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सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

इमोजियाँ

पहले मात्र इशारे थे और थे स्वर
व्यंजन सभी भविष्य के गर्भ में छिपे थे
शनैः शनैः मनुष्य ने उच्चारना सीखा
तब जनमें व्यंजन
 
वह पत्थरों पर पत्थरों से
उकेरता था चित्र
वही उसकी अभिव्यक्ति थी

शनैः शनैः चित्र बदलते गए अक्षर लिपियों में
अक्षर लिपियों और उच्चारण के
संयोग से जनमी भाषाएँ

लिखना बदला टंकण में
और कम्प्यूटर के आविष्कार के बाद
चीजें बहुत बदल गईं दुनिया में
अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले

अब शब्दों ही नहीं वाक्यों को भी
प्रकट करती हैं इमोजियाँ
लगता है मनुष्य वापस लौट आया है
चित्र लिपियों के युग में

मैंने अपने आप को देखा
मैं खड़ा था बहुत ऊँचे
मैं नीचे झाँका
तो वहाँ बहुत नीचे
ठीक मेरी सीध में दिखाई दिए
आदिम मनुष्य द्वारा अंकित चित्र
और चित्र लिपियाँ

लौट आया था मैं उसी बिन्दु पर
लेकिन नहीं था ठीक उसी जगह
उससे बहुत ऊँचाई पर था।
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शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

राज्य, मनुष्य समाज से अलग और उस से ऊपर : बेहतर जीवन की ओर-7

मने अब तक मानव समाज की जांगल-युग से राज्य के विकास तक की यात्रा का संक्षिप्त अवलोकन किया। हम जानते हैं कि पृथ्वी पर जैविक विकास के एक स्तर पर हम मानवों का उद्भव वानर जाति के किसी पूर्वज से हुआ है। मनुष्य के प्रारंभिक रूप होमोसेपियन्स को प्रकट हुए अधिक से अधिक पाँच लाख वर्ष और आधुनिक मानव का प्राकट्य दो लाख वर्ष पूर्व के आसपास का है। प्रसिद्ध अमरीकन नृवंशशास्त्री और सामाजिक सिद्धान्तकार ल्यूइस एच. मोर्गन ने मानव के सामाजिक विकास के इतिहास को तीन युगों में वर्गीकृत किया है। जांगल युग, बर्बर युग तथा सभ्यता का युग। उन्हों ने पहले दो युगों के मानव समाज के इतिहास की तर्कसंगत और तथ्यात्मक रूपरेखा को स्पष्ट करने का महत्बपूर्ण काम किया। उन्हों ने इन दो युगों को भी तीन-तीन भागों में विभाजित किया है। जांगल युग की पहली निम्न अवस्था जो हजारों वर्षों तक चली होगी और जिस में मनुष्य आंशिक रूप से वृक्षों पर निवास करता था, हिंसक पशुओं का सामना करते हुए जीवित रहने का एक मात्र यही तरीका उस के पास था। इस युग की विशेषता यही है कि मनुष्य बोलना सीख गया था। इस युग के अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन यदि हम एक बार मान लेते हैं कि मनुष्य का उद्भव जैविक विकास के परिणाम स्वरूप हुआ हुआ है तो हमें इस संक्रमण कालीन अवस्था को मानना ही होगा। जांगल युग की दूसरी मध्यम अवस्था में मनुष्य जल-जन्तुओं मछली, केकड़े, घोंघे आदि को भोजन के रूप में प्रयोग करने लगा था। इसी अवस्था में उस ने आग का प्रयोग सीखा। नदियों और समुद्र तटों की यात्रा करते हुए इसी युग में मनुष्य लगभग पृथ्वी के भूभाग पर फैल गया था। पुरापाषाण युग के औजार इसी अवस्था के हैं। इसी युग में पहले अस्त्रों गदा और भालों का आविष्कार हुआ। इसी युग में वह शिकार करने और कभी कभी मांस को भोजन में शामिल करने लगा था। तीसरे और जांगल युग की उन्नत अवस्था धनुष-बाण के आविष्कार से आरंभ हुई, लेकिन वह अब तक मिट्टी के बर्तन भांडे बनाने की कला नहीं सीख सका था। हाँ वह लकड़ी के बर्तन अवश्य बनाने लगा था। पेड़ों के खोखले तनों से नाव बनाना उस ने आरंभ कर दिया था। इसी अवस्था में उस ने जीवन निर्वाह के साधनों पर किसी तरह काबू पा लिया था और गाँवों में बसने लगा था।
र्बर युग की निम्न अवस्था तब आरंभ हुई जब उस ने मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीख ली। मनुष्य लगभग सारी धरती पर इस समय तक पहुँच चुका था। इस काल तक मानव विकास पूरी पृथ्वी में एक जैसा मिलता है। लेकिन खेती सीख लेने के निकट पहुँच जाने पर अलग अलग क्षेत्रों की प्राकृतिक परिस्थितियाँ उसे अलग अलग तरीके से प्रभावित कर रही थीं। आगे का विकास बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता था कि धरती के जिस क्षेत्र में वह निवास कर रहा है वहाँ की धरती, जलवायु, मौसम आदि किस प्रकार के हैं और उसे किस तरह के प्राकृतिक साधन उपलब्ध करा रहे हैं। ये सब चीजें मनुष्य के सामाजिक विकास की गति को भी प्रभावित कर रही थीं। यही एक कारण है कि एक भूभाग पर विकास की गति मंद दिखाई देती है तो दूसरे स्थान पर वह तेज दिखाई देती है।

र्बर युग की मध्यम अवस्था पशुपालन से आरंभ हुई। इसी युग में खाने लायक पौधों की सिंचाई के माध्यम से खेती का आरंभ और मकान बनाने के लिए धूप में सुखाई ईंटों का प्रयोग आरंभ हो जाता है। अमरीकी इंडियन यूरोप के लोगों द्वारा विजय प्राप्त कर लेने तक भी इसी अवस्था का जीवन जीते थे। पूर्वी गोलार्ध में यह अवस्था दूध और मांस देने वाले पशुओं के पालन से आरंभ हुई, वे अभी खेती करना नहीं जानते थे। खेती बाद में पशुओं के चारे के लिए आरंभ हुई। बर्बर युग की उन्नत अवस्था लौह खनिज को गलाने और लिखने की कला के आविष्कार से आरंभ हुई। इसी अवस्था में हम पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले हलों का उपयोग देखते हैं। इसी युग में धातुओं के औजार, गाड़ियाँ और नगरों का निर्माण देखने को मिलता है। यहीं से सभ्यता का काल आरंभ हो जाता है। जांगल युग में प्रकृति के पदार्थों को हस्तगत करने की प्रधानता थी और इन्हीं कामों के लिए आवश्यक औजार मनुष्य उस युग में विकसित कर सका। बर्बर युग में मनुष्य ने पशुपालन और खेती करने का ज्ञान अर्जित किया तथा अपनी क्रियाशीलता के कारण प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखे। जांगल और बर्बर युगों का काल बहुत लंबा चलता है जिस के मुकाबले सभ्यता का वर्तमान युग आधुनिक मनुष्य (होमो सेपियन्स सेपियन्स) के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों का पाँच प्रतिशत से भी कम, केवल कुछ हजार वर्षों का है।
धुनिक मनुष्य के उद्भव से आज तक के दो लाख वर्षों में से सभ्यता के युग के कुछ हजार वर्ष निकाल दें तो हम पाते हैं कि मनुष्य ने अपने जीवन के दो लाख वर्षों का लगभग 95 प्रतिशत काल बिना किसी राज्य व्यवस्था के बिताया। तब भी जब समूह में दास सम्मिलित होने से वर्ग उत्पन्न हो गए थे, दासों के अतिरिक्त स्वतंत्र समुदाय अपनी व्यवस्था को बिना किसी राज्य के रक्त संबंधों पर आधारित संस्थाओं के माध्यम से चलाता रहा था। राज्य कोई ऐसी संस्था नहीं जिस के बिना मनुष्य जीवन संभव नहीं। वह ऐसी शक्ति भी नहीं जो अचानक बाहर से ला कर मनुष्य समाज पर लाद दी गई हो। वह किसी नैतिक विचार या विवेक का मूर्त और वास्तविक रूप भी नहीं है। वह मनुष्य समाज की उपज है जो विकास की एक निश्चित अवस्था में उत्पन्न हुई है। वह इस बात का पुख्ता प्रमाण है कि मनुष्य समाज ऐसे अंतर्विरोधों में फँस गया है, जिन्हें वह हल नहीं कर पा रहा है, उन के हल का कोई समाधान नहीं खोज पा रहा है। उसे ऐसी शक्ति की आवश्यकता पड़ गई है जो मनुष्य समाज में पैदा हो गए इन अन्तर्विरोधों का हल खोज निकालने तक मनुष्य समाज को व्यर्थ के वर्गसंघर्ष से नष्ट होने से बचा ले चले। वह एक ऐसी शक्ति बन गई है जो ऊपर से मालूम पड़े कि वह मनुष्य समाज से अलग उस के ऊपर खड़ी है। इस शक्ति ने जिसे हम राज्य के नाम से जानते हैं, जो समाज से ही उत्पन्न हुई, उस ने समाजोपरि स्थान ग्रहण कर लिया और उस से अधिकाधिक पृथक तथा दूर होती चली गई।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

राज्य की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की ओर -6

ब तक हमने देखा कि किस तरह शिकार करते हुए पशुओं के बारे में अनुभव ने मनुष्य को पशुपालन की और धकेला और इसी पशुपालन ने मनुष्य समाज में दास वर्ग को उत्पन्न किया। ये दास स्वामी समूह की सहायता करते थे। इन्हीं में से तरह तरह के दस्तकारों का एक नया वर्ग उभरा। जिस ने मनुष्य जीवन को बेहतर बनाने में मदद की। पशुओं के लिए चारा पैदा करते हुए उस ने अपने खाने के लिए अनाज की खेती करना सीख लिया। लोहे से औजार बनाने की कला विकसित हुई जिस ने जंगलों को काट कर खेती लायक बनाना और उन्हें जोतना आसान कर दिया। पशुओं और दासों का विनिमय पहले प्रचलित था, लेकिन खेती से उत्पन्न प्रचुर मात्रा में अनाज व दूसरी फसलों ने विनिमय को अत्यधिक बढ़ा दिया। इसी से एक नया व्यापारी वर्ग उत्पन्न हुआ।

ब तक जितने भी वर्ग थे उन के जन्म के साथ उत्पादन प्रक्रिया का सीधा संबंध था। लेकिन व्यापारी वर्ग का उत्पादन प्रक्रिया से सीधा संबंध नहीं था। इस नए वर्ग ने उत्पादकों में यह विश्वास पैदा कर दिया था कि वह उन के उत्पादन को कहीं भी खपाएगा और उस के बदले उन्हें उपयोगी वस्तुएं ला कर देगा। इस तरह बिना किसी उत्पादन प्रक्रिया में भाग लिए इस वर्ग ने उत्पादकों को अपने लिए उपयोगी सिद्ध कर दिया था। इस वर्ग ने उत्पादकों और उन के उपभोक्ताओं दोनों से ही अपनी सेवाओं के बदले मलाई लूटना आरंभ कर दिया और बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही धातु के बने सिक्कों का उपयोग आरंभ हो गया। हर किसी को अपने उत्पाद के बदले ये सिक्के प्राप्त होते जिन से वे दूसरी चीजें प्राप्त कर सकते थे। इस नए साधन के द्वारा माल पैदा न करने वाला माल पैदा करने वालों पर शासन कर सकता था। मालों के माल का पता मिल चुका था। वह एक जादू की छड़ी की तरह था जिसे पलक झपकते ही इच्छानुसार वस्तु में परिवर्तित किया जा सकता था। अब उत्पादन के संसार में उसी का बोलबाला था जिस के पास यह जादू की छड़ी सब से अधिक मात्रा में होती थी। यह सिर्फ व्यापारी के पास हो सकती थी। यह स्पष्ट हो चुका था कि आगे सभी उत्पादकों को इस मुद्रा के आगे नाक रगड़नी पड़ेगी। सब माल इस मूर्तिमान माल के सामने दिखावा रह गए थे।

विभिन्न मालों, दासों और मुद्रा के रूप में सम्पदा के अतिरिक्त अब जमीन भी एक संपदा के रूप में सामने आ गयी थी। कबीलों से परिवारों को खेती करने के लिए जमीनों के जो टुकड़े मिले थे उन पर अब उन का अधिकार इतना पक्का हो गया था कि वे वंशगत संपत्ति बन गए थे। जमीन के इन नए मालिकों ने गोत्र और कबीलों के अधिकार के बंधनों को उतार फेंका था। यहाँ तक कि उन के साथ संबंधों को भी समाप्त कर लिया था। जमीन पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया था। अब जमीन ने भी माल का रूप धारण कर लिया था। उसे मुद्रा के बदले बेचा जा सकता था और रहन रखा जा सकता था। उधर माल हासिल करने के लिए मुद्रा एक आवश्यक चीज बन गई थी। उसे उधार दिया जा सकता था जिस पर ब्याज वसूला जा सकता था। इस तरह सूदखोरी का जन्म हुआ। निजि स्वामित्व के साथ सूदखोरी और रहन वैसी ही चीजें थी जैसे एकनिष्ठ विवाह के साथ अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति थी। मुद्रा का चलन, सूदखोरी, निजि भूस्वामित्व और रहन के साथ व्यापार के विस्तार से एक छोटे वर्ग के पास बड़ी तेजी से धन संग्रह होने लगा तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ने लगी। तबाह और दिवालिया लोगों की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी। इस से समाज में दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। एथेंस में समृद्धि के उत्कर्ष के समय स्त्रियों और बच्चों सहित स्वतंत्र लोगों की संख्या मात्र 90,000 थी जब कि दासों की संख्या 3,65,000 थी। कोरिंथ और ईजिना नगरों मे दासों की संख्या स्वतंत्र लोगों के मुकाबले दस गुना थी।

लेकिन अब तक उन आदिकालीन संस्थाओं का हाल क्या हुआ यह भी देख लिया जाए। गोत्र व कबीले उन की इच्छा और सहायता के बिना पैदा हो गई नई चीजों के सामने निस्सहाय हो गये। गोत्रों और कबीलों का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि उन के सभी सदस्य एक इलाके में रहें और दूसरे न रहें। लेकिन ऐसा तो बहुत समय से नहीं रह गया था। गोत्र और कबीले आपस में घुल मिल गए थे। हर स्थान पर स्वतंत्र नागरिकों के बीच दास, आश्रित और विदेशी लोग रहने लगे थे। पशुपालन से खेती में संक्रमण से यायावरी ने जो स्थावरता हासिल की थी वह अब फिर से समाप्त हो रही थी। लोगों की गतिशीलता और निवास परिवर्तन उसे तोड़ रहा था। व्यापार धंधे बदलने, भूमि के अन्य संक्रमण से यह संचालित हो रहा था। गोत्र और कबीलों के सदस्यों के लिए यह संभव नहीं था कि वे सामुहिक मामलों को निपटाने के लिए एक स्थान पर एकत्र हो सकें। वे अब गौण महत्व के धार्मिक और पारिवारिक अनुष्ठानों के समय ही आपस में एकत्र होते थे, वह भी आधे मन से। गोत्र-समाज की संस्थाएँ जिन जरूरतों को हितों की देखभाल करती थीं उन के अतिरिक्त जीविकोपार्जन की अवस्थाओं में क्रांति तथा उस के अनुरूप सामाजिक ढांचे में हुए परिवर्तन से कुछ नई जरूरतें और नए हित भी पैदा हो गए थे। जिन्हें गोत्र समाज की संस्थाएँ नहीं संभाल सकती थीं। श्रम विभाजन से दस्तकारों के नए समूह पैदा हुए थे। उन के हितों और देहात के मुकाबले नगरों के विशिष्ठ हितों के लिए नए निकायों की आवश्यकता थी।

न नए निकायों का निर्माण गोत्र समाजों के समानान्तर और गोत्र समाज के बाहर उस के विरोध में होने लगा। गोत्र समाज की प्रत्येक संस्था के भीतर अमीरों-गरीबों, सूदखोरों-कर्जदारों के एक साथ होने के कारण भीतरी टक्कर चरम सीमा पर पहुँच गई। रक्त संबंधों पर आधारित ये गोत्र, कबीले बाहरी लोगों की उपस्थिति को अपने अंदर जज्ब करने की क्षमता नहीं रखते थे। इस तरह गोत्र समाज का लोकतंत्र अब एक तरह का घृणित अभिजात तंत्र बन गया था। इन परिस्थितियों में एक ऐसा समाज उत्पन्न हो गया था जिस ने अनिवार्यतः स्वयं को स्वतंत्र नागरिकों और दासों में, शोषक धनिकों और शोषित गरीबों में विभाजित कर दिया था। लेकिन वह इन वर्गो में सामंजस्य लाने में असमर्थ था और स्वयं ही इन में और अधिक दूरियाँ पैदा कर रहा था। इस से एक तो यह हो सकता था कि ये वर्ग एक दूसरे के विरुद्ध खुला संघर्ष चलाते रहें और मारकाट व अराजकता की स्थितियाँ बन जाएँ। दूसरे यह हो सकता था कि एक तीसरी शक्ति का शासन हो जो देखने में संघर्षरत वर्गों से अलग तथा उन से ऊपर दिखाई पड़े और उन्हें खुले संघर्ष न चलाने दे। अधिक से अधिक उन्हें आर्थिक क्षेत्र में तथाकथित रीति से संघर्ष करने की छूट दे दे। श्रम विभाजन और समाज के वर्गों में बँट जाने से गोत्र व्यवस्था की उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी। उस का स्थान इस नयी जन्मी तीसरी शक्ति 'राज्य' ने ले लिया था।

सेना और व्यापारियों की उत्पत्ति : बेहतर जीवन की तलाश-5


 शुओं के रूप में उत्पन्न हुई संपत्ति ने मातृवंश को पितृसत्ता में परिवर्तित कर दिया। यह परिवर्तन शांतिपूर्ण रीति से चुपचाप अवश्य हुआ, लेकिन इस का सफर आसान नहीं था। पशुपालन के पूर्व तक गोत्रों के पास संपत्ति थी ही नहीं। पशुओं को पकड़ कर लाने, उन्हें पालतू बनाने और युद्ध बंदियों को दास बना कर रखने का काम पुरुषों ने किया था, इस कारण समूह के पुरुष ही इस पहली संपत्ति के स्वामी थे। पशुपालन और रेवड़ों में पशुओं की संख्या बढ़ने से उन के बदले कुछ भी प्राप्त किया जा सकता था। वे विनिमय का साधन हो गए, वे मुद्रा का काम करने लगे। पशुओं के बदले प्राप्त वस्तुएँ भी पुरुषों की संपत्ति हो गईं। पुरुषों ने घर के बाहर के सब काम संभाले और स्त्री के पास पहले से घर के अंदर के जो काम थे वे ही उन के पास रह गए। आजीविका का काम पुरुषों के पास आ जाने से घर के अंदर के कामों के कारण जो प्रमुख स्थान स्त्रियों को प्राप्त था, अब उसी कारण से स्त्रियों का स्थान गौण हो गया। उन के घरेलू कामों का महत्व जाता रहा। सामाजिक उत्पादन में उस का कोई योगदान नहीं रहा। इसी से हम आज यह सीख ले सकते हैं कि जब तक केवल घर के काम स्त्रियों के पास रहेंगे उन का पुरुषों के साथ बराबरी का हक प्राप्त करना असंभव है, और असंभव ही रहेगा। वे तभी स्वतंत्र हो सकती हैं जब बड़े सामाजिक पैमाने पर वे उत्पादन में भाग लेने लगें। मातृवंश के स्थान पर पितृसत्ता के कायम होने से समूह पर पुरुष की तानाशाही पूरी तरह स्थापित हो गयी। इस तरह संपत्ति के उद्भव ने स्त्री-पुरुष के बीच जो भेद कायम किया वह आज तक चला आ रहा है।
लोहे के आविष्कार ने जंगलों को काट कर खेती योग्य भूमि तैयार करने और भूमि को बड़े पैमाने पर जोतना संभव कर दिया। इस से खेती का विस्तार होने लगा। दस्तकारों को सख्त और तेज औजार मिल गए। धीरे धीरे पत्थर के औजार गायब होने लगे। कबीलों के और कबीलों के महासंघ के मुख्य स्थान नगर हो गए। बुर्जों और दरवाजों से युक्त चहारदिवारी के घेरे में पत्थर और ईंटों के मकान बनने लगे। यह वास्तुकला के विकास और संपदा के कारण उत्पन्न खतरों से प्रतिरक्षा की आवश्यकता के द्योतक थे। संपत्ति बढ़ रही थी और यह अलग अलग व्यक्तियों की थी। बुनाई, धातुकर्म, दस्तकारों का अपना विशिष्ठ रूप होता जा रहा था। खेती से अनाज, दालें, फल, सब्जियाँ ही नहीं तेल और शराब भी मिलने लगे। कुछ लोग इन्हें बनाने की कला में विशिष्ठता हासिल करने लगे। इतने तरह के काम होने लगे थे कि हर कोई सब काम नहीं कर सकता था। इस से श्रम विभाजन हुआ और खेती से दस्तकारी अलग हो गई। इस से उत्पादन क्षमता बढ़ी, उस ने मानव की श्रम शक्ति का मूल्य बढ़ा दिया। इस से दासों का महत्व बढ़ गया। अब वे केवल सहायक नहीं रह गये। उन्हें कई तरह के कामों में झोंका जाने लगा। उत्पादन के खेती और दस्तकारी में बंट जाने से विनिमय के लिए ही माल का उत्पादन होने लगा। इस से कबीलों की सीमाओं के पार यहाँ तक कि समुद्र पार तक व्यापार होने लगा।
ब स्वतंत्र लोगों और दास के भेद के साथ ही अमीर गरीब का भेद भी दिखाई देने लगा। सामुदायिक कुटुम्ब कायम थे लेकिन उन के मुखियाओं के पास अधिक या कम संपदा होने के आधार पर वे टूटने लगे। समुदाय द्वारा मिल कर खेती करने की प्रथा भी समाप्त होने लगी। जमीन परिवारों में बंटने लगी। इस तरह निजि स्वामित्व में संक्रमण आरंभ हुआ। परिवार भी निजि स्वामित्व के बढ़ने के साथ ही एकनिष्ठ होने लगे। परिवार समाज की आर्थिक इकाई बन गए। आबादी के घनी होने से यह आवश्यक हो गया कि वह आंतरिक और बाह्य रूप से पहले से अधिक एकताबद्ध हो। पहले एक दूसरे से रिश्ते से जुड़े कबीलों के महासंघ बने और फिर कुछ समय बाद उन का विलय होने लगा। कबीलों के इलाके मिल कर एक जाति का इलाका बन गए। गोत्र समाज एक सैनिक लोकतंत्र के रुप में विकसित होने लगे। युद्ध करना और युद्ध के लिए संगठन करना जन जीवन का नियमित अंग बनने लगा। पड़ौसी जाति की दौलत देख कर ललचाना, उसे हासिल करना जीवन का प्रमुख उद्देश्य बन गया। उत्पादक श्रम से दौलत हासिल करने के स्थान पर लूटमार कर के हासिल करना अधिक आसान और सम्मानप्रद था। पहले जहाँ आक्रमण का बदला लेने या अपर्याप्त क्षेत्र को बढ़ाने के लिए ही युद्ध होते थे अब संपदा हासिल करने के लिए भी होने लगे। युद्धों ने सेना नायकों, उपनायकों की शक्ति को बढ़ा दिया। एक ही परिवार से उत्तराधिकारी चुने जाने की प्रथा वंशगत उत्तराधिकार में बदल गई। इस तरह वंशगत बादशाहत और अभिजात वर्ग की नींव पड़ गई। गोत्र व्यवस्था की जड़ें जनता के बीच से उखाड़ दी गईं। अपने मामलों की खुद व्यवस्था करने वाले कबीलों के संगठन अब पड़ौसियों को लूटने और सताने के संगठन बन गए। उसी के अनुसार गोत्र संगठनों के निकाय जनता की इच्छा को कार्यान्वित करने के स्थान पर जनता पर शासन करने और अत्याचार करने वाले स्वतंत्र निकाय बन गए।
न नयी परिस्थितियों ने श्रम विभाजन को और मजबूत किया। शहर और देहात का अंतर और अधिक बढ़ गया। एक और श्रम विभाजन हुआ। इस से एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया जो उत्पादन में बिलकुल भाग नहीं लेता था। वह केवल विनिमय करता था। यह व्यापारी वर्ग था। यह ऐसा वर्ग सामने आया था जो उत्पादन में बिलकुल भी भाग न लेते हुए भी उस के प्रबंध पर पूरा अधिकार जमा लेता था और उत्पादकों को अपने अधीन कर लेता था। वह उत्पादकों के बीच ऐसा बिचौलिया बन गया था जिस के बिना उन का काम नहीं चलता था और वह दोनों का शोषण करता था। इस अवस्था में इस नवोदित व्यापारी वर्ग को कल्पना भी नहीं थी कि भविष्य में उस के भाग्य में कितनी ही बड़ी बड़ी बातें लिखी हैं। 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

मातृवंश से पितृसत्ता की ओर : बेहतर जीवन की तलाश-4


नुष्य जीवन का आरंभ समूह में ही हुआ था। उस के बिना उस का जीवन संभव नहीं था। लेकिन एक प्रश्न हमारे सामने आता है कि पशु अवस्था से मानव अवस्था में संक्रमण के समय इस समूह का संस्थागत रूप क्या रहा होगा? इस के लिए गोरिल्ला और चिम्पाजी जैसे वानरों के जीवन की ओर संकेत किया जाता है। लेकिन जैसी परिस्थितियों में ये वानर रहते हैं उन परिस्थितियों से तो मनुष्य रूप में संक्रमण संभव नहीं हो सकता था। ये वानर तो विकास के मुख्य क्रम से अलग हो कर लुप्त हो जाने की पतनोन्मुख अवस्था में हैं। इस कारण आदिम मानवों तथा इन वानरों में समानता तलाशना उचित नहीं है। केवल बड़े सामुहिक यूथों में रहते हुए ही मानवावस्था में संक्रमण संभव था। इन यूथों की सब से बड़ी शर्त यही थी कि वयस्क नरों के बीच पारस्परिक सहनशीलता हो और वे ईर्ष्या की भावना से मुक्त हों। मानव परिवार का जो सब से पुराना आदिम रूप, जिसके इतिहास में अकाट्य प्रमाण मिलते हैं वह यूथ-विवाह का रूप है। जिस में दस के सभी पुरुषों का पूरे दल की सभी स्त्रियों के साथ संबन्ध होता है, और जिस में ईर्ष्या की भावना लगभग नहीं होती।

मानव परिवार का यह रूप जांगल युग की उच्चतर अवस्था और बर्बर युग की आरंभिक अवस्था तक अनेक रूपों में विकसित होता रहा जिस में हमें, रक्तसंबंध परिवार, युग्म परिवार, सहभागी परिवार आदि रूप देखने को मिलते हैं। इन तमाम विभिन्न रूपों के होते हुए भी सामुदायिक कुटुम्ब बना रहा जिस में नारी का प्राधान्य था। सगे पिता का पता न हो सकने के कारण सगी माता की एकान्तिक मान्यता थी। जिस का अर्थ था स्त्रियों अर्थात माताओं का प्रबल सम्मान। इन सामुदायिक कुटुम्बों में अधिकतर स्त्रियाँ, यहाँ तक कि सभी स्त्रियाँ एक ही गोत्र की होती थीं और पुरुष दूसरे गोत्रों से आते थे। इस तरह के कुटुम्बों को मातृसत्तात्मक कहा और समझा जा सकता है, लेकिन तब तक वहाँ सत्ता जैसी चीज उत्पन्न ही नहीं हो सकी थी, सत्ता के लिए संपत्ति का होना जरूरी था। उस समय तक कुटुम्बों के पास जो वस्तुएँ थीं भी जिन्हें सम्पत्ति समझा जा सकता था, वे भी सत्ता की उत्पत्ति के लिए अपर्याप्त थीं। इस रूप में हम कह सकते हैं कि कुटुम्बों में स्त्री-प्राधान्य था लेकिन उस में मातृसत्ता जैसी कोई अवस्था नहीं थी। समाज का हर सदस्य यथाशक्ति समूह के लिए काम करता था और आवश्यकतानुसार अपना भाग प्राप्त करता था।

शुपालन और पशुप्रजनन ने संपदा का एक नया स्रोत उत्पन्न किया था जिस की उस से पहले के मानव ने कल्पना भी नहीं की थी। बर्बर युग की निम्न अवस्था तक मकान, वस्त्र, कुघड़ आभूषण, आहार उपलब्ध करने के लिए जरूरी औजार, नाव, हथियार और बहुत मामूली बर्तन-भांडे मात्र ही स्थायी संपत्ति थे। आहार नित्य ही प्राप्त करना पड़ता था। लेकिन पशुपालन ने घोड़े, ऊँट, गाय-बैल, भेड़-बकरियाँ और सुअरों के रेवड़ आदि नयी संपदा के रूप में मनुष्य को प्रदान किए थे। भारत में पंजाब और गंगा के क्षेत्रों में आर्यों तथा फरात और दजला के क्षेत्र में सामी लोगों की यह संपदा नदियों के पानी और हरे-भरे मैदानों के कारण दिन दूनी और रात चौगुनी दर से बढ़ रही थी। लोगों को दूध और मांस के रूप में अधिक स्वास्थ्यकर भोजन मिलने लगा था। आहार के पुराने तरीके पीछे छूट रहे थे। भोजन का प्राचीन तरीका शिकार अब शौक बन कर रह गया था। प्रश्न उठता है कि पशुओं के रूप में प्राप्त इस नयी संपदा पर किस का अधिकार था? निस्संदेह यह अधिकार संपूर्ण समूह (गोत्र) का था। लेकिन प्रामाणिक इतिहास के प्रारंभ में ही हम यह पाते हैं कि पशुओं के रेवड़ से लेकर मानव पशु (दास) तक मुखियाओं की अलग संपदा होते थे। कारण कि अब दास उत्पन्न हो चुके थे।

शुपालन के साथ ही धातुओं का प्रयोग होने लगा था और अंत में खेती होने लगी तब स्थिति परिवर्तित हो गयी। गोत्र आरंभ में मातृवंश थे और गोत्र में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर संपत्ति का गोत्र में रहना आवश्यक था। आरंभिक संपत्तियाँ साधारण थीं और वे किसी निकट के संबन्धियों को प्राप्त होती थीं। लेकिन मृत पुरुष के बच्चे उस के स्वयं के गोत्र के न हो कर उस की पत्नी के गोत्र के होते थे। पिता की संपत्ति उस के अपने बच्चों को नहीं मिल सकती थी। वह भाइयों, बहनों और बहनों के बच्चों या मौसियों के वंशजों को मिल जाती थी। लेकिन पुरुष के अपने बच्चे उस के उत्तराधिकार से वंचित थे। लेकिन जैसे जैसे संपत्ति बढ़ती गई नारी के स्थान पर पुरुष का महत्व बढ़ता गया। पुरुष के मन में यह इच्छा जोर पकड़ने लगी कि अपनी मजबूत स्थिति का लाभ उठा कर पुरानी प्रथा को उलट दिया जाए। जिससे उस के अपने बच्चे उस की संपत्ति प्राप्त कर सकें। ऐसा किया भी गया। लेकिन इस में अधिक कठिनाई भी नहीं थी क्यों कि जैसा चला आ रहा था उस में बहुत बड़े परिवर्तन की जरूरत नहीं थी। केवल इतना फैसला भर पर्याप्त था कि पुरुष सदस्यों के वंशज गोत्र में रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग किए जाएंगे वे उन के पिताओं के गोत्र में सम्मिलित किए जाएंगे। इस तरह चुपचाप एक क्रांति संपन्न हुई और मातृ वंशानुक्रम तथा दायाधिकार की प्रथा उलट गयी। हम इस क्रांति के बारे में कुछ भी नहीं जानते लेकिन वास्तव में यह हुई थी। क्यों कि मातृवंशानुक्रम के अनेक अवशेष मिले हैं। उत्तर भारत के परिवारों में नवरात्र की अष्टमी के दिन कुल देवी की पूजा आवश्यक मानी जाती है। यदि परिवार आरंभ से पितृवंशानुक्रम में होते तो यह कुल देवी कहाँ से उत्पन्न हुई थी और उस के साथ कोई कुल देवता क्यों नहीं है? केरल प्रान्त में अभी भी मातृवंशीय परिवार मौजूद हैं।

ह क्रांति मनुष्य को उत्पादन का नया साधन पशुपालन मिल जाने और संपत्ति के पैदा होने का सीधा परिणाम थी। इस ने परिवार में संबन्धों को तथा मनुष्य समाज के संस्थागत रूप को बदल दिया था। मातृवंशानुक्रम का विनाश हो चुका था। अब घर के अंदर भी पुरुष ने अपना कब्जा जमा लिया था। स्त्री पदच्युत कर दी गई थी, उसे जकड़ दिया गया था। वह पुरुष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने वाला यंत्र मात्र रह गयी थी। जो नया कुटुंब इस तरह स्थापित हुआ था वह बहुत कुछ भारतीय संयुक्त हिन्दू परिवार की तरह था जिस में एक पुरुष के कई पीढ़ियों के वंशज और उन की पत्नियाँ सम्मिलित होती थीं। सब साथ साथ रहते, खेतों को जोतते, समान भंडार से भोजन व वस्त्र प्राप्त करते और प्रयोग के बाद जो वस्तुएँ बच रहती वे परिवार की सामुहिक संपत्ति हो जाती थीं। प्रबंध सब एक मुखिया के हाथ में रहता। लगभग सभी अंतिम निर्णय वही करता था। हालांकि सभी की सलाह अवश्य प्राप्त की जाती थी।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

खेती का आविष्कार और सामंती समाज व्यवस्था का उदय : बेहतर जीवन की तलाश-3

शुपालन के साथ मनुष्य अनेक नयी चीजें सीख रहा था। जांगल युग में वह तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। लेकिन पशुपालन के माध्यम से उस ने स्वयं उत्पादन करना आरंभ किया। मांस और दूध उस के उत्पादन थे। मृत पशुओं के चर्म से उसे तन ढकने को पर्याप्त चमड़ा भी प्राप्त हो रहा था। लेकिन पशुओं को पालने के लिए सब से आवश्यक चीज थी पशुओं के भोजन के लिए चारा। जो उस समय तक प्राकृतिक रूप से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। बस पशुओं को चारे के समीप ले जाना था। इस तरह मनुष्य समूह अपने पशुओं के साथ, जो तब तक उस की प्रमुख बन चुके संपत्ति थे, चारे की तलाश में स्थान बदलता रहा। इस दौरान उस ने देखा कि किस तरह एक मैदान का सारा चारा पशुओं द्वारा चर जाने पर भी अनुकूल परिस्थितियों में चारा दुबारा उगने लगता है। काल के साथ उस ने यह भी जाना कि चारे को उगाया जा सकता है। खेती का आरंभ संभवतः सब से पहले चारे के उत्पादन के लिए ही हुआ। इस तरह उस ने एक नयी उत्पादन पद्धति कृषि का आविष्कार किया। इस खेती के आविष्कार ने उस की बारम्बार जल्दी-जल्दी स्थान परिवर्तन की आवश्यकता को कम कर दिया। उस ने मैदानों में जहाँ जल की उपलब्धता थी और चारे की खेती की जा सकती थी टिकना आरंभ कर दिया। वह मिट्टी की ईंटों के घर बनाने लगा। इसी दौरान उस का परिचय लौह खनिजों से हुआ और उस ने लौह खनिजों को गला कर उन से खेती में काम आने वाले औजार मुख्यतः हल का आविष्कार किया। लेकिन जब तक वह केवल चारा उगाता रहा तब तक मुख्यतः पशुपालक ही बना रहा। खेती भी उस के पशुपालन की आवश्यकता मात्र थी। जब घासों की खेती करना उस ने सीख लिया तो वह दिन भी दूर नहीं था जब उस ने यह भी जाना कि कैसे कुछ घासों के बीज मनुष्य को पोष्टिक भोजन प्रदान कर सकते हैं। इस तरह स्वयं के भोजन के लिए जब उस ने बीजों को उगाना सीख लिया तो उन का उत्पादन भी आरंभ हो गया। धीरे-धीरे खेती प्रमुखता प्राप्त करती गयी और पशुपालन खेती का एक सहायक उद्योग भर रह गया।  

सी दौर में उस ने अक्षर लिखने की कला का आविष्कार किया और लेखन में उस का प्रयोग आरंभ कर दिया। इसी अवस्था में हमें पहली बार पशुओं की मदद से लोहे के हलों के प्रयोग से जुताई कर के बड़े पैमाने पर खेती का उपयोग देखने को मिलता है। लोहे के औजार मनुष्य का जीवन बदल रहे थे। जंगलों को काट कर उन्हें खेती और चरागाह भूमि में बदलना लोहे की कुल्हाड़ी और बेलचे की मदद के बिना संभव नहीं था। जनसंख्या तेजी से बढ़ने लगीं और बस्तियाँ आबाद होने लगीं। इस दौरान लोहे के उन्नत औजारों के साथ  धोंकनी, हथचक्की, कुम्हार का चाक, तेल और शराब निर्माण, धातुओं के काम का कलाओं के रुप में विकास। गाड़ियों, युद्ध के रथों, तख्तों से जहाजों का निर्माण, स्थापत्य का कला का प्रारंभिक विकास, मीनारों-बुर्जों व प्राचीरों से घिरे नगरों का निर्माण महाकाव्य और पुराणों की रचना इसी युग की देन हैं। 

खेती के आविष्कार ने मनुष्य को प्रचुर संपदा का मालिक बना दिया था। गुलाम अब भी मौजूद थे लेकिन खेती के काम के लिए उन्हें सदा के लिए बांध कर नहीं रखा जा सकता था। खेती के लिए उन्हें छूट की आवश्यकता थी। इस तरह दासों की एक नयी किस्म भू-दासों का उदय हो रहा था। इस तरह अब समूह खेती करने योग्य भूमि का स्वामी भी हो चुका था। भू-दास समूह के लिए खेती करते थे। समूह के सदस्य उन पर नियंत्रण रखने का काम करने लगे थे। खेती की उपज समूह की संपत्ति थी। भू-दासों को उपज का केवल उतना ही हिस्सा मिलता था जितनी कि उन के जीवनधारण के लिए न्यूनतम आवश्यकता थी। हम कुछ काल पहले तक देखते हैं कि अकाल आदि की अवस्था में भी किसान को जमींदार का हिस्सा देना होता था। चाहे वास्तविक उत्पादक के पास उस का जीवन बनाए रखने तक के लिए भी कुछ न बचे। उसे अपने जीवन को बचाए रखने के लिए जमींदार से कर्जा लेना होता था और इस तरह वह सदैव कर्जे में दबा रहता था।
स बीच समूह के सद्स्यों की संख्या भी बढ़ रही थी और खेती योग्य भूमि भी। यह संभव नहीं था कि समूह सारी भूमि पर खेती की व्यवस्था कर सके। इस के लिए समूह ने परिवारों को भूमि बांटना आरंभ कर दिया। इस तरह परिवारों के पास भूमि एक संपत्ति के रूप में आ गयी। परिवारों के मुखिया को भूमिपति की तरह पहचाना जाने लगा। संपत्ति की प्रचुरता से लेन-देन और वस्तुओं के विनिमय का भी आरंभ हुआ। समूह अब परिवारों में बंट गया था। परिवारों की अपनी संपत्ति होने लगी थी। परिवार के विभाजित होने पर संपत्ति का विभाजन भी होने लगा। इस तरह परिवार के हर सदस्य का भाग संपत्ति में निर्धारित होने लगा। उस के लिए लेन-देन, व्यापार, उत्तराधिकार और विवाह के लिए स्पष्ट विधि की भी आवश्यकता महसूस होने लगी। विधि की पालना के लिए राज्य के उदय के लिए परिस्थितियाँ बनने लगीं।  बाद में राज्य बने और उन के विस्तार के लिए युद्ध भी हुए। आने वाला संपूर्ण सामन्ती काल भूमि और संपदा के लिए युद्धों के इतिहास से भरा पड़ा है। अभी उस के विस्तार में जाने के स्थान पर केवल इतना समझ लेना पर्याप्त है कि मनुष्य ने अपनी सहूलियत को बढ़ाने के लिए नयी उत्पादन पद्धति और साधनों का विकास किया। लेकिन प्रत्येक उत्पादन पद्धति ने न केवल मनुष्य के जीवन को बदला अपितु मनुष्य समाज के ढांचे, उस की व्यवस्था को भी अनिवार्य रूप से परिवर्तित किया।

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

पशुपालन का आरंभ : बेहतर जीवन की तलाश-2


बात आरंभ यहाँ से हुई थी कि आज मनुष्य जीवन को सब तरफ से आप्लावित करने वाली कंपनियों का उदय कब और क्यों कर हुआ? लेकिन हम ने आरंभ किया मनुष्य जीवन के आरंभिक काल में हो रहे परिवर्तनों से। हम ने देखा कि भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के जांगल युग में अपने रोजमर्रा के कामों के बीच हुए अनुभवों और बेहतर जीवन की तलाश ने पशुओं को काबू करने और मुश्किल दिनों के लिए उन का संरक्षण करना आरंभ कर दिया था। इसी ने विजेता समूह में पराजित समूह के सदस्यों के जीवन का अंत करने की प्रवृत्ति को दास बनाने के प्रयत्न में बदलना आरंभ किया था। इस तरह वे अपना जीवन बेहतर बनाना चाहते थे। पराजित समूह के सदस्य के लिए जानबख्शी भी बहुत बड़ी राहत थी। इस तरह अब जो मानव समूह अस्तित्व में आया उस में और पहले वाले मानव समूह में एक बड़ा अंतर यह था कि पहले वाले समूह में केवल सदस्य थे जो किसी न किसी प्रकार से रक्त संबंधों से जुड़े थे और सदस्यों के बीच कोई भेद नहीं था। लेकिन जो नया समूह जन्म ले रहा था उस में सदस्यों के अतिरिक्त दास भी सम्मिलित थे। अब समूह वर्गीय हो चले थे। दासों को बन्धन में रहते हुए वही काम करना था जो समूह के सदस्य उन के लिए निर्धारित करते थे। ये काम समूह के मुख्य कामों के सहायक काम होते थे। इस के बदले समूह उन्हें मात्र इतना भोजन देता था कि वे किसी तरह जीवित रह सकें।

दीर्घ काल तक पशुओं का संरक्षण करते रह कर मनुष्य को सीखने को मिला कि एक पशुमाता अपनी संतान का अपने स्तनों के जिस दूध से पोषण करती है वह मनुष्य के लिए भी उतना ही पोषक है जितना कि पशु के लिए और उस का उपयोग समूह के सदस्यों के पोषण के लिए किया जा सकता है। आरंभ में मनुष्य ने पशुबालक की तरह ही पशुदुग्ध का सेवन करना सीखा होगा और अनुभव ने उसे सिखाया कि सीधे पशु-माता के स्तन को मुहँ लगाए बिना भी पशु-माताओं से दूध प्राप्त किया जा कर उस का उपयोग किया जा सकता है। मनुष्य जीवन के विकास में यह एक बड़ा परिवर्तन था। जिन पशुओं का वह मात्र खाद्य के रूप में संरक्षण कर रहा था उस पशु को जीवित रख कर भी उन से पोषक भोजन प्राप्त किया जा सकता था। इसी ज्ञान ने मनुष्य को पशु-संरक्षक से पशुपालक में बदलना आरंभ कर दिया। पशुपालन विकसित होने लगा। बेशक वनोपज-संग्रह और शिकार भी जारी रहा, लेकिन वह पशुपालन से अधिक जोखिम का काम था, पशुपालन के विकास के साथ ही उस का कम होना अवश्यंभावी था। मनुष्य ने यह भी जान लिया था कि पाले गए पशुओं की संख्या में स्वतः ही वृद्धि होती रहती है। मनुष्य को उन्हें हमेशा काबू कर पालतू बनाने की आवश्यकता नहीं है। शनैः शनैः मनुष्य वनोपज संग्राहक और शिकारी से पशुपालक होता गया। एक अवस्था वह भी आ गई जब वह मुख्यतः पशुपालक ही हो गया। पशुपालन से भोजन के लिए पशुओं की आवश्यकता की भी बड़ी मात्रा में पूर्ति संभव हो गयी। उस के लिए अब शिकार की जोखिम उठाना आवश्यक नहीं रह गया था। वनोपज संग्रह और शिकार अब अनुष्ठानिक कार्यों, शौक, आनंद, औषध आदि के लिए रह गए। जांगल युग समाप्त हो रहा था और मनुष्य सभ्यता के प्राथमिक दौर में प्रवेश कर चुका था। हालांकि यह युग भी मानव इतिहास में बर्बर युग के नाम से ही जाना जाता है। 

सामी और आर्य समूहों में पशुपालन मुख्य आजीविका हो चला था लेकिन अभी वे खेती के ज्ञान से बहुत दूर थे। मनुष्य जीवन पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों से निकल कर घास के मैदानों में आ चुका था। चौपायों के पालन और उन की नस्ल बढ़ाते रहने से, समूहों के पास पशुओं के बड़े बड़े झुण्ड बनने लगे। उन के पास भोजन के लिए मांस और दूध की प्रचुरता हो गई। इस का बालकों के विकास पर अच्छा असर हो रहा था। घास के मैदानों में वे प्रकृति के नए रहस्यों से परिचित हो रहे थे कि कैसे पानी और धूप घास के जंगलों को पैदा करती रहती है? कैसे घास के बीज अँकुराते हैं और घास पैदा होती रहती है। कैसे मिट्टी से उपयोगी बर्तन बनाए जा सकते हैं, और कैसे उन्हें आग में तपा कर स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है? कैसे किसी खास स्थान की मिट्टी से धातुएँ प्राप्त की जा सकती हैं? जिन से उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जा सकता है। एक लंबा काल इसी तरह जीते रहने के उपरान्त वे सोच भी नहीं सकते थे कि वे वापस उन्हीं पहाड़ों, गुफाओं और जंगलों में जा सकते हैं।

म देख सकते हैं कि जांगल युग में मनुष्य तत्काल उपभोग्य वस्तुएँ मुख्यतः प्रकृति से प्राप्त करता था। वह वे ही औजार तैयार कर पाता था जिन से प्राकृतिक वस्तुएँ प्रकृति से प्राप्त करने में मदद मिलती थी। इस से अगली पशुपालन की अवस्था में उस ने पशुओं में प्रजनन के माध्यम से प्रकृति की उत्पादन शक्ति को बढ़ाने के तरीके सीखना आरंभ किया। मनुष्य अपने जीवन को बेहतर बना रहा था। लेकिन इस बेहतरी ने मनुष्य समूह में दो वर्ग उत्पन्न कर दिए थे, 'स्वामी' और 'दास'। पशुओं के रूप में संपत्ति ने जन्म ले लिया था। हालांकि इस संपत्ति का स्वामित्व अभी भी सामुहिक अर्थात संपूर्ण समूह का बना हुआ था। वह व्यक्तिगत नहीं हुई थी।  (क्रमशः) 


दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

सोमवार, 26 सितंबर 2011

दास युग का आरम्भ : बेहतर जीवन की तलाश-1

ज शर्मा जी नया एलईडी टीवी खरीद कर लाए हैं, मनोज ने नया लैपटॉप खरीदा है या फिर मोहता जी ने नई कार खरीदी है। जब भी इस तरह का कोई समाचार सुनने को मिलता है तो अनायास कोई भी यह प्रश्न कर उठता है। टीवी या लैपटॉप कौन सी कंपनी का लाया गया है, या कार कौन सी कंपनी की है? जैसे कंपनी का नाम पता लगते ही वस्तु की रूप-गुणादि का स्वतः ही पता लग जाएंगे। कंपनी का नाम वस्तुओं के उत्पादन के साथ अनिवार्य रूप से जु़ड़ चुका है। हम जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाएँ कंपनी हमारा पीछा छोड़ती दिखाई नहीं देती, वह परछाई की तरह मनुष्य का पीछा करती है। कंपनियों का जो स्वरूप आज मनुष्य समाज में सर्व व्यापक दिखाई देता है। लगभग छह सौ बरस पहले तक वह अनजाना था। आखिर पिछले छह सौ बरस पहले ऐसा क्या हुआ कि अचानक कंपनियों का उदय हुआ और थोड़े ही काल में उन्हों ने सारी दुनिया पर प्रभुत्व जमा लिया?

क जमाना था जब मनुष्य रोज की आवश्यकताओं को रोज पूरी करता था। भोजन के लिए जंगलों की उपज एकत्र करके लाना या शिकार करना ही इस के साधन थे। लेकिन इस तरह प्राप्त भोजन इतना ही होता था कि मनुष्य की प्रतिदिन की आवश्यकता को पूरा कर दे। न तो शिकार को बचा कर रखा जा सकता था और न ही जंगल से संग्रह की गई वनोपज को। भोजनसंग्रह और शिकारी अवस्था के उस जांगल युग में मनुष्य ने अपने शिकार पशुओं का व्यवहार समझने का अवसर प्राप्त हुआ। उस ने अनुभव से जाना कि कुछ जानवर ऐसे हैं जिन्हें शिकार किए बिना जीवित ही काबू किया जा सकता है। उन्हें घेर कर या बांध कर रखा जा सकता है, और शिकार न मिलने के कठिन दिनों में उन का उपयोग कर क्षुधापूर्ति की जा सकती है। यह मनुष्य समाज के विकासक्रम में आगे आने वाली महत्वपूर्ण अवस्था का पूर्वरूप था। जब पशु घेर कर या बान्ध कर रखे जाने लगे तो उन की सुरक्षा का प्रश्न उठ खड़ा हुआ। काबू में किए गए पशु घेरा या बन्धन तोड़ कर स्वयं स्वतंत्र हो सकते थे, अन्य हिंस्र पशु भोजन की तलाश में उन पर हमला कर सकते थे, या कोई दूसरा मानव समूह उन पर कब्जा कर सकता था। मनुष्य को अपने समूह के सदस्यों के एक भाग को भोजन संग्रह और शिकार के काम से अलग कर इन काबू किए गए पशुओं की सुरक्षा में लगाना पड़ा। भोजन संग्रह और शिकार अभी मनुष्य के मुख्य काम थे और पशु संरक्षा के काम में लगाए गए स्त्री-पुरुष समूह के वे सदस्य थे जो इस के लिए कम योग्य या अयोग्य समझे जाते थे। लेकिन पशु संरक्षा का यह काम आरंभ करते समय मनुष्य को यह अनुमान तक नहीं था कि आगे आने वाले युग में भोजन संग्रह और शिकार गौण हो जाने वाला है और उस ने पशुओं को काबू करना सीख कर जीवन यापन के लिए एक नए, उन्नत और अधिक उपयोगी साधन के विकास की नींव रख दी है। 

भोजन संग्रह और शिकार युग में कभी कभी काम के दौरान दो मानव समूहों की भेंट भी हो जाती थी। यह भेंट वैसी नहीं होती थी जैसी आज दो देशों के राजनयिक या सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडलों की होती है। वह अनिवार्य रूप से हिंस्र होती थी। यह हिंसा होती थी संग्रह किए जाने वाले भोजन या शिकार पर कब्जे के लिए। यह भेंट कुछ कुछ आज कल किसी क्षेत्र में अवैध व्यापार करने वाली गेंगों के बीच होने वाली गैंगवार जैसी होती होगी। जब तक एक समूह को पूरी तरह नष्ट न कर दिया जाए या क्षेत्र से बहुत दूर न खदेड़ दिया जाए, तब तक दूसरे समूह के लोगों को कत्ल कर देने का सिलसिला खत्म न होता था। पशु संरक्षा के नए काम ने इन हिंसक मुलाकातों के अंत का मार्ग भी प्रशस्त किया। अब पशु संरक्षा के काम को आरंभ कर चुके समूहों को पशुओं की सार संभाल के लिए कुछ ऐसे लोगों की आवश्यकता महसूस हो रही थी जो बन्धन में रहकर काम कर सकें। उस काल तक एक समूह को पराजित कर देने के उपरान्त पराजित समूह के सभी सदस्यों की हत्या कर देने के और शेष बचे सदस्यों को भाग जाने देने के स्थान पर बन्दी बना कर उन से काम लेना अधिक उपयोगी था। पराजित समूह के शेष बचे सदस्यों के लिए भी लड़ कर जीवन का सदा के लिए अन्त कर देने के स्थान पर बन्दी बन कर जीवन बचाए रखना अधिक उपयोगी था, उस में स्वतंत्र जीवन की आस तो थी। मानव विकास का यह मोड़ अत्यन्त महत्वपूर्ण था। इसे हम मनुष्य समाज के विकासक्रम में दास युग का प्रारंभ कह सकते हैं। (क्रमशः)

शनिवार, 10 सितंबर 2011

समृद्धि और संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकारों का दस्तावेज - रोट अनुष्ठान

'रोट', यह शब्द रोटी का पुल्लिंग है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि रोटी पहले अस्तित्व में आई अथवा रोट। दोनों आटे से बनाए जाने वाले खाद्य पदार्थ हैं। रोटी जहाँ रोजमर्रा के उपयोग की वस्तु है और कोई भी व्यक्ति एक बार में एक से अधिक रोटियाँ खा सकता है। वहीं एक रोट एक साथ कई व्यक्तियों की भूख मिटा सकता है। रोटी जहाँ उत्तर भारतियों के नित्य भोजन का अहम् हिस्सा है और उस के बिना उन के किसी भोजन की कल्पना नहीं की जा सकती। भोजन में सब कुछ हो पर रोटी न हो तो क्षमता से अधिक खा चुकने पर भी उत्तर भारतीय व्यक्ति स्वयं को भूखा महसूस करता है। लेकिन रोट वे तो जिन परिवारों में बनते हैं वर्ष में एक ही दिन बनते हैं ओर जिन्हें पूरा परिवार पूरे अनुष्ठान और आदर के साथ ग्रहण करता है। यह रोट अनुष्ठान खेती के आविष्कार से संबद्ध इस पखवाड़े का अहम् हिस्सा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में यह अभी तक हिन्दू व जैन परिवारों में प्रचलित है। इस विषय पर मैं मैं तीन चिट्ठियाँ गणपति का आगमन और रोठ पूजा, सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई और समृद्धि घर ले आई गई मैं अनवरत पर लिख चुका हूँ। इस अनुष्ठान को जानने की जिज्ञासा रखने वालों को ये तीनों पोस्टें अवश्य पढ़नी चाहिए।
कुल देवता (नाग) के लिए बना लगभग चौदह इंच व्यास और सवा इंच मोटाई का रोट
रोट अनुष्ठान भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से आरंभ हो कर भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तक चलता है। हर परिवार या समूह के लिए इन सोलह दिनों में से एक दिन निर्धारित है। हर परिवार इस दिन अपने कुल देवता या देवी या टोटेम की पूजा करता है और रोट बना कर उन्हें भेंट करता है। हर परिवार की पद्धति में कुछ भिन्नता है। लेकिन मूल तत्व एक जैसे हैं। स्त्रियाँ इस अनुष्ठान का आरंभ करती हैं। वे अनुष्ठान के दिन से एक दिन पहले ही पूरे घर की सफाई कर चुकी होती हैं। रोट बनाने के लिए अनाज (गेहूँ) को साफ कर उन की धुलाई कर सुखा लिया जाता है। फिर वे ही घर पर उस की पिसाई करती हैं। आटा मोटा पीसा जाता है। आज कल घरों पर चक्कियाँ नहीं रह गई हैं। इस कारण से बाजार की चक्की पर इसे पिसा लिया जाता है। चक्की वाला उस के लिए एक दिन निर्धारित कर अपने ग्राहकों को सूचित कर देता है। उस दिन के पहले की रात को चक्की धो कर साफ कर ली जाती है और उस दिन उस पर केवल रोट का ही आटा पीसा जाता है। सुबह सुबह रसोई और बरतनों को साफ कर स्त्रियाँ पूजा करती हैं और रोट के आटे की निश्चित मात्रा ले कर उन के निर्माण का संकल्प करती हैं। मसलन मेरे यहाँ सवा किलो आटा कुलदेवता के लिए, सवा किलो आटा प्रत्येक सुहागिन स्त्री के लिए, सवा किलो उस के पति के लिए और सवा किलो परिवार की बहनों और बेटियों के लिए संकल्पित किया जाता है। 

शोभा रोट बनाते हुए, प्रत्येए लोए से एक रोट बनना है।
 संकल्पित आटे की मात्रा का यह अनुपात मुझे प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में उस के सदस्यों की सहभागिता के अनुरूप मालूम होता है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि परिवार की संयुक्त संपत्ति में परिवार के प्रत्येक विवाहित पुरुष के का एक भाग, उस की पत्नी का एक भाग और विवाहित और अविवाहित बहनों-बेटियों का कुल मिला कर एक भाग तथा कुल देवता के लिए एक भाग जिस पर परिवार के पुरुषों का संयुक्त अधिकार है। उस का उपभोग करने के भी नियम हैं। कुलदेवता के लिए संकल्पित आटे का एक ही बड़ा मोटा रोट बनाया जाता है। इस का उपभोग परिवार के वे पुरुष ही कर सकते हैं जो किसी एक पूर्वज के पुरुष वंशज हैं। उन के अतिरिक्त कोई भी उन का उपभोग नहीं कर सकता। विवाहित स्त्री-पुरुष का के दो भाग परिवार का कोई भी सदस्य उपभोग कर सकता है। लेकिन बहिन-बेटियों के हिस्से के एक भाग को केवल बहन-बेटियाँ ही उपभोग कर सकती हैं, परिवार का कोई पुरुष या उस की पत्नी नहीं।

रोट बेल दिया गया है, और मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सेके जाने के लिए तैयार है
नुष्ठान के दिन केवल रोट और खीर ही बनाई जाती है, कुछ परिवारों में कोई खास सब्जी भी बनाई जाती है। खाद्य तैयार हो जाने पर परिवार के पुरुष कुल देवी या कुल देवता या टोटेम की पूजा करते हैं। कुछ परिवारों में यह पूजा भी स्त्रियाँ ही करती हैं। फिर परिवार के सभी सदस्य समृद्धि की कामना के साथ पूज्य का स्मरण कर भोजन ग्रहण करते हैं। गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन 2 सितम्बर को मेरे यहाँ यह अनुष्ठान हुआ। पूरा दिन इसी में निकल गया। बच्चे भी उसी में व्यस्त रहे। तीन वर्ष पूर्व मेरी पोस्टों पर यह आग्रह हुआ था कि रोट के चित्र भी अवश्य प्रस्तुत करने चाहिए थे। वे चित्र इस बार मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

दायीं और उलटे रखे गए मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सिकता रोट





एक तरफ से पोवणी पर सिक जाने के बाद अब इसे ओवन में सेका जाएगा
अब एक ओवन में है और दूसरा पोवणी पर सेका जा रहा है
कोयले को दूध में बुझा कर घिस कर बनाई गई स्याही से दीवार पर पूजा के लिए बनाया गया कुल देवता (टोटेम-नाग) का चित्र, सामने रखे रोट और खीर, दो रोटों पर दीपक जल रहे हैं।



पत्नी/पति के भाग का रोट

बहन-बेटियों के भाग का रोट

पत्नी शोभा जिस ने कुल परंपरा को सहेजने और उस की निरंतरता बनाए रखने का दायित्व वैवाहिक जीवन के 36 वें वर्ष में भी निभाया







देवी पूजा और गणपति

वैसे तो यह पूरा पखवाड़ा कृषि उपज और समृद्धि से संबंध रखने वाले त्यौहारों का है, जिन के मनाए जाने वाले उत्सवों में मनुष्य के आदिम जीवन से ले कर आज तक के विकास की स्मृतियाँ मौजूद हैं। बेटी-बेटा पूर्वा-वैभव दोनों ईद के दिन ही पहुँचे थे। सारे देश के मुसलमान उस दिन भाईचारे, सद्भाव और खुशियों का त्योहार ईद मना रहे थे तो उसी दिन देश की स्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा हरतालिका तीज का व्रत रखे था जिस में पति के दीर्घायु होने की कामना से देवी माँ की उपासना की जाती है। हाडौती अंचल में इस दिन अनेक परिवार रक्षाबंधन भी मनाते हैं। कहा जाता है कि जिन परिवारों में भूतकाल में राखी के दिन किसी का देहान्त हो गया हो वे परिवार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन को अशुभ मानते हुए हरतालिका तीज को रक्षाबंधन मनाते हैं। मेरे ससुराल में रक्षाबंधन इसी दिन मनाया जाता है। दोनों बहिन-भाई रक्षाबंधन पर नहीं मिल पाये थे और उस के बाद इसी दिन आपस में मिल रहे थे। मेरे साले का पुत्र भी कोटा में ही अध्ययन कर रहा है, उस के लिए तो वह राखी का ही दिन था वह भी आ गया और हमारे घर पूरे दिन रक्षाबंधन की धूम रही। ईद के दिन मैं अपने मित्रों से ईद मिलने जाता हूँ, लेकिन उस दिन घर में ही मंगल होने से नहीं जा सका। 

गला दिन गणेश चतुर्थी का था। वे समृद्धि के देवता कहे जाते हैं। समृद्धि के साथ स्त्रियों का अभिन्न संबंध रहा है। जब तक मनुष्य अपने विकास क्रम में संपत्ति संग्रह करने की अवस्था तक नहीं पहुँच गया था, तब तक समृद्धि का अर्थ केवल और केवल मात्र एक नए सदस्य का जन्म ही था। एक नए सदस्य को केवल स्त्री ही जन्म दे सकती थी। वनोपज के संग्रह काल में वनोपज को संग्रह करने का काम भी स्त्रियाँ ही किया करती थीं। पौधों के जीवनचक्र को उन्हों ने नजदीक से देखा था, जिस का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि उन्हों ने ही सब से पहले कृषि का आरंभ किया था। वर्षाकाल के आरंभ में बोये गये बीजों से पौधों का भूमि से ऊपर निकल आना और वर्षा ऋतु के उतार पर उन में फूलों और फलों का निकल आना निश्चय ही समृद्धि का द्योतक था। ऐसे काल में समृद्धि के लिए किसी नारी देवता का अनुष्ठान एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन हरतालिका तीज पर देवी पूजा के अगले ही दिन एक पुरुष देवता गणपति की पूजा करना कुछ अस्वाभाविक सा लगता है। लेकिन यदि हम ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि गणपति वास्तव में पुरुष कम और स्त्री देवता अधिक है। (इस संबंध में आप अनवरत के पुरालेख गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना और क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ? अवश्य पढ़ें।)

च्चे सुबह से ही कह रहे थे कि मम्मी इस साल गणपति घर ला कर बिठाने वाली है। मेरी उत्तमार्ध शोभा ने मुझ से इस का उल्लेख बिलकुल नहीं किया था। लेकिन मैं ने इस काम में कोई दखल दिया। सोचता रहा कि लाए जाएंगे तब देखा जाएगा। पर दुपहर तक का समय बच्चों से बतियाते ही गुजर गया। गणेश चतुर्थी से अगला दिन ऋषिपंचमी का है, और उस दिन मेरे यहाँ रोट बनते हैं। यह अनुष्ठान भी खेती और उस की उपज से उत्पन्न समृद्धि की कामना से जुड़ा है। इस दिन खीर बनती है। घर में चार सदस्य थे, इस कारण से कम से कम तीन किलो दूध की खीर तो बननी ही थी और दूध की व्यवस्था करनी थी। शाम को शोभा और मैं दोनों गूजर के यहाँ जा कर सामने निकाला हुआ भैंस का तीन किलो दूध ले आए और तीन किलो सुबह लेने की बात कह आए। जब वापस लौट रहे थे तो मार्ग में मूर्तिकार के यहाँ से गणपति की प्रतिमाएँ लाने वाले गणेश मंडलों के जलूस मिले। तब मैं ने शोभा से पूछा तो उस ने बताया कि उस की गणपति लाने की कोई योजना नहीं थी और वह वैसे ही बच्चों से बतिया रही थी। (रोट के बारे में कल चित्रों सहित ...)

सोमवार, 31 मई 2010

मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणाम


ज सुबह अदालत में जब हम चाय के लिए  जा रहे थे तो वरिष्ट वकील महेश गुप्ता जी ने पीछे से आवाज लगाई। मैं मुड़ा तो देखता हूँ कि पंचानन गुरू मौजूद हैं। वे मुझे याद कर रहे थे। वे कोटा की पहली पीढ़ी के वामपंथियों में से एक हैं। अपने जमाने में उन्हों ने इस विचार को पल्लवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा की। बाद में  अपने गांव के पास के कस्बे अटरू में जा कर वकालत करने लगे, साथ में पुश्तैनी किसानी थी ही। अब जीवन के नवें दशक में हैं। गुरू ने पूछा -कहाँ जा रहे थे? मैं ने कहा चाय पीने।  उन्हो ने पलट कर पूछा-कौन पिला रहा है? मैं ने कहा जो भी सीनियर होगा वही पिलाएगा। उन्हों ने फिर पूछा -हम भी चलते हैं, अब कौन पिलाएगा? उत्तर मैं ने नहीं महेश जी ने दिया - अब तो सब से सीनियर आप ही हैं, लेकिन जब छोटे कमाने लगें तो उन का हक बनता है। तो यूँ मेरा हक है। हम सब केंटीन की ओर चले।
चाय का आदेश देते हुए महेश जी ने कहा एक चाय फीकी आएगी। गुरू बोले -फीकी किस के लिए? मैं तो अब भी घोर मीठी पीता हूँ। महेश जी ने जवाब दिया यह मधुमेह का राजरोग मुझे लगा है। गुरू कहने लगे -मधुमेह तो तो सब रोगों की जननी है। अब कोई रोग आप को छोड़ेगा नहीं। महेश जी ने उत्तर दिया -आप सही कहते हैं। इस का कोई इलाज भी नहीं, एक इलाज है पैदल चलना। मैं ने कहा श्रम ने ही तो मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया है, वह छूटेगा तो रोग तो पकड़ेगा ही। गुरू जी कहने लगे तुम भी डार्विन में विश्वास करते हो क्या? मैंने कहा करता तो नहीं, पर सबूतों का क्या करें? कमबख्त ने सबूत ही इतने दिए कि मानने के सिवा कोई चारा नहीं है। गुरू जी ने गीता का जिक्र कर दिया। कहने लगे -वहाँ भी कहा तो यही है, कि मनुष्य काजन्म तो 84 लाख योनियों के बाद होता है, सीधा-सीधा विकासवाद की ओर संकेत है। पर उन्हों ने सबूत नहीं दिए सो पंडितों ने अपनी रोटियाँ उस पर सेक लीं।फिर वे किस्सा सुनाने लगे -
Planet of the Apes'मेरे गांव में एक बूढ़ा पटवारी बिस्तर पर था जान नहीं निकलती थी। बेटे कहने लगे बहुत दुख पा रहे हैं जान नहीं निकल रही है। मैं गीता ले कर वहाँ पहुँचा कि तुम्हें गीता सुना दूँ। दो दिन में उसे गीता के दो अध्याय सुनाए। तीसरे दिन तीसरा अध्याय सुनाने गया तो पूछने लगा। गाँव में डिस्टीलरी की बिल्डिंग  का खंडहर खड़ा है, सैंकड़ो एकड़ उस की जमीन है, डिस्टीलरी की इस जमीन का क्या होगा? मैं ने उसे गीता का तीसरा अध्याय नहीं सुनाया। बेटों को कहा कि जब तक डिस्टीलरी की चिंता इन्हें सताती रहेगी ये कष्ट पाते रहेंगे। उस के बाद मैं उसे गीता सुनाने नहीं गया।? 
ब तक चाय समाप्त हो चुकी थी। सब उठ लिए। गुरू जी मेरे लिए काम सौंप गए। जब श्रम ने मनुष्य को जानवर से मनुष्य बनाया तो उस का श्रम से विलगाव क्या असर करेगा? जरा इस पर गौर करना। मैं ने कहा -निश्चित ही वह मनुष्य का विमानवीकरण करता है। यही तो इस युग का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। मनुष्य का अंतर्विरोधों का हल करने का लंबा इतिहास है, वह इस अंतर्विरोध को भी अवश्य ही हल कर लेगा। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफन' तो आपने पढ़ी ही होगी। 
स के बाद गुरूजी चल दिए। मैं भी अपने काम में लग गया। मैं घर लौटने के बाद इस प्रश्न  से जूझता रहा कि  क्या मनुष्य इस अंतर्विरोध को हल कर पाएगा? 
प लोग इस बारे में क्या सोचते हैं? आप राय रखेंगे तो इस विषय पर सोच आगे बढ़ेगी। ब्लाग जगत में कुछ साथी गंभीर काम करते हैं, उन से गुजारिश भी है कि उन के ज्ञान में हो तो बताएँ कि, क्या ऐसी कोई शोध भी उपलब्ध हैं,  जो मनुष्य के श्रम से विलगाव के जैविक और सामाजिक परिणामों के बारे में कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं?

सोमवार, 18 जनवरी 2010

भविष्य के लिए मार्ग तलाशें

नवरत पर कल की पोस्ट जब इतिहास जीवित हो उठा का उद्देश्य अपने एक संस्मरण के माध्यम से आदरणीय डॉ. रांगेव राघव जैसे मसिजीवी  को उन के जन्मदिवस पर स्मरण करना और उन के साहित्यिक योगदान के महत्व को प्रदर्शित करना था। एक प्रभावी लेखक का लेखन पाठक को गहरे बहुत गहरे जा कर प्रभावित करता है। डॉ. राघव का साहित्य तो न जाने कितने दशकों या सदियों तक लोगों को प्रभावित करता रहेगा। आज उस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत मुझे मुरैना के युवा ब्लागर और वकील साथी भुवनेश शर्मा से  फोन पर चर्चा हुई। वे बता रहे थे कि वे वरिष्ठ वकील श्री विद्याराम जी गुप्ता  के साथ काम करते हैं जिन की आयु वर्तमान में 86 वर्ष है, उन्हें वे ही नहीं, सारा मुरैना बाबूजी के नाम से संबोधित करता है। वे इस उम्र में भी वकालत के व्यवसाय में सक्रिय हैं।  आगरा में अपने अध्ययन के दौरान डॉ. रांगेय राघव के साथी रहे हैं। बाबूजी विद्याराम जी गुप्ता ने कुछ पुस्तकें लिखी हैं और प्रकाशित भी हुई हैं। लेकिन उन की स्वयं उन के पास भी एक एक प्रतियाँ ही रह गई हैं। उन्हों ने यह भी बताया कि वे उन पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन का मानस भी रखते हैं। मैं ने उन से आग्रह किया कि किसी भी साहित्य को लंबी आयु प्रदान करने का अब हमारे पास एक साधन यह अंतर्जाल है। पुनर्प्रकाशन के लिए उन की पुस्तकों की एक बार सोफ्ट कॉपी बनानी पड़ेगी। वह किसी भी फोंट में बने लेकिन अब हमारे पास वे साधन हैं कि उन्हें यूनिकोड फोंट में परिवर्तित किया जा सके। यदि ऐसा हो सके तो हम उस साहित्य को अंतर्जाल पर उपलब्ध करा सकें तो वह एक लंबी आयु प्राप्त कर सकेगा। मुझे आशा है कि भुवनेश शर्मा मेरे इस आग्रह पर शीघ्र ही अमल करेंगे।


ल की पोस्ट पर एक टिप्पणी भाई अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की भी थी। मेरे यह कहने पर कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई थे और इंद्र इतने बदनाम हो गए थे कि उन के स्थान पर विष्णु को स्थापित करना पड़ा, उन्हें इतना तीव्र क्रोध उपजा कि वे अनायास ही बीच में कम्युनिस्टों और मार्क्स को ले आए। मेरा उन से निवेदन है कि किसी के भी तर्क का जवाब यह नहीं हो सकता कि 'तुम कम्युनिस्ट हो इस लिए ऐसा कहते हो'। उस का उत्तर तो तथ्य या तर्क ही हो सकते हैं। अपितु इस तरह हम एक सही व्यक्ति यदि कम्युनिस्ट न भी हो तो उसे कम्युनिज्म की ओर ढकेलते हैं। इस बात पर अपना अनुभव मैं पूर्व में कहीं लिख चुका हूँ। लेकिन वह मुझे अपनी पुरानी पोस्टों में नहीं मिल रहा है। कभी अपने अनुभव को अलग से पोस्ट में लिखूंगा। 

ल की पोस्ट पर ही आई टिप्पणियों में फिर से एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि आर्य आक्रमण कर्ता थे या नहीं। वे बाहर से आए थे या भारत के ही मूल निवासी थे। इस विवाद पर अभी बरसों खिचड़ी पकाई जा सकती है। लेकिन क्या यह हमारे आगे बढ़ने के लिए आवश्यक शर्त है कि हम इस प्रश्न का हल होने तक जहाँ के तहाँ खड़े रहें। मेरे विचार में यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि हम आर्यों की उत्पत्ति का स्थान खोज निकालें और वह हमारे आगे बढने की अनिवार्य शर्त भी नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ, और शायद आप में से अनेक लोग अपने अपने जीवन अनुभवों को टटोलें तो इस का समर्थन भी करेंगे कि वर्तमान भारतीय जीवन पर मूलतः सिंधु सभ्यता का अधिक प्रभाव है। बल्कि यूँ कहें तो अधिक सच होगा कि सिंधु सभ्यता के मूल जीवन तत्वों को हमने आज तक सुरक्षित रखा है। जब कि आर्य जीवन के तत्व हम से अलग होते चले गए। मेरी यह धारणा जो मुझे बचपन से समझाई गई थी कि हम मूलतः आर्य हैं धीरे-धीरे खंडित होती चली गई। मुझे तो लगता है कि हम मूलत सैंधव या द्राविड़ ही हैं और आज भी उसी जीवन को प्रमुखता से जी रहे हैं। आर्यों का असर अवश्य हम पर है। लेकिन वह ऊपर से ओढ़ा हुआ लगता है। यह बात हो सकता है लोगों को समझ नहीं आए या उन्हें लगे कि मैं यह किसी खास विचारधारा के अधीन हो कर यह बात कह रहा हूँ। लेकिन यह मेरी अपनी मौलिक समझ है। इस बात पर जब भी समय होगा मैं विस्तार से लिखना चाहूँगा। अभी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं कि उस में समय दे सकूँ। अभी तो न्याय व्यवस्था की अपर्याप्तता से अधिकांश वकीलों के व्यवसाय पर जो विपरीत प्रभाव हुआ है। उस से उत्पन्न संकट से मुझे भी जूझना पड़ रहा है। पिछले चार माह से कोटा में वकीलों के हड़ताल पर रहने ने इसे और गहराया है।
कोई भी मुद्दे की गंभीर बहस होती है तो उसे अधिक तथ्य परक बनाएँ और समझने-समझाने का दृष्टिकोण अपनाएँ। यह कहने से क्या होगा कि आप कम्युनिस्ट, दक्षिणपंथी, वामपंथी, राष्ट्रवादी , पोंगापंथी, नारीवादी, पुरुषवादी या और कोई वादी हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं, इस से सही दिशा में जा रही बहस बंद हो सकती है और लोग अपने अपने रास्ते चल पड़ सकते हैं या फिर वह गलत दिशा की ओर जा सकती है। जरूरत तो इस बात की है कि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशें। यदि भविष्य के रास्ते के परंपरागत नाम से एतराज हो तो उस का कोई नया नाम रख लें। यदि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशने के स्थान पर अपने अपने पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आपत्ति है कि यह पूर्वग्रह होना चाहिए, हालांकि मुझे पूर्वाग्रह ठीक जँचता है") डटे रहे और फिजूल की बहसों में समय जाया करते रहे तो भावी पीढ़ियाँ हमारा कोई अच्छा मूल्यांकन नहीं करेंगी। 

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।