@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: विकास
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मंगलवार, 22 नवंबर 2022

सावरकर और उसकी विचारधारा देश की प्रगति और विकास के लिए सब से बड़ा रोड़ा है

सावरकर भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथ के नायक होने के साथ साथ कमजोर नस भी हैं। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में प्रवेश करते हुए इस कमजोर नस को दबा दिया है। इस नस के दबते ही सारे भाजपाई एक साथ उबल पड़े हैं। यहाँ तक कि महाराष्ट्र में उनका साथ देने वाला और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ठाकरे परिवार को भी राहुल गांधी के बयान पर अपनी आपत्ति दर्ज करानी पड़ी। हालाँकि उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी के बयान की आलोचना के साथ ही भाजपाइयों पर हमला बोल कर इस बात की सावधानी बरती कि कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते खराब न हों और उनका अगाड़ी मोर्चा बरकरार रहे।

राहुल गांधी ने इतना ही कहा था कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी, पर साथ ही आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को एक हद तक स्वीकार करके अपने आलोचना कर्म को हलका कर दिया। लेकिन अब महात्मा गांधी के प्रपोत्र तुषार गांधी सावरकर की आलोचना के मैदान में उतर पड़े। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए पिस्तौल सावरकर ने उपलब्ध करवाने में मदद की थी। इस तरह सीधे सीधे उन्हें हत्या में सहयोगी कह दिया है। साथ ही उन्होंने कहा कि आजादी आंदोलन के दौरान सावरकर ने अंग्रेजों की मदद की। जिसका अर्थ था कि सावरकर ने आजादी आंदोलन की पीठ में छुरा घोंपा है।

सावरकर अपने कामों के लिए हमेशा विवादास्पद बने रह सकते हैं। क्यों कि यह बात तो अब भाजपाई भी मान रहे हैं कि सावरकर ने माफी मांगी थी और बचाव में वे झूठी कहानियाँ गढ़ रहे हैं कि दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी माफी मांगी थी। अब ये झूठी कहानियाँ उनके गले पड़ने वाली हैं।

सावरकर पर उनके कर्मों के कारण होने वाले हमलों से न भाजपा विचलित होगी और न ही अन्य भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथी। हिन्दू दक्षिणपंथ के पास सावरकर के अतिरिक्त कोई अन्य सिद्धान्तकार है ही नहीं। विश्व में अकेले सिद्धान्तकार हैं जो भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का सिद्धान्त देते हैं। हालाँकि सभी हिन्दू दक्षिणपंथी अपने हिन्दू राष्ट्र को एक धार्मिक राष्ट्र के रूप में देखते-दिखाते हैं क्यों कि उसके बिना उनका इस रास्ते पर आगे बढ़ना बिलकुल संभव नहीं है। हिन्दू राष्ट्र से धर्म को अलग करते ही उनका हिन्दू राष्ट्र का यह राजमहल बिलकुल ताश के महल की तरह भरभराकर गिर पड़ेगा।

दूसरी ओर इस मामले में सावरकर उनके आड़े आ जाते हैं। सावरकर पूरी तरह नास्तिक थे। उनका हिन्दू राष्ट्र बिलकुल भी धार्मिक नहीं था। हिन्दू राष्ट्र की सबसे बड़े प्रतीक गौ माता के मामले में उनके विचार बहुत प्रगतिशील थे। वे कहते हैं कि गाय अन्य जानवरों की तरह ही जानवर है और उसे कोई इंसान माता कैसे मान सकता है। इस तरह सावरकर का उपयोग करने में अनेक अंतर्विरोध मौजूद हैं। फिर भी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा देने वाला और कोई सिद्धान्तकार नहीं होने के कारण वही हिन्दू दक्षिणपंथ के सर्वोपरि आदर्श हो सकते हैं अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं।

कम्प्यूटराइज्ड औद्योगिक समाजों के इस युग में आगे बढ़ने के लिए किसी भी देश के लिए एक धार्मिक राष्ट्र का होना एक बहुत बड़ा अवरोध है। ये दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाना है तो उसे दक्षिणपंथ पर काबू पाना होगा। अभी भाजपा इस हिन्दू दक्षिणपंथ पर सवार हो कर देश पर काबिज है। अब यदि राहुल गांधी और अन्य कोई भी नेता और उनकी पार्टियाँ चाहती हैं कि देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने कि लिए देश पर से भाजपा के इस कब्जे को नेस्तनाबूत किया जाए तो उन्हें समूचे दक्षिणपंथ को निशाने पर लेना होगा। हिन्दू दक्षिणपंथ इस का बड़ा हिस्सा है। हिन्दू दक्षिणपंथ को मुख्य लक्ष्य बनाने के लिए सावरकर और उसके द्विराष्ट्र सिद्धान्त को ध्वस्त करना होगा। यह सावरकर ही था जिसने पहले पहल भारत में द्विराष्ट्र का सिद्धान्त दिया और धार्मिक पहचान के आधार पर देश के दो टुकड़े करने की नींव रखी। मुस्लिम नेता तो उसकी प्रतिक्रिया में अलग पाकिस्तान मांगने लगे। वस्तुतः देश के विभाजन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वह सावरकर है। यदि सावरकर न होते तो भारत आज अखंड होता।

अब यदि अन्य नेता और राजनीतिक दल वास्तव में चाहते हैं कि भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़े तो उन्हें हिन्दू दक्षिणपंथ पर घातक हमले करने होंगे। यह उनकी विचारधारा को ध्वस्त करके ही किया जा सकता है, जिसका आधार सावरकर है। हम समझ सकते हैं कि आज देश की प्रगति और विकास के मार्ग में कोई सबसे बड़ी बाधा है तो वह सावरकर और उसकी विचारधारा है। इस कारण केवल सावरकर के कर्मों पर हमला करके काम नहीं चलेगा। सावरकर की विचारधारा के प्रति आक्रामक होना होगा और उस विचारधारा को ध्वस्त करना होगा।

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

लालच, विकास की मूल प्रेरणा : बेहतर जीवन की ओर-15

ब तक हम ने देखा कि मनुष्य का जीवन बेहतर तभी हो सकता था जब कि उसे पर्याप्त भोजन, आवास और वस्त्र मिल सकें। प्रकृति में शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर प्राणी को ये सब आसानी से प्राप्त होने वाली नहीं थीं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए किए गए श्रम ने ही उसे वानर से मनुष्य बनाया था। इसी श्रम ने उस के मस्तिष्क को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित किया। वह औजारों का निर्माण और उपयोग करने लगा और धीरे धीरे पशुपालन के साथ ही उस ने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ सीधे प्रकृति से प्राप्त करने के स्थान पर उन का उत्पादन करना आरंभ किया और कालान्तर में उत्पादन का विकास भी। उत्पादन के विकास के आरंभिक चरण में ही उस की श्रम शक्ति इस योग्य बन गई थी कि वह जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक से काफी अधिक पैदा करने लगा था। इसी अवस्था में श्रम-विभाजन और व्यक्तियों के बीच उत्पादन के विनिमय का आरंभ हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही उस ने मनुष्य को दास बना कर यह आविष्कार भी कर लिया कि मनुष्य स्वयं भी माल हो सकता है और उस का विनिमय भी किया जा सकता है। विनिमय के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्यों का भी विनिमय आरंभ हो गया। यह मनुष्य समाज का शोषित और शोषक वर्गों में पहला बड़ा विभाजन था। दास-प्रथा के रूप में शोषण का यह रूप मध्ययुग में भूदास-प्रथा  और आज उजरती श्रम की प्रथाओं में परिवर्तित हो चुका है। 

भ्यता का युग माल उत्पादन की जिस स्थिति में आरंभ हुआ था उस में धातु की मुद्रा का प्रयोग होने लगा था और मुद्रा, पूंजी, सूद और सूदखोरी का चलन हो गया। उत्पादकों के बीच बिचौलिए व्यापारी आ खड़े हुए। भूमि पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया और रहन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया। दास श्रम उत्पादन का मुख्य रूप हो गया। इसी के साथ परिवार का रूप भी बदला वह एकनिष्ठ परिवार में परिवर्तित हो गया जिस में स्त्री पर पुरुष का प्रभुत्व स्थापित हुआ और प्रत्येक परिवार समाज की एक आर्थिक इकाई हो गया। समाज को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में राज्य सामने आया जो वस्तुतः केवल शासक वर्ग का राज्य होता है और जो मूल रूप से उत्पीड़ित शोषित वर्गों को दबा कर रखने के का एक औजार मात्र है। सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में नगर और गाँवों में स्थाई रूप से विरोध स्थापित हो गया। दूसरी ओर वसीयत की प्रथा आ गई जिस के माध्यम से सम्पत्ति का स्वामी अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी संपत्ति का इच्छानुसार निपटारा कर सकता है। य़ह प्रथा पुराने गोत्र समाज के पूरी तरह प्रतिकूल थी जिस में संपत्ति गोत्र के बाहर नहीं जा सकती थी। 

न तमाम प्रथाओं की सहायता से सभ्यता ने वे सभी महान कार्य कर दिखाए जो गोत्र समाज की सामर्थ्य में नहीं थे। लेकिन ये सब काम उस ने मनुष्य की सब से निम्न कोटि की मनोवृत्तियों और आवेगों को उभारते हुए तथा उस की तमाम अन्य क्षमताओं को हानि पहुँचाते हुए किए। सभ्यता के उदय से आज तक लालच ही उस के मूल में रहा है। बस धन अर्जित करना, और अधिक धन अर्जित करना जितना अधिक किया जा सके उतना धन अर्जित करना। लेकिन स्थाई मनुष्य समाज का धन नहीं, एक अकेले व्यक्ति का धन। उस व्यक्ति का धन जिस का जीवन केवल कुछ दिनों, कुछ महिनों या कुछ सालों का है। बस यही सभ्यता का एक मात्र निर्णायक उद्देश्य हो गया। यदि इस के साथ विज्ञान का विकास भी होता रहा और समय समय पर कला के उच्च विकसित युग भी आते रहे तो मात्र इस लिए कि  धन इकट्ठा करने में जो सफलताएँ प्राप्त हुई हैं वे सब विज्ञान और कला की इन उपलब्धियों के बिना प्राप्त करना संभव नहीं था।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

पूंजी का अनियोजित निवेश विकास को अवरुद्ध करता है

गर तेजी से विस्तार पा रहे हैं। लेकिन केन्द्र और राज्य सरकारों के नगरीय विकास विभाग इस विस्तार से आँख मूंदे बैठे हैं। लोग नगरों में शरण पाते हैं तो उन्हें रहने को छप्पर तो चाहिए ही। रोजगार मिलने के बाद सब से पहले आदमी यही सोचता है कि उसे एक छत मिल जाए। वह उस की तलाश में लग जाता है। वह किराए का घर लेता है। जो हमेशा उस की जरूरत से बहुत छोटा होता है। जैसे तैसे कुछ बचाता है और एक अपना घर बनाने की जुगाड़ में लग जाता है। नगरों में जमीनें कीमती हैं और उस के बस की नहीं। लेकिन अपने घर की चाह बनी रहती है
सी चाह का लाभ उठाते हैं वे लोग जिन के पास लाठी है, जिनकी लाठी की राजनीतिज्ञों को जरूरत होती है और जिन के पास कुछ पैसा भी है। वे जमीनों पर कब्जा करते हैं, झुग्गियाँ डालते हैं और उन्हें किराए पर उठाते हैं, बेच भी देते हैं। सस्ती झुग्गी खरीद कर आदमी उसे पक्की करने में जुट जाता है। यह झुग्गी हमेशा अवैध होती है जब तक कि पूरी बस्ती के वोटों का दबाव सरकार पर नहीं बन जाता है। हमारे नगरीय विकास विभाग इन झुग्गियों के न बसने का और लोगों को आवास मुहैया कराने का कोई माकूल इलाज आज तक नहीं निकाल पाए। 
धर अनेक स्तरों वाला मध्यवर्ग भी बहुत बड़ा है, उसे झुग्गियाँ पसंद नहीं वह सस्ती जमीन चाहता है। नगरों के आसपास की खेती की जमीनें किसान बेच रहे हैं। उन्हें ऐसे ग्राहक मिल जाते हैं जो उन्हें इतना पैसा देने को तैयार हैं जिस से बेचना फायदे का सौदा हो जाए। खरीदने वाले लोग जमीन पर भूखंड बनाते हैं और फिर बेच देते हैं। वे अपना पैसा जल्दी निकालना चाहते हैं। सभी भूखंड जल्दी ही बिक जाते हैं। जब पहली बार ये भूखंड बिकते हैं तो बस्ती नहीं होती है। इन भूखंडों को वे ही लोग खरीदते हैं जिन के पास पैसा है और उन्हें खरीद कर छोड़ देते हैं, तब तक के लिए जब तक कि उन का अच्छा पैसा न मिलने लगे। फिर कोई जरूरतमंद आ कर उन पर मकान बनाता है। उसे देख कर कुछ लोग और आते हैं और मकान बनने लगते हैं। जमीन की कीमत बढ़ने लगती है। जब कुछ मकान बन जाते हैं तो लोग उसे बसती हुई बस्ती मान कर वहाँ अपने लिए कोई भूखंड खरीदने जाने लगते हैं। भूखंडों का बाजार बनने लगता है। लेकिन उन्हें उस कीमत में भूखंड नहीं मिलता जिस पर वे लेना चाहते हैं, जितनी उन की हैसियत है। उन की हैसियत के मुताबिक कीमत पर भूखंड मिलता है तो वहाँ जहाँ अभी बस्ती बसने नहीं लगी है। नगरों के आस पास मीलों तक के खेत बिक चुके हैं। उन पर भूखंड बना दिए गए हैं, बेच दिए गए हैं। लेकिन बस्तियाँ नहीं बस रही हैं। लोग बसना चाहते हैं। लेकिन वाजिब कीमत पर जमीन नहीं है। 
ध्य और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की इन भूखंडों में करोड़ों-अरबों की पूंजी लगी है। इस पूंजी ने जो आवासीय योजनाएँ खड़ी की हैं। उन में न बाजार हैं और न ही अन्य सुविधाएँ। इन्हें लोग अपनी मरजी और जरूरत के अनुसार बना ही लेंगे। लेकिन पार्क और खेलने के स्थान? वे इन में कभी नहीं होंगे। भूखंडों को उन के मालिक  तब बेचेंगे जब उन की मर्जी के मुताबिक भाव मिलेगा। पूंजी के इस अनियोजित निवेश ने नगरों की बस्तियों के विकास को अवरुद्ध और बेतरतीब कर दिया है। सरकारों को इस से क्या? भारत तो इसी तरह निर्मित होगा, अनियोजित और अव्यवस्थित।

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नक्सलवाद से निपटने का चिदम्बरम बाबू का नया फार्मूला

चिदम्बरम् बाबू ने फिर कहा है कि वे तीन साल में नक्सलवाद पर काबू पाएंगे। लेकिन कैसे? इस के खुलासे में उन्हों ने अपना नया फार्मूला पेश किया है वह बिलकुल दिलासा देने काबिल नहीं है। उन का कहना है कि वे विकास और सुरक्षा उपायों के माध्यम से इस पर काबू पाएंगे। 'विकास' और 'सुरक्षा ' इन दो शब्दों का अर्थ चिदम्बरम बाबू के लिए कुछ हो सकता है और जनता के लिए कुछ। यह भी हो सकता है कि नक्सलवादियों के लिए उस का अर्थ कुछ और हो। 
म जनता तो सुरक्षा के नाम पर नगरों और कस्बों में कायम 'आरक्षी केन्द्रों' को जानती है। उन में तैनात पुलिस तो जनता की सुरक्षा कर नहीं पाती अपितु कहीं अकेले में कोई व्यक्ति किसी पुलिस वाले के पल्ले पड़ जाए तो खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। पिछले दिनों मेरे स्वयं के पास कुछ मामले ऐसे आए हैं जहाँ पुलिस ने सुरक्षा करने के स्थान पर जनता की सुरक्षा की भावना को पलीता लगा दिया। किसी मोटर सायकिल वाले का चालान किया गया। उस के पास जुर्माना भरने को पैसा नहीं था तो उस की बाइक ही जब्त कर ली गई। अदालत से उसे वापस पाने का आदेश लेकर जब वह बाइक लेने 'आरक्षी केंद्र' पहुँचा तो पता लगा कि उस की मोटर सायकिल का छह महिने पहले डलवाया गया नया टायर एक पुराने और घिसे हुए टायर से बदल दिया गया है। पुलिस टायर बदलने का इल्जाम लगा कर उसे कोई आफत तो मोल लेनी नहीं थी। जब टायर बदलवाने बाजार पहुँचा तो उसे पता लगा कि छह महिने में टायर की कीमत में 80 % का इजाफा हो चुका है। जो टायर पहले 800 रुपए का था अब 1500 रुपये में मिल रहा था। ऐसी ही एक घटना का कोई बीस बरस पहले मैं खुद शिकार हो चुका हूँ। गलती से मेरी मोपेड को टक्कर मारने वाले के विरुद्ध मैं ने रिपोर्ट दर्ज करवा दी। मेरी मोपेड को मुआयने के लिए जब्त किया गया। बताया गया कि टेक्नीकल रिपोर्ट लिखने वाले को सौ-पचास देना बनता है। मैं ने नहीं दिया। नतीजे में अदालत के आदेश से जब मोपेड वापस ले ने पहुँचा तो आधी टंकी पेट्रोल होने के बाद भी वह स्टार्ट नहीं हुई। मिस्त्री को दिखाने पर पता लगा कि उस में पेट्रोल की जगह पानी भरा हुआ था। अब चिदम्बरम बाबू इस पुलिस के भरोसे कैसे अपना सुरक्षा तंत्र चलाएँगे? ये तो वही बता सकते हैं। 
हाँ तक बात विकास की है, जनता अब तक विकास के नाम पर सिर्फ सड़कें देखती आई है। जो चुनावों के ठीक पहले चमचमाती हैं और सरकारें बनने के बाद उन के उखड़ने का सिलसिला तुरंत शुरू हो जाता है। इस के अलावा जनता तमाम नेताओं और उन के कुनबे को फलता फूलता देखती है। दूसरी और जनता का जीवन और दूभर होता जाता है। पिछले दिनों महंगाई ने जो कमर तोड़ी है उस के सीधे होने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते। उस पर शरद पंवार जैसे बयान-बाज के बयान दुखते नंगे घावों पर नमक और छिड़क जाते हैं। चिदम्बरम बाबू किस विकास के माध्यम से नक्सलवाद की हवा खिसकाना चाहते हैं? जरा उसे परिभाषित तो कर दें। 
क्सलवाद आज जंगलों में अपनी जड़ें जमाए बैठा है। उस की वजह है  कि जंगलों की आबादी को उन्हीं जंगलों में बेशकीमती खनिजों का खनन करने वालों ने उजाड़ा है, बरबाद और बेइज्जत किया है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का तो मुझे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है लेकिन इतना जानता हूँ कि राजस्थान के गिने चुने जंगलों में जितनी खानें सरकारी कागजों में दिखाई गई हैं उस से संख्या में दुगनी से भी अधिक खानें वास्तव में चल रही हैं। वन नष्ट हो रहे हैं। उन के साथ ही वनवासी और उन का जीवन नष्ट हो रहा है। यह नक्सलवादी प्रचार कि सरकार जंगलों को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है, जनता को सच लगता है। क्यों नहीं चिदम्बरम बाबू इस का जवाब इस तरह देते कि जंगलों में कोई भी नया खनन तब तक नहीं होगा जब तक उस इलाके के वनवासी उस से सहमत नहीं होते। पुराने खनन क्षेत्रों की जाँच की जाएगी और यदि यह पाया गया कि इस से वन और वनवासी जीवन को हानि पहुंच रही है तो उसे रोक दिया जाएगा। चिदंबरम बाबू आप घोषणा करें और इस ओर पहला कदम उठा कर तो देखें। और फिर उस का चमत्कार देखें। पर आप कैसे ऐसा कर पाएंगे? किया तो अपने आकाओं को क्या मुहँ दिखाएँगे?