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शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

किरपा का धंधा और आत्मविश्वास

र से अदालत तक के नौ किलोमीटर के मार्ग के ठीक बीच में है बाबूलाल की पान की दुकान। मैं  जाते समय रोज वहाँ रुकता हूँ, पान लेने के लिए। जब तक पान बनता है तब तक एक-दो ग्राहक वहाँ ‘विमल’ गुटखा खरीदने आते हैं। उन में अधिकतर बाजार में काम करने वाले मजदूर, दफ्तरों के चपरासी और बाबू आदि हैं। मैं उन में से अनेक से पूछ चुका हूँ –यह ‘विमल’ बनता काहे से है? उन में से हर कोई यह समझता है कि मैं गुटखा के निर्माण की कच्ची सामग्री के बारे में पूछ रहा हूँ। हर कोई थोड़ा सोचता है और फिर बताता है –भाई साहब यह तो पता नहीं कि यह बनता किस से है। मैं उन्हें कुछ और सोचने के लिए कहता हूँ लेकिन फिर भी उन का उत्तर यही रहता है। तब मैं उन्हें कहता हूँ –चलो मैं ही बता देता हूँ कि यह किस से बनता है। वास्तव में ‘विमल’ बनता है ‘मल’ से।

मेरा उत्तर सुनते ही बाबूलाल हर बार एक ठहाका लगा देता है और विमल खरीदने वाला सिटपिटा जाता है। मेरा आशय हर बार ‘विमल’ शब्द से होता है। मैं हर बार उन से कहता हूँ कि विमल की यह व्युत्पत्ति पसंद नहीं आई हो तो इसे छोड़ दो। लाभ ही होगा। कम से कम तंबाकू और उस में मिले हानिकारक रसायनों से अपने शरीर को तो बचा ही लोगे।

ल अदालत जाते हुए मैं बाबूलाल की दुकान पर रुका। तभी एक ग्राहक ने उस से विमल गुटखा का पाउच मांगा। बाबूलाल ने उसे पाउच दिया और वह तुरंत ले कर चल दिया।  उस के जाते ही बाबूलाल ने मुझ से पूछा –भाई साहब¡ आप कहते हैं कि ‘विमल’ मल से बनता है। हाँ कहता हूँ-मैं ने जवाब दिया।
-तब तो ‘निर्मल’ भी मल से ही बनता होगा? बाबूलाल ने तपाक से पूछा।
-हाँ, निर्मल’ भी मल से ही बनता है। मैं ने उत्तर दिया। मैं विचार में पड़ गया कि आखिर बाबूलाल को आज अचानक निर्मल की कैसे याद आई। मैं ने उस से पूछा तो उस ने बताया कि चार-पाँच रोज से निर्मल बाबा की बहुत चर्चा है, तो मुझे लगा कि “जैसे यह विमल मल से बनता है वैसे ही निर्मल भी मल से ही बनता होगा। उस के जवाब से ठहाका लगाने की बारी मेरी थी। मैं ने लगाया भी। लेकिन तुरंत ही बाबूलाल मुझसे एक सवाल और पूछ बैठा।
-भाई साहब¡ जरा इस “कृपा” शब्द की जन्मपत्री भी बता दीजिए। निर्मल बाबा ने जिस की फैक्ट्री खोली हुई है।
अब मैं क्या कहता? फिर भी अपनी समझ से कहना शुरू किया।
भाई मेरे हिसाब से तो कृपा, दया, मेहरबानी वगैरा वगैरा जितने शब्द हैं, उन का वास्तव में कोई अर्थ नहीं होता। हम किसी से पूछते हैं कि क्या हाल हैं? वह तत्काल कहता है। -आप की दया है, या बस आप की कृपा है, या फिर कहता है बस आप की मेहरबानी है। अब न तो हम किसी पर दया करते हैं और न ही कृपा या मेहरबानी। लेकिन फिर भी लोग कहते रहते हैं, सामने वाले का मन रखने को। जिस से लगता है कि वह आप को सम्मान दे रहा है।
-लोग जो आम बोलचाल में इस तरह की बात करते हैं वो तो अलग बात है। पर ये निर्मल बाबा तो अपना दरबार लगाता है, किसी शक्ति की बात करता है,  यह भी कहता है कि उस के पास शक्ति है जो अपनी कृपा बरसाती है। और लोग भी हजारों रुपया दे कर उस के दरबार में जाते हैं। कहते हैं उस के पास एक दिन में करोड़ से अधिक रुपया जमा हो जाता है। ये निर्मल बाबा जिस शक्ति की बात करता है और जिस कृपा की बात करता है वो क्या हैं?
ब तक बाबूलाल की दुकान पर तीन चार ग्राहक और इकट्ठा हो गए थे और इस चर्चा का आनन्द लेने लगे थे। इस बार बाबूलाल ने मुझ से कठिन सवाल कर लिया था और मुझे लगने लगा कि वह मेरा इंटरव्यू कर रहा है। मैं समझ रहा था कि मैं ने उस के सवालों का संतोषजनक उत्तर न दिया तो वह मुझे जरूर फेल कर देगा। चर्चा लंबी होती दिख रही थी और मैं अदालत पहुँचने में लेट हो रहा था। फिर भी कोई न कोई जवाब दे कर चर्चा को विराम तो देना ही था। मैं ने कहना शुरू किया।
भाई, बाबूलाल जी, ये बाबा की शक्ति और कृपा दोनों ही फर्जी हैं। बहुत लोग हैं दुनिया में जिन्हें प्रयत्न करते हुए भी नहीं मिलती और वे हताश और निराश हो जाते हैं, उन्हें प्रयत्न करना निरर्थक लगने लगता है। वे प्रयत्न करना छोड़ देते हैं। लेकिन आखिर सफलता तो प्रयत्न से ही मिलती है। प्रयत्न करना छोड़ देने से तो कुछ नहीं होता। ऐसे समय में आवश्यकता इस बात की होती है कि उन की निराशा और हताशा को दूर कर के उन्हें फिर प्रयत्नशील बना दिया जाए। बस यही बाबा करता है। लोग उस के पास जाते हैं ये यकीन कर के कि बाबा के पास शक्ति है उस की कृपा हो जाए तो उन का काम बन जाएगा।  बाबा उन से कुछ भी करने को कह देता है। जैसे काला पर्स जेब में रखना या फिर किसी धर्मस्थल की यात्रा करना या फिर कोई अन्य ऊटपटांग उपाय बताता है। लोगों को बाबा की बात का विश्वास तो है ही वे वैसा ही करते हैं जैसा बाबा कहता है। इस से उन में आत्मविश्वास पैदा होता है कि अब की बार वह प्रयत्न करेगा तो अवश्य ही उस का काम सफल होगा। वह आत्मविश्वास के साथ पूरी शक्ति लगा कर प्रयत्न करता है। पूरे  आत्मविश्वास के साथ और अपनी पूरी शक्ति के साथ जब कोई काम किया जाता है तो उस का सफल होना स्वाभाविक है। इस तरह शक्ति भी व्यक्ति की स्वयं की होती है और आत्मविश्वास भी उस का खुद का ही होता है। लेकिन व्यक्ति समझता है कि यह सब बाबा की शक्ति कर रही है। उसे वे बाबा की शक्ति की कृपा मान बैठते हैं। जिस दिन लोग यह समझने लगेंगे कि शक्ति उन में स्वयं में है उन्हें आत्मविश्वास भी पैदा होगा और उस दिन कोई ऐसे बाबाओं, ज्योतिषियों, नजूमियों को कोई नहीं पूछेगा।
मेरी बात समाप्त होते ही एक ग्राहक बोल उठा -बात तो सही है। ये लोग हमारी हताशा का लाभ उठाते हैं। तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैं ने कहा –बाबूलाल जी, आज का प्रवचन समाप्त। अब चलते हैं। अदालत से मुवक्किलों की घंटियाँ आने लगी हैं। कोई बात छूट गई हो तो कल फिर इसी वक्त दरबार लगा लेंगे।   

सोमवार, 1 अगस्त 2011

भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?

र्वत्र लूट मची है। जिसे जहाँ अवसर मिल रहा है लूट रहा है। कोई लूट नहीं पा रहा है तो खसोट ही रहा है। बहुत सारे ऐसे भी हैं, जो न लूट पा रहे हैं और न खसोट पा रहे हैं। उन में से कुछ मसोस रहे हैं, अपने मन को कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं। कुछ हैं जिन्हें इस बात का संतोष है कि वे इस लूट-खसोट में शामिल नहीं हैं, लेकिन वे इस से बचने के प्रयत्न में शामिल हैं और दुःखी हैं कि वे बच नहीं पा रहे हैं। इन दुःखी लोगों में से बहुत से ऐसे भी हैं जो इसके विरुद्ध लड़ाई के ख्वाब देखते हैं लेकिन सपना तो सपना है वह अक्सर सच नहीं होता। उसे सच करने के लिए पहले बहुत से ऐसे ही सपना देखने वालों को इकट्ठा करना पड़ता है। काम बहुत मेहनत का है, इसलिए सपने को सपना रहने देते हैं। सपना देखना क्या बुरा है, नींद में देखो या फिर जागते कुछ तो राहत देता ही है। कुछ ऐसे भी हैं जो इस सपने को सच करने के लिए जुट पड़ते हैं। बहुत हैं जो अपनी-अपनी जगह जुटे पड़े हैं, इस विश्वास से कि  कभी तो यह लड़ाई परवान चढ़ेगी, इस लूट खसोट से मुक्ति मिलेगी। 

ब जानते हैं, हमारा तंत्र पूंजीवादी है। पूंजीपति इस के स्वामी हैं, वे महान हैं, उन्हों ने सामंती तानाशाही से लड़ाई लड़ी और जनतंत्र लाए। लोगों को वोट डालने का अधिकार मिला। लोग खुश हैं कि वे वोट डालते हैं और सरकार चुनते हैं, भले ही उन्हें चुनने के लिए वही भले लोग मिलते हैं जो लूट-खसोट में सब से आगे हैं। पर इस से क्या जनतंत्र तो है, वोट तो है, कोसने की आजादी तो है, कोसने से काम नहीं चलता तो गालियाँ देने की आजादी तो है और चाहिए भी क्या, दो जून की रोटी वह तो इस देश में किसी के द्वारे हाथ फैलाने से मिल जाती है। यदि साधारण तरीके से न मिले तो कुछ तरकीब अपनाई जा सकती है। कटोरे में सोमवारी या मंगलवारी देवी-देवता की तस्वीर रख कर मांगी जा सकती है। और रिफाइंड तरीका भी है, आप किसी रंग के कपड़े पहनें गले में कुछ मनकों वाली माला डालें फिर दो जून के भोजन का इंतजाम हो ही जाएगा। किसी जमीन पर कब्जा कर वहाँ कोई मूर्ति या मजार बना डालें, फिर तो मौज है। कहीं जाने की जरूरत ही नहीं है। लोग खुद चल के आएंगे, न केवल दो जून की रोटी की व्यवस्था करेंगे बल्कि साथ में धुआँ उड़ाने और पिन्नक में पड़े रहने का इंतजाम भी कर देंगे। और भी अनेक मार्ग हैं, आप सब जानते हैं। 

हुत से लोगों को ये रास्ता पसंद नहीं। वे दो जून की रोटी नहीं मांगते, वे काम मांगते हैं। काम मिल जाता है तो न्यूनतम मजदूरी मांगते हैं। न्यूनतम मजदूरी मिल जाती है तो जीने लायक वेतन मांगते हैं, वह भी मिल जाता है तो महंगाई का भत्ता मांगते हैं। उस के बाद न जाने क्या क्या मांगते हैं। ये लोग भी सपने देखते हैं और उन के लिए लड़ते भी हैं। जो काम देता है, सब से पहले उसी से लड़ते हैं। उन्हें सपने के रास्ते में सब से पहले वही दिखता है। जब लड़ते हैं तो रास्ते में पुलिस आती है, सरकारी अफसर आते हैं, नेता आते हैं। वे इन सब से लड़ नहीं पाते लड़ाई हार जाते हैं। सपने भूल जाते हैं, फिर काम करने लगते हैं। लेकिन सपने तो सपने हैं फिर आने लगते हैं। वे फिर इकट्ठे होते हैं, फिर लड़ते हैं। इस बार उन की लड़ाई कुछ बेहतर होती है। वे कुछ हासिल करते हैं, लेकिन कानून सामने आ जाता है, वे लड़ाई हार जाते हैं।  कानून से कैसे लड़ें? कानून तो चुने हुए लोग बनाते हैं जिन्हें वे ही चुनते हैं। वे दूसरे लोग चुनना चाहते हैं जो उन के लिए कानून बनाएँ। वे कोशिश करते हैं, कुछ को बदल भी लेते हैं। पर जिन्हें बदलते हैं, वे उन का साथ नहीं देते। चुने जाने पर, चुने हुए लोग बदल जाते हैं। वे भी वैसे ही हो जाते हैं जैसे बदले जाने के पहले वाले थे। 

ब वे सोचने लगते हैं, चुनाव से क्या फायदा, वे अब वोट डालने नहीं जाते। उन में से कुछ को मनाया जाता है, कुछ को कुछ ले-दे कर, कुछ को खिला-पिला कर पटाया जाता है। उन में से कई वोट डालने चले जाते हैं। वोट डालते हैं, और पछताते हैं। कई वोट डालने नहीं जाते। लगातार सपने देखते हैं, आपस में मिलते हैं, इकट्ठा होते हैं, वोट का तोड़ ढूंढते हैं। आप ने कहीं देखा है ऐसे लोगों को? हो सकता है आप ने उन्हें देखा हो, या हो सकता है नहीं देखा हो। मैं ने उन्हें देखा है, अपने ही आस-पास। जहाँ जाता हूँ वहाँ मिल जाते हैं। आप जरा तलाश करेंगे और मेरी नजर से देखेंगे तो आप को भी दिख जाएंगे। जब दिखने लगेंगे तो बहुत दिखेंगे, छोटे-छोटे समूहों में। आप इन्हें देखने की कोशिश तो करें। मैं तो देख रहा हूँ, कुछ इधर हैं इस मुहल्ले में, कुछ उधर हैं उस मुहल्ले में, कुछ कारखानों में हैं तो कुछ मंडियों और बाजारों में, कुछ खेतों में हैं तो कुछ खलिहानों में हैं। आप देखिए तो सही, एक बार पहचान लेंगे तो सर्वत्र दिखाई देंगे। सब जुटे हैं, अलग-अलग छोटे-छोटे समूहों में वोट का तोड़ तलाशने में। मैं भी सपना देखने लगता हूँ। ये समूह आपस में मिल रहे हैं, मिल कर बड़े हो रहे हैं। एक न एक दिन तोड़ ढूंढ ही लेंगे। मैं भी निकल पड़ता हूँ सपने को हकीकत बनाने में जुट जाता हूँ। तो,  भाई जी! आप ने अब तक कोई सपना देखा, या नहीं?


बुधवार, 20 जुलाई 2011

पेट का दर्द

हुत दिनों के बाद अदालत आबाद हुई थी। जज साहब अवकाश से लौट आए थे। जज ने कई दिनों के बाद अदालत में बैठने के कारण पहले दिन तो काम कुछ कम किया। दो-तीन छोटे-छोटे मुकदमों में बहस सुनी। उसी में 'कोटा' पूरा हो गया। लेकिन वकीलों और मुवक्किलों को पता लग गया कि जज साहब आ गए हैं और अदालत में सुनवाई होने लगी है। लोगों को आस लगी कि अब काम हो जाएगा। इस बार उन के मुकदमे में अवश्य सुनवाई हो जाएगी। जज साहब ने दूसरे दिन कुछ अधिक मुकदमों में सुनवाई की। एक बड़े मुकदमे में भी बहस सुन ली लेकिन वह किसी कारण से अधूरी रह गई। शायद जज साहब ने एक पक्ष के वकील को यह कह दिया कि वे किसी कानूनी बिंदु पर किसी ऊँची अदालत का निर्णय दिखा दें तो वे उन का तर्क मान कर फैसला कर देंगे। वकील के पीछे खड़े मुवक्किल को जीत की आशा बंधी तो उस ने वकील को ठोसा दिया कि वह नजीर पेश करने के लिए वक्त ले ले। वकील समझ रहा था कि जज ने कह दिया है कि यदि ऐसा कोई फैसला ऊँची अदालत का पेश नहीं हुआ तो उस के खिलाफ ही निर्णय होगा। पर मुवक्किल की मर्जी की परवाह तो वकील को करनी होती है। कई बार तो जज कह देता है कि वह उन की बात को समझ गया है, वह वकील को बता भी देता है कि उस ने क्या समझा है। पर फिर भी वकील बहस करता रहता है, ऊँची और तगड़ी आवाज में। तब जज समझ जाते हैं कि वकील अब मुवक्किल को बताने के लिए बहस कर रहा है, जिस से वह उस से ली गई फीस का औचित्य सिद्ध कर सके।  

दूसरे दिन शाम को ही मेरा भी एक मुवक्किल दफ्तर में धरना दे कर बैठ गया। उस का कहना था कि इस बार उस की किस्मत अच्छी है जो जज साहब उस की पेशी के दो दिन पहले ही अवकाश से लौट  आए हैं। वरना कई पेशियों से ऐसा होता रहा है कि उस की पेशी वाले दिन जज साहब अवकाश पर चले जाते हैं या फिर वकील लोग किसी न किसी कारण से काम बंद कर देते हैं। उसे कुछ शंका उत्पन्न हुई तो पूछ भी लिया कि कल वकील लोग काम तो बंद नहीं करेंगे? मैं ने उसे उत्तर दिया कि अभी तक तो तय नहीं है। अब रात को ही कुछ हो जाए तो कुछ कहा नहीं जा सकता है। मैं ने भी मुवक्किल के मुकदमे की फाइल निकाल कर देखी। मुकदमा मजबूत था। वह  पेट दर्द के लिए डाक्टर को दिखाना चाहता था। नगर के इस भाग में एक लाइन से तीन-चार अस्पताल थे। पहले अस्पताल बस्ती की आबादी के हिसाब से होते थे। लेकिन दस-पंद्रह सालों से ऐसा फैशन चला है कि जहाँ एक अस्पताल खुलता है और चल जाता है, उस के आसपास के मकान डाक्टर लोग खरीदने लगते हैं और जल्दी ही अस्पतालों और डाक्टरों का बाजार खड़ा हो जाता है। वह किसी जनरल अस्पताल में जाना चाहता था, उस ने एक अस्पताल तलाश भी लिया था। वह अस्पताल के गेट से अंदर जाने वाला ही था कि उसे एक नौजवान ने नमस्ते किया और पूछा किसी से मिलने आए हैं। जवाब उस ने नहीं उस के बेटे ने दिया -पिताजी को जोरों से पेट दर्द हो रहा है। वे किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना चाहते हैं। 

नौजवान ने जल्दी ही उस से पहचान निकाल ली। वह उन की ही जाति का था और उन के गाँव के पड़ौस के गाँव में उसकी रिश्तेदारी थी। उस ने नौजवान का विश्वास किया और उस की सलाह पर उस के साथ  नगर के सब से प्रसिद्ध अस्पताल में पहुँच गया। नौजवान इसी अस्पताल में नौकर था और उस ने आश्वासन दिया था कि वह डाक्टर से कह कर फीस कम करवा देगा। इस अस्पताल में दो-तीन बरसों से धमनियों की बाईपास की जाने लगी थी। देखते ही देखते अस्पताल एक मंजिल से चार मंजिल में तब्दील हो गया था। छह माह से वहाँ एंजियोप्लास्टी भी की जाने लगी थी। उसे एक डाक्टर ने देखा, फिर तीन चार डाक्टर और पहुँच गए। सबने उसे देख कर मीटिंग की और फिर कहा कि उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए,जाँचें करनी पडेंगी, हो सकता है ऑपरेशन भी करना पड़े। उन्हें उस की जान को तुरंत खतरा लग रहा है, जान बच भी गई तो अपंगता हो सकती है। वह तुरंत अस्पताल में भर्ती हो गया। बेटे को पचासेक हजार रुपयों के इन्तजाम के लिए दौड़ा दिया गया। जाँच के लिए उसे मशीन पर ले जाया गया। शाम तक कई कई बार जाँच हुई। फिर उसे एक वार्ड में भेज दिया गया। आपरेशन की तुरंत जरूरत बता दी गई। दो दिनों तक रुपए कम पड़ते रहे, बेटा दौड़ता रहा। कुल मिला कर साठ सत्तर हजार दे चुकने पर उसे बताया गया कि उस का ऑपरेशन तो भर्ती करने के बाद दो घंटों में ही कर दिया गया था। उस की जान बचाने के लिए जरूरी था। फीस में अभी भी पचास हजार बाकी हैं। वे जमा करते ही अस्पताल से उस की छुट्टी कर दी जाएगी। उस के पेट का दर्द फिर भी कम नहीं हुआ था। वह दर्द से कराहता रहता था। डाक्टर और नर्स उसे तसल्ली देते रहते थे। उस ने बेटे से हिंगोली की गोली मंगा कर खाई तो गैस निकल गई, उसे आराम आ गया। उसे लगा कि अस्पताल ने उसे बेवकूफ बनाया है। वह मौका देख बेटे के साथ अस्पताल से निकल भागा। 


दूसरे डाक्टर को दिखाया तो उसे पता लगा कि उस की एंजियोप्लास्टी कर दी गई है, जब कि वह कतई जरूरी नहीं थी। अब तो उसे जीवन भर कम से कम पाँच सात सौ रुपयों की दवाएँ हर माह खानी पडेंगी। उसे लगा कि वह ठगा गया है। उस ने अपने परिचितों को बताया तो लोगों ने अस्पताल पर मुकदमा करने की सलाह दी जिसे उस ने मान लिया। इस तरह वह मेरे पास पहुँचा। मैं ने देखा यह तो जबरन लूट है। बिना रोगी की अनुमति के ऑपरेशन करने का  मामला है। मैं ने मुकदमा किया। साल भर में मुकदमा बहस में आ गया। फिर साल भर से लगातार पेशियाँ बदलती रहीं। मैं भी सोच रहा था कि कल यदि बहस हो जाए तो मुकदमे में फैसला हो जाए। 

गले दिन मैं, मेरा मुवक्किल और डाक्टरों व बीमा कंपनी के वकील अदालत में थे। जज साहब बता रहे थे कि बड़ी लूट है। उन का एमबीबीएस डाक्टर बेटा पीजी करना चाहता था। बमुश्किल उसे साठ लाख डोनेशन पर प्रवेश मिल सका है। रेडियोलोजी में प्रवेश लेने के लिए एक छात्र को तो सवा करोड़ देने पड़े। वैसे भी आजकल एमबीबीएस का कोई भविष्य नहीं है, इसलिए पीजी करना जरूरी हो गया है। ये कालेज नेताओं के हैं, और ये सब पैसा उन की जेब में जाता है। अब डाक्टर इस तरह पीजी कर के आएगा तो मरीजों को लूटेगा नहीं तो और क्या करेगा? मैं समझ नहीं पा रहा था कि जज लूट को अनुचित बता रहा है या फिर उस का औचित्य सिद्ध कर रहा है। 


खिर हमारे केस में सुनवाई का नंबर आ गया। जज ने मुझे आरंभ करने को कहा। तभी डाक्टरों का वकील बोला कि पहले उस की बात सुन ली जाए। मैं आरंभ करते करते रुक गया। डाक्टरों का वकील कहने लगा -वह कल देर रात तक एक समारोह में था। इसलिए आज केस तैयार कर के नहीं आ सका है। आज इन की बहस सुन ली जाए, वह कल या किसी अन्य दिन उस का उत्तर दे देगा। जज साहब को मौका मिल गया। तुरंत घोषणा कर डाली। आज की बहस अगली पेशी तक कैसे याद रहेगी? मैं तो सब की बहस एक साथ सुनूंगा। आखिर दो सप्ताह बाद की पेशी दे दी गई। मैं अपने मुवक्किल के साथ बाहर निकल आया। मेरा मुवक्किल कह रहा था। अच्छा हुआ, आज पेशी बदल गई। अब इस जज के सामने बहस मत करना। यह  दो माह में रिटायर हो लेगा। फिर कोई दूसरा जज आएगा उस के सामने बहस करेंगे। मैं उसे समझा रहा था कि आने वाले जज का बेटा या दामाद भी इसी तरह डाक्टरी पढ़ रहा हआ तो क्या करेंगे? इस से अच्छा है कि बहस कर दी जाए। यदि जज गलत फैसला देगा तो अपील कर देंगे। मुवक्किल ने मेरी बात का जवाब देने के बजाय कहा कि अभी पेशी में दो हफ्ते हैं, तब तक हमारे पास सोचने का समय है कि क्या करना है?

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

जनता को क्या मिलेगा, सिङ्गट्टा ???

ज जुलाई महीने की पहली तारीख है, भारत का डाक्टर्स डे, हिन्दी में कहें तो चिकित्सक दिवस। सारे विश्व में यह डॉक्टर्स डे 30 मार्च को मनाया जाता है जिस दिन जॉर्जिया के प्रसिद्ध चिकित्सक क्राफोर्ड डब्लू लोंग ने पहली बार शल्य चिकित्सा में निश्चेतक का प्रयोग किया था। लेकिन हम ने उस की तारीख चार माह आगे खिसका कर उसे डॉ. बिधानचंद्र राय के जन्मदिन पर मनाना आरंभ कर दिया जिस से इस दिवस पर चिकित्सक भी समाज को उन के योगदान को स्मरण करते हुए केवल बधाइयाँ और शुभकामनाएँ हासिल करने में ही न जुटे रहें वरन् अपने कर्तव्यों पर भी ध्यान दें। ऐसा नहीं चिकित्सकों को अपने कर्तव्यों का ध्यान नहीं है। लेकिन जब समाज का एक हिस्सा नग्न नर्तन के साथ जनता को लूटने में व्यस्त हो और सरकारों ने उन्हें खुली छूट दे रखी हो तब चिकित्सक भला कैसे पीछे रह सकते हैं। वे पीछे रहें भी कैसे?  दवा कंपनियाँ उन्हें  रहने दें तब न? उन्हें सिर्फ अपने पास आए रोगियों को चिकित्सा के लिए दवाएँ लिखनी हैं। शेष काम तो दवा कंपनियाँ खुद कर लेती हैं। 
ज राजस्थान पत्रिका के कोटा संस्करण में राजेश त्रिपाठी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। आप स्वयं इसे पढ़ कर अनुमान कर सकते हैं कि हमारी सरकार ने किस तरह दवा कंपनियों को जनता की लूट के लिए खुला छोड़ रखा है। इस लूट का हिस्सा न केवल चिकित्सकों को मिलता है अपितु अन्य अनेक लोग उसमें शामिल होते हैं, उन में राजनेता शामिल न हों यह हो नहीं सकता।

 1.39 रुपए की गोली 26.50 रुपए में बेच कर 1906 प्रतिशत कीमत पर बेचना किसी कानून का उल्लंघन न करता हो, तब हम समझ सकते हैं कि संसद से ले कर सरकार तक किन लोगों के लिए और किन लोगों द्वारा चलाई जा रही है। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे की सिविल सोसायटी और विपक्षी दल इस बारे में कभी आवाज नहीं उठाते। उस के लिए कोई अनशन करने की बात भी नहीं करता। ऐसा करने पर तो सिस्टम याने की व्यवस्था बदलना जरूरी हो जाएगा। जब कि लोकपाल कानून बना कर भ्रष्टाचार मिटाने या कालाधन वापस देश में लाने के लिए व्यवस्था बदलना जरूरी नहीं। 
ब मैं एक काल्पनिक प्रश्न से जूझ रहा हूँ, यह कालाधन वास्तव में देश में वापस ले आया जाएगा तो भी लूटने वाले उसे छोड़ेंगे थोड़े ही। किसी न किसी तरह वे लोग ही उस पर कब्जा कर लेंगे जो अभी उस का आनंद ले रहे हैं। जनता को क्या मिलेगा, सिङ्गट्टा ???