@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: महंगाई
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शुक्रवार, 29 जून 2012

अभियान का आखिरी दिन

र्किट हाउस तिराहे से अदालत की ओर मुड़ना था पर वहाँ सिपाही लगे थे और सब को सीधे निकलने का इशारा कर रहे थे।  सिपाहियों के पीछे सर्किट हाउस के गेट से कुछ आगे सड़क के बीचों बीच शामियाना तना हुआ था और रास्ता बन्द था।  अब अदालत पहुँचने के लिए मुझे दो किलोमीटर का चक्कर लगाना था।  मैं ने सोचा, आज क्या है?  फिर सुबह अखबार में पढ़ी खबर का ध्यान आया कि आज विपक्ष के महंगाई विरोधी आंदोलन का अन्तिम दिन है और पूरे देश में गिरफ्तारियाँ दी जा रही हैं। खैर, मैं घूम कर अदालत चौराहे पहुँचा। आज किस्मत अच्छी थी, मुझे पार्किंग में जगह खाली मिल गई। चौराहे का नक्शा बदला हुआ था। राजभवन और अदालत की ओर जाने वाले रास्तों पर बेरीकेड लगे थे।  दोनों ही रास्तों पर आज पार्किंग नहीं करने दी गई थी और आवागमन बंद था। केवल शहर की ओर से आने वाला रास्ता खुला था। गिरफ्तारी वालों के जलूस उधर से आ कर मंच के सामने एकत्र हो सकते थे, आ जाने के बाद खिसकने का कोई रास्ता नहीं था।  सब तरफ पुलिस जवान तैनात थे जिन में डंडा वालों से ले कर बंदूक वाले तक थे।  एण्टीरॉयट वाहन पोजीशन लिए खड़े थे।  रोज पार्क होने वाले वाहन न होने से अदालत वाली सड़क और दिनों की अपेक्षा चौगुनी चौड़ी लग रही थी। अस्पताल वाली सड़क पर गिरफ्तार करने के बाद लोगों को ले जाने के लिए बीसियों खाली बसें पंक्तिबद्ध खड़ी थीं।

रीब बारह बजे, मंच से उद्घोषणाएँ आरंभ हो गईं, ... मंच के दाईं तरफ का स्थान पत्रकारों के लिए है, कार्यकर्ता उन पर न बैठें ... बाईं तरफ सब के लिए शीतल जल की व्यवस्था है ... आदि आदि। मैं मंच की और झाँका तो मंच पर उद्घोषक के साथ दो-एक लोग थे, मंच के सामने आठ-दस लोग खड़े थे बाकी दो सौ मीटर तक लोगों के बैठने के लिए बिछाए गए फर्श खाली थे। इंतजाम देख कर मुझे लग रहा था जैसे दशहरे पर रावणवध का आयोजन किया जा रहा हो।

क बजे के लगभग ढोलों के बजने की आवाजें आने लगीं।  शायद जलूस निकट आ चुका था। तो मौके पर तैनात पुलिस वाले सतर्क हो कर बेरीकेडस् के पास एकत्र होने लगे। तभी एक अफसर ने आ कर डंडा और बंदूक वालों को एकत्र कर उन्हें कुछ निर्देश दिए।  पुलिसवालों ने पोजीशन ले ली।  मेरे दिमाग में चित्र बनने लगे ... अभी महंगाई के कारण गुस्से से भरे लोग आएंगे और बेरीकेडस् तोड़ कर कलेक्ट्री की ओर जाने की कोशिश करेंगे, पुलिस वाले रोकेंगे, वे जबरन उधर जाने की जिद करेंगे, पुलिस वाले लाठियाँ तानेंगे, तभी कोई पुलिस पर पत्थर फैंकेंगा। पुलिस वाले गुस्से में लाठियाँ चलाने लगेंगे। कुछ भगदड़ होगी, लेकिन लोग भागेंगे नहीं, फिर डट जाएंगे। तब एण्टीरॉयट वाहन से पानी की बौछारें छोड़ी जाएंगी। सारे रास्ते पानी फैलेगा। लोग भागने लगेंगे, कुछ वहीं फिसल कर गिर पडेंगे। गिरे हुए लोगों को अधिक लाठियाँ खानी पड़ेंगी, नेता और उन के कुछ चमचे फिर भी अड़े रहेंगे, उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा ...

लूस निकट आ गया। मंच से नारे लगने लगे। मैं अदालत की सीमा में एक टेबल पर खड़ा हो देखने लगा। कुछ लोग ढोल बजा रहे थे, कुछ नाचते हुए तेजी से आगे बढ़ रहे थे। लगा अभी बेरीकेड को टक्कर मारेंगे और वह गिर पड़ेगा। पर ऐसा कुछ न हुआ। जलूस चौराहे पर बने सर्कल से मंच की ओर मुड़ गया। लोग मंच के आगे जा कर बैठने लगे। ये सब देहात वाले थे। कुछ देर बाद नगर वालों का जलूस भी आ पहुँचा। वह भी देहात वालों की नकल करता हुआ मंच की तरफ मुड़ गया। मंच के सामने कम लोग बैठे। ज्यादातर ने पानी के इंतजाम के आसपास भीड़ लगा दी। मंच से फिर निर्देश दिए जाने लगे, पत्रकारों का स्थान खाली रखना है, वहाँ केवल पत्रकार ही बैठें; पानी एक-एक कर लें, भीड़ न लगाएँ, आदि आदि। पन्द्रह मिनट बाद सभा जमी, मंच से भाषण होने लगे।  केन्द्र और राज्य की सरकारों को कोसा जाने लगा। जनता की दुर्दशा का बखान होने लगा। पौन घंटे में सब नेता निपट लिए। फिर घोषणा हुई कि सब अनुशासन पूर्वक गिरफ्तारी देंगे, किसी तरह की वायलेंस नहीं करेंगे। लोग खड़े हो गए, पुलिस भी सतर्क हो गई। लोग सीधे गिरफ्तारी के बाद बैठाए जाने वाली बसों की ओर दौड़ पड़े। कुछ बस में चढ़े, कुछ बसों में जगह खाली होने पर भी उन की छतों पर चढ़ गए। छत का आनंद अलग होता है। बसें चल पड़ीं। बसों में पुलिस एक भी नहीं थी जिस की लोगों को एक फर्लांग आगे जा कर लोगों को सुध आई।  लोगों ने बस रुकवा दी और उतर कर वापस लौट लिए। फिर पुलिस ने उन्हें दूसरी बसों में बैठाया गया। इस बार डंडे वाली पुलिस दो-दो जवान भी हर एक बस में चढ़े।  बहुत से लोग ऐसे भी थे जो किसी बस में नहीं चढ़े वे पैदल ही खिसक लिए। पुलिस ने उन्हें खिसकने दिया। बीसेक मिनट में चौराहा खाली हो गया। केवल पुलिस वाले रह गए। किसी अफसर ने इशारा किया तो मजदूर आ गए और बेरिकेडस् हटाने लगे।


गले दिन अखबारों में आंदोलन के चित्र छपे, चित्र ऐसे थे कि दो तीन सौ आदमी भी हजारों नजर आएँ। यह भी छपा था कि लोगों को पास के स्टेडियम के पास ले जा कर छोड़ दिया गया। गिरफ्तार होने वाले आँकड़ों पर बहस छिड़ी थी। पुलिस ने गिरफ्तार लोगों की संख्या 300 बताई जब कि नेता कह रहे थे 1873 लोग गिरफ्तार हुए, बसें कम पड़ गईं। नेता जी का बयान छपा था- महंगाई मौजूदा सरकार की गलत नीतियों के कारण बढ़ रही है। आमजन के लिए जीवन यापन चुनौती बन गया है।  हमारा महंगाई विरोधी अभियान का आज अंतिम दिन था। अभियान भले ही खत्म हो गया हो, लेकिन विपक्ष सरकार की गलत नीतियों का विरोध करता रहेगा।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

फुटबॉल हैंगोवर और खुश कर देने वाली खबरें।

ल फुटबॉल का नशा करने को नहीं मिला। आज तो हेंगोवर का दिन था। रात को जल्दी सो जाना चाहिए था, लेकिन देर तक नींद नहीं आई। मैं आज के अदालत के काम को ले कर परेशान था। कुल छह मुकदमे बहस में लगे थे। मैं सोच रहा था कैसे यह सब होगा। मैं किसी भी मुकदमे में तारीख नहीं चाहता था। जल्दी अदालत पहुँचना चाहता था कि घर से निकलते निकलते कुछ मुवक्किल आ गए। उन की समस्या का तुरंत कुछ हल निकालना था। उन से बात करते करते देरी हो गई और साढ़े ग्यारह पर अदालत पहुँचा। एक में बहस नहीं हो सकी क्यों कि नियोजक संगठन में कोई फेरबदल हुआ है। वकील का उस के मुवक्किल से संपर्क नहीं हो पा रहा है। वास्तव में अदालत के पास भी समय नहीं था। अदालत जिन मुकदमों में बहस सुन चुकी थी, उन में उसे निर्णय लिखाने थे। अब यह तो हो नहीं सकता कि आप दस मुकदमों में बहस सुन कर डाल दें और फिर समय की कमी से फैसला न कर पाएँ। दूसरे मुकदमे में अदालत के आदेश के बाद भी यह प्रकट किया कि आदेशित दस्तावेज उन के कब्जे में नहीं है। आखिर मुकदमे को गवाही के लिए बदल दिया गया। एक अन्य मुकदमे में तीन में से एक वकील का स्वास्थ्य खराब हो गया और बहस टल गई। 
क अदालत में एक साथ बहुत मुकदमे स्थानांतरित हो कर आने के कारण समय के अभाव में पेशी बदल गई। एक में प्रार्थी के वकील ने खुद की हार को देखते हुए बहस के दौरान यह आवेदन प्रस्तुत किया कि वे एक एक्सपर्ट डाक्टर की गवाही कराना चाहते हैं। हमने विरोध किया तो अदालत ने हमें विरोध जवाब के रूप में लिख कर देने के लिए तारीख बदल दी। कुछ मुकदमें अदालत में पिछले छह माह से जज के प्रसूती अवकाश पर होने के कारण ताऱीख बदल गई। यह अदालत पिछले छह माह से सभी मुकदमों में यही कर रही है। एक और मुकदमे पेशी अदालत में जज नियुक्त नहीं होने से बदल गई। कुल मिला कर कागजी प्रभाव का काम तो हुआ, लेकिन वास्तविक प्रभाव का नहीं। वास्तविक प्रभाव का काम ये हुआ कि तीन बार भिन्न भिन्न मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी पी गई। 
मैं दोपहर का वाकया बताना तो भूल ही रहा हूँ। अचानक लोकल चैनल वाले कैमरा लिए घूम रहे थे, मुझे पकड़ लियाष पूछने लगे कि भिक्षावृत्ति को समाप्त करने के लिए कोई कानून है क्या। मैं ने कहा कि कानून हो भी तो क्या। भिक्षावृत्ति तो बढ़ रही है और स्वाईन फ्लू की तरह नए नए रूप भी ग्रहण कर रही है। अदालत में जज नियुक्त नहीं है। रीडर को तारीख बदलनी है। लोग सुबह से अदालत में आए बैठे हैं, लेकिन रीडर साहब किसी सरकारी काम से जिला अदालत गए हैं और कैंटीन में बैठ कर किसी वकील के साथ चाय पी रहे हैं। चपरासी न्यायार्थी से कहता है कि रीडर साहब मुकदमों में तारीख बदली कर गए हैं। लिस्ट अंदर रख गए हैं, लेकिन वह बता सकता है। यह कहते हुए उस की आँखें चमक रही थीं। उस ने न्यायार्थी तो तारीख बता दी लेकिन ईनाम की फरमाईश कर दी। न्यायार्थी के सौ रुपए के नोट से कम के जितने नोट थे सब बख्शीश हो गए। शाम तक आई बख्शीश को रीडर व चपरासी ने पूरी ईमानदारी के साथ बांट लिया। बख्शीश न दो तो मांगने वाला इतनी गालियाँ और बद्दुआएँ देता है कि कोष छोटे पड़ने लगते हैं। इस भिक्षावृत्ति को रोकने का कोई कानून नहीं है ......... इतना कहते कहते तो कैमरामैन ने कैमरा बंद कर दिया। मुझे पक्का यकीन है कि वह इस क्लिप को शायद ही कभी दिखाए। 
र पर पत्नी जी से वायदा किया था कि आम ले कर आउंगा। पर भूल गया। घऱ में घुस जाने पर याद आया। एक जूनियर को फोन कर के कहा कि वह आम लेता आए। पत्नी ने चावल बनाए और आम का अमरस। यह डिश आज के दिन बनना जरूरी था। आज रथयात्रा और मेरे दिवंगत पिता जी का जन्मदिन जो था। हमने इस अमरस और बासमती चावलों के साथ आलू के पराठों का आनंद लिया। इस के साथ टीवी देखा। खबर सुन कर तबीयत खुश हो गई कि फ्रांस अब अपने देश में बुर्का पहनने पर पाबंदी लगाने के करीब है। वहाँ की संसद के निचले सदन में एक के मुकाबले 336 मतों से यह बिल पारित हो गया। दुनिया में ऐसे देश बहुत हैं जहाँ न चाहते हुए भी और उन की संस्कृति का हिस्सा न होते हुए भी औरतों को बुरका पहनना होता है। अब कम से कम एक देश तो इस पृथ्वी के नक्शे पर होगा जहाँ स्त्रियों के बुरका पहनने पर पाबंदी होगी। शायद ही कोई आजाद औरत हो जो किन्हीं भी हालात में बुरका पहनना चाहे। वास्तव में इसी तरह महिलाओं को इस की कैद से आजादी मिल सकती है। वरना वे संस्कृति की कैद में घुटती रहती हैं। इस कैद से निकलने का अर्थ है परिवार और समाज में बहुत कुछ भुगतना।
दूसरी खबर ने तो तबीयत पूरी तरह खुश कर दी। विश्वकप फुटबॉल के हीरो कप्तान गोलकीपर आईकर कैसीलस ने उन का इंटरव्यू लेने आई उन की महिला मित्र सारा कार्बोनेरो को यह सवाल पूछने पर कि पहले मैच में तुम इतना बुरा कैसे खेले? लाइव दिखाए जा रहे इंटरव्यू के बीच चूम लिया। निश्चित ही ताने दे कर भी उन में जीतने का उत्साह पैदा करने वाली अपनी मित्र के लिए इस से बड़ा तोहफा इस जीत पर नहीं हो सकता था। एक चैनल ने पूरा गाना ही सुना ही सुना कर खुश कर दिया ........... मंहगाई डायन काहे खाए जात है.........
स कल फिर इतने ही मुकदमे हैं, कुछ तैयारी कर ली गई है कुछ सुबह की जाएगी। पर कल आज जैसा नहीं हो सकता। कल कुछ न कुछ हासिल करना ही होगा।