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बुधवार, 19 मई 2010

उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात

पिछली पोस्ट से आगे...
दो घण्टे भी न गुजरे थे कि एक बार फिर से घोड़ी की पीठ पर सवारी करनी पड़ी। बचपन में अपने मित्र बनवारी लखारा की घोड़ी की पीठ पर चढ़ कर उसे नदी किनारे पानी दिखाने खूब गए थे। पर तब आगे न तो बैंड होता था और न नाच हो रहा होता था। शाम को पाँच घण्टे की सवारी से अकड़ी कमर ठीक से सीधी भी न हो सकी थी कि फिर जलूस बन गया। इस बार जलूस सब से छोटे रास्ते से दुल्हिन के घर पहुँचा। तोरण को कटारी से छुआ कर अंदर पहुँचे तो कन्यादान के नाम पर दुल्हा-दुल्हिन के बाएँ हाथ की हथेलियों के बीच मेहन्दी और कुछ अन्य वनस्पतियों की पिसी लुगदी रख सूत के लच्छे से बांध दिए गए। फिर बंधे हाथ ही मंडप में पहुँचाए गए। भाँवरों की कार्यवाही आरंभ हुई। पंडित जी बहुत ही धीमे चल रहे थे। बारात में पंडित ही पंडित जो थे। उन्हें डर लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कोई विधि में कसर निकाल दे। पंडित जी के डर का बोझा सहना पड़ रहा था दुल्हा-दुल्हिन को।  भाँवर निपटते-निपटते सुबह चार बज रहे थे। जैसे ही वह सब निपटा सरदार ने चुपके से पंडित को अपने दाएँ हाथ की कनिष्ठिका दिखाई, वह समझ गया। उस ने तुरंत बंधे हाथ खोले सरदार को बाथरूम का रास्ता दिखा दिया। 
भाँवर से लौटने और दुल्हन को वापस मायके पहुँचा देने के बाद सरदार को कुछ आराम मिला। नौ बजते-बजते उसे फिर उठा दिया गया।  वह जल्दी से वह स्नानादि से निपटा तो उसे फिर से एक बार दुल्हिन के घर पहुँचा दिया गया। विदाई की रस्में हुई। दोपहर तक तक बारात फिर से बस में सवार थी। इस बार बस लाइन की नियमित बस थी। इस से बारात को पास के स्टेशन तक पहुँचना था, फिर वहाँ से ट्रेन से बारात लौटनी थी। सरदार के एक दादा जी बहुत होशियार थे। उन्हों ने पूरी बारात का टिकट लिया लेकिन कंडक्टर को इस बात के लिए मना लिया कि वह दुल्हा-दुल्हिन को फ्री ले जाएगा। जल्दी ही स्टेशन आ गया। वहाँ आधा घंटा विश्राम हुआ। बारात को चाय-पान मिला। इस बीच सरदार इस चक्कर में रहा कि किसी तरह घूँघट में छिपा दुल्हन का मुख मंडल दिख जाए। पर वह बहुत प्रयत्नों के साथ छुपा था, नहीं दिखना था सो नहीं ही दिखा। ट्रेन आई और बारात उस में सवार।  ट्रेन ने घंटे भर में ही बाराँ का प्लेटफॉर्म दिखा दिया।
ट्रेन से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म पर स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँच गया।  छोटे मामा उस पर खूब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार  गया और देर रात तक दोस्तों के साथ रहा। पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले ने टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात  के बारह बजने में सिर्फ कुछ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं, जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी थी और ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था , जिस के  ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे, नेग लेने को, और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से कुंडी बंद थी। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता।  बाहर जगराते में देवताओं को मनाते, गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर ने के पहले खोल न सकतीं थीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार, लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। सरदार अपना मुहँ दीवार की तरफ कर लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद दुल्हन का मुखड़ा दिखा, लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी?
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब भी रोशन हुआ। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, लेकिन सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। 

मंगलवार, 18 मई 2010

अठारह मई का वह दिन !!!

ठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।

हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?

सी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?

“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।

जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई। 

सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....


निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।

सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।

नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में

पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी।

लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई।  बहुत ही आत्मीयता से मिले।  मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं।  उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता।  जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ।  पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया।  बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा।  जिस में एक टेबल पर पीसी था।  पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है।  अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।

कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए।  तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था।  दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे।  हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया।  फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं।  तकनीकी तो थी हीं,  कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं।  रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे।  बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे।  पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका।  मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं।  उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे।  कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था।  इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था।  वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था।  हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।

घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं।  मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी।  अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था।  माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते।  हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे।  इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं।  भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए।  वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया।  यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं।  पंखा चल रहा था। नींद आ गई।

आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।  बाहर देखा तो शाम होने को थी।   मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे?  बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे।  अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है।  मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था।  पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे।  सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा।  मैं उन से सहमत हो गया।  समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया।  मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
चित्र
1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल,   2. पाबला जी के पिता जी और माता जी,   3. भिलाई स्टील प्लाण्ट,    4. पाबला जी का घर बाहर से और   5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)
 

और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा

विनोद जी और अनिता जी

अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं।  अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी।  उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे।  उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था।  शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो  पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी।  जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले।  उसे केईएम अस्पताल छोड़ा।  साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया।  वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे।   दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे।  इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं।  उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।

कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है।  उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा।  वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी।  उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी।  इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
बलविंदर सिंह पाबला
 
वैभव की स्थिति यह थी कि वह खुद भिलाई जा कर अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग प्रारंभ कर सकता था।   लेकिन पाबला जी का आग्रह यह था कि उस के साथ मैं  भी भिलाई पहुँचूँ और कम से कम तीन-चार दिनों के लिए वहाँ रुकूँ।  उस में मेरा स्वार्थ भी था कि मैं वहाँ पाबला जी के पुत्र से तीसरा खंबा की अपनी वेबसाइट डिजाइन करवा लेता।  लेकिन पूर्वा के साथ मुझे और शोभा को वल्लभगढ़ जाना आवश्यक था।  उस के लिए वहाँ मकान तलाशना जो उस के निवास के लिए उपयुक्त हो।  मैं ने इस परिस्थिति का उल्लेख पाबला जी से किया और कहा कि मैं एक दिन से अधिक नहीं रुक सकूंगा।  तो वे गुस्सा हो गए, कहने लगे आप के आने की भी क्या आवश्यकता है।  वैभव को भेज दीजिए काम हो जाएगा।  उन के गुस्से ने यह तय किया कि मैं भिलाई तीन दिन और दो रात रुकूंगा।   कोटा से भोपाल और भोपाल से दुर्ग तक का व वापसी का दुर्ग से भोपाल तक के आरक्षण करवा लिए गए।  अब हमें 26 जनवरी की रात को कोटा से चल कर 28 जनवरी सुबह दुर्ग पहुंचना था।  दुर्ग से मुझे 30 की शाम चल कर 31 को सुबह भोपाल और फिर बस या किसी अन्य साधन से कोटा पहुंचना था।  आखिर 2 फरवरी को मुझे, शोभा और पूर्वा को बल्लभगढ़ के लिए भी रवाना होना था।  जारी

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास

गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी।  कल रात ही वापस लौटा हूँ।  मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ।  लेकिन यह संभव नहीं हो सका।  पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ।  लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव  नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।  
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं।  लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है।  निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं।  जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं।   जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है।  ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं।  बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी  में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।

मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है।  उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।  

बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।  वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले।  मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही  कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है।  मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।

इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।

साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था।  उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी।  लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए।  एक माँ सवाल करने लगी,  कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी।  पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती।  उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए।  बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है।  बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं?  उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था।  उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए।  मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी।  पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी।  पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा

पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके।  उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया।  उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे।  पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया।  उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)

(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)

सोमवार, 28 जनवरी 2008

मुहब्बत बनी रहे, तो झगड़े में भी आनन्द है

स्त्री-पुरुष की समानता एक ऐसा विषय है जिस पर अनेक बातें की जा सकती हैं। यह भी कि विवाह संस्था के रहते समानता निरर्थक है। लेकिन इस रिश्ते में भी समानता होती है और कामों को बांट लेने से वह बाधित नहीं होती। किसी काम को हल्का या भारी नहीं कहा जा सकता है और उसे किसी की मानसिकता या व्यवहार का पैमाना नहीं बनाया जा सकता। मेरा इशारा उस बहस की ओर ही है जो उस चाय से आरम्भ हुई जिसे रीता भाभी बनाती हैं और जिस के ज्ञान जी के पीने से उत्पन्न हुई है।

मेरी पत्नी शोभा अच्छी कुक हैं। उस का बनाया भोजन जिस ने पाया है वह उस के रहते किसी दूसरे का बनाया खाना नहीं चाहता। मेरी माँ दस चाय और के हाथ की बनी पीने के बाद भी उस के हाथ की बनी चाय पीने की इच्छा को समाप्त नहीं कर पातीं। बच्चे उस के हाथ का बना भोजन करने को लालायित रहते हैं।

मैं साढ़े चार सुबह उठा हूँ। तेज सर्दी में उठते ही कॉफी की इच्छा हो रही है। रोज होती है। अपनी कॉफी बना कर पी सकता हूँ। पर इन्तजार कर रहा हूँ। कब शोभा उठे और कब कॉफी मिले। मैं जानता हूँ, वह छह के पहले नहीं उठेगी। सात भी बज सकते हैं। उसे पता है मैं उठ चुका हूँ। उस ने देख भी लिया है। पर वह वापस सो गयी है। उसे पता है कि उस ने उठ कर मुझे कॉफी बना कर दे दी, तो शायद मैं नाराज हो जाऊँ कि वह क्यों इतनी जल्दी उठ गई। हम एक दूसरे को जानते हैं, समझते हैं, हम में कोई बड़ा छोटा नहीं। हम ने काम बाँट लिए हैं। जो जिस काम को बेहतर कर सकता है, करता है। कभी कभी हम एक दूसरे के हिस्से का काम कर भी बैठते हैं, तो अपने नौसिखिएपन या काम को बेहतर तरीके से नहीं कर पाने के लिए एक दूसरे के मजाक के पात्र भी बनते हैं।

यह हमारा जीवन है। इस पर बहस की जा सकती है। करें तो हम उस का आनन्द ही लेंगे। मगर शोभा के हाथ की चाय या भोजन को पसंद करने वाला कोई आप की खबर लेने पर उतर आए तो मेरी कोई गारण्टी नहीं।

बात को इस अर्थ में लें कि हम में मुहब्बत है, मुहब्बत बनी रहे, तो झगड़े में भी आनन्द है।
मुहब्बत में कोई छोटा बड़ा नहीं होता, कोई असमान नहीं होता।
मेरे विचार में आगे कुछ भी कहने को नहीं बचा है।

इस के अलावा कि ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल के अलावा भी ज्ञान जी का एक अंग्रेजी ब्लॉग Gyandutt Pandey's Musings है।
इस पर मुझे उन का और रीता भाभी का एक चित्र और टिप्पणी
मिली है।
इसे जरूर देख लें-
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We - Eternal
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Rita and I are married for the last 27 years.
We have two children (Gyanendra and Vani).
Our relationship is forever getting new dimensions.