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रविवार, 16 जुलाई 2017

हिन्दी ब्लाग की उपलब्धि तीसरा खंबा को 5 वर्ष 6 माह 15 दिन में मिले 15 लाख विजिटर्स

हिन्दी ब्लागों को पढ़ते और टिपियाते हुए सुझाव आया कि मुझे भी ब्लाग लिखना चाहिए। 28 अक्टूबर 2007 को मेरा जो पहला ब्लाग सामने आया वह "तीसरा खंबा" था।


"तीसरा खंबा" के माध्यम से विधि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का मन था। कुछ किया भी, लेकिन टिप्पणियों में यह फरमाइश होने लगी कि मैं लोगों को उन की समस्याओं के लिए कानूनी उपाय भी बताऊँ। मैं ने वह आरंभ किया तो। तीसरा खंबा पर समस्याएँ आने लगीं। तो मैं ने कम से कम एक समस्या का समाधान या उपाय हर रोज लिखना शुरू किया।  तो "तीसरा खंबा" नियमित ब्लाग हो गया।


उन्हीं दिनों बीएस पाबला जी ने "अदालत" ब्लाग शुरू किया था जिस में वे विधि से संबंधित समाचारों को लिखा करते थे। उन से संपर्क हुआ तो पक्की दोस्ती में बदल गया। 2011 की एक रात पाबला जी से फोन पर बात हो रही थी। उन का सुझाव था कि अपना डोमेन ले लिया  जाए। मैं ने कहा ले लो। पाबला जी से बात पूरी हुई थी कि 10 मिनट बाद फोन की घंटी बजी। पाबला जी थे बता रहे थे कि "तीसरा खंबा" के लिए  http://teesarakhamba.com/  डोमेन मिल गया है। अब उन का कहना था कि ब्लागर के स्थान पर वर्डप्रेस पर जा कर इसे एक वेबसाइट का  रूप दे दिया जाए। वह भी पूरा किया पाबला जी ने ही। आखिर वेबसाइट शुरू हो गयी। हम ने 1 जनवरी 2012 से उस का शुभारंभ मान कर उस की स्टेटिस्टिक्स शुरू की।

एक जनवरी 2012 से कल 15 जुलाई 2017 तक "तीसरा खंबा" ने 15 लाख विजिटर हासिल कर लिए हैं। बीते कल इस पर 4328 विजिटर थे। हिन्दी ब्लाग जगत के लिए इसे एक उपलब्धि तो कहा ही जा सकता है।  

शनिवार, 1 जुलाई 2017

संसद में घण्टा बजने वाला है

1 जुलाई का दिन बहुत महत्वपूर्ण होता है। खास तौर पर हमारे भारत देश में इस का बड़ा महत्व है। यदि केलेंडर में यह व्यवस्था हो कि आजादी के बाद के 70 सालों में किसी तारीख में पैदा हुए लोगों की संख्या उस तारीख के खांचे में लिखी मिल जाए तो 1 जुलाई की तारीख का महत्व तुरन्त स्थापित हो जाएगा। कैलेंडर की 366 तारीखों में सब से अधिक लोगों को जन्म देने वाला दिन 1 जुलाई ही नजर आएगा। उधर फेसबुक पर हर दिन दिखाया जाता है कि उस दिन किस किस का जन्मदिन है। फेसबुक शुरू होने से ले कर आज तक जन्मदिन सूची एक जुलाई को ही सब से लंबी होती है।
 
जब से मुझे पता लगा कि भारत में सब से अधिक लोग 1 जुलाई को ही पैदा होते हैं तो मेरे मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि आखिर ऐसा क्यों होता है? आखिर ये एक अदद तारीख का चमत्कार तो नहीं हो सकता। उस के पीछे कोई न कोई राज जरूर होना चाहिए। वैसे भी यदि ये तारीख का ही चमत्कार होता तो इमर्जेंसी में संजयगांधी जरूर इस तारीख को कैलेंडर से निकलवा देते। केवल इस तारीख को निकाल देने भर से जनसंख्या वृद्धि में गिरावट दर्ज की जा सकती थी। पूरे आपातकाल में ऐसा न हुआ, यहाँ तक कि ऐसा कोई प्रस्ताव भी सामने नहीं आया। मुझे तभी से यह विश्वास हो चला था कि यह तारीख का चमत्कार नहीं है बल्कि इस के पीछ कोई और ही राज छुपा है।

जिस साल इमर्जेंसी लगी उसी साल मेरी शादी हुई थी। शादी के डेढ़ माह बाद ही 1 जुलाई का दिन पड़ा। इस दिन पता लगा कि मेरे ससुर साहब भी 1 जुलाई को ही पैदा हुए थे। इस जानकारी के बाद मैं अपनी तलाश में लग गया कि आखिर इस के पीछे क्या राज है? मैं ने सोचा कि मुझे यह जानकारी हासिल करनी चाहिए कि देश में जन्मतिथि का रिकार्ड रखने का तरीका क्या है? इस कोशिश से पता लगा कि देश में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिस से लोगों के जन्म का रिकार्ड रखा जाता हो। आम तौर पर हर चीज के लिए मेट्रिक परीक्षा की अंक तालिका को ही जन्म तिथि का आधार मान लिया जाता है। मेट्रिक की अंकतालिका में वही जन्मतिथि अंकित होती थी जो किसी बच्चे को स्कूल में भर्ती कराते समय अंकित कराई जाती थी या फिर कर दी जाती थी।

जब स्कूल के रिकार्ड पर ही अपने इस महत्वपूर्ण शोध का परिणाम निकलने वाला था तो इस के लिए अध्यापकों से पूछताछ करना जरूरी हो गया। लेकिन मेरे लिए यह मुश्किल काम नहीं था। खुद अपने घर में चार पांच लोग अध्यापक थे। पिताजी भी उन में एक थे। मैं ने पिताजी से ही पूछा कि आखिर ऐसा क्यों है कि हमारे यहाँ सब से ज्यादा लोग 1 जुलाई को पैदा होते हैं? मेरे इस सवाल पर पिताजी ने अपने चिर परिचित अंदाज में जोर का ठहाका लगाया। उस ठहाके को सुन मैं बहुत अचरज में आ गया और सोचने लगा कि आखिर मैं जिस शोध में पूरी गंभीरता से जुटा हूँ उस में ऐसा ठहाका लगाने लायक क्या था? खैर¡
जैसे ही पिताजी के ठहाके की धुन्ध छँटी, पिताजी ने बोलना आरंभ किया। 1 जुलाई के दिन में ऐसी कोई खास बात नहीं है जिस से उस दिन ज्यादा बच्चे पैदा हों। वास्तव में इस दिन जबरन बहुत सारे बच्चे पैदा किए जाते हैं, और ये सब हमारे विद्यालयों में पैदा होते हैं।

मैं पूरे आश्चर्य से पिताजी को सुन रहा था। वे कह रहे थे। उस दिन लोग स्कूल में बच्चों को भर्ती कराने ले कर आते हैं। हम उन से जन्म तारीख पूछते हैं तो उन्हें याद नहीं होती। जब उम्र पूछते हैं तो वे बता देते हैं कि बच्चा पांच बरस का है या छह बरस का। अब यदि 1 जुलाई को बच्चे की उम्र पूरे वर्ष में कोई बताएगा तो उस साल में से उम्र के वर्ष निकालने के बाद जो साल आता है उसी साल की 1 जुलाई को बच्चे की जन्मतिथि लिख देते हैं। इस तरह हर एक जुलाई को बहुत सारे लोग अपना जन्मदिन मनाते दिखाई देते हैं।

जब ब्लागिंग का बड़ा जोर था तब वहाँ ताऊ बड़े सक्रिय ब्लागर थे। वे रोज ही कोई न कोई खुराफात ले कर आते थे। फिर अचानक ताऊ गायब हो गए। जब से वे गायब हुए ब्लागिंग को खास तौर पर हिन्दी ब्लागिंग को बहुत बड़ा झटका लगा। उस में गिरावट दर्ज की जाने लगी और वह लगातार नीचे जाने लगी। बहुत से ब्लागर इस से परेशान हुए और फेसबुक जोईन कर ली। धीरे धीरे ब्लागिंग गौण हो गयी और लोग फेसबुक पर ही एक दिन में कई कई पोस्टें करने लगे।

पिछले दिनों ताऊ का फेसबुक पर पुनर्जन्म हो गया। तब से मुझे लगने लगा था कि ताऊ जल्दी ही कोई ऐसी खुराफात करने वाला है। अचानक कुछ दिन पहले ताऊ ने अचानक ब्लाग जगत का घंटा फिर से बजा दिया। ऐलान किया कि अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस मनया जाना चाहिए। हम ने ताऊ के कान में जा कर पूछा –मनाएँ तो सही पर किस दिन? ताऊ ने बताया कि 1 जुलाई पास ही है और वह तो भारत में ऐसा दिन है जिस दिन सब से ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। यह सुनते ही मैं ने भी अपने पिताजी की स्टाइल में इतने जोर का ठहाका लगाया कि ताऊ तक को चक्कर आ गया।

लेकिन ताऊ ही अकेला ताऊ थोड़े ही है। हिन्दुस्तान में जिधर देखो उधर ताऊ ही ताऊ भरे पड़े हैं। अब इन दिनों देश में मोदी जी सब से बड्डे ताऊ हैं। उन के मंत्रीमंडल का वित्तमंत्री जेटली उन से भी बड़ा ताऊ है। उस ने भी जीएसटी लागू करने की तारीख 1 जुलाई तय कर दी। बहुत लोगों ने कहा जनाब अभी तो पूरी तैयारी नहीं है ऐसे तो लाखों लोग संकट में पड़ जाएंगे। पर जेटली बड़ा ताऊ आदमी है। उस ने किस की सुननी थी? वो बोला लोग संकट में पड़ें तो पड़ें पर जीएसटी तो 1 जुलाई को ही लागू होगा। जो भी परेशानियाँ और संकट होंगे उन्हें बाद में हल कर लिया जाएगा। नोटबंदी में भी बहुत परेशानियाँ और संकट थे। पर सब हुए कि नहीं अपने आप हल? अब इस बात का कोई क्या जवाब देता? सब ने मान लिया की ताऊ जो तू बोले वही सही। जेटली ताऊ ये देख कर भौत खुस हो गया। उस ने आधी रात को संसद में जश्न मनाने का प्रस्ताव रखा जिसे मोदी ताऊ ने तुरन्त मान लिया। उस प्लान में ये और जोड़ दिया कि ठीक रात के बारह बजे घण्टा भी बजाया जाएगा।


अब आज की ब्लागिंग को यहीं विराम दिया जाए। टैम हो चला है, जेटली ताऊ संसद में मोदी ताऊ का घंटा बजाने वाला है। 

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ओलों से सर की बचत के लिए हम बालों के मोहताज नहीं

कोई सर मुड़ा कर नाई की दुकान से निकला ही हो और आसमान से ओले गिरने लगे हों ऐसा छप्पन साल की जिन्दगी में न  तो सुना और न ही अखबार में पढ़ा। इस से पहले किसी किताब में भी इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं देखा। लेकिन चूँकि मुहावरा है और चल निकला है तो चल निकला है। वैसे मेरे जैसे लोगों के लिए इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं है जिन के सर पर या तो बाल पूरी तरह भूतकाल की वस्तु हो कर रह गए हैं या फिर किनारों पर सिमट कर रह गए हैं। हमारे लिए तो ओले कभी भी पड़ें क्या फर्क पड़ता है? हम जानते हैं कि ओले पड़ने पर क्या करना है। शायद यही कारण है कि अब तक अनेक बार ओले पड़ते देखे हैं पर सिर को कभी नुकसान नहीं पहुँचा। लेकिन इस बार ओले काम कर गए हम तो हम, उस्ताद भी देखते रह गए।

हुआ यूँ कि तीन-चार बरस पहले हम ने वेब साइटस् चलाने वाले मित्र से वैसे ही शौकिया तौर पर पूछा था कि क्या तीसरा खंबा डाट कॉम डोमेन मिल सकता है? उन्हों ने मात्र बीस मिनट बाद ही बताया कि हमारे नाम से यह डोमेन ले लिया गया है। अब आगे की कोई गणित तो हमें आती नहीं थी। सो वह डोमेन पड़ा ही रहा। हम ब्लागस्पाट की सेवाओं का आनन्द लेते रहे। इस साल हमने ठान ही लिया कि अपने ब्लाग तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर ले जा कर वेबसाइट बना डालेंगे। फिर मित्र की और हमारी कवायद चली आखिर तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर स्थानान्तरित करने में कामयाबी मिल गई। हम ने भी जोर शोर से अपने ब्लागस्पॉट के ब्लाग तीसरा खंबा पर अपने ब्लाग की अंतिम पोस्ट की घोषणा कर दी और नए वर्ष की पहली तारीख 1 जनवरी 2012 को तीसरा खंबा अपने डोमेन की वेबसाइट में परिवर्तित हो गया। 


म अपना सिर मुंड़वा कर प्रसन्न थे। खूब जोर शोर से साइट आरंभ हो गई। पाठकों में भी निरंतर वृद्धि होती रही। बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलीं। दो माह कैसे गुजरे, पता भी नहीं लगा। मार्च का आरंभ हुआ तो पता लगा रास्ते इतने आसान नहीं हैं। हम पर कभी रूमानियत सवार थी तो सोचते थे कहीं जाएँ न जाएँ एक बार सोवियत संघ के रूस जरूर हो कर आएंगे। वह मेरे अनेक प्रिय लेखकों टाल्सटॉय, चेखव, गोगोल, गोर्की, मायकोवस्की आदि का देश था। गंगा तो देखी थी पर वोल्गा और देखना चाहते थे। मास्को का वह विश्वविद्यालय देखना चाहते थे जहाँ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अध्यापन किया, विवाह किया और एक संतान भी उन्हें हुई। लेकिन रूमानियत में या तो आदमी रांझा, मजनूँ, भगत सिंह हो कर शहीद हो सकता है या फिर उस की  रूमानियत यथार्थ की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हम रूमानियत से निकल कर अपने वतन के यथार्थ में उलझे रह गए। सोवियत संघ अपनी गलतियों का शिकार हो कर टूट गया। इस से यह सिद्ध हुआ कि काबुल भले ही घोडों के लिए प्रसिद्ध रहा हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ गधे नहीं होते। 

तो, फरवरी निकलते ही पता लगा कि केश-विहीन सिर पर  कठोर-कठोर शीतल-शीतल कंकड़ पड़ने लगे हैं। आसमान पर देखा तो वहाँ कोई बादल तक न था, सूरज तेज चमक रहा था। आखिर यह ओले आए कहाँ से। तीसरा खंबा न पाठकों से खुल रहा था और न ही हम से उस का एडमिन खुल रहा था। जब भी खोलना चाहते ब्राउजर किसी रूसी वेबसाइट के पते पर पहुँचा देता, तो कभी ब्राउजर रिपोर्टेड अटैक साइट का बोर्ड चिपका जाता। हम ने अपने वेब एडमिनिस्ट्रेटर को बताया तो पता लगा हमला हम पर ही नहीं हुआ है नासा पर भी हो रहा है। बताया कि वे हमले को विफल करने की तैयारी कर रहे हैं, बस कुछ समय लग सकता है। हम ने संतोष की साँस ली। हम ने सोचा चलो एक दो दिन इस काम से फुरसत मिली। 
दूसरे दिन तीसरा खंबा खुलने लगा। हम फिर प्रसन्न हो गए कि हमला विफल हो गया है। लेकिन तीसरे दिन फिर तीसरा खंबा रूस जाने लगा। अब तो धूप छाहँ का सिलसिला आरंभ हो गया। एक दिन हमला विफल होता। हम चैन की साँस लेते। तीसरा खंबा पर कोई न कोई माल अपलोड कर देते। लेकिन दूसरे दिन ही फिर वही हाल वेब साइट अपहृत पाई जाती। बताया गया कि जिस सर्वर से हमारी वेबसाइट संचालित हो रही है उस के सभी किराएदारों को यही परेशानी है। छत का एक छेद बंद किया जाता है। दूसरे दिन छत दूसरी जगह से टपकनी शुरू हो जाती है। वह मार्च का आरंभ था अब मार्च का अंत भी आ रहा है लेकिन छत है कि टपकना बंद ही नहीं हो रही है। हम ने शिकायत की तो पता लगा, घर बदलने की व्यवस्था की जा रही है। सप्ताह भर में घऱ बदल दिया जाएगा। हम ने भी सप्ताह भर चैन से बैठने की ठान ली है। देखते हैं, सप्ताह भर में क्या होता है? तीसरा खंबा की रूस यात्रा बंद होती है या नहीं?  होती है तो ठीक वर्ना, वर्ना क्या? जो हम से बन पड़ेगी करेंगे। पर तीसरा खंबा को रूस न जाने देंगे। मजबूत सी टोपी लाएंगे, सर पर पहनेंगे, पर ओलों को सर पर तबला न बजाने देंगे।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

ब्लाग पर फिर से वापस ..

प्ताह के अंतिम दिन अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ बाजार जाना पड़ा। वहाँ के काम निपटाते निपटाते ध्यान आया कि अदालत में कुछ काम हैं जो आज ही करने थे। मैं शोभा को घर छोड़ अदालत पहुँचा। काम मामूली थे आधे घंटे में हो लिए। तब ध्यान गया कि आज मौसम कुछ बदला बदला है। हवा झोंकों में चल रही थी और रह रह कर उन के साथ ही टीन की छतों पर गिरे पतझर के पत्ते धूल मिट्टी लिए नीचे गिर रहे थे। हवा में न गर्मी थी और न ही चुभोने वाली शीतलता, बस सुहानी लग रही थी। अब लगा कि वसंत ने न केवल आंगन में आ जमा है अपितु नृत्य भी कर रहा है।  फिर फागुन याद आया, उसे आने में भी बस तीन दिन शेष हैं। मुझे यह भी ध्यान आया कि यही फरवरी-मार्च के माह चिकित्सकों के लिए कमाई के माह कहे जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे सब सावधानियाँ स्मरण करता रहा जो इस मौसम में बरतने को बुजुर्ग कहा करते थे। अदालत में काम शेष न रहा तो आलस सा आने लगा, कुछ उबासियाँ भी आईं। मैं ने विचारा कि अब वापस घर के लिए प्रस्थान करना चाहिए। तभी मुझे अपना कनिष्ठ पुष्पेंद्र मिल गया। वह भी घर लौटने को था। हम दोनों अदालत से बाहर निकल अपने अपने वाहनों की ओर जा ही रहे थे कि वहाँ हमें एक पुस्तक प्रदर्शनी वाहन दिखाई दिया। पुष्पेंद्र ने सुझाव दिया कि कुछ पुस्तकें देखी जाएँ।
म दोनों वाहन में घुसे। यह नेशनल बुक ट्रस्ट का वाहन था। पुष्पेंद्र ने पूरे वाहन में चक्कर लगाया। वह कोई पुस्तक चुन नहीं पा रहा था। मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जिस में आजादी की लड़ाई के मुकदमों का उल्लेख था। उस ने उसे ही चुन लिया फिर एक और पुस्तक चुनी और वह वाहन से नीचे उतर गया। कुछ पसंदीदा पुस्तकें मुझे दिखाई दीं, लेकिन वे मेरे पास पहले ही थीं। आखिर मैं ने कुल चार पुस्तकें चुनीं। विपिन चंद्रा की 'साम्प्रदायिकता' एक प्रवेशिका', 'अलबरूनी-भारत', 'बर्नियर की भारत यात्रा' और 'चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण'। पुस्तकों के दाम चुका कर वाहन से नीचे उतरा तो पुष्पेंद्र गायब था। आखिर मैं भी अपने वाहन से घर चला आया। रास्ते भर सोच रहा था कि इन चार पुस्तकों की खरीद की सूचना को यहाँ अपने ब्लाग पर छोड़ कर मैं अपने ब्लाग लेखन में आए विराम को तोड़ सकता हूँ।
पिछले अगस्त से ही अनवरत पर ब्लाग लेखन कुछ धीमा हुआ था। इस का कारण मेरी अतिव्यस्तता रही। लेकिन दिसंबर आते आते तो उस पर विराम ही लग गया जब मुझे अचानक 'हर्पीज जोस्टर' का सामना करना पड़ा। बीमारी का यह सिलसिला ऐसा चला कि अभी तक न रुक सका है। तीन सप्ताह हर्पीज का सामना किया। बाद में तेज जुकाम सर्दी हुई, फिर दाँत का दर्द और अब कोई बीस दिनों पहले अचानक अपनी ही गलती से बाएँ पैर के घुटने के पास स्थित मीडियल कोलेट्रल लिगामेंट चोटिल हो गया। यह एक गंभीर चोट है। मुख्य चिकित्सा कम से कम एक माह का पूर्ण विश्राम। पर एक सामान्य भारतीय के लिए यह कहाँ संभव है. फिर वकील के लिए तो बिलकुल संभव नहीं। वह इतना विश्राम करे तो वह तो शायद जीवित बच जाए, लेकिन उस के मुवक्किलों के तो प्राण ही निकल जाएँ। तो बंदा भी नित्य ही अपने घुटने पर मल्हम और आयोडेक्स लगा, पट्टी बांध, ऊपर एक नी-गार्ड चढ़ा कर, कम से कम एक गोली दर्द निवारक पेट के हवाले कर अदालत जा रहा है। वापस लौटने पर कम से कम एक डेढ़ घंटा बिस्तर पर बिताने के बाद ही इस हालत में आता है कि वह कुछ और काम कर सके। फिर भी इतना तो कर ही सकता है कि कुछ पढ़ लिख सके और ब्लाग पर आप से बतिया सके। तो आज से तय कर लिया है कि नित्य नहीं तो दो दिन में कम से कम एक दिन तो ब्लाग पर बातचीत होगी ही।

रविवार, 10 जुलाई 2011

एक नया कविता ब्लाग "अमलतास"

'अमलतास' हिन्दी का एक नया कविता ब्लाग है। जिस में आप को हर सप्ताह मिलेंगी हिन्दी के ख्यात गीतकार कवि 'कुमार शिव' के गीत, कविताएँ और ग़ज़लें।
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिन्दी के गीतकार-कवियों के बीच 'कुमार शिव' का नाम उभरा और तेजी से लोकप्रिय होता चला गया। एक लंबा, भारी बदन, गौरवर्ण नौजवान कविसम्मेलन के मंच पर उभरता और बिना किसी भूमिका के सस्वर अपना गीत पढ़ने लगता। गीत समाप्त होने पर वह जैसे ही वापस जाने लगता श्रोताओं के बीच से आवाज उठती 'एक और ... एक और'। अगले और उस से अगले गीत के बाद भी श्रोता यही आवाज लगाते। संचालक को आश्वासन देना पड़ता कि वे अगले दौर में जी भर कर सुनाएंगे।
ये 'कुमार शिव' थे। उन का जन्म 11 अक्टूबर 1946 को कोटा में हुआ।  राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में चम्बल के किनारे बसे इस नगर में ही उन की शिक्षा हुई और वहीं उन्हों ने वकालत का आरंभ किया। उन्हों ने राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बैंच और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत की। अप्रेल 1996 से अक्टूबर 2008 तक राजस्थान उच्चन्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए 50,000 से अधिक निर्णय किए, जिन में 10 हजार से अधिक निर्णय हिन्दी में हैं। वर्तमान में वे भारत के विधि आयोग के सदस्य हैं। साहित्य सृजन किशोरवय से ही उन के जीवन का एक हिस्सा रहा है। 
1995 से वे कवि कविसम्मेलनों के मंचों से गायब हुए तो आज तक वापस नहीं लौटे। तब वह उच्च न्यायालय में मुकदमों के निर्णय करने में व्यस्त थे। उन का लेखनकर्म लगातार जारी रहा। केवल कुछ पत्र पत्रिकाओं में उन के गीत कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।  एक न्यायाधीश की समाज के सामने खुलने की सीमाएँ उन्हें बांधती रहीं। 'अमलतास' अब 'कुमार शिव' की रचनात्मकता को पाठकों के रूबरू ले कर आया है।
कुमार शिव का सब से लोकप्रिय गीत 'अमलतास' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। ब्लाग पर यह गीत पहली पोस्ट के रूप में उपलब्ध है। मिसफिट पर अर्चना चावजी के स्वर में इस गीत का पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है।  ने इस गीताआप इस मीठे गीत को पढ़ेंगे, सुनेंगे और खुद गुनगुनाएंगे तो आप के लिए यह समझना कठिन नहीं होगा कि इस ब्लाग को 'अमलतास' नाम क्यों मिला।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
तो पढ़िए.....
'थिरक उठेगी धरती'
Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

बुधवार, 19 जनवरी 2011

भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा

गालियाँ दी जाती रही हैं, और दी जाती रहेंगी और चर्चा का विषय भी बनती रहेंगी। गालियाँ क्यों दी जाती हैं? इस पर खूब बातें हो चुकी हैं, लेकिन कभी कोई कायदे का शोध इस पर नहीं हुआ। शायद विश्वविद्यालयी छात्र का इस ओर ध्यान नहीं गया हो, ध्यान गया भी हो तो विश्वविद्यालय के किसी गाइड ने इस विषय पर शोध कराना और गाइड बनना पसंद नहीं किया  हो, और कोई गाइड बनने के लिए तैयार भी हो गया हो तो विश्वविद्यालय समिति ने इस विषय पर शोध को मंजूरी ही न दी हो। विश्वविद्यालय के बाहर भी किसी विद्वान ने इस विषय पर शोध करने में कोई रुचि नहीं दिखाई है, अन्यथा कोई न कोई प्रामाणिक ग्रंथ इस विषय पर उपलब्ध होता और लिखने वालों को उस का हवाला देने की सुविधा मिलती। मुझे उन लोगों पर दया आती है जो इस विषय पर लिखने की जहमत उठाते हैं, बेचारों को कोई संदर्भ ही नहीं मिलता। 
ब्लाग जगत की उम्र अधिक नहीं, हिन्दी ब्लाग जगत की तो उस से भी कम है। लेकिन हमें इस पर गर्व होना चाहिए कि हम इस विषय पर हर साल एक-दो बार चर्चा अवश्य करते हैं। इस लिए यहाँ से संदर्भ उठाना आसान होता है। मुश्किल यह है कि हर चर्चा के अंत में गाली-गलौच को हर क्षेत्र में बुरा साबित कर दिया जाता है और चर्चा का अंत हो जाता है।  ब्लाग पर लिखे गए शब्द और वाक्य भले ही अभिलेख बन जाते हों पर हमारी स्मृति है कि धोखा दे ही जाती है। साल निकलते निकलते हम इस मुद्दे पर फिर से बात कर लेते हैं।  कुछ ब्लाग का कुछ हिन्दी फिल्मों का असर है कि मृणाल पाण्डे जैसी शीर्षस्थ लेखिकाओं को भास्कर जैसे 'सब से  आगे रहने वाले' अखबार के लिए आलेख लिखने का अवसर प्राप्त होता है। वे कह देती हैं, "नए यानी साइबर मीडिया में तो ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" वे आगे फिर से कहती हैं, "पर मुंबइया फिल्मों तथा नेट ने एक नई हिंदी की रचना के लिए हिंदी पट्टी के आधी-अधूरी भाषाई समझ वालों को मानो एक विशाल श्यामपट्ट थमा दिया है।"
न्हें शायद पता नहीं कि यह हिन्दी ब्लाग जगत इतना संवेदनहीन भी नहीं है कि गालियों पर प्रतिक्रिया ही न करे, यहाँ तो गाली के हर प्रयोग पर आपत्ति मिल जाएगी। प्रिंट मीडिया में उन की जो स्थिति है, वे ब्लाग जगत में विचरण क्यों करने लगीं? वैसे भी अब प्रिंट मीडिया इतनी साख तो है ही कि वहाँ सुनी सुनाई बातें भी अधिकारिक ढंग से कही जा सकती हैं। फिर स्थापित लेखक लिखें तो कम से कम वे लोग तो विश्वास कर ही सकते हैं जो हिन्दी ब्लाग जगत से अनभिज्ञ हैं, यथा लेखक तथा पाठक। ब्लाग जगत का यह अदना सा सदस्य इस विषय पर शायद यह पोस्ट लिखने की जहमत न उठाता, यदि क्वचिदन्यतोअपि पर डा. अरविंद मिश्रा ने उस का उल्लेख न कर दिया होता।
न के इस कथन के पीछे क्या मन्तव्य है? यह तो  मैं नहीं जानता। पर कहीं यह अहसास अवश्य हो रहा है कि प्रिंट मीडिया में लिखने वालों को ब्लाग जगत के लेखन से कुछ न कुछ खतरे का आभास अवश्य होता होगा। कुछ तो सिहरन होती ही होगी। जब किसी को भय का आभास होता है तो प्राथमिक प्रतिक्रिया यही होती है कि वह उसे झुठलाने का प्रयास करता है। भय के आभास को मिथ्या ठहराने के प्रयास में वह भय के कारण को ही तुच्छ समझने की चेष्टा करता है। कहीं यही कारण तो नहीं था मृणाल जी के उस वक्तव्य के पीछे जिस में वे कहती हैं कि "ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का जितने बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है, उससे लगता है कि गाली दिए बिना न तो विद्रोह को सार्थक स्वर दिया जा सकता है, न ही प्रेम को।" यदि उन का मंतव्य यही था तो फिर उन का यह वक्तव्य निन्दा के योग्य है। वह ब्लाग जगत के बारे में उन के मिथ्या ज्ञान को ही अभिव्यक्त करता है।

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

वर्तमान में श्रेष्ठ हिन्दी ब्लाग संकलक 'हमारी वाणी'

जून 18, 2010 को ब्लागवाणी अचानक तंद्रा में चली गई। बहुत हंगामा हुआ, लोगों ने तरह-तरह के सुझाव दिए कि किसी भी तरह ब्लागवाणी की तंद्रा टूटे और वह वापस सजग हो मैदान में आ जाए। लेकिन छह माह से अधिक समय हो चुका है,  अभी तक ब्लागवाणी तंद्रा में है। फिर दिसम्बर 2010 के अंत तक चिट्ठाजगत ने बिना कुछ कहे विदाई ले ली। इस बार बहुत हो हल्ला नहीं हुआ। लेकिन अचानक दो सब से महत्वपूर्ण संकलकों की अनुपस्थिति इन दिनों ब्लागर बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहे हैं। प्रतिदिन ही कहीं न कहीं यह बात सामने आती है कि एक अच्छा संकलक होना चाहिए। हालाँकि ब्लागवाणी अभी जहाँ रुकी थी वहाँ अभी भी नजर आती है और इस पर सदस्य लोगिन भी हो रहा है। कभी भी इस की तंद्रा टूट सकती है।

संकलक की इस कमी को पूरा करने के लिए पहले तो हिन्दी ब्लाग जगत सामने आया। यह ब्लागस्पॉट की कुछ सुविधाओं का उपयोग कर बनाया गया एक संकलक जैसा ब्लाग है। इस के कुछ दिन बाद ही जर्मनी के लोकप्रिय ब्लागर राज भाटिया जी ब्लाग परिवार नाम से हिन्दी ब्लाग जगत जैसा ही एक ब्लाग ले कर सामने आए। अब राज भाटिया जी चाहते हैं कि वे एक एग्रीगेटर बनाना चाहते हैं, लेकिन उन के पास तकनीकी जानकारी की कमी है। उन्हें कोई तकनीकी सहयोग करे तो वे एक ऐसा संकलक लाना चाहते हैं जिस का अपना खुद का डोमेन हो, जिस के बारे में उन का आश्वासन है कि वह उन के जीतेजी बन्द नहीं होगा। राज जी बहुत बड़ा काम हाथ में ले रहे हैं। मैं विश्वास करता हूँ कि वे इस काम को करने में सफल हो सकेंगे और हिन्दी ब्लाग जगत को एक अच्छा संकलक मिल जाएगा।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि एक अच्छा संकलक मौजूद ही न हो। ब्लागवाणी बन्द होने के उपरांत कुछ हिन्दी ब्लागरों के प्रयास से ही हमारी-वाणी आरंभ हुआ और वह बहुत अच्छे तरीके से काम करते हुए अधिकांश उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहा है जिन की पूर्ति ये दोनों महत्वपूर्ण संकलक कर रहे थे। यह संकलक इस के विकास के लिए लगातार सुझाव भी आमंत्रित कर रहा है। यदि किसी ब्लॉगर को कोई कमी इस में दिखाई देती है तो वह सुझाव दे सकता है। इन सुझावों के आधार पर इस का विकास होता रहे तो हमारी-वाणी एक संपूर्ण हिन्दी/भारतीय संकलक का स्थान ले सकता है। अभी इस संकलक के लिंक 'ताजा ताजा ' ताजा पोस्टें विवरण सहित देखी जा सकती हैं। यदि कोई विवरण न देख कर ब्लागपोस्ट का शीर्षक ही देखना चाहे तो  'ताजा 100 ' लिंक पर जा कर देख सकता है। इस के अतिरिक्त ब्लागर 'मेरा पन्ना' लिंक पर जा कर स्वयं की प्रोफाइल देख सकता है तथा 'हमारे साथी' पर जा कर इस संकलक पर सदस्य ब्लागीरों की सूची देख सकता है। इस के अतिरिक्त इस संकलक पर अधिक 'पसंद' और ज्यादा पढ़े गए ब्लागों की सूची भी क्रमवार उपलब्ध है। एक विशेषता यह भी है कि यदि कोई ब्लागपोस्ट किसी समाचार पत्र में स्थान पाती है तो उसे अलग से दिखाया गया है, जैसे दैनिक जागरण में आज ही छपी तीसरा खंबा की पोस्ट के बारे में यहाँ सूचित किया  गया है और लिंक को क्लिक करने पर 'ब्लाग इन मीडिया' की लिंक खुलती है। यही नहीं यहाँ नये जुड़े ब्लागों को अलग  से सूची भी उपलब्ध है। इस तरह यह संकलक ब्लागीरों की अधिकांश आवश्यकताओं की पूर्ती करता है।
र्तमान में यदि कोई कमी दिखाई देती है तो वह यह है कि इस संकलक पर कुल 892 ब्लाग के ही लिंक उपलब्ध हैं, अर्थात इन्हीं ब्लागों की पोस्टों की सूचनाएँ इस संकलक पर उपलब्ध हो पाती हैं। जब कि हिन्दी ब्लागों की संख्या इस से लगभग 12 गुना अधिक तक जा चुकी है। इस कमी को भी पूरा किया जा सकता है। इस के दो तरीके हैं, पहला तो यह कि स्वयं संकलक संचालक शेष हिन्दी ब्लागों को इस से जोड़ दें, दूसरा यह कि स्वयं ब्लाग संचालक अपने ब्लाग को इस संकलक पर पंजीकृत कराएँ। दूसरा मार्ग अधिक उचित प्रतीत होता है कि जो भी ब्लागीर अपने ब्लाग को इस संकलक पर दिखाना चाहता है,  पहले स्वयं सदस्य बने और फिर ब्लाग को पंजीकृत कराए। 
मेरी दृष्टि में 'हमारी वाणी' एक अच्छे संकलक की लगभग सभी जरूरतें पूरी करता है और हिन्दी ब्लागों के लिए बहुपयोगी संकलक है। जिन ब्लागीर साथियों ने अभी इस संकलक पर खुद को सदस्य नहीं बनाया है, तुरंत इसकी सदस्यता ग्रहण करें और अपने ब्लागों को इस पर पंजीकृत कराएँ।