@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बिनायक सेन
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बुधवार, 5 जनवरी 2011

आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र !

गृहमंत्री पी.चिदम्बरम ने कहा है कि नक्सलियों के साथ सम्बंध रखने पर मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन को यदि गलत तरीके से सजा दी गई है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा। यदि उन्हें गलत तरीके से दोषी ठहराया गया है तो इसे कानूनी तरीके से सुधारा जाएगा।  डॉक्टर कार्यकर्ता बिनायक सेन को कानून की एक अदालत द्वारा दोषी ठहराया गया है और जो लोकतंत्र में विश्वास करते हैं तो उन्हें लोकतंत्र की प्रक्रिया का भी सम्मान करना चाहिए। 
ब चिदम्बरम जी भारत सरकार के गृहमंत्री हैं, वे इस बात को कैसे सोच सकते हैं कि बिनायक सेन को 7 मई को गिरफ्तार किया गया था, अगस्त 2007 में उस मुकदमे में आरोप पत्र दाखिल किया गया और फैसला हुआ 24 दिसंबर 2010 को। यह भी तब जब सर्वोच्च न्यायालय ने अदालत को मुकदमे की शीघ्र सुनवाई करने का आदेश दिया था। वर्ना हो सकता था कि अभी इस फैसले में कुछ साल और लग जाते। चिदम्बरम जी के पास शायद कानून मंत्रालय कभी नहीं रहा। राज्य सरकार का अनुभव तो उन्हें है ही नहीं। उन्हें शायद यह भी पता नहीं कि इस देश को वर्तमान में 60000 अदालतों की जरूरत है, और हैं लगभग 15000 मात्र। हम चौथाई अदालतों से काम चला रहे हैं और  लोग कम से कम चार गुना अधिक समय तक मुकदमे झेल रहे हैं। केन्द्र सरकार हर बार चिंता जताती है। हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह चुके हैं कि अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है जिसे उठाने में उन्हें रुचि लेनी चाहिए। लेकिन उन की सुनता कौन है। कांग्रेसी सरकारें ही इस बात पर कान नहीं देतीं तो अन्य दलों की सरकारों का उस से क्या लेना-देना है।  
बिनायक सेन के मामले में अभी सत्र न्यायालय का निर्णय हुआ है। अब मामला उच्च न्यायालय में जाएगा। वहाँ जो हालात हैं उस में वहाँ से फैसला होने में तीन-चार वर्ष भी लग सकते हैं, उस के उपरांत फिर कहा जा सकता है कि न्यायिक प्रक्रिया यहीं तक नहीं रुकती, आगे सर्वोच्च न्यायालय भी है। जहाँ इस तरह के मामले में सुनवाई में और चार-पाँच वर्ष लग सकते हैं। तब जा कर न्यायिक प्रक्रिया का अंत हो सकेगा। यही  दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र का सच है।  तब तक बिनायक सेन को जेल में रहना होगा। उन की पत्नी और दो बेटियों को उन के बिना रहना होगा, बिनायक सेन को सजा सुनाए जाने के बाद से ही पुलिस लगातार जिन का पीछा करती रही है।  इस के साथ ही देश की वंचित जनता को उन के दिल की सुनने वाले एक चिकित्सक से वंचित होना पड़ेगा। जब तक बिनायक सेन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अंतिम निर्णय नहीं दे देता, तब तक इतने लोगों की सजाएँ साथ-साथ चलेंगी। डॉ. सेन बाइज्जत बरी हो भी जाएँ, तो क्या इन सजाओं का औचित्य क्या रह जाएगा? 
चिदम्बरम जी! आप को शायद छत्तीसगढ़ के जंगलों के नीचे छुपी संपदा को निकालने और भरी हुई थैलियों को और मोटी बनाने की अधिक चिंता है। इस देश के न्यायार्थी को न्यूनतम समय में न्याय प्रदान करने की नहीं। शायद आप तो भूल भी गए होंगे कि इसी देश की संसद ने यह संकल्प पारित किया था कि प्रत्येक दस लाख की जनसंख्या पर 50 अदालतें स्थापित होनी चाहिए, यह लक्ष्य 2008 तक पूरा कर लिया जाए। लेकिन इस संकल्प का क्या हुआ? यह भी आप को पता नहीं होगा। हम दुनिया के सर्वाधिक उदार लोकतंत्र जो हैं। हम मुकदमे का निर्णय इतनी जल्दी कर क्यों अपनी उदारता त्यागें?
लेकिन इतने सारे जो लोग डॉ. बिनायक सेन के साथ-साथ सजा पाएंगे, आप उन की आवाज ही बंद कर देना चाहते हैं। कि वे न तो फैसले पर उंगली उठाएँ और न ही देश की इस अमानवीय न्याय व्यवस्था पर, जो एक बार आरोप सुना कर निरपराध साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त पर ही डाल देती है जो पहले से  ही जेल में  बंद है। इस मामले में आप की उदारता कहाँ गई? शायद ऐसा करते समय भारत दुनिया का सब से अधिक उदार लोकतंत्र तो क्या?  उदार लोकतंत्र भी नहीं रह जाता। आह! मेरे, दुनिया के सब से उदार लोकतंत्र!

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

मैं एक विस्फोट भी हूँ ......

ज उस का जन्मदिन है, और वह जेल में है। क्या था उस का कुसूर? बस यही न कि उस ने उस सरकारी कारखाने में काम करने वाले ठेकेदार मजदूरों के लिए एक अस्पताल विकसित किया था, जो अपने स्थाई कर्मचारियों के लिए बेहतर से बेहतर सुविधाएँ प्रदान करता है, लेकिन वही अस्पताल एक मरती हुई मजदूरिन को अपने यहाँ चिकित्सा सुविधा नहीं दे सकता। कि उस ने गाँव गाँव में चिकित्सा सुविधाएँ पहुँचाने के काम में अपने जीवन के बेहतरीन साल गुजारे। जिस ने सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा बंदूकों की नोंक अपने गाँवों से हाँक कर सरकारी केम्पों में ले जाए गए आदिवासियों के स्वास्थ्य की दुर्दशा के विरुद्ध आवाज उठाई। यही आवाज न केवल सलवा जुडूम योजना पर अपितु सरकार की नीयत पर भी प्रश्न चिन्ह बन गई। बस उसे देशद्रोही करार दिया गया और जेल में बंद कर दिया जीवन भर के लिए। 
लेकिन क्या, उसे बंद करने से जंगलों, गाँवों, कस्बों, नगरों और महानगरों से न्याय के लिए उठ रही आवाजें रुक जाएँगी। निश्चय ही वे आवाजें ऐसे नहीं रुक सकतीं। रुकना होगा तो उन्हें जो इन आवाजों को रोकने में लगे हैं। वे नहीं रुकेंगे, तो खत्म हो जाएँगे, जनता की यह आवाज तो उठेगी, कोलाहल बन कर न सुनने वालों को बहरा कर देगी, कि वे सुनने के काबिल नहीं रहेंगे। 
डॉ. बिनायक सेन के 61 वें जन्मदिन पर मुझे अपने दिवंगत साथी शिवराम की यह कविता स्मरण हो आती है - - -

मैं एक विस्फोट भी हूँ

-शिवराम

कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटि हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आंधी हूँ
तूफान हूँ

और उन्हों ने 
सचमुच कुचल दिया मुझे

एक जोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथड़े हो गए वे

उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट भी हूँ।

**********************

मेरे दोस्त !
जन्मदिन मुबारक हो, तुम्हें,

उन्हें पता है, 
तुम्हें अंदर कर के 
उन्हों ने कितनी बड़ी गलती की है

पर अब  करें तो क्या?
तीर तो कमान से निकल चुका
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सोमवार, 3 जनवरी 2011

चर्चा या ब्लाग-पोस्ट सूची

द्वितीय अतिरिक्त सत्र न्यायालय, रायपुर (छत्तीसगढ़) ने साल के अंतिम सप्ताह में जिस मामले पर निर्णय दिया वह बिनायक सेन मामले से जाना गया। यह एक ऐसा मुकदमा था जिस का लक्ष्य किसी अपराध विशेष के लिए किसी अभियुक्त अभियोजित करना और दंड देना था ही नहीं। इस मुकदमे का लक्ष्य सीधे तौर पर बिनायक सेन को दंडित करना था। यही कारण था कि यह मुकदमा बिनायक सेन के नाम से चर्चित हुआ।  उस मुकदमे को कोई और नाम नहीं दिया जा सकता था, आखिर कोई कृत्य या घटना होती तो उस के नाम से उस मुकदमे को जाना जाता। साल के अंतिम सप्ताह में दिया गया यह निर्णय देश भर के मीडिया में चर्चा का विषय  रहा। पहले समाचार के माध्यम से कि बिनायक सेन व अन्य दो को राजद्रोह में आजीवन कारावास का दंड दिया गया। फिर उस निर्णय की आलोचना आरंभ हो गई। इस आलोचना में बिनायक सेन के साथ संबद्ध लोगों से ले कर तटस्थ और बिनायक सेन की विचारधारा से असहमत और विरोधी तक शामिल थे। जैसे ही निर्णय सुनाया गया मेरे जैसे लोगों में यह जिज्ञासा हुई कि आखिर फैसले में जज ने क्या लिखा है? बिनायक सेन के खिलाफ क्या आरोप थे? उन्हें साबित करने के लिए क्या सबूत प्रस्तुत किए गए? और कैसे बिनायक सेन आरोपित अपराध के दोषी साबित हुए। फैसला प्रकाशित होता तो देखने में आता। डॉ. बिनायक सेन की तरफदारी करने वाले लोगों (पीयूसीएल) ने सब से अच्छी बात यह की कि उन्हों ने उस फैसले की प्रतिलिपि ज्यों की त्यों इंटरनेट पर उपलब्ध करा दी। उस फैसले का अंग्रेजी अनुवाद भी जितनी जल्दी संभव हो सकता था, उन्हीं लोगों ने नेट पर उपलब्ध कराया। जिस से न केवल उन के समर्थक अपितु तटस्थ और उन के विरोधी विचार के लोग भी उस का अध्ययन कर अपनी राय प्रकट कर सकें, एक तथ्यपरक बहस मीडिया में सामने आ सके। इस तरह पीयूसीएल ने अपनी परंपरा के अनुसार सब के बीच उस फैसले पर एक खुली बहस आरंभ करने की पहल की। 
हर मामले का तथ्यपरक अन्वेषण करना और साक्ष्यों सहित लोगों के सामने रखते हुए जहाँ भी नागरिकों के सिविल अधिकार आहत होते हों वहाँ उन की पैरवी करने के लिए ही पीयूसीएल का गठन हुआ और इसी के लिए वह काम भी कर रहा है। संगठन के उपाध्यक्ष की हैसियत से यही काम करना शायद वह अपराध बना जिस के लिए उन्हें सजा सुनाई गई है। 
ह सहज ही था कि हिन्दी ब्लाग जगत में भी इस घटना और निर्णय की चर्चा होती, जो हुई। कुछ चिट्ठों ने उस पर लिखा। हि्न्दी के कुल चार ब्लागों पर जो कुछ लिखा गया  उस की चर्चा डॉ. अनुराग ने चिट्ठा चर्चा पर की। डॉ. अनुराग डॉ.बिनायक सेन के हमपेशा हैं। बिनायक सेन के बारे में जो कुछ उन का स्वयं अनुभव और भावनाएँ थीं, चर्चा करते समय चर्चा की भूमिका और उपसंहार में उन का उल्लेख होना बिलकुल भी अस्वाभाविक न था। लेकिन उसी चर्चा को चिठ्ठाचर्चा की एकतर्फियत कहते हुए विवादित बनाने का प्रयत्न किया गया। जहाँ तक उस चर्चा के लिखे जाने तक बिनायक सेन मामले में फैसले के समर्थन में किसी हिन्दी ब्लाग पर कोई उल्लेखनीय पोस्ट नहीं लिखी गई थी। यदि लिखी जाती और उस का उल्लेख उस चर्चा में न होता तो यह कहा जा सकता था कि चर्चा एक तरफा है। जहाँ तक मेरी जानकारी है चिट्ठा चर्चा भी एक सामुहिक ब्लाग ही है और उस पर जो भी चर्चा करता है वह चर्चा करते हुए अपना मत सदैव ही अभिव्यक्त करता भी है। ऐसे में किसी चर्चा को एकतरफी चर्चा कहना मैं तो उचित नहीं समझता। फिर चिट्ठा चर्चा में पाठकों को अपना मत रखने के लिए टिप्पणी करने की स्वतंत्रता बिना किसी मॉडरेशन के उपलब्ध है और वह चर्चा आरंभ कर के बंद नहीं कर दी जाती है। चर्चा का आरंभ सदैव ही किसी विषय पर एक विचार विशेष से होता है, फिर वहाँ उस के समर्थन में या विरोध में विचार आते हैं और विमर्श आरंभ होता है। यदि ऐसा नहीं है तो वह कैसी चर्चा है। क्या केवल कुछ चिट्ठों के लिंक लगा देने को चर्चा कहा जा सकता है? उसे तो "ब्लाग-पोस्ट सूची" कहना पर्याप्त होगा। ऐसा भी नहीं है कि उस चर्चा पर विरोधी मत न आए हों। लेकिन कोई विमर्श से ही बचना चाहे और बिना कुछ कहे सरक ले तो उस का कोई उपचार नहीं है। ब्लाग जगत में कोई किसी हितैषी को सद्भावना पूर्वक दी गई नितांत व्यक्तिगत सलाह को धमकी घोषित कर तमाशा खड़ा कर आनंद  लेने लगे तो इलाज तो उस का भी नहीं है। बात आरंभ करने के पहले ही कोई अपने मनोगत निर्णय के साथ किसी विवाद में एक पक्ष की और मजबूती से खड़ा हो जाए और फिर कहे कि हम जजमेंटल नहीं है, इस से बड़ी 'साफगोई' क्या कोई हो सकती है?
बिनायक सेन पर सुनाए गए निर्णय पर निर्णय के बचाव में यह तर्क तो सामने आया  है कि न्यायिक निर्णयों पर मीडिया में बात नहीं होनी चाहिए, लेकिन उस निर्णय के समर्थन में कोई तथ्यपरक बात अभी तक किसी के भी द्वारा नहीं कही गई है। लेकिन यह तर्क स्वयं जनतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध है। जनतंत्र में किसी भी निर्णय की आलोचना तथ्यों के आधार पर की जा सकती है, यदि इस आलोचना का जनता को अधिकार नहीं होगा तो न्यायपालिका निरंकुशता की ओर बढ़ेगी। इस के अतिरिक्त यह तर्क भी दिया जा रहा है कि क्या मानवाधिकार केवल डॉ. बिनायक सेन के ही हैं? उन के नहीं जो नक्सलियों के हाथों मारे जा रहे हैं। डॉ. बिनायक सेन के मामले में कोई भी मानवाधिकार की बात नहीं कर रहा है। उन पर सीधे-सीधे कुछ अपराध करने का आरोप है। बात मानवाधिकार की नहीं, सिर्फ इतनी है कि क्या उन्हें दंडित किए जाने का निर्णय उचित है? यह सब कानून के आधार पर ही परखा जाएगा, न कि भावनाओं से। वह फैसला सब के पढ़ने के लिए उपलब्ध है, जो भी उस की कानूनी विवेचना कर सकता है, करे। तथ्यों और तर्कों के आधार पर अपनी बात कहे, किस ने रोका है?  जहाँ तक नक्सलियों द्वारा मारे जा रहे लोगों की बात है तो यह मानवाधिकार का प्रश्न नहीं, सीधे-सीधे जन-सुरक्षा और अपराध नियंत्रण का प्रश्न है। संबंधित सरकारें वहाँ जन सुरक्षा और अपराध नियंत्रण में असफल रही हैं और अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए विशेष जनसुरक्षा अधिनियम बनाती हैं और उस अमानवीय कानून का विरोध करने वाले डॉ. बिनायक सेन जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं को राजद्रोही कह कर दंडित करने में जुट जाती हैं।

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

राजद्रोह (Sedition) को देशद्रोह कहना क्या अपराध नहीं है?

जिस अपराध के लिए डॉ.बिनायक सेन को रायपुर (छत्तीसगढ़) के अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने दंडित  किया है, उसी अपराध के लिए राष्ट्रपिता महात्मागांधी और लोकमान्य तिलक दंडित किए जा चुके हैं और उन्हें उस के लिए ब्रिटिश भारत की जेलों में दिन बिताने पड़े। आज उस अपराध को हिन्दी मीडिया  का एक हिस्सा 'देशद्रोह' शब्द का प्रयोग कर रहा है जो पूरी तरह अनुचित है। अंग्रेजी मीडिया इस के लिए Sedition शब्द का प्रयोग कर रहा है। भारतीय दंड संहिता (IPC) में भी इस यही शब्द प्रयोग किया गया है। डॉ. हरदेव बाहरी के शब्दकोष में Sedition का अर्थ 'राजद्रोह' किया गया है, न कि देशद्रोह। यदि Sedition का अर्थ देशद्रोह हो तो हमें लोकमान्य तिलक और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के लिए कहना होगा कि वे देशद्रोही थे जिस के लिए उन्हों ने सजाएँ भुगतीं।
यह केवल एक शब्द के अनुवाद और प्रयोग का मामला नहीं है। दंड संहिता की जिस धारा के अंतर्गत डॉ. बिनायक सेन को दंडित किया गया है उसे इसी संहिता में परिभाषित किया गया है और इस का अंग्रेजी पाठ तथा हिन्दी पाठ निम्न प्रकार हैं -
अंग्रेजी पाठ-
Section 124A. Sedition
Whoever, by words, either spoken or written, or by signs, or by visible representation, or otherwise, brings or attempts to bring into hatred or contempt, or excites or attempts to excite disaffection towards. 2[* * *] the Government established by law in 3[India], 4[* * *] shall be punished with 5[imprisonment for life], to which fine may be added, or with imprisonment which may extend to three years, to which fine may be added, or with fine.
Explanation1 -The expression "disaffection" includes disloyalty and all feelings of enmity.
Explanation2 -Comments expressing disapprobation of the measures of the attempting to excite hatred, contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section.
Explanation3 -Comments expressing disapprobation of the administrative or other action of the Government without exciting or attempting to excite hatred, contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section.

 हिन्दी पाठ -
धारा 124 क. राजद्रोह 
जो कोई बोले गए या लिखे गए शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा या दृश्यप्रस्तुति द्वारा या अन्यथा भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करेगा, या पैदा करने का प्रयत्न करेगा, या असंतोष उत्तेजित करेगा या उत्तेजित करने का प्रयत्न करेगा वह आजीवन कारावास से, जिस में जुर्माना भी जोड़ा जा सकेगा या तीन वर्ष तक के कारावास से जिस में जुर्माना जोड़ा जा सकेगा, या जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा। 
स्पष्टीकरण-1 'असंतोष' पद के अन्तर्गत अभक्ति और शत्रुता की सभी भावनाएँ आती हैं। 
स्पष्टीकरण-2  घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार के कामों के प्रति विधिपूर्ण साधनों द्वारा उन को परिवर्तित कराने की दृष्टि से आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं। 
स्पष्ठीकरण-3  घृणा, अवमान या असंतोष उत्तेजित किए बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किए बिना सरकार की प्रशासनिक या अन्य प्रक्रिया के प्रति आक्षेप प्रकट करने वाली टीका-टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं हैं।
क्त दोनों पाठों का अध्ययन करने के बाद किसी भी भाँति इस अपराध को देशद्रोह का अपराध नहीं कहा जा सकता है। इसे राजद्रोह ही कहा जा सकता है। मीडिया  ने जिस तरह इस अपराध के लिए देशद्रोह शब्द का प्रयोग किया है उस का आरंभ जानबूझ कर किया गया है, बाद में अनुकरण के माध्यम से इस शब्द को प्रचार मिला है और लोग इस का अंधानुकरण कर रहे हैं। मेरी स्वयं की मान्यता है कि जो ताकतें चाहती थीं कि बिनायक सेन को येन-केन-प्रकरेण सजा मिले जिस से कम से कम छत्तीसगढ़ का कोई सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी शासन के विरुद्ध बोलने-लिखने और आवाज उठाने की हिम्मत न करे वे ही शक्तियाँ इस शब्द के प्रचार के पीछे रही हैं और इरादतन Sedition को बार-बार देशद्रोह लिखा जा रहा है। यह कृत्य भी किसी अपराध से कम नहीं है।
मेरा सभी मीडियाकर्मियों, ब्लाग लेखकों और बुद्धिजीवियों से आग्रह है कि वे इस षड़यंत्र को समझें और Sedition को देशद्रोह लिखना बंद करें, इसे राजद्रोह ही लिखा जाए।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है, उस का चरित्र राज्य से भिन्न नहीं हो सकता

भी कुछ महीने पहले ही की तो बात है हम उस देवी के कुछ छिपे अंगों को देख पाए थे। पंद्रह हजार से अधिक भारतियों को एक रात में मौत की नींद सुलाने और इस से कई गुना अधिक को जीवन भर  के लिए अपंग और बीमार बना देने के लिए जिम्मेदार हत्यारा एण्डरसन अभी भी अमरीका में चैन की नींद सो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ  ने इस अपराध को एक मामूली मामले में परिवर्तित कर दिया। बाद में इसी बैंच के न्यायाधीश हत्यारी संस्था द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अधीन स्थापित अस्पताल के सर्वेसर्वा बन गए। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय के विरुद्ध कोई पुनर्विचार याचिका पेश नहीं की। यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महेंद्रा समेत सात अधिकारी दोषी सिद्ध हुए और पर दो-दो वर्ष के कारावास और एक-एक लाख रुपए के अर्थदंड की सजा से विभूषित किए गए। इस फ़ैसले के बाद सात जून को ही सभी आरोपियों ने अपने पॉकेट मनी के बराबर का अर्थदंड भरते ही 25-25 हजार रुपए के मुचलके और इतनी ही राशि की जमानत पर रिहा हो गए। इस फैसले से देश में नाराजगी का जो बवंडर उठा तब जा कर सरकारों (केन्द्र और राज्य दोनों) ने सर्वोच्च न्यायालय में उसके अपने निर्णय को बदलने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन पेश करने की स्मृति हो आई। जिसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय के पाले में है।
ह सर्ग  हमें बताता है कि उद्योगपति, वे देसी हों या विदेशी, राजसत्ता से उन का कैसा नाता है? केवल संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए व्यवस्था कर देने मात्र से वह स्वतंत्र नहीं हो जाती। न्यायपालिका राज्य का अभिन्न अंग है, और वह राज्य के चरित्र से अलग किसी भी तरह नहीं हो सकता। आजादी के तुरंत बाद स्वतंत्रता की चेतना शिखर पर थी, भारतीय राज्य घोषित रूप से एक लोक कल्याणकारी राज्य बनने जा रहा था, और न्यायपालिका के उच्च पदों पर वे लोग पदासीन थे जो आंदोलनों के बीच से आए थे। तो उस वक्त कानून की विवेचना और निर्णय जनपक्षीय होते थे। लेकिन आजादी के पहले का कमजोर बालक, भारत का पूंजीपति वर्ग जवान होता गया, सत्ता पर अपना असर  बढ़ाता गया। वैसे-वैसे न्यायपालिका के निर्णयों का वजन जनपक्षीय पलड़े से कम होता गया और पूंजीपतियों के हितों के पलड़े की ओर बढ़ता गया। हर कोई जानता है कि 1980 में जब देश का मजदूर आंदोलन तेज था और सत्ता व सरकार पर पूंजीपतियों की पकड़ कमजोर तो, न्यायपालिका के निर्णय कमजोर वर्ग की ओर झुके होते थे। तब सिद्धांत यह था कि कानून की व्याख्या कमजोर वर्ग के हित में की जानी चाहिए। कानून वहीं रहा लेकिन देखते ही देखते इसी स्वतंत्र न्यायपालिका ने उन की व्याख्या बदल कर रख दी। कमजोर वर्ग गायब होता गया और उद्योग के हित प्रधान हो गए। उन्हीं कानूनों के अंतर्गत, यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय की वृहत पीठों में निर्धारित किए गए सिद्धांतों को बदले बिना, अब जो फैसले होते हैं, 1980 तक हुए फैसलों की अपेक्षा बिलकुल उलट होते हैं। 
मौजूदा शासक वर्ग (पूंजीपति) अनेक माध्यमों से न्यायपालिका को प्रभावित करता है। भोपाल त्रासदी के मामले में हुआ निर्णय उस का एक उदाहरण है। हमारी सरकार जो पूरी तरह इस वर्ग से नाभिनालबद्ध है। न्यायपालिका के आकार को छोटा रखती है। अधीनस्थ न्यायालयों की स्थापना नहीं करती। आज देश में जरूरत के केवल 20 प्रतिशत न्यायालय हैं, जिस का परिणाम यह है कि न्यायार्थी को न्याय प्राप्त करने में पाँच गुना से भी अधिक समय लगता है। कुछ लोग अपने प्रयासों और जुगाड़ों से शीघ्र न्याय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं तो बाकी लोगों के हिस्से का न्याय दूर सरक जाता है। अनेक को तो न्याय अपने जीवन काल में मिलता ही नहीं है। दूसरी ओर उद्योगपति और वित्तीय संस्थान जिन मामलों में उन के हित प्रभावित होने होते हैं, उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित करवाते हैं। सरकार भी उन के लिए विशेष न्यायालय स्थापित कर उन्हें राहत प्रदान करती है। लेकिन जनता? उस की चिंता किसे है? जहाँ शासक वर्ग के विरुद्ध मामले होते हैं उन अदालतों में वर्षों तक फैसले नहीं होते। वहाँ सरकार को भी कोई चिंता नहीं है। 

कुछ माह पहले भोपाल त्रासदी के निर्णय ने देश भर को चौंकाया था और वह आंदोलित हुआ था। वैसा ही निर्णय बिनायक सेन मामले में रायपुर के अपर सत्र न्यायालय ने दे कर फिर से चौंकाया है। अदालत  इंडियन सोशल इंस्टीटच्यूट (आईएसआई) को पाकिस्तानी खुफिया ऐंजेंसी समझ कर बिनायक सेन को देशद्रोही करार देती है। एक ऐसे चिकित्सक को जो ग़रीब जनता को अपनी सेवाएँ मुहैया कराता है, उन में सांगठनिक चेतना के संचार में जुट जाता है, जो राज्य के दमनकारी कानून के विरुद्ध आवाज उठाता है उस के विरुद्ध फर्जी सबूतों के माध्यम से देशद्रोह का मामला बना कर उसे बंदी बना लिया जाता है और फिर अदालत उन्हीं सबूतों के आधार पर सजा दे देती है। इस निर्णय की बहुत आलोचना हो चुकी है। निर्णय उपलब्ध होने पर उसे भी व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन बिनायक सेन जैसे व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा सुनाने की वजहें जानी जा सकती हैं। रायपुर के एक वरिष्ठ वकील की प्रतिक्रिया इसे स्पष्ट करती है, वे कहते हैं- "कृपया इस बारे में कोई प्रतिक्रिया मत मांगिए। यह एक बहुत ही संवेदनशील मामला है, जिससे कई राजनीतिज्ञों व पुलिस अधिकारियों की प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है। मैं संकट में नहीं पड़ना चाहता। लेकिन जब तमाम राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता मीडिया को प्रतिक्रिया देने को उत्सुक हैं, तो फिर आप मेरी प्रतिक्रिया क्यों मांग रहे हैं?"
जो लोग रायपुर फैसले की आलोचना कर रहे हैं, न जाने उन्हें इस बात की कैसे अपेक्षा थी कि बिनायक सेन निर्दोष छूट जाएंगे? मुझे इस बात में कोई संदेह नहीं था कि उन्हें सजा होगी ही और वह भी आजीवन कारावास। मुझे सत्ता के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका पर पूरा विश्वास था कि वह अवश्य राज्य के दूसरे हिस्से की इज्जत अवश्य ही बचा लेगी। यह हो भी कैसे सकता है कि एक बहन संकट में हो और दूसरी उस के खिलाफ फैसला दे दे? मेरे पास इस से अधिक कहने को कुछ नहीं है। लेकिन यह स्पष्ट है कि देश की न्याय व्यवस्था राजसत्ता का अभिन्न अंग है उस का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न नहीं हो सकता। जिन दिनों मैं ने वकालत आरंभ की थी तो आंदोलनकारी मजदूरों को सजा मिलने पर उन के साथ आए लोग अदालत के बाहर नारे लगाते थे,  पूंजीवादी न्याय व्यवस्था - मुर्दाबाद! वह नारा अब अदालतों में कभी लगता दिखाई नहीं देता, लेकिन अब वक्त आ गया है कि इस नारे को देश भर में बुलंद किया जाए।