@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भरोसा
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रविवार, 13 जून 2010

विधि मंत्री मोइली देश और सु्प्रीमकोर्ट से माफी मांगे और अपने पद से त्यागपत्र दें

भोपाल गैस त्रासदी संबंधित अदालत के निर्णय और उस के बाद जिस तरह से परत-दर-परत तथ्यों का रहस्योद्घाटन हुआ है उस ने मौजूदा शासकवर्ग (भारतीय पूंजीपति-भूस्वामी-और साम्राज्यी पूंजीपति) को संकट में डाल दिया है। भारत में उन का सब से बड़ा पैरोकार राजनैतिक दल कांग्रेस संकट में है। बचने की गुंजाइश न देख कर उन की सरकार के विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने अब अपनी पार्टी के गुनाहों को न्यायपालिका के मत्थे थोपना आरंभ कर दिया है। कांग्रेस पार्टी इस संकट से पूरी तरह बौखला गई है। क्यों कि उन के पूर्व प्रधानमंत्री मिस्टर क्लीन स्व. राजीवगांधी पर उंगलियाँ उठ रही हैं।  उन के पास इस का कोई जवाब नहीं है। एंडरसन को फरार करने के लिए जिम्मेदार तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह अपना मुहँ सिये बैठे हैं। 
चाई को छुपाने के लिए इस जमाने के शासक कथित जनतंत्र की जिस धुंध का निर्माण करते हैं, उसे जनतंत्र के एक अंग पत्रकारिता ने पूरी तरह छाँट दिया है। किस तरह राजनेता न केवल देशी पूंजीपतियों की चाकरी करते हैं बल्कि उन के बड़े आकाओं की सेवा करते हैं, यह सामने आ चुका है। मध्यप्रदेश पुलिस ने भोपाल मामले में मुकदमा धारा 304 भाग-2 में दर्ज किया था जो कि संज्ञेय और अजमानतीय अपराध है, जिस का विचारण केवल सेशन न्यायालय द्वारा ही किया जा सकता है। परंपरा के अनुसार सेशन न्यायालय से नीचे का कोई न्यायालय अभियुक्त की जमानत नहीं ले सकता। पुलिस तो कदापि नहीं। 
स अपराध में यूनियन कार्बाइड के चेयरमेन वारेन एंडरसन को गिरफ्तार दिखाया और फिर खुद ही जमानत पर रिहा कर दिया। इतना ही नहीं खुद पुलिस कप्तान और जिला कलेक्टर उसे छोड़ने हवाईअड्डे ही नहीं गए, अपितु कार की ड्राइविंग भी खुद ही की, शायद इसलिए कि कहीं कोई ड्राइवर देश के लिए की जा रही  गद्दारी का गवाह न बन जाए। तत्कालीन पुलिस कप्तान और कलेक्टर जो इस देश की जनता से वेतन प्राप्त करते थे, उन्हों ने उस की कोई अहमियत नहीं समझी, वे केवल राजनेताओं के हुक्म की तामील करते रहे।  राजनेताओं ने वारेन एंडरसन से प्रमाण पत्र हासिल किया "गुड गवर्नेस"।  यह एक दिन में नहीं हो जाता। यह वास्तविकता है कि अधिकांश आईएएस और आईपीएस अफसर जनता के धन पर राजनेताओं की चाकरी करते हैं, उन से भी अधिक वे वारेन एंडरसन जैसे लोगों की चाकरी करते हैं, उस के बदले उन को क्या मिलता है? इस से जनता अब अनभिज्ञ नहीं है।
पुलिस द्वारा वारेन एंडरसन की जमानत तभी ली जा सकती थी जब कि उस के विरुद्ध लगाए गए आरोपों को दंड संहिता की धारा 304 भाग-2 से 304-ए के स्तर पर ले आया जाता। पुलिस इस हकीकत को जानती थी कि दंड संहिता में 304-ए के अतिरिक्त कोई और उपबंध ऐसा नहीं कि जिस का आरोप भोपाल त्रासदी के अभियुक्तों लगाया जा सके। जनता के दबाव के सामने कानून की इस कमी को छिपाया गया। वारेन एंडरसन को तो फरार दिखा दिया गया, शेष अभियुक्तों के विरुद्ध धारा 304 भाग-2 और कुछ अन्य धाराओं के अंतर्गत अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर दिया गया। एक ऐसा आरोप जिस में से धारा-304 भाग-2 को हटना ही था। आरोपी सक्षम थे और सुप्रीमकोर्ट तक अपना मुकदमा ले जा सकते थे। देश के सब से बड़े वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कर सकते थे। उन्हों ने अशोक देसाई, एफ.एस. नरीमन और राजेन्द्र सिंह जैसे देश के नामी वरिष्ट वकीलों की सेवाएँ प्राप्त कीं और आरोप दंड संहिता की धारा धारा-304 भाग-2 के अंतर्गत नहीं ठहर सका। (यह पूरा निर्णय यहाँ पढ़ा जा सकता है) आज मोइली जी कह रहे हैं कि सुप्रीमकोर्ट ने गलती की। हजारों लोगों की जानें लील लेने और हजारों को अपंग बना देने वाली त्रासदी को ट्रक एक्सीडेंट बना दिया गया। लेकिन जब सुप्रीमकोर्ट ने ऐसा किया तब केन्द्र सरकार के अधीन चलने वाली सीबीआई क्या सो रही थी? न्यायमूर्ति अहमदी के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल क्यों नहीं की गई? क्या मोइली साहब इस सवाल का उत्तर देना पसंद करेंगे? शायद नहीं? क्यों कि तब उंगली फिर उन की ही और उठेगी। स्पष्ट है सरकार की नीयत अपराधियों को सजा दिलाने की नहीं अपितु उन्हें बचाने की थी। राजद सरकार ने तो इस से भी आगे बढ़ कर एक कदम यह उठाया कि वारेन एंडरसन के बाद सब से जिम्मेदार अभियुक्त केशव महिंद्रा को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की पेशकश कर दी। न पक्ष और न ही विपक्ष, राजनीति का कोई हिस्सेदार इस त्रासदी की कालिख से अपने मुहँ को नहीं बचा सका। यह कालिख हमेशा के लिए उन के मुहँ पर पुत चुकी है, जिस से वे पीछा नहीं छुड़ा सकते।
भोपाल मेमोरियल अस्पताल ट्रस्ट की स्थापना सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से की गई थी, सुप्रीमकोर्ट के निर्णय से ही न्यायमूर्ति अहमदी को उस का आजीवन मुखिया बनाया गया था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन के समक्ष वे इस ट्रस्ट में अपने पद से त्यागपत्र प्रस्तुत कर चुके थे जो कि अभी तक सु्प्रीमकोर्ट की रजिस्ट्री के पास कार्यवाही के लिए मौजूद है, वे पुनः उस पद को छोड़ देने की पेशकश कर चुके हैं। अदालत में दिए गए एक निर्णय के लिए उन्हें या न्यायपालिका को मोइली द्वारा दोषी बताना किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। उस स्थिति में तो बिलकुल भी नहीं जब कि केंद्र सरकार के पास उस निर्णय पर पुनर्विचार के लिए याचिका प्रस्तुत करने का अवसर उपलब्ध था, जिस का उसने कोई उपयोग नहीं किया। मोइली विधि मंत्री हैं, न्यायपालिका को सक्षम और मजबूत बनाए रखने की जिम्मेदारी उन की है। उन्हों ने कांग्रेस को बचाने के लिए न्यायपालिका के विरुद्ध जो बयान दिया है वह न्यायपालिका के सम्मान और गरिमा को चोट पहुँचाता है। इस के लिए उन्हें तुरंत अपने पद से त्यागपत्र दे कर सर्वोच्च न्यायालय और देश से क्षमा याचना करनी चाहिए। 

शनिवार, 12 जून 2010

साँप सालों पहले निकल गया, लकीर अब तक पीट रहे हैं

साँप तो निकल कर जा चुका है, और जिसे मौका लग रहा है वही लकीर पीट रहा है। जब मामले में अदालत का निर्णय आया तो न्यायपालिका को कोसा जा रहा था, साथ ही दंड संहिता की खामियाँ गिनाई जा रही थीं। निश्चित ही न्यायपालिका का इस में कोई दोष नहीं। उस का काम सरकार द्वारा उस के सामने अभियोजन (पुलिस) द्वारा लाए गए सबूतों और कानून के अनुसार आरोप विरचित करना, मुकदमे की सुनवाई करना और सबूतों के अनुसार दोषी पाए जाने पर अपराधियों को देश के दंड कानून के मुताबिक निर्णय और दंड प्रदान करना है। निश्चित ही न्यायालय ने अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है। उस के माथे पर केवल एक कलंक मंढ़ा जा सकता है कि उस ने फैसला करने में 23 साल क्यों लगाए? इस के लिए भी न्यायालय या न्यायपालिका को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। यह सर्वविदित तथ्य है कि देश में आवश्यकता के चौथाई अधीनस्थ न्यायालय भी नहीं हैं। जिस मामले में 25000 लोगों की मौत हुई हो और उन से कई गुना अधिक बीमार हुए हों, जिस से देश भर की जनता की संवेदनाएँ जुड़ी हों उस मामले में  एक विशेष अदालत का गठन किया जा सकता था, जो केवल इसी मुकदमे की सुनवाई करती। केवल और केवल एक वर्ष में यह निर्णय हासिल किया जा सकता था। इसी तरह एक दो वर्ष में अपील आदि की प्रक्रिया पूर्ण कर दोषियों को दंड दिया जा सकता था। पर लगता है कि सरकार की नीयत ही ठीक नहीं थी। शायद वह चाहती थी कि मामले को जितना हो सके लंबा किया जाए। इतने महत्वपूर्ण मामले को देश में चल रहे लाखों सामान्य फौजदारी मुकदमों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। यदि कोई पत्रकार चाहे तो इस मुकदमे के प्रारंभ से ले कर अभी तक की सभी पेशियों की आदेशिकाओं की नकल प्राप्त कर दुनिया को बता सकता है कि 25000 हजार मौतों के लिए जिम्मेदार अभियुक्तों के विरुद्ध मुकदमा किस साधारण तरीके चलाया गया था। 
स फैसले ने साबित किया है कि हमारे देश की संसद और विधानसभाएँ, देश की जनता की सुरक्षा के लिए कितनी चिंतित हैं? उन की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून इतने खोखले हैं कि किसी को इस बात का भय ही नहीं है कि वे उन सुरक्षा नियमों की पालना करें। लेकिन वे क्यों बनाएँ ऐसे कानून जो किसी उद्योगपति को मुनाफा कमाने में रोड़ा पैदा करते हों? आखिर वे ही तो हैं जो सांसदों और विधायकों को चुने जाने के लिए धन उपलब्ध कराते हैं। पूरे पाँच वर्षों तक उन्हें हथेलियों पर बिठाते हैं। फिर क्यों न सांसद और विधायक उन की रक्षा करें। जनता का क्या उस के पास पाँच बरस में एक वोट की ताकत भर है। जिसे किसी भी तरह खरीदा जा सकता है। अब तो उस की भी उतनी जरूरत नहीं है। हालात यह हैं कि किसी पार्टी का उम्मीदवार विधायक बने उन का तो चाकर ही होगा न? यही है हमारे जनतंत्र की हकीकत। यही है हमारा जनतंत्र। देशी-विदेशी पूंजीपतियों और भूपतियों का चाकर। 
क्या था एंडरसन? एक अमरीकन कंपनी का सीईओ ही न। कहते हैं तीस से अधिक कमियाँ पायी गई थी भोपाल युनियन कार्बाइड कारखाने में जो जनहानि के लिए जिम्मेदार हो सकती थीं, इन सब की सूचना एंडरसन साहब को थी। यही कमियाँ इसी कंपनी के अमरीका स्थित कारखाने में भी थीं। अमरीका स्थित कारखाने की कमियों को दूर किया गया लेकिन भारत स्थित कारखाने पर इन कमियों को दूर करने की कोशिश तक नहीं की गई। करे भी क्यों। भारतीय जनता अमरीकी थोड़े ही है, आखिर उस की कीमत ही क्या है? दुर्घटना के बाद एंडरसन भारत आया पकड़ा गया, उसी दिन उस की जमानत भी हो गई और फिर ....... राज्य सरकार के विमान में मेहमान बन कर दिल्ली पहुँचा और वहाँ से अमरीका पहुँच गया। अमरीका ने उसे मुकदमे का सामना करने के लिए भारत भेजने से इनकार कर दिया। अमरीका इनकार क्यों न करे? आखिर एंडरसन का कसूर ही क्या था? 
मरीका की सरकार में इतनी ताकत थी कि उस ने एंडरसन से कारखाने की कमियों को दूर करवा लिया। लेकिन हमारे देश की सरकार और व्यवस्था में इतनी ताकत कहाँ कि वह एंडरसन से यह सब करा सकता। और करा लेता तो शायद 25000 जानें नहीं जातीं और हजारों आजीवन बीमारी से लड़ने को अभिशप्त न होते। यदि एंडरसन रत्ती भर भी जिम्मेदार है तो हमारी सरकारें सेर भर की दोषी हैं, भोपाल हादसे के लिए। 
आज कांग्रेस पर उंगलियाँ उठ रही हैं, उठनी भी चाहिए, वह इस के दोष से नहीं बच सकती। लेकिन उस के बाद की सरकारें और मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं है। दो बार से मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है। उस ने क्या किया इस मुकदमे में जल्दी निर्णय कराने के लिए? क्यों नहीं वह एक विशेष अदालत इस काम के लिए गठित कर सकती थी। उस ने क्या किया एंडरसन को भारत लाने के लिए। एंडरसन के लिए अदालत ने स्थाई वारंट जारी किया था। मध्यप्रदेश सरकार ने एंडरसन को ला कर अदालत के सामने पेश करने के क्या प्रयास किए? 
म यूँ लकीर पीटते रहे तो कभी जान नहीं सकते कि हमारे उन 25000  भाई-बहनों की मौत और हजारों को जीवन भर बीमार कर देने के लिए कौन जिम्मेदार था। हमें जान लेना चाहिए कि वास्तविक अपराधी कौन है। वास्तविक अपराधी हमारी यह व्यवस्था है जो जनता की सुरक्षा की परवाह नहीं करती। वह उन लोगों की  चिंता करती है जो पूंजी के सहारे जनता की बदहाली और जानों की कीमत पर मुनाफा कूटते हैं, वे चाहे देशी लोग हों या विदेशी। यह व्यवस्था उन की चाकर है। हमें वह व्यवस्था चाहिए जो जनता की परवाह करे, और इन मुनाफाखोरों और उस में अपना हिस्सा प्राप्त करने वाले लोगों पर नियंत्रित रखे।

गुरुवार, 10 जून 2010

श्रवण जी! अब क्या बचा है? भरोसा तो उठ चुका है

ज भास्कर में श्रवण गर्ग की विशेष टिप्पणी  "डर त्रासदी का नहीं भरोसा उठ जाने का है", मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुई है। आप इस टिप्पणी को उस के शीर्षक पर चटका लगा कर पूरा पढ़ सकते हैं। यहाँ उस का अंतिम चरण प्रस्तुत है--

हकीकत तो यह है कि अपनी हिफाजत को लेकर नागरिकों में उनके ही द्वारा चुनी जाने वाली सरकारों के प्रति भरोसा लगातार कम होता जा रहा है। पर इस त्रासदी का कोई इलाज भी नहीं है और उसकी किसी भी अदालत में सुनवाई भी नहीं हो सकती कि सरकारों को अपने प्रति कम होते जनता के यकीन को लेकर कौड़ी भर चिंता नहीं है। जनता पर राज करने वालों को पता है कि उन्हें न तो भगोड़ा करार दिया जा सकता है और न ही उनके खिलाफ कोई अपराध कायम किया जा सकता है। वारेन एंडरसन को भोपाल छोड़ने के लिए आखिरकार सरकारी विमान ही तो उपलब्ध कराया गया था। देश पूरी फिक्र के साथ किसी नई त्रासदी की प्रतीक्षा अवश्य कर सकता है।
मुझे लगता है कि श्रवण जी ने अपनी बात कहने में बहुत कंजूसी बरती है। क्या इतने सारे तथ्य जनता के सामने आ जाने पर भी भरोसा कायम रह सकता है?  जनता का भरोसा तो बहुत पहले ही उठ चुका है। वह जानती है कि सरकारें उन की रत्ती भर भी परवाह नहीं करती हैं। जब भी बड़े पूंजीपति या बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहीं उद्योग लगाती हैं तो वे केन्द्र और राज्य सरकारों से पहले अपनी शर्तें तय कर लेती हैं। सरकारें ये सब शर्तें इसलिए मानती हैं कि उन्हें चुनाव के पहले अपने इलाके के लोगों को एक तोहफा देना है। जिस से जनता में भ्रम रहे कि उद्योग लगेगा तो क्षेत्र की तरक्की होगी, लोगों को रोजगार मिलेंगे, उन पर आधारित धंधों में वृद्धि होगी। लेकिन वास्तविकता यह है कि सरकार तरक्की और रोजगार के आभासी पैकिंग में जनता को मौत और वर्षों की बीमारी बांट रही होती है। भोपाल हादसे के प्याज की जिस तरह परत दर परत खुलती जा रही है, देखने वालों की आँखें उसी तरह लाल होती जा रही हैं, कुछ अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्मों को देख कर और कुछ क्रोध से। बदबू फैल रही है, इतनी की नाक खुली रखना संभव नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस के सिवा दूसरे दलों के नेता खुश हैं कि हादसे के वक्त राज्य या केंद्र में उन की सरकार नहीं थी। वे इस की सारी जिम्मेदारी कांग्रेस के मत्थे मढ़ देना चाहते हैं। कुछ गली कूचे के राजनीति करने वाले विपक्षी यह भी कह रहे हैं कि, और दो कांग्रेस को वोट, देख लिया उस का नतीजा। पर क्या केवल कांग्रेस ही इस के लिए जिम्मेदार है। क्या विपक्षी दलों का यह दायित्व नहीं था क्या कि वे शासन में बैठी कांग्रेस पर ठीक से निगरानी रखते। एक जिम्मेदार विपक्ष के होते ऐसा कदापि नहीं हो सकता था कि एक हजारों जानों के लिए घातक कारखाना सुरक्षा इंतजामों की परवाह किए बिना एक प्रदेश के राजधानी क्षेत्र के मध्य चल रहा था। हो सकता हो कि विपक्षी राजनेता इस से अनभिज्ञ रहे हों। लेकिन जब उसी शहर का एक सजग पत्रकार राजकुमार केसरवानी चाहे छोटे अखबारों में ही सही कारखाने की सचाई उजागर कर रहा था तो विपक्ष चुप क्यों बैठा था? उस ने आवाज क्यों नहीं उठाई। विपक्ष में इतना दम था कि वह सरकार को मजबूर कर सकता था कि कारखाने को सुरक्षा इंतजामत कर लेने तक बंद कर दिया जाए। बाद में जनसत्ता जैसे राष्ट्रीय अखबार में भी वे रिपोर्टें छपीं लेकिन किसी पर उस का असर नहीं हुआ। वे रिपोर्टें तो केवल हादसे का इंतजार कर रही थीं। 
विपक्षी राजनैतिक दलों का यह चरित्र यूँ ही नहीं बन गया है। वास्तविकता यह है कि चाहे सरकार में बैठा दल हो या फिर विपक्ष में बैठे राजनेता। सभी जानते हैं कि सरकार तक पहुँचने के लिए यूनियन कार्बाइड के मालिकों जैसे उद्योगपति ही उन्हें सत्ता में पहुँचा सकते हैं। जनता के वोट का क्या उसे तो खरीदा जा सकता है जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता उन्हें बहकाया जा सकता है। यही हमारे लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। हम रोज देख रहे हैं कि नरेगा में पैसा आ रहा है। फर्जी मस्टररोलों के माध्यम से सरपंच उसे हड़प रहे हैं। पकड़े भी जा रहे हैं। उन में केवल सत्ताधारी दल के ही लोग नहीं हैं विपक्षी दलों के भी हैं और विपक्षी दलों के नेतृत्व उन्हें बचा रहे हैं। विपक्षी जानते हैं कि देश में निजि क्षेत्र के शायद ही किसी उद्योग में सुरक्षा इंतजामात पूरी तरह सही हैं। लेकिन किसी की सरकार हो उन के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करती। जब कारखाने के मजदूर या क्षेत्र की जनता आवाज उठाती है तो उन की आवाजों को दबा दिया जाता है। 1983 में छंटनी हुए कारखाना मजदूरों के मामलों में मजदूर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी लड़ाई लड़ कर जीत चुके हैं। अंतिम फैसला हुए आठ बरस हो चुके हैं। लेकिन उद्योगपति इस बीच अपना कारोबार समेट कर कंपनी को घाटे की दिखा कर उन के हक देने को मना कर रहे हैं और कंपनी के बची खुची संपत्ति को ठिकाने लगा कर उस से अपनी जेबें गरम करने में लगे हैं। इस की खबर विपक्षी को है। विपक्ष की सरकार रही है बीच में पाँच साल पर उस ने इन मजदूरों के लिए कुछ नहीं किया। अब वह विपक्ष में है तो आवाज उठा रही है। जो आज सरकार में हैं वे पहले विपक्ष में थे तो वे आवाज उठा रहे थे। ये सरकार भोग रहे थे।  
तने पर भी जनता भरोसा करे तो किस पर करे? कोई तो दूध का धुला नहीं दिखाई देता है। वह असमंजस में है उस व्यक्ति की तरह जो किसी के भरोसे परदेस में आ गया है और वही उसे छोड़ कर गायब हो गया है। श्रवण जी!  भरोसा तो उठ चुका है, और किसी एक सरकार या राजनैतिक दल पर से नहीं। अब समूची व्यवस्था पर से भरोसा उठ रहा है। आप को दिखाई नहीं देता, तो देख लें किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं, आदिवासी  नक्सलियों के साथ हथियार बंद हो, एक दल को नहीं समूचे मौजूदा भारतीय राज्य को चुनौती दे रहे हैं। यह भरोसे का उठ जाना नहीं तो क्या है?
वाल उठता है कि जब राजनीति में कीचड़ के सिवा कुछ न बचे तो कपड़े कैसे बचाएँ जाएँ, दलदल से कैसे बचा जाए?  मौजूदा राजनीति से कुछ निकलेगा यह संभव भी नहीं लगता। हमें राजनीति को परखते परखते साठ बरस होने को आए। हर बार भरोसा किया जाता है और हर बार भरोसा टूटता है। अब तो जनता के पास सिर्फ और सिर्फ अपना भरोसा शेष रहा है, उसे ही अपने भरोसे कुछ करना होगा। व्यवसायों के स्थान पर और मुहल्ला मुहल्ला अपने जनतांत्रिक संगठन खड़े करने होंगे। दगाबाज नेताओं को ठुकरा कर अपने नेता खुद खड़े करने होंगे। मौजूदा व्यवस्था से एक लंबी लड़ाई की शुरूआत करनी होगी। जनतांत्रिक संगठनों की लड़ाई ही इस कीचड़ में से हीरे निकाल कर वापस ला सकती है।
2. ब्लागवाणी पंसद लगाया या न लगाया?