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गुरुवार, 28 मई 2009

सूत जी ने माना, वे सठिया गए हैं : इस युग का प्रधान वैषम्य : जनतन्तर कथा (35)

हे, पाठक! 
सूत जी को नैमिषारण्य पहुँचे तीन दिन व्यतीत हो गए।  चौथे दिन वे कार्यालय पहुँच कर पीछे से दो माह में हुई गतिविधियों के बारे में जानकारी ले रहे थे कि चल दूरभाष ने आरती सुना दी।  दूसरी ओर सनत था  -गुरूवर प्रणाम!  मैं भी सकुशल इधर लखनऊ पहुँच गया हूँ।  यहाँ आ कर मैं ने दो माह के हिन्दी चिट्ठे देखे। पता लगा एक हिन्दी चिट्ठे अनवरत पर जनतन्तर कथा के नाम से श्रंखला लिखी जा रही थी और उस में आप और हम दोनों पात्र के रूप में उपस्थित हैं।  हमारे बीच का अधिकांश वार्तालाप भी ज्यों का त्यों वहाँ लिखा गया है।  राजधानी में अन्तिम  रात्रि को आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों और मरकस बाबा के बारे में जो कुछ बताया था उसे तो वहाँ जैसे का तैसा लिख दिया गया।  पर आज ब्लाग पर एक टिप्पणी अच्छी नहीं लगी।
सूत जी - क्यों अच्छी नहीं लगी? ऐसा उस में क्या है?
सनत --गुरूवर! मैं यह आप को बता नहीं सकता। आप को खुद ही 'अनवरत' चिट्ठे पर जा कर पढ़ना चाहिए। हाँ, एक और चिट्ठे  'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' में उस टिप्पणी की प्रतिक्रिया में आलेख लिखा है जिस में मरकस बाबा का शक्तिशाली समर्थन किया गया था।  पर अनवरत के चिट्ठाकार ने उस आलेख की भाषा पर आपत्ति की और उस चिट्ठे ने इस आपत्ति को संवाद के उपरांत स्वीकार कर लिया।
सूत जी - कुछ बताओगे भी या पहेलियाँ ही बुझाओगे?
सनत -गुरूवर! आप स्वयं पढ़िए, मैं ने दोनों चिट्ठों के पते आप के गूगल चिट्ठी पते पर भेज दिए हैं। मैं रात्रि दूसरे प्रहर आप से अन्तर्जाल पर दृश्य-वार्ता में भेंट करता हूँ।  प्रणाम!

हे, पाठक!
सूत जी ने दिन में अनवरत चिट्ठे पर पूरी जनतन्तर कथा पढ़ डाली। उस पर आई टिप्पणियाँ पढ़ीं और मन ही  मन मुस्कुराते रहे।  तदनन्तर उन्हों ने दूसरे चिट्ठे का आलेख भी पढ़ा।  उन की मुस्कुराहट में वृद्धि हो गई।  साँयकाल अपनी कुटिया में वापस लौटे और रात्रि के दूसरे प्रहर की प्रतीक्षा करने लगे।  रात्रि का दूसरा प्रहर समाप्त होते होते सनत से संपर्क हुआ।  वह देरी के लिए क्षमायाचना कर रहा था। पर सूत जी ने देरी को गंभीरता से नहीं लिया।  वे तो सनत से बात करना चाहते थे। दोनों ने वार्ता आरंभ की....
सनत -गुरूवर! आप ने पढ़ा सब कुछ?
सूत जी -  हाँ, पढा। जनतंतर कथा रोचक है।  इस में तो भारतवर्ष के गणतंत्र बनने से ले कर आज तक की चुनाव कथा संक्षेप में बहुत रोचक रीति से लिखी है।
सनत -आप ने अंतिम आलेख और उस पर टिप्पणियाँ पढ़ीं?
सूत जी -  हाँ सब कुछ पढ़ा है, और वह   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर'  भी पढ़ लिया है।
सनत- तो आप को बुरा नहीं लगा?
सूत जी -  बिलकुल बुरा नहीं लगा,  अपितु बहुत आनंद आया।  बहुत दिनों बाद इस तरह का विमर्श पढ़ने को मिला।
सनत -मैं तो आप के प्रति टिप्पणी पढ़ कर असहज हो गया था बिलकुल   'शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर' की तरह।
सूत जी -  मुझे तो आनंद ही आया।  वह क्या ..... ज्ञानदत्त पाण्डे ... यही नाम है न टिप्पणी करने वाले सज्जन का?
सनत - हाँ, यही नाम है।
सूत जी - सनत! ज्ञानदत्त पाण्डे जी सही कहते हैं, मैं यथार्थ में सठियाने लगा हूँ।
सनत -गुरूवर! आप इसे स्वीकारते हैं?
सूत जी -हाँ भाई, स्वीकारता हूँ। यथार्थ को स्वीकारने में क्यों आपत्ति होनी चाहिए? सठियाया व्यक्ति जब कोई बात करता है तो उस से अनायास ही कुछ बातें छूट जाती हैं।  संभवतः यह आयु का ही दोष है।  जब व्यक्ति को लगता है कि उस के पास अब बहुत कम समय रह गया है तो वह अपनी बात को संक्षिप्त बनाने में चूक जाता है। संभवतः इसे ही सठियाना कहते हैं। मेरी भी तो आयु बहुत हो चली है। मुझे ही पता नहीं कितने वर्ष का हो चला हूँ। संभवतः उन्नीस-बीस शतक तो हो लिए होंगे।  उस दिन त्रुटि मुझ से ही हुई थी।  तुम भी उसे भाँप नहीं सके।

हे, पाठक! 
सूत जी की इस स्वीकारोक्ति से सनत स्तम्भित रह गया। उस ने सूत जी से पूछा -कैसी त्रुटि? गुरूवर!  मुझे भी तो बताइए। मैं भी जान सकूं कि क्या है जो आप ने नहीं बताया और मैं भी नहीं भाँप सका?
सूत जी - उस दिन मैं ने तुम्हें बताया था कि ......
..... जब भाप के इंजन के आविष्कार ने उत्पादन में  क्रान्ति ला दी, तो लक्ष्मी उत्पादन के साधनों में जा बसी है।  उत्पादन के ये साधन ही पूंजी हैं।  जिस का उन पर अधिकार है उसी का दुनिया  में शासन है।  उत्पादन के वितरण के लिए बाजार चाहिए।  इस बाजार का बंटवारा दो-दो बार इस दुनिया को युद्ध की ज्वाला में झोंका चुका है।  लक्ष्मी सर्वदा श्रमं से ही उत्पन्न होती है इसी लिए उस का एक नाम श्रमोत्पन्नाः है।  तब उस पर श्रमजीवियों का अधिकार होना चाहिए पर वह उन के पास नहीं है। 
सनत -हाँ, बताया था गुरूवर! पर इस में क्या त्रुटि है, सब तो स्पष्ट है।
सूत जी -नहीं सब स्पष्ट नहीं है।  यहाँ लक्ष्मी के दो स्वरूप हैं। उन के भेद बताना मुझ से छूट गया था।  इस भेद को सब से पहले मरकस बाबा ने ही स्पष्ट किया। वही तो उन का सब से महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। और देखो, मैं उस रात तुम्हें वही बताना विस्मृत कर गया।
सनत - गुरूवर! कैसे दो स्वरुप और उन के भेद, कौन सा महत्वपूर्ण सिद्धान्त?
जी सूत -वही संक्षेप में तुम्हें फिर बता रहा हूँ, जिस से तुम्हारे मन में कोई संशय नहीं रह जाए।
सूत जी आगे कुछ बता पाते उस के पहले ही विद्युत प्रवाह चला गया।  सनत का घर अंधेरे में डूब गया।  कम्प्यूटर भी कुछ ही देर का मेहमान था। सूत जी को सनत का चेहरा दिखाई देना बंद हो गया।  दृश्यवार्ता असंभव हो चली।
सनत बोला- गुरूवर! विद्युत प्रवाह बंद हो गया।  कथा यहीं छूटेगी।
कोई बात नहीं कल फिर बात करेंगे।
हे, पाठक!
कथा का यह अध्याय भी चिट्ठे की सीमा के बाहर जा रहा है।  हम भी आगे की कथा कल ही वर्णन करेंगे।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

कल की कथा में पढ़िए....
महालक्ष्मी  ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती?