@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बरसात
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रविवार, 24 अप्रैल 2016

ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?


मारे गाँवों में बस्ती के नजदीक खलिहान होते थे। फसल काट कर लाने और तैयार करने के वक्त सिवा यही खलिहान दूसरे दूसरे कामों में आते थे। मसलन, बच्चों के खेलने की जगह और शादी-मुंडन वगैरा समारोहों के लिए। हर गाँव में चरागाह हुआ करती थी मवेशियों को चरने के लिए। इस के अलावा पगडंडियाँ और बैलगाड़ियों के चलने के लिए गडारें हुआ करती थीं। हर गाँव के पास कम से कम अपना एक तालाब, कुछ तलैयाँ और पोखर हुआ करते थे।


इन में से अधिकांश अब सिरे से गायब हैं। खलिहानों तक गाँव पसर चुके हैं, वहाँ बढ़ती आबादी के लिए घर बन गए हैं। चरागाह पर खेतीहरों ने कब्जे कर लिए हैं। तालाब हाँक दिए गए हैं, तैलायाएँ पाट दी गयी हैं, वे या तो खेतों में शामिल हैं या फिर उन पर निर्माण हो चुके हैं। अधिकांश पगडंडियाँ गायब हैं और गडारें भी ज्यादातर खेतों में शामिल हो गयी हैं। अब खाली जगह कहीं नहीं।


तालाब, तलैयाएँ और पोखर बरसात के पानी को जमा करते थे। जो साल में कभी दस माह तो कभी बारह माह तक काम आता था। इस के अलावा इन से भूगर्भ भी चार्ज होता रहता था और वातावरण में नमी रहती थी। भूगर्भीय जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए अथवा तब होता था जब तालाब, तलैयाएँ और पोखर पूरी तरह सूख जाते थे। इन सब के साथ साथ पेड़ भी गायब हुए हैं। कोई अब अपने खेत की मेढ़ पर पेड़ को रहने नहीं देता, जहाँ छाया पड़ती है वहाँ फसल कम होती है या नहीं होती।


अब हमारे पास ट्यूबवेल हैं। घरों में भी और खेतों में भी। हम साल भर उन से पानी खींचते हैं, बरबाद करते हैं। धरती के पेट में पानी असीमित नहीं है। वह नीचे जाता जाता है और अंततः हमें सूखा पेट मिलता है। गर्मियाँ बाद में शुरू होती हैं हैण्डपंप पहले बजने लगते हैं।


पानी कहीं जाता नहीं है। वह जमीन में रहता है, हवा में उड़ जाता है या नदियों से बह कर समंदर तक पहुँच जाता है। एक बरसात की प्रक्रिया है जो इस सारे पानी का आसवन करती है। समंदर के पता नहीं क्या क्या मिले पानी को सूरज की गर्मी के सहारे हवा सोखती है और नम हो कर धरती पर घूम घूम कर बरसात कराती है।


हवा की बरसात कराने की क्षमता भी सीमित है, पर इतनी सीमित भी नहीं कि वह धरती के बच्चों की जरूरत पूरी नहीं कर सके। बच्चे ही नालायक हों बरसात के पानी को साल भर सहेजने का उद्यम करने से बचते रहें, जो कुछ शैतान बच्चे हैं वे पहले तो सहेजने के साधन नष्ट करें, फिर धरती के पेट में जमा पानी पर कब्जा कर उस का बाजार लगा कर मुनाफा कमाएँ तो ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?

... दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’

ज सुबह 7.07 बजे सावन का महिना आरंभ हो गया। सुबह सुबह इतनी उमस थी कि जैसे ही कूलर की हवा छोड़ी कि पसीने में नहा गए। लगा आज तो बारिश हो कर रहेगी। इंटरनेट पर मौसम का हाल जाना तो पता लगा 11 बजे बाद कभी भी बारिश हो सकती है। तभी बाहर बूंदाबांदी आरंभ हो गई। धीरे-धीरे बढ़ती गई। फिर कुछ देर बंद हुई तो मैं तैयार हो कर अदालत पहुँचा। बरसात एक अदालत से दूसरी में जाने में बाधा बन रही थी। लेकिन बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आई इस बरसात में भीगने से किसे परहेज था। भीगते हुए ही मैं चला अपने ठिकाने से अदालत को। चमड़े के नए जूतों के भीगने की परवाह किए बिना पानी को किसी तरह लांघते गंतव्य पर पहुँचा। आज अधिकतर काम एक ही अदालत में थे। दोपहर के अवकाश तक लगभग सभी कामों से निवृत्त हो लिया। हर कोई सारी पीड़ाएँ भूल खुश था कि बरसात हुई। गर्मी कुछ तो कम होगी। कूलरों से मुक्ति मिलेगी। चाय-पीने को बैठे तो बरसात तेज हो गई। पुलिस अधीक्षक के दफ्तर के बाहर पानी भर गया। हमने एक तस्वीर ले ली।   
ज पहली बरसात हुई है। कल गुरु-पूर्णिमा पर परंपरागत रीति से वायु परीक्षण किया गया। नतीजा अखबारों में था कि अगले चार माह बरसात होती रहेगी। बरसात के चार माह बहुत होते हैं। इस पूर्वानुमान के सही निकलने पर हो सकता था कि बहुतों को बहुत हानि हो सकती थी। पर फिर भी हर कोई यह चाह रहा था कि यह सही निकले। कम से कम पानी की कमी तो पूरी हो। प्यासे की जब तक प्यास नहीं बुझती, वह पानी के भयावह परिणामों को नहीं देखता।  शाम को बरसात रुकी, लोग बाहर निकले। यह सुखद था, लेकिन लोग इस सुख को नहीं चाहते थे। उन का मन तो अभी भी सूखा था। इस बार शायद जब तक उस से आजिज न आ जाएँ तब तक उसे भीगना भी नहीं है। मैं ने अभी शाम को फिर मौसम की तस्वीर देखी। बादल अभी आस पास हैं। यदि उत्तर पश्चिम की हवा चल निकली तो रात को या सुबह तक फिर घनी बरसात हो सकती है। चित्र में गुलाबी रंग के बादल सब से घने, सुर्ख उस से कम, पीले उस से कम और नीले उस से भी कम घने हैं। उस से कम वाला सलेटी रंग तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं भी चाहता हूँ कि कम से कम यह सप्ताह जो बरसात से आरंभ हुआ है। बरसातमय ही रहे।
ल महेन्द्र नेह के चूरू में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट में जर्मनी में रह रहे राज भाटिया जी की टिप्पणी थी .....

महेन्द्र नेह जी से एक बार मिलने का दिल है, बहुत कवितायें पढी आप के जरिये, और आज का लेख और जानकारी पढ कर बहुत अच्छा लगा, कभी समय मिले तो यह गजल जरुर अपने किसी लेख में लिखॆ....
‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ जिस गजल की पहली लाईन इतनी सुंदर है वो गजल कैसी होगी!!!
धन्यवाद आप का ओर महेंद्र जी का.....

तो भाटिया जी, इंतजार किस बात का? महेन्द्र जी ने आप की फरमाइश पर यह ग़ज़ल मुझे फोन पर ही सुना डाली। वैसे यह ग़ज़ल का पहला नहीं आखिरी शेर था। आप भी इसे पढ़िए ......

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
  • महेन्द्र 'नेह' 

जान मुश्किल में आ गई होगी
एक दहशत सी छा गई होगी

भेड़ियों की जमात जंगल से
घुस के बस्ती में आ गई होगी

सुर्ख फूलों को रोंदने की खबर
कोई तितली सुना गई होगी

उन की आँखों से टपकती नफरत
हम को भी कुछ सिखा गई होगी

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
बाज से तंग आ गई होगी
राज भाटिया जी! 
अगली भारत यात्रा में कोटा आने का तय कर लीजिए। महेन्द्र नेह के साथ-साथ शिवराम, पुरुषोत्तम 'यकीन' और भी न जाने कितने नगीनों से आप की भेंट करवाएंगे।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

आखिर मौसम बदल गया, चातुर्मास आरंभ हुआ

मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है।  पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं।  उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है।  कुछ देर में उस में से भाप निकलती है।  सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है।  पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।

पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा।  पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे।  दिन में तेज धूप निकलती रही।  हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे।  फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए?  साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए।  हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया।  नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा।  यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता ।  कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं।   वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।

तभी  खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम!  हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी।  पर फिर पुलिसिये बादल ही  आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए।  जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं।  पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी।  आसोज की धूप को भी लजा रही थी।  लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे।  आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती।  फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे।  हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?

कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई।  कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात  कुछ कम हुई तो  लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा।  लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया।  फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी।  अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे।  चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था।  उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए।  यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।

धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे।  अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई।  एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं।  मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ।  (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों।  वे  बरसात करने वाले नहीं हैं।  चांद रोशनी बिखेर रहा है।  पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है।  लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा।  साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है।  मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।



मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था।  देव आज से सोने जो चले गए हैं।  बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है।  चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे।  पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं।  उन में तो जाना ही पड़ेगा।  लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा।  मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ।  सोचा है पूरे  चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा।  देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।

शुक्रवार, 26 जून 2009

चार-चार बच्चों वाली औरतें

अदालत से वापस आते समय लालबत्ती पर कार रुकी तो नौ-दस वर्ष की उम्र का एक लड़का आया और विंड स्क्रीन पर कपड़ा घुमा कर उसे साफ करने का अभिनय करने लगा। बिना विंडस्क्रीन को साफ किए ही वह चालक द्वार के शीशे पर आ पहुँचा।  उस का इरादा सफाई का बिलकुल न था। मैं ने शीशा उतार कर उसे मना किया तो पेट पर हाथ मार कर रोटी के लिए पैसा मांगा।  आम तौर पर मैं भिखारियों को पैसा नहीं देता। पर न जाने क्या सोच उसे एक रुपया दिया। जिसे लेते ही वह सीन से गायब हो गया। तीस सैकंड में ही उस के स्थान पर दूसरे लड़के ने उस का स्थान ले लिया।  इतने में लाल बत्ती हरी हो गई और मैं ने कार आगे बढा दी।

25 जून हो चुकी थी, लेकिन बारिश नदारद थी।  रायपुर से अनिल पुसदकर जी  ने रात को उस के लिए अपने ब्लाग पर गुमशुदा की तलाश का इश्तहार छापा।  उसे पढ़ने के कुछ समय पहले ही भिलाई से पाबला जी बता रहे थे बारिश आ गई है।  मैं ने पुसदकर जी को बताया कि बारिश को भिलाई में पाबला जी के घर के आसपास देखा गया है।  रात को तारीख बदलने के बाद सोये।  रात को  बिजली जाने से नींद टूटी।  पार्क में खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ आवाज कर रहे थे, तेज हवा चल रही थी। कुछ देर में बूंदों के गिरने की आवाज आने लगी।  पड़ौसी जैन साहब के घर से परनाला गिरने लगा जिस ने बहुत सारे शोर को एक साथ पृष्ठभूमि में दबा दिया। गर्मी के मारे बुरा हाल था। लेकिन बिस्तर छोड़ने की इच्छा न हुई। आधे घंटे में बिजली लौट आई। इस बीच लघुशंका से निवृत्त हुए और घड़ी में समय देखा  तीन बज रहे थे।

सुबह उठे, घर के बाहर झाँका तो पार्क खिला हुआ था। सड़क पर यूकेलिप्टस ने बहुत सारे पत्ते गिरा दिए थे और बरसात ने उन्हें जमीन से चिपका दिया था। नुक्कड़ पर बरसात का पानी जमा था।  नगर निगम के ठेके दार ने वहाँ सड़क बनाते वक्त सही ही कसर रख दी थी। वरना रात को हुई बारिश का निशान तक नहीं रहता। मैं ने अन्दर आ कर सुबह की काफी सुड़की और नेट पर समाचार पड़ने लगा। बाहर कुछ औरतों और बच्चों की आवाजें आ रही थीं।  पत्नी तुरंत बाहर गई और उन से निपटने लगी।  कुछ ही देर में वह चार पाँच बार बाहर और अंदर हुई। मुझे माजरा समझ नहीं आ रहा था।

पत्नी इस बार अन्दर किचन में गई तो मैं ने बाहर जा कर देखा।  हमारे और पड़ौसी जैन साहब के मकान के सामने की सड़क पर चिपके यूकेलिप्टस के पत्ते और दूसरी गंदगी साफ हो चुकी थी।  नुक्कड़ पर पानी पहले की तरह भरा था।  दो औरतें गोद में एक-एक बच्चा लिए तीन-तीन बच्चों के साथ जा रही थीं। माजरा कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।  मैं किचन में गया तो पत्नी बरतन साफ करने में लगी थी।  -तुम ने फ्रिज में पड़ा बचत भोजन साफ कर बाहर की सफाई करवा ली दिखती है।  मैं ने कहा।  -हाँ, किचन में पड़ा आटे की रोटियाँ भी बना कर खिला दी हैं उन्हें।

मुझे शाम वाले बच्चे याद आ गए।  फिर सोचने लगा -एक औरत के साथ चार-चार बच्चे? 
लेकिन कौन उन औरतों को बताएगा कि आबादी बढ़ाना ठीक नहीं और इस को रोकने का उपाय भी है।  मुझे वे लोग भी आए जो भिखारी औरतों को देख कर लार टपकाते रहते हैं और कुछ अधिक पैसा देने के बदले आधे घंटे कहीं छुपी जगह उन के साथ बिता आते हैं।  कौन जाने बच्चों के पिता कौन हैं? शायद माँएँ जानती ह या शायद वे भी नहीं जानती हों।



ब्लाग पढने आता हूँ।  वहाँ बाल श्रम पर गंभीर चर्चा है, कानूनों का हवाला है।  महिलाओं की समानता के लिए ब्लाग बने हैं।  कोई कह रहा है महिलाओं का प्रधान कार्य बच्चे पैदा करना और उन की परवरिश करना है।  ब्लाग लिखती महिलाओं में से एक उलझ जाती है।  दंगल जारी है।  देशभक्ति और देशद्रोह की नई परिभाषाएँ बनाई जा रही हैं, तदनुसार तमगे बांटे जा रहे हैं।  लालगढ़ पर लोग चिंतित हैं कि कैसे सड़क, तालाब, पुलियाएँ आदिवासियों ने बना कर राज्य के हक में सेंध लगा दी है।  वे लोग किसी को अपने क्षेत्र में न आने देने के लिए हिंसा कर रहे हैं।  वे जरूर माओवादी हैं।  माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लग गया है। तीन दिन में बंगाल की सरकार भी प्रतिबंध लगाने पर राजी हो गई है।  बिजली चली जाती है और मैं ब्लाग की दुनिया से अपने घर लौट आता हूँ।  कल लाल बत्ती पर मिले बच्चे और वे चार-चार बच्चों वाली औरतें और उन के बच्चे? सोचता हूँ, वे इस देश के नागरिक हैं या नहीं? उन का कोई राशनकार्ड बना है या नहीं? किसी मतदाता सूची में उन का नाम है या नहीं?


शुक्रवार, 20 मार्च 2009

बदलता मौसम, किसान और मेरी उदासी

 शीतकाल
सारी सर्दी हलके गर्म पानी का इस्तेमाल किया स्नान के लिए।  होली पर रंगे पुते दोपहर बाद 3 बजे बाथरूम में घुसे तो सोचा पानी गर्म लें या नल का।  बेटी बोली नल का ठीक है। हम ने स्नान कर लिया। कोई परेशानी न हुई।  लेकिन दूसरे दिन ही नहाने के लिए पानी गरम लेने लगे।  बस दो दिनों से नल के पानी से नहाने लगे हैं। परसों तक रात को वही दस साल पुरानी एक किलो रुई की रजाई औढ़ते रहे जिस की रुई कंबल की तरह चिपक  चुकी है।  कोई गर्मी नहीं लगी।  परसों तक उसे ही ओढ़ते रहे।   लेकिन कल अचानक गर्मी हो गई।  रात को अचानक पार्क के पेड़ों के पत्ते खड़खड़ाने लगे तो पता चला कि आंधी चल रही है। कोई 15 मिनट तक पत्तों की आवाजें आती रहीं।  चादर ओढ़ा पर वह भी नहीं सुहाया तो बिना ओढ़े ही सोते रहे, सुबह जा कर वह किसी तरह काम आया। 
होली
मौसम बदल रहा है।  दिन में अदालत में थे कि तीन बजे करीब बादल निकलने लगे। साढ़े चार अदालत से चले कि रास्ते में बून्दें टपकाने लगे पर रास्ते में ही बूंदें बन्द हो गईं।  शाम को साढ़े छह- सात के करीब हम ब्लाग पर पोस्ट पढ़ रहे थे कि अचानक बिजली चली गई।  कम्प्यूटर, रोशनी, पंखा सब बंद बाहर से टप टपा टप की आवाजें आने लगीं फिर पानी की रफ्तार तेज हो गई कोई बीस मिनट पानी बरसता रहा जोरों से।  फिर पानी बंद हुआ।  कोई पाँच मिनट बाद बिजली आ गई।  अभी हवा चल रही है।  पार्क के पेड़ डोल रहे हैं।  पत्ते थरथरा कर एक दूसरे से टकराकर ध्वनियाँ कर रहे हैं, यहां मेरे दफ्तर तक सुनाई दे रही हैं।
 बरसात

हर साल पूरे साल का गेहूँ घर आ जाता है एक ही किसान के यहाँ से।  पिछले साल किसी गलतफहमी के कारण नहीं आ सका था।  हमने किसी और से लिया नहीं।  लेकिन पिछले साल का गेहूँ बचा था, कुछ हमने इस साल मोटा अनाज ज्वार, मक्का, बाजरा का कुछ अधिक इस्तेमाल किया तो गेहूँ पिछले माह तक हो गया। बाजार टटोला तो पता लगा नया गेहूँ आने वाला है।  हम ने चक्की वाले से सीधे आटा लिया दस-पन्द्रह दिन चल जाएगा।

कल अचानक बेटे को इंदौर निकलना पड़ा, मैं और धर्मपत्नी श्रीमती शोभा जी उसे छोड़ कर स्टेशन से बाहर निकले तो गेहूँ वाले किसान विष्णु बाबू मिल गए।  वे किसी को स्टेशन लेने पहुँचे थे उन की ट्रेन आने वाली थी।  कुछ देर बातें करते रहे।  फिर कहने लगे गेहूँ कटने की तैयारी है।  दस दिन में आ जाएगा।  कब तक पहुँचा दूँ? मैं ने कहा हमारे यहाँ तो पिछले साल गेहूँ खरीदा ही नहीं गया, पुराना ही चलता रहा।  वह एक सप्ताह पहले ही खत्म हुआ है।  तो कहने लगे पड़ौसी के तैयार हो गए हैं कल ही एक बोरी तो भिजवा देता हूँ।   फिर दो हफ्ते में साल का रख जाउँगा।  हमें सुखद अनुभव हुआ।
ग्रीष्म
लेकिन यह कुसमय रात की आंधी और अब शाम की बरसात। शायद किसानों के लिए तो शंका और विपत्ति ले कर आई है।  इस साल सर्दियों की अवधि छोटी रहने से पहले ही फसल तीन चौथाई दानों की हो रही है।  तिस पर यह बरसात न जाने क्या कहर बरसाएगी।  ओले न हों तो ठीक नहीं तो आधा भी गेहूँ घर न आ पाएगा।  मैं सोच ही रहा हूँ कि विष्णु जी कितने चिंतित और उदास होंगे?   फसल को जल्दी कटवाने की जुगत में होंगे? वादे का एक बोरी गेहूँ भी आज नहीं पहुँचा है।  वे जरूर परेशान होंगे।  मैं भी सोचते हुए उदास हो गया हूँ।