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गुरुवार, 31 अगस्त 2023

रुक गए और पीछे को लौट रहे लोगों को साथ लेने की कोशिश भी जरूरी है

कल मैंने राखी बांधने के सन्दर्भ को लेकर मुहूर्तों की निस्सारता पर एक पोस्ट लिखी थी। उस पर मुझे दो गंभीर उलाहने मिले। पहला उलाहना मिला मेरे अभिन्न साम्यवादी साथी से। उनका कहना था कि पोस्ट बहुत अच्छी थी, लेकिन पोस्ट के अन्तिम पैरा से पहले वाले पैरा में जिसमें मैंने मुहूर्त चिन्तामणि ग्रन्थ का उल्लेख किया था उसकी बिलकुल आवश्यकता नहीं थी। उससे फिर से लोग उसी दलदल में जा फँसे।

साथी की बात कुछ हद तक सही थी। किन्तु मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि मानव विकास की यात्रा में अनेक पड़ाव हैं। मनुष्यों के अनेक दल हैं और ये सभी अलग अलग पड़ाव पर खड़े हैं या किन्हीं दो पड़ावों के मध्य यात्रा पर हैं। जो यात्रा पर हैं उनमें से अनेक प्रगतिशील हैं और हर समय कुछ न कुछ सीख रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं। अनेक ऐसे हैं जो किसी पड़ाव पर रुक गए हैं और आगे बढ़ने से डर रहे हैं या आगे बढ़ने की इच्छा त्याग चुके हैं। अनेक ऐसे भी हैं जो इतने भयभीत हैं कि उन्हें प्रस्थान-बिन्दु ही प्रिय लगता है और वे जहाँ तक आगे बढ़े थे वहाँ से भी पीछे हट कर उस पिछले पड़ाव पर हैं जिसे वे अपने लिए सुरक्षित समझते हैं। कुछ तो ऐसे भी होंगे जो प्रस्थान बिन्दु तक भी पहुँच गए होंगे, वे और पीछे जाना चाहते होंगे लेकिन उस बिन्दु से पीछे जाने का मार्ग जैविक रूप से ही बन्द हो चुका है। यह आगे बढ़ने और पीछे हटने की यात्राएँ हमे निरन्तर दिखाई पड़ती हैं। पीछे जाने वाले दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी हैं। यह पंथ शोषक-सत्ताधारियों को बहुत पसंद आता है क्योंकि इससे उन्हें किसी तरह का भय नहीं महसूस होता है। न रुक कर आगे की यात्रा करने वाले प्रगतिशील और वामपंथी हैं, जो अपने अपने पड़ाव पर रुक गए हैं और जिन्हें वहीं स्थायित्व नजर आता है वे यथास्थितिवादी हैं।

मैं उन लोगों में हूँ जो इस विकास यात्रा में अपनी स्थिति से आगे बढ़ना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ सम्पूर्ण मानवजाति एक साथ आगे बढ़े। रुके हुए और पीछे जा रहे लोगों को अपने साथ लाने का काम भी बड़ा काम है। इस काम में जो व्यक्ति जिस स्थान पर रुका है या पीछे जा रहा है उसे उसी स्थान से लाकर साथ साथ लिया जा सकता है जहाँ वह अवस्थित है। जो अलग अलग स्थानों पर खड़े हैं उन्हें समझाने के तरीके भी भिन्न भिन्न होंगे। जिन्होंने मान लिया कि ये मुहूर्त वगैरह निरर्थक हैं, वे मेरे साथ आगे बढ़ने को तैयार थे, ऐसे लोगों को तो इस पोस्ट की बिलकुल भी जरूरत नहीं थी। बहुत लोग ऐसे थे जिनका दम इन परंपराओँ में घुट रहा है लेकिन अभी भी इस निस्सारता को समझने की स्थिति में नहीं हैं। मुझे लगा कि उनके लिए इस पोस्ट में कुछ न कुछ जरूर होना चाहिए जिससे उन्हें उनकी घुटन से कुछ तो राहत मिले और वे आगे की सोच सकें। क्योंकि इस पोस्ट को लिखा तो उन्हीं के लिए था। यह पोस्ट इस मामले में अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वान्तः सुखाय तो बिलकुल भी नहीं लिखी थी।

मैं ने साथी की आपत्ति के बाद अपनी पोस्ट का पुनरावलोकन किया। मुझे लगा कि जहाँ मैंने मुहूर्त चिन्तामणि का उल्लेख किया वहीं इस बात का उल्लेख भी पुनः करना चाहिए था कि "यद्यपि अच्छे और मानवजाति के भले के लिए किए जाने वाले काम के लिए किसी मुहूर्त की कोई आवश्यकता नहीं फिर भी जो लोग अभी असमंजस में हैं उनके लिए मैं यह संदर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ।" इस संदर्भ की इसलिए भी आवश्यकता थी कि लोग जानते हैं मैं कम्युनिस्ट हूँ, और असमंजस वाले लोग यह न समझें कि मैं इसीलिए आलोचना कर रहा हूँ। जब कि मेरा वैचारिक परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। मुझे पंडताई वाली वे सब विद्याएँ बचपन और किशोरावस्था में सिखाई गयीं। घर में सभी तरह के धार्मिक, कर्मकांड सम्बन्धी और ज्योतिष ग्रन्थ बड़ी मात्रा में थे। मेरे पास उन्हें पढ़ने को पर्याप्त समय भी था। उन्हें पढ़ने और उनके अन्तर्विरोधों को भलीभाँति समझने और गुनने के बाद ही मुझे आगे की चीजें जानने की उत्कंठा हुई जिसके कारण मैं स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक विचार और वैज्ञानिक दर्शन "द्वंद्वात्मक भौतिकवाद" को जान सका। समझ सका कि यह दर्शन वास्तव में हमें स्पष्ट कर देता है कि दुनिया के तमाम व्यवहार किस पद्धति से चल रहे हैं और लगातार परिवर्तित हो रहे हैं। उस दर्शन को दैनंदिन घटनाओं पर अभ्यास करके परखा और फिर उस पर विश्वास किया। मेरा यह विश्वास हर दिन, हर पल, हर नयी जानकारी के साथ मजबूत होता है।

मेरी कल की कोशिश बस इतनी ही थी कि मैं अपने साथ वाले लोगों के कारवाँ के साथ ही आगे न बढ़ता रहूँ, बल्कि रुक गए और पीछे छूट गए लोगों को भी साथ लेता चलूँ। इसके बिना मंजिल पर पहुँचना शायद संभव भी नहीं। मुझे लगता है मेरी यह कोशिश कुछ तो कामयाब हुई ही है। दूसरे उलाहने का यहाँ उल्लेख नहीं करूंगा उसके बारे में अगली किसी पोस्ट में बात करूंगा।

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?

भारतीय परिस्थितियों में एक सवाल हमेशा खड़ा किया जाता है कि क्या अब कम्युनिस्ट पार्टी का संसदीय गतिविधियों में भाग लेना उचित रह गया है? इस प्रश्न का उत्तर हमें सोवियत क्रांति के नेता ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन की वामपंथी कम्युनिज़्म को क्रान्ति के लिए ग़लत मानते हुए उस की व्याख्या और आलोचना करते हुए लिखी गयी चर्चित पुस्तिका "वामपंथी कम्यूुनिज़्म एक बचकाना मर्ज" के सातवें अध्याय में मिलता है। यहाँ इस पुस्तिका का सातवाँ अध्याय अविकल रूप से प्रस्तुत है-

क्या हमें पूंजीवादी संसदों में भाग लेना चाहिये?
 (“वामपंथी कम्युनिज्म – बचकाना मर्ज पुस्तिका का सातवाँ अध्याय)
- ब्लादिमिर इल्यीच लेनिन



जर्मन “वामपंथी" कम्युनिस्ट अत्यधिक तिरस्कार के साथ - और गम्भीरता के अत्यधिक प्रभाव के साथ - इस प्रश्न का जवाब देते हैं। 'उनके तर्क? ऊपर हम जो अंश उद्धृत कर चुके हैं। उसमें लिखा है।

"... संसदीय पद्धति के ऐतिहासिक और राजनैतिक दृष्टि से कालातीत संघर्ष रूपों की ओर वापसी को हमें सारी दृढ़ता के साथ त्याग देना चाहिए।

कितने बेतुके दर्प के साथ यह बात कही गयी है और यह बात स्पष्टतः गलत है। संसदीय पद्धति की ओर "वापसी!" क्या जर्मनी में सोवियत जनतंत्र कायम हो चुका है? ऐसा लगता तो नहीं! तो "वापसी का जिक्र कहां से आ गया? क्या यह एक खोखला फ़िकर नहीं है?

"ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत'' संसदीय पद्धति - प्रचार के खयाल से ऐसा कहना सही है। पर हर कोई जानता है कि व्यवहार में उसे पार करना अभी बहुत दूर है। पूंजीवाद के बारे में हम दसियों बरस पहले पूर्ण अधिकार के साथ यह घोषणा कर सकते थे कि वह "ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गया है, पर उससे बहुत लम्बे समय तक और बहुत डटकर पूंजीवाद की धरती पर लड़ने की आवश्यकता नहीं मिट जाती। संसदीय पद्धति “ऐतिहासिक दृष्टि से कालातीत' हो गई है - यह बात विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से सही है, अर्थात् पूंजीवादी संसदीय पद्धति का युग समाप्त हो गया है और सर्वहारा अधिनायकत्व का युग आरम्भ हो गया है। यह बात निर्विवाद है। परन्तु विश्व-इतिहास दशकों में हिसाब गाता है। विश्व-इतिहास के मापदंड से मापने पर दस-बीस वर्ष के देर सबेर से कोई अन्तर नहीं पड़ता, विश्व-इतिहास के दृष्टिकोण से वह इतनी छोटी अवधि होती है कि उसका मोटे तौर से भी हिसाब नहीं लगाया जा सकता। यही कारण है कि व्यावहारिक राजनीति को विश्व-इतिहास के मापदंड से मापना एक बहुत बड़ी सैद्धान्तिक ग़लती है।

क्या संसदीय पद्धति "राजनीतिक दृष्टि से कालातीत' हो गयी है? यह एक बिलकुल दूसरा पहलू है। यदि यह बात सच होती, तो “वामपंथियों” की स्थिति बहुत मजबूत हो जाती। परन्तु इस बात को साबित करने के लिए बहुत खोजबीन के साथ विश्लेषण करना होगा और “वामपंथी” तो यह भी नहीं जानते कि विश्लेषण किस ढंग से किया जाये। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अमस्टर्डम के अस्थायी ब्यूरो की बुलेटिन (Bulletin of the Provisional Bureau in Amsterdam of the Communist Internationals, February* 1920) के अंक 1 में प्रकाशित * संसदीय पद्धति के बारे में कुछ प्रतिपत्तियाँ' शीर्षक लेख में जो विश्लेषण किया गया है, उसमें डच वामपंथियों या वामपंथी उचों की प्रवृत्ति स्पष्टतः दीख रही है और वह भी बहुत ही खराब है, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे।

पहली बात यह है कि जैसा कि मालूम है रोजा लक्जेमबुर्ग तथा कार्ल लोकनेत जैसे महान राजनैतिक नेताओं के मत के विपरीत जर्मन “वामपंथियों ने जनवरी, 1916 में ही माना कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी थी। हम यह भी जानते हैं कि *वामपंथियों का यह मत ग़लत था। यह अकेला तथ्य एक ही बार में इस पूरे विचार को एकदम नष्ट कर देता है कि संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" हो गयी है। अब वामपंथियों की जिम्मेदारी है कि वे यह साबित करें कि जो बात उस वक्त अकाट्य रूप से गलत थी, अब क्यों गलत नहीं है। इसका वे जरा सा भी सबूत नहीं देते और न दे सकते हैं। किसी राजनैतिक पार्टी में कितनी लगन है, अपने वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के प्रति अपने कर्तव्यों का वह व्यवहार में कैसे पालन करती है। इसे जांचने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अचूक तरीक़ा यह देखना है कि उस पार्टी का स्वयं अपनी गलतियों के प्रति क्या रवैया है। गलती को खुले-आम स्वीकार करना, उसके कारणों का पता लगाना, जिन परिस्थितियों में वह ग़लती हुई थी उनकी छानबीन करना और उसे सुधारने के उपायों पर ध्यानपूर्वक विचार करना - यही गम्भीर पार्टी के लक्षण हैं, यही उसका अपना कर्तव्य पालन करने का मार्ग है, यही पहले वर्ग और फिर जनसाधारण का प्रशिक्षण है। अपने इस कर्तव्य का पालन न करके, अपनी स्पष्ट भूलों का अधिक से अधिक ध्यान, सावधानी तथा गम्भीरता से अध्ययन न करके, जर्मनी (और हालैंड) के 'वामपंथियों ने यह साबित कर दिया है कि वे वर्ग की पार्टी नहीं हैं, बल्कि मंडली मात्र हैं, कि वे जनसाधारण पार्टी नहीं हैं, बल्कि बुद्धिजीवियों तथा चन्द ऐसे मजदूरों का दल है जो बुद्धिजीवियों के सबसे खराब अवगुणों की नक़ल करते हैं।

दूसरे, फ्रैंकफुर्ट के “वामपंथियों की उसी पुस्तिका में, जिसमें से कुछ अंश हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं, यह भी लिखा है :
"... जो लाखों मज़दूर आज भी मध्य मार्ग "(कैथोलिक "मध्यमार्गीय" पार्टी)" की नीति का समर्थन करते हैं, वे क्रान्तिविरोधी हैं। गांवों के सर्वहारागण में से क्रान्ति-विरोधी सैनिकों की पलटनें भरती की जाती हैं' (उपरोक्त पुस्तिका का तीसरा पृष्ठ)।
हर वाक्य यही बताता है कि इस कथन में बड़ी अतिशयोक्ति से काम लिया गया है। पर इसमें कही गयी बुनियादी बात निर्विवाद रूप से सच है और “वामपंथियों ने इसे मानकर साफ़ तौर से अपनी गलती साबित कर दी है। जब “लाखों" सर्वहारागण उनकी पूरी की पूरी "पलटनें" अभी तक न सिर्फ संसदीय पद्धति के पक्ष में हैं, बल्कि एकदम "क्रान्ति विरोधी" है तब कोई यह कैसे कह सकता है कि संसदीय पद्धति "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" पड़ गयी है! ? जाहिर है कि जर्मनी में अभी भी संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है। जाहिर है कि जर्मनी में “वामपंथियों ने अपनी इच्छा को, अपने राजनैतिक सैद्धान्तिक रुख को, यथार्थ वास्तविकता मान लिया है। यह क्रान्तिकारियों के लिए सबसे खतरनाक ग़लती है। रूस में बहुत ही लम्बे काल तक जारशाही का खूंखार और बर्बर शासन विविध प्रकार के क्रान्तिकारियों के लिए सब से खतरनाक गलती करता रहा है और इन क्रान्तिकारियों ने आश्चर्यजनक साधना, उत्साह, वीरता और दृढ़ता का परिचय दिया है। इसलिए रूस में हमने क्रान्तिकारियों की यह गलती बहुत निकट से देखी है, बड़े ध्यानपूर्वक उसका अध्ययन किया है और हमें उसका प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसलिए दूसरों में भी हम इस दोष को बहुत जल्दी और साफ़ देख सकते हैं। बेशक, जर्मनी में कम्युनिस्टों के लिए संसदीय पद्धति “राजनैतिक दृष्टि से कालातीत” हो गयी है, लेकिन असली बात यह है कि हमारे लिए जो कुछ कालातीत पड़ गया है हम उसे वर्ग के लिए, जनसाधारण के लिए कालातीत न समझें। यहां हम फिर देखते हैं कि वामपंथी' लोग तर्क करना नहीं जानते, वे वर्ग की पार्टी की तरह, जनसाधारण की पार्टी की तरह काम करना नहीं जानते। आपको जनसाधारण के स्तर पर, वर्ग के पिछड़े हुए भाग के स्तर पर नहीं पहुंच जाना चाहिए। यह बात निर्विवाद है। आपको जनता को कटु सत्य बताना चाहिए। आपको उसके पूंजीवादी-जनवादी और संसदीय पूर्वाग्रहों को पूर्वाग्रह ही कहना चाहिए। परन्तु साथ ही आपको इस बात को भी बड़ी गम्भीरता के साथ देखना चाहिए कि पूरे वर्ग की (केवल उसके कम्युनिस्ट हिरावल की ही नहीं) और सारे मेहनतकश जनसाधारण की (केवल आगे बढ़े हुए प्रतिनिधियों की ही नहीं) वर्ग-चेतना और तैयारी की वास्तविक हालत क्या है। 

"लाखों" और "पलटनों” की बात जाने दीजिये, यदि औद्योगिक, मजदूरों का एक अच्छा खासा अल्पमत भी कैथोलिक पादरियों के पीछे चलता है और उसी प्रकार यदि देहाती मजदूरों का एक खासा अल्पमत जमींदारों और कुलकों (Grossbauern) के पीछे चलता है, इससे निस्सन्देह यह निष्कर्ष निकलता है कि जर्मनी में संसदीय पद्धति अभी भी राजनैतिक दृष्टि से कालातीत नहीं हुई है, कि संसद के चुनावों में तथा संसार के मंत्र से होनेवाले संघर्षों में भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए ठीक इसलिए आवश्यक है कि वह अपने बर्ग के पिछड़े हुए लोगों को शिक्षित कर सके और देहातों के अविकसित, दलित तथा अज्ञान-ग्रस्त जनसाधारण में जागृति और ज्ञान का प्रकाश फैला सके। जब तक आप पूंजीवादी संसद और दूसरी हर प्रकार की प्रतिक्रियावादी संस्थाओं को भंग नहीं कर सकते, तब तक आपके लिए उन संस्थाओं के अन्दर काम करना लाज़िमी है और ठीक इस कारण से कि वहां अभी ऐसे मज़दूर हैं, जिन्हें पादरियों ने और देहाती जीवन की नीरसता ने धोखे में डाल रखा है। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो केवल गाल बजानेवाले बनकर रह जायेंगे।

तीसरे, 'वामपंथी' कम्युनिस्ट हम वोल्शेविकों की तारीफ़ में बहुत कुछ कहते हैं। कभी-कभी मन में आता है कि इनसे यह कहा जाए कि हमारी तारीफ़ कम करो और बोल्शेविकों की कार्यनीति को समझने की कोशिश ज्यादा करो, उसे जानने की कोशिश ज्यादा करो! हम लोगों ने सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में रूस की पूंजीवादी संसद के, संविधान सभा के चुनाव में भाग लिया था। उस समय हमारी कार्यनीति सही थी या नहीं? यदि नहीं, तो साफ़-साफ़ कहिये और सावित कीजिये, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म की सही कार्यनीति बनाने के लिए यह करना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यदि यह कार्यनीति सही थी, तो उससे भी कुछ निष्कर्ष निकालिये। जाहिर है कि रूस की परिस्थितियों को पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों के बराबर नहीं रखा जा सकता। फिर भी, जहां तक इस विशेष प्रश्न का सम्बन्ध है कि इस अवधारणा का क्या अर्थ है कि “संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से कालातीत हो गयी है”, तो इस सिलसिले में हमारे अनुभव पर ध्यानपूर्वक विचार करना आवश्यक है। कारण कि यदि ठोस अनुभव को ध्यान में नहीं रखा जाता, तो ऐसी अवधारणाएँ बड़ी आसानी से खोखले वाक्य बनकर रह जाती हैं। क्या सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में हम रूसी बोल्शेविकों को पश्चिम के किन्हीं भी कम्युनिस्टों से कहीं अधिक यह समझने का अधिकार नहीं था कि संसदीय पद्धति राजनैतिक दृष्टि से रूस में कालातीत पड़ गयी है? बेशक, हमें यह अधिकार था, क्योंकि यहां सवाल यह नहीं है कि पूजीवादी संसद बहुत दिनों से कायम है या कम दिनों से, बल्कि यह है कि व्यापक मेहनतकश जनसाधारण सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए और पूंजीवादी-जनवादी संसद को भंग कर देने के लिए (या उसे भंग हो जाने देने के लिए) किस हद तक (सैद्धान्तिक, राजनैतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से) तैयार है। यह बात बिलकुल निर्विवाद एवं पूर्णतः सिद्ध ऐतिहासिक सत्य है कि कई विशेष कारणों से रूस के शहरी मजदूर और सैनिक तथा किसान, सितम्बर-नवम्बर, १९१७ में सोवियत व्यवस्था को स्वीकार करने तथा अधिक से अधिक जनवादी-पूंजीवादी संसद को भी भंग कर देने के लिए विशेष रूप से तैयार थे। फिर भी बोल्शेविकों ने संविधान सभा का बहिष्कार नहीं किया, बल्कि सर्वहारा वर्ग के राजनैतिक सत्ता पर अधिकार करने के पहले और बाद में भी उसके चुनावों में भाग लिया। मैं आशा करने का साहस करता हूँ कि मैंने अपने उपरोक्त लेख में, जिसमें रूस की संविधान सभा के चुनावों के आंकड़ों का विस्तृत विश्लेषण है, यह बात साबित कर दी है कि इन चुनावों से बहुत ही मूल्यवान (और सर्वहारा वर्ग के लिए बहुत ही लाभदायक) राजनैतिक नतीजे निकले थे।

इससे जो निष्कर्ष निकलता है वह एकदम निर्विवाद है। यह साबित हो गया है कि सोवियत जनतंत्र की विजय के चन्द हफ्ते पहले भी और उसके बाद भी, एक पूंजीवादी-जनवादी संसद में भाग लेने से क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को नुकसान नहीं पहुंचता, बल्कि वास्तव में उससे पिछड़े हुए जनसाधारण के सामने यह साबित करने में मदद मिलती है कि ऐसी संसदें क्यों भंग कर देने योग्य हैं; उससे इन संसदों को सफलतापूर्वक भंग करने में मदद मिलती है। उससे पूजीवादी संसदीय पद्धति को "राजनैतिक दृष्टि से कालातीत" बना देने में मदद मिलती है। इस अनुभव को नजरअंदाज करना और फिर भी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से संबंध रखने का दावा करना - उस इंटरनेशनल से, जिसे अंतर्राष्ट्रीय ढंग से अपनी कार्यनीति (संकुचित, एकतरफ़ा राष्ट्रीय कार्यनीति नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कार्यनीति) निर्धारित करनी है - दुनिया में सबसे बड़ी गलती करना है। यह अंतर्राष्ट्रीयतावाद को शब्दों में मानना, पर वास्तव में उसे तिलांजलि दे देना है।

अब "डच वामपंथियों' के उन तर्कों पर विचार करें, जो उन्होंने संसदों में भाग न लेने के पक्ष में दिये हैं। यह “डच" प्रतिपत्तियों में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपत्ति नं. ४ है, जो अंग्रेजी से अनूदित है:
 "जब उत्पादन की पूंजीवादी व्यवस्था टूट गयी हो और सभा क्रान्ति की अवस्था में हो, तब संसदीय सरगर्मी का महत्व खुद जनसाधारण की कार्रवाइयों की तुलना में धीरे-धीरे कम होता जाता है। इसलिए, जब ऐसी परिस्थितियों में संसद क्रान्ति-विरोध का केन्द्र और साधन बन जाती है और दूसरी ओर, जब मजदूर वर्ग सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर लेता है, तब यह भी आवश्यक हो सकता है कि हम हर तरह की संसदीय कार्रवाई से अलग रहें और उसमें भाग न लें।"
 जाहिर है कि पहला वाक्य गलत है, क्योंकि जनसाधारण की कार्रवाई - उदाहरण के लिए एक बड़ी हड़ताल - केवल क्रान्ति के दौरान में या क्रान्तिकारी परिस्थिति में ही नहीं, बल्कि हर समय संसदीय कार्रवाई से अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। यह स्पष्टतः असंगत और ऐतिहासिक तथा राजनैतिक दृष्टि से गलत तर्क इस बात को बिलकुल साफ़ कर देता है कि इन वक्तव्यों के लेखकगण, जहां तक गैर-कानूनी संघर्ष के साथ कानूनी संघर्ष को मिलाने का महत्त्व है, न तो आम यूरोपीय अनुभव को (1848 पौर 1870 की क्रान्तियों के पहले के फ्रांसीसी अनुभव ; 1878-1860 के जर्मन अनुभव, इत्यादि को) ध्यान में रखते हैं, न रूसी अनुभव को (देखिये ऊपर)। यह सवाल आम तौर से और खास तौर से भी बहुत महत्व का है क्योंकि अब सभी सभ्य एवं उन्नत देशों में वह समय बहुत तेजी से नजदीक आ रहा है, जब इन दोनों प्रकार के संघर्षों को इस तरह से मिलाना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए अधिकाधिक आवश्यक होता जायेगा - बल्कि आंशिक रूप से अभी ही आवश्यक हो गया है- क्योंकि सर्वहारा वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग के बीच गृहयुद्ध की स्थिति परिपक्व होती जा रही है, उसके छिड़ने की घड़ी निकट आती जा रही है, क्योंकि जनतांत्रिक सरकारें और आम तौर से पूँजीवादी सरकारें कम्युनिस्टों का भीषण दमन करती हैं और कानून को हर तरह तोड़ती हैं। (पहले अमरीका की ही मिसाल देखिये), इत्यादि। इस बहुत महत्वपूर्ण सवाल को डचों और आम तौर से सभी बामपंथियों ने बिलकुल नहीं समझा है।


जहां तक दूसरे वाक्य का प्रश्न है, पहली बात यह है कि इतिहास की दृष्टि से वह गलत है। हम बोल्शेविकों ने घोर से घोर प्रतिक्रियावादी संसदों में भाग लिया है और अनुभव ने इसे साबित कर दिया है कि उनमें भाग लेना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की पार्टी के लिए न केवल लाभदायक बल्कि आवश्यक भी था। इसकी आवश्यकता रूस की पहली पूंजीवादी क्रान्ति (1905) के ठीक बाद प्रतीत हुई थी, ताकि दूसरी पूंजीवादी क्रान्ति (फ़रवरी, 1917) के लिए और फिर समाजवादी क्रान्ति (नवम्बर, 1917) के लिए तैयारी की जा सके। दूसरे, यह वाक्य आश्चर्यजनक हद तक तर्कहीन है। यदि संसद क्रान्ति-विरोध का साधन और “केन्द्र” बन गये हैं (वास्तव में संसद न कभी "केन्द्र" बनी है और न बन सकती है, पर जाने दीजिये इस बात को) और मजदूर सोवियतों के रूप में अपनी सत्ता के उपकरणों की रचना कर रहे हैं, तो इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी परिस्थिति में मजदूरों को संसद के खिलाफ़ सोवियतों के संघर्ष के लिए, सोवियतों द्वारा संसद के भंग किये जाने के लिए, सैद्धान्तिक, राजनैतिक और तकनीकी तैयारी करनी चाहिए। परन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि क्रान्ति-विरोधी संसद के अन्दर किसी सोवियत विरोध-पक्ष के रहने से इस संसद को भंग करने में अड़चन पड़ेगी, या उसमें सहायता नहीं मिलेगी। देनीकिन और कोल्चोक के खिलाफ़ हमारे विजयी संघर्ष के दौरान हमें कभी यह नहीं प्रतीत हुआ था कि दुश्मनों के खेमे में एक सोवियत विरोध-पक्ष। सर्वहारा विरोध-पक्ष के अस्तित्व का हमारी सफलता के लिए कोई महत्व नहीं था। हम अच्छी तरह जानते हैं कि 5 जनवरी, 1918 को संविधान सभा भंग करने में इस बात से कोई अड़चन पड़ना तो दूर, सचमुच बड़ी मदद मिली कि क्रान्ति-विरोधी संविधान सभा में, जिसे भंग किया जानेवाला था, एक सुसंगत, बोल्शेविक, सोवियत विरोध-पक्ष के साथ ही एक असंगत, वामपंथी समाजवादी क्रान्तिकारी, सोवियत विरोध-पक्ष भी था। इस प्रतिपत्ति के लेखकगण उलझकर यदि सभी नहीं, तो कम से कम अनेक क्रान्तियों का यह अनुभब बिलकुल भूल गये हैं कि क्रान्ति के समय प्रतिक्रियावादी संसद के बाहर होनेवाले जन-संघर्षों के साथ ही यदि संसद के अन्दर भी क्रान्ति से सहानुभूति रखनेवाला (या बेहतर यह कि प्रत्यक्ष रूप से क्रान्ति का समर्थक) कोई विरोधी दल हो, तो वह कितना उपयोगी होता है। डच और आम तौर से सभी "वामपंथी" यहां उन लकीर पीटनेवाले क्रान्तिकारियों की तरह तर्क करते हैं, जिन्होंने कभी किसी वास्तविक क्रान्ति में भाग नहीं लिया है, या जिन्होंने कभी क्रान्तियों के इतिहास पर गम्भीरता से सोचा नहीं है, अथवा जिन्होंने किसी प्रतिक्रियावादी संस्था के आत्मपरक ढंग से “अस्वीकार किए जाने” को भोलेपन के साथ यह मान लिया है, मानो वह बहुत से बाह्य कारणों के सम्मिलित प्रहार के कारण सचमुच नष्ट हो गयी हो। किसी नये राजनैतिक (और केवल राजनैतिक ही नहीं) विचार को बदनाम करने और नुकसान पहुंचाने का सबसे कारगर तरीका यह है। समर्थन करने के नाम पर उसे मूर्खता की हद तक पहुंचा दिया जाये। कारण यह है कि प्रत्येक सत्य को (जैसा कि बड़े डीयेट्ज़गेन ने कहा था) अति बड़ा बनाकर और उसकी वास्तविक उपयोगिता की सीमा से बाहर ले जाकर मूर्खता में बदला जा सकता है, बल्कि कहना चाहिये कि ऐसा करने से प्रत्येक सत्य लाजिमी तौर से मूर्खता में बदल जाता है। सोवियत सत्ता पूँजीवादी-जनवादी संसद से बेहतर है - इस नवीन सत्य का डच और जर्मन वामपंथी इसी तरह अपकार कर रहे हैं। इतनी बात तो समझ में आती हैं कि यदि कोई पुराने विचार का समर्थन करता है, या आम तौर से यह मानता है कि पूंजीवादी संसदों में किसी भी हालत में भाग लेने से इनकार करना अनुचित है, तो वह ग़लती करता है। मैं यहाँ उन परिस्थितियों को नहीं बता सकता, जिनमें बहिष्कार करना लाभदायक होता है, क्योंकि इस पुस्तिका का उद्देश्य इससे कहीं छोटा है : यहाँ हम अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट कार्यनीति के कुछ तात्कालिक प्रश्नों के सम्बन्ध में ही रूसी अनुभव का अध्ययन करना चाहते हैं। रूसी अनुभव में हमें बोल्शेविकों द्वारा बहिष्कार का एक सही और सफल उदाहरण (1905) में और एक गलत उदाहरण (1906 में) मिलता है। पहले उदाहरण का विश्लेषण कीजिये तो पता चलता है कि एक ऐसी परिस्थिति में जब जनसाधारण की गैर-संसदीय क्रान्तिकारी कार्रवाइयां (विशेषकर हड़तालें) असामान्य तेजी से बढ़ रही थीं, जब सर्वहारा वर्ग और किसानों का कोई भी हिस्सा किसी भी रूप में प्रतिक्रियावादी सरकार का समर्थन नहीं कर सकता था और जब आम पिछड़ी जनता के ऊपर हड़तालों तथा किसान-आन्दोलन के द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग का असर बढ़ रहा था, हमने प्रतिक्रियावादी सरकार को एक प्रतिक्रियावादी संसद बुलाने से रोकने में सफलता प्राप्त की थी। बिलकुल साफ़ है कि इस अनुभव को आज के यूरोप की हालत पर लागू नहीं किया जा सकता। साथ ही यह भी बिलकुल साफ़ है - और ऊपर की बहस से यह बात साबित हो जाती है कि संसदों में भाग लेने से इनकार करने की नीति का समर्थन करके इन तथा अन्य “वामपंथी" - भले ही वे शर्तों के साथ ऐसा करते हों - बुनियादी तौर से ग़लत और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के हेतु के लिए हानिकारक काम कर रहे हैं।

पश्चिमी यूरोप और अमरीका में मजदूर वर्ग के आगे बढ़े हुए क्रान्तिकारी सदस्यों के लिए संसद विशेष रूप से घृणा की वस्तु बन गयी है। यह बात निर्विवाद और आसानी से समझ में आनेवाली है, क्योंकि युद्ध के दिनों में तथा उसके बाद संसदों के अधिकांश समाजवादी तथा सामाजिक-जनवादी सदस्यों का जैसा व्यवहार रहा, उससे अधिक नीच, घृणित और विश्वासघाती व्यवहार की कल्पना करना भी कठिन है। परन्तु इस सामान्यतः स्वीकृत बुराई से लड़ने के तरीके का फैसला करते समय यदि हम इस भावना के वशीभूत हो गये, तो वह न केवल गलत, बल्कि मुजरिमाना हरकत होगी। पश्चिमी यूरोप के बहुत से देशों में आजकल क्रान्तिकारी भावना, हम कह सकते हैं कि एक "नयी चीज", एक ऐसी “अनोखी चीज़" के रूप में सामने आयी है, जिसका लोग अधीर होकर बहुत दिनों से व्यर्थ ही इन्तजार कर रहे थे और शायद यही कारण है कि लोग इतनी आसानी से भावना के वशीभूत हो जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि जनता में क्रांतिकारी भावना के बिना, इस भावना के बढ़ने में सहायता पहुंचानेवाली परिस्थितियों के अभाव में क्रान्तिकारी कार्यनीति को कभी कार्य-रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। परन्तु रूस में हमने एक बहुत लम्बे , तकलीफ़देह और खूनी अनुभव से यह सचाई सीखी है कि क्रान्तिकारी कार्यनीति केवल क्रान्तिकारी भावना के सहारे नहीं बनायी जा सकती। कार्यनीति निर्धारित करने के लिए पहले उस राज्य-विशेष की (उसके आस-पास के राज्यों की तथा संसार भर के राज्यों की) सारी वर्ग-शक्तियों का और साथ ही क्रान्तिकारी आन्दोलनों के अनुभव का गंभीर तथा सर्वथा वस्तुपरक मूल्यांकन करना आवश्यक है। संसदीय अवसरवाद पर केवल गालियों की बौछार करके, केवल संसदों में भाग लेने का विरोध करके अपना “क्रान्तिकारीपन' साबित कर देना बहुत आसान है और बहुत आसान होने की वजह से ही यह एक कठिन और कठिनतम समस्या का हल नहीं हो सकता। यूरोपीय संसदों में एक सचमुच क्रान्तिकारी संसदीय दल तैयार करना रूस से कहीं ज्यादा कठिन काम है। यह बात ठीक है। पर वह इस आम सत्य की ही एक विशेष अभिव्यक्ति है कि 1617 की ठोस , इतिहास की दृष्टि से बहुत ही विशेष परिस्थिति में रूस के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू कर देना आसान था, परन्तु क्रान्ति को जारी रखना और उसे पूर्णता तक पहुंचाना रूस के लिए यूरोपीय देशों से अधिक कठिन होगा। 1918 के आरम्भ में ही मैंने इस बात की ओर संकेत किया था और पिछले दो वर्ष के अनुभव ने उसे पूरी तरह साबित कर दिया है। रूस की कुछ विशेष परिस्थितियाँ इस समय पश्चिमी यूरोप में मौजूद नहीं हैं और ऐसी या इनसे मिलती-जुलती परिस्थितियां दुबारा आसानी से उत्पन्न नहीं होंगी। वे परिस्थितियां ये है:
1) सोवियत कान्ति को इस क्रान्ति के फलस्वरूप साम्राज्यवादी युद्ध को समाप्त कर देने के सवाल के साथ जोड़ने की संभावना, जिसने मजदूरों और किसानों का एकदम कचूमर निकाल दिया था; 
2) साम्राज्यवादी डाकुओं के दो बड़े संसार-व्यापी दलों के आपसी सांघातिक संघर्ष से कुछ वक्त तक फायदा उठाने की सम्भावना, जो अपने सोवियत शत्रु के खिलाफ़ एक होने में असमर्थ थे;

3) देश के बहुत ही विस्तृत प्रकार के कारण और संचार के साधनों के बहुत पिछड़ेपन की वजह से एक अपेक्षाकृत लम्बा गृहयुद्ध चलाना सम्भव था;

4) किसानों में एक इतने गहरे पूजीवादी-जनवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन का अस्तित्व कि सर्वहारा वर्ग की पार्टी ने किसानपार्टी (समाजवादी क्रान्तिकारी पार्टी, जिसके अधिकतर सदस्य निश्चित रूप से बोल्शेविज्म के विरोधी थे) की क्रान्तिकारी मांगों को लेकर, राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग के अधिकार करने के फलस्वरूप, उन्हें तुरन्त पूरा कर दिया।

कुछ और कारणों के अलावा, इन परिस्थितियों के अभाव में पश्चिमी यूरोप के लिए समाजवादी क्रान्ति शुरू करना उससे कठिन है, जितना हमारे लिए था। क्रान्तिकारी उद्देश्यों के लिए प्रतिक्रियावादी संसदों का उपयोग करने के कठिन काम को "फलांगकर इस कठिनाई से बचने की कोशिश करना सरासर बचपना है। आप एक नया समाज बनाना चाहते हैं? फिर भी प्रतिक्रियावादी संसद में पक्के, वफ़ादार और बहादुर कम्युनिस्टों का एक अच्छा संसदीय दल बनाने की कठिनाइयों से घबराते हैं! यह बचपना नहीं, तो और क्या है? यदि जर्मनी में कार्ल लीव्कनेख्त और स्वीडन में ज़ेट हेगलुंड नीचे से जनता का समर्थन न मिलने पर भी प्रतिक्रियावादी संसदों के सचमुच क्रान्तिकारी उपयोग की मिसालें पेश कर सके, तो कोई कैसे कह सकता है कि एक तेजी से बढ़ती हुई क्रान्तिकारी जन-पार्टी युद्ध के बाद की उस परिस्थिति में, जब जनता के भ्रम टूट रहे हों और उसका क्रोध बढ़ रहा हो, खराब से खराब संसद में भी एक तपा-तपाया कम्युनिस्ट दल नहीं बना सकती? । पश्चिमी यूरोप के पिछड़े हुए आम मजदूर और उनसे भी ज्यादा-छोटे किसान रूस की तुलना में पूंजीवादी-जनवादी तथा संसदीय पूर्वाग्रहों के कहीं अधिक वशीभूत है। ठीक यही कारण है कि केवल पूंजीवादी संसद जैसी संस्थाओं के अन्दर से ही कम्युनिस्ट एक लम्बा और अनवरत तथा कठिनाइयों के सामने कभी सिर न झुकानेवाला संघर्ष चला सकते हैं (और उन्हें ज़रूर चलाना चाहिए), ताकि उन पूर्वाग्रहों का पर्दाफ़ाश किया जा सके, उनको छिन्न-भिन्न किया जा सके और उनपर विजय प्राप्त की जा सके। 

जर्मन “वामपंथी अपनी पार्टी के बुरे" नेताओं की शिकायतें करते हैं, निराश हो जाते हैं और यहां तक कि “नेताओं को मानने से इनकार करने की बेहूदगी तक करने लगते हैं। परन्तु जब परिस्थितियां ऐसी हैं कि "नेताओं को अक्सर छिपाकर रखना पड़ता है, तब अच्छे, भरोसे के, अनुभवी और प्रभावशाली नेताओं की तैयारी बहुत कठिन हो जाती है और इन कठिनाइयों को सफलतापूर्वक तब तक दूर नहीं किया जा सकता, जब तक कि क़ानूनी और गैर-कानूनी कामों को मिलाया नहीं जाता और जब तक अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ संसद के क्षेत्र में भी “नेताओं को परखा नहीं जाता। आलोचना - सख्त से सख्त और अधिक से अधिक निर्मम आलोचना - संसदीय पद्धति या संसदीय काम की नहीं, बल्कि उन नेताओं की करनी चाहिए, जो संसद के चुनावों का और संसद के मंच का क्रान्तिकारी ढंग से, कम्युनिस्ट ढंग से उपयोग करने में असमर्थ है - और जो लोग यह करना चाहते भी नहीं, उनकी तो और भी ज्यादा आलोचना होनी चाहिए। ऐसी आलोचना मात्र ही और उसके साथ-साथ अयोग्य नेताओं को निकालकर उनकी जगह योग्य नेताओं को रखना ही - ऐसा उपयोगी तथा लाभप्रद क्रान्तिकारी काम होगा, जिससे “नेता" मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनसाधारण के विश्वासभाजन बनना सीखेंगे और जनसाधारण राजनैतिक परिस्थिति को और उससे पैदा होनेवाली अक्सर बहुत पेचीदा और उलझी हुई समस्याओं को ठीक ढंग से समझना सीखेंगे।"
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* इटली के “वामपंथी' कम्युनिज्म के बारे में जानकारी प्राप्त करने का मुझे बहुत कम अवसर मिला है। कामरेड बोदिंगा और उनका " कम्युनिस्ट-बहिष्कारवादियों' (Comunista asternsiortista) का गुट संसद में भाग न लेने का समर्थन करके निश्चय ही एक गलत काम कर रहे हैं। परन्तु मुझे लगता है कि एक बात पर कामरेड बोदिंगा का मत सही है - कम से कम, उनके पत्र 'सोवियत' के (6// Society, 18 जनवरी और 1 फ़रवरी, 1920 के अंक 3 और 4) दो अंकों से, कामरेड सेती की बहुत उम्दा पत्रिका 'कम्युनिज्म' के Cottaraisriow, 1 अक्तूबर से 30 नवम्बर, 1916 तक के 1- 4अंक) चार अंकों से और इटली के पूंजीवादी पत्रों के उन इक्के-दुक्के अंकों से, जो मुझे मिल सके हैं, मुझे ऐसा ही लगता है। कामरेड वोदिंगा और उनका गुट तुराती और उनके अनुयायियों पर इस बात के लिए हमला करते हुए सही है कि वे लोग एक ऐसी पार्टी के सदस्य बने रहे हैं, जो सोवियत सत्ता मजदूर वर्ग के अधिनायकत्व को स्वीकार कर चुकी है, पर संसद के सदस्यों की हैसियत से अब भी अपनी पुरानी घातक और अवसरवादी नीति चला रहे हैं। बेशक, इस बात को सहन करके कामरेड सेती और इटली की पूरी समाजवादी पार्टी ऐसी गलती कर रही है। जिससे उतना ही ज्यादा नुकसान होने पर वैसे ही खतरों के पैदा होने की आशंका है। जैसे खतरे ऐसी ही एक गलती से हंगरी में पैदा हो गये थे, जहां हंगरी के तुरातियों ने पार्टी और सोवियत सरकार दोनों के खिलाफ़ अन्दर से तोड़-फोड़ की थी। संसद के अवसरवादी सदस्यों के प्रति ऐसे ग़लत, असंगत या दुलमुल रवैये से एक ओर तो वामपंथी कम्युनिज्म पैदा होता है, दूसरी और कुछ हद तक उसके अस्तित्व को औचित्य प्रदान किया जाता है। अब कामरेड सेती संसद के सदस्य तुराती पर "असंगत व्यवहार” का आरोप लगाते हैं (<<Comunismo>>, अंक ३), तो वे स्पष्ट ही गलती करते हैं, क्योंकि "असंगत व्यवहार” वास्तव में इटली की समाजवादी पार्टी कर रहीं है कि वह तुराती और उनके साथियों जैसे संसद के अवसरवादी सदस्यों को अभी तक अपने अंदर स्थान दिये हुए है।