@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: महिला
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शनिवार, 25 जून 2011

एक और असहाय औरत

सा नहीं है कि ब्लाग जगत में वृद्धजनों की उपेक्षा और उन की समस्याओं पर विचार न हुआ हो। पहले भी समय समय पर विचार होता रहा है। हो सकता है कोई ब्लाग भी केवल वृद्धजनों पर बना हुआ हो।  लेकिन अनवरत की पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है और कैसी होगी, नई आजादी? के बाद इस विषय पर अनेक ब्लागों पर पोस्टें लिखी गई और एक बहस इस बात पर छिड़ गई कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है। इस के पीछे क्या कारण हैं। हम इस विषय पर अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। लेकिन वे एकांगी ही होंगे। क्यों कि हम अपनी अपनी दृष्टि से उन पर विचार करेंगे। वास्तविकता तो यह है कि भारत एक विशाल देश है और इस देश में अनेक वर्ग हैं। हर वर्ग में इस समस्या के अनेक रूप हैं। लेकिन हर जगह पर कमोबेश हमें वृद्धजनों की उपेक्षा दिखाई पड़ती है। वास्तव में इस समस्या पर समाजशास्त्रीय शोध होना चाहिए। शोध में आए निष्कर्षों पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उस पर विचार करते हुए समस्या की जड़ों को खोजने का प्रयत्न होना चाहिए। इस दिशा में हो सकता है कुछ शोध हो भी रहे हों। यदि हम समस्या की जड़ों तक पहुँचें तो फिर उन्हें नष्ट करने का सामाजिक प्रयास किया जा सकता है। 

क्त दोनों पोस्टों में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह एक सामान्य निम्न मध्यवर्गीय परिवार के बीच घटित हुई थी। लेकिन इसी नगर में तीन दिन बाद ही एक दूसरी घटना सामने आई जो इस समस्या का दूसरा पहलू दिखा रहा है। आप को उस की बानगी दिखाए देते हैं ...

हुआ यूँ कि प्रभात  मजदूर वर्ग से है। उस ने कड़ी मेहनत से कमाई की और किसी तरह बचत करते हुए    यहाँ छावनी इलाके में एक दो मंजिला मकान बना लिया। भूतल के चार कमरों में किराएदार रखे हुए हैं और प्रथम तल उस के स्वयं के पास है। उस के तीन बेटियाँ और एक बेटा राजेश है। सभी बेटियाँ शादीशुदा हैं और भोपाल में रहती हैं। प्रभात भी अक्सर अपनी बेटियों के पास ही रहता है। कभी कभी कुछ समय के लिए कोटा आ कर रहता है। किराएदारों से किराया वसूलता है और वापस भोपाल चला जाता है। राजेश को शराब की लत लग गई। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। राजेश उदयपुर जा कर मजदूरी करने लगा। वहाँ उसे शराब पीने से रोकने वाला कोई नहीं था। वह अधिक पीने लगा। धीरे-धीरे शराब ने उस के शरीर को इतना जर्जर कर दिया कि वह बीमार रहने लगा और आखिर डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। इस बीच उस की पिता से बात हुई होगी तो पिता ने उसे कह दिया कि वह कोटा आ कर क्यों नहीं रहता है। हो सकता है उस ने पिता को शराब के कारण हुई अपनी असाध्य बीमारी के बारे में न बताया हो। 

चानक 13 वर्ष बाद राजेश अपनी पत्नी चंद्रिका के साथ कोटा पहुँच गया। उन के कोई संतान नहीं है। पिता ने बेटे-बहू को आया देख कर उन्हें घर में घुसने नहीं दिया और खुद मकान के ताला लगा कर कहीं निकल गया। हो सकता है वह बेटियों के पास भोपाल चला गया हो। दो दिन तक राजेश-चंद्रिका घर के बाहर ही बैठे रहे। इस बीच लगातार बारिश होती रही। दोनों ने सामने के मकान के छज्जे के नीचे पट्टी पर सोकर उन्हों ने रात गुजारी। सुबह जब तेज बारिश में दरवाजे के बाहर लोगों ने उन्हें बैठे देख पूछताछ की। उन्होंने लोगों सारा घटनाक्रम बताया दिया। उनका कहना था कि पिता जब तक मकान में घुसने नहीं देंगे, तब तक वो यहीं बैठे रहेंगे। इस पर लोगों ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस बेटे-बहू को समझा कर थाने लेकर गई। वहां बेटे ने पिता के खिलाफ पुलिस को शिकायत दी है। पुलिस मामले की जांच कर रही है। फिलहाल पिता वापस नहीं लौटे है। पिता की तलाश जारी है। 

ह परिवार पहले वाले परिवार से भिन्न है। यहाँ बेटे को इकलौता होते हुए भी पिता ने घर से निकाल दिया। बेटा भी ऐसा गया कि उस ने 13 वर्ष तक घर का मुहँ नहीं देखा। शराब ने उस के शरीर को जब जर्जर कर दिया और डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया। उसे लगने लगा कि अब वह जीवित नहीं रहेगा तो अपनी पत्नी को ले कर अपने पिता के पास आ गया। उस की मंशा शायद यह रही हो कि अब उस की हालत देख कर उस के पिता उस पर रहम करेंगे और उस का इलाज ही करा देंगे। यदि इलाज न हो सका तो कम से कम उस के मरने के बाद उस की पत्नी को रहने का ठिकाना तो मिल ही जाएगा। यहाँ यह लग सकता है कि बेटा जब कुपथ पर चला गया तो घर से उसका निष्कासन करना सही था। लेकिन आज जब बेटा बीमारी से मरने बैठा है तो उसे घर में न घुसने देना कितना उचित है? एक पुत्र अपने पिता के संरक्षण में कुपथ पर कैसे चला गया?  पिता सिर्फ अपनी कमाई को जोड़ कर घर बनाता रहा और पुत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया और वह कुपथ पर गया तो उसे सुधारने का प्रयत्न किए बिना उस का घर से निष्कासन कर देना क्या उचित कहा जा सकता है? बेटे ने 13 वर्ष कैसे गुजारे किसी को पता नहीं। बेटे का विवाह बेटे ने स्वयं किया है या उस के पिता ने उस का विवाह निष्कासन के पहले कर दिया था, यह पता नहीं है। 

र इस सब में बेटे की पत्नी का क्या कसूर है? उस के पास तो इस के सिवा कोई सहारा नहीं है कि वह मजदूरी करे और अपना जीवन यापन करे। कम से कम कानून उसे अपने पति के पिता से कोई मदद प्राप्त करने का अधिकार प्रदान नहीं करता। चूंकि वह अपने ससुर के साथ नहीं रही है। इस कारण से घरेलू हिंसा कानून भी उस की कोई मदद नहीं कर सकता। आखिर परिवार का क्या अर्थ रह गया है?

बुधवार, 22 जून 2011

मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है

ज मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है। हो भी क्यों न? मेरे ही नगर के एक ऐसे मुहल्ले से जिस में आज से तीस वर्ष पूर्व मुझे भी दो वर्ष रहना पड़ा था, समाचार मिला है कि एक बेटे-बहू मुम्बई गए और पीछे अपनी 65 वर्षीय माँ को अपने मकान में बन्द कर ताला लगा गए। तीन दिन बाद ताला लगे मकान के अन्दर से आवाजें आई और मोहल्ले वालों की कोशिश पर पता लगा कि महिला अंदर बंद है तो उन्होंने महिला से बात करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। इस पर महिला एवं बाल विकास विभाग, पुलिस और एकल नारी संगठन को सूचना दी गई। पुलिस ने दिन में महिला एवं बाल विकास विभाग की टीम के साथ पहुँच कर महिला से रोशनदान से बात करने का प्रयास किया, लेकिन वह घर से बाहर आने को राजी नहीं हुई। इस पर पुलिस लौट गई। तब कुछ लोगों ने जिला कलेक्टर को शिकायत की इस पर देर रात उन के निर्देश पर पुलिस ने घर का ताला तोड़ा गया। पुलिस ने उस से पूछताछ की, लेकिन वह घर पर ही रहना चाह रही थी। पुलिस यह जानने का प्रयास करती रही कि आखिर मामला क्या है? पुलिस ने उससे बेटे-बहू के खिलाफ शिकायत देने को भी कहा, लेकिन वह इसके लिए तैयार नहीं हुई। पड़ोसियों ने बताया कि महिला को बेटे-बहू प्रताड़ित करते हैं और इसी कारण वह सहमी हुई है और शिकायत नहीं कर रही है।
 
पुलिस व लोगों को देखकर वृद्धा की रुलाई फूट पड़ी। उसने बताया कि बेटे-बहू पांच दिन के लिए बाहर गए हैं और पांच दिन का खाना एक साथ बनाकर गए हैं। तीन दिनों में खाना पूरी तरह सूख चुका था और खाने लायक नहीं रहा था। दही भी था जो गर्मी के इस मौसम में बुरी तरह बदबू मार रहा था। पुलिस से शिकायत करने पर रुंधे गले से सिर्फ यही निकल रहा था, मैं अपनी मर्जी से रह रही हूँ। मुझे कोई गिला-शिकवा नहीं है। कलेक्टर ने बताया कि सूचना मिलते ही उन्होंने महिला एवं बाल विकास विभाग तथा पुलिस को इसकी जानकारी दी। महिला अपने बेटे-बहू के बारे में कुछ नहीं बोल रही। यदि वह किसी प्रकार की शिकायत देती है तो उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। इस महिला के पति की चार वर्ष पूर्व मृत्यु हो चुकी है जो एक बैंक में मैनेजर थे। महिला के एक पुत्री भी है लेकिन वह अपनी माँ से मिलने यहाँ आती नहीं है। एक ओर संतानें इस तरह का अपराध अपने बुजुर्गों के साथ कर रहे हैं। दूसरी ओर एक माँ है जो अपनी दुर्दशा पर आँसू बहा रही है लेकिन अपनी संतानों के विरुद्ध शिकायत तक नहीं करना चाहती। यहाँ तक कि उस मकान से हटना भी नहीं चाहती। उसे पता है कि उस के इस खोटे सिक्के के अलावा उस का दुनिया में कोई नहीं। उन के विरुद्ध शिकायत कर के वह उन से शत्रुता कैसे मोल ले?
 
स घटना से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज में वृद्धों की स्थिति क्या है? सब से बुरी बात तो यह है कि कलेक्टर यह कह रहा है कि यदि महिला ने शिकायत की तो कार्यवाही होगी। जब सारी घटना सामने है। एक महिला के साथ उस के ही बेटे-बहु ने निर्दयता पूर्वक क्रूर व्यवहार किया है और वह घरेलू हिंसा का शिकार हुई है। जिस के प्रत्यक्ष सबूत सब के सामने हैं, इस पर भी पुलिस और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा इस बात की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह महिला शिकायत देगी तब वे कार्यवाही करेंगे। इस से स्पष्ट है कि हमारी सरकार, पुलिस और प्रशासन जो उस के अंग हैं। इस हिंसा और अपराध को एक व्यक्ति के प्रति अपराध मान कर चलते हैं और बिना शिकायत किए अपराधियों के प्रति कार्यवाही नहीं करना चाहते। जब कि यह भा.दंड संहिता की धारा 340 में परिभाषित सदोष परिरोध का अपराध है। तीन दिनों या उस से अधिक के सदोष परिरोध के लिए दो वर्ष तक की कैद का दंड दिया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता के अनुसार यह संज्ञेय अपराध है जिस में पुलिस बिना शिकायत के कार्यवाही कर सकती है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत यह उपबंध है कि हिंसा की ऐसी घटना पाए जाने पर संरक्षा अधिकारी इस तरह का आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर महिला को राहत दिला सकता है। लेकिन इन बातों की ओर न पुलिस का और न ही प्रशासन का ध्यान है। इस से पुलिस व प्रशासन की संवेदनहीनता अनुमान की जा सकती है। 

ब से बड़ी बात तो यह है कि बच्चों, बुजुर्गों और असहाय संबंधियों के प्रति इस तरह का अमानवीय और क्रूरतापूर्ण व्यवहार को अभी तक दंडनीय, संज्ञेय और अजमानतीय अपराध नहीं बनाया गया है। जिस से लोग इस तरह का व्यवहार करने से बचें और करें तो सजा भुगतें। इस तरह के उपेक्षित और असहाय लोगों के लिए सरकार और समाज द्वारा कोई वैकल्पिक साधन भी नहीं उपलब्ध कराए गए हैं कि वे अपने संबंधियों की क्रूरतापूर्ण व्यवहार की शिकायत करने पर उन से पृथक रह सकें। आखिर हमारा समाज कहाँ जा रहा है? क्या समाज को इस दिशा में जाने से रोकने के समुचित प्रयास किए जा रहे हैं और क्या हमारी सरकारें और राजनेता वास्तव में इन समस्याओं पर गंभीरता से सोचते भी हैं?

बुधवार, 9 मार्च 2011

महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत की 90% पोस्टों पर महिलाएँ काबिज थीं। उन की खुद की पोस्टें तो थीं ही, पुरुषों की पोस्टों पर भी वे ही काबिज थीं। महिला दिवस के बहाने धार्मिक प्रचार की पोस्टों की भरमार थीं। कोई उन्हें देवियाँ घोषित कर रहा था तो कोई उन्हें केवल अपने धर्म में ही सुरक्षित समझ रहा था। मैं शनिवार-रविवार यात्रा पर था। आज मध्यान्ह बाद तक वकालत ने फुरसत न दी। अदालत से निकलने के पहले कुछ साथियों के साथ चाय पर बैठे तो मैं ने अनायास ही सवाल पूछ डाला कि क्या कोई धर्म ऐसा है जो महिलाओं को पुरुषों से अधिक या उन के बराबर अधिकार देता हो। जवाब नकारात्मक था। दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं जो महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देता हो। कोई उन्हें देवियाँ बता कर भ्रम पैदा करता है तो कोई उन्हें केवल पुरुष संरक्षण में ही सुरक्षित पाता है मानो वह जीती जागती मनुष्य न हो कर केवल पुरुष की संपत्ति मात्र हों। मैं ने ही प्रश्न उछाला था, लेकिन चर्चा ने मन खराब कर दिया। 
चाय के बाद तुरंत घर पहुँचा तो श्रीमती जी  टीवी पर आ रही एक प्रसिद्ध कथावाचक की लाइव श्रीमद्भागवतपुराण कथा देख-सुन रही थीं। साथ के साथ साड़ी पर फॉल टांकने का काम भी चल रहा था। फिर प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्यों महिलाएँ धर्म की ओर इतनी आकर्षित होती हैं?  जो चीज उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से रोक रही हैं, उसी ओर क्यों प्रवृत्त होती हैं। लाइव कथा में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से दुगनी से भी अधिक थी। वास्तव में उन में से अधिक महिलाएँ तो वे थीं जो स्वतंत्रता पूर्वक केवल ऐसे ही आयोजनों में जा सकती थीं। लेकिन इन आयोजनों को करने में पुरुषों और व्यवस्था की ही भूमिका प्रमुख है। शायद इस लिए कि पुरुष चाहते हैं कि महिलाओं को इस तरह के आयोजनों में ही फँसा कर रखा जाए। इन के माध्यम से लगातार उन के जेहन में यह बात ठूँस-ठूँस कर भरी जाए कि पुरुष के आधीन रहने में ही उन की भलाई है।
न सब तथ्यों ने मुझे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि महिलाओं की पुरुषों के समान अधिकार और समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त करने का उन का संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वे धर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती। महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है। इस बात से महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के विरोधी धर्म-प्रेमी बहुत चिंतित हैं।  आजकल ब्लाग जगत में  इस तरह के लेखों की बाढ़ आई हुई है और वे स्त्रियों को धर्म की सीमाओं में बांधे रखने के लिए न केवल हर तीसरी पोस्ट में पुरानी बातों को दोहराते हैं, अपितु एक ही पोस्ट को एक ही दिन कई कई ब्लागों पर चढ़ाते रहते हैं। मुझे तो ये हरकतें बुझते हुए दीपक की तेज रोशनी की तरह प्रतीत होती हैं।

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
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दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

गणेशोत्सव या भारतीय लोक जीवन की झाँकी

गणेश चतुर्थी हो चुकी है।  विनायक गणपति मंगलमूर्ति हो कर पधार चुके हैं।  पूरे ग्यारह दिनों तक गणपति की धूम रहेगी। गणपति के आने के साथ ही देश भर में त्योहारों का मौसम आरंभ हो गया है जिसे देवोत्थान एकादशी तक चलना है। उस के उपरांत गंगा से गोदावरी के मध्य के हिन्दू परंपरा का अनुसरण करने वाले लोगों को चातुर्मास के कारण रुके पड़े शादी-ब्याह और सभी मंगल काज करने की छूट मिल जाएगी।  प्रारंभ तो कल हरितालिका तीज से ही हो चुका है। वैसे भी गणपति के आने के पहले शिव और पार्वती का एक साथ होना जरूरी था। इसलिए यह पर्व एक दिन पहले ही हो लिया।  इस दिन मनवांछित वर की कामना के लिए कुमारियों ने निराहार निर्जल व्रत रखे और जिन परिवारों में किसी अशुभ के कारण श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन नहीं हुआ वहाँ रक्षाबंधन मनाया गया।

आने वाले दिन तरह व्यस्त होंगे। हर नए दिन एक नया पर्व होगा।  ऋषिपंचमी हो चुकी है। फिर सूर्य षष्ठी, दूबड़ी सप्तमी और गौरी का आव्हान, और गौरी पूजन, राधाष्टमी और गौरी विसर्जन, नवमी व्रत, और दशावतार व्रत और राजस्थान में रामदेव जी और तेजाजी के मेले होंगे, जल झूलनी एकादशी होगी। फिर वामन जयन्ती और प्रदोष व्रत होगा और अनंत चतुर्दशी इस दिन गणपति बप्पा को विदा किया जाएगा। अगले दिन से ही पितृपक्ष प्रारंभ हो जाएगा जो पूरे सोलह दिन चलेगा। तदुपरांत नवरात्र जो दशहरे तक चलेंगे। फिर चार दिन बाद शरद पूर्णिमा, कार्तिक आरंभ होगा और  दीपावली आ दस्तक देगी। दीपावली की व्यस्तता के बाद उस की थकान उतरते उतरते देव जाग्रत हो उठेंगे और फिर शादी ब्याह तथा दूसरे मंगल कार्य करने का वक्त आ धमकेगा।

 इन सभी त्योहारों का भारत के लोक जीवन से गहरा नाता है। गणपति के आगमन से इन का आरंभ हो रहा है सही ही है वे प्रथम पूज्य जो हैं। लेकिन गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं। 
 गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है।

गुरुवार, 25 जून 2009

जीन्स, टॉप, ड्रेस कोड और महिलाओं की सोच

समय का पहिया कैसे घूमता है इस का नमूना हमने पिछले दिनों देखा गया जब  उत्तर प्रदेश में ड्रेस कोड का हंगामा बरपा होता रहा।   कानपुर  जिले  में  चार महिला कॉलेजों ने अपनी छात्राओं को कैंपस में जींस पहनकर आने पर पाबंदी लगा दी।  कॉलेजों ने  यह काम छात्राओं के साथ छेड़खानी रोकने का भला काम करने की कोशिश में किया।  बात यहीं तक न रुकी छात्राओं के जींस , टॉप , स्कर्ट के साथ साथ कानों में बड़े बड़े इयर रिंग्स , गले में हार , फैन्सी अंगूठी और ऊंची एड़ी के सैंडिल पहनने पर भी रोक लगा दी गई। जब कि छात्राओं का कहना था कि कॉलेज प्रशासन का फैसला बेतुका है। वे छेड़खानी रोकना ही चाहते हैं तो पुलिस की मदद क्यों नहीं लेते? कॉलेज छात्रों  के बीच जींस पहनना आम बात है। मिनी स्कर्ट और शॉर्ट टॉप जैसे कपड़ों पर रोक की बात समझ में आती है , पर जींस?
इस के बाद  पहिया आगे चला तो अध्यापिकाएँ भी इस की चपेट में आ गईं। कानपुर के महिला कॉलिजों की अध्यापिकाओं को सख्त निर्देश दिए गए कि वे स्लीवलेस ब्लाउज और भड़कीले सूट पहन कर कॉलिज आयें। मोबाइल लेकर कॉलिज आने की अनुमति है लेकिन उसे स्विच ऑफ रखना होगा।
आप तो जानते ही हैं, लेकिन इन कॉलेजों का प्रशासन यह नहीं जानता था कि इस देश में प्रेस और मीडिया भी है और स्त्री-स्वातंत्र्य का आंदोलन भी; और यह भी कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री भी एक स्त्री हैं।  मंसूबे धरे के धरे रह गए।  मायावती ने तुरंत कहा -कोई ड्रेस कोड नहीं चलेगा।  फिर सरकारी फरमान निकला कि  यूपी के किसी भी कॉलेज में ड्रेस कोड लगाने का समाचार मिला तो मामले की जांच की जाएगी और आरोप सही पाए जाने पर संबंधित कॉलेज के खिलाफ राज्य सरकार यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगी। इसके तहत मान्यता छिनने का खतरा पैदा हुआ ही, यूजीसी से मिलने वाली ग्रांट और दूसरी सरकारी सहायता भी खतरे में दिखाई दी।  नतीजा यह हुआ कि ड्रेस कोड लागू होने के पहले ही गुजर गया। 
यह तो हुआ ड्रेस कोड का हाल।  महिलाएँ जीन्स और टॉप के बारे में क्या सोचती हैं। उस का असली किस्सा।  एक प्रोजेक्ट में नई अफसर अक्सर जीन्स और टॉप पहनती है। उस से उम्र में कहीं बहुत बड़ी महिलाएँ वर्कर हैं जो उसे रिपोर्ट करती हैं।  अचानक अफसर एक दिन सलवार सूट में दिखाई दी तो  कुछ अच्छी वर्करों ने उसे सलाह दी कि -मैडम! आप इस सूट में उतनी अच्छी नहीं लगतीं।  आप इसे मत पहना कीजिए।  आप को जीन्स और टॉप ही पहनना चाहिए।  उस में आप स्मार्ट लगती हैं। अगर आप ने कुछ दिन सूट पहन लिया तो सारी वर्कर्स आप को ढीली-ढाली समझने लगेंगी और फिर काम का क्या होगा वह तो आप जानती ही हैं।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बदलाव की बयार और जंग लगा ग्रामीण समाज

मेरे राजस्थान के जोधपुर नगर से एक खबर  है कि वहाँ पिता के देहान्त पर उन की लड़कियों ने उन की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार वैसे ही किया जिस तरह वे पुत्र हों।  कल एक प्रान्तीय चैनल ने इस खबर को बहुत बार दिखाया।  एक बहस भी चलाने का प्रयत्न किया जिस में एक पण्डित जी से बात चल रही थी कि क्या यह शास्त्र संगत है।  पण्डित जी ने पहले कहा कि यह तो सही है और शास्त्रोक्त है।  लेकिन जब उन से आगे सवाल पूछे गए तो उन्हों ने इस में शर्तें लादना शुरू कर दिया कि यदि भाई, पुत्र, पौत्र आदि न हों और कोई अन्य पुरुष विश्वसनीय न हो तो शास्त्रों को इस में कोई आपत्ति नहीं है।  पण्डित जी ने अपने समर्थन में विपत्ति काल में कोई मर्यादा नहीं होती कह डाला।  कुल मिला कर पण्डित जी बेटियों को यह अधिकार देने को राजी तो हैं लेकिन पुत्र और पौत्र की अनुपस्थिति में ही।  शायद उन को अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आने लगा हो।

लेकिन इस के बावजूद उन चारों बेटियों पर कोई असर नजर नहीं आया।  उन में से एक का कहना था कि हमारे पिता ने हमें बेटे जैसा ही समझा, बेटों जैसा ही पढ़ाया लिखाया और पैरों पर खड़ा किया।  हमने अपना कर्तव्य निभाया है।  मुझे आशा है लोग इस से सीख ले कर अनुकरण करेंगे।  बेटियों को बेटो से भिन्न नहीं समझेंगे।  और बेटियाँ भी खुद को पिता के परिवार में पराया समझना बंद करने की प्रेरणा लेंगी।  यह तो एक ऐसा परिवार था जहाँ पुत्र नहीं था।  लेकिन पुत्र के होते हुए भी बेटियों को यह अधिकार समान रूप से मिलने में क्या बाधा है? 

हालाँ कि इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है इस से पहले भी राजस्थान में यह हुआ है।  लोग इस घटना से सीख ले कर अनुकरण करेंगे तो यह परंपरा बन लेगी।  यह सही रूप में महिला सशक्तिकरण है।

यहीं राजस्थान के हाड़ौती के मालवा से लगे हुए क्षेत्र से एक खबर  है कि हजारी लाल नाम के एक व्यक्ति ने 20 बरस पहले किसी स्त्री से नाता किया था। जिस के कारण उसे गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया था।  बीस साल से वह निकट ही कोई दस किलोमीटर दूर अकलेरा कस्बे में रह रहा था, लेकिन गाँव नहीं जा पा रहा था।  बीस साल बाद हजारी लाल ने यह सोचा  कि अब तो गाँव बदल गया होगा।  गाँव के लोग उससे मिलते रहते थे, शायद उस के व्यवहार से उस ने यह अनुमान लगाया हो।  वह बीस साल बाद गाँव में पहुँचा तो भी गाँव निकाले के फरमान ने उस की आफत कर दी।  गाँव के लोगों ने उसे पीटा और एक कमरे में बंद कर दिया।  कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस गाँव पहुँची तो उस पर पथराव हुआ और देशी कट्टे से फायर भी। पुलिस ने अपने एक सहायक इंस्पेक्टर को घायल हो ने की कीमत पर हजारी लाल को गाँव के लोगों से छुड़ाया।

हम गाहे बगाहे अपने व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ लिखते हैं।  लेकिन हमारा समाज अभी भी व्यक्तिगत कानून की सत्ता को ही स्वीकार कर ता है और उस के लिए पुलिस से सामना करने को तैयार हो जाता है।  क्या कभी कहीं देश के इन गाँवों के जंग लगे समाज का मोरचा हटा कर उन्हें चमकाने के  लिए प्रयास करते लोग नजर आते है?

रविवार, 8 मार्च 2009

तुम्हारी जय !

महिला दिवस पर महेन्द्र 'नेह' का गीत  




तुम्हारी जय !


अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !

सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण

विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !

कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्राकाशित तन विवर्तन

क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
                    ... महेन्द्र नेह



  

सोमवार, 2 मार्च 2009

अवनींद्र के घर भोजन लेकिन नहीं हो सकी तीसरा खंबा डॉट कॉम की डिजाइनिंग

रायपुर की यह लघु यात्रा बहुत सुखद थी।   पाबला जी के घर वापस भिलाई लौटते रात हो चुकी थी।  सात बजे होंगे।   पहुँचते ही अवनीन्द्र का फोन आ गया।  वह कह रहा था कि भोजन पर पाबला जी का परिवार भी साथ होगा।  लेकिन बच्चे कुछ और कार्यक्रम बना चुके थे और पाबला जी कह रहे थे कि कल आप चले जाएँगे और अवनीन्द्र से संभवतः भिलाई में यह आखिरी मुलाकात हो इसलिए वे हमारे साथ नहीं जाएँगे।  आप लोग घऱ परिवार की बातें कीजिए।  मुझे वे हमारे साथ चलने को बिलकुल सहमत नहीं थे।  मैं ने भी पाबला जी की सोच को सही पाया।  पाबला जी ने आश्वासन दिया कि हम तो यहीं भिलाई में हैं।  कभी भी एक दूसरे के घर भोजन पर आ जा सकते हैं।  मैं ने अवनीन्द्र को कह दिया कि हम दोनों पिता-पुत्र ही आ रहे हैं।  कुछ देर विश्राम कर तरोताजा हो मैं और वैभव अवनीन्द्र के घर पहुँचे।

कुछ देर हम घर परिवार की बातें स्मरण करते रहे, अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने शीघ्र ही भोजन के लिए बुला लिया।  हम खाने की मेज पर बैठे जो भोज्य पदार्थों से सजी थी।  लगता था कि ज्योति कोई कोर कसर नहीं रखना चाहती थी।  मेरा ज्योति के हाथ का पका भोजन पाने का यह पहला अवसर था।  हम जब भी मिले किसी पारिवारिक भीड़ भरे आयोजन में।   तब उस के हाथ का बना भोजन पाने का अवसर ही  न होता था। भोजन आरंभ हुआ तो जल्दी ही पता लग गया कि ज्योति ने भोजन को स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रखी थी।  हालत यह हुई कि मेरा सुबह से लिया व्रत  कि आज बिलकुल भी जरूरत से अधिक भोजन नहीं लूंगा, जल्द ही फरार हो गया।  मैं ने छक कर भोजन किया।  मैं ने भोजन की थोड़ी बहुत तारीफ भी की लेकिन जल्द ही अहसास हो गया कि मेरी कितनी भी तारीफ ज्योति की उस शिकायत को कभी दूर नहीं कर पाएगी कि मैं उस के यहाँ ठहरने के स्थान पर पाबला जी के यहाँ क्यों रुका?

मैं ने बताया कि वैभव अभी अप्रेल अंत तक भिलाई में है,  वह शीघ्र ही शायद होस्टल रहने चला जाएगा लेकिन  यहाँ आता रहेगा।  पर यह बात अभी तक अधूरी है।  न वैभव होस्टल में गया और न ही वह अवनीन्द्र के यहाँ अभी तक जा सका।  भोजन के बाद हम देर तक बातें करते रहे और लौट कर पाबला जी के यहाँ आने लगे तो अवनीन्द्र भी साथ हो लिया।  मुझे पान की याद आ रही थी जो मुझे कोटा छोड़ने के बाद अभी तक नहीं मिला था।  हम ने रास्ते में पान की दुकान तलाश करने की कोशिश की तो मुश्किल से एक दुकान मिली। हम बाजार से दूर जो थे।  पान भी जैसा तैसा मिला लेकिन मिला बहुत  सस्ता।  हम पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो उन्हों ने अवनीन्द्र को कॉफी के लिए रोक लिया।  हम पाबला जी के कम्प्यूटर कक्ष में जहाँ मैं पिछली रात सोया भी था, आ बैठे।  पाबला जी ने webolutions.in के बैनर पर उन के पुत्र गुरप्रीत सिंह (मोनू) द्वारा बनाई गई वेबसाइट्स बताना आरंभ किया तो पता ही नहीं चला कि कितना समय निकल गया।  एक बार अवनीन्द्र को घर से फोन भी आ गया।  उसे विदा किया तो तारीख बदल चुकी थी।


मेरा इस भिलाई यात्रा का एक सब से बड़ा स्वार्थ था कि मैं पाबला जी पुत्र गुरप्रीत से तीसरा खंबा डॉट कॉम की वेबसाइट डिजाइन करवा सकूँ।  केवल आज की रात थी जब यह काम मैं गुरप्रीत से करवा सकता था।  लेकिन समय इतना हो चुका था और दिन भर में दिमाग इतनी कसरत कर चुका था कि तीसरा खंबा की डिजाइनिंग के बारे में ओवरटाइम कर सकने की उस की हिम्मत शेष नहीं थी।  मैं सोचता रह गया कि आखिर कब और कैसे यह डिजायनिंग हो सकेगी?

चित्र- 1. पाबला जी का घर  2. मैं और अवनीन्द्र  3 पाबला जी के घर का दालान

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

शाम की दावत और भांवरें

सगाई समारोह से निकले तो दोपहर का पौने एक बज चुका था। कुछ देर में ही लंच शुरू होने वाला था। मैं होटल के कमरे में पहुँचा तो  वहाँ नजारा कुछ और था। पूरा कमरा हमारी ससुराल से कमरा खचाखच भरा था।मैं जैसे घुसा था वैसे ही उलटे पांव बाहर निकला। मैं ने सोचा शहर में किसी से मिल लिया जाए। होटल से बाहर निकलता उस से पहले ही पकड़ा गया। मेहमान आते जा रहे थे। अधिकांश परिचित और संबंधी। उन से बात करना भी तो उपलब्धि थी। हर एक से नयी नयी सूचनाएँ मिलती थीं। उन के साथ होटल के रिसेप्शन पर ही बैठ गया। बातें करता रहा और साथ साथ सुडोकू भी। उस दिन के दोनों अखबारों के सुड़ोकू हल करते करते लंच का बुलावा आ लिया। 

लंच के लिए जमीन पर पट्टियाँ लगी थीं। पत्तलें पत्तों स्थान पर कागज की थीं और दोने भी वैसे ही। भोजन मे कत्त थे, बाफले थे, चावल थे, दाल थी, गट्टे की सब्जी थी और थी हरे धनिये की चटनी। (इन सब की खसूसियत के लिए एक अलग पोस्ट की जरूरी है, वह फिर कभी।) मैं ने अपने लिए बिना घी का बाफला मंगा लिया। सब कुछ बहुत स्वादिष्ट था। अपनी खुराक से कुछ कम ही खा कर उठ लिए। फिर भी खाते ही रात की अधूरी नींद हावी होने लगी। हम खाने आखिरी पंगत (पंक्ति) में थे। होटल के अपने तल पर पहुँचे तो हॉल में मण्डप की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। देवी-देवताओं, पूर्वजों का विवाह में सम्मिलित होने के लिए आव्हान किया जा रहा था। यहाँ हवन होना था, और उस के बाद दुल्हिन के माता-पिता, भाई-भाभी जो पूजा में बैठे थे उन्हें और दुल्हिन और उस के भाई बहनों को कपड़े आदि की पहरावनी होनी थी। हमारा वहाँ कोई काम न था। महिलाओं को वहाँ होना था। हम ने महिलाओं को वहाँ भेजा और खुद बिस्तर के हवाले हो लिए। शाम को  पांच बजे तक मण्डप का काम चलता रहा। तब तक हमने सोने की कोशिश की। लेकिन शादी और निद्रा दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। कोई न कोई आता रहा, जगाता रहा। शाम को उठ कर कॉफी पी और फ्रेश हो कर नीचे आए तो जहाँ शादी की मुख्य दावत होनी थी वहाँ तैयारियाँ चल रही थीं। हम शहर घूमने निकल गए। बाजार देखा। रविवार होने के बावजूद रौनक थी। अभी साप्ताहिक अवकाश की आदत झालावाड़ के बाजार को आम नहीं हुई थी। पान खाया, बींदणी और सालियों के लिए बंधवाया। वापस आए तो सभी महिलाएँ सांझ की दावत के लिए सजने लगी थीं।  कमरे पर पहुँचे तो सलहज अपनी ननदों को विदाई उपहार दे रही थी। उसे पता था कि सब भांवर के वक्त ही निकलना शुरू कर देंगे।

आठ बजे करीब दावत शुरू हो गयी। वहाँ आधे लॉन में बूफे की व्यवस्था थी, आधे में दूल्हा-दुल्हिन के लिए मंच सजा था। हम घूमते हुए देखते रहे क्या क्या है दावत में। नौ बजे करीब जब आधे से अधिक लोग भोजन कर चुके थे तब बारात आई, तोरण मारा गया। दूल्हे को मंच पर लाया गया। वहीं उस के कलश बंधाया गया। फिर वरमाल हुई। हमने इस बीच भोजन पर हाथ साफ करना शुरू किया। वहीं हमारे एक मुवक्किल मिल गए हमें अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले गए। हमें  मोबाइल चार्ज करना था यह भी लोभ था कि एक बार नेट देख लेंगे। उन के यहाँ जा कर नेट पर मेल देखी भर, एक दो जरूरी मेल का जवाब दिया अंग्रेजी में, हिन्दी टाइपिंग उपलब्ध नहीं थी। वापस आ गए। दावत का अंत चल रहा था। आते जाते रास्ते में सर्दी लगी थी।खुद भी कॉफी पी और छोड़ने आने वाले को भी पिलाई। कमरे पर पहुँचे तो ससुराल का कुनबा दूल्हे-दुल्हिन की पगपूजा में देने वाले उपहार बींदणी के हवाले कर अकलेरा जा चुके थे। हमारे साथ आई सालियाँ भी उन के साथ हमारे ससुर जी से मिलने के लिए उन के साथ चली गई थीं। कमरा खाली था। रात के एक बज रहे थे। हम वहीं सो गए। सुबह तीन बजे नींद खुली तो पीछे से पंडित जी की आवाज सुनाई दी। नव वर-वधू को गृहस्थी के गुर ऊंची आवाज में सिखाए जा रहे थे। यानी पगपूजा का वक्त हो चला था। बींदणी को उठा कर वहाँ भेजा। साढ़े चार बजे वर-वधू के साथ ऊपर आई तो आगे आगे ढोल बज रहा था। नींद खुल गई। वधू एक कमरे में चली गई, वस्त्र परिवर्तन के लिए। दुल्हे को हॉल में बिठा दिया। करीब एक घंटा लगा। वर-वधू की विदाई का समय हुआ तो वर की जूतियाँ गायब। यही एक अंतिम रस्म रह गई थी। खैर,  कुछ दे दिला कर सालियों से जूतियाँ वापस मिलीं। इस बीच हम फ्रेश हो लिए। इधर वर-वधू की विदाई हुई उधर हम ने अपना सामान अपनी कार में रखा और रात वाले मुवक्किल के घर आए। रात को मोबाइल वहीं छूट गया था। वहाँ चाय पीनी पड़ी। रवाना होते होते सात बज रहे थे।

पूरी शादी में जो खास बात थी कि लेन-देन, दान दहेज का प्रदर्शन न हुआ। वह कुछ खास हुआ भी न था। यह एक अच्छी बात थी। इन के दिखावे से समाज में प्रतियोगिता होती है और इन्हें बढ़ावा मिलता है। बहुत सी परंपराओँ का निर्वाह किया गया था। लेकिन फिर भी वह आनंद नहीं था जो तेंतीस बरस पहले हमारी शादी के वक्त में था। सादगी बहुत कम थी लेकिन आनंद बहुत था। कभी मौज आई तो उस शादी की दास्तान भी आम होगी।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

रविवार, 7 सितंबर 2008

गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना

"गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं।
गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है। 

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

विधवा अपने नौकर के साथ विवाह करना चाहती है, आप की क्या राय है?

आज सुबह अदालत के लिए रवाना होने के पहले नाश्ते के वक्त टीवी पर एक समाचार देखा। एक विधवा माँ के तीन नाबालिग बच्चों ने पुलिस थाने में शिकायत कराई कि उन के पिता की मृत्यु के बाद उन की माँ घर के नौकर से विवाह करना चाहती है। वे अब अपनी मां के साथ नहीं रहना चाहते। उन्हें उन की माँ से उन के पिता का धन और घर दिला दिया जाए। माँ जहाँ जाना चाहे जाए।  अजीब शिकायत थी।

माँ और उस के प्रेमी नौकर को पुलिस थाने ले आया गया था। माँ कह रही थी कि यह सच है कि वह विवाह करना चाहती है। लेकिन इस में क्या परेशानी है। बच्चों को एक पड़ौसी के घर में बैठा दिखाया गया था। शायद बच्चों को उसी ने थाने तक पहुँचाया था। हो सकता है इस में मीडिया ने भी कोई भूमिका अदा की हो। समाचार दिखाने वाला बता रहा था... देखिए इस माँ को जिस ने  प्रेमी से विवाह करने के लिए बच्चों को घर से निकाल दिया। माँ थी कि मना कर रही थी कि वह कैसे अपने ही बच्चों को घर से निकाल सकती है। वह तो बच्चों को खुद अपने साथ रखना चाहती है।

मुझे यह समझ नहीं आया कि उस महिला का वह कौन सा अपराध था जिस के कारण उसे थाने में बुलाया गया था। जहाँ तक अन्वेषण का प्रश्न है तो वह तो मौके पर उस के घर जा कर भी किया जा सकता था। कुल मिला कर यह समाचार उस महिला के प्रति घृणा उत्पन्न कर रहा था।

मैं ने अदालत के रास्ते में दो तीन पुरुषों से बात की तो उन्हों ने  इस महिला को लानतें भेजीं। इन परिस्थितियों में लोगों ने यह भी कहा कि उस का प्रथम कर्तव्य अपनी संतानों को जीने लायक बनाने का है। यह भी कि जरूर उस महिला की गलती रही होगी।

जब मैं ने उन से यह कहा कि एक महिला जो हमेशा अपने पति पर निर्भर रही। उस ने सहारे से जीना सीखा। अब पति का सहारा उस के पास नहीं रहा। वह अपने शेष जीवनकाल के लिए उस का सहारा बन सकने वाला एक जीवनसाथी चाहती है, जिस के बिना उस ने  जीना सीखा ही नहीं। वह अपने बच्चों को भी पालना चाहती है। शायद उस ने सोचा हो कि वैधव्य की अवस्था में जहाँ अधिकांश पुरुष उसे गलत निगाहों से लार टपकाते हुए नजर आते हैं, वहाँ वह किसी एक के साथ विवाह क्यों न कर ले? लेकिन अपने बच्चों के प्रति जिम्मेदारी निभाते हुए कोई महिला विवाह करना चाहती है तो लोगों को क्यों आपत्ति होना चाहिए?

मैं ने जिन्हें किस्सा सुनाया उन्हें यह भी कहा कि मान लो कि पति के स्थान पर यह महिला मर गई होती और पति ने नौकरानी को अपने घर में ड़ाल लिया होता तब भी पुलिस का बर्ताव यही रहता? क्या तब भी पड़ौसी उस के बच्चों को पुलिस थाने पहुँचाते? क्या उस पुरुष के विरुद्ध किसी की उंगली भी उठती? तब क्या उस पुरुष को एक महिला के सहारे की उतनी ही आवश्यकता होती, जितनी उस की पत्नी को एक पुरुष की है?

इस पर लोगों ने कहा कि वाकई उस महिला के साथ ज्यादती हुई है।

लेकिन क्या आप लोग भी ऐसा ही सोचते हैं? या इस से कुछ अलग?

रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

दया धरम का मूल है, दया कीजिए!

मेरी बेटी पूर्वा का एक आलेख आजाद भारत की बेटियाँ अनवरत के पिछले दो अंकों में प्रकाशित हुआ। पहले अँक पर आठवीं टिप्पणी थी.....
सच ने कहा .... एक प्रश्न है दिमाग में कल जब पोस्ट करें तो उसका उत्तर भी अगर दे सके तो आभार होगा।
पूर्वा आप की पुत्री है, उसने स्त्री विमर्श पर लिखा हैं, और भी बहुत सी महिलाएँ स्त्री विमर्श पर लिख रही हैं। पर उनके ब्लॉग पर लोगो के जो कमेन्ट आते हैं, उस प्रकार के कमेन्ट यहाँ नहीं हैं. इस का कारण क्या ये तो नहीं है कि लोग केवल उन स्त्रियों के कार्यो को ही "मान्यता" देते हैं जो पुरूष के संरक्षण मे रह कर काम करती हैं।
आप के जवाब का इंतज़ार रहेगा

सवाल गंभीर था। मैं उस का उत्तर देना भी चाहता था। लेकिन आलेख पूरा होने और उस पर भरपूर टिप्पणियाँ आने के बाद ही। मैं ने अपना इरादा आलेख के उत्तरार्ध पर चिपका भी दिया।
दूसरे अंक पर ‘सच’ की दूसरी ही टिप्पणी थी और उस में कुछ तीखे और गंभीर सवाल भी....
सच ने कहा .... "आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में..........."
क्यों सब की संवेदनाये इतनी विक्षिप्त हैं?? क्यों नारी स्वतंत्रता को लोग आतंक समझते हैं? और नारी विमर्ष को अपशब्द कहते हैं? क्यों जरुरी हैं "संरक्षण" नारी का?

कुल पन्द्रह टिप्पणियों के बाद सोलहवीं पतिनुमा प्राणी जी की अवतरित हुई .....
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... मुझे एक बात पर आश्चर्य हो रहा है कि आलेख के दोनों भागों पर 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' वालों की तरफ से कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी!
आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
इस पर ब्लाग नारी की संचालिका रचना जी की टिप्पणी थी........
रचना ने कहा .... नारी ब्लाग के आठ और चोखेरबाली के दो सदस्य इस और पिछले आलेख पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं।
मैं सोचती हूँ कि यह पढ़ने और जानने के पहले कि इन दोनों सामुहिक ब्लागों पर कितने सदस्य हैं? और उन का योगदान क्या है? आप को इन कथित “पतिनुमा प्राणी” को बता देना चाहिए कि वह इन दोनों सामुहिक ब्लागों की महिला ब्लागरों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करे।
मैं यह टिप्पणी पढ़ता उस के पहले ही जवाब में पतिनुमा प्राणी जी का यह संदेश आ चस्पा हुआ...
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... अरे रचना जी! मैने शुरू ही कहाँ किया है, जो आप रूकने को कह रही हैं!!
भई, मेरे विचार हैं, यदि आपको पसंद नहीं आ रहे तो यह महिलायों का abuse (इसका बेहतर हिंदी अनुवाद आप ही बता सकतीं हैं) करना कैसे हो गया?
मेरी टिप्पणी में आपको यही शब्द दिखे? बाकी शब्द नहीं? हर बात को आप नारी प्रजाति पर आक्रमण क्यों समझ लेती हैं?
दूसरों को तो आप समझाती रहतीं हैं कि प्रतिक्रियावादी न बने। स्वयं क्या कर रहीं हैं।
बेहतर होता यदि मेरी टिप्पणी के बाकी हिस्से पर आपकी बुद्धिमता भरी बातों से हम पुरूषों को भी कुछ ज्ञान हासिल हो पाता।
वैसे यहाँ, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ।
रचना जी से अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें। दूसरों के कंधों का सहारा न लें।
मैं व्यस्त भी था, और थका हुआ भी। मैं ने दोनों टिप्पणियाँ वहाँ से उड़ा दीं।
अज्ञातों की टिप्पणियों के लिए तो मेरे ब्लागों का प्रवेश-द्वार बंद है। रचना जी से मैं परिचित हूँ। वे न तो अपनी पहचान छुपाती हैं और न ही विचार। वे जो भी कहना चाहती हैं, डंके की चोट कहती हैं। कभी किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं। हाँ उन्हें किसी भी महिला को कहा गया अपशब्द बुरा लगता है। जब भी ऐसा होता है वे सिर्फ कहती हैं ... अपना मुहँ बन्द करो, हिन्दी में बोले तो शट-अप। मैं पतिनुमा प्राणी जी से परिचय करना चाहता था। पहली फुरसत में मैं ने उन के नाम पर चटका लगाया, तो परिणाम जो आया वह आप के सामने है।
पतिनुमा प्राणी।
इसे पढ़ा, और विचार किया, तो क्रोध बिलकुल नहीं उपजा। उपजता भी कैसे? आखिर ये पतिनुमा प्राणी जी हैं क्या? मात्र एक पर्दानशीन ब्लागर। बेचारे! पैंतालीस वसंत गुजार चुके हैं। एक महिला ने उन्हें जन्म दिया। लगा, माता जी, से नाराज हैं, कि जन्म ही क्यों दिया? और भगवान जी से भी, कि अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में जा कर। भगवान जी से नाराजी में फिर एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो, वो भी एक साथ। यहाँ भगवान जी ने उन के साथ फिर अन्याय किया। ब्याह कर के चाहा था कि पत्नी घऱ रहेगी, पति की सेवा करेगी, आज्ञा पालन करेगी, बच्चों को पालेगी और कभी अपनी चाह, आकांक्षाएँ व्यक्त नहीं करेगी। पर पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में अँगूठाछाप की जगह पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। पति की मेहरबानी पर जीने के स्थान पर, खुद कुछ करना चाहती है, कुछ बनना चाहती है। कई बार राह रोकने पर भी नहीं मानती। अपनी ही राह चली जाती है। कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
अब करें तो क्या करें? बेचारे पतिनुमा प्राणी जी। अलावा इस के कि भड़ास निकालें। वह भी निकालने की नहीं बनती। यहाँ कोई बराबर की बजाने वाले मिले तो क्या करेंगे? पहुँच गए काली कमली वाले की शरण में। एक कमली खुद के लिए भी ले आए। अब उसे ओढ़ते हैं, पहचान छुपाते हैं, और भड़ास निकालते हैं। जो खुद ही छुपा फिर रहा हो, उसे क्या कहा जाए? और कैसे कहा जाए? अब दीवार को तो कह नहीं सकते न? कहने के बाद उस के चेहरे की मुद्राएँ देखने का अवसर जो नहीं मिलता।
वैसे भी कभी सोचा है आप ने? कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। फिर याद आया “दया धरम का मूल है”, दया बहुत बड़ी चीज है, दया कीजिए धरम होगा। हमें क्रोध के स्थान पर आई दया, और दया के लिए सर्वोत्तम पात्र दिखाई दिए ...  पतिनुमा प्राणी जी ।