@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बेटी
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शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गए आठ दिन

तारीख बदलने के साथ ही महीने का आठवाँ दिन भी निकल चुका है, और इस माह में यहाँ एक भी चिट्ठी नहीं लिख पाया हूँ। कारणों में मैं नहीं जाना चाहता, बताने लगूंगा तो ऐसा लगेगा जैसे कोई मौसम विज्ञानी मौसम की भविष्यवाणी के लिए आवश्यक कारक गिना रहा है। रक्षाबंधन पर बेटी पूर्वा आ गई थी। उसे सुविधा है कि यदि वह दो दिन पहले भी कोशिश करे तो उसे जन-शताब्दी में यात्रा के लिेए स्थान मिल जाता है। बेटा वैभव मुम्बई में है और भारतीय रेलवे ही घर आने का एक मात्र उपयुक्त साधन। किसी अवकाश का उपयोग करना हो तो तीन माह पहले आरक्षण खुलने के दिन ही चेता जाए। फिर भी आरक्षण मिल जाए तो यह समझना पड़ता है कि लॉटरी लग गई है। बहिन-भाई रक्षाबंधन पर चाह कर भी न मिल पाएँ तो मलाल रह ही जाता है। दोनों ने कोशिश की और उन्हें ईद के अवकाश के आसपास आने जाने के आरक्षण मिल गए। पूर्वा 30 अगस्त को और वैभव 31 अगस्त को घर पहुँच गया, हमारी तो ईद और रक्षाबंधन एक ही दिन हो गए। फिर 4 सितंबर दोपहर बाद वैभव, और 5 सितंबर की सुबह पूर्वा वापस अपने काम पर चल दिए। 
बेटी-बेटे घर आएँ तो घर स्वतः ही एक उत्सव स्थल बन जाता है। फिर इन चार-पाँच दिनों की अवधि में तो नित्य ही कोई न कोई उत्सव घर में घर किए रहा। दिन के लिए चौबीस घंटों का समय कम लगने लगा। लिखने को बहुत कुछ था, बस समय ही नहीं था। बहुत दिनों से लिखने के औज़ार भी तंग कर रहे थे। प्रिंटर ने जो स्केनर, कॉपियर और फैक्स का भी काम कर रहा था, वह पहले ही जवाब दे चुका था। उसे अस्पताल भेजा तो तीन दिन में लौटा, लेकिन काम नहीं कर सका। मेरा तो व्यवसायिक काम ही रुक गया। उसे वापस अस्पताल भेज कर नया 'कैनन 2900 लैसर' लाए। वह केवल प्रिेंट का ही काम कर सकता है, पर करता लाजवाब है। वह ऐसा उत्पाद निकालता है कि मन प्रसन्न हो जाता है। उस से दूसरा कोई काम नहीं लिया जा सकता। फैक्स का काम तो आजकल मेल से निकल जाता है, कॉपियर का काम वैसे भी बाजार से ही कराया जाता था। लेकिन स्केन, वह तो जरूरी है। उस के बिना तो बहुत काम अटक जाते हैं। 


कंप्यूटर ने 2003 में गृहप्रवेश किया था। सेलरॉन प्रोसेसर, 256 जीबी रैम और 40 जीबी हार्ड डिस्क वाले इस साथी ने बहुत साथ निभाया। कुछ परेशानी हुई तो तीन-चार बरस पहले रैम और हार्डडिस्क को दुगना कर लिया गया। लेकिन अब तो उस से काम ही चलाया जा रहा था। रोज ही स्थान रिक्त करना पड़ता था। पूर्वा-वैभव आए तो कहने लगे हमें तो इस पर काम करने में आलस आता है, बहुत इंतजार कराता है। आखिर उसे बदलना तय हुआ। अनेक ब्रांडों पर विचार करने के बाद तय हुआ कि अपने कंप्यूटर वाले को कहा जाए कि वह असेंबल ही कर दे, लेकिन पार्टस् सभी अच्छे हों। 3 सितंबर की रात को जब मैं एक आयोजन से वापस लौटा तो नया सीपीयू माउस, की-बोर्ड के साथ घर आ चुका था और पुराने मॉनीटर के साथ अच्छी संगत कर रहा था। मैं ने टेस्ट राइड की तो ऐसा लगा जैसे मैं साधारण यात्री गाड़ी छोड़ कर सीधे राजधानी एक्सप्रेस में आ बैठा हूँ।

पूर्वा-वैभव के जाने के बाद पाँच सितम्बर की सुबह मैं ने नए साथी से जान-पहचान आरंभ की। वह मेरे लिए लगभग अनजान था। मेरी सारी फाइलें पुराने के साथी के कब्जे में थीं। उन के बिना कोई भी काम कर सकना संभव नहीं था। अच्छा हुआ कि इस नए साथी के आने के पहले मैं सप्ताह भर के मुकदमों की दैनिक-सूची प्रिंट कर चुका था। नहीं तो मेरे लिए यह पता कर पाना भी कठिन हो जाता कि मुझे अदालत जा कर करना क्या है। समझ नहीं आ रहा था कि पुराने साथी से अपनी फाइलें ले कर इस नए साथी को कैसे सौंपी जाएँ। सीपीयू, माउस, की-बोर्ड दो-दो होने से क्या होता है? मॉनीटर भी तो दो होने चाहिए थे। दिन में अदालत में अपने सहायक से कहा तो शाम को वे अपना मॉनीटर दे गए। रात को फाइलों का स्थानांतरण आरंभ हुआ, पेन ड्राइव को मध्यस्थ बनाया गया। वकालत के लिए जरूरी फाइलें हस्तांतरित कर दी गईं। शेष काम अगले दिन के लिए छोड़ दिया गया। सुबह काम करने को बैठे तो पता लगा कि सब से जरूरी फोल्डर की बहुत सी फाइलें अभी भी पुराने साथी के पास ही रह गयी हैं। मुवक्किलों के फोन आने लगे। अदालत जाना पड़ा। शाम को शेष फाइलें भी हस्तांतरित कर ली गईं। देख भी लिया कि कुछ ऐसा तो नहीं छूट गया है जो काम का है। अब पिछले तीन दिनों से नए साथी के साथ काम कर रहा हूँ। नए साथी ने मुझे न समझने की कसम ले रखी है। कहता है कि मेरे साथ काम करना है तो मुझे ही समझना पड़ेगा। कंप्यूटर और इंसान में यही फर्क है। इंसान एक दूसरे को समझ लेते हैं, कंप्यूटर तो इंसान को ही समझना पड़ता है।

ब मॉनीटर पुराना पिक्चर ट्यूब वाला रह गया है, बड़ा और भारी-भरकम सा। दिल कर रहा है इस भारी-भरकम को भी विदा कर के नया स्लिम वाला ले लिया जाए। वैसे भी चाहे पच्चीस हजार से जेब हलकी कर के इसे छोड़ कर सब कुछ नया कर लिया हो, पर इसे देख कर सभी सोचते हैं कि मैं अभी भी पुराने पर ही काम कर रहा हूँ। उधर स्केनर के बिना भी परेशानी है। मैं ने कंप्यूटर वाले को कहा है कि वह सब कुछ पुराना ले जाए और एक नया बीस इंची टीएफटी दे दे। स्केनर की मैं कीमत अदा कर दूंगा। वह कह कर गया है कि कोई ग्राहक देखता हूँ शायद जुगाड़ बैठ जाए!

मंगलवार, 28 जून 2011

"शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"

निशा, शायद यही नाम है, उस का। उस का नाम रजनी या सविता भी हो सकता है। पर नाम से क्या फर्क पड़ता है? नाम खुद का दिया तो होता नहीं, वह हमेशा नाम कोई और ही रखता है जो कुछ भी रखा जा सकता है। चलो उस लड़की का नाम हम सविता रख देते हैं।

ह ग्यारह वर्ष से जीएनएम  यानी सामान्य नर्सिंग और दाई का काम कर रही है। ग्यारह साल कम नहीं होते एक ही काम करते हुए। इतना अनुभव हो जाता है कि कोई भी अधिक जटिलता के काम कर सकता है। वह भी चाहती है कि उसे भी अधिक जटिल काम मिलें, नौकरी में उस की पदोन्नति हो। पर इस के लिए जरूरी है कि वह कुछ परीक्षाएँ और उत्तीर्ण करे। उस ने प्रशिक्षण  में दाखिला ले लिया। साल भर पढ़ाई की। जब परीक्षा हुई तो परीक्षक की निगाहें उस पर गड़ गईं। उस के काम में कोई कमी नहीं लेकिन फिर भी ... परीक्षक ने कहा पास नहीं हो सकोगी। होना चाहती हो तो कुछ देना पड़ेगा। उसे अजीब सा लगा, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया। परिणाम आया तो वह अनुत्तीर्ण हो गई। फिर एक साल पढ़ाई, फिर परीक्षा और परिणाम की प्रतीक्षा ...

इस बार वही परीक्षक ट्रेनिंग सेंटर के आचार्य की पीठ पर विराजमान था, कामचलाऊ ही सही, पर पीठ तो आचार्य की थी। उस ने सविता को देखा तो पूछा
-तुम पिछले साल उत्तीर्ण नहीं हुई? उस ने उत्तर दिया
-कहाँ सर? आप ने मदद ही नहीं की।
-मैं ने तो तुम्हें उपाय बताया था।
-नहीं सर! वह मैं नहीं कर सकती। हाँ कुछ धन दे सकती हूँ।
-सोच लो, धन से काम न चलेगा।
-सोचूंगी।
 कह कर वह चली आई। सोचती रही क्या किया जाए। आखिर उस ने सोच ही लिया। वह फिर आचार्य के पास पहुँची, कहा
-सर ठीक है जो आप कहते हैं मैं उस के लिए तैयार हूँ। पर मेरी दो साथिनें और हैं, उन की भी मदद करनी होगी। वे दो दो हजार देने को तैयार हैं। आचार्य तैयार हो गए। सविता को चौराहे पर मिलने के लिए कहा।
सविता चौराहे तक पहुँची ही थी कि स्कूटर का हॉर्न बजा। आचार्य मुस्कुराते हुए स्कूटर लिए खड़े थे। वह पीछे बैठ गई। स्कूटर नगर के बाहर की एक बस्ती की ओर मुड़ा तो सविता पूछ बैठी।
-इधर कहाँ? सर!
-वह तुम्हारी अधीक्षिका थी न? वह आज कल दूसरे शहर में तैनात है उस के घर की चाबियाँ मेरे पास हैं, वहीं जा रहे हैं। क्या तुम्हें वहाँ कोई आपत्ति तो नहीं?
-ठीक है सर! वहाँ मुझे कोई जानता भी नहीं।

कुछ देर में स्कूटर घर के सामने रुका। आचार्य ने ताला खोला अंदर प्रवेश किया। कमरा खोल कर सविता को बिठाया। सविता ने अपने ब्लाउज से पर्स निकाल कर चार हजार आचार्य को पकड़ा दिए।
-तुम बैठो! तुम बाहर का दरवाजा खुला छोड़ आई हो, मैं बंद कर आता हूँ।
आचार्य कमरे से निकल गया। सविता के पूरे शरीर में कँपकँपी सी आ गई। उसे लगा जैसे कुछ ही देर में उसे बुखार आ जाएगा। लेकिन तभी ..
आचार्य मुख्य द्वार बंद कर रहा था कि कुछ लोगों ने बाहर से दरवाजे को धक्का दिया। वह हड़बड़ा गया। उसे दो लोगों ने पकड़ लिया। अंदर कमरे में जहाँ सविता थी ले आए। इतने सारे लोगों को देख सविता की कँपकँपी बन्द हुई। आचार्य के पास से नोट बरामद कर लिए गए। उन्हें धोया तो रंग छूटने लगा। आचार्य के हाथों में भी रंग था।

विता को फिर से कँपकँपी छूटने लगी थी। वह सोच रही थी, जब उस के पति और ससुराल वालों को पता लगेगा तो क्या सोचेंगे?  उन का व्यवहार उस के प्रति बदल तो नहीं जाएगा? उस के और रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उस का जीवन बदल तो नहीं जाएगा? और उस के परीक्षा परिणाम का क्या होगा? सोचते सोचते अचानक उस ने दृढ़ता धारण कर ली। अब कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी परिणाम हो। उस ने वही किया जो उचित था और उसे करना चाहिए था। वह सारे परिणामों का मुकाबला करेगी। कम से कम कोई तो होगा जो यह कहेगा "शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"।

चार्य जी, जेल में हैं। पुलिस ने उन की जमानत नहीं ली। अदालत  भी कम से कम कुछ दिन उन की जमानत नहीं लेगी। अच्छा तो तब हो जब उन की जमानत तब तक न ली जाए जब तक मुकदमे का निर्णय न हो जाए।
(कल सीकर में घटी घटना पर आधारित)

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तुम्हें जन्मदिन की बधाई! (हैप्पी बर्डे टू यू)

क्सर होता ये है कि मैं तारीख बदलने के पहले नहीं सोता। लोगों से कहता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करता कि आज सोऊँ और कल उठूँ, इसलिए जिस तारीख में सोता हूँ उसी में उठता हूँ। या यूँ भी कहा जा सकता है कि जिस तारीख में उठता हूँ सोने के लिए उस तारीख का इंतजार करता रहता हूँ। इस का नतीजा ये भी है कि मुझे टेलीफोन पर जिन लोगों को जन्मदिन की मुबारकबाद देनी होती है। रात 12 बजे तारीख बदलते ही फोन की घंटी बजा देता हूँ। पर कल ऐसा नहीं कर सका। 
बेटी होली पर यहीं थी। उसे इस होली पर केवल एक रविवार का ही अवकाश था। दो अवकाश उस ने अपने खाते में ले लिए। बुध को सुबह चार बजे जाग कर यहाँ से गई थी। दोपहर में सीधी अपने दफ्तर पहुँची और शाम को अपने आवास पर। उस ने चार दिन की गर्द भी झाड़ी होगी। बहुत थक गई होगी और सो गई होगी इस कारण कल रात जब तारीख बदली तो मैं ने ही उसे फोन नहीं किया। सुबह भी उसे दफ्तर जाना था, उसे तैयार होने में बाधा होगी यह सोच कर उसे फोन नहीं किया। दोपहर के अवकाश में जब फोन किया तो वही सुनाती रही कि उस के दफ्तर की एक साथी ने उस का जन्मदिन याद रखा और अपने साथ केक ले आयी थी। फिर दफ्तर के लोगों ने उस का जन्मदिन मना डाला। कह रही थी कि लोगों ने उसे फूल भेंट किए जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूछने पर उस का उत्तर था कि उसे फूलों को भेंट करना कभी अच्छा नहीं लगता। फूल पौधे पर खिले रहें तो अन्तिम समय तक सुरभि बिखेरते हैं और उन की सुंदरता बनी रहती है। सजावट के काम में लेना तो वह बर्दाश्त कर लेती है लेकिन भेंट करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कुछ ही देर में बेकार हो जाते हैं। उस का यह कहना मुझे अच्छा लगा और मैं उसे मुबारकबाद देना ही भूल गया।  
शाम को उस का फोन आया तो भारत-आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच आधा हो चुका था। वह बताने लगी कि उस के सहपाठियों ने उसे जन्मदिन मुबारक कहते समय उसे मजाक में भाई कह कर संबोधित किया। अन्य ने पूछा कि लड़की भाई कैसे हो सकती है? उन का कहना था कि हो सकती है, यदि वह सब पर अपना दबदबा बना कर रख सके। पहले वे लोग उसे झाँसी की रानी कहते थे। उस ने मुझ से ही प्रश्न कर डाला कि उस के साथी उसे ऐसा क्यों कहते हैं? जब कि वह तो किसी से कभी झगड़ती भी नहीं है। मैं ने उसे कहा झाँसी की रानी झगड़ालू नहीं जुझारू थी। शायद ऐसा ही तुम में भी उन ने कुछ देखा हो और कहने लगे हों। उधर भारत की पारी शुरू हो गई और वह अपनी मकान मालकिन के साथ क्रिकेट देखने लगी। बता रही थी कि वे हर वह मैच देखती हैं जिसे भारत खेल रहा हो। इन्हीं बातों के बीच मैं फिर उसे जन्मदिन की मुबारकबाद देना भूल गया। 
रात के क्रिकेट मैच खत्म होते ही फोन की घंटी बजी तो बेटी ही थी। इस बार मैं फिर मुबारकबाद देना न भूल जाऊँ, मैं ने सब से पहले उसे 'हैप्पी बर्डे' कह दिया। भारत की जीत से वह प्रसन्न थी। उस ने पूछा -मुझे जन्मदिन की बधाई दे रहे हो, या मैच जीतने की? मैं ने कहा -बधाई तो जन्मदिन की ही दे रहा हूँ, जीत को तो तुम तोहफा समझो भारतीय टीम की ओर से। फिर वह मैच की बात करने लगी, -बीच में तो लग रहा था कि भारत हारा! लेकिन रैना ने मैच जिता दिया। मैं ने पूछा, युवराज का कुछ नहीं? तो कहने लगी। युवराज तो मैन ऑफ मैच है ही। पर मैच तो असल में रैना ने जिताया। वह इतना अच्छा साथ न देता तो? इस बात पर हम दोनों सहमत थे।
विश्व चैम्पियन पर जीत





बुधवार, 11 अगस्त 2010

बेटे-बेटी के घर आने का उत्सव

म्प्यूटर अनुप्रयोग में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद बेटे वैभव ने कुछ सप्ताह घर पर बिताए। आरंभ से ही शिक्षा में उत्तम प्रथम श्रेणी प्राप्त करते रहने से उस की इच्छा थी कि काम भी उस के अनुरूप ही मिले। इस कारण से वह सूचना तकनीकीशियनों के लिए भारत में सब से बड़े और उत्तम बाजार बंगलुरू के लिए रवाना हो गया। वह दीपावली के ठीक बाद गया था और फिर ठीक होली के दिन ही वहाँ से लौटा। कुल चार माह का उस का अनुभव बहुत विचित्र था। उस ने इस बीच बहुत परीक्षाएँ और साक्षात्कार दिए। लेकिन पढ़ाई और ज्ञान एक चीज है और परीक्षाएँ पास करना और साक्षात्कार में सफल होना दूसरी बात। वह एक दो सीढ़ी तो पार कर लेता लेकिन उस से आगे असफल हो जाता। यह करते करते ही उस ने इस काम में भी अपने कौशल को विकसित करना आरंभ कर दिया। 
स से पहले कैंपस सैलेक्शन का उस का अनुभव बहुत बुरा रहा था। जब जब भी कैंपस में चुनाव के लिए कोई कंपनी आती उसे अपनी ट्रेनिंग छोड़ भिलाई से इंदौर की यात्रा करनी पड़ती। कैंपस सेलेक्शन में भी बहुत जुगाड़ थे पहले तो अपने ही कॉलेज के टीपीओ को पटा के रखो, फिर किसी माध्यम से आने वाली कंपनी के मानव संसाधन प्रबंधक को पटाओ। न पटे तो किसी स्थानीय ऐजेंसी से कुछ जुगाड़ बिठाओ। वह यह सब नहीं करना चाहता था। चाहता था कि अपनी योग्यता से उसे कुछ मिले। आखिर एक कंपनी ने उसका चुनाव कर लिया उसे सेवा के लिए प्रस्ताव मिल गया। लेकिन जब जोइनिंग का समय आया तो पता लगा कि कॉलेज में कैंपस चुनाव के लिए जितनी कंपनियाँ आई थीं सब की सब जाली थीं। जैसे-जैसे नौकरी में चढ़ने का वक्त आता जा रहा था उन कंपनियों के जाल-स्थल गायब हो चुके थे। उन में दिए गए पतों पर कुछ और ही था। आखिर उसने बंगलुरू की राह पकड़ी।  
होली के बाद जब वह बंगलुरू पहुँचा तो अब तक के अनुभव से उस ने चयन की तमाम सीढ़ियाँ पार करना सीख लिया था और मानव संसाधन साक्षात्कार के स्तर तक पहुँचने लगा। बस यहीं से सारी गड़बड़ आरंभ हो गई। वहाँ उसे पता लगता कि वे कंप्यूटर अनुप्रयोग के स्नातकोत्तरों को नहीं लेते, या ये पता लगता कि उन्हें केवल एक को ही लेना है या फिर ये कि उन के पास अभी डॉटनेट को परखने वाला कोई नहीं है। जैसे ही उपलब्ध होगा वे उसे फिर से बुलाएँगे। वह हर सप्ताह एक-दो साक्षात्कार देता रहा। इसी तरह चार माह और निकल गए। आखिर उसे भारत की एक बड़े सूचना तकनीक उद्योग ने नोएडा में साक्षात्कार के लिए बुलाया। वह ढाई दिन की रेल यात्रा के बाद दिल्ली पहुँचा। लिखित परीक्षा हो गई, ठीक उस के बाद मानव संसाधन प्रबंधक का संदेश मिला कि उन्हें भेंट के रूप में आधी पेटी से अधिक राशि देनी होगी, तभी साक्षात्कार आगे होंगे और गारंटी के साथ नौकरी दे दी जाएगी। बेटे ने गारंटी का प्रकार पूछा तो पता लगा वह सिर्फ मौखिक है। उस ने बोरिया-बिस्तर समेटे और जिस भी पहली ट्रेन में स्थान मिला कोटा के लिए रवाना हो गया। 
ल शाम वैभव कोटा पहुँचा तो हमारे लिए उत्सव जैसा था। आखिर बेटा चार माह बाद घर आया था। उस के मनपसंद आलू के पराठे बनाए गए। उस के बहाने से हमें भी मिले तो एक अधिक ही खा गए। आज की सुबह भी भोजन में महिनों बाद बैंगन की सब्जी दिखाई दी। बैंगन भी अच्छे और स्वादिष्ट थे। लेकिन दो समय अतिभोजन और उपर से बला की ऊमस दिन भर पसीने बहते रहे। जैसे-तैसे घर पहुँचा तो संदेश मिला कि पूर्वा बेटी भी आ रही है, फरीदाबाद से चल चुकी है। भाई के एक सप्ताह घर रहने की खबर जान कर वह भी तीन दिनों का अवकाश ले कर आ रही है। हमारा उत्सव तो दुगना हो गया। अगले सोमवार तक घर में पूरा उत्सव ही रहेगा। जब तक बेटे-बेटी घर में हैं। मैं और वैभव तुरंत उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन जाने की तैयारी में जुट गए।