@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बधाई
बधाई लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बधाई लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

तुम्हें जन्मदिन की बधाई! (हैप्पी बर्डे टू यू)

क्सर होता ये है कि मैं तारीख बदलने के पहले नहीं सोता। लोगों से कहता हूँ कि मैं ऐसा नहीं करता कि आज सोऊँ और कल उठूँ, इसलिए जिस तारीख में सोता हूँ उसी में उठता हूँ। या यूँ भी कहा जा सकता है कि जिस तारीख में उठता हूँ सोने के लिए उस तारीख का इंतजार करता रहता हूँ। इस का नतीजा ये भी है कि मुझे टेलीफोन पर जिन लोगों को जन्मदिन की मुबारकबाद देनी होती है। रात 12 बजे तारीख बदलते ही फोन की घंटी बजा देता हूँ। पर कल ऐसा नहीं कर सका। 
बेटी होली पर यहीं थी। उसे इस होली पर केवल एक रविवार का ही अवकाश था। दो अवकाश उस ने अपने खाते में ले लिए। बुध को सुबह चार बजे जाग कर यहाँ से गई थी। दोपहर में सीधी अपने दफ्तर पहुँची और शाम को अपने आवास पर। उस ने चार दिन की गर्द भी झाड़ी होगी। बहुत थक गई होगी और सो गई होगी इस कारण कल रात जब तारीख बदली तो मैं ने ही उसे फोन नहीं किया। सुबह भी उसे दफ्तर जाना था, उसे तैयार होने में बाधा होगी यह सोच कर उसे फोन नहीं किया। दोपहर के अवकाश में जब फोन किया तो वही सुनाती रही कि उस के दफ्तर की एक साथी ने उस का जन्मदिन याद रखा और अपने साथ केक ले आयी थी। फिर दफ्तर के लोगों ने उस का जन्मदिन मना डाला। कह रही थी कि लोगों ने उसे फूल भेंट किए जो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा। पूछने पर उस का उत्तर था कि उसे फूलों को भेंट करना कभी अच्छा नहीं लगता। फूल पौधे पर खिले रहें तो अन्तिम समय तक सुरभि बिखेरते हैं और उन की सुंदरता बनी रहती है। सजावट के काम में लेना तो वह बर्दाश्त कर लेती है लेकिन भेंट करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता। कुछ ही देर में बेकार हो जाते हैं। उस का यह कहना मुझे अच्छा लगा और मैं उसे मुबारकबाद देना ही भूल गया।  
शाम को उस का फोन आया तो भारत-आस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच आधा हो चुका था। वह बताने लगी कि उस के सहपाठियों ने उसे जन्मदिन मुबारक कहते समय उसे मजाक में भाई कह कर संबोधित किया। अन्य ने पूछा कि लड़की भाई कैसे हो सकती है? उन का कहना था कि हो सकती है, यदि वह सब पर अपना दबदबा बना कर रख सके। पहले वे लोग उसे झाँसी की रानी कहते थे। उस ने मुझ से ही प्रश्न कर डाला कि उस के साथी उसे ऐसा क्यों कहते हैं? जब कि वह तो किसी से कभी झगड़ती भी नहीं है। मैं ने उसे कहा झाँसी की रानी झगड़ालू नहीं जुझारू थी। शायद ऐसा ही तुम में भी उन ने कुछ देखा हो और कहने लगे हों। उधर भारत की पारी शुरू हो गई और वह अपनी मकान मालकिन के साथ क्रिकेट देखने लगी। बता रही थी कि वे हर वह मैच देखती हैं जिसे भारत खेल रहा हो। इन्हीं बातों के बीच मैं फिर उसे जन्मदिन की मुबारकबाद देना भूल गया। 
रात के क्रिकेट मैच खत्म होते ही फोन की घंटी बजी तो बेटी ही थी। इस बार मैं फिर मुबारकबाद देना न भूल जाऊँ, मैं ने सब से पहले उसे 'हैप्पी बर्डे' कह दिया। भारत की जीत से वह प्रसन्न थी। उस ने पूछा -मुझे जन्मदिन की बधाई दे रहे हो, या मैच जीतने की? मैं ने कहा -बधाई तो जन्मदिन की ही दे रहा हूँ, जीत को तो तुम तोहफा समझो भारतीय टीम की ओर से। फिर वह मैच की बात करने लगी, -बीच में तो लग रहा था कि भारत हारा! लेकिन रैना ने मैच जिता दिया। मैं ने पूछा, युवराज का कुछ नहीं? तो कहने लगी। युवराज तो मैन ऑफ मैच है ही। पर मैच तो असल में रैना ने जिताया। वह इतना अच्छा साथ न देता तो? इस बात पर हम दोनों सहमत थे।
विश्व चैम्पियन पर जीत