर्थन ही नहीं किया अपितु इसे अवैज्ञानिक बताया। प्रवीण शाह ने यह भी कहा कि "किसी भी वैज्ञानिक ट्रायल में यह पद्धति अपने आपको साबित नहीं कर पाई है।" जब मैं ने उन्हें इसे साबित करने को कहा तो उन्हों ने मुझे ब्रिटिश हाउस ऑव कॉमन्स की साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी कमेटी की 275 पृष्टों की रिपोर्ट भेज दी। निश्चित रूप से मैं उसे इतने कम समय में आद्योपांत पढ़ कर राय कायम नहीं कर सकता था। फिर कोई प्रोफेशनल होमियोपैथ इस काम को बेहतर ढंग से कर सकता है, मैं नहीं। फिर भी उस रिपोर्ट का चौथा पैरा इस प्रकार है।

4. This inquiry was an examination of the evidence behind government policies on homeopathy, not an inquiry into homeopathy. We do not challenge the intentions of those  homeopaths who strive to cure patients, nor do we question that many people feel they have benefited from it. Our task was to determine whether scientific evidence supports government policies that allow the funding and provision of homeopathy through the NHS and the licensing of homeopathic products by the MHRA.

4. यह होमियोपैथी की जाँच नहीं, अपितु होमियोपैथी के संबंध में सरकारी नीतियों के पीछे उपलब्ध साक्ष्यों की एक परीक्षा थी। हम होमियोपैथ चिकित्सकों के रोगियों का इलाज करने के प्रयासों को चुनौती नहीं दे रहे हैं  और न ही उन रोगियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं जो होमियोपैथी चिकित्सा से खुद को लाभान्वित होना पाते या महसूस करते हैं। हम केवल यह पता लगा रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से सरकार की वित्तीय सहायता की नीतियों और औषध व स्वाथ्यरक्षक उत्पाद नियंत्रक एजेंसी द्वारा होमियोपैथिक उत्पादों को अनुज्ञप्ति प्रदान करने का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक साक्ष्यों का पता लगाना है।
स पैरा को पढ़ने से ही पता लगता है कि हाउस ऑफ कॉमन्स की इस कमेटी का विषय होमियोपैथी की वैज्ञानिक जाँच करना नहीं था। इस रिपोर्ट के आधार पर होमियोपैथी को अवैज्ञानिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। हम यह भी जान सकते हैं कि विश्व में दवा बाजार पर ऐलोपैथी दवाओं का एक छत्र साम्राज्य है। उन के उत्पादक किस तरह होमियोपैथी जैसी मात्र दो सौ वर्ष पुरानी और सस्ती पद्धति को स्वीकार कर सकते हैं जब तक उस में मुनाफा कूटने की पर्याप्त संभावनाएँ उत्पन्न न हो जाएँ। इधर होमियोपैथी का प्रभाव बढ़ना आरंभ हुआ है और उधर सरकारों के माध्यम से उन पर इतने प्रतिबंध आयद किए गए हैं कि पिछले चार-पाँच वर्षों में होमियोपैथिक दवाओं के दामों में दो से चार गुना तक वृद्धि हो गई है। जिस दिन यह लगने लगेगा कि इस दवा उत्पादन में ऐलोपैथी जैसा या उस से अधिक मुनाफा कूटा जा सकता है। यही जाँच कमेटियाँ इस पद्धति को वैज्ञानिक घोषित करने लगेंगी। 
लते चलते एक अनुभव और बताता जाता हूँ। हमारी बेटी पूर्वा जन्म के बाद से ही होमियोपैथी पर निर्भर थी। लेकिन हम दोनों पति-पत्नी को दवाओं की कम ही आवश्यकता होती थी। यदि कभी होती भी थी तो मेडीकल स्टोर से लाई गई पूर्व परिचित सामान्य दवाओं से काम चल जाता था।  उन दिनों तक घर में पच्चीसेक होमियोपैथी दवाएँ आ चुकी थीं।उस दिन पिताजी घर पर आए हुए थे। मेरी बगल में एक फुंसी उभर आई थी जो तनिक दर्द कर रही थी। मुझे उस हाथ को कुछ ऊँचा कर चलना पड़ रहा था। पिताजी ने देखा तो पूछ लिया हाथ ऐसे क्यों किए हो? मैंने बताया कि शायद काँख में कोई फुंसी निकल आई है। उन्हों ने उसे जाँचा और मुझे डाँट दिया। तुम्हारे आयुर्वेद और जीवविज्ञान स्नातक होने का यही लाभ है क्या कि तुम इस की चिकित्सा भी नहीं कर सकते। मेडीकल स्टोर से बैलाडोना प्लास्टर तो ला कर चिपका सकते थे। मैं तुरंत घर से बाहर भागा और मेडीकल स्टोर की ओर देखा। लेकिन वह बंद हो चुका था। आसपास किसी और मेडीकल स्टोर के खुले होने की कोई संभावना नहीं थी। 
मैं उलटे पैरों वापस लौटा। पिताजी ने मेरी और प्रश्ववाचक निगाहों से देखा। मैं ने उन्हें कहा कि मेडीकल स्टोर तो बंद हो चुका है, बैलाडोना प्लास्टर तो अब सुबह मिलेगा। मेरे पास होमियोपैथिक बैलाडोना 200 पोटेंसी का डायल्यूशन घर पर है तो एक खुराक खा लेता हूँ। मैं ने यही किया। हालांकि मैं नहीं जानता था कि इस का असर क्या होगा? सुबह सो कर उठा तो सामान्य कामकाज में लग गया। मुझे ध्यान ही नहीं आया कि मैं उस फुंसी को जाँच लूँ। पिताजी ने ही पूछा फुंसी का क्या हाल है। मैं ने कहा दर्द तो नहीं है पर फुंसी तो आप ही देख सकते हैं। उन्हों ने फुंसी को देखा तो उसे सिरे से गायब पाया। मैं चौंका। मैं ने होमियोपैथी की किताब उठाई और बेलाडोना के लक्षण पढ़े तो वहाँ अंकित था कि इन लक्षणों में बैलाडोना का उपयोग सही है। उस के उपरांत मैं कम से कम पाँच सौ बार बैलाडोना का समान परिस्थितियों में अपने लिए और औरों के लिए उपयोग कर चुका हूँ। एक बार भी यह प्रयोग असफल नहीं हुआ। अब इस के उपरांत होमियोपैथी को अवैज्ञानिक कम से कम मैं तो नहीं कह सकता था।

रविवार, 14 मार्च 2010

किसानों के लिए खुश-खबर : बिना सिंचाई प्रति हेक्टेयर 35-40 क्विंटल गेहूँ उपजाया

राजस्थान के टोंक जिले में पाँच वर्ष पहले जब किसान सिंचाई के लिए पानी की मांग के लिए आंदोलन कर रहे थे, तब राजमार्ग से अवरोध हटाने के लिए सरकार को गोलियाँ चलानी पड़ी थीं।  इस गोलीकांड में एक महिला सहित पाँच व्यक्तियों को अपनी जान देनी पड़ी थी। ये किसान अपने ही जिले में स्थित राजस्थान के दूसरे सब से बड़े बांध बीसलपुर के पानी को स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए उपलब्ध कराने की मांग कर रहे थे। राज्य सरकार सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के स्थान पर उसे राज्य की राजधानी जयपुर को पेयजल उपलब्ध कराने का निर्णय कर चुकी थी। यह निर्णय क्षेत्र के किसानों को नागवार गुजरा था।
से में जब राज्य में पानी के लिए बाकायदा जंग लड़ी जा चुकी हों, तब यह खबर आप को और किसानों को राहत पहुँचाने वाली है कि बिना सिंचाई के खेतों में गेहूँ उगाया जा सकता है और 35 से 40 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फसल प्राप्त की जा सकती है।  कोटा के उम्मेदगंज कृषि अनुसंधान केन्द्र के कृषि वैज्ञानिकों ने यह कर दिखाया है।
स अनुसंधान केन्द्र ने इस वर्षएचआई-1531, एचआई-1500, एचडब्ल्यू-2004, डब्ल्यूएच-1098, एचडी-3071, आरडब्ल्यू-3688, एचडी 4672, एकेडीडब्ल्यू-4635, एमपी-1240, एचडी-3070 जैसी लगभग छत्तीस किस्म की गेहूँ की फसलें बोयीं और अपेक्षित परिणाम प्राप्त किए। बोयी गई फसलों की कटाई के उपरांत थ्रेशिंग हो चुकी है और छह सात बोरी प्रति बीघा उपज प्राप्त की है।
स अनुसंधान केन्द्र ने अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में पलेवा के बाद खेत की अच्छी तरह जुताई की। इसके बाद खेत में 40-40 किलो नत्रजन व फास्फोरस डाला और उस के बाद 15 से 20 अक्टूबर के बीच बुआई की।  इसके  उपरांत  इन फसलों की एक बार भी सिंचाई नहीं की गई। इन फसलों ने पकने में 125-130 दिन  लिए। जब कि गेहूँ की फसल को तीन बार सिंचाई करने के उपरांत केवल 50 से 60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज ही प्राप्त की जा सकती है। इस तरह यह प्रयोग उन किसानों के लिए रामबाण सिद्ध हुआ है जिन की भूमि को सिंचाई की सुविधा प्राप्त नहीं है या प्राप्त है तो कम बरसात के कारण सिंचाई स्रोत अनुपलब्ध हो जाने से वे गेहूँ की फसल बोने में संकोच करते हैं।

रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

रविवार, 4 अक्तूबर 2009

जब वैद्य मामा से औरत पर चढ़ने वाला भूत डरने लगा

लवली कुमारी के ब्लाग संचिका पर उन का आलेख स्त्रियों में मनोरोग पराशक्तियाँ और कुछ विचार पढ़ा। पसंद भी आया। मुझे अपने दो मामाओं के बीच का वार्तालाप स्मरण हो आया।

मेरे मामा जी, पंडित चंदालाल शर्मा शानदार ज्योतिषी थे इलाके में उन का नाम था। हालांकि उन्हों ने इसे पेशा कभी नहीं बनाया। यूँ एक बीड़ी कारखाने के मालिक थे। उन के मित्र वैद्य पं. कृष्णगोपाल पारीक नामी वैद्य थे। उन की स्वयं की औषध शाला थी और भारतीय जड़ी बूटियों के माध्यम  से चिकित्सा पर अधिकार था। उन्हों ने एक आयुर्वेद महाविद्यालय भी कुछ बरस चलाया जिस ने इस क्षेत्र में सैंकड़ों लोगों को वैद्य बनाया। आज भी वे लोग गांवों में चिकित्सा सेवा दे रहे हैं। माँ बैद्य जी को राखी बांधती थीं और वैद्य जी ने उस राखी के रिश्ते को मामा जी से भी बढ़ कर निभाया। आज भी उस परिवार के लोग उस रिश्ते को उसी तरह निभाते हैं।


एक दिन मैं मामा जी से मिलने गया तो वैद्य मामा भी वहीं बैठे थे। दोनों में इस विषय पर वार्तालाप चल रहा था कि लोगों पर जो भूत-प्रेत चढ़ आते हैं उन का क्या इलाज है? मामा जी ने मेरे नाना द्वारा भूत उतारने के किस्से सुनाए। काशी गुरुकुल से विद्या प्राप्त वैद्य मामा कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्हों ने भी एक किस्सा छेड़ दिया। यह किस्सा मुझे इस लिए भी स्मरण रहा क्यों कि यह उस औरत पर से भूत उतारने से संबद्ध था जो उस मकान में रहती थी जिस के पास के मकान में मैं पैदा हुआ था।

उस औरत को अचानक भूत चढ़ने लगा।  पहले पहल ऐसा महिने, दो महिने  में हुआ करता था। फिर आवृत्ति बढ़ती गई। भूत महाराज सप्ताह में दो-तीन बार आने लगे। घर वाले परेशान। एक दिन औरत पर भूत चढ़ा हुआ था कि औरत गली में निकल आई। वैद्य मामा उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने वैसे ही पूछ लिया यह क्या हो रहा है? उन की पूरे मोहल्ले पर ही नहीं पूरे इलाके में धाक थी। उस महिला के पति ने वैद्य मामा से कहा कि 'इसे पिछले चार पांच महिने से भूत चढ़ता है। पहले तो दस-पांच मिनट में उतर जाता था। पर अब तो एक-एक घंटा हो जाता है और सप्ताह में दो-तीन बार चढ़ जाता है। आप के पास कोई इलाज/उपाय हो तो बताएँ। वैद्य मामा  सोच में पड़ गए। थोड़ी देर बाद कहा कि इसे किसी तरह मकान के अंदर कमरे में ले चलो और एक धूपेड़े  (हनुमान जी, माताजी और भैरव मंदिरों में धूप जलाने के लिए रखा जाने वाला मिट्टी का डमरू के आकार का बरतन) में कंडे जला कर रखें।


पति कुछ लोगों की मदद से भूत चढ़ी पत्नी को जैसे-तैसे अपने मकान के कमरे तक ले गया। कुछ ही देर में मामा वैद्य जी वहाँ पहुँच गए। उन्हों ने कमरे का निरीक्षण किया कमरे में हवा-रोशनी आने के लिए दरवाजे के अलावा केवल एक खिड़की थी। उन्हों ने खिड़की को बंद करवा दिया। तब तक धूपे़ड़े में जल चुके कंडे आग में बदल चुके थे। वैद्य जी ने उस आग में कुछ डाला तो तेज गंध आई। वैद्य जी ने सब को कमरे से बाहर निकाला और धूपेड़ा कमरे में ले गए। औरत जोर से चिल्लाने लगी -मुझे कौन भगाने आया। मैं न जाउँगा। मिनट भर बाद ही एक कागज की पुड़िया में से कोई दवा उन्हों ने धूपेड़े में डाली और फौरन कमरे से बाहर आ कर दरवाजे के किवाड़ लगा कर कुंडी लगा दी। अंदर से औरत के चिल्लाने की आवाजें आईँ। फिर वह जोरों से खाँसने लगी। फिर उस के खाँसने की आवाज भी बंद हो गई। वैद्य जी ने तुंरत लोगों को दूर जाने को कहा और किवाड़ व खिड़की खोल दी। अंदर से बहुत सा धुँआ निकला। जो भी उस की चपेट में आया वही खाँसने लगा। औरत अचेत पड़ी थी।  वैद्य जी ने उस औरत के पति को कहा कि उसे खुले में ले आएँ। कुछ देर में यह ठीक हो जाएगी। तभी औरत ने आँखें खोली और सामान्य हो गई। लोगों को देख घूंघट कर लिया। उस का भूत उतर चुका था।

वैद्य मामा ने जब किस्सा सुना चुके तो मैं ने पूछा आखिर आप ने किया क्या था? कहने लगे  -मैं ने बस थोड़ा सा लाल मिर्चों का पाऊडर धूपेड़े में डाला था। जिस के धुँए से औरत बेहाल हो कर बेहोश हो गई। होश में आई तो उस का भूत उतर गया था।
-और उस औरत को कुछ हो जाता तो? मैं ने पूछा।
मैं वहीं था। इलाज कर देता।
फिर कभी उस औरत को भूत चढ़ा या नहीं? मैं ने जिज्ञासावश पूछा।
वैद्य मामा ने बताया कि भूत तो फिर भी उस पर चढ़ता था। लेकिन तभी जब मैं गाँव में नहीं होता था। शायद भूत मुझ से डर गया था।

शनिवार, 8 अगस्त 2009

दर्शन और विज्ञान का अन्तर्सम्बन्ध और एक अनाम रचनाकार की रचना 'काशः दुनिया कम्प्यूटर होती'

साँख्य के विरोध और पक्ष में बहुत कुछ कहा गया है। उन सब पर जाया जाए तो यह श्रंखला बहुत लंबी हो जाएगी। इस कारण यहीं विराम लेना ठीक है। 'दर्शन का मानव जीवन में महत्व' एक महत्वपूर्ण विषय है। इस पर जरूर बात होनी चाहिए। मैं ने साँख्य से बात आरंभ करने का प्रयत्न किया है। साँख्य को चुनने का मुख्य कारण एक तो इस का प्राचीनतम दर्शन होना था, दूसरे अपने काल की दृष्टि से यह सब से अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता था।
जब से मनुष्य ने सोचना आरंभ किया एक प्रश्न हमेशा उस के सामने रहा कि 'विश्व और उस का व्यापार कैसे चलता है?' तत्कालीन उपलब्ध तथ्यों के आधार पर दार्शनिकों ने इस का उत्तर देने का प्रयत्न किया। धीरे-धीरे दार्शनिक प्रणालियाँ विकसित होती चली गईं। दुनिया के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में इस का मूल देखा जा सकता है। लेकिन वहाँ वे स्फुट विचार थे। उपनिषदों में इन विचारों को विस्तार प्राप्त हुआ। बाद में विकसित होते होते इन्हें दर्शन प्रणालियों का रूप प्राप्त हुआ। भारत में मुख्यतः साँख्य और वेदान्त प्रणालियाँ विकसित हुईं। जगत की व्युत्पत्ति और उस के व्यापार की तार्किक व्याख्या करने वाली प्रणालियों ने वैज्ञानिकों को इन की सत्यता को परखने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि दर्शन ने विज्ञान का मार्गदर्शन किया।
लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं होती है। जब विज्ञान ने दर्शनों को परखना आरंभ किया, तो उन की अनेक प्रस्थापनाओं को अपने प्रयोगों और उन के परिणामों से खारिज भी किया। इस तरह दर्शन ने जो निष्कर्ष दिए थे उन्हें विज्ञान के निष्कर्षों ने प्रतिस्थापित करना आरंभ कर दिया। यहाँ दर्शन की एक नई भूमिका आरंभ हो गई। अब उसे विज्ञान के निष्कर्षों के अनुरूप स्वयं को बदलना था, अर्थात जिन अवधारणओं को विज्ञान द्वारा परख कर खारिज या मान्य कर दिया था, दर्शन को स्वयं के विकास के लिए उस के आगे की यात्रा आरंभ करनी थी। इस रह हम देखते हैं कि दर्शन और विज्ञान के बीच एक विचित्र संबंध है। दर्शन विज्ञान का पथप्रदर्शन करता है, लेकिन विज्ञान दर्शन को खुद को दुरूस्त करने का अवसर देता है और दर्शन खुद को संशोधित करते हुए पुनः नयी अवधारणा प्रस्तुत कर विज्ञान का मार्गदर्शन कर सकता है। बहुत लोग किसी एक दर्शन प्रणाली के अनुयायी हो कर विज्ञान की अनदेखी करते हुए दर्शन का राग अलापते रहे और आज तक अलाप रहे हैं। लेकिन यह ठीक नहीं है। जहाँ तक विज्ञान अपनी खोजों से पहुँच गया है, उस के आगे भी उस के पास बहुत से अनुत्तरित प्रश्न मौजूद हैं। दर्शन का दायित्व है कि आज तक के वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर इन अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तरों के लिए अपनी अवधारणाएँ प्रस्तुत करे और विज्ञान की आगे की यात्रा के लिए उस के पथ प्रदर्शक का काम करे। मुझे लगता है कि एक शताब्दी से कुछ अधिक काल से इस काम में दर्शनशास्त्र और दार्शनिक पिछड़े हैं और दर्शनशास्त्र वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। यह आज के दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों और अध्येताओं के लिए एक चुनौती है। मैं पिछले तीस वर्षों से लगातार यह सोच रहा हूँ कि विश्वविद्यालयों के स्नातक उपाधि के पाठ्यक्रम में भौतिकी और दर्शन विषय को एक साथ पढ़ने का अवसर विद्यार्थियों को क्यों नहीं मिलता है।
जब मैं साँख्य पढ़ रहा था तो मुझे बार-बार ईश्वरकृष्ण की पुस्तक साँख्यकारिका पढ़नी पड़ी। मेरे पास इस पुस्तक की जो प्रति थी वह 1960 का संस्करण था। इसे मेरे चाचा जी ने संस्कृत के स्नातकोत्तर के अध्ययन के लिए खरीदा था, तब इस का मूल्य मात्र एक रुपया था। पुस्तक पूरी ही थी। लेकिन पिछला कवर पृष्ठ निकल चुका था और कागज इस नाजुक अवस्था में पहुँच चुका था कि वह जरा भी लापरवाही बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था। मैं ने पुस्तक की सुरक्षा के लिए उसे पुरानी कॉपी के एक पन्ने में लपेट दिया था। कल उस पन्ने को अलग कर पुस्तक पर एक नए कागज का कवर ठीक से लगा कर उसे अलमारी में सुरक्षित रखा। निकाला गया पन्ना देखा तो वह बेटी पूर्वा की किसी कॉपी का था। उस पर एक रचना लिखी थी। यह किस की रचना थी? यह तो मैं बता सकने में असमर्थ हूँ। लेकिन उस रचना को आप के सामने रखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। यह रचना आज के नौजवानों की महत्वाकांक्षा को बहुत खूबसूरती और रूमानियत के साथ प्रकट करती है जो शायद उस की आदिम आकांक्षा भी रही है। तो यह रचना प्रस्तुत है, आप को पसंद आए तो उस अनाम रचनाकार के लिए दो शब्द जरूर लिखें।
दुःख के लमहे डि-लीट करते
  • अनाम रचनाकार
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।
सुख के लमहे सेव हो जाते, दुःख के लमहे डि-लीट करते।।

मज़े की मनचाही विंडो, जब चाहे हम औपन करते।
मुस्तकबिल के ताने बाने, अपनी चाहत से खुद ही बुनते।।

ख्वाहिशों की होती फाइल, जिस में कट और कॉपी करते।
जब भी होता वायरस पैदा, दुनिया को री-फॉर्मेट करते।।

खुशियों के रंगों से तस्क़ीन, फीके लमहे रंगीन करते।
काश दुनिया एक कम्प्यूटर होती, जिस में डू और अन-डू करते।।









मंगलवार, 14 अक्तूबर 2008

सुंदर कितना लगता है, पूनम का ये चांद,? शहर से बाहर आओ तो .......

स्मृति और विस्मृति पल पल आती है, और चली जाती हैं। कल तक स्मरण था। आज काम में विस्मृत हो गया। पूरा एक दिन बीच में से गायब हो गया। दिन में अदालत में किसी से कहा कल शरद पूनम है तो कहने लगा नहीं आज है। मैं मानने को तैयार नहीं। डायरी देखी तो सब ठीक हो गया। शरद पूनम आज ही है। शाम का भोजन स्मरण हो आया। कितने बरस से मंगलवार को एक समय शाम का भोजन चल रहा है स्मरण नहीं। शाम को घर पहुँचा तो शोभा को याद दिलाया आज शरद पूनम है। कहने लगी -आप ने सुबह बताया ही नहीं, मेरा तो व्रत ही रह जाता। वह तो पडौसन ने बता दिया तो मैं ने अखबार देख लिया।

- तो मैं दूध ले कर आऊँ?
- हाँ ले आओ, वरना शाम को भोग कैसे लगेगा? रात को छत पर क्या रखेंगे?
मुझे स्मरण हो आया अपना बालपन और किशोरपन। शाम होने के पहले ही मंदिर की छत पर पूर्व मुखी सिंहासन को  सफेद कपड़ों से सजाया जाता। संध्या आरती के बाद फिर से ठाकुर जी का श्रंगार होता। श्वेत वस्त्रों से। करीब साढ़े सात बजे, जब चंद्रमा बांस  भर आसमान चढ़ चुका होता। ठाकुर जी को खुले आसमान तले सिंहासन पर सजाया जाता। कोई रोशनी नहीं, चांदनी और चांदनी, केवल चांदनी। माँ मन्दिर की रसोई में खीर पकाती। साथ में सब्जी और देसी घी की पूरियाँ। फिर ठाकुर जी को भोग लगता। आरती होती। जीने से चढ़ कर दर्शनार्थी छत पर आ कर भीड़ लगाते। कई लोग अपने साथ खीर के कटोरे लाते उन्हें भी ठाकुर जी के भोग में शामिल किया जाता।

किशोर हो जाने के बाद से मेरी ड्यूटी लगती खीर का प्रसाद बांटने में। एक विशेष प्रकार की चम्मच थी चांदी की उस से एक चम्मच सभी को प्रसाद दिया जाता। हाथ में प्रसाद ले कर चल देते। लेकिन बच्चे उन्हें सम्हालना मुश्किल होता। वे एक बार ले कर दुबारा फिर अपना हाथ आगे कर देते। सब की सूरत याद रखनी पड़ती। दुबारा दिखते ही डांटना पड़ता। फिर भी अनेक थे जो दो बार नहीं तीन बार भी लेने में सफल हो जाते।

कहते हैं शरद पूनम की रात अमृत बरसता है। किसने परखा? पर यह विश्वास आज भी उतना ही है। जब चांद की धरती पर मनुष्य अपने कदमों की छाप कई बार छोड़ कर आ चुका है। सब जानते हैं चांदनी कुछ नहीं, सूरज का परावर्तित प्रकाश है। सब जानते हैं चांदनी में कोई अमृत नहीं। फिर भी शरद की रात आने के पहले खीर बनाना और रात चांदनी में रख उस के अमृतमय हो जाने का इंतजार करना बरकरार है।

शहरों में अब शोर है, चकाचौंध है रोशनी की। चकाचौंध में हिंसा है। और रात में किसी भी कृत्रिम स्रोत के  प्रकाश के बिना कुछ पल, कुछ घड़ी या एक-दो प्रहर शरद-पूनम की चांदनी में बिताने की इच्छा एक प्यास है। वह चांदनी पल भर को ही मिल जाए, तो मानो अमृत मिल गया। अमर हो गए। अब मृत्यु भी आ जाए कोई परवाह नहीं। भले ही दूसरे दिन यह अहसास चला जाए। पर एक रात को यह रहे, वह भी अमृत से क्या कम है।

साढ़े सात बजे दूध वाले के पास जा कर आया। दूध नहीं था। कहने लगा आज गांव से दूध कम आया और शरद पूनम की मांग के कारण जल्दी समाप्त हो गया। फिर शरद पूनम कैसे होगी?  कैसे बनेगी खीर? और क्या आज की रात अमृत बरसा, तो कैसे रोका जाएगा उसे? उसे तो केवल एक धवल दुग्ध की धवल अक्षतों के साथ बनी खीर ही रोक सकती है। दूध वाले से आश्वासन मिला, दूध रात साढ़े नौ तक आ रहा है। मैं ले कर आ रहा हूँ। मेरे जान में जान आई। घर लौटा तो शोभा ने कहा स्नान कर के भोजन कर लो। जब दूध आएगा, खीर बन जाएगी। रात को छत पर चांदनी में रख अमृत सहेजेंगे। प्रसाद आज नहीं सुबह लेंगे। पूनम को नहीं कार्तिक के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को।

मैं ने वही किया जो गृहमंत्रालय का फरमान था। अब बैठा हूँ, दूग्धदाता की प्रतीक्षा में। दस बज चुके हैं। वह आने ही वाला होगा। टेलीफोन कर पूछूँ? या खुद ही चला जाऊँ लेने? मैं उधर गया और वह इधर आया तो? टेलीफोन ही ठीक रहेगा।

मैं बाहर आ कर देखता हूँ। चांद भला लग रहा है। जैसे आज के दिन ही उस का ब्याह हुआ हो। लेकिन ये दशहरा मेले की रोशनियाँ, शहर की स्ट्रीट लाइटस् और पार्क के खंबों की रोशनियाँ कहीं चांद को मुहँ चिढ़ा रही हैं जैसे कह रही हों अब जहाँ हम हैं तुम्हें कौन पूछता है? मेरा दिल कहता है थोड़ी देर के लिए बिजली चली जाए। मैं चांद को देख लूँ। चांद मुझे देखे अपनी रोशनी में। मैं सोचता हूँ, मेरी कामना पूरी हो,  बिजली चली जाए उस से पहले मैं इस आलेख को पोस्ट कर दूँ। मेरी अवचेतना में किसी ग्रामीण का स्वर सुनाई देता है ......

सुंदर कितना लगता है? पूनम का ये चांद,
जरा शहर से बाहर आओगे तो जानोगे,
खंबों टंगी बिजलियाँ बुझाओ तो जानोगे........


पुनश्चः - दूध वाला नहीं आया।  आए कमल जी मेरे कनिष्ठ अधिवक्ता। मैं ने कहा - दूध लाएँ? वह अपनी बाइक ले कर तैयार दूध वाला गायब दुकान बंद कर गया। उसे कोसा। अगली दुकान भी बंद। कमल जी ने बाइक अगले बाजार में मोड़ी। वहाँ दूध की दुकान खुली थी। मालिक खुद बैठा था। उस के खिलाफ कुछ दिन पहले तक मुकदमा लड़ा था। मैं ने कहा - दूध दो बढ़िया वाला।
उस ने नौकर को बोला - प्योर वाला देना।

दूध ले कर आए। अब खीर पक रही है।
फिर जाएंगे उसे ले कर छत पर। अमृत घोलेंगे उस में। घड़ी, दो घड़ी।
अब बिजली चली ही जाना चाहिए, घड़ी भर के लिए......

शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।

सोमवार, 3 मार्च 2008

ताजा विज्ञान समाचार अब हिन्दी ब्लॉग "कल की दुनियाँ" पर

आप ने हिन्दी ब्लॉग "शब्दों का सफर" और "अदालत " देखें होंगे। इन में से एक हमें नए शब्दों, उन की रिश्तेदारी से परिचित कराते हुए हमारी शब्द सामर्थ्य का विकास कर रहा है। तो दूसरा न्याय जगत की ताजा खबरों से अवगत कराता रहता है। इन दोनों ही चिट्ठों का महत्व प्राथमिक है। ये हमारे ज्ञान को तो बढ़ाते ही हैं हमें लेखन के लिए सामग्री भी उपलब्ध कराते हैं।
इसी श्रँखला में एक नए हिन्दी चिट्ठे "कल की दुनियाँ" ने और जन्म लिया है- यह चिट्ठा हमें आने वाले कल की दुनियाँ के लिए विज्ञान के योगदान की ताजा सूचनाऐं आप तक पँहुचा रहा है। यह आज प्रत्येक चिट्ठा पाठक की जरुरत था। सभी को इस चिट्ठे को रोज पढ़ना चाहिए। चिट्ठाकारों के लिए तो नयी वैज्ञानिक जानकारियाँ प्राप्त करने का यह सर्वोत्तम स्रोत साबित हो सकता है।
इस चिट्ठे के चिट्ठा कार ने अपने संबंध में जानकारियाँ उपलब्ध नहीं कराई हैं। लेकिन कोई अपनी पहचान छुपा कर भी हिन्दी पाठकों की सेवा कर रहा है, यह स्तुत्य है।
आप इस ब्लॉग पर यहाँ "कल की दुनियाँ" पर क्लिक कर के पहुँच सकते हैं।