@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: राजनेता
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सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

राजनेता नहीं चाहिए

भ्रष्टाचार से देश का हर व्यक्ति व्यथित है। सामाजिक जीवन का कोई हिस्सा नहीं जो इस भ्रष्टाचार से आप्लावित न हो। स्थिति यह हो गई है कि जिस के पास धन है, वह फूला नहीं समाता। वह अकड़ कर कहता है -कौन सा काम है जो मैं नहीं करवा सकता। मुझे कोई बत्तीस बरस पहले की एक मामूली उद्योगपति की बात स्मरण हो आई जिस की राजधानी में एक बड़ी फ्लोर मिल थी। वह कुछ दिनों के लिए एक दैनिक के सम्पादक मित्र का मेहमान था। मैं उन दिनों कानून की पढ़ाई करता था और उस दैनिक में उपसंपादक हुआ करता था।  उस उद्योगपति ने मुझ से कहा था। कभी सरकार में कोई भी काम हो तो बताना। मैं ने उसे कहा सरकार तो बदल जाती है। उस का उत्तर था कि मैं अपने कुर्ते की एक जेब में सरकार का एमएलए रखता हूँ तो दूसरी जेब में विपक्ष का एमएलए। निश्चित रूप से पिछले बत्तीस वर्षों में इस स्थिति में गुणात्मक विकास ही हुआ है। आज का उद्योगपति एमएलए नहीं एमपी और मंत्री तक को अपनी जेबों में रखने क्षमता रखता है।
देश में जितना भ्रष्टाचार है उस की जन्मदाता यही उद्योगपति बिरादरी है। उन के इशारे पर कानून बनते हैं, यदि कानून उन के विरुद्ध बन भी जाएँ तो उन्हें उस की परवाह नहीं, वे जानते हैं कि सरकार उन के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करेगी। जिस के पास सब से अधिक धन है वह देश का सब से इज्जतदार व्यक्ति है, चाहे वह  कितना ही बेईमान क्यों न हो। जिस के पास पैसा नहीं है वह चाहे कितना ही ईमानदार क्यों हो उस की काहे की इज्जत, राशनकार्ड दफ्तर का बाबू उस की इज्जत उतार सकता है। उस की बेटी की शादी में यदि दहेज या बारात के सत्कार में कुछ कमी हो जाए तो कोई अनजान बाराती भी उस की इज्जत उतार सकता है। हमने आजादी के बाद समाज में ऐसे ही मूल्य विकसित होने दिए हैं। हम ने भ्रष्टाचारी को प्रतिष्ठा दी है और ईमानदार लोगों को ठुकराया है। शहर में सब से अधिक काला धन रखने वाला व्यक्ति साल में माता का एक जागरण करवा कर या मंदिर बनवा कर सब से बड़ा धर्मात्मा और ईमानदार बन जाता है, और ईमानदारी से काम करने वाले को मजा चखा सकता है। मुखौटा पहन कर सब से बड़ा वेश्यागामी रामलीला में हनुमान का अभिनय कर सकता है, और जनता की जैजैकार का भागी हो जाता है।
ह हमारा दोहरा चरित्र है। हम इस के आदी हो चुके हैं। हम इस से त्रस्त हैं, लेकिन इस किले में एक कील भी नहीं ठोकना चाहते। जब हमारी बारी आती है तो हम कहते है, हम कर भी क्या सकते हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। चने का ही भुरकस निकल जाता है। आखिर हम बाल-बच्चे वाले इंसान हैं। हमारा आत्मविश्वास डगमगा गया है, हम कहते हैं सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, कभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। चार दिन पहले ही जब मैं ने कहा था कि क्रिकेट विश्वकप जीत का सबक 'एकता और संघर्ष' जनता के लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है तो उस आलेख पर एक मित्र की टिप्पणी थी कि आप मुझे निराशावादी कह सकते हैं लेकिन इस देश में कभी कुछ नहीं हो सकता।  उन मित्र की इस निराशा में भी एक बात जरूर थी, वे इस व्यवस्था के समर्थक तो नहीं थे।
र अब जब कि दो दिन पहले तक देश को क्रिकेट के नशे में डुबोने के भरपूर प्रयास किए जा रहे थे और देश भर उस नशे में डूबा दिखाई दे रहा था। अचानक अगले ही दिन वह उस नशे से मुक्त हो कर अण्णा हजारे के साथ खड़े होने की तैयारी कर रहा है। बहुत से लोगों ने अण्णा हजारे का नाम कल पहली बार सुना था और वे पूछ रहे थे कि ये कौन है? आज वे ही उस के साथ खड़े होने को इक्कट्ठे हो रहे हैं। गैर-राजनैतिक संगठन बनाने के लिए बैठकें कर रहे हैं। इस आलेख को लिखने के बीच ही एक मित्र का फोन आया कि परसों शाम बैठक है, आप को जरूर आना है। धन के कार्बन और राजनेताओं के गंधक/पोटाश ने देश के चप्पे-चप्पे पर जो बारूद बिछाया है वह एक स्थान पर इकट्ठा हो रहा है और कभी भी विस्फोट में बदल सकता है। अण्णा ने उस बारूद तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत कर दिया है।
ब अण्णा अनशन पर बैठने जा रहे थे तो मन में यह शंका थी कि कुछ घंटों में ही कुर्सी तृष्णा वाले राजनेता जरूर उन का पीछा करेंगे। यह आशंका सही सिद्ध हुई। वे अपनी कमीज को सफेद साबित करने के लिए अण्णा से मिलने पहुँचे। लेकिन जनता ने उन्हें बाहर से ही विदा कर दिया। यह सही है कि हमारी संसदीय राजनीति के सानिध्य ने किसी दल को अछूता नहीं छोड़ा। वे जिसे हाथ लगाते हैं वह मैला हो जाता है। इस काम को सिर्फ जनता के संगठन ही पूरा कर सकते हैं। राजनेता इस काम की गति में अवरोध और प्रदूषण ही पैदा कर सकते हैं। फिलहाल जनता ने उन्हें कह दिया है  -राजनेता नहीं चाहिए।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है। 

सोमवार, 5 जुलाई 2010

कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए

ल रात शोभा (श्रीमती द्विवेदी) ने पूछा, गाड़ी में पेट्रोल तो है ना? मैं चौंका। एक तो पिछले ही दिनों पेट्रोल की कीमतें बढ़ी हैं फिर अक्सर वे ये सवाल तभी करती हैं जब वे मेरे साथ कार में ऐसी जगह की यात्रा करती हैं जहाँ एक-दो किलोमीटर में पेट्रोल पम्प न हो और कोई सवारी भी न मिलती हो। मैं ने तत्काल पूछा, क्यों? कहीं जाना है क्या? वे बोलीं, नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि कल भारत बंद है, सुबह जरूरत पड़ेगी तो क्या करोगे? नहीं हो तो अभी जा कर भरवा लाओ। -कल तक के लिए पर्याप्त होगा। इतना कह कर मैं ने अपनी जान छुड़ाई। चलो इस बहाने हमें भारत बंद का तो पता लगा। वरना हमें तो सुबह अखबार या टीवी समाचार से ही यह पता लगता। वैसे भी कल किसी टीवी वाले को धोनी की शादी से ही फुरसत नहीं थी।
सुबह अखबार आया तो पता लगा कि बंद के कारण यातायात की अस्तव्यस्तता रहने से अधिवक्ता परिषद ने घोषणा कर दी है कि वे भी काम लंबित रखेंगे। हम कुछ रिलेक्स हो गए। हमें पता था कि आज कोई अदालत परेशान नहीं करेगी। क्यों कि अधिवक्ताओं के काम न करने से आज का दिन उन के काम के कोटे की गणना से अलग हो गया है। यह न्यायिक अधिकारियों के लिए बोनस का दिन है। इस दिन जितना काम वे अपने अपने चैंबर में करते हैं वह उन के कोटे को सुधार देता है। हम भी आराम से निबटे। बस भोजन करना शेष था कि बंगलूरू से बेटे का फोन आ गया। बता रहा था कि वह जल्दी ही नीचे जा कर कुछ नाश्ता ले आया है वरना दिन भर भोजन से वंचित रहना पड़ता। यूँ तो वह अपना भोजन खुद बनाता रहा है। लेकिन अभी इसे के लिए वहाँ पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाने के कारण चाय आदि के अलावा वह बाजार पर ही निर्भर रहता है। उस ने बताया कि यहाँ सारी कंपनियाँ आज बंद रहेंगी। ट्रेफिक भी बंद रहेगा। सुबह सुबह ही पुलिस वालों की टोलियाँ सड़क पर आ निकली थीं। जिस किसी ने दुकान खोल दी थी उसे बंद करवा रहे थे। कह रहे थे अपना नुकसान करवाओगे और हमारे कलंक लगाओगे, कि पुलिस ने कुछ नहीं किया। मैं ने उसे कहा कि यह तो बड़ी अजीब बात है पुलिस बंद करवा रही है? तो उस का जवाब था कि यहाँ बीजेपी की सरकार जो है। 
म अदालत के लिए निकले तो ट्रेफिक रोज की तरह चलता नजर आया। हाँ ऑटो इक्का दुक्का नजर आ रहे थे। सिटी बसें नहीं थीं और दुकानें एक सिरे से बंद थीं। हम बड़े मजे में गाड़ी चलाते हुए अदालत पहुँचे तो दूर से हमारा पार्किंग पूरी तरह खाली देख प्रसन्नता हुई, कि आज किसी पेड़ की छाया के  नीचे कार पार्क कर सकेंगे। लेकिन यह खुशी पास जाने पर टूट गई। पुलिस वाले अस्पताल और अदालत के बीच वाली सड़क के किनारे वाले पार्किंग में गाड़ी पार्क करने ही नहीं दे रहे थे। हमने पार्किंग के लिए दूसरी जगह तलाशी तो सभी पार्किंग  पहले से भरे हुए थे। फिर परेशान हुए तो एक जूनियर साथी ने हमें सलाम ठोकी। हम ने गाड़ी रोक दी। उस ने कहा कि आज उस की कार अंदर पार्किंग में फँस गई है। मुझे पत्नी को अस्पताल ले जाना है। मैं गाड़ी से उतर गया और अपनी गाड़ी की चाबी उसे दे दी। मुझे पार्किंग तलाशने से मुक्ति मिली। 
दालत में जा कर अपना काम संभाला। अदालतों में गए। कुछ अदालतों ने मुकदमों में तारीखें बदल दी थीं। कुछ अदालतें जहाँ नए न्यायिक अधिकारी तबादला हो कर आए थे, तारीखें नहीं बदल रही थीं। शायद नए अधिकारी मुकदमों की पत्रावलियों से परिचित होना चाह रहे थे, या फिर वे कोटा की उस परंपरा से वाकिफ न थे, जिस के अनुसार अधिवक्ता परिषद की काम लंबित होने की चिट्ठी आने पर उन्हें प्रसन्न होना था। पर मैं जानता था कि उन की यह असामान्यता सिर्फ दोपहर के विश्राम तक ही टिकेगी। क्यों कि तब चाय पर वे पुराने अधिकारियों से मिलेंगे और उन से मिली सीख उन्हें सामान्य कर देगी। बंद के दिन भी कुछ तो मुवक्किल आ ही गए थे। कुछ उन से बातचीत की, कुछ उन्हें सलाहें दीं, कुछ टाइप का काम करवाया। एक नया मुकदमा मिला तो फीस भी मिली। इस के अलावा दो बार बैठ कर कॉफी भी पी। कुल मिला कर शाम के साढे़ चार बज गए। तब तक शहर में कुछ भी असामान्य होने की खबर नहीं थी। सब कुछ वैसे ही चल रहा था जैसे हर बंद में चलता है। दुकानें स्वतः ही बंद थीं। कुछ नुकसान होने के डर से और कुछ इस लिए कि व्यापारियों को रूटीन में सप्ताह में एक ही अवकाश मिलता है। जब कभी बंद की घोषणा होती है तो वे बड़े खुश होते हैं कि उन्हें एक दिन का अवकाश और मिला और पहले से ही पिकनिक का कार्यक्रम बना लेते हैं। फिर आज तो मौसम इस के लिए बहुत अनुकूल था। पिछले दो-तीन दिनों हुई बरसात ने वातावरण को भीगा-भीगा और कुछ कुछ सर्द तो कर ही दिया था। आज नगर के आस-पास के सभी पिकनिक स्पॉट आबाद थे। सभी महाराज भोजन बनाने के लिए पहले से बुक थे। 
शाम घर पहुँचने पर टीवी खोला तो न्यूज चैनलों पर बहसें चल रही थीं। विपक्ष इसे जनता का बंद साबित करने पर तुला हुआ था तो कांग्रेस कह रही थी कि विपक्ष सरकार में होता तो इस से भी बुरी हालत होती। विपक्षी दलों के प्रतिनिधि सोच रहे थे कि रोना ही यही है कि वे सरकार में नहीं हैं। यदि होते तो काँग्रेसी ये सब कर रहे होते जो उन्हें करना पड़ रहा है। जनता टीवी देखने में व्यस्त थी। हम सोच रहे थे कि गाड़ी कीचड़ में फँस गई है। निकाले नहीं निकल रही है। निकालने में एक और खतरा है कि कहीं टूट नहीं जाए। कोई एकाध पहिया कीचड़ में फंसा रह जाए तो और मुश्किल हो जाए। दूसरी कोई गाड़ी दूर-दूर तक नहीं दिखाई दे रही है कि इसे छोड़ उस में सफर किया जाए। अब ऐसे में क्या किया जाए?  कीचड़ सूखने का इंतजार ही किया जाए। कीचड़ सूखे शायद उस से पहले कोई अच्छा वाहन ही नजर आ जाए।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

एक राजनेता की मौत

हामहिम के देहांत का समाचार मिलने पर बहुत लोगों को शॉक (झटका) लगा था। वे अभी तीन माह पहले ही तो राज्य की राज्यपाल बनाए गए थे। उस समय किसी ने यह थोड़े ही सोचा था कि वे इतनी जल्दी विदा ले जाएँगे, और वे भी इस तरह पद पर बने रहते हुए। पर यह तो होता ही है, जो आता है वह जाता है। वैसे अभी उन की उम्र ही क्या थी? मात्र पिचहत्तर साल और डेढ़ माह से कुछ ऊपर। यह भी कोई इस दुनिया से विदा लेने की उम्र होती है। लोग तो 90 वर्ष की उम्र के बाद भी राजकीय पदों पर काम करते रहते हैं।  पर शायद उन का शरीर राजनीति में काम करते हुए बहुत थक गया था, या फिर वे शरीर से भारी थे कि दिल साथ न दे पाया। हो सकता है दिल को खून पहुँचाने वाली धमनियों में इतनी चर्बी जमा हो गई हो कि दिल को रक्त पहुँचना ही बंद हो गया और वह जवाब दे गया। सब से बड़े सरकारी अस्पताल तक पहुँचाए जाने के पहले वे अपने प्रसाधन कक्ष (टॉयलट) में अचेत पाए गए थे। चिकित्सकों ने अच्छी तरह जाँच कर ही घोषणा की कि वे अब हम से सदा के लिए विदा ले जा चुके हैं। 
न की मृत्यु से बहुत से लोगों को प्रसन्नता प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हुआ।  ये तमाम लोग या तो राज के  या फिर वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारी थे। ऐसा भी नहीं कि उन्हें ऐसा सुअवसर मुश्किल से ही प्राप्त होता हो।  जब भी किसी बड़े राजनेता की मृत्यु होती उन्हें ऐसा अवसर मिलता ही रहता था। सही भी है कि आप के पास बहुत से काम करने को हों। उन के कारण आप तनाव में डूबे हों। घर से पत्नी जी का फोन आया हो कि घंटे भर बाद आप के साले साहब अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ एक सप्ताह के लिए आ रहे हैं और आप को उन्हें लेने स्टेशन जाना है। तब अचानक यह समाचार मिले कि अवकाश हो गया है और अब दो दिन आप को कोई काम नहीं करना है, तो तनाव ऐसे गायब होगा ही, जैसे गधे के सिर से सींग। ऐसे में प्रसन्न होना अस्वाभाविक थोड़े ही है। ऐसे में प्रसन्नता ऐसे फूट पड़ती है जैसे रेगिस्तान में अचानक ठंडे और मीठे पानी के सोते फूट पड़े हों। राजनेता की मृत्यु से लगे शॉक के लिए यह अवकाश शॉक ऑब्जर्वर बन जाता है और दूसरे कई शॉक झेल जाता है।

प्रसन्न होने वाले ऐसे अनगिन लोगों के बीच बहुत से लोग ऐसे भी थे जिन्हें वाकई शॉक लगा था और फिर उस में डूब गए थे। ये वे लोग थे जो पहले ही किसी न किसी शोक में कांधे तक डूबे हुए थे। अवकाश की घोषणा ने उन के लिए शॉक ऑब्जर्वर के स्थान पर उलटा झटका देने का काम किया था। इन में एक तो बिलासी था। वह कंपनी की नौकरी में था और कंपनी के क्वार्टर में रहता था। नौकरी छूटी तो टाइपिंग की दुकान लगा  ली , जैसे तैसे घर चलाने लगा। पुश्तैनी मकान में पिताजी अपने जीते जी ही  किराएदार रख गए थे। कंपनी बंद हो गई। कंपनी ने मकान खाली करने का नोटिस दे दिया। उस ने किराएदार से मकान खाली करने को कहा तो किराएदार ने इन्कार कर दिया। बिलासी को घर का मकान होते हुए किराए के मकान में जाना पड़ा। मकान खाली कराने का मुकदमा किया उस की आखिरी पेशी थी, जज साहब बहस सुन कर फैसला देने वाले थे। अचानक अवकाश से बहस मुल्तवी हो गई। उसे जो शॉक लगा है उस से वह संभल नहीं पा रहा है।
धर एक महिला राशन कार्ड बनवाने की लाइन में खड़ी थी। राशनकार्ड न होने से उसे राशन का सस्ता आटा नहीं मिल रहा। मर्द दूसरे शहर में मजदूरी पर है। इधर तीन बच्चे हैं और वह है। सुबह कागज तैयार करवाने में चालीस रुपए खर्च हुए, कारपोरेटर के दस्तखत करवाने के लिए भटकने में तीस रुपए टूट गए। लाइन में बस चार आदमी और रह गए थे, उन के बाद पाँचवाँ नम्बर उसी का था कि खटाक से खिड़की बंद हो गई। सब के सब भोंचक्के रह गए। अभी तो लंच होने में भी सवा घंटा शेष है। पूछा तो पता लगा कि राज्यपाल का देहान्त हो गया है। तुरंत छुट्टी कर देने का हुकम फैक्स से आया है। कल भी छुट्टी रहेगी। परसों आइए। बेचारी औरत कह रही थी -बस आज आज का आटा खरीद कर घर पर रख कर आई हूँ। सोचा था आज राशनकार्ड मिल जाएगा तो कल राशन की दुकान से आटा खरीद लूंगी। अब बाजार से दो गुना कीमत का आटा खरीदना पड़ेगा। वह अपने खुदा को कोस रही थी कि उसे भी राज्यपाल को अपने घर बुलाने को यही वक्त मिला था. एक दिन ... क्या आधा घंटा और नहीं रुक सकता था कि उसे कम से कम राशनकार्ड तो मिल जाता।
घंटे भर में सारे सरकारी दफ्तर, सारी अदालतें बंद हो गईं। मुवक्किल जिन के काम अटके थे अपना मुहँ मसोस कर चल दिए। वकीलों के मुंशियों ने अपने अपने बस्ते बांधे और साइकिलों व बाइकों पर लाद दिए।  ज्यादातर वकील अदालत से चल दिए। कुछ अब भी वकालत खाने में ताश और शतरंज खेलने में मशगूल थे। ये वे थे जो वकील तो थे पर जिन के घर वकालत से नहीं बल्कि मकानों दुकानों के किरायों और उधार पर उठाई हुई रकम से चलते थे। इन्हें आधे दिन के अवकाश से तो कोई समस्या नहीं हुई थी। वे शाम पाँच बजे के पहले ताश और शतरंज छोड़ कर जाने वाले नहीं थे। पर अगले दिन के अवकाश से जरुर परेशान थे। सोच रहे थे कि कल का दिन कैसे बिताएँगे? ताश और शतरंज के लिए कौन सी जगह तलाशी जाएगी। गर्मी का मौसम न होता तो किसी पिकनिक स्पॉट पर चले जाते। गर्मी में तो वहाँ भी दिन बिताना भारी पड़ता है।