@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मार्क्सवाद
मार्क्सवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मार्क्सवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 1 अगस्त 2020

रजनी पाम दत्त और फासीवाद

_______________ Jagadishwar Chaturvedi


रजनी पाम दत्त 

रजनी पाम दत्त का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में महत्वपूर्ण स्थान है।उन्होंने लंबे समय तक स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में भी अग्रणी नेता के रूप में भूमिका अदा की।वे कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रमुख सिद्धांतकार हैं।

भारत इन दिनों नरेन्द्र मोदी और आरएसएस की राजनीति के मोह में जिस तरह बंधा है उससे मुक्त होने के लिए जरूरी है कि हम रजनी पाम दत्त के फासीवाद विरोधी नजरिए की प्रमुख धारणाओं को जानें। भारत में जिसे अधिनायकवाद,तानाशाही या साम्प्रदायिकता कहते हैं ये सब फासीवाद के ही रूप है।देशज परिस्थितियों के कारण उनके लक्षणों में कुछ भिन्नता जरूर नजर आती है,लेकिन उसकी बुनियादी प्रवृत्तियां फासीवाद से मिलती-जुलती हैं।

रजनी पाम दत्त के अनुसार ´फासीवाद खास परिस्थितियों में आधुनिक पूंजीवादी नीतियों और प्रवृत्तियों में पतन की पराकाष्ठा आने से पैदा होने वाली चीज है और यह उसी पतन की संपूर्ण और सतत अभिव्यक्ति करता है।

आमतौर पर यह धारणा रही है कि फासीवाद में तमाम किस्म की स्वतंत्रताएं स्थगित कर दी जाती हैं, संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक अधिकार, मौलिक अधिकार आदि को स्थगित कर दिया जाता है, भारत में हम सबने यह आपातकाल में महसूस किया है।लेकिन यह भी संभव है कि संवैधानिक संस्थाओं, मूल्यों और मान्यताओं को लोकतंत्र के रहते निष्क्रिय बना दिया जाए,जैसा कि इन दिनों भारत में हो रहा है। रजनी पाम दत्त ने फासीवादी संगठनों की भूमिका पर रोशनी डालते हुए लिखा कि अनेक देशों में फासीवाद का जन्म जनता के बीच आंदोलन खड़ा करके और जनता के वोट से सत्ता हासिल करके हुआ है। फासीवादी आंदोलनकारी आम जनता में आतंक पैदा करके ,कानून की परवाह न करने वाली गिरोहबंदियों को बनाकर, संसदीय परंपराओं की अनदेखी करके, राष्ट्रीय और सामाजिक तौर पर भड़काऊ भाषणबाजी करके,विरोधी दलों और मजदूरों के संगठनों का हिंसात्मक दमन और आतंक के राज की स्थापना करके एकाधिकारी राज्य स्थापित करने की कोशिश करते हैं।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´खुद फासीवादियों की नजर में फासीवाद एक आध्यात्मिक वास्तविकता है।ये इसे एक विचारधारा और दर्शन के रूप में परिभाषित करते हैं।वे इसे ´कर्तव्य´,´आदेश´,´सत्ता´,´राज्य´,´राष्ट्र´,´इतिहास´ आदि का सिद्धांत बताते हैं।´ रजनी पाम दत्त के अनुसार ´प्रत्येक देश में फासीवाद के सभी खुले और बड़े समर्थक बुर्जुआ वर्ग के ही हैं।´यही हाल भारत का है।दत्त ने लिखा ´फासीवाद अपने शुरूआती दौर में भले ही आम लोगों का समर्थन हासिल करने के लिए पूंजीवाद विरोधी प्रचार और भाषणबाजी करे लेकिन शुरू से ही इसे जीवित रखने ,बढ़ाने और पालने-पोसने का काम बड़े बुर्जुआ तथा बड़े धनपति,सामंत और उद्योगपति ही करते हैं।

´इतना ही नहीं फासीवाद को बढ़ाने और मजदूर वर्ग के आंदोलन से बचाने में भी बुर्जुआ तानाशाही की स्पष्ट भूमिका रही है।फासीवाद सरकारी बलों, सेना के उच्चाधिकारियों,पुलिस के अफसरों,अदालतों और जजों से मदद पाता रहा है क्योंकि वे सभी मजदूर वर्ग के विरोध को कुचलना चाहते हैं जबकि फासीवादी गैरकानूनीपन को मदद करते रहते हैं।

सन् 1928 के कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यक्रम में फासीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या अभिव्यक्त हुई है, लिखा है,´कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक स्थितियों में बुर्जुआ,साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी आक्रामकता की प्रगति फासीवाद का रूप ले लेती है।ये स्थितियां हैः पूंजीवादी संबंधों में अस्थिरता;काफी बड़ी संख्या में वर्गच्युत सामाजिक तत्वों की मौजूदगी; शहरी पेटीबुर्जुआ समूह और बौद्धिक वर्ग का दरिद्रीकरण; ग्रामीण पेटीबुर्जुआ वर्ग में असंतोष; और सर्वहारा वर्ग द्वारा क्रांति कर देने का दवाब या डर।अपने शासन को जारी रखने और स्थिर करने के लिए बुर्जुआ वर्ग संसदीय प्रणाली को छोड़कर फासीवादी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जाने को मजबूर होता है,जो पार्टियों वाली व्यवस्था और जोड़-तोड़ से मुक्त होती है।

फासीवादी शासन प्रत्यक्ष तानाशाही की व्यवस्था है,जिसपर ´राष्ट्रवादी´होने का मुखौटा चढ़ा होता है और खुद को ´पेशेवर´(जो शासक जमात के ही विभिन्न समूह होते हैं)वर्ग का प्रतिनिधि कहता है।पेटीबुर्जुआ वर्ग,बौद्धिकों और समाज के अन्य वर्गों की नाराजगी का लाभ उठाने के लिए यह आडंबर और विद्वेषपूर्ण भाषणबाजी (कभी जाति और नस्ल को निशाना बनाना तो कभी संसद और बड़े उद्योगपतियों की तरफ निशाना साधना)करता है तथा एक ठोस और खाती-पीती सोपानात्मक फासीवादी शासन इकाई, नौकरशाही और पार्टी इकाई के जरिए भ्रष्टाचार करता है।इसके साथ ही फासीवाद मजदूर वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से को तोड़कर ,उनकी नाराजगी को भुनाता है तथा सामाजिक लोकतंत्रवादियों की निष्क्रियता का लाभ भी लेता है।

फासीवाद का मुख्य उद्देश्य मजदूरवर्ग के क्रांतिकारी हरावल दस्ते,अर्थात कम्युनिस्ट हिस्सों और सर्वहारा वर्ग की अगुआ इकाईयों को नष्ट करना है।सामाजिक रूप से भड़काऊ नारों को उछालना,भ्रष्टाचार तथा दमनकारी शासन के साथ ही विदेशी राजनीति में अति-साम्राज्यवादी आक्रमण फासीवाद के खास चरित्र हैं।बुर्जुआ वर्ग के लिए खास संकट के दौरों में फासीवाद पूंजीवाद विरोधी शब्दावली का प्रयोग शुरू करता है।लेकिन जब वह शासन में जम जाता है तो उन सारी बातों को आसानी से भुला देता है और बड़ी पूंजी की आतंकवादी तानाशाही के रूप में सामने आता है।

भारत में फासीवाद पर बातें करते समय अधिकांश समय समान विचारों के लोगों में अनेकबार विचलन भी नजर आता है,वे फासीवादी संगठनों की इस या उस चीज की प्रशंसा करने लगते हैं। फासीवादी संगठन को हमेशा समग्रता में उनकी राजनीति के आईने में देखना चाहिए।इनके पीछे बड़े कारपोरेट घरानों की सक्रियता,समर्थन और आर्थिक मदद की कभी अवहेलना नहीं करनी चाहिए।मसलन् आरएसएसके पीछे सक्रिय कारपोरेट घरानों की भूमिका की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।कारपोरेट घराने ही हैं जो साम्प्रदायिक संगठनों के गुण्डों,अपराधियों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों का सारा खर्चा उठाते हैं। ये वे लोग हैं जो बहुत ही शांत भाव,साफ सोच और बुद्धिमानी से इस फौज का संचालन का काम कर रहे हैं।हमें इनके ऊपरी शोर-शराबे पर नहीं उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली पर ध्यान देना चाहिए।फासीवादी राजनीति ऊपरी शोर-शराबे से समझ में नहीं आएगी।

रजनी पाम दत्त ने लिखा है ´फासीवाद वित्तीय पूंजीवाद का ही एक कार्यनीतिक जरिया है।

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

वैज्ञानिक भौतिकवाद -1 प्राक्कथन -राहुल सांकृत्यायन


"वैज्ञानिक भौतिकवाद" राहुल सांकृत्यायन की महत्वपूर्ण पुस्तक है, उस में भौतिकवाद को समझाते हुए राहुल जी ने भाववादी दर्शनों की जो आलोचना की है वह पढ़ने योग्य है, इस में ज्ञान के साथ साथ हमें भाषा के सौंदर्य का भी आनन्द प्राप्त होता है और व्यंग्य की धार भी। यहाँ इस पुस्तक का प्राक्कथन प्रस्तुत है। कोशिश रहेगी कि यहाँ एक एक अध्याय प्रस्तुत करते हुए पूरी पुस्तक ही प्रस्तुत की जाए। -दिनेशराय द्विवेदी

प्राक्कथन

आज हम साइंस के युग में हैं, किन्तु तब भी शिक्षित लोगों में भी बहुत से साइंस-युग के पहिले के मृत विचार ही चल रहे हैं। इसमें एक कारण यह भी है, कि जिज्ञासुओं के पास उसके जानने के लिये हिन्दी में पुस्तकें मौजूद नहीं हैं।  इस कमी को पूरा करने का इरादा, दो वर्ष पहिले जब मैं हजारीबाग जेल में नजरबंद होकर आया, तभी हुआ; और काम भी शुरू कर दिया। सामग्री जमा करते वक्त पता लगा. कि ऐसी पुस्तक लिखना हिन्दी में बेकार है, जब तक कि साइंस, समाजशास्त्र और दर्शन की सामग्री भी पाठकोंके लिये जुटा न दी जाय। जब मैंने हजारीबाग में लिखे सौ पृष्ठों को बेकार समझ देवली (21.07.1941) में वैज्ञानिक भौतिकवाद पर साइंस से लिखाई शुरू की, उस समय तक यही ख्याल था, कि एक ही पुस्तक में सब चीजें आ जायेंगी; किन्तु पता लगा, कि अलग-अलग विषयों पर डेढ़-पौने दो हजार पृष्ठ का एक पोथा लिखनेकी जगह सबको अलग-अलग पुस्तक मान लेना ही अच्छा है। इस प्रकार एक पुस्तक की जगह चार पुस्तकें लिखनी पड़ी
(१) विश्वकी रूपरेखा (साइंस)
(२) मानव-समाज (समाज-शास्त्र)
(३) दर्शन-दिग्दर्शन (दर्शन)
(४) वैज्ञानिक-भौतिकवाद
इसमें वैज्ञानिक-भौतिकवाद सबसे छोटी पुस्तक है, जिसका कारण एक यह भी है, कि इसमें आनेवाले कितने ही विषय दूसरे ग्रंथों में
आ चुके हैं। वस्तुतः बाकी तीनों "वैज्ञानिक-भौतिकवाद" के ही परिवार ग्रंथ है। .
पुस्तक के गहन विषय को सरल और स्पष्ट करनेकी मैंने भरसक कोशिश की है, किन्तु उसमें कितनी सफलता हुई है, इसके प्रमाण पाठक ही हो सकते हैं।
अपने विषय के प्रतिपादन में मुझे दूसरे विरोधी मतों की आलोचना करनी पड़ी है, जिसके लिये मैं मजबूर था; सम्भव है किसी को इससे दुःख हो, जिसके लिये मुझे खेद होगा; मैंने तोवादे-वादे जायते तत्त्वबोधः' की उक्ति को सामने रखकर वैसा किया है।
जिन ग्रंथोसे मैंने सहायता ली, उनकी सूची में अलग दे रहा हूँ; लेकिन इतना ही कर देने से मैं अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं समझता। मैं समझता हूँ, इस पुस्तक के लिखने का सारा श्रेय इन्हीं ग्रंथकारों को मिलना चाहिये, मैंने तो मधुमक्खी की भाँति मधु-संग्रह मात्र किया है, असली धन तो उन्हीं का है।
मुझे एक बार विश्वास होने लगा था, कि तीसरा ग्रंथ (दर्शनदिग्दर्शन) ही यदि समाप्त हो जाय तो गनीमत समझना चाहिये; किन्तु उसके समाप्त करते ही (11.03.1942) मैंने तै कर लिया, कि वर्तमान ग्रंथको लिखना शुरू कर देना होगा, और अपने को "गृहीत इब केशेषु मृत्युना" समझते इसे आज समाप्त कर सका हूँ।

सेंट्रल जेल, हजारीबाग ।
राहुल सांकृत्यायन 24.03.1942

दूसरा संस्करण
इस संस्करणमें मैंने सिर्फ पहिले अध्याय को अन्त में डाल दिया है, इतना समय नहीं निकाल सका कि कठिन अध्याय को और सरल कर सकता। और सरल करने की अवश्यकता है। 

प्रयाग
राहुल सांकृत्यायन 10.12.1943

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

वानर के नर बनने में श्रम की भूमिका - फ्रेडरिक एंगेल्स

मनुष्य के हाथ श्रम की उपज हैं।

र्थशास्त्रियों का दावा है कि श्रम समस्त संपदा का स्रोत है। वास्तव में वह स्रोत है, लेकिन प्रकृति के बाद। वही इसे वह सामग्री प्रदान करती है जिसे श्रम संपदा में परिवर्तित करता है। पर वह इस से भी कहीं बड़ी चीज है। वह समूचे मानव-अस्तित्व की प्रथम मौलिक शर्त है, और इस हद तक प्रथम मौलिक शर्त है कि एक अर्थ में हमें यह कहना होगा कि स्वयं मानव का सृजन भी श्रम ने ही किया। 
लाखों वर्ष पूर्व, पृथ्वी के इतिहास के भू-विज्ञानियों द्वारा तृतीय कहे जाने वाले महाकल्प की एक अवधि में, जिसे अभी ठीक निश्चित नहीं किया जा सकता है, पर जो संभवतः इस तृतीय महाकल्प का युगांत रहा होगा, कहीं ऊष्ण कटिबंध के किसी प्रदेश में -संभवत- एक विशाल महाद्वीप में जो अब हिंद महासागर में समा गया है -मानवाभ वानरों की विशेष रूप से अतिविकसित जाति रहा करती थी। डार्विन ने हमारे इन पूर्वजों का लगभग यथार्थ वर्णन किया है। उन का समूचा शरीर बालों से ढका रहता था,  उन के दाढ़ी और नुकीले कान थे,  और वे समूहों में पेड़ों पर रहा करते थे।
संभवतः उन की जीवन-विधि,  जिस में पेड़ों पर चढ़ते समय हाथों और पावों की क्रिया भिन्न होती है, का ही यह तात्कालिक परिणाम था कि समतल भूमि पर चलते समय वे हाथों का सहारा कम लेने लगे और अधिकाधिक सीधे खड़े हो कर चलने लगे। वानर से नर में संक्रमण का यह निर्णायक पग था। 
सभी वर्तमान मानवाभ वानर सीधे खड़े हो सकते हैं और पैरों के बल चल सकते हैं, पर तभी जब सख्त जरूरत हो, और बड़े भोंडे ढंग से ही। उन के चलने का स्वाभाविक ढंग आधा खड़े हो कर चलना है, और उस में हाथों का इस्तेमाल शामिल होता है। इन में से अधिकतर मुट्ठी की गिरह को जमीन पर रखते हैं, और पैरों को खींच कर शरीर को लम्बी बाहों के बीच से झुलाते हैं, जिस तरह लंगड़े लोग बैसाखी के सहारे चलते हैं। सामान्यतः वानरों में हम आज  भी चौपायों की तरह चलने से ले कर पांवो पर चलने के बीच की सभी क्रमिक मंजिलें देख सकते हैं। पर उन में से किसी के लिए भी पावों के सहारे चलना एक आरज़ी तदबीर से ज्यादा कुछ नहीं है।

मारे लोमश पूर्वजों में सीदी चाल के पहले नियम बन जाने और उस के बाद अपरिहार्य बन जाने का तात्पर्य यह है कि बीच के काल में हाथों के लिए लगातार नए नए काम निकलते गए होंगे। वानरों तक में हाथों और पांवो के उपयोग में एक विभाजन पाया जाता है। जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है, चढ़ने में हाथों का उपयोग पैरों से भिन्न ढंग से किया जाता है। जैसा कि निम्न जातीय स्तनधारी जीवों में आगे के पंजे के इस्तेमाल के बारे में देखा जाता है, हाथ प्रथमतः आहार संग्रह, तता ग्रहण के काम आते हैं। बहुत से वानर वृक्षों में अपने लिए डेरा बनाने के लिए हाथों का इस्तेमाल करते हैं अथवा चिंपाजी की तरह वर्षा-धूप से रक्षा के लिए तरुशाखाओं के बीच छत सी बना लेते हैं। दुश्मन से  बचाव के लिए वे अपने हाथों से डण्डा पकड़ते हैं या दुश्मनों पर फलों अथवा पत्थरों की वर्षा करते हैं। बंदी अवस्था में वे मनुष्यों के अनुकरण से सीखी गई सरल क्रियाएँ अपने हाथों से करते हैं। लेकिन ठीक यहीं हम देखते हैं कि मानवाभ से मानवाभ वानरों के अविकसित हाथ और लाखों वर्षों के श्रम द्वारा अति परिनिष्पन्न मानव हाथ सैंकड़ों ऐसी क्रियाएँ संपन्न कर सकते हैं जिन का अनुकरण किसी भी वानर के हाथ नहीं कर सकते। किसी भी वानर के हाथ पत्थर की भोंडी छुरी भी आज तक नहीं गढ़ सके हैं।
तः आरंभ में वे क्रियाएँ अत्यंत सरल रही होंगी, जिन के लिए हमारे पूर्वजों ने वानर से नर में संक्रमण के हजारों वर्षों में अपने हाथों को अनुकूलित करना धीरे-धीरे सीखा होगा। फिर भी निम्नतम प्राकृत मानव भी वे प्राकृत मानव भी जिन  में हम अधिक पशुतुल्य अवस्था में प्रतिगमन तथा उस के साथ ही साथ शारीरिक अपह्रास का घटित होना मान ले सकते हैं, इन अंतर्वर्ती जीवों से कहीं श्रेष्ठ हैं। मानव हाथों द्वारा पत्थर की पहली छुरी बनाए जाने से पहले शायद एक ऐसी अवधि गुजरी होगी जिस की तुलना में ज्ञात ऐतिहासिक अवधि नगण्य सी लगती है। किन्तु निर्णयक पग उठाया जा चुका था। हाथ मुक्त हो गया था और अब से अधिकाधिक दक्षता एवं कुशलता प्राप्त कर सकता था। तथा इस प्रकार प्राप्त उच्चतर नमनीयता वंशागत हेती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ती जाती थी। 
तः हाथ केवल श्रमेन्द्रिय ही नहीं हैं, वह श्रम की उपज भी है। श्रम के द्वारा ही, नित नयी क्रियाओं के प्रति अनुकूलन के द्वारा ही, इस प्रकार उपार्जित पेशियों, स्नायुओं- और दीर्घतर अवधियों में हड्डियों-के विशेष विकास की वंशागतता के द्वारा ही, तथा इस वंशागत पटुता के नए, अधिकाधिक जटिल क्रियाओं मे नित पुनरावृत्त उपयोग के द्वारा ही मानव हाथ ने वह उच्च परिनिष्पन्नता प्राप्त की है जिस की बदौलत राफ़ायल की सी चित्रकारी, थोर्वाल्दसेन की सी मूर्तिकारी और पागनीनी का सा संगीत आविर्भूत हो सका।

मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास

रन्तु हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से हुआ।
हली बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है, निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं, यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। 
स से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज, मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता, सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी। इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।  

शुओं के साथ तुलना करने से सिद्ध हो जाता है कि यह व्याख्या ही एकमात्र सही व्याख्या है कि श्रम से और श्रम  के साथ भाषा की उत्पत्ति हुई। अधिक से अधिक विकसित पशु भी एक दूसरे से बात करने की अपनी अतिस्वल्प आवश्य़कता संहित वाणी की सहायता के बिना ही पूरी कर सकते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मानव वाणी न बोल सकने अथवा न समझ सकने के कारण कोई पशु दिक्क़त नहीं महसूस करता। किन्तु मनुष्य द्वारा पालतू बना लिए जाने पर बात बिल्कुल और ही होती है। मानव संगति के कारण कुत्तों और घोड़ों में संहित वाणी ग्रहण करने की ऐसी शक्ति विकसित हो जाती है कि वे, अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर किसी भी भाषा को समझ लेना आसानी से सीख लेते हैं। इस के अतिरिक्त उन्हों ने मानव के प्रति प्यार और कृतज्ञता जैसे आवेग-जो पहले उन के लिए एकदम अनजान थे-महसूस करने की क्षमता विकसित कर ली है। ऐसे जानवरों से अधिक लगाव रखनेवाला कोई भी व्यक्ति यह माने बिना शायद ही रह सकता है कि ऐसे कितने ही जानवरों की मिसालें मौजूद हैं जो अब यह महसूस करते हैं कि उन का बोल न सकना एक ख़ामी है, यद्यपि उन के स्वरांगों के ख़ास दिशा में अति विशेषीकृत होने के कारण यह ख़ामी दुर्भाग्यवश अब दूर नहीं की जा सकती। पर जहाँ ये अंग मौजूद हैं, वहाँ कुछ सीमाओं के भीतर यह असमर्थता भी मिट जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि पक्षियों के मुखांग मनु्ष्य के मुखांगों से अधिकतम भिन्न होते हैं, फिर भी पक्षी ही एक मात्र जीव हैं जो बोलना सीख लेते हैं। और सब से कर्कश स्वर वाला पक्षी-तोता सब से अच्छा बोल सकता है। यह आपत्ति नहीं की जानी चाहिए कि तोता जो बोलता है, उसे समझता नहीं है। यह सही है कि मानवों के साथ रहने और बोलने के सुख मात्र के लिए तोता लगातार घंटों टाँय टाँय करता जाएगा और अपना संपूर्ण शब्द भंडार लगातार दुहराता रहेगा। पर अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर वह जो बोलता है उसे समझना भी सीख सकता है। किसी तोते को इस तरह से गालियाँ बोलना सिखा दीजिए कि उसे इन के अर्थ का थोड़ा आभास हो जाए (उष्ण देशों की यात्रा करने वाले जहाजियों का यह एक प्रिय मनोरंजन का साधन है), इस के बाद उसे छेड़िए। आप देखेंगे कि वह इन गालियों का बर्लिन के कुंजड़ों के समान ही सटीक उपयोग करेगा। ऐसा ही छोटी-मोटी चीजें मांगना सिखा देने पर भी होता है। 

हले श्रम, उस के बाद और उस के साथ वाणी-ये ही दो सब से सारभूत उद्दीपनाएँ थीं जिन के प्रभाव से वानर का मस्तिष्क धीरे-धीरे मनुष्य के मस्तिष्क में बदल गया, जो सारी समानता के बावजूद वानर के मस्तिष्क से कहीं बड़ा और अधिक परिनिष्पन्न है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही उस के सब से निकटस्थ करणों, ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ। जिस तरह वाणी के क्रमिक विकास के साथ अनिवार्य रूप से श्रवणेंद्रियों का तदनुरूप परिष्कार होता है, ठीक उसी तरह से समग्र रूप में मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ सभी ज्ञानेन्द्रियों का परिष्कार होता है। उक़ाब मनुष्य से कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परन्तु मनुष्य की आँखें चीजों में बहुत कुछ ऐसा देख सकती हैं कि जो उक़ाब की आँखें नहीं देख सकतीं। कुत्ते में मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र घ्राणशक्ति होती है, परन्तु वह उन गंधों के सौवें भाग की भी अनुभूति नहीं कर सकता जो मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं की द्योतक होती हैं।  और स्पर्श शक्ति, जो कच्चे से कच्चे आरंभिक रूप में भी वानर के पास भी मुश्किल से ही होती है, केवल श्रम के माध्यम से स्वयं मानव हाथ के विकास के संग ही विकसित हुई है। 
स्तिष्क और उस के सहवर्ती ज्ञानेन्द्रियों के विकास, चेतना की बढ़ती स्पष्टता, विविक्त विचारणा तथा विवेक की शक्ति की प्रतिक्रिया ने श्रम और वाणी दोनों को ही और विकास करते जाने की नित नवीन उद्दीपना प्रदान की। मनुष्य के अंतिम रूप से वानर से भिन्न हो जाने के साथ इस विकास का समाप्त होना तो दूर रहा, वह प्रबल प्रगति ही करता गया। हाँ, विभिन्न जनगण और विभिन्न कालों में इस विकास की मात्रा और दिशा भिन्न-भिन्न रही है। जहाँ-तहाँ स्थानीय अथवा अस्थाई पश्चगमन के कारण उस में व्यवधान भी पड़ा। पूर्ण विकसित मानव के उदय होने के साथ एक नए तत्व, अर्थात समाज के मैदान में आ जाने से इस विकास को एक और अग्रगति की प्रबल प्रेरणा मिली और दूसरी ओर अधिक निश्चित दिशाओं में पथनिर्देशन प्राप्त हुआ।
 

वानर से नर और लुटेरी अर्थव्यवस्था से पशुपालन तक

पेड़ों पर चढ़ने वाले एक वानर-दल से मानव-समाज के उदित होने से निश्चय ही लाखों वर्ष - जिन का पृथ्वी के इतिहास में मनुष्य-जीवन के एक क्षण से अधिक महत्व नहीं है, गुजर गए होंगे। परन्तु उस का उदय हो कर रहा। और यहाँ फिर वानर-दल एवं मानव-समाज मं हम क्या विशेष अंतर पाते हैं? अन्तर है, श्रम । वानर-दल अपने लिए भौगोलिक अवस्थाओं द्वारा अथवा पास-पड़ौस के अन्य वानर-दलों के प्रतिरोध द्वारा निर्णीत आहार-क्षेत्र में ही आहार प्राप्त कर के ही संतुष्ट था। वह नए आहार-क्षेत्र प्राप्त करने के लिए नयी जगहों में जाता था और संघर्ष करता था। परन्तु ये आहार क्षेत्र प्रकृत अवस्था में उसे जो कुछ प्रदान करते थे, उस से अधिक इन से कुछ प्राप्त करने की उस में क्षमता न थी। हाँ, उस ने अचेतन रूप से अपने मल-मूल द्वारा ही मिट्टी को उर्वर अवश्य बनाया। सभी संभव आहार क्षेत्रों पर वानर-दलों द्वारा कब्जा होते ही वानरों की संख्या अधिक से अधिक यथावत रह सकती थी। परंतु सभी पशु बहुत-सा आहार बरबाद करते हैं, इस के अतिरिक्त वे खाद्य पूर्ति की आगामी पौध को अंकुर रूप में ही नष्ट कर देते हैं। शिकारी अगले वर्ष मृग-शावक देने वाली हिरणी को नहीं  मारता, परन्तु भेड़िया उसे मार डालता है। तरु-गुल्मों के बढ़ने से पहले ही उन्हें चर जाने वाली यूनान की बकरियों ने देश की सभी पहाड़ियों की नंगा बना दिया है। पशुओं की यह लुटेरू अर्थव्यवस्था उन्हें सामान्य खाद्यों के अतिरिक्त अन्य खाद्यों को अपनाने को मजबूर कर के पशु-जातियों के क्रमिक रूपांतरण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, क्यों कि उस की बदौलत उन का रक्त भिन्न रासायनिक संरचना प्राप्त करता है और समूचा शारीरिक गठन क्रमशः बदल जाता है। दूसरी ओर पहले कायम हो चुकने वाली जातियाँ धीरे-धीरे विनष्ट हो जाती हैं। इस में कोई संदेह नहीं है कि इस लुटेरू अर्थ व्यवस्था ने वानर से मनुष्य में हमारे पूर्वजों के संक्रमण में प्रबल भूमिका अदा की है। 
बुद्धि और अनुकूलन-क्षमता में औरों से कहीं आगे बढ़ी हुई वानर-जाति में इस लुटेरू अर्थव्यवस्था का परिणाम इस के सिवा और कुछ न हो सकता था कि भोजन के लिए इस्तेमाल की जाने वाली वनस्पतियों की संख्या लगातार बढ़ती जाए और पौष्टिक वनस्पतियों के अधिकाधिक भक्ष्य भागों का भक्षण किया जाए। सारांश यह कि इस से भोजन अधिकाधिक विविधतायुक्त होता गया और इस के परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे पदार्थ प्रविष्ट हुए, जिन्हों ने वानरों के मनुष्य में संक्रमण के लिए रासायनिक आधार का काम किया। परंतु अभी यह सब इस शब्द के अर्थ में श्रम नहीं था। श्रम औजार बनाने के साथ आरंभ होता है हमें जो प्राचीनतम औजार- वे औजार जिन्हें प्रागैतिहासिक मानव की दाय वस्तुओं के आधार पर तथा इतिहास में ज्ञात प्राचीनतम जनगण एवं आज की जांगल से जांगल जातियों की जीवन पद्धति के आधार पर हम प्राचीनतम कह सकते हैं -मिले हैं, वे क्या हैं? वे शिकार और मझली मारने के औजार हैं जिन में से शिकार के औजार आयुधों का भी काम देते थे। परंतु शिकार और मझली मारने की वृत्ति के लिए यह पूर्वमान्य है कि शुद्ध शाकाहार से उस के साथ-साथ संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक और महत्वपूर्ण कदम है। माँसाहार में शरीर के उपापचयन के लिए दरकार सभी सब से अधिक आवश्यक तत्व प्रायः पूर्णतः तैयार मिलते हैं इस से पाचन के लिए दरकार समय की ही बचत नहीं हुई, अपितु वनस्पति-जीवन के अनुरूप अन्य शारीरिक विकास की प्रक्रियाओं के लिए दरकार समय भी घट गया और इस प्रकार पशु-जीवन की, इस शब्द के ठीक अर्थों में, सक्रिया अभिव्यंजना के लिए अधिक समय, सामग्री तथा शक्ति का लाभ हुआ।
विकसित होता मानव जितना ही वनस्पति जगत से दूर रहता गया, उतना ही वह पशु से ऊँचा उठता गया। जिस तरह मांसाहार के संग शाकाहार के अभ्यस्त होने के साथ जंगली बिल्लियाँ और कुत्ते मानव के सेवक बन गए, ठीक उसी तरह शाकाहार के साथ-साथ मांसाहार को अपनाने से विकसित होते मानव को शारीरिक शक्ति एवं आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में भारी मदद मिली। परन्तु मांसाहार का सब से अधिक प्रभाव मस्तिष्क पर पड़ा। मस्तिष्क को अपने पोषण और विकास के लिए आवश्यक सामग्री अब पहले से कहीं अधिक प्रचुरता से प्राप्त होने लगी, अतः अब वह पीढ़ी दर पीढ़ी अधिक तेजी और पूर्णता के साथ विकास कर सकता था। हम शाकाहारियों का बहुत आदर करते हैं, परन्तु हमें यह मानना ही पड़ेगा कि मांसाहार के बिना मनुष्य का आविर्भाव असंभव होता। हाँ, मांसाहार के कारण ही सभी ज्ञात जनगण यदि किसी काल में नरभक्षी बन गए थे (अभी दसवीं शताब्दी तक बर्लिनवासियों के पूर्वज, वेलेतोबियन या बिल्जियन लोग अपने माँ-बाप को मार कर खा जाया करते थे) तो आज इस का महत्व नहीं रह गया है।  
मांसाहार के फलस्वरूप निर्णायक महत्व रखने वाले दो नए कदम उठाए गए- मनुष्य ने अग्नि को वशीभूत किया। दूसरे पशुपालन आरंभ हुआ। पहले के फलस्वरूप पाचन प्रक्रिया और संकुचित बन गयी क्यों कि इस की बदौलत मानव-मुख को मानो पहले से ही आधा पचा हुआ  भोजन मिलने लगा। दूसरे ने मांस की पूर्ति का शिकार के अलावा एक नया, अधिक नियमित स्रोत प्रदान कर के मांस की सप्लाई को अधिक प्रचुर बना दिया। इस के अतिरिक्त दूध और दूध से बनी वस्तुओं के रूप में उस ने आहार की एक नयी सामग्री प्रदान की, जो अपने अवयवों की दृष्टि से उतनी ही मूल्यवान थी जितना कि मांस। अतः ये दोनों ही नयी प्रगतियाँ सीधे-सीधे मानव की मुक्ति का नया साधन बन गयीं। उन के अप्रत्यक्ष परिणामों को यहाँ विशद विवेचना करने से हम विषय से बहुत दूर चले जाएँगे, हालाँकि मानव और समाज के विकास के लिए उन का भारी महत्व है।
 

श्रम - मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर

भारतीय प्राचीन आवास (मोहेन्जोदड़ो)
जिस तरह मनुष्य ने सभी भक्ष्य वस्तुओं को खाना सीखा, उसी तरह उस ने किसी भी जलवायु में रह लेना भी सीखा। वह समूची निवास योग्य दुनिया में फैल गया। वही एक मात्र पशु ऐसा था जिस में खुद-ब-खुद ऐसा करने की क्षमंता थी। अन्य पशु-पालतू जानवर और कृमि-अपने आप नहीं, बल्कि मनुष्य का अनुसरण कर ही सभी जलवायुओं के अभ्यस्त बने। और मानव द्वारा एक समान गरम जलवायु वाले अपने मूल निवास स्थान से ठण्डे इलाकों में स्थानान्तरण से, जहाँ वर्ष के दो भाग हैं- ग्रीष्म ऋतु एवं शीत ऋतु - नयी आवश्यकताएँ उत्पन्न हुई - शीत और नमी से बचाव के लिए घर और पहनावे की आवश्यकता उत्पन्न हुई जिस से श्रम के नए क्षेत्र आविर्भूत हुए। फलतः नए प्रकार के कार्यकलाप आरंभ हुए जिन से मनुष्य पशु से और भी अधिकाधिक पृथक होता गया। 
वस्त्रों की आरंभिक आवश्यकता
प्रत्येक व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि समाज में भी हाथों स्वरांगों और मस्तिष्क के संयुक्त काम से मानव अधिकाधिक पेचीदा कार्य करने के तथा सतत उच्चतर लक्ष्य अपने सामने रखने और उन्हें हासिल करने के योग्य बने। हर पीढ़ी के गुजरने के साथ स्वयं श्रम भिन्न, अधिक परिनिष्पन्न, अधिक विविधतायुक्त होता गया। शिकार और पशुपालन के अतिरिक्त कृषि भी की जाने लगी। फिर कताई, बुनाई, धातुकारी, कुम्हारी और नौचालन की बारी आयी। व्यापार और उद्योग के साथ अन्ततः कला और विज्ञान का आविर्भाव हुआ। क़बीलों से जातियों और राज्यों का विकास हुआ। प्रथमतः मस्तिष्क की उपज लगने वाले और मानव समाजों के ऊपर छाए प्रतीत होने वाले इन सारे सृजनों के आगे श्रमशील हाथ के अधिक साधारण उत्पादन पृष्टभूमि में चले गए। ऐसा इस कारण से भी हुआ कि समाज के विकास की बहुत प्रारंभिक मंजिल से ही (उदाहरणार्थ आदिम परिवार से ही) श्रम को नियोजित करने वाला मस्तिष्क नियोजित घम को दूसरों के हाथों से करा सकने में समर्थ था। सभ्यता की द्रुत प्रगति का समूचा श्रेय मस्तिष्क को, मस्तिष्क के विकास एवं क्रियाकलाप को दे डाला गया। मनुष्य अपने कार्यों की व्याख्या अपनी आवश्यकताओं से करने के बदले अपने विचारों से करने के आदी हो गए (हालाँकि आवश्यकताएँ ही मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होती हैं, चेतना द्वारा ग्रहण की जाती हैं)। अतः कालक्रम में उस भाववादी विश्वदृष्टिकोण का उदय हुआ जो प्राचीन यूनानी-रोमन समाज के पतन के बाद से तो ख़ास तौर पर मानवों के मस्तिष्क पर हावी रहा है। वह अब भी उन पर इस हद तक हावी है कि डार्विन पंथ के भौतिकवादी से भौतिकवादी प्रकृति विज्ञानी भी अभी तक मनुष्य की उत्पत्ति के विषय में स्पष्ट धारणा निरूपित करने में असमर्थ हैं क्यों कि इस विचारधारा के प्रभाव में पड़ कर वे इस में श्रम द्वारा अदा की गई भूमिका को नहीं देखते। 
चार्ल्स डार्विन
जैसा कि पहले ही इंगित किया जा चुका है, पशु अपने क्रियाकलाप से मानवों की भाँति बाह्य प्रकृति को परिवर्तित करते हैं यद्यपि वे उस हद तक ऐसा नहीं करते जिस हद तक मनुष्य करता है। और जैसा कि हम देख चुके हैं उन के द्वारा अपने परिवेश में किया गया यह परिवर्तन उलट कर उन के ऊपर असर डालता है तथा अपने प्रणेताओं को परिवर्तित करता है। प्रकृति में पृथक रूप से कुछ भी नहीं  होता। हर चीज  अन्य चीजों पर प्रभाव डालती तथा उन के द्वारा स्वयं प्रभावित होती है। इस सर्वांगीण गति एवं अन्योन्यक्रिया को बहुधा भुला देने के कारण ही प्रकृति-विज्ञानी साधारण से साधारण चीजों को स्पष्टता के साथ नहीं देख पाते। हम देख चुके हैं कि किसक तरह बकरियों ने यूनान में वनों के पुनर्जन्म को रोका है। सेंट हलेना द्वीप में वहाँ पहुँचनेवाले प्रथम यात्रियों द्वारा उतारे गए बकरों और सुअरों ने पहले से चली आती वहाँ की वनस्पतियों का लगभग पूरी तरह सफाया कर दिया और ऐसा कर के उन्हों ने बाद में आए नाविकों और आबादकारों द्वारा लाए गए पौधों के प्रसार के लिए जमीन तैयार की। परन्तु यदि पशु अपने परिवेश पर अधिक समय तक प्रभाव डालते हैं तो ऐसा अचेत रूप से ही होता है तथा स्वयं पशुओं को सम्बन्ध में यह महज संयोग की बात होती है. लेकिन मनुष्य पशु से जितना ही अधिक दूर होते हैं, प्रकृति पर उन का प्रभाव पहले से ज्ञात निश्चित लक्ष्यों की ओर निर्देशित, नियोजित क्रिया का रूप धारण कर लेता है। पशु यह महसूस किए बिना कि वह क्या कर रहा है, किसी इलाके की वनस्पतियों को नष्ट करता है। मनुष्य नष्ट करता है मुक्त भूमि पर फसलें बोने के लिए अथवा वृक्ष एवं अंगूर की लताएँ रोपने के लिए, जिन के बारे में वह जानता है कि वे बोयी गई मात्रा से कहीं अधिक उपज देंगी। उपयोगी पौधों और पालतू पशुओं को वह एक देश से दूसरे में स्थानान्तरित करता है और इस प्रकार पूरे के पूरे महाद्वीपों के पशुओं एवं पादपों को बदल डालता है। इतना ही नहीं, कृत्रिम प्रजनन के द्वारा वनस्पति और पशु दोनों ही मानव के हाथों से इस तरह बदल दिए जाते हैं कि वने पहचाने भी नहीं जा सकते। उन जंगली पौधों की  व्यर्थ ही अब खोज की जा रही है जिन से हमारे नाना प्रकार के अन्नों की उत्पत्ति हुई है। यह प्रश्न कि हमारे कुत्तों का, जो खुद भी एक दूसरे से अति भिन्न हैं, अथवा उतनी ही भिन्न नस्लों के घोड़ों का पूर्वज कौन सा वन्य पशु है अब भी विवादास्पद है। 
इतिहास को दोहराता भ्रूण का विकास
बात चाहे जो भी हो, पशुओं के नियोजित पूर्वकल्पित ढंग से काम कर सकने की क्षमता के बारे में विवाद उठाना हमारा मक़सद नहीं है। इस के विपरीत, जहाँ भी प्रोटोप्लाज्म का, जीवित एल्बुमिन का अस्तित्व है और वह प्रतिक्रिया करता है, यानी निश्चित बाह्य उद्दीपनाओं के फलस्वरूप निश्चित क्रियाएँ संपन्न करता है, भले ही ये क्रियाएँ अत्यन्त ही सहज प्रकार की हों, वहाँ क्रिया की एक नियोजित विधि विद्यमान रहती है।  यह प्रतिक्रिया वहाँ भी होती है जहाँ अभी कोई कोशिका नहीं है, तंत्रिका कोशिका की तो बात दूर रही। इसी प्रकार से कीटभक्षी पौधों का अपना शिकार पकड़ने का ढंग किसी मानी में नियोजित क्रिया सा लगता है यद्यपि वह बिलकुल अचेतन रूप में की जाती है। पशुओं में सचेत, नियोजित क्रिया की क्षमता तंत्रिका तन्त्र के विकास के अनुपात में विकसित होती है और स्तनधारी पशुओं में यह काफी उच्च स्तर तक पहुँच जाती है। इंग्लेंड में लोमड़ी का शिकार करने वाले आसानी से यह देख सकते हैं कि लोमड़ी अपना पीछा करने वालों की आँखों में धूल झोंकने के लिए स्थानीय इलाके की अपनी उत्तम जानकारी का इस्तेमाल करने का कैसा अचूक ज्ञान रखती है और भूमि की अनपे लिए सुविधाजनक  हर विशेषता को वह कितनी अच्छी तरह जानती तथा कितनी अच्छी तरह शिकारी को गुमराह कर देने के लिए उस का इस्तेमाल करती है। मानव की संगति में रहने के कारण अधिक विकसित पालतू पशुओं को हम नित्य ही चतुराई के ठीक उस स्तर के कार्य करते देखते हैं जिस स्तर के बच्चे किया करते हैं। कारण यह है कि जिस प्रकार माता के गर्भ में मानव भ्रूण के विकास का इतिहास करोड़ों वर्षों में फैले हमारे पशु पूर्वजों के केंचुए से आरम्भ कर के अब तक के शारीरिक विकास के इतिहास की संक्षिप्त पुनरावृत्ति है, उसी प्रकार मानव शिशु का मानसिक विकास इन्हीं पूर्वजों के, कम से कम बाद में आने वाले पूर्वजों के, बौद्धिक विकास की ओर भी संक्षिप्त पुनरावृत्ति है। पर सारे के सारे पशुओं की सारी की सारी नियोजित क्रिया भी कभी धरती पर उन की इच्छा की छाप न छोड़ सकी। यह श्रेय मनुष्य को ही प्राप्त हुआ। 
सेंट हेलेना द्वीप
संक्षेप में, पशु बाह्य प्रकृति का उपयोग मात्र करता है और उस में केवल अपनी उपस्थिति द्वारा परिवर्तन लाता है। पर मनुष्य अपने परिवर्तनों द्वारा प्रकृति से अपने काम करवाता है, उस पर स्वामिवत शासन करता है। यही मनुष्य तथा अन्य पशुओं के बीच अंतिम एवं सारभूत अंतर है। श्रम यहाँ भी इस अन्तर को लाने वाला होता है। (गौरवशाली बनाने वाला होता है)
 

प्रकृति उस पर हर विजय का हम से प्रतिशोध लेती है

प्रकृति पर अपनी मानवीय विजयों के कारण हमें आत्मप्रशंसा में विभोर नहीं हो जाना चाहिए, क्यों कि वह हर ऐसी विजय का हम से प्रतिशोध लेती है। यह सही है कि प्रत्येक विजय से प्रथमतः वे ही परिणाम प्राप्त होते हैं जिन का हम ने भरोसा किया था, पर द्वितीयतः और तृतीयतः उस के परिणाम बिल्कुल ही भिन्न तथा अप्रत्याशित होते हैं, जिन से अक्सर पहले परिणाम का असर जाता रहता है। मेसोपोटामिया, यूनान. एशिया माइनर, तथा अन्य स्थानों में जिन लोगों ने कृषि योग्य भूमि प्राप्त करने के लिए वनों को बिल्कुल ही नष्ट कर डाला, उन्हों ने कभी यह कल्पना नहीं की थी कि वनों के साथ आर्द्रता के संग्रह-केन्द्रों और आगारों का उन्मूलन कर के वे इन देशों की मौजूदा तबाही की बुनियाद डाल रहे हैं। एल्प्स के इटालियनों ने जब पर्वतों की दक्षिणी ढलानों पर चीड़ के वनों को (ये दक्षिणी ढलानों पर खूब सुरक्षित रखे गए थे) पूरी तरह काट डाला, तब उन्हें इस बात का आभास नहीं था कि ऐसा कर के वे अपने प्रदेश के दुग्ध उद्योग पर कुठाराघात कर रहे हैं। इस से भी कम आभास उन्हें इस बात का था कि अपने कार्य द्वारा वे अपने पर्वतीय स्रोतों को वर्ष के अधिक भाग के लिए जलहीन बना रहे हैं तथा साथ ही इन स्रोतों के लिए यह सम्भव बना रहे हैं कि वे वर्षा ऋतु में मैदानों में और भी अधिक भयानक बाढ़ें लाया करें। यूरोप में आलू का प्रचार करने वालों को यह ज्ञात नहीं था कि असल मंडमय कंद को फैलाने के साथ-साथ वे स्क्रोफुला रोग का भी प्रसार कर रहे हैं। अतः हमें हर पग पर यह याद कराया जाता है कि प्रकृति पर हमारा शासन किसी विदेशी जाति पर एक विजेता के शासन जैसा कदापि नहीं है, वह प्रकृति से बाहर के किसी व्यक्ति जैसा शासन नहीं है, बल्कि रक्त, मांस, और मस्तिष्क से युक्त हम प्रकृति के ही प्राणी हैं, हमारा अस्तित्व उस के मध्य है और उस के ऊपर हमारा सारा शासन केवल इस बात में निहित है कि अन्य सभी प्राणियों से हम इस मानों में श्रेष्ठ हैं कि हम प्रकृति के नियमों को जान सकते हैं और ठीक-ठीक लागू कर सकते हैं।  

स्क्रोफुला के परिणाम
वास्तव में, ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं हम उस के नियमों को अधिकाधिक सही ढंग से सीखते जाते हैं और प्रकृति के नैसर्गिक प्रक्रम में अपने हस्तक्षेप के तात्कालिक परिणामों के साथ उस के दूरवर्ती परिणामों के भी देखने लगे हैं। खा़स कर प्रकृति-विज्ञान की वर्तमान शताब्दी की प्रबल प्रगति के बाद तो हम अधिकाधिक ऐसी स्थिति में आते जा रहे हैं जहाँ कम से कम अपने सब से साधारण उत्पादक क्रियाकलाप के अधिक दूरवर्ती परिणामों तक को हम जान सकते हैं और फलतः उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन जितना ही ज्यादा ऐसा होगा उतनी ही ज्यादा मनुष्य प्रकृति के साथ अपनी एकता न केवल महसूस करेंगे बल्कि उसे समझेंगे भी और तब यूरोप में प्राचीन क्लासिकीय युग के अवसान के बाद उद्भूत होने वाली ईसाई मत में सब से अधिक विशद रूप में निरूपित की जाने वाली मस्तिष्क और भूतद्रव्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के वैपरीत्य की निरर्थक एवं अस्वाभाविक धारणा उतनी ही अधिक असम्भव होती जायेगी। 

अकाल
रन्तु उत्पादन की दिशा में निर्देशित अपने कार्यकलाप के अधिक दूरवर्ती प्राकृतिक फलों का आकलन सीखने में जहाँ हमें हजारों वर्षों की मेहनत लग चुकी है, वहाँ इन क्रियाओं के अधिक दूरवर्ती सामाजिक फलों का आकलन करने का काम और भी दुष्कर रहा है। आलू के प्रचार के फलस्वरूप स्क्रोफुला रोग के प्रसार की हम चर्चा कर चुके हैं। परन्तु श्रम जीवियों के आलू के आहार पर ही आश्रित हो  जाने का पूरे के पूरे देशों के अन्दर जनसमुदाय की जीवनावस्था पर जो प्रभाव पड़ा है, उस के मुकाबले स्क्रोफुला रोग भी भला क्या है? अथवा उस अकाल की तुलना में ही यह रोग क्या था  जिस ने आलू की फसल में कीड़ा लग जाने के फलस्वरूप 1847 में आयरलैंड को अपना ग्रास बनाया था और सम्पूर्णतया या लगभग सम्पूर्णतया आलू के आहार पर पले दस लाख आयरलैंडवासियों को मौत का शिकार बना दिया तथा बीस लाख को विदेशों में जा कर बसने को मजबूर किया था? जब अरबों ने शराब चुआना सीखा तो यह बात उन के दिमाग में बिल्कुल नहीं आयी थी कि ऐसा कर के वे उस समय अज्ञात अमरीकी महाद्वीप के आदिवासियों के भावी उन्मूलन का एक मुख्य साधन उत्पन्न कर रहे थे। और बाद में जब कोलम्बस ने अमरीका की खोज की तो उसे नहीं पता था कि ऐसा कर के वह यूरोप में बहुत पहले मिटायी जा चुकी दास-प्रथा  को नवजीवन प्रदान कर रहा था और नीग्रो-व्यापार की नींव डाल रहा था। सत्रहवीं और अठारवीं शताब्दियों में भाप का इंजन आविष्कार करने में संलग्न लोगों के दिमाग में यह बात नहीं आयी थी कि वे वह औजार तैयार कर रहे हैं जो समूची दुनिया के अन्दर सामाजिक सम्बन्धों में अन्य किसी भी औजार की अपेक्षा बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन ला देने वाला होगा, खास कर के यूरोप में यह औजार थोड़े से लोगों के हाथ में धन को संकेंद्रित करते हुए और विशाल बहुसंख्यक को सम्पत्तिहीन बनाते हुए पहले तो पूंजीपति वर्ग को सामाजिक और राजनीतिक प्रभुता प्रदान करने वाला, लेकिन उस के बाद पूंजीपति और सर्वहारा वर्गों के उस वर्ग-संघर्ष को जन्म देनेवाला होगा जिस का अन्तिम परिणाम पूंजीपति वर्ग की सत्ता का खात्मा और सभी वर्ग विग्रहों की समाप्ति ही हो सकता है। परन्तु इस क्षेत्र में भी लम्बे और प्रायः कठोर अनुभव के बाद तथा ऐतिहासिक सामग्री का संग्रह और विश्लेषण कर के धीरे-धीरे हम अपने उत्पादक क्रियाकलाप के अप्रत्यक्ष, अधिक दूरवर्ती सामाजिक परिणामों को स्पष्ट देखना सीख रहे हैं। इस प्रकार इन परिणामों को भी नियंत्रित और नियमित करने की सम्भावना हमारे सामने प्रस्तुत हो रही है। 
र ऐसे नियमन को क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। इस के लिए हमारी अभी तक की उत्पादन-प्रणाली में, और उस ेक साथ हमारी समूची समकालीन समाज-व्यवस्था में आमूल क्रांति अपेक्षित है।
 

तात्कालिक मुनाफे की अर्थव्यवस्था के परिणाम

नंगे पहाड़
ज तक जितनी भी उत्पादन-प्रणालियाँ रही हैं, उन सब का लक्ष्य केवल श्रम के सब से तात्कालिक एवं प्रत्यक्षतः उपयोगी परिणाम प्राप्त करना मात्र रहा है। इस के आगे के परिणामों की, जो बाद में आते हैं तथा क्रमिक पुनरावृत्ति एवं संचय द्वारा ही प्रभावोत्पादक बनते हैं, पूर्णतया उपेक्षा की गई। भूमि का सम्मिलित स्वामित्व जो आरम्भ में था, एक ओर तो मानवों के ऐसे विकास स्तर के अनुरूप था जिस में उन का क्षितिज सामान्यतः सम्मुख उपस्थित वस्तुओं तक सीमित था, दूसरी ओर उस मे उपलब्ध भूमि का कुछ फ़ाजिल होना पूर्वमान्य था जिस से कि इस आदिम किस्म की अर्थव्यवस्था के किन्ही सम्भव दुष्परिणामों का निराकरण करने की गुंजाइश पैदा होती थी। इस फ़ाजिल भूमि के चुक जाने के साथ सम्मिलित स्वामित्व का ह्रास होने लगा, पर उत्पादन के सभी उच्चतर रूपों के परिणामस्वरूप आबादी विभिन्न वर्गों में विभक्त हो जाती थी और इस विभाजन के कारण शासक और उत्पीड़ित वर्गों का विग्रह शुरू हो जाता था। अतः शासक वर्ग का हित उस हद तक उत्पादन का मुख्य प्रेरक तत्व बन गया। जिस हद तक कि उत्पादन उत्पीड़ित जनता के जीवन-निर्वाह के न्यूनतम साधनों तक ही सीमित न था। पश्चिमी यूरोप में आज प्रचलित पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली में यह चीज सब से अधिक पूर्णता के साथ क्रियान्वित की गई है। उत्पादन और विनिमय पर प्रभुत्व रखने वाले अलग अलग पूँजीपति अपने कार्यों के सब से तात्कालिक उपयोगी परिणाम की चिन्ता करने में ही समर्थ हैं। वस्तुतः यह उपयोगी परिणाम भी - जहाँ तक कि प्रश्न उत्पादित और विनिमय की गई वस्तु की उपयोगिता का ही होता है - पृष्ठभूमि में चला जाता है और विक्रय द्वारा मिलने वाला मुनाफा एकमात्र प्रेरक तत्व बन जाता है।
मंदी
पूँजीपति वर्ग का सामाजिक विज्ञान - क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र - प्रधानतया उत्पादन और विनिमय से सम्बन्धित मानव क्रियाकलापों के केवल सीधे-सीधे इच्छित सामाजिक प्रभावों को ही लेता है। वह पूर्णतया उस सामाजिक संगठन के अनुरूप है जिस की वह सैद्धान्तिक व्याख्या है। चूँकि पूँजीपति तात्कालिक मुनाफे के लिए उत्पादन और विनिमय करते हैं इसलिए केवल निकटतम, सब से तात्कालिक परिणामों का ही सर्वप्रथम लेखा लिया जा सकता है। कोई कारखानेदार अथवा व्यापारी जब तक सामान्य इच्छित मुनाफे पर किसी उत्पादित अथवा खरीदे माल को बेचता है वह खुश रहता है और इस की चिन्ता नहीं करता कि बाद में माल और उस के खरीददारों का क्या होता है।  इस क्रियाकलाप के प्राकृतिक प्रभावों के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। जब क्यूबा में स्पेनी बागान मालिकों ने पर्वतों की ढलानों पर खड़े जंगलों को जला डाला और उन की राख से अत्यन्त लाभप्रद कहवा-वृक्षों की केवल एक पीढ़ी के लिए पर्याप्त खाद हासिल की, तब उन्हें इस बात की परवाह न हुई कि बाद में उष्णप्रदेशीय भारी वर्षा मिट्टी की अरक्षित परत को बहा ले जाएगी और नंगी चट्टाने ही छोड़ देगी !   जैसे समाज के सम्बन्ध में वैसे ही प्रकृति के सम्बन्ध में भी वर्तमान उत्पादन-प्रणाली मुख्यतया केवल प्रथम, ठोस परिणाम भर से मतलब रखती है।  और तब विस्मय प्रकट किया जाता है कि इस, उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये क्रियाकलाप के दूरवर्ती प्रभाव दूसरे ही प्रकार के, बल्कि मुख्यतया बिलकुल उलटे ही प्रकार के होते हैं;  कि पूर्ति और मांग का तालमेल बिलकुल विपरीत वस्तु में परिणत हो जाता है (जैसा कि प्रत्येक दस वर्षीय औद्योगिक चक्र से, जिस का जर्मनी तक "गिरावट" के मौके पर आरम्भिक स्वाद चख़ चुका है, सिद्ध हो चुका है) ; कि अपने श्रम पर आधारित निजि-स्वामित्व अनिवार्यतः मजदूरों की संपत्तिहीनता में विकसित हो जाता है जब कि समस्त धन गैरमजदूरों के हाथों में अधिकाधिक केन्द्रित होता जाता है; कि [.....]* 

* लेख की पाण्डुलिपि यहीँ समाप्त हो जाती है।
 
 
 

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक पेजी मार्क्सवाद

हुत लोग हैं जो मार्क्सवाद पर उसे बिना जाने बात करते हैं।  उन्हें लगता है कि मार्क्सवाद को समझना कठिन है या वह बहुत विस्तृत है उस में सर कौन खपाए। लेकिन मार्क्सवाद को समझना कठिन नहीं है। यूँ तो किसी भी दर्शन को समझने के लिए बहुत कुछ करना होता है। इसे यूँ समझ लीजिए कि कार्ल मार्क्स ने अपनी मूल प्रारंभिक पुस्तक "राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" लिखने के लिए पंद्रह वर्षो तक अनुसंधान कार्य किया और अपने आर्थिक सिद्धान्त का आधार तैयार किया। उन्हों ने अपने अन्वेषण के निष्कर्षों को अर्थशास्त्र के एक वृहत् ग्रंथ में सूत्रबद्ध करने की योजना बनाई। इस ग्रन्थ का पहला भाग जून 1859 में प्रकाशित हुआ। उस के प्रकाशन के तुरन्त बाद दूसरा भाग प्रकाशित करने का इरादा मार्क्स का था। लेकिन अगले विस्तृत अध्ययन के कारण उन्हों ने पूंजी लिख डाली। 

"राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" की जो भूमिका मार्क्स ने लिखी उस में एक पृष्ठ के एक पैरा में अपने सिद्धान्त, जो बाद में मार्क्सवाद की रीढ़ माना गया को स्पष्ट किया है।  जो लोग मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं उन्हें इस एक पैरा में सब कुछ मिल सकता है और इच्छा होने पर बाद में वे और आगे अध्ययन कर सकते हैं। आप इस एक पृष्ठ की मार्क्सवाद की रूपरेखा को "एक पेजी मार्क्सवाद" की संज्ञा दे सकते हैं। 


क्या है मार्क्सवाद?


पने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बन्धते हैं जो अपरिहार्य एवं उन की इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है – व ह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिस के अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्कर्या को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उन के अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उन का सामाजिक अस्तित्व उन की चेतना को निर्धारित करता है। अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच कर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों से, या – उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – उन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराती है।, जिन के अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती है। ये सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुरूप न रह कर उन के लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरु होता है। आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है। ऐसे रूपान्तरणों पर विचार करते हुए, एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपान्तरण है, जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी, या दार्शिनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिन के दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उस से निपटते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह हम ऐसे रूपान्तरण के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते। इस के विपरीत भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती, जब तक उस के अन्दर तमाम उत्पादन शक्तियाँ, जिन के लिए उस में जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नए, उच्चतर उत्पादन सम्बन्धों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उन के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट नहीं हो चुकतीं। इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें वह सम्पन्न कर सकती है। कारण यह कि मामले को गौर से देखने पर हमेशा हम यही पाएंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे सम्पन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियाँ पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं। मोटे तौर से ऐशियाई, प्राचीन, सामन्ती एवं आधुनिक, पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियाँ समाज की आर्थिक संरचना के अनुक्रमिक युग कही जा सकती हैं। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अन्तिम विरोधी रूप हैं – व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं, वरन् व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उद्भूत विरोध के अर्थ में विरोधी हैं। साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादन शक्तियाँ इस विरोध के हल की भौतिक अवस्थाएँ उत्पन्न करती हैं। अतः इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है।


-कार्ल मार्क्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास की भूमिका से (1859)

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

साथी शिवराम की स्मृति में ....

ज फिर एक अक्टूबर का दिन है, मेरे लिए और श्रमजीवी वर्ग के बहुत से साथियों के लिए एक काला दिन। पिछले वर्ष इसी दिन ने प्रिय साथी, मार्गदर्शक, नाट्यकार, कवि, आलोचक, सिद्धान्तकार, संगठन कर्ता और नेता शिवराम को असमय छीन लिया। अगले दिन दो अक्टूबर को हमने उन्हें अंतिम विदाई दी। वे एक डिप्लोमा इंजिनियर थे, उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी/अधिकारी के रूप में नौकरी करते हुए उन्होंने अपना सामान्य जीवन जिया, पूरी उम्र में सेवा निवृत्त हुए। तीन पुत्रों और एक पुत्री का विवाह किया और सभी कुशल मंगल से हैं। सामान्य नागरिक इसी तरह जीते हुए उम्र के ढलान पर आराम से जीवन व्यतीत कर सकता है। लेकिन अपनी नौकरी और सामाजिक जीवन के सभी दायित्वों को पूरा करते हुए उन्होंने जो कुछ किया वह मुझे तो अद्वितीय लगता है।  

न्हें यह समाज व्यवस्था अमानवीय लगती थी और उसे बदलना चाहते थे। प्रारंभ में वे विवेकानन्द से प्रभावित थे और समाज सेवा के कामों को हाथ में लेते थे। लेकिन उस काम से कुछ व्यक्तियों के जीवन में कुछ परिवर्तित करने का सुख तो मिलता था लेकिन अमानवीय समाज व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग वहाँ नहीं दीख पड़ता था। नौकरी के आरंभिक प्रशिक्षण के दौरान ही अपने एक साम्यवादी विचार रखने वाले सहकर्मी से बहस में उलझे और उसे कहा कि तुम्हारा यह मार्क्सवाद खोखला है। साथी ने जब कहा कि तुमने उसे जाने बिना ही खारिज कर दिया? तो वे उसे जानने के प्रयत्न में जुट गए। जब जाना तो फिर उसी साथी से फिर बहस में उलझ गए। अब वे उसे बता रहे थे कि मार्क्सवाद सही है लेकिन तुम उसे जैसे समझ रहे हो वह गलत है।

शिवराम ने जान लिया था कि समाज कैसे बदलता है? उस की दिशा क्या है? वे उस बदलाव की गति को तीव्र करना चाहते थे। परिवर्तन की शक्तियों को मजबूत बनाने में अपना योगदान करना चाहते थे। वे चाहते थे कि ऐसा परिवर्तन जिस से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त हो शीघ्र हो। उन्हों ने देखा कि लोगों में जबर्दस्त सांस्कृतिक भूख है तो लोगों तक अपने विचारों को पहुँचाने के लिए उन्हों ने नाटकों का सहारा लिया। जीवन से तथ्य और कहानियाँ उठायीं नाटक रचे और सामान्य लोगों को साथ ले नाट्य प्रस्तुतियाँ करने लगे। कुछ ही प्रस्तुतियों ने अपना असर दिखाया। शोषण से त्रस्त खनिक उन से आ कर मिले पूछने लगे अन्याय से लड़ने के लिए एकता बनाने में मदद करो। जिस ने मार्ग दिखाया हो वह साथ चलने से मना कैसे कर सकता था? लेकिन यह उस के बस का था नहीं। उस ने अपने ही क्षेत्र में श्रमजीवियों के संगठन का काम करने वालों को तलाशा और उन्हें दिशा दी। खनिको के संघर्षशील संगठन ने आकार लिया। खान मालिक तुरंत ही जान गये कि यह नाटकों का असर है। शिकायत हुई और स्थानान्तरण झेलना पड़ा। 

फूल जहाँ भी जाता है अपनी गंध बिखेरता जाता है। वे नये स्थान पर पहुँचे तो वहाँ भी कुछ ही दिनों में एक नाटक मंडली खड़ी की। उन के नाटकों के अभिनेता श्रमजीवी वर्ग से आते थे। हम यह भी कह सकते हैं कि वे श्रमजीवी वर्ग से लोगों को चुनते थे और उन्हें अभिनेता बना देते थे। यहीं उन से मेरी भेंट हुई। उन्हों ने मुझे तीन दिनों के एक कार्यक्रम की सूचना दी। बहुत बड़ा कार्यक्रम था। देश भर के अनेक उल्लेखनीय साहित्यकार उस में भाग लेने वाले थे। नाटक और कवि सम्मेलन भी होने थे। मैं दंग था कि मेरे गृह नगर में ऐसा कार्यक्रम हम पूरी ताकत लगा कर भी नहीं कर सकते थे उन्हें छह माह पहले नगर में स्थानांतरित हो कर आया एक डिप्लोमा इंजिनियर अपने दम पर कैसे आयोजित कर रहा है? उन्हों ने मुझे नाटकों की रिहर्सल में बुलाया। कौतुहल का मारा मैं पहुँचा तो एक भूमिका मेरे मत्थे भी मढ़ दी गई। कार्यक्रम बहुत सफल रहा। दो दिन जो वैचारिक गोष्ठियाँ हुईं। उन से बहुत कुछ सीखने को मिला और बहुत से नए प्रश्न खड़े हो गए। कार्यक्रम ने व्यवस्था और तत्कालीन सरकारी निजाम पर बहुत सवाल खड़े किए थे। अंतिम दिन रात्रि को ग्यारह बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। अगली सुबह जब मैं उठा तो पता लगा देश में आपातकाल लागू हो चुका है। विपक्षी दलों के नेताओं की बड़ी संख्या में गिरफ्तारियाँ हुई हैं, बहुत से सांस्कृतिक कर्मी भी गिरफ्तार हुए हैं। मुझे चिंता लगी कि इन कार्यक्रमों में सम्मिलित आमंत्रित लोगों में से कुछ तो अवश्य जेल पहुँच गए होंगे। पता किया तो जाना कि सब सुरक्षित नगर से निकल गए हैं। नगर के कुछ विपक्षी नेता अवश्य गिरफ्तार किए गए थे। लेकिन उस कार्यक्रम से संबंधित सभी लोग सुरक्षित थे। 

पातकाल में भी शिवराम के नाटक नहीं रुके। वे गाँव-गाँव चौपालों पर नाटक, कविसम्मेलन और गोष्ठियाँ करते रहे। श्रमजीवी वर्ग की एकता और संघर्ष की चेतना की मशाल जलती रही और नयी मशालों को चेताती रही। पाँच वर्ष बाद फिर स्थानान्तरण हुआ। अब वे कोटा जिला मुख्यालय पर थे और मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, नौजवानों और सांस्कृतिक कर्मियों के संपर्क में थे। सभी क्षेत्रों में उन्हों ने संगठन की चेतना की मशाल जलाई और जलाए ऱखी। जहाँ वे गए वहाँ काम किया और सभी के प्रिय रहे। उन्हें हर श्रमजीवी से अगाध प्रेम था, उन में से जो भी उन के संपर्क में आया उन से प्रेम करने लगा। वे प्रेम की प्रतिमूर्ति थे। उन के काम का विस्तार हुआ, इतना कि देश भर के लोग उन से आशाएँ रखने लगे। सार्वजनिक क्षेत्र से सेवानिवृत्त हुए तो बहुत काम करने का संकल्प था। वे तुरंत जुट गए। वे अपने समय के एक-एक क्षण का उपयोग करते थे। लेकिन जीवन ने असमय धोखा दिया। वह रूठ गया। वे चले गए, लेकिन जो भी उन के संपर्क में एक बार भी आया उस के अंदर वे सदैव जीवित रहेंगे। 

शिवराम के बारे में लिखना बहुत कठिन है, मैं लिखता ही रहूँ तो वह लेखन कभी विराम नहीं ले सकेगा। हम एक और दो अक्टूबर के इन दो काले दिनों को उन की स्मृतियों और प्रेरणा से उजला बनाना चाहते हैं। इस के लिए इस वर्ष उन की बरसी पर कोटा में दो दिनों का कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। 1 अक्टूबर 2011 को भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड), राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र और अखिल भारतीय जनवादी युवा मोर्चा की ओर से दो सत्रों का कार्यक्रम है। पहले सत्र में 'सर्वहारा वर्ग के निराले साथी शिवराम' विषय से एक श्रद्धांजलि सभा दोपहर एक बजे होगी। तीन बजे उन का सुप्रसिद्ध नाटक "जनता पागल हो गई है" का मंचन 'अभिव्यक्ति नाट्य और कला मंच' के कलाकार प्रस्तुत करेंगे। दूसरे सत्र में 'साथी शिवराम के संकल्पों का भारत' विषय पर संगोष्ठी होगी। 2 अक्टूबर को 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच, श्रमजीवी विचार मंच और अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच द्वारा दो गोष्ठियाँ आयोजित कर रहे हैं। पहली गोष्ठी का विषय "जन-संस्कृति के युगान्तरकारी सर्जक : साथी शिवराम" तथा दूसरी गोष्ठी का विषय "अभावों से जूझते जन-गण एवं लेखकों कलाकारों की भूमिका" है। दोनों दिनों के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में श्रमजीवी, लेखक और कलाकार भाग लेंगे।

'जनता पागल हो गई है' नाटक की एक चौराहे पर प्रस्तुति