@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मुंशी प्रेमचंद
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सोमवार, 31 जुलाई 2023

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? – प्रेमचंद



भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रवाद की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण और निर्णायक रही है. लेकिन उस दौर में राष्ट्रवाद की कई किस्में मौजूद थीं. प्रभावशाली धारा वह थी जो राष्ट्रवाद के नाम पर अपने समाज में मौजूद भेदभाव, शोषण और अन्याय पर पर्दा डालती थी और इस तरह उसे बनाये रखती थी. हमारे राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप तय करने में इस धारा ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है. आज जब तरह–तरह के लोग राष्ट्रवादी होने का दावा कर रहे हैं तो उनके निहितार्थों की पहचान के लिहाज से (और राष्ट्रवाद की एक वैकल्पिक समझ निर्मित करने के लिहाज से भी) 8 जनवरी 1934 को ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख महत्त्वपूर्ण है.


यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें बहुत थोड़े आदमियों में आयी है. लेकिन इतना ज़रूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रीयता पर लम्बे–लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें ज़रूर यह जागृति आ गयी है और वह जात–पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गयीं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र–राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति–भेद का अंधकार छाया हुआ है. और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है. यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं. हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है. हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिंदू समाज पर प्रभुत्त्व बनाये रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव की धूल भी नहीं समझते. ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन–चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है. हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिंदू–जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते. हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा. और यह दस–पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है. उसका उद्यम यही है कि वह हिंदू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके. मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है.

अगर हिंदू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार–शासन को मिटाना होगा. हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिंदू ऐसा है, जो इस टके पंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं. निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चौधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की ज़रूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिंदू समाज को अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रीयता की हांक लगाकर भी भावी हिंदू समाज को पुरोहितों और पुजारियों ही का शिकार बनाये रखना चाहते हैं. मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिंदू–समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखें खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय ज़रा भी आपत्ति न की थी. वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते. हम उनका गला तो दबा न सकते थे. मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता. ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापीं, कि वे भी हिंदू समाज को टके पंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते. हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है. हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं. ब्राह्मण क्या इसे पसंद कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले–भाले हिंदुओं को ठगकर, बात–बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरें. यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसंद आ सकता है जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अधः स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बंद हैं. आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगेंगे. हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहितकुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपये साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया. आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा. ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो. सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, सरदार पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानंद हैं. वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए– ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश–पूजा और गौरी पूजा और अल्लम–गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाये नर्तकियों का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं.

हिंदू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है. और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढ़ंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख–धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाये रखता है. और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्ट्रवादी हैं. राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं. और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे.

कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निंदा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की सम्भावना भी नहीं रहती. इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच–नीच, पवित्र–अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की ज़िंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायें. ‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है. उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चौबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास–द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है. ऐसे चौबों को देखना हो, तो काशी या वृंदावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम  स्वराज्य संघ में चले जाइए, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे. और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई–बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे. हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि ज़रूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है.

निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिंदू समाज से कितने विरक्त हो जायेंगे. हम पूछते हैं कि महात्मा गांधी के हरिजन आंदोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिंदुओं ने कुचल रखा था. हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिंदू समाज में इसी तरह के पुजारियों, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे. निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते. हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है. ऐतिहासिक सत्य चुप–चुप करने से नहीं दब सकता. साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य. इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिंदू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता. इस अधोगति की दशा सुधार करना है. इसके प्रति घृणा फैलाइए, प्रेम फैलाइए, उपहास कीजिए या निंदा कीजिए सब जायज है और केवल हिंदू–समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिंदू–जाति को डुबोए डालता है. हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, मगर यह हमारी कमज़ोरी है कि बहुत–सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है. शायद इस साप्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय.

निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं. आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उनपर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बंद कर ली जाय. आदर्शवाद का जीता–जागता उदाहरण हरिजन–आंदोलन हमारी आंखों के सामने है. निर्मल जी को मंदिरों का खुलना और मंदिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, ज़हर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?

निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने हमें हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है. तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंचती है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता. फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है. हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है. हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के समाने रखो, चाहे हिंदू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो. इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा–भाव पाया है. और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साप्रदायिकता और यह अंधविश्वास हममें से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा. हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं. उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रवादी हैं. अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों की दहेज–प्रथा, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निंदा करे, तो मुझे ज़रा भी बुरा न लगेगा. कोई हमारी बुराई दिखाये और हमदर्दी से दिखाये, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता.

अंत में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करूंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व, के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महंतों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट्र-प्रेमियों की दृष्टि से गिर जाते हैं. आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं.


मंगलवार, 6 जून 2023

दो कब्रें

"कहानी"

  • प्रेमचंद

अब न वह यौवन है, न वह नशा, न वह उन्माद। वह महफिल उठ गई, वह दीपक बुझ गया, जिससे महफिल की रौनक थी। वह प्रेममूर्ति कब्र की गोद में सो रही है। हाँ, उसके प्रेम की छाप अब भी ह्रदय पर है और उसकी अमर स्मृति आँखों के सामने। वीरांगनाओं में ऐसी वफा, ऐसा प्रेम, ऐसा व्रत दुर्लभ है और रईसों में ऐसा विवाह, ऐसा समर्पण, ऐसी भक्ति और भी दुर्लभ। कुँवर रनवीरसिंह रोज बिला नागा संध्या समय जुहरा की कब्र के दर्शन करने जाते, उसे फूलों से सजाते, आँसुओं से सींचते। पंद्रह साल गुजर गये, एक दिन भी नागा नहीं हुआ। प्रेम की उपासना ही उनके जीवन का उद्देश्य था, उस प्रेम का जिसमें उन्होंने जो कुछ देखा वही पाया और जो कुछ अनुभव किया, उसी की याद अब भी उन्हें मस्त कर देती है। इस उपासना में सुलोचना भी उनके साथ होती, जो जुहरा का प्रसाद और कुँवर साहब की सारी अभिलाषाओं का केन्द्र थी।

कुँवर साहब ने दो शादियाँ की थीं, पर दोनों स्त्रियों में से एक भी संतान का मुँह न देख सकी। कुँवर साहब ने फिर विवाह न किया। एक दिन एक महफिल में उन्हें जुहरा के दर्शन हुए। उस निराश पति और अतृप्त युवती में ऐसा मेल, मानो चिरकाल से बिछुड़े हुए दो साथी फिर मिल गये हों।

जीवन का बसन्त विकास संगीत और सौरभ से भरा हुआ आया मगर अफसोस ! पाँच वर्षों के अल्पकाल में उसका भी अंत हो गया। वह मधुर स्वप्न निराशा से भरी हुई जागृति में लीन हो गया। वह सेवा और व्रत की देवी तीन साल की सुलोचना को उनकी गोद में सौंपकर सदा के लिए सिधार गई। कुँवर साहब ने इस प्रेमादेश का इतने अनुराग से पालन किया कि देखनेवालों को आश्चर्य होता था। कितने ही तो उन्हें पागल समझते थे।

सुलोचना ही की नींद सोते, उसी की नींद जागते, खुद पढ़ाते, उसके साथ सैर करते इतनी एकाग्रता के साथ, जैसे कोई विधवा अपने अनाथ बच्चे को पाले।

जब से वह यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई, उसे खुद मोटर में पहुँचा आते और शाम को खुद जाकर ले आते। वह उसके माथे पर से वह कलंक धो डालना चाहते थे, जो मानो विधता ने क्रूर हाथों से लगा दिया था। धन तोउसे न धो सका, शायद विद्या धो डाले। एक दिन शाम को कुँवर साहब जुहरा के मजार को फूलों से सजा रहे थे और सुलोचना कुछ दूर पर खड़ी अपने कुत्ते को गेंद खिला रही थी कि सहसा उसने अपने कालेज के प्रोफेसर डाक्टर रामेन्द्र को आते देखा। सकुचाकर मुँह फेर लिया, मानो उन्हें देखा नहीं। शंका हुई कहीं रामेन्द्र इस मजार के विषय में कुछ पूछ न बैठें।

यूनिवर्सिटी में दाखिल हुए उसे एक साल हुआ। इस एक साल में उसने प्रणय के विविधा रूपों को देख लिया था। कहीं क्रीड़ा थी, कहीं विनोद था, कहीं कुत्सा थी, कहीं लालसा थी, कहीं उच्छृंखलता थी, किन्तु कहीं वह सह्रदयता न थी, जो प्रेम का मूल है। केवल रामेन्द्र ही एक ऐसे सज्जन थे, जिन्हें अपनी ओर ताकते देखकर उसके ह्रदय में सनसनी होने लगती थी; पर उनकी आँखों में कितनी विवशता, कितनी पराजय, कितनी वेदना छिपी होती थी ! रामेन्द्र ने कुँवर साहब की ओर देखकर कहा, तुम्हारे बाबा इस कब्र पर क्या कर रहे हैं ?

सुलोचना का चेहरा कानों तक लाल हो गया। बोली, 'यह इनकी पुरानी आदत है।'

रामेन्द्र -'क़िसी महात्मा की समाधि है ?'

सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा। रामेन्द्र यह तो जानते थे कि सुलोचना कुँवर साहब की दाश्ता औरत की लड़की है; पर उन्हें यह न मालूम था कि यह उसी की कब्र है और कुँवर साहब अतीत-प्रेम के इतने उपासक हैं। मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था। कुँवर साहब जूते पहन रहे थे। यह प्रश्न उनके कान में पड़ गया। जल्दी से जूता पहन लिया और समीप जाकर बोले -'संसार की आँखों में तो वह महात्मा न थी; पर मेरी आँखों में थी और है। यह मेरे प्रेम की समाधि है।'

सुलोचना की इच्छा होती थी, यहाँ से भाग जाऊँ; लेकिन कुँवर साहब को जुहरा के यशोगान में आत्मिक आनन्द मिलता था। रामेन्द्र का विस्मय देखकर बोले इसमें वह देवी सो रही है, जिसने मेरे जीवन को स्वर्ग बना दिया था। यह सुलोचना उसी का प्रसाद है।'
रामेन्द्र ने कब्र की तरफ देखकर आश्चर्य से कहा, 'अच्छा !'

कुँवर साहब ने मन में उस प्रेम का आनन्द उठाते हुए कहा, 'वह जीवन ही और था, प्रोफेसर साहब। ऐसी तपस्या मैंने और कहीं नहीं देखी। आपको फुरसत हो, तो मेरे साथ चलिए। आपको उन यौवन-स्मृतियों ... सुलोचना बोल उठी, 'वे सुनाने की चीज नहीं हैं, दादा!'

कुँवर -'मैं रामेन्द्र बाबू को गैर नहीं समझता।'

रामेन्द्र को प्रेम का यह अलौकिक रूप मनोविज्ञान का एक रत्न-सा मालूम हुआ। वह कुँवर साहब के साथ ही उनके घर आये और कई घंटे तक उन हसरत में डूबी हुई प्रेम-स्मृतियों को सुनते रहे। जो वरदान माँगने के लिए उन्हें साल भर से साहस न होता था, दुबिधा में पड़कर रह जाते थे, वह आज उन्होंने माँग लिया।


लेकिन विवाह के बाद रामेन्द्र को नया अनुभव हुआ। महिलाओं का आना-जाना प्राय: बंद हो गया। इसके साथ ही मर्द दोस्तों की आमदरफ्त बढ़ गई। दिन भर उनका तांता लगा रहता था। सुलोचना उनके आदर-सत्कार में लगी रहती। पहले एक-दो महीने तक तो रामेन्द्र ने इधर ध्यान नहीं दिया; लेकिन जब कई महीने गुजर गये और स्त्रियों ने बहिष्कार का त्याग न किया तो उन्होंने एक दिन सुलोचना से कहा, 'यह लोग आजकल अकेले ही आते हैं !'

सुलोचना ने धीरे से कहा, 'हाँ, देखती तो हूँ।'

रामेन्द्र -'इनकी औरतें तो तुमसे परहेज नहीं करतीं ?'

सुलोचना -'शायद करती हों।'

रामेन्द्र -'मगर वे लोग तो विचारों के बड़े स्वाधीन हैं। इनकी औरतें भी शिक्षित हैं, फिर यह क्या बात है ?'

सुलोचना ने दबी जबान से कहा, 'मेरी समझ में कुछ नहीं आता।'

रामेन्द्र ने कुछ देर असमंजस में पड़कर कहा, 'हम लोग किसी दूसरी जगह चले जायँ, तो क्या हर्ज ? वहाँ तो कोई हमें न जानता होगा।'

सुलोचना ने अबकी तीव्र स्वर में कहा, 'दूसरी जगह क्यों जायें। हमने किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं है, किसी से कुछ माँगते नहीं। जिसे आना हो आये, न आना हो न आये। मुँह क्यों छिपायें।'

धीरे-धीरे रामेन्द्र पर एक और रहस्य खुलने लगा, जो महिलाओं के व्यवहार से कहीं अधिक घृणास्पद और अपमानजनक था। रामेन्द्र को अब मालूम होने लगा कि ये महाशय जो आते हैं और घंटों बैठे सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर बहसें किया करते हैं, वास्तव में विचार-विनिमय के लिए नहीं बल्कि रूप की उपासना के लिए आते हैं। उनकी आँखें सुलोचना को खोजती रहती हैं। उनके कान उसी की बातों की ओर लगे रहते हैं। उसकी रूप-माधुरी का आनंद उठाना ही उनका अभीष्ट है। यहाँ उन्हें वह संकोच नहीं होता, जो किसी भले आदमी की बहू-बेटी की ओर आँखें नहीं उठने देता। शायद वे सोचते हैं, यहाँ उन्हें कोई रोक-टोक नहीं है।

कभी-कभी जब रामेन्द्र की अनुपस्थिति में कोई महाशय आ जाते, तो सुलोचना को बड़ी कठिन परीक्षा का सामना करना पड़ता। अपनी चितवनों से, अपने कुत्सित संकेतों से, अपनी रहस्यपूर्ण बातों से, अपनी लम्बी साँसों से उसे दिखाना चाहते थे, कि हम भी तुम्हारी कृपा के भिखारी हैं। अगर रामेन्द्र का तुम पर सोलहों आना अधिकार है, तो थोड़ी-सी दक्षिणा के अधिकारी हम भी हैं। सुलोचना उस वक्त जहर का घूँट पीकर रह जाती। अब तक रामेन्द्र और सुलोचना दोनों क्लब जाया करते थे। वहाँ उदार सज्जनों का अच्छा जमघट रहता था। जब तक रामेन्द्र को किसी की ओर संदेह न था, वह उसे आग्रह करके अपने साथ ले जाते थे। सुलोचना के पहुँचते ही यहाँ एक स्फूर्ति-सी उत्पन्न हो जाती थी। जिस मेज पर सुलोचना बैठती, उसे लोग घेर लेते थे। कभी-कभी सुलोचना गाती थी। उस वक्त सब-के-सब उन्मत्त हो जाते। क्लब में महिलाओं की संख्या अधिक न थी। मुश्किल से पाँच-छ: लेडियाँ आती थीं; मगर वे भी सुलोचना से दूर-दूर रहती थीं, बल्कि अपनी भाव-भंगिमाओं और कटाक्षों से वे उसे जता देना चाहती थीं कि तुम पुरुषों का दिल खुश करो, हम कुल-वधुओं के पास तुम नहीं आ सकतीं। लेकिन जब रामेन्द्र पर इस कटु सत्य का प्रकाश हुआ, तो उन्होंने क्लब जाना छोड़ दिया, मित्रों के यहाँ आना-जाना भी कम कर दिया और अपने यहाँ आनेवालों की भी उपेक्षा करने लगे। वह चाहते थे कि मेरे एकांतवास में कोई विघ्न न डाले। आखिर उन्होंने बाहर आना-जाना छोड़ दिया। अपने चारों ओर छल-कपट का जाल-सा बिछा हुआ मालूम होता था, किसी पर विश्वास न कर सकते थे, किसी से सद्व्यवहार की आशा नहीं। सोचते ऐसे धूर्त, कपटी, दोस्ती की आड़ में गला काटनेवाले आदमियों से मिलें ही क्यों ? वे स्वभाव से मिलनसार आदमी थे। पक्के यारबाश। यह एकान्तवास जहाँ न कोई सैर थी, न विनोद, न कोई चहल-पहल, उनके लिए कठिन कारावास से कम न था। यद्यपि कर्म और वचन से सुलोचना की दिलजोई करते रहते थे; लेकिन सुलोचना की सूक्ष्म और सशंक आँखों से अब यह बात छिपी न थी कि यह अवस्था इनके लिए दिन-दिन असह्य होती जाती थी। वह दिल में सोचती इनकी यह दशा मेरे ही कारण तो है, मैं ही तो इनके जीवन का काँटा हो गई ! एक दिन उसने रामेन्द्र से कहा, 'आजकल क्लब क्यों नहीं चलते ? कई सप्ताह हुए घर से निकलते तक नहीं।

रामेन्द्र ने बेदिली से कहा, मेरा जी कहीं जाने को नहीं चाहता। अपना घर सबसे अच्छा है।'

सुलोचना-'ज़ी तो ऊबता ही होगा। मेरे कारण यह तपस्या क्यों करते हो ? मैं तो न जाऊँगी। उन स्त्रियों से मुझे घृणा होती है। उनमें एक भी ऐसी नहीं, जिसके दामन पर काले दाग न हों; लेकिन सब सीता बनी फिरती हैं। मुझे तो उनकी सूरत से चिढ़ हो गई है। मगर तुम क्यों नहीं जाते? कुछ दिल ही बहल जायगा।'

रामेन्द्र -'दिल नहीं पत्थर बहलेगा। जब अन्दर आग लगी हुई हो, तो बाहर शांति कहाँ ?'

सुलोचना चौंक पड़ी। आज पहली बार उसने रामेन्द्र के मुँह से ऐसी बात सुनी। वह अपने ही को बहिष्कृत समझती थी। अपना अनादर जो कुछ था, उसका था। रामेन्द्र के लिए तो अब भी सब दरवाजे खुले हुए थे। वह जहाँ चाहें जा सकते हैं, जिनसे चाहें, मिल सकते हैं, उनके लिए कौन-सी रुकावट है। लेकिन नहीं, अगर उन्होंने किसी कुलीन स्त्री से विवाह किया होता, तो उनकी यह दशा क्यों होती ? प्रतिष्ठित घरानों की औरतें आतीं, आपस में मैत्री बढ़ती, जीवन सुख से कटता; रेशम का पैबन्द लग जाता। अब तो उसमें टाट का पैबन्द लग गया। मैंने आकर सारे तालाब को गंदा कर दिया। उसके मुख पर उदासी छा गई। रामेन्द्र को भी तुरन्त मालूम हो गया कि उनकी जबान से एक ऐसी बात निकल गई जिसके दो अर्थ हो सकते हैं। उन्होंने फौरन बात बनाई -'क्या तुम समझती हो कि हम और तुम अलग-अलग हैं। हमारा और तुम्हारा जीवन एक है। जहाँ तुम्हारा आदर नहीं वहाँ मैं कैसे जा सकता हूँ। फिर मुझे भी समाज के इन रॅगे सियारों से घृणा हो रही है। मैं इन सबों के कच्चे चिट्ठे जानता हूँ। पद या उपाधि या धन से किसी की आत्मा शुद्ध नहीं हो जाती। जो ये लोग करते हैं, वह अगर कोई नीचे दरजे का आदमी करता, उसे कहीं मुँह दिखाने की हिम्मत न होती। मगर यह लोग अपनी सारी बुराइयाँ उदारतावाद के पर्दे में छिपाते हैं। इन लोगों से दूर रहना ही अच्छा।' सुलोचना का चित्त शांत हो गया।

दूसरे साल सुलोचना की गोद में एक चाँद-सी बालिका का उदय हुआ। उसका नाम रक्खा गया शोभा। कुँवर साहब का स्वास्थ्य इन दिनों कुछ अच्छा न था। मंसूरी गये थे। यह खबर पाते ही रामेन्द्र को तार दिया कि जच्चा और बच्चा को लेकर यहाँ आ जाओ। लेकिन रामेन्द्र इस अवसर पर न जाना चाहते थे। अपने मित्रों की सज्जनता और उदारता की अंतिम परीक्षा लेने का इससे अच्छा और कौन-सा अवसर हो सकता था। सलाह हुई, एक शानदार दावत दी जाय। प्रोग्राम में संगीत भी शामिल था। कई अच्छे-अच्छे गवैये बुलाये गये। अँग्रेजी, हिन्दुस्तानी, मुसलमानी सभी प्रकार के भोजनों का प्रबन्ध किया गया। कुँवर साहब गिरते-पड़ते मंसूरी से आये। उसी दिन दावत थी। नियत समय पर निमंत्रित लोग एक-एक करके आने लगे। कुँवर साहब स्वयं उनका स्वागत कर रहे थे। खाँ साहब आये, मिर्जा साहब आये, मीर साहब आये; मगर पंडितजी और बाबूजी और लाला साहब और चौधरी साहब और कक्कड़, मेहरा और चोपड़ा, कौल और हुक्कू, श्रीवास्तव और खरे किसी का पता न था। यह सभी लोग होटलों में सबकुछ खाते थे, अंडे और शराब उड़ाते थे इस विषय में किसी तरह का विवेक या विचार न करते थे। फिर आज क्यों तशरीफ नहीं लाये ? इसलिए नहीं कि छूत-छात का विचार था; बल्कि इसलिए कि वह अपनी उपस्थिति को इस विवाह के समर्थन की सनद समझते थे और वह सनद देने की उनकी इच्छा न थी। दस बजे रात तक कुँवर साहब फाटक पर खड़े रहे। जब उस वक्त तक कोई न आया, तो कुँवर साहब ने आकर रामेन्द्र से कहा, 'अब लोगों का इन्तजार फजूल है। मुसलमानों को खिला दो और बाकी सामान गरीबों को दिला दो।' रामेन्द्र एक कुर्सी पर हत्बुध्दि-से बैठे हुए थे।

कुंठित स्वर में बोले, 'ज़ी हाँ, यही तो मैं सोच रहा हूँ।'

कुँवर मैंने तो पहले ही समझ लिया था। हमारी तौहीन नहीं हुई। खुद उन लोगों की कलई खुल गई।'

रामेन्द्र -'ख़ैर, परीक्षा तो हो गई। कहिए तो अभी जाकर एक-एक की खबर लूँ।'

कुँवर साहब ने विस्मित होकर कहा, 'क्या उनके घर जाकर ?'

रामेन्द्र -'ज़ी हाँ। पूछूँ कि आप लोग जो समाज-सुधार का राग अलापते फिरते हैं, वह किस बल पर ?'

कुँवर -'व्यर्थ है। जाकर आराम से लेटो। नेक और बद की सबसे बड़ी पहचान अपना दिल है। अगर हमारा दिल गवाही दे कि यह काम बुरा नहीं तो फिर सारी दुनिया मुँह फेर ले, हमें किसी की परवाह न करनी चाहिए।'

रामेन्द्र -'लेकिन मैं इन लोगों को यों न छोडूँगा एक-एक की बखिया उधोड़कर न रख दूँ तो नाम नहीं।' यह कहकर उन्होंने पत्तल और सकोरे उठवा-उठवाकर कंगालों को देना शुरू किया। रामेन्द्र सैर करके लौटे ही थे कि वेश्याओं का एक दल सुलोचना को बधाई देने के लिए आ पहुँचा। जुहरा की एक सगी भतीजी थी, गुलनार। सुलोचना के यहाँ पहले बराबर आती-जाती थी। इधर दो साल से न आई थी। यह उसी का बधावा था। दरवाजे पर अच्छी-खासी भीड़ हो गई थी। रामेन्द्र ने यह शोरगुल सुना, गुलनार ने आगे बढ़कर उन्हें सलाम किया और बोली, 'बाबूजी, बेटी मुबारक, बधावा लाई हूँ।'

रामेन्द्र पर मानो लकवा-सा गिर गया। सिर झुक गया और चेहरे पर कालिमा-सी पुत गई। न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले। बस मूर्तिवत् खड़े रह गये। एक बाजारी औरत से नाता पैदा करने का ख्याल इतना लज्जास्पद था, इतना जघन्य कि उसके सामने सज्जनता भी मौन रह गई। इतना शिष्टाचार भी न कर सके कि सबों को कमरे में ले जाकर बिठा तो देते। आज पहली ही बार उन्हें अपने अध:पतन का अनुभव हुआ। मित्रों की कुटिलता और महिलाओं की उपेक्षा को वह उनका अन्याय समझते थे, अपना अपमान नहीं, लेकिन यह बधावा उनकी अबाध उदारता के लिए भी भारी था। सुलोचना का जिस वातावरण में पालन-पोषण हुआ था, वह एक प्रतिष्ठित हिन्दू कुल का वातावरण था। यह सच है कि अब भी सुलोचना नित्य जुहरा के मजार की परिक्रमा करने जाती थी; मगर जुहरा अब एक पवित्र स्मृति थी, दुनिया की मलिनताओं और कलुषताओं से रहित। गुलनार से नातेदारी और परस्पर का निबाह दूसरी बात थी। जो लोग तसवीरों के सामने सिर झुकाते हैं, उन पर फूल चढ़ाते हैं, वे भी तो मूर्ति-पूजा की निन्दा करते हैं। एक स्पष्ट है, दूसरा सांकेतिक। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा आँखों से छिपा हुआ।

सुलोचना अपने कमरे में चिक की आड़ में खड़ी रामेन्द्र का असमंजस और क्षोभ देख रही थी। जिस समाज को उसने अपना उपास्य बनाना चाहा था, जिसके द्वार पर सिजदे करते उसे बरसों हो गये थे, उसकी तरफ से निराश होकर, उसका ह्रदय इस समय उससे विद्रोह करने पर तुला हुआ था। उसके जी में आता था ग़ुलनार को बुलाकर गले लगा लूँ ? जो लोग मेरी बात भी नहीं पूछते, उनकी खुशामद क्यों करूँ ? यह बेचारियाँ इतनी दूर से आई हैं मुझे अपना ही समझकर तो। उनके दिल में प्रेम तो है, यह मेरे दु:ख-सुख में शरीक होने को तैयार तो हैं। आखिर रामेन्द्र ने सिर उठाया और शुष्क मुस्कान के साथ गुलनार से बोले -'आइए, आप लोग अन्दर चली आइए। यह कहकर वह आगे-आगे रास्ता दिखाते हुए दीवानखाने की ओर चले कि सहसा महरी निकली और गुलनार के हाथ में एक पुर्जा देकर चली गयी। गुलनार ने वह पुर्जा लेकर देखा और उसे रामेन्द्र के हाथ में देकर वहीं खड़ी हो गई। रामेन्द्र ने पुर्जा देखा, लिखा था,--'बहन गुलनार, तुम यहाँ नाहक आई। हम लोग यों ही बदनाम हो रहे हैं। अब और बदनाम मत करो, बधावा वापस ले जाओ। कभी मिलने का जी चाहे, रात को आना और अकेली। मेरा जी तुमसे गले लिपटकर रोने के लिए तड़प रहा है मगर मजबूर हूँ।'

रामेन्द्र ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया और उद्दण्ड होकर बोले, 'इन्हें लिखने दो। मैं किसी से नहीं डरता। अन्दर आओ।'

गुलनार ने एक कदम पीछे फिरकर कहा, 'नहीं बाबूजी, अब हमें आज्ञा दीजिए।'

रामेन्द्र -'एक मिनट तो बैठो।'

गुलनार -'ज़ी नहीं। एक सेकिंड भी नहीं।' गुलनार के चले जाने के बाद रामेन्द्र अपने कमरे में जा बैठे। जैसी पराजय उन्हें आज हुई, वैसी पहले कभी नहीं हुई। वह आत्माभिमान, वह सच्चा क्रोध, जो अन्याय के ज्ञान से पैदा होता है, लुप्त हो गया था। उसकी जगह लज्जा थी और ग्लानि। इसे बधावे की क्यों सूझ गई। यों तो कभी आती-जाती न थी, आज न जाने कहाँ से फट पड़ी। कुँवर साहब होंगे इतने उदार। उन्होंने जुहरा के नातेदारों से भाईचारे का निबाह किया होगा, मैं इतना उदार नहीं हूँ। कहीं सुलोचना छिपकर इसके पास आती-जाती तो नहीं ! लिखा भी तो है कि मिलने का जी चाहे, तो रात को आना और अकेली क्यों न हो, खून तो वही है, मनोवृत्ति वही, विचार वही, आदर्श वही। माना, कुँवर साहब के घर में पालन-पोषण हुआ; मगर रक्त का प्रभाव इतनी जल्दी नहीं मिट सकता। अच्छा, दोनों बहनें मिलती होंगी तो उनमें क्या बातें होती होंगी ? इतिहास या नीति की चर्चा तो हो नहीं सकती। वही निर्लज्जता की बातें होती होंगी। गुलनार अपना वृत्तांत कहती होगी, उस बाजार के खरीदारों और दूकानदारों के गुण-दोषों पर बहस होती होगी। यह तो हो ही नहीं सकता कि गुलनार इसके पास आते ही अपने को भूल जाय और कोई भद्दी, अनर्गल और कलुषित बातें न करे। एक क्षण में उनके विचारों ने पलटा खाया मगर आदमी बिना किसी से मिले-जुले रह भी तो नहीं सकता, यह भी तो एक तरह की भूख है। भूख में अगर शुद्ध भोजन न मिले, तो आदमी जूठा खाने से भी परहेज नहीं करता। अगर इन लोगों ने सुलोचना को अपनाया होता, उसका यों बहिष्कार न करते, तो उसे क्यों ऐसे प्राणियों से मिलने की इच्छा होती। उसका कोई दोष नहीं, यह सारा दोष परिस्थितियों का है, जो हमारे अतीत की याद दिलाती रहती हैं। रामेन्द्र इन्हीं विचारों में पड़े हुए थे कि कुँवर साहब आ पहुँचे और कटु स्वर में बोले, 'मैंने सुना गुलनार अभी बधावा लाई थी, तुमने उसे लौटा दिया।'

रामेन्द्र का विरोध सजीव हो उठा। बोले -'मैंने तो नहीं लौटाया, सुलोचना ने लौटाया। पर मेरे ख्याल में अच्छा किया।'

कुँवर -'तो यह कहो तुम्हारा इशारा था। तुमने इन पतितों को अपनी ओर खींचने का कितना अच्छा अवसर हाथ से खो दिया है ! सुलोचना को देखकर जो कुछ असर पड़ा, वह तुमने मिटा दिया। बहुत संभव था कि एक प्रतिष्ठित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का आरम्भ करता, मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न दिया।' रामेन्द्र ने कोई जवाब न दिया। कुँवर साहब जरा उत्तेजित होकर बोले, 'आप लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि हरेक बुराई मजबूरी से होती है। चोर इसलिए चोरी नहीं करता कि चोरी में उसे विशेष आनन्द आता है; बल्कि केवल इसलिए कि जरूरत उसे मजबूर कर देती है। हाँ, वह जरूरत वास्तविक है या काल्पनिक इसमें मतभेद हो सकता है। स्त्री के मैके जाते समय कोई गहना बनवाना एक आदमी के लिए जरूरी हो सकता है। दूसरे के लिए बिलकुल गैर जरूरी। क्षुधा से व्यथित होकर एक आदमी अपना ईमान खो सकता है, दूसरा मर जायगा पर किसी के सामने हाथ न फैलायेगा, पर प्रकृति का यह नियम आप जैसे विद्वानों को न भूलना चाहिए कि जीवन-लालसा प्राणिमात्र में व्यापक है। जिंदा रहने के लिए आदमी सबकुछ कर सकता है। जिंदा रहना जितना ही कठिन होगा, बुराइयाँ भी उसी मात्र में बढ़ेंगी, जितना ही आसान होगा उतनी ही बुराइयाँ कम होंगी। हमारा यह पहला सिध्दान्त होना चाहिए कि जिंदा रहना हरेक के लिए सुलभ हो। रामेन्द्र बाबू, आपने इस वक्त इन लोगों के साथ वही व्यवहार किया जो दूसरे आपके साथ कर रहे हैं और जिससे आप बहुत दु:खी हैं।'

रामेन्द्र ने इस लंबे व्याख्यान को इस तरह सुना, जैसे कोई पागल बक रहा हो। इस तरह की दलीलों का वह खुद कितनी ही बार समर्थन कर चुके थे; पर दलीलों से व्यथित अंग की पीड़ा नहीं शांत होती। पतित स्त्रियों का नातेदार की हैसियत से द्वार पर आना इतना अपमानजनक था कि रामेन्द्र किसी दलील से पराभूत होकर उसे भूल न सकते थे। बोले -'मैं ऐसे प्राणियों से कोई संबंध नहीं रखता। यह विष अपने घर में नहीं फैलाना चाहता!' सहसा सुलोचना भी कमरे में आ गई। प्रसवकाल का असर अभी बाकी था; पर उत्तेजना ने चेहरे को आरक्त कर रखा था। रामेन्द्र सुलोचना को देखकर तेज हो गये। वह उसे जता देना चाहते थे कि इस विषय में मैं एक रेखा तक जा सकता हूँ, उसके आगे किसी तरह नहीं जा सकता। बोले, 'मैं यह कभी पसंद न करूँगा कि कोई बाजारी औरत किसी भेष में मेरे घर आये। रात को अकेले या सूरत बदलकर आने से इस बुराई का असर नहीं मिट सकता। मैं समाज के दंड से नहीं डरता, इस नैतिक विष से डरता हूँ।'


सुलोचना अपने विचार में मर्यादा-रक्षा के लिए काफी आत्मसमर्पण कर चुकी थी। उसकी आत्मा ने अभी तक उसे क्षमा न किया था। तीव्र स्वर में बोली, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं इस कैद में अकेले जान दे दूँ ! कोई तो हो जिससे आदमी हँसे, बोले !'

रामेन्द्र ने गर्म होकर कहा, 'हँसने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ विवाह न करना चाहिए था। विवाह का बंधन बड़ी हद तक त्याग का बंधन है। जब तक संसार में इस विधान का राज्य है और स्त्री कुलमर्यादा की रक्षक समझी जाती है, उस वक्त तक कोई मर्द यह स्वीकार न करेगा कि उसकी पत्नी बुरे आचरण के प्राणियों से किसी प्रकार का संसर्ग रक्खे।'

कुँवर साहब समझ गये कि इस वाद-विवाद से रामेन्द्र और भी जिद पकड़ लेंगे और मुख्य विषय लुप्त हो जायगा, इसलिए नम्र स्वर में बोले, 'लेकिन बेटा, यह क्यों ख्याल करते हो कि ऊँचे दरजे की पढ़ी-लिखी स्त्री दूसरों के प्रभाव में आ जायगी, अपना प्रभाव न डालेगी ?'

रामेन्द्र, 'इस विषय में शिक्षा पर मेरा विश्वास नहीं। शिक्षा ऐसी कितनी बातों को मानती है, जो रीति-नीति और परंपरा की दृष्टि से त्याज्य हैं। अगर पाँव फिसल जाय तो हम उसे काटकर फेंक नहीं देते। पर मैं इस के सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हूँ। मैं स्पष्ट कह देना चाहता हूँ कि मेरे साथ रहकर पुराने संबंधों का त्याग करना पड़ेगा ! इतना ही नहीं, मन को ऐसा बना लेना पड़ेगा कि ऐसे लोगों से उसे खुद घृणा हो। हमें इस तरह अपना संस्कार करना पड़ेगा कि समाज अपने अन्याय पर लज्जित हो, न यह कि हमारे आचरण ऐसे भ्रष्ट हो जायँ कि दूसरों की निगाह में यह तिरस्कार औचित्य का स्थान पा जाय।

सुलोचना ने उद्धत होकर कहा, स्त्री इसके लिए मजबूर नहीं है कि वह आपकी आँखों से देखे और आपके कानों से सुने। उसे यह निश्चय करने का अधिकार है कि कौन-सी चीज उसके हित की है, कौन-सी नहीं।'

कुँवर साहब भयभीत होकर बोले, 'सिल्लो, तुम भूली जाती हो कि बातचीत में हमेशा मुलायम शब्दों का व्यवहार करना चाहिए। हम झगड़ा नहीं कर रहे हैं, केवल एक प्रश्न पर अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं।

सुलोचना ने निर्भीकता से कहा, 'ज़ी नहीं, मेरे लिए बेड़ियाँ तैयार की जा रही हैं। मैं इन बेड़ियों को नहीं पहन सकती। मैं अपनी आत्मा को उतना ही स्वाधीन समझती हूँ, जितना कोई मर्द समझता है।'

रामेन्द्र ने अपनी कठोरता पर कुछ लज्जित होकर कहा, 'मैंने तुम्हारी आत्मा की स्वाधीनता को छीनने की कभी इच्छा नहीं की। और न मैं इतना विचारहीन हूँ। शायद तुम भी इसका समर्थन करोगी। लेकिन क्या तुम्हें विपरीत मार्ग पर चलते देखूँ तो मैं तुम्हें समझा भी नहीं सकता ?'


सुलोचना -'उसी तरह जैसे मैं तुम्हें समझा सकती हूँ। तुम मुझे मजबूर नहीं कर सकते।'
रामेन्द्र -'मैं इसे नहीं मान सकता।'

सुलोचना -'अगर मैं अपने किसी नातेदार से मिलने जाऊँ, तो आपकी इज्जत में बट्टा लगता है। क्या इसी तरह आप यह स्वीकार करेंगे कि आपका व्यभिचारियों से मिलना-जुलना मेरी इज्जत में दाग लगाता है ?'

रामेन्द्र -'हाँ, मैं मानता हूँ।'

सुलोचना -'आपका कोई व्यभिचारी भाई आ जाय, तो आप उसे दरवाजे से भगा देंगे ?'

रामेन्द्र -'तुम मुझे इसके लिए मजबूर नहीं कर सकतीं।'


सुलोचना -'और आप मुझे मजबूर कर सकते हैं ?’

'बेशक।'

'क्यों ?'

'इसीलिए कि मैं पुरुष हूँ, इस छोटे-से परिवार का मुख्य अंग हूँ। इसीलिए कि तुम्हारे ही कारण मुझे ...' रामेन्द्र कहते-कहते रुक गये। पर सुलोचना उनके मुँह से निकलनेवाले शब्दों को ताड़ गई। उसका चेहरा तमतमा उठा, मानो छाती में बरछी-सी लग गई। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी क्षण घर छोड़कर, सारी दुनिया से नाता तोड़कर चली जाऊँ और फिर इन्हें कभी मुँह न दिखाऊँ। अगर इसी का नाम विवाह है कि किसी की मर्जी की गुलाम होकर रहूँ, अपमान सहन करूँ, तो ऐसे विवाह को दूर ही से सलाम है। वह तैश में आकर कमरे से निकलना चाहती थी कि कुँवर साहब ने लपककर उसे पकड़ लिया और बोले, 'क्या करती हो बेटी, घर में जाओ, क्यों रोती हो ? अभी तो मैं जीता हूँ, तुम्हें क्या गम है ? रामेन्द्र बाबू ने कोई ऐसी बात नहीं कही और न कहना चाहते थे। फिर आपस की बातों का क्या बुरा मानना। किसी अवसर पर तुम भी जो जी में आये कह लेना।' यों समझाते हुए कुँवर साहब उसे अन्दर ले गये। वास्तव में सुलोचना कभी गुलनार से मिलने की इच्छुक न थी। वह उससे स्वयं भागती थी। एक क्षणिक आवेश में उसने गुलनार को वह पुरजा लिख दिया था। मन में स्वयं समझती थी, इन लोगों से मेल-जोल रखना मुनासिब नहीं, लेकिन रामेन्द्र ने यह विरोध किया, यही उसके लिए असह्य था। यह मुझे मना क्यों करें?

'क्या मैं इतना भी नहीं समझती ? क्या इन्हें मेरी ओर से इतनी शंका है !'

'इसीलिए तो, कि मैं कुलीन नहीं हूँ !'

'मैं अभी-अभी गुलनार से मिलने जाऊँगी, जिद्दन जाऊँगी; देखूँ मेरा क्या करते हैं।'

लाड़-प्यार में पली हुई सुलोचना को कभी किसी ने तीखी आँखों से न देखा था। कुँवर साहब उसकी मर्जी के गुलाम थे। रामेन्द्र भी इतने दिनों उसका मुँह जोहते रहे। आज अकस्मात् यह तिरस्कार और फटकार पाकर उसकी स्वेच्छा प्रेम और आत्मीयता के सारे नातों को पैरों से कुचल डालने के लिए विकल हो उठी। वह सबकुछ सह लेगी पर यह धौंस, यह अन्याय, यह अपमान उससे न सहा जायगा।

उसने खिड़की से सिर निकालकर कोचवान को पुकारा और बोली, 'ग़ाड़ी लाओ, मुझे चौक जाना है, अभी लाओ।'

कुँवर साहब ने चुमकारकर कहा, 'बेटी सिल्लो, क्या कर रही हो, मेरे ऊपर दया करो। इस वक्त कहीं मत जाओ, नहीं हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा। रामेन्द्र बाबू भी बड़े गुस्सेवर आदमी हैं। फिर तुमसे बड़े हैं, ज्यादा विचारवान हैं, उन्हीं का कहना मान जाओ। मैं तुमसे सच कहता हूँ। तुम्हारी माँ जब थीं, तो कई बार ऐसी नौबत आई कि मैंने उनसे कहा, घर से निकल जाओ, पर उस प्रेम की देवी ने कभी डयोढ़ी के बाहर पाँव नहीं निकाला। इस वक्त धैर्य से काम लो ! मुझे विश्वास है, जरा देर में रामेन्द्र बाबू खुद लज्जित होकर तुम्हारे पास अपराध क्षमा कराने आयेंगे।' सहसा रामेन्द्र ने आकर पूछा, 'ग़ाड़ी क्यों मँगवाई ? कहाँ जा रही हो ?' रामेन्द्र का चेहरा इतना क्रोधोन्मत्त हो रहा था, कि सुलोचना सहम उठी। दोनों आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। नथने फड़क रहे थे, पिंडलियाँ काँप रही थीं। यह कहने की हिम्मत न पड़ी कि गुलनार के घर जाती हूँ। गुलनार का नाम सुनते ही शायद यह मेरी गर्दन पर सवार हो जायेंगे इस भय से वह काँप उठी। आत्मरक्षा का भाव प्रबल हो गया। बोली, 'ज़रा अम्माँ के मजार तक जाऊँगी।'

रामेन्द्र ने डॉटकर कहा, 'क़ोई जरूरत नहीं वहाँ जाने की।'

सुलोचना ने कातर स्वर में कहा, 'क्यों अम्माँ के मजार तक जाने की भी रोक है ?'

रामेन्द्र ने उसी ध्वनि में कहा, 'हाँ।

'सुलोचना -'तो फिर अपना घर सम्हालो, मैं जाती हूँ।'

रामेन्द्र -'ज़ाओ, तुम्हारे लिए क्या, यह न सही दूसरा घर सही !'

अभी तक तस्मा बाकी था, वह कट गया। यों शायद सुलोचना वहाँ से कुँवर साहब के बँगले पर जाती, दो-चार दिन रूठी रहती, फिर रामेन्द्र उसे मना लाते और मामला तय हो जाता, लेकिन इस चोट ने समझौते और संधि की जड़ काट दी। सुलोचना दरवाजे तक पहुँची थी, वहीं चित्रलिखित-सी खड़ी रह गई। मानो किसी ऋषि के शाप ने उसके प्राण खींच लिये हों। वहीं बैठ गई। न कुछ बोल सकी, न कुछ सोच सकी। जिसके सिर पर बिजली गिर पड़ी हो, वह क्या सोचे, क्या रोये, क्या बोले। रामेन्द्र के वे शब्द बिजली से कहीं अधिक घातक थे।

सुलोचना कब तक वहाँ बैठी रही, उसे कुछ खबर न थी। जब उसे कुछ होश आया तो घर में सन्नाटा छाया हुआ था। घड़ी की तरफ आँख उठी, एक बज रहा था। सामने आरामकुर्सी पर कुँवर साहब नवजात शिशु को गोद में लिये सो गये थे। सुलोचना ने उठकर बरामदे में झाँका, रामेन्द्र अपने पलंग पर लेटे हुए थे। उसके जी में आया, इसी वक्त इन्हीं के सामने जाकर कलेजे में छुरी मार लूँ और इन्हीं के सामने तड़प-तड़पकर मर जाऊँ। वह घातक शब्द याद आ गये। इनके मुँह से ऐसे शब्द निकले क्योंकर। इतने चतुर, इतने उदार और इतने विचारशील होकर भी यह जुबान पर ऐसे शब्द क्योंकर ला सके। उसका सारा सतीत्व, भारतीय आदर्शों की गोद में पली हुई भूमि पर आसक्त पड़ी हुई अपनी दीनता पर रो रहा था। वह सोच रही थी, अगर मेरे नाम पर यह दाग न होता, मैं भी कुलीन होती, तो क्या यह शब्द इनके मुँह से निकल सकते थे ? लेकिन मैं बदनाम हूँ, दलित हूँ, त्याज्य हूँ, मुझे सबकुछ कहा, जा सकता है। उफ, इतना कठोर ह्रदय। क्या वह किसी दशा में भी रामेन्द्र पर इतना कठोर प्रहार कर सकती थी ? बरामदे में बिजली की रोशनी थी। रामेन्द्र के मुख पर क्षोभ या ग्लानि का नाम भी न था। क्रोध की कठोरता अब तक उसके मुख को विकृत किए हुए थी। शायद इन आँखों में आँसू देखकर अब भी सुलोचना के आहत ह्रदय को तसकीन होती; लेकिन वहाँ तो अभी तक तलवार खिंची हुई थी। उसकी आँखों में सारा संसार सूना हो गया।

सुलोचना फिर अपने कमरे में आई। कुँवर साहब की आँखें अब भी बन्द थीं। इन चन्द घंटों ही में उनका तेजस्वी मुख कांतिहीन हो गया था। गालों पर आँसुओं की रेखाएं सूख गई थीं। सुलोचना ने उनके पैरों के पास बैठकर सच्ची भक्त िके आँसू बहाये। हाय ! मुझ अभागिनी के लिए इन्होंने कौन-कौन से कष्ट नहीं झेले, कौन-कौन से अपमान नहीं सहे, अपना सारा जीवन ही मुझ पर अर्पण कर दिया और उसका यह ह्रदय-विदारक अन्त। सुलोचना ने फिर बच्ची को देखा; मगर उसका गुलाब का-सा विकसित मुँह देखकर भी उसके ह्रदय में ममता की तरंग न उठी। उसने उसकी तरफ से मुँह फेर लिया। यही वह अपमान की मूर्तिमान वेदना है, जो इतने दिनों मुझे भोगनी पड़ी। मैं इसके लिए क्यों अपने प्राण संकट में डालूँ। अगर उसके निर्दयी पिता को उससे प्रेम है, तो उसको पाले। और एक दिन वह भी उसी तरह रोये, जिस तरह आज मेरे पिता को रोना पड़ रहा है। ईश्वर अबकी अगर जन्म देना, तो किसी भले आदमी के घर जन्म देना ...

जहाँ जुहरा का मज़ार था उसी के बगल में एक दूसरा मज़ार बना हुआ है। जुहरा के मज़ार पर घास जम आई है; जगह-जगह से चूना गिर गया है, लेकिन दूसरा मज़ार बहुत साफ-सुथरा और सजा हुआ है। उसके चारों तरफ गमले रखे हुए हैं और मज़ार तक जाने के लिए गुलाब के बेलों की रविशें बनी हुई हैं ?

शाम हो गई है। सूर्य की क्षीण, उदास, पीली किरणें मानो उस मज़ार पर आँसू बहा रही हैं। एक आदमी एक तीन-चार साल की बालिका को गोद में लिये हुए आया और उस मज़ार को अपने रूमाल से साफ करने लगा। रविशों में जो पत्तियाँ पड़ी थीं उन्हें चुनकर साफ किया और मज़ार पर सुगंध छिड़कने लगा। बालिका दौड़-दौड़कर तितलियों को पकड़ने लगी। यह सुलोचना का मज़ार है। उसकी आखिरी नसीहत थी, कि मेरी लाश जलाई न जाय, मेरी माँ की बगल में मुझे सुला दिया जाय। कुँवर साहब तो सुलोचना के बाद छ: महीने से ज्यादा न चल सके। हाँ, रामेन्द्र अपने अन्याय का पश्चात्ताप कर रहे हैं। शोभा अब तीन साल की हो गई है और उसे विश्वास है कि एक दिन उसकी माँ इसी मज़ार से निकलेगी !



बुधवार, 8 मार्च 2023

बेटों वाली विधवा


"कहानी" 
- प्रेमचंद

पंडित अयोध्यानाथ का देहान्त हुआ तो सबने कहा, ईश्वर आदमी की ऐसी ही मौत दे। चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों के विवाह हो चुके थे, केवल लड़की क्वॉँरी थी। सम्पत्ति भी काफी छोड़ी थी। एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। विधवा फूलमती को शोक तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसे ढाढ़स हुआ। चारों लड़के एक-से-एक सुशील, चारों बहुऍं एक-से-एक बढ़कर आज्ञाकारिणी। जब वह रात को लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पॉँव दबातीं; वह स्नान करके उठती, तो उसकी साड़ी छॉँटती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कामता एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकर था, छोटा उमानाथ डाक्टरी पास कर चुका था और कहीं औषधालय खोलने की फिक्र में था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और पत्रिकाओं में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे कुशाग्र बुद्धि और होनहार था और अबकी साल बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था। किसी लड़के में वह दुर्व्यसन, वह छैलापन, वह लुटाऊपन न था, जो माता-पिता को जलाता और कुल-मर्यादा को डुबाता है। फूलमती घर की मालकिन थी। गोकि कुंजियॉँ बड़ी बहू के पास रहती थीं बुढ़िया में वह अधिकार-प्रेम न था, जो वृद्धजनों को कटु और कलहशील बना दिया करता है; किन्तु उसकी इच्छा के बिना कोई बालक मिठाई तक न मँगा सकता था।

संध्या हो गई थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरहीं हैं। ब्रह्मभोज होगा। बिरादरी के लोग निमंत्रित होंगे। उसी की तैयारियॉँ हो रही थीं। फूलमती अपनी कोठरी में बैठी देख रही थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टिन आ रहें हैं। शाक-भाजी के टोकरे, शक्कर की बोरियॉँ, दही के मटके चले आ रहें हैं। महापात्र के लिए दान की चीजें लाई गईं-बर्तन, कपड़े, पलंग, बिछावन, छाते, जूते, छड़ियॉँ, लालटेनें आदि; किन्तु फूलमती को कोई चीज नहीं दिखाई गई। नियमानुसार ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती उसे पसंद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का फैसला करती; तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गई? अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पॉँच ही कनस्तर है। उसने तो दस कनस्तर मंगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदि में भी कमी की गई होगी। किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?

     आज चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ खर्च किए गए, एक कहा तो एक। किसी ने मीन-मेख न की। यहॉँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरूद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी ऑंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा रही है! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती?

     कुछ देर तक तो वह जब्त किए बैठी रही; पर अंत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली-क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पॉँच ही टिन मँगवाया! तुम्हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा था? किफायत को मैं बुरा नहीं समझती; लेकिन जिसने यह कुऑं खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है!

     कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार न की, लज्जित भी नहीं हुआ। एक मिनट तो विद्रोही भाव से खड़ा रहा, फिर बोला-हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पॉँच टिन घी काफी था। इसी हिसाब से और चीजें भी कम कर दी गई हैं।

     फूलमती उग्र होकर बोली-किसकी राय से आटा कम किया गया?

     हम लोगों की राय से।

     तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?’

     है क्यों नहीं; लेकिन अपना हानि-लाभ तो हम समझते हैं?’

     फूलमती हक्की-बक्की होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। अपना हानि-लाभ! अपने घर में हानि-लाभ की जिम्मेदार वह आप है। दूसरों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ही क्यों न हों, उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार? यह लौंडा तो इस ढिठाई से जवाब दे रहा है, मानो घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो गैर हूँ! जरा इसकी हेकड़ी तो देखो।

उसने तमतमाए हुए मुख से कहा मेरे हानि-लाभ के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अख्तियार है, जो उचित समझूँ, वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पॉँच टिन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।

     अपने विचार में उसने काफी तम्बीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ किफायत करनी चाहिए। मुझसे इसलिए न पूछा होगा कि अम्मा तो खुद हरेक काम में किफायत करती हैं। अगर इन्हें मालूम होता कि इस काम में मैं किफायत पसंद न करूँगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यपि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसकी भावभंगी से ऐसा ज्ञात होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिए वह बहुत उत्सुक नहीं, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में चली गयी। इतनी तम्बीह पर भी किसी को अवज्ञा करने की सामर्थ्य हो सकती है, इसकी संभावना का ध्यान भी उसे न आया।

     पर ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा, उस पर यह हकीकत खुलने लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। सम्बंधियों के यहॉँ के नेवते में शक्कर, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वामिनी-भाव से सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहॉँ का बड़ा इंतजामकार है, रात-दिन भंग पिये पड़ा रहता हैं किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह नागों से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी का लिहाज करता है, नहीं अब तक कभी का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े-लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने! भद होगी और क्या। सब मिलकर कुल की नाक कटवाऍंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जाएगी कि मारी-मारी फिरेगा। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहूँचेगी, किसी पर नहीं। आखिर इन सबों को हो क्या गया है! अच्छा, बहू तिजोरी क्यों खोल रही है? वह मेरी आज्ञा के बिना तिजोरी खोलनेवाली कौन होती है? कुंजी उसके पास है अवश्य; लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तिजोरी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे न बर्दाश्त होगा!

     वह झमककर उठी और बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली-तिजोरी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?

     बड़ी बहू ने निस्संकोच भाव से उत्तर दिया-बाजार से सामान आया है, तो दाम न दिया जाएगा।

     कौन चीज किस भाव में आई है और कितनी आई है, यह मुझे कुछ नहीं मालूम! जब तक हिसाब-किताब न हो जाए, रूपये कैसे दिये जाऍं?’

     हिसाब-किताब सब हो गया है।

     किसने किया?’

     अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे हुक्म मिला, रूपये लाकर दे दो, रूपये लिये जाती हूँ!

     फूलमती खून का घूँट पीकर रह गई। इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था। घर में मेहमान स्त्री-पुरूष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डॉँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गई। दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली गयी। जब मेहमान विदा हो जायेंगे, तब वह एक-एक की खबर लेगी। तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी।

     किन्तु कोठरी के एकांत में भी वह निश्चिन्त न बैठी थी। सारी परिस्थिति को गिद्घ दृष्टि से देख रही थी, कहॉँ सत्कार का कौन-सा नियम भंग होता है, कहॉँ मर्यादाओं की उपेक्षा की जाती है। भोज आरम्भ हो गया। सारी बिरादरी एक साथ पंगत में बैठा दी गई। ऑंगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पॉँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बिठाए जायेंगे? दो पंगतों में लोग बिठाए जाते तो क्या बुराई हो जाती? यही तो होता है कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त होता; मगर यहॉँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोएं! लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। पूरियां ठंडी हो गईं। लोग गरम-गरम मॉँग रहें हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी होकर चिमड़ी हो जाती हैं। इन्हें कौन खाएगा? रसोइए को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा दिया गया? यही सब बातें नाक काटने की हैं।

     सहसा शोर मचा, तरकारियों में नमक नहीं। बड़ी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती क्रोध के मारे ओ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मुँह न खोल सकती थी। बोरे-भर नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा-पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ! ठंडे पानी का कोई प्रबन्ध न था, बर्फ भी न मँगाई गई। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात गए बर्फ कहॉँ? आदमी खाली हाथ लौट आया। मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोच लेती। ऐसी छीछालेदर उसके घर में कभी न हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरते हैं। बर्फ जैसी जरूरी चीज मँगवाने की भी किसी को सुधि न थी! सुधि कहॉँ से रहे-जब किसी को गप लड़ाने से फुर्सत न मिले। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोज देने और घर में बर्फ तक नहीं!

     अच्छा, फिर यह हलचल क्यों मच गई? अरे, लोग पंगत से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?

     फूलमती उदासीन न रह सकी। कोठरी से निकलकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पूछा-क्या बात हो गई लल्ला? लोग उठे क्यों जा रहे हैं? कामता ने कोई जवाब न दिया। वहॉँ से खिसक गया। फूलमती झुँझलाकर रह गई। सहसा कहारिन मिल गई। फूलमती ने उससे भी यह प्रश्न किया। मालूम हुआ, किसी के शोरबे में मरी हुई चुहिया निकल आई। फूलमती चित्रलिखित-सी वहीं खड़ी रह गई। भीतर ऐसा उबाल उठा कि दीवार से सिर टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे। इस फूहड़पन की कोई हद है, कितने आदमियों का धर्म सत्यानाश हो गया! फिर पंगत क्यों न उठ जाए? ऑंखों से देखकर अपना धर्म कौन गॅवाएगा? हा! सारा किया-धरा मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों रूपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।

     मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के ऑंगन में लज्जित खड़े थे। एक दूसरे को इलजाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर बिगड़ रही थी। देवरानियॉँ सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त फूलमती झल्लाई हुई आकर बोली-मुँह में कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी हैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्लू-भर पानी में! शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे।

     किसी लड़के ने जवाब न दिया।

     फूलमती और भी प्रचंड होकर बोली-तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की मरजाद बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा नहीं!

     कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुंझला कर बोला-अच्छा, अब चुप रहो अम्मॉँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भंयकर भूल हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल-कर डालोगी? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?

     बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी-हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी! हमारा क्या दोष!

     कामतानाथ ने पत्नी को डॉँटा-इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हारा, न मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती! टोकरे-के-टोकरे उड़ेल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना होती है। पर इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो!

     फूलमती ने दांत पीसकर कहा-शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।

     कामतानाथ ने नि:संकोच होकर कहा-शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गई। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को खबर भी न होती।

     फूलमती ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?

     कामता हँसकर बोला-क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्मॉँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गए हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। जरा-सी चुहिया में क्या रखा था!

     फूलमती को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है। जब पढे-लिखे आदमियों के मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें। अपना-सा मुंह लेकर चली गयी।

 

2

 

दो

 महीने गुजर गए हैं। रात का समय है। चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी षड्यंत्र में शरीक है। कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है।

     कामतानाथ ने मसनद पर टेक लगाते हुए कहा-दादा की बात दादा के साथ गई। पंडित विद्वान् भी हैं और कुलीन भी होंगे। लेकिन जो आदमी अपनी विद्या और कुलीनता को रूपयों पर बेचे, वह नीच है। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद का विवाह सेंत में भी न करेंगे, पॉँच हजार तो दूर की बात है। उसे बताओ धता और किसी दूसरे वर की तलाश करो। हमारे पास कुल बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पॉँच-पॉँच हजार आते हैं। पॉँच हजार दहेज में दे दें, और पॉँच हजार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारी बधिया ही बैठ जाएगी।

     उमानाथ बोले-मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है। मैं अपने हिस्से में से एक पाई भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।

     दयानाथ एक समाचार-पत्र देख रहे थे। ऑंखों से ऐनक उतारते हुए बोले-मेरा विचार भी एक पत्र निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का कैपिटल चाहिए। पॉँच हजार मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जाएगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा निर्वाह नहीं हो सकता।

     कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहाअजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छपता नहीं, रूपये कौन देता है।

     दयानाथ ने प्रतिवाद कियानहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना पेशगी पुरस्कार लिये नहीं लिखता।

     कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लियेतुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।

     बड़ी बहू ने श्रद्घा भाव ने कहाकन्या भग्यवान् हो तो दरिद्र घर में भी सुखी रह सकती है। अभागी हो, तो राजा के घर में भी रोएगी। यह सब नसीबों का खेल है।

     कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशंसा-भाव से देखा-फिर इसी साल हमें सीता का विवाह भी तो करना है।

     सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाए भाइयों की स्वार्थ-भरी बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोलामेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें। मैं जब तक किसी धंधे में न लग जाऊँगा, विवाह का नाम भी न लूँगा; और सच पूछिए तो मैं विवाह करना ही नहीं चाहता। देश को इस समय बालकों की जरूरत नहीं, काम करने वालों की जरूरत है। मेरे हिस्से के रूपये आप कुमुद के विवाह में खर्च कर दें। सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उचित नहीं है कि पंडित मुरारीलाल से सम्बंध तोड़ लिया जाए।

     उमा ने तीव्र स्वर में कहादस हजार कहॉँ से आऍंगे?

सीता ने डरते हुए कहामैं तो अपने हिस्से के रूपये देने को कहता हूँ।

और शेष?’

मुरारीलाल से कहा जाए कि दहेज में कुछ कमी कर दें। वे इतने स्वार्थान्ध नहीं हैं कि इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो जाऍं, अगर वह तीन हजार में संतुष्ट हो जाएं तो पॉँच हजार में विवाह हो सकता है।

     उमा ने कामतानाथ से कहासुनते हैं भाई साहब, इसकी बातें।

     दयानाथ बोल उठे-तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है? मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला, हममे कोई तो त्याग करने योग्य है। इन्हें तत्काल रूपये की जरूरत नहीं है। सरकार से वजीफा पाते ही हैं। पास होने पर कहीं-न-कहीं जगह मिल जाएगी। हम लोगों की हालत तो ऐसी नहीं है।

     कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दियानुकसान की एक ही कही। हममें से एक को कष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे? यह अभी लड़के हैं, इन्हें क्या मालूम, समय पर एक रूपया एक लाख का काम करता है। कौन जानता है, कल इन्हें विलायत जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल जाए या सिविल सर्विस में आ जाऍं। उस वक्त सफर की तैयारियों में चार-पॉँच हजार लग जाएँगे। तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज के पीछे इनकी जिन्दगी नष्ट हो जाए।

     इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोलाहॉँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रूपये की जरूरत होगी।

क्या ऐसा होना असंभव है?’

असभंव तो मैं नहीं समझता; लेकिन कठिन अवश्य है। वजीफे उन्हें मिलते हैं,  जिनके पास सिफारिशें होती हैं, मुझे कौन पूछता है।

     कभी-कभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफारिश वाले बाजी मार ले जाते हैं।

     तो आप जैसा उचित समझें। मुझे यहॉँ तक मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊँ; पर कुमुद अच्छे घर जाए।

     कामतानाथ ने निष्ठाभाव से कहाअच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ कि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाए और कोई ऐसा घर खोजा जाए, जो थोड़े में राजी हो जाए। इस विवाह में मैं एक हजार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे हैं?

     उमा ने प्रसन्न होकर कहाबहुत अच्छे। एम.ए., बी.ए. न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है।

     दयानाथ ने आपत्ति कीअम्मॉँ से भी पूछ तो लेना चाहिए।

कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मालूम हुई। बोले-उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई। वही पुराने युग की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाए बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह जमाना नहीं रहा। उनको तो बस, कुमुद मुरारी पंडित के घर जाए, चाहे हम लोग तबाह हो जाऍं।

     उमा ने एक शंका उपस्थित कीअम्मॉँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।

     कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले-गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका स्त्रीधन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।

उमा ने कहास्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आखिर वह भी तो दादा ही की कमाई है।

किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है!

यह कानूनी गोरखधंधे हैं। बीस हजार में तो चार हिस्सेदार हों और दस हजार के गहने अम्मॉँ के पास रह जाऍं। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह मुरारी पंडित के घर करेंगी।

उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह कपट-नीति में कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं। कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहाभाई, मैं इन चालों को पसंद नहीं करता।

उमानाथ ने खिसियाकर कहागहने दस हजार से कम के न होंगे।

कामता अविचलित स्वर में बोलेकितने ही के हों; मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।

तो आप अलग बैठिए। हां, बीच में भांजी न मारिएगा।

मैं अलग रहूंगा।

और तुम सीता?’

अलग रहूंगा।

लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया। दस हजार में ढ़ाई हजार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ कौशल भी करना पड़े तो क्षम्य है।

 

3

 

फू

लमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गए। दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भरी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर पूछातुम दोनों घबड़ाए हुए मालूम होते हो?

     उमा ने सिर खुजलाते हुए कहासमाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्मा! कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पॉँच हजार की जमानत मॉँगी गई है। अगर कल तक जमा न कर दी गई, तो गिरफ्तार हो जाऍंगे और दस साल की सजा ठुक जाएगी।

     फूलमती ने सिर पीटकर कहाऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?

     दयानाथ ने अपराधीभाव से उत्तर दियामैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी; लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना कड़ा है कि जरा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौंड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।

     तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा?’

     उमा ने मुँह बनायाउनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाए, वह एक पाई न देंगे।

     दयानाथ ने समर्थन कियामैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।

     फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहाचलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रूपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?

     उमानाथ ने माता को रोककर कहा-नहीं अम्मा, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचाऍंगे। उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।

     फूलमती ने लाचार होकर कहातो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हॉँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।

     दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोलायह तो नहीं हो सकता अम्मा, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पॉँच साल की कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!

     फूलमती छाती पीटते हुए बोलीकैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूंगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!

     उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।

     दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की ऑंखों से देखा और बोलाआपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्मा को बताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?

     उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहायह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्मा को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्मॉँ के गहने गिरों रखे जाऍं।

     फूलमती ने व्यथित कंठ से पूछाक्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूँ, गहनों की बिसात ही क्या है।

     दया ने दृढ़ता से कहाअम्मा, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।

     फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा-अगर यों न लोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरों रख दूँगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर जमानत जमा कर आऊँगी; अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी ले लो। ऑंखें बंद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान् जानें, लेकिन जब तक जीती हूँ तुम्हारी ओर कोई तिरछी आंखों से देख नहीं सकता।

     उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहाअब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रहा दयानाथ। क्या हरज है, ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ही हाथ में रूपये आ जाऍं, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्घा रखनी चाहिए, उसका शतांश भी नहीं रखते।

     दोनों ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी सँभाली और चलते बने। माता वात्सल्य-भरी ऑंखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी संपूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भग्न मातृ-हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनन्द की विभूति मिली। उसकी स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिए, इसी आत्मसमर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूँढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ या ममता की वहॉँ गँध तक न थी। त्याग ही उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधिकार है। आज अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने

प्राणों की भेंट करके वह निहाल हो गई।

 

4

 

ती

न महीने और गुजर गये। मॉँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखाऍं। अगर थोड़े-से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन की, पर माता से सलाह ले लेते या ऐसा जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था; लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचते पर राजी हो गई, किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। मॉँ पं. पुरारीलाल पर जमी हुई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गई।

     फूलमती ने कहामॉँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला, पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में क्या पॉँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?

     कामता ने नम्रता से कहाअम्मॉँ, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जाऍंगी; पर हमार और उसका बहुत दिनों तक सम्बन्ध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो; लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा जीवित थे, तब और बात थी। वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था; लेकिन अब तो हमें एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम हजार में हो जाए, उसके लिए पॉँच हजार खर्च करना कहॉँ की बुद्धिमानी है?

     उमानाथ से सुधारापॉँच हजार क्यों, दस हजार कहिए।

     कामता ने भवें सिकोड़कर कहानहीं, मैं पाँच हजार ही कहूँगा; एक विवाह में पॉँच हजार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है।

     फूलमती ने जिद पकड़कर कहाविवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, पॉँच हजार खर्च हो, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी ऑंखों में तुम सब बराबर हो। मैं किसी से कुछ मॉँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सबकुछ कर लूँगी। बीस हजार में पॉँच हजार कुमुद का है।

कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा। बोला-अम्मा, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रूपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं; तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।

     फूलमती को जैसे सर्प ने डस लियाक्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रूपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?

     वह रूपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गए।

     तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।

     नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गए!

     उमानाथ ने बेहयाई से कहाअम्मा, कानूनकायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।

     फूलमती क्रोधविहृल रोकर बोलीभाड़ में जाए तुम्हारा कानून। मैं ऐसे कानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छॉँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हजार खर्च किए हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।

     कामतानाथ भी गर्म पड़ाआपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।

     उमानाथ ने बड़े भाई को डॉँटाआप खामख्वाह अम्मॉँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहॉँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-कानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।

     फूलमती ने संयमित स्वर में कहीअच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनूँ।

     उमा ने निरीह भाव से कहाकानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। मॉँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।

     फूलमती ने तड़पकर पूछाकिसने यह कानून बनाया है?

     उमा शांत स्थिर स्वर में बोलाहमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?

     फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोलीतो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?

     उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहातुम जैसा समझो।

     फूलमती की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिगांरियों की भॉँति यह शब्द निकल पड़ेमैंने घर बनवाया, मैंने संपत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है? और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहता स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छॉँह में खड़ी हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाए।

     चारों युवक पर माता के इस क्रोध और आंतक का कोई असर न हुआ। कानून का फौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन कॉँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?

     जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे अग्निकुंड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो गया।

     संध्या हो गई थी। द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए, निस्तब्ध खड़ा था, मानो संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलवती के मातृत्व ही की भॉँति अपनी चिता में जल रहा था।

 

 

5

 

फू

लमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गई है। पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनुमान न था। जिन लड़कों को उसने अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाला, वही आज उसके हृदय पर यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे कॉँटों की सेज हो रहा था। जहॉँ उसकी कुछ कद्र नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहॉँ अनाथों की भांति पड़ी रोटियॉँ खाए, यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिए असह्य था।

     पर उपाय ही क्या था? वह लड़कों से अलग होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी! संसार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को थूके तो क्या; बदमानी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरी करके पेट पाल रही है! जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अनादर से कहीं ज्यादा हृदयविदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने में ही कुशल है। हाँ, अब उसे अपने को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक स्वामिनी बनकर रही, अब लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। ईश्वर की यही इच्छा है। अपने बेटों की बातें और लातें गैरों ककी बातों और लातों की अपेक्षा फिर भी गनीमत हैं।

वह बड़ी देर तक मुँह ढॉँपे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गई। शरद् का प्रभाव डरता-डरता उषा की गोद से निकला, जैसे कोई कैदी छिपकर जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने नियम के विरूद्ध आज लड़के ही उठी, रात-भर मे उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आंगन में झाडू लगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की जमीन उसके नंगे पैरों में कॉँटों की तरह चुभ रही थी। पंडितजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लिए बहुत हानिकारक था। पर अब वह दिन नहीं रहे। प्रकृति उस को भी समय के साथ बदल देने का प्रयत्न कर रही थी। झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की कंकड़ियॉँ चुनने लगी। कुछ देर में लड़के जागे। बहुऍं उठीं। सभों ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा; पर किसी ने यह न कहा कि अम्मॉँ, क्यों हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बुढ़िया के इस मान-मर्दन पर प्रसन्न थे।

     आज से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और अंतरंग नीति से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक आत्मगौरव झलकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई नजर आती थी। जहां बिजली जलती थी, वहां अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था, जिसे बुझा देने के लिए हवा का एक हलका-सा झोंका काफी है।

     मुरारीलाल को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चुकी थी। दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया। दीनदयाल से कुमुद का विवाह निश्चित हो गया। दीनदयाल की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी, मर्यादा में भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बिना किसी ठहराव के विवाह करने पर राजी हो गए। तिथि नियत हुई, बारात आयी, विवाह हुआ और कुमुद बिदा कर दी गई फूलमती के दिल पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है; पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का कॉँटा निकल गया हो। ऊँचे कुल की कन्या, मुँह कैसे खोलती? भाग्य में सुख भोगना लिखा होगा, सुख भोगेगी; दुख भोगना लिखा होगा, दुख झेलेगी। हरि-इच्छा बेकसों का अंतिम अवलम्ब है। घरवालों ने जिससे विवाह कर दिया, उसमें हजार ऐब हों, तो भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है। प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था।

     फूलमती ने किसी काम मे दखल न दिया। कुमुद को क्या दिया गया, मेहमानों का कैसा सत्कार किया गया, किसके यहॉँ से नेवते में क्या आया, किसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सलाह भी ली गई तो यही-बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मुझसे क्या पूछते हो!

     जब कुमुद के लिए द्वार पर डोली आ गई और कुमुद मॉँ के गले लिपटकर रोने लगी, तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और जो कुछ सौ पचास रूपये और दो-चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे, बेटी की अंचल में डालकर बोलीबेटी, मेरी तो मन की मन में रह गई, नहीं तो क्या आज तुम्हारा विवाह इस तरह होता और तुम इस तरह विदा की जातीं!

     आज तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी। लड़कों ने उसके साथ जो कपट-व्यवहार किया था, इसे चाहे अब तक न समझी हो, लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न मिलेंगे और मनोमालिन्य बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा; लेकिन इस अवसर पर उसे अपनी सफाई देने की जरूरत मालूम हुई। कुमुद यह भाव मन मे लेकर जाए कि अम्मां ने अपने गहने बहुओं के लिए रख छोड़े, इसे वह किसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में ले गयी थी। लेकिन कुमुद को पहले ही इस कौशल की टोह मिल चुकी थी; उसने गहने और रूपये ऑंचल से निकालकर माता के चरणों में रख दिए और बोली-अम्मा, मेरे लिए तुम्हारा आशीर्वाद लाखों रूपयों के बराबर है। तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न जाने अभी तुम्हें किन विपत्तियों को सामना करना पड़े।

     फूलमती कुछ कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहाक्या कर रही है कुमुद? चल, जल्दी कर। साइत टली जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे हैं, फिर तो दो-चार महीने में आएगी ही, जो कुछ लेना-देना हो, ले लेना।

     फूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोली-मेरे पास अब क्या है भैया,  जो इसे मैं दूगी? जाओ बेटी, भगवान् तुम्हारा सोहाग अमर करें।

कुमुद विदा हो गई। फूलमती पछाड़ गिर पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट हो गई।

 

6

 

क साल बीत गया।

फूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा और हवादार था। कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिए खाली कर दिया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में रहने लगी, जैसे कोई भिखारिन हो। बेटों और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था, वह अब घर की लौंडी थी। घर के किसी प्राणी, किसी वस्तु, किसी प्रसंग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इसलिए जीती थी कि मौत न आती थी। सुख या दु:ख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था।

उमानाथ का औषधालय खुला, मित्रों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सीतानाथ को वजीफा मिला और विलायत गया, फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, फिर धूम-धाम हुई; लेकिन फूलमती के मुख पर आनंद की छाया तक न आई! कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपत्तिजनक लेख लिखा और छ: महीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक फौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर गलत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गई; पर फूलमती के चेहरे पर रंज की परछाईं तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। बस, पशुओं की तरह काम करना और खाना, यही उसकी जिन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह। महीनों सिर में तेल न पड़ता, महीनों कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नहीं। चेतनाशून्य हो गई थी।

     सावन की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में मटियाले बादल थे, जमीन पर मटियाला पानी। आर्द्र वायु शीत-ज्वर और श्वास का वितरणा करती फिरती थी। घर की महरी बीमार पड़ गई। फूलमती ने घर के सारे बरतन मॉँजे, पानी में भीग-भीगकर सारा काम किया। फिर आग जलायी और चूल्हे पर पतीलियॉँ चढ़ा दीं। लड़कों को समय पर भोजन मिलना चाहिए। सहसा उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते। उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली।

     कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा-रहने दो अम्मा, मैं पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।

     फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहातुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।

     कामतानाथ बोलेतुम भी तो भीग रही हो। कहीं बीमार न पड़ जाओ।

     फूलमती निर्मम भाव से बोलीमैं बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान् ने अमर कर दिया है।

     उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत चिन्तित था। भाई-भवाज की मुँहदेखी करता रहता था। बोलाजाने भी दो भैया! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी है, उसका प्रायश्चित्त तो करने दो।

     गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियॉँ  पानी के ऊपर रह गई थीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गए थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पॉँव फिसला। सँभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गईं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए-अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है। दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गई थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय कॉँप उठता था।

     एक ने पूछायह कौन बुढ़िया थी?

     अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।

     अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’

     हॉँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।

     उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?’

     हॉँ, सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!